कवितायें -रोचिका शर्मा

      अटूट बंधन के दीप महोत्सव ” आओ जलायें साहित्य दीप के अंतर्गत आज पढ़िए रोचिका शर्मा की तीन कवितायें बलात्कार : एक सवाल , बाल श्रम व् आओ नयी एक पौध लगायें |  बलात्कार  ! एक सवाल आज फिर अख़बार था चीखता , हो गया बलात्कार कहीं कोई ओढ़ कर चादर बेहयाई की , अपनी हवस बुझा गया फिर कोई नारेबाज़ी शुरू हो गयी , बैठे संगठन अनशन पे लगे उछालने कीचड़ नेता , विपक्ष दलों के दामन पे कहीं हो रही कानाफूसी , क्यूँ लड़की को दी थी छूट इतनी कर रहे टिप्पणी पहनावे पर, वह पहनती  थी स्कर्ट मिनी सबने अपने मन की गाई , बिन जाने हालात हादसे के नुची देह मीडिया ने दिखाई , न दिखे चिथड़ेउसकी  रूह के घिनौने सवाल अदालत ने पूछे , दिल का दर्द न पूछे कोई थक कर मात-पिता  भी कोसें , तू पैदा इस घर क्यूँ होई क्यूँ लगती न झड़ी इन प्रश्नों की , न उठती उंगली उस वहशी पर क्यूँ अदालत रहे उसे बचाती, झूठे वकीलों की दलीलों पर ये कैसा अँधा क़ानून है , जो पैरवी उसकी करता है आँखों पे पट्टी बाँध के वो, बलात्कार दूसरा करता है क्या एसी कोई पुस्तक है, जो जंगल राज को न माने मानवता का पाठ पढ़ा दे , नारी को इंसान सा जाने फिर कैसे किसी विक्षिप्त मस्तिष्क में , बलात्कार के भाव उठें बहिन-बेटियों पर बुरी नज़र से, रोम-रोम भी काँप उठे ए ! न्याय के रखवालों जागो ,साहित्यकार तुम कलम उठाओ लिख दो क़ानून  किताबें एसी , बलात्कार पर सवाल उठाओ  बाल-श्रम आसमान में टूटा तारा,देख-देख सब ने कुछ माँगा मेरी आस का तारा  टूटा ,ग्रहण  मेरे जीवन में लागा                                                   साया पिता कारहा न सर पे, करे न दया दौलत का समाज रोटी,कपड़ा,मकान को तरसा,बचपन ,उदास गीतों का साज़ एक ग़रीब की दुखियारी माँ,लगी काम बच्चों को छोड़ छूटी पढ़ाई ,रोटी न मिलती,महँगाई बढ़ रही दम तोड़ सुन रुदन छोटी बहना का, रहा गया न मुझसे आज सोचूँ घुट-घुट अँधियारे में ,क्यूँ न करूँ मैं भी कुछ काज निकल पड़ा हूँ खोज में मैं ,हो जाए गर कुछ जुगाड़ रोटी मिले दो वक़्त की मुझको,छोटी का जीवन उद्धार फिरता हूँ मैं मारा-मारा, सड़कों, चौराहों ,दुकानों में आज तड़प रहा हूँ भूख ,प्यास से,हे ईश्वर क्या तू नाराज़ ? भूखे-नंगों का न कोई सहारा, कटे पंख,न चढ़े परवाज़ बाल-मजूरी बहुत बुरी है,फिर भी मुझको प्यारी आज अरमानों का गला घोंट लूँ, बुझती ज्यूँ दीपक से ज्योति जूते पोंछूँ या बोझ उठाऊं ,चिंता सुबहो-शाम सताती आओ मिल जाएँ हम सब,करें जहाँ का नव-निर्माण कोई बच्चा न भूखा जग में,शिक्षा ग़रीब-अमीर समान पढ़ा-लिखा बढ़ाएँ आगे, देश का ऊँचा नाम उठाएँ इक-इक बूँद भर जाए सागर,बाल श्रमिक कानाम मिटाएँ                              चलो इक पौध नयी लगायें                                                 सत्य, अहिंसा के बीज से रोपित सदाचार की धार से सिंचित मानवता की खाद से पोषित प्रेम भाव के पुष्पों से शोभित चलो इक पौध नयी लगाएँ विभिन्न जाति की कलमों का संगम दया-धर्म के संस्कार का बंधन बैर-भाव के काँटों की न चुभन अपने-परायों की शाख का खंडन चलो इक पौध नयी लगाएँ भारत भूमि में जड़ें फैलाती हिमालय तक शाख पहुँचती शांति की छाँव जो देती बापू के स्वपनों की खेती चलो इक पौध नयी लगाएँ स्वदेशी  की फसल लहलहाए ईमानदारी की खुश्बू मह्काये भाईचारेकी कोंपल फूटे अमन-चैन के फल बरसाए चलो इक पौध नयी लगाएँ रोचिका शर्मा                                   

करवाचौथ का उपवास

करवाचौथ … क्या ये उपवास लोटा सकता है ? उस विधवा के मांग का सिंदूर जो कुछ दिन पहले सीमा के पास रह रहे उस नवेली दुल्हन की सितारो वाली चुंदङी उङा कर ले गये क्या ये उपवास लोटा सकता है? उस सुहागन का मांग टीका जो बिना किसी कारण शिकार  बना उन दंगो का जिससे उसका दूर दूर तक कुछ लेना देना भी न था क्या ये उपवास लोटा सकता है? उस औरत का विश्वास जो किसी परनारी पर आंख रख बेठे अपने पति की वफादारी को पढ भी नही पाती क्या ये उपवास लोटा सकता है उस बहन का सुहाग जो गल्ती से पेट की खातिर सीमा पार कर चल पङे पर सालो साल बंदी रहे बिना किसी अपराध घुट घुट…तिल तिल कर मरे क्या ये उपवास लोटा सकता है? उस बहन का सिंदूर जो सीमा पर लङने हेतु भेज गई अपने सिदूंर को ताकि महफूज रहै लाखो बहनो का सिंदूर करते तो हम सभी है इस उपवास पर विश्वास पर … क्या ये उपवास लोटा सकता है? वो अधूरी आस जिसके लिये न भूख लगे ना प्यास बस जिवित रहता है एक अहसास …कि ना छुटे विश्वास एकता सारदा सूरत (गुजरात)

अटल रहे सुहाग : (करवाचौथ स्पेशल ) – रोचिका शर्मा की कवितायें

“एक झलक चंदा की “ ए, बदली तुम न बनो चिलमन हो जाने दो दीदार दिख जाने दो एक झलक उस स्वर्णिम सजीले चाँद की दे दूं मैं अरग और माँग लूँ  संग मेरे प्रिय का यूँ तो हर दिन माँग लेती हूँ साथ उनका जन्म-जन्मान्तर तक किंतु आज की रात है अनूठी की है मैं ने तपस्या लगा मेहंदी ,पहन चूड़ा , कर सौलह सृंगार , हो जाने दो पूरी इसे मत डालो तुम अड़चन हो जाने दो मेरी शाम सिंदूरी , महक जाने दो मेरे मन की कस्तूरी एसा नहीं कि तुम पसंद नहीं मुझे तुम्हारा है अपना विशेष स्थान तुम भी हो उतनी ही प्रिय किंतु बस आज मत लो इम्तहान मेरे धैर्य का सुन लो मेरी अरज क्यूँ कि बिन चंदा के दर्शन के तपस्या है अधूरी न लूँगी अन्न का दाना मुख में जब तक न देखूं उसकी छवि तुम छोड़ दो हठ और ले लो इनाम क्यूँ कि किया है व्रत मेरे सजना ने भी  करवा चौथ का…..    2 …………….               ए  चाँद ए  चाँद , तुम कर लो अपनी गति कुछ मद्धम ठहरो क्षण भर को आसमान में न छुप जाना बादलों की ओट में क्यूँ कि , मेरा चाँद कर रहा है सौलह शृंगार उसके छम-छम पायल का संगीत देता है सुनाई मुझे उसके पद्चापो संग और हाँ तुम कर लो बंद द्वार अपने नयनों की खिड़की के क्यूँ कि उसके स्वर्णिम मुख की आभा  देख कहीं तुम भर न जाओ ईर्ष्या से या लग न जाए तुम्हारी नज़र उसे ले लो राई-नून तुम अपने हाथों में ताकि उँवार सको उसके उपर , बस चन्द लम्हों  की प्रतीक्षा उठ जाने दो घूँघट उसका वह भी रखे है व्रत देनी है उसे भी अरग और करनी है तुम्हारी पूजा एक तुम ही तो हो उसकी आस जब मैं न हूँ आस-पास लेती है तुम्हें निहार और भर लेती है कुछ पल अपनी अंजूरी में आगमन के एहसास के और तकने लगती है राहें मेरी………                    रोचिका शर्मा,चेन्नई डाइरेक्टर,सुपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी

अटल रहे सुहाग : ,किरण सिंह की कवितायें

                      करवाचौथ पर विशेष ” अटल रहे सुहाग ” में  आइये आज पढ़ते हैं किरण सिंह की कवितायें …….. आसमाँ से चाँद आसमाँ से चाँद फिर लगा रहा है कक्षा देना है आज हमें धैर्य की परीक्षा सोलह श्रॄंगार कर व्रत उपवास कर दूंगी मैं  तुझे अर्घ्य मेरी माँग पूरी कर उग आना जल्द आज प्रेम का साक्षी बन बड़ी हठी हैं हम तोड़ूंगी नहीं प्रण अखंड सौभाग्य रहे तू आराध्य रहे परीक्षा में पास कर हे चंदा पाप हर अटल रहे सुहाग हमारा  ****************** सुनो प्रार्थना चांद गगन के रूप तेरा नभ में यूं चमके बिखरे चांदनी छटा धरा पर माँग सिंदूर सदा ही दमके पूजन करे संसार तुम्हारा अटल रहे…………………. तू है साक्षी मेरे प्रेम की दिया जलाई नित्य नेह की अर्घ्य चढ़ाऊंगी मैं तुझको करो कामना पूरी मन की जग में हो तेरा जयकारा अटल रहे…………………. पति प्रेम जीवन भर पाऊँ सदा सुहागन मैं कहलाऊँ सोलह श्रृंगार कर मांग भरे पिया जब मैं इस दुनियां से जाऊँ पुष्प बरसाए सितारा अटल रहे………………… भूखी प्यासी मैं रही हूँ शीत तपन को मैं सही हूँ चन्द्र दया कर उगो शीघ्र नभ क्षमा करना यदि गलत कही हूँ मेरा पति है तुझसे प्यारा अटल रहे………………… किरण सिंह .

मीना कुमारी की बेहतरीन गजलें

                                        ट्रेजिडी क्वीन मीना कुमारी जी के अभिनय का भला कौन मुरीद न होगा | पर परदे  की ट्रेजिडी क्वीन मीना कुमारी की निजी जिंदगी भी दुखों से भरी थी | इन्हीं ग़मों को जब वो कागज़ पर उतारती जो जैसे हर शब्द आँसुओ से भीगा हुआ लगता | उनकी वेदना पढने वाले को अन्दर तक झकझोर देती | ये कहना  अतिश्योक्ति नहीं होगी की वो जितनी अच्छी अदाकारा थी उतनी ही अच्छी ग़ज़ल कारा भी | आज हम उनकी कुछ चुनिन्दा गजलें आप के लिए लाये हैं …….. पढ़िए और शब्दों की गहराई में डूब जाइए  चाँद तन्हा है आसमान तन्हा चाँद तन्हा है आसमान तन्हा  दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा  बुझ गई आस छुप गया तारा   थर-थराता रहा धुंआ तन्हा ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं जिस्म तन्हा है और जान तन्हा  हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं  दोनों चलते रहे तन्हा तन्हा  जलती बुझती सी रौशनी के परे सिमटा सिमटा सा एक मकान तन्हा राह देखा करेगा सदियों तक  छोड़ जायेंगे ये जहां तन्हा यूं तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे   यूं तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे काँधे पे अपने रख के अपना मज़ार गुज़रे   बैठे रहे हैं रास्ता में दिल का खंडहर सजा कर   शायद इसी तरफ से एक दिन बहार गुज़रे   बहती हुई ये नदिया घुलते हुए किनारे   कोई तो पार उतरे कोई तो पार गुज़रे   तू ने भी हम को देखा, हमने भी तुझको देखा   तू दिल ही हार गुज़रा, हम जान हार गुज़रे  पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है   रात खैरात की सदके की सहर होती है   सांस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब   दिल ही दुखता है न अब आस्तीन तर होती है   जैसे जागी हुई आँखों में चुभें कांच के ख़्वाब   रात इस तरह दीवानों की बसर होती है   गम ही दुश्मन है मेरा, गम ही को दिल ढूँढ़ता है   एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है   एक मरकज़ की तलाश एक भटकती खुश्बू   कभी मंजिल कभी तम्हीद-ए-सफ़र होती है   मायने: मरकज़=फोकस करना; तम्हीद=आरम्भ  हाँ, कोई और होगा हाँ, कोई और होगा तूने जो देखा होगा हम नहीं आग से बच-बचके गुज़रने वाले न इन्तज़ार, न आहट, न तमन्ना, न उम्मीद ज़िन्दगी है कि यूँ बेहिस हुई जाती है इतना कह कर बीत गई हर ठंडी भीगी रात सुखके लम्हे, दुख के साथी, तेरे ख़ाली हात हाँ, बात कुछ और थी, कुछ और ही बात हो गई और आँख ही आँख में तमाम रात हो गई कई उलझे हुए ख़यालात का मजमा है यह मेरा वुजूद कभी वफ़ा से शिकायत कभी वफ़ा मौजूद जिन्दगी आँख से टपका हुआ बेरंग कतरा तेरे दामन की पनाह पाता तो आँसू होता सुबह से शाम तलक सुबह से शाम तलक दुसरों के लिए कुछ करना है जिसमें ख़ुद अपना कुछ नक़्श नहीं रंग उस पैकरे-तस्वीर ही में भरना है ज़िन्दगी क्या है, कभी सोचने लगता है यह ज़हन और फिर रूह पे छा जाते हैं दर्द के साये, उदासी सा धुंआ, दुख की घटा दिल में रह रहके ख़्याल आता है ज़िन्दगी यह है तो फिर मौत किसे कहते हैं? प्यार इक ख़्वाब था, इस ख़्वाब की ता‘बीर न पूछ क्या मिली जुर्म-ए-वफ़ा की ता‘बीर न पूछ ये रात ये तन्हाई  ये रात ये तन्हाई  ये दिल के धड़कने की आवाज़  ये सन्नाटा  ये डूबते तारों की   खामोश ग़ज़ल-कहानी  ये वक़्त की पलकों पर  सोती हुई वीरानी  जज़्बात-ए-मुहब्बत की   ये आखिरी अंगडाई    बजती हुई हर जानिब  ये मौत की शहनाई  सब तुम को बुलाते हैं  पल भर को तुम आ जाओ  बंद होती मेरी आँखों में  मुहब्बत का  इक ख़्वाब सजा जाओ  टुकड़े-टुकड़े दिन बीता टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली रिमझिम-रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज़ सुनी जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे जलती-बुझती आँखों में, सादा-सी जो बात मिली       आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा  आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा   वरना आंधी में दिया किस ने जलाया होगा   ज़र्रे ज़र्रे पे जड़े होंगे कुंवारे सजदे   एक एक बुत को खुदा उस ने बनाया होगा   प्यास जलते हुए काँटों की बुझाई होगी   रिसते पानी को हथेली पे सजाया होगा   मिल गया होगा अगर कोई सुनहरी पत्थर   अपना टूटा हुआ दिल याद तो आया होगा   खून के छींटे कहीं पोछ न लें राहों से   किस ने वीराने को गुलज़ार बनाया होगा  आबलापा=जिसके पैरो में छाले हो, दश्त=जंगल  समस्त चित्र गूगल से  प्रस्तुत सभी शायरी गुलज़ार द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘मीना कुमारी की शायरी‘ से साभार ली गयी है.

अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस परिचर्चा में शामिल कवितायों की लड़ी

                                                 अटूट बंधन ने अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस पर एक परिचर्चा आयोजन किया था | परिचर्चा का विषय था ” चलो चले जड़ों की ओर ” | इसमें   भाग लेने वाले सभी रचनाकारों की कविताओ को हमने एक लड़ी में पिरोकर एक भावविभोर कर देने वाली माला का निर्माण किया है | इसमें आप पढेंगे ………रश्मि प्रभा , विनीता शुक्ला ,शैल अग्रवाल , भावना सिन्हा , चन्द्रकान्ता सिवाल ,विभा रानी श्रीवास्तव , डॉली अग्रवाल ,डॉ भारती वर्मा बौड़ाई ,प्रकाश प्रलय , अनीता मिश्र , विवेक सिसौदिया , एकता शारदा , अल्पना हर्ष , रमा द्विवेदी ,तुकाराम वर्मा, डिंपल गौड़ ‘ अनन्या ‘ दीपिका कुमारी दीप्ति ,  रोचिका शर्मा व् वंदना बाजपेयी की कवितायें ……….. माँ और पिता हमारी जड़ें हैं और उनसे निर्मित रिश्ते गहरी जड़ें जड़ों की मजबूती से हम हैं हमारा ख्याल उनका सिंचन … पर, उन्नति के नाम पर आधुनिकता के नाम पर या फिर तथाकथित वर्चस्व की कल्पना में हम अपनी जड़ों से दूर हो गए हैं दूर हो गए हैं अपने दायित्वों से भूल गए हैं आदर देना … नहीं याद रहा कि टहनियाँ सूखने न पाये इसके लिए उनका जड़ों से जुड़े रहना ज़रूरी है अपने पौधों को सुरक्षित रखने के लिए अपने साथ अपनी जड़ों की मर्यादा निर्धारित करनी होती है लेकिन हम तो एक घर की तलाश में बेघर हो गए खो दिया आँगन पंछियों का निडर कलरव रिश्तों की पुकार ! ‘अहम’ दीमक बनकर जड़ों को कुतरने में लगा है खो गई हैं दादा-दादी नाना-नानी की कहानियाँ जड़ों के लिए एक घेरा बना दिया है हमने तर्पण के लिए भी वक़्त नहीं झूठे नकली परिवेशों में हम भाग रहे गिरने पर कोई हाथ बढ़ानेवाला नहीं आखिर कब तक ? स्थिति है, सन्नाटा अन्दर हावी है , घड़ी की टिक – टिक……. दिमाग के अन्दर चल रही है । आँखें देख रही हैं , …साँसें चल रही हैं …खाना बनाया ,खाया …महज एक रोबोट की तरह ! मोबाइल बजता है …,- “हेलो ,…हाँ ,हाँ , बिलकुल ठीक हूँ ……” हँसता भी है आदमी ,प्रश्न भी करता है … सबकुछ इक्षा के विपरीत ! ………………. अपने – पराये की पहचान गडमड हो गई है , रिश्तों की गरिमा ! ” स्व ” के अहम् में विलीन हो गई है ……… सच पूछो, तो हर कोई सन्नाटे में है ! ……..आह ! एक अंतराल के बाद -किसी का आना , या उसकी चिट्ठी का आना …….एक उल्लसित आवाज़ , और बाहर की ओर दौड़ना ……, सब खामोश हो गए हैं ! अब किसी के आने पर कोई उठता नहीं , देखता है , आनेवाला उसकी ओर मुखातिब है या नहीं ! चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ? -मोबाइल युग है ! एक वक़्त था जब चिट्ठी आती थी या भेजी जाती थी , तो सुन्दर पन्ने की तलाश होती थी , और शब्द मन को छूकर आँखों से छलक जाते थे ……नशा था – शब्दों को पिरोने का ! …….अब सबके हाथ में मोबाइल है …………पर लोग औपचारिक हो चले हैं ! ……मेसेज करते नहीं , मेसेज पढ़ने में दिल नहीं लगता , या टाइम नहीं होता ! फ़ोन करने में पैसे ! उठाने में कुफ्ती ! जितनी सुविधाएं उतनी दूरियाँ समय था …….. धूल से सने हाथ,पाँव, माँ की आवाज़ ….. “हाथ धो लो , पाँव धो लो ” और , उसे अनसुना करके भागना , गुदगुदाता था मन को ….. अब तो !माँ के सिरहाने से , पत्नी की हिदायत पर , माँ का मोजा नीचे फ़ेंक देता है बेटा ! क्षणांश को भी नहीं सोचता ” माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ……” …….सोचने का वक़्त भी कहाँ ? रिश्ते तो हम दो ,हमारे दो या एक , या निल पर सिमट चले हैं …… लाखों के घर के इर्द – गिर्द -जानलेवा बम लगे हैं ! बम को फटना है हर हाल में , परखचे किसके होंगे -कौन जाने ! ओह !गला सूख रहा है …………. भय से या – पानी का स्रोत सूख चला है ? सन्नाटा है रात का ? या सारे रिश्ते भीड़ में गुम हो चले हैं ? कौन देगा जवाब ? कोई है ? अरे कोई है ? जो कहे – चलो चलें अपनी जड़ो की ओर … रश्मि प्रभा जीवन की संध्या में एकाकीपन ढोते हँसते हँसते यूँ ही दो आंसू रो देते सघन झुर्रियों मेंअवसादों की छाया हैबोझिल सी सांसों मेंजीने की माया हैतिनके तिनके बिखरेनीड़ कहीं छूट गयासपने बुनते- बुनतेहर सपना रूठ गयासुधियों के स्पंदन हीदिल की धड़कन हैं.इनकी बेजारी सेखुशियों की अनबन हैदीन हीन वृद्ध यहाँ हैंसुख दुःख के साथीअस्त व्यस्त भेस,इन्हें बेतरतीबी भातीचरमरा रहा हड्डी काजर्जर ढांचा हैचांदी से केशों नेसब विषाद बांचा हैछलिया रिश्तों से टूटाजुड़ाव इनका हैवृद्धाश्रम ही अबअंतिम पड़ाव इनका है विनीता शुक्ला  जड़ों के बिना जीवन नहीं, फलना फूलना नहीं जानें जबतक अक्सर जड़ें सूख जाती हैं एक बार फिर से जीना सीखा है मां-बाप के जाने के बाद एक एक बात में याद बनकर वे रहते सदा मेरे साथ।। निरंतर बूढ़ी कांपती आवाज बुलाती थी रोज दूर बहुत दूर से और रोज ही चुपचाप… मन सात समंदर उड़ता चरणों तक हो आता था बहुत मन दुखाया पर तुमने सदा गले लगाया धूप छांव सा यह रिश्ता आज भी तो छतरी–सा ही तना आशीष, एक याद बना निरंतर छांव देता… तुम थे, हो मेरे साथ ! -शैल अग्रवाल मां,,,,,,, सूनो ना सूनो ना मांकहां हो तुमआज स्कूल में ,,,,,,,,,स्कुल से वापस आते ही खोजती है बेटी मुझकोऔर —फिर शुरू होती हैघंटो तक ना खत्म होने वा्लीउसके दोस्तों की मीठी मीठी बातदरअसल , बच्चे चाहते हैं करनाहमसे अपनी भावनाओं का सम्प्रेषणरोज रोजव्यस्त दिनचर्या मेंहमारे पास भीकहां होता इतना वक्तउसकी नादान बातों के लियेभेज देती हूंदादाजी के पास जी हां ! दादाजी जिनके पास है ज्ञान और अनुभव का है विशाल भंडार या यूं कहें दादाजी हैं विकिपीडीया! गणित का कोई कठिन प्रश्न हो या दोस्तों के संग लड़ाई झगड़े के मसले दादाजी धैर्य पूर्वक सुनते हैं और ढुंढ ही लेते हैं सभी समस्याओं का हल यूं भी आधुनिक जीवन शैली ने … Read more

तृप्ति वर्मा की कवितायेँ

1 –   मेरी वृद्ध माँ        -×-×-×-×-×-×- उम्र के सारे पद चिन्हों को पार कर आँखो में आशाओं के अश्रु लिए माँ कहती …। मेरे वो हरे भरे बागीचे सूख रहे जिन्हें रोपती, सींचती थी मैं..। रंग बिरंगे फूलों से सजाती बदलते मौसम से बचाती थी मैं…। अब उन पंछियों ने भी अपना बसेरा कही ओर बना लिया, जो कभी शाखाओं पर चहचहाया करते थे । अब पेडों पर लगा वो फल ताकता मुझे सन्नाटे से । अब बागीचे में लगा वो झूला कभी हँसता नहीं । अब द्वार पर सजती रंगोली, दीप की जगह बैठी मैं ताकती ..। मैं पूछतीं, माँ ऐसा क्यों ? माँ आशाओं से भरे स्वर में कहती, जो सूख रहा बागीचा, वो मेरा परिवार है, जिसे सींचा था मैंने वर्षो लगन से । जो बसेरा बदलते पंछी, वे मेरे बेटे , जो लुप्त हुए बाहुल्य लोभ में…। वे रंग बिरंगे फूल मेरे नाती पोते, जो खिलते थे मेरी दुलार से…। अब झुलसते है प्रतिष्पर्धा के ताप से….। जिन फलों पर कभी वे लपकते थे, वे फल ताक रहे सन्नाटे से…। वे झूले जो स्पर्श से ही हस देते, खडे आज उदासी से…। इसलिए मैं ताकती द्वार पर, उस सावन की आश में , जिसकी बूँदे हरियाली दे, मेरे सूखते परिवार में…।                                  2- मन की उत्सुकता       -×-×-×-×-×-×-×-×- मैं अपने घर के चौखट पर खडी, खुद को बाहर निहारती और खोजती…। क्या हूँ मैं, कहा हूँ मैं…? अपने अस्तित्व को तलाशती, पूछती क्या मैंने वो पाया जो चाहा….। तभी एक आवाज आती, वो था मेरा मन, जो व्याकुलता से मेरी आँखों से झांक रहा था, जो खुद को बांधे, चौखट पर खडा बाहर निकलने को उत्सुक था । मैं जैसे ही मन को लिए बाहर आती, कुटुम्ब की आहट मुझे रोक लेती, मानो अनेको जिम्मेवारी, कर्तव्य, पहरेदार बने चौखट पर खडे हो….। मैं मन को आँखों में कैद कर लेती, खुद को चौखट के भीतर समेट लेती, मानो उडने की उत्सुकता लिए नवजात पंछी, जो गिरने के भय से घोसले में छिप जाता…..।                                                                     3 – चिंगारी    -×-×-×-×- हम फूल ना बने, फूलों में लगा वो कांटा बने. …। हम पत्थर नहीं उनकी रगड से पैदा वो चिंगारी बने…। हम वो बेटी बने जो कुरबानी दे परिवार के लिए….। हम वो पत्नी बने, जो चले पति की परछाई बन. …। हम वो बेटी की माँ बने जो सिखाएं उन्हें निर्भयता, संस्कार, हिम्मत, और आत्मविश्वास …। हम वो बेटों की माँ बने, जो सिखाएं उन्हें  संस्कार ,संवेदनशीलता , सम्मान देना….। ताकि बने वो जब भाई, पति, दोस्त या उच्चाधिकार, तो ना करें किसी महिला के साथ दुराचार. …। जब भी बात हो महिला दुराचार की पुरूष ही बनता मुख्य किरदार. …। क्यो ना हम उस जड में जाए जब जन्मे माँ पुत्र तो कानो में प्रभु के नाम से पहले महिला सम्मान के मंत्र सुनाएँ…..। क्योंकि जब महिला सम्मान हैं जाता, तो प्रभु भी वहां अदृश्य हो जाता. …।                                            4 – हाँ मुझे प्रेम है    -×-×-×-×-×-×-×- जब नारी अधिवेशन किसी मंच पर, असंख्य लोगों के बीच. …। छिपा ना सके नारी अपने भाव और बोले बेबाक….। तभी तंग विचार ग्रस्त हस्ताक्षेप करे मानों बिन बुलाए मेहमान. …। बांधे नारी लाज, हद, परिचय की गठरी, बरसाए ज्ञान मेह बिन तुफान. …। तभी तीव्र वेग बहते नारी के भाव, उडा ले जाती मेह की छीटों को, और कहती …….।        हाँ मुझे प्रेम हैं नारी के स्वतंत्र उडान से,        हाँ मुझे प्रेम हैं नारी के बेबाक अंदाज से,          हाँ मुझे प्रेम हैं नारी के मीरा, झाँसी की         रानी शैली से ,        हाँ मुझे प्रेम हैं नारी के वात्सल्य रूप से,        हाँ मुझे प्रेम हैं….। प्रेम हैं….। प्रेम हैं. …।                                                                                                                                                                        5 –  मेरी सुलह      -×-×-×-×-×-     जब भी तुम्हे सोच उठती हूँ ,     जरा तुमसे बात कर लूँ ,     पर शब्द गुम हो जाते,     उंगलियां खुद ही उठती ,     तुम्हें संदेश लिखने को,     पर वे थम से जाते…..।     अब जब भी तुमसे बात     करने का ख्याल आता,     दिल सहम जाता….।     वह पहले दिन की मुलाकात से     आज तक के संवाद में,     मैं केवल व्यंग पाती अपने लिए….।     तुम्हें व्यंग लगता मेरा प्रेम,     जो फूटता है तुम्हारे शब्दों से,     जो असहनीय हो चला मेरे लिए,     तुम्हारे सम्मुख होना मेरे खुद     के अंत का सबब ना बने,     क्योंकि एकतरफा प्रेम मेरा हैं     तुम्हारे लिए. …।     इसलिए तुम्हें अपने ख्वाबों,     ख्यालों में बसा लिया. ….।     वहीं तुमसे बाते, मुलाकातें कर     लेती हूँ क्योंकि वहाँ मैं बोलतीं    और तुम अनुरागी नैनो से निहारते     मुझे, कम से कम ये भ्रम तो मुझे     जीने की वजह देती हैं. …।     यही सुलह मैंने की है तुमसे…..।                                           तृप्ति वर्मा atoot bandhan editor.atootbandhan@gmail.com      

अनुपमा सरकार की कवितायें

                                                                                                                                                                                                 तब्दीली यूं ही बैठे-बैठे ख्याल आया क्या हो गर बर्फ की चादर बिछ जाए उस तारकोल की सड़क पर क्या हो गर वो सूरज भूल जाए रोज़ पूरब से खिलखिलाना चांद न चमके पूनम पर तारों का खो जाए फसाना शिवली झरना छोड़ दे बरगद की दाढ़ी बढ़ना बंद हो जाए पीपल पर फूल खिलें गुलमोहर के पत्ते खो जाएं थम जाए नदियां तालाब बहने लगे ज्वालामुखी शीतल हो जाए बादल आग उगलने लगे क्या हो गर भूल कर अपना पता दरवाज़े चलने लगें दीवारों के पंख लग जाएं पंछी छतों पर जम जाएं जंगल शहर में बस जाएं गाँव टापुओं में बदल जाएं शायद तबाही कहोगे तुम इसे पर क्यों भला केवल नाम ही तो बदले हैं दुनिया चलती रहेगी वैसी ही कहीं कोई तब्दीली नहीं ! 2.       आज़ाद ये ऊंची दीवारें लोहे के जंगले घुमावदार सीढियां क्या महानगर में बस यही बचा दड़बों में ठूंसा इंसान दम तोड़ती जीने की आशा सोच रही थी कैसी आज़ादी कैसा जश्न कैसा ये तमाशा यही विचारते आंगन में चली आई तुलसी के खिलते बीज देख हौले से मुस्काई यकायक नज़र गई आसमान पे उड़ रहे थे वहां असंख्य घोड़े उन्मुक्त गगन में सफेद पंख फैलाए बिन आहट बिन चिल्लाहट जैसे आक्रमण करने चले आए पर ध्यान से देखा तो शांतिदूत थे पवन की शीतल मलहम भी साथ लाए धीमे धीमे से चहलकदमी करते पत्ते मधुर सा संगीत कानों में उड़ेलने लगे ढहने लगी दीवारें जंगले पिघलने लगे और वो घुमावदार सीढ़ियां चमक उठीं मानो चांद के ही पार जाने को हो बनीं समय वही जगह वही बस नज़र फर्क हो गई आज़ाद है प्रकृति स्वतंत्र ये मन ये बात आज पुख्ता हो गई ये बात आज पुख्ता हो गई 3.       बादल बिजली बादलों संग चमचमाती बिजलियाँ भूल जाती हैं अक्सर परस्पर साथ रहते भी दोनों जुदा हैं हमसफर नहीं बस हमनुमा हैं! बादल धुआं-धुआं बन बिखरने को बने हैं कभी हवा संग मदहोश आवारा से कभी बूंदों संग अल्हड़ बरखा से गरजते बरसते पल-पल जगह बदलते। रूप रंग आकार विभिन्न पर नियति बस वही भाव विभोर हो बह जाना भाव विहीन हो उड़ जाना! चंचल दामिनी इससे ठीक उलट बस पल भर की मेहमान यकायक चमकती फिर हो जाती फना जैसे न कोई वज़ूद था न होगा क्षण भर का जीवन फिर लापता। बस मेघों को चिटकाने ही आती हो ज्यों फिर न अस्तित्व न विचार बस शून्य में गुम! संगिनी होकर भी जुदा शक्ति होते भी अर्थहीन बादल-बिजली हमेशा आसपास पर संग कभी नहीं। 4.       सागर सा आसमां सागर सा लगा आज आसमां बादलों की लहरों से छितरा। कभी अपने पास बुलाता कभी भोले मन को डराता। अजब उफान था रूई के उन फाहों में सिमट रहा हो दिनकर ज्यों कोहरे की बांहों में। धुंआ सा फैला चहुँ ओर उम्मीदों का अरमानों का और.. और शायद आने वाले तूफानों का आखिर, आसमां में कश्ती चलाना कोई आसां तो नहीं! अनुपमा सरकार  नाम :     अनुपमा सरकार इमेल :    anupamasarkar10@gmail.com वेबसाइट : www.scribblesofsoul.com पत्रिकाएं व् समाचारपत्र   :  उपासना समय, भोजपुरी पंचायत,डिफेंडर, भोजपुरी जिनगी, आकाश        हम शिक्षा के मंदिरों में, कई वर्षों की साधना के बाद भी जो ज्ञान अर्जित नहीं कर पाते, कभी कभी किसी किताब के कुछ पन्नों में ही पा जाते हैं। मुंशी प्रेमचन्द जी की ‘निर्मला‘ मेरे लिए जीवन का सही रूप दिखाने वाला ऐसा ही दर्पण साबित हुआ।टैगोर और शरतचंद्र के उपन्यासों ने पढ़ने समझने की चाहत को हवा दी और जाने अनजाने मैं भी कविताएँ कहानियाँ गढ़ने लगी। अपने इस शौक की पूर्ति के लिए विगत 4 सालों से scribblesofsoul.com नाम का ब्लॉग भी चला रही हूँ। लेखन में कितनी त्रुटियाँ हैं, नहीं जानती पर शब्दों और भावों से प्रेम कूट कूट कर भरा है।  atoot bandhan

डायरियाँ – कविता ( वंदना बाजपेयी )

डायरियाँ जब -जब मैं दर्द और वेदना से भर उठी मेरी आह और कराह ढल गयी शब्दों में और किसी गहरे समुन्दर के मानिंद डूब गयी नीली डायरी के पन्नों में जो गहराता गया समय के साथ हर दर्द ,हर आह ,हर शब्द के साथ उसका रंग और ,और ,और नीला होता गया २ ) जब-जब मैं ख़ुशी और उत्साह से भर उठी मेरी हर मुस्कान ढल गयी शब्दों में और किसी ताज़ा गुलाब के मानिंद बिखर गयी लाल डायरी के पन्नों में जो महकता गया ,हर ख़ुशी के साथ उसका रंग और और और लाल होता गया ३) अक्सर देखती थी लोगों को लिखते हुए सुनहरी डायरी के पन्नों में लुभाती थी शब्द रचना जो सज जाती थी हर पन्ने पर किसी सुनहरे वर्क की तरह पर आह! घोर आश्चर्य कि शब्द चूर – चूर हो जाते छूते ही ये मायावी सुनहरी डायरियाँ रचती हैं तिलिस्म किसी सिंड्रेला की कथा का पर अफ़सोस कि यहाँ जूता ढूँढता राजकुमार नहीं होता होते सिर्फ जुते छोटे,बड़े,उससे बड़े, सबसेबड़े जिसमें फिट होती सुनहरी डायरियाँ होती पदोन्नति छोटे जूते से सब से बड़े तक मंजिल तक पहुँचते -पहुँचते रह जाता सिर्फ रंग वर्क से सजे शब्द कब के कुचल गए होते ४) भय से पलट कर देखती हूँ अपनी नीली व् लाल डायरियों को धैर्य से लेती हूँ एक लम्बी साँस उसमें लिखा एक- एक शब्द सुरक्षित है वो सुरक्षित रहेगा रहती दुनिया तक या शायद उसके बाद भी तैरेगा गैलेक्सियों के मध्य क्योंकि चमक फीकी पड़ सकती है पर भावनाएं …………………………… कभी नहीं वंदना बाजपेयी चित्र गूगल से अटूट बंधन

हाय रे ! प्याज ……. वंदना बाजपेयी

हैलो भईया। हाल ना पूछो मेरा भईया कैसे तुम्हें बताऊँ सब्जी मंडी में खड़ी हुई हूँ चक्कर खा गिर ना जाऊं। ठेले में सब्जी को देखकर आहें मैं भरती हूँ बचपन के वो प्याज भरे दिन याद किया करती हूँ। अस्सी  रूपये किलो प्याज हो गया एक सौ बीस  में सेब है आता इस दोनों में हो गया जैसे भाई – बहन का नाता। तन्खवाह तो बढती है भैया पर खर्च और बढ़ जाता इसीलिए तो आम आदमी आम ही रह जाता। सही कह गए ऋषि – मुनि  वेद  ऋचा में गाकर धर्म भ्रष्ट मत करना अपना प्याज लहसुन खाकर। दूरदर्शी थे वो पहले से ही  सब जानते थे प्याज की कीमत के भविष्य को सतयुग में भी पहचानते थे। अब पछताती हूँ क्यों मैंने बात ना उनकी मानी जाने कैसे शुरू हुई ये प्याज से प्रेम कहानी। ऐसा धोखा देगा मुझको समझ नहीं मैं पायी पहले काटने पर था रुलाता अब देख आँख भर आई। अबकी भईया रक्षा बंधन में जब मेरे घर आना तोहफे  के बदले साथ में अपने कुछ प्याज लेते आना। दो मुझको आशीर्वाद की रोज़ प्याज मैं खाऊं प्याज पकोड़े, प्याज की चटनी प्याज़ की दाल पकाऊं। अब रखती हूँ  भैया मुझको वापस घर भी है जाना खाली थैले से निकाल कर कुछ है आज पकाना। वंदना बाजपेयी  अटूट बंधन