आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (कुछ कवितायेँ )

                         आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद में पढ़िए नारी की मन : स्तिथि को उकेरते कुछ स्वर ……..इसमें आप पढेंगे  छवि निगम ,किरण सिंह ,रमा द्विवेदी ,संगीता पाण्डेय ,एस एन गुप्ता व् नीलम समनानी चावला की ह्रदय को उद्वेलित करती रचनायें  एक संदेश: एक कविता            —– लो भई,दी तुम्हे आज़ादी ,सच में लो की तुम पर मेहरबानी कितनी सर झुका रक्खो,औरआगे बढो़ न जाओ, जी लो तुम भी थोड़ा बहुत सच में अहसान किया ये तुम पर,ये सनद रहे। चलो दौड़ो छोड़ा तुम्हें सपाट दबोचती सडकों पर आज़ादी के पाट पग बाँधे ठिठको  तो मत अब ज़रा भी देखो पीठ पर कस कर चाबुक पड़े जो सह लो समझो तो जरा हैं तुम्हारे ही भले को ये, कसम से ऐसे ही तो रफ्तार बढ़े साँसे ले लो हाँ बिलकुल लेकिन जरा हिसाब से। दमघोंटू दीवारों में ही रह कसमसाओ सम्भाल के सुरक्षित रहना जरूरी है, समझो तो तुम धुएं के परदे  में छिपकर रहो उगाहो रौशनी वहीं सहेजो जा कर,जाओ तो तुम्हारे हिस्से की अगर कहीं कुछ होती हो तो। किसी नुकीले पत्थर पर पटक दी जाओ कभी पड़ी रहो चुपचाप करो बर्दाश्त सारी हैवानियते आराम से ,बेआवाज़… चीर दी भी जाओ तो क्या मरती रहो इंच दर इंच खामोशी से.. मरती रहो या फिर यूँ ही जीती रहो हौसले से.. जीती रहो का आशीष तुम्हारे नाम हुआ ही कब कहो? हाँ,अग्निपरीक्षा पर सदा का हक तुम्हारा हे सौभाग्यवती रास्ता कोई और कभी रहा ही नहीं पर सदा ही चौकस रहना इज्जत  हमेशा बची रहे कहीं कोई नाम न उछलने पाए किंचित भी ऐसा न हो कि फिर तुम बस एक चालू मुद्दा चौराहे की चटपटी गप्प बहसबाजी का चटखारा और आखिरकार… एक उबाऊ खबर बन कर ही रह जाओ। बेस्वाद बासी खबर की रद्दी सी बेच दी जाओ.. कि फिर केवल याद आओ तब जब भी  कहीं कोई और गुस्ताख कभी दरार से झांके, कुछ सांस ले थोड़ा सा लड़खड़ाये पर चले क्षीण सी ही, पर आवाज़ करे कालिख में नन्हा सा रौशनी का सूराख करे यूं कि फिर से नया एक मुद्दा बने। -डा0 छवि निगम २…………….. स्वयं ही रणचंडी बनना होगा -कविता  स्त्री के मन को इस देश में  कोई न समझ पाया है ? कितना गहरा दर्द ,तूफ़ान समेटे  है ?  अपने गर्भ में ,मस्तिष्क में  उसकी उर्वर जमीन में  बीज बोते समय  तुमने न उसे खाद दी  न जल से सींचा  अपने रक्त की हर बूँद से  उसने उसे पोसा  असंख्य रातें जगी  दुर्धर पीड़ा सहकर  उसने तुम्हें जन्मा  किन्तु उसे ही  कोई न समझ पाया ? जिसने मानव को बनाया ?  बीज काफी नहीं है  अगर भूमि उर्वरा न हो  तो बीज व्यर्थ चला जाता है  उसके तन -मन -ममत्व की आहुति से  कहीं एक शिशु जन्मता है  पोषती है अपने दुग्ध से  असंख्य रातें जागकर  अनेक कष्ट सहकर ,तब  उस शिशु को आदमी बनाती है फिर क्यों समाज में  उसे ही नाकारा जाता है ?  रसोई और बिस्तर तक ही  उसके अस्तित्व को सीमित कर  उसे `कैद ‘ कर दिया जाता है ।  खुली हवा में सांस लेने का  उसे अधिकार नहीं  आसमान का एक छोटा टुकड़ा भी  उसके नाम नहीं ,क्यों ? ??  यह पुरुष जिसकी हर सांस  उसकी ही दी हुई है  वही उसकी अस्मिता से  हर पल खेलता है   कभी दहेज़ की बलि चढ़ा कर ? कभी बलात्कार करके ?  कभी बाज़ार में बेच कर ?  कभी कोठे में बिठा कर ? कभी भ्रूण हत्या करके ?  क्या हमारे देश के पुरुष  इतने कृतघ्न हो गए हैं ?  कि  अपने समाज की स्त्रियों की  रक्षा भी नहीं कर सकते ? जब रक्षक ही भक्षक बन जाए  तब रक्षा का दूसरा उपाय ही क्या है ?  जब स्थिति इतनी विकट  हो  तब नारी को स्वयं ही  रणचंडी बनना  होगा  येन -केन -प्रकारेण  उसे स्वयं ही  अपनी अस्मिता की रक्षा करनी होगी  क्योंकि इस देश में  हिजड़ों की संख्या में  निरंतर वृद्धि हो रही है  और हिजड़ों की  कोई पहचान नहीं होती ।      —————– डॉ रमा द्विवेदी  संपादक -पुष्पक ,साहित्यिक पत्रिका  हैदराबाद ,तेलंगाना  नारी  संवेदनाएं मृत हुईं  मनुजता का आधार क्षय होने लगा  संताप हिम सम जमे हैं  तूफ़ान में फंसा अस्तित्व है  बंधनों से कब ये मौन निकलेगा  वेदना में कली हैं पुष्प भी हैं  रिश्तों की धार है कोमल  गरल पीती हैं सुधा देती रही हैं  युगों युगों से गंग की लहरें  धारा समय की बहती आई हैं  शैल खण्डों में उहापोह नहीं  भावों में कालिमा सी छाई हैं  सहमती श्वास हैं उजालों में  अपनी सी लगने वाली आँखें भी  चुभती लगती हैं वासनाओं में  बन पराई सी तकने लगती हैं  अर्थ शब्दों के बदले बदले हैं  गालियां रिश्तों को बताती हैं  सहारे ढूंढने की कोशिश में  आस के पत्ते झरने लगते हैं  द्युति पर तिमिर की विजय है  न्याय को तरसती हैं रूहें  सृष्टि की सृजना का देह मंदिर  पापी उश्वासों से दहकता हैं  दग्ध होती हैं मूर्ति करुणा की  गरिमा का चन्द्र ह्रास होता हैं  प्रतीक्षा हैं युग युगांतर से  नारी का कब प्रभास मुखरित हो  विवशता यामिनी की मिट जाए  धूम्र रेखा के वलय खंडित हों !! एस एन गुप्ता शाहदरा, दिल्ली -11032 निशचय मुझे मेरे कदम निर्धारित करने दो क्यो तुमसे कहूँ मन की वेदना पंख मेरे भी है उड़ना है या चलना ये मुझे सोचने दो तुम बहुत तय कर चुके सीमा मेरा लिए अब मुझे असीमित आसमान चुनने दो मुझे मेरे कदम निर्धारित  करने दो पाप पुण्या की परिभाषा से दूर अच्छी बुरी विशेषताओं से परे मुझे इंसान रहने दो मुझे मेरे कदम निर्धारित करने दो नीलम समनानी चावला  xxx !!!! गृह लक्ष्मी हूँ !!!! गृह लक्ष्मी हूँ गृह स्वामिनी हूँ  साम्राज्ञी हूँ और अपने सुखी संसार में खुश भी हूँ फिर भी असंतुष्ट हूँ स्वयं से बार बार झकझोरती अंतरात्मा मुझसे पूछती है क्या घर परिवार तक ही सीमित है तेरा जीवन ? कहती है तुम ॠणी हो पॄथ्वी ,प्रकृति और समाज की और तब  हॄदय की वेदना शब्दों में बंधकर छलक आती है अश्रुओं की तरह सस्वर आवरण उतार चल पडती है लेखनी लिखने को व्यथा मेरी आत्मकथा किरण सिंह  उड़ने तो दो दृश्य को दृष्टा बन  , नाना मिथक गढ़ने … Read more

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष : मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के

swatantrta divas par vishesh kavita / main swpn dekhta hoon ek aise swarajy ke  मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के जहाँ कोई माँ भूख से बिलबिलाते बेबस लाचार बच्चे के आगे पानी भर परात में न उतारे चंदा यूँ बहलाते हुए कि चुप हो जा बेटा देख तेरी रोटी गीली हो गयी है खा लेना जब सूख जाए अपलक उसे ताकते ताकते सो जाए नन्हा बच्चा थक हार कर २ मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के जहाँ लाला के होटल में  बर्तन मलता भीखू घरों में झाड़ू कटका करती छमिया फेंक कर झाड़ू और जूना उठा लें किताबें चल दे स्कूल की ओर कि यही बस यही उपाय है उत्पीडन से निकलने का ३ मैं स्वप्न देखता हूँ ,एक ऐसे स्वराज्य के जहाँ मान के गर्भ में न असुरक्षित रहे बेटियां डॉ की सुई से छिपने का असफल प्रयास करते हुए न निकाली जाए टुकड़े -टुकड़े कर अपितु सहर्ष जन्म लेकर करे उद्घोष कि लिंग के आधार पर नहीं छीना जा सकता जन्म लेने का अधिकार ३ मैं स्वप्न देखता हूँ ,एक ऐसे स्वराज्य के जहाँ कोई निर्भया सड़क पर न फेंकी जाए रौंद कर झोपडी में रहने वाला ननकू न हार जाए मुकदमा घूस न दे पाने की वजह से जहाँ सफाई अभियान में न सिर्फ शहर अपितु तन ,मन और विचारों की भी हो स्वक्षता जहाँ अपने -अपने ईश्वर को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए तलवारे थाम कर न नेस्तनाबूत कर दी जाए मानवता ४ मैं स्वप्न देखता हूँ हाँ ! मैं रोज स्वप्न देखता हूँ मेरी पूरी पीढ़ी स्वप्न देखती है एक ऐसे स्वराज्य की जहाँ हम अपनी जड़ों को सीचते हुए पुराने दुराग्रहों कुटिलताओ और वैमनस्यता को भूलकर रचेंगे एक नया भारत पर ये मात्र स्वप्न ही नहीं है ये उद्घोष है कि ये स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे ले कर रहेंगे शिवम् मेरा भारत महान ~ जय हिन्द

चन्द्र गुप्त की लम्बी कविता …………… आहटें

                                       आहटें  सन्नाटे की ………वह खौफनाक रेंगती अभी भी चली आती हैं सन ४५ के आणविक मौत की बारिश के बाद बेआवाज़ तड़पते निरीह बच्चे महिलाएं पुरुष मौत को तरसते लाखों लोग चुपचाप जो परमाणु में बिखरे पड़े हैं हमें घेरे चीखे गूँजी थी जो उनके ह्रदय से कूट सन्नाटे में से चीत्कारती अति भयावाह मौत निगलते लाखों लोगों की हरपल दबे पाँव २ ………. खबरे जिन्दा अभी तक मृत अख़बारों में बोलती है आपबीती इनके -उनके जवान होते पंगु बच्चों में वह सन्नाटा -प्रलयंकारी सन्नाटे  में बेचैन आहटे आहटों में दबी चीखे चीखों में उबला लहू सुर्ख स्याह सन्नाटा वह सन ४५ का ३ ………. किससे पूँछोंगे कैसे पूँछोंगे मित्र और क्यों ये कई बार दुनिया खत्म  करने का तर्क स्वयं से मेरे मेरे मित्र या उनसे जो राजनीति कूटनीति  विज्ञ महामना -व्हाइट हॉउस या सोसलिस्ट -क्रेमलिन दुर्ग कितनी बार दुनियां को खटन करने का तर्क खत्म हो जाए दुनियाँ , जब एक बार में कुछ मुट्ठी भर अणुओं -परमाणुओ के उत्खलन से क्यों है जरूरी खत्म करना दूनियाँ कई बार एक बार के बाद किससे  पूँछोंगे कैसे पूँछोंगे मित्र शायद राजनीति -कूटनीति की किताबों पर चल गट निर्गुट सम्मेलनों की दीवार पर चढ़ या खड़े हो संयुक्त राष्ट्र की प्राचीरों पर विस्फोट की दुनियाँ इतनी बार एक परमाणु अस्त्र में ही जब सिमिट सकती है पूरी  दुनियाँ तुम्हारी -मेरी छोटी सी दुनियां मानव का अपनी धरती पर अपने हाथों मानव स्खलन बेवजह हो जाए ये दुनियाँ भस्म लोग अपांग ,अधडंग बचे जो कुछ लाइलाज रोगी कोढ़ी मौत को तरसते बांटते -छोड़ते अपने बच्चों में आने वाले उनके बच्चों में और फिर उनके और उनके बच्चों में सदा निरंतर ४………. ठहरो रुको जरा सोचो देखो सुनाई दें रही है चीखे पुकारे दर भरी चीत्कार कोने कोने से असंख्य ,अनगिनत ढेरों मृत ,अपंग अजीवित होने को किसी भी क्षण किसी भी पल हमारे अपनों द्वारा हमारे ही प्रति संभावित उस आणविक -विभीषिका के विस्फोट से डरी चन्द्र गुप्त साहित्यकार ,पत्रकार चित्र गूगल से साभार atoot bandhan ……… हमार फेस बुक पेज 

किरण सिंह की कवितायेँ

                    पटना की किरण सिंह जी  ने जरा देर कलम थामी पर जब से थामी तब से लगातार एक से बढ़कर एक कवितायों की झड़ी लगा दी | अतिश्योक्ति नहीं होगी कि प्रतिभा को बस अवसर मिलने की जरूरत होती है फिर वो अपना रास्ता स्वयं खोज लेती है | सावन में जब पूरी धरती क्या मानव ,क्या पशु -पक्षी ,क्या पेड़ -पौधे सब भीगते  है  तो कवि मन न भीगे ऐसा तो हो ही नहीं सकता | ऐसी ही सावन की बारिश से भीगती किरण सिंह जी की  कविताएं हम आज ‘अटूट बंधन ” ब्लॉग पर ले कर आये हैं ………. जहाँ विभिन्न मनोभाव बड़ी ही ख़ूबसूरती से पिरोये  गए हैं | तो आइये भीगिए भावनाओ की बारिश से ………… आया सावन बहका बहका************************************** बीत गए दिन रैन तपन .के आया सावन बहका बहका झेली बिरहन दिन रैन दोपहरी अग्नि समीर का झटका खत्म हो गई कठिन परीक्षा भीगत तन मन महका आया सावन…………….. आसमान का हृदय पसीजा अश्रु नयन से छलका प्रिय के लिए सज गई प्रिया हरी चूनरी घूंघट लटका आया सावन………………. देख प्रणय धरती अम्बर का बदरी का मन चहका बीच बदरी के झांकते रवि का मुख मंडल  भी दमका आया सावन…………………… रिमझिम बारिश की बूंदो में भीगी लता संग लतिका झुक धरणी को नमन कर रहीं खुशी से खुशी मिले हैं मन का आया सावन………………. चली इठलाती पवन पुरवैया तरु नाचे कमरिया लचका रुनक झुनुक पायलिया गाए संग संग कंगन खनका आया सावन…………….. इन्द्रधनुष का छटा सुहाना सतरंगी रंग ….छलका हरियाली धरती पर बिखरी अम्बर का फूटा मटका आया सावन………………….. …………………………………………. मन आँगन झूला पड़ गयो रे******************************** हरित बसन पहन सुन्दरी बहे बयार उड़ जाए चुन्दरी गिरत उठत घूंघट पट हट गये सजना से नयना लड़ गयो रे मन आँगन…………………….. लतिकाएं खुशी से झूम उठीं झुकी झुकी धरती को चूम उठीं मेघ गरज कर शंख नाद कर मिलन धरा अम्बर भयो रे मन आँगन……………………. पीहु पीहु गाए पपीहरा मन्त्रमुग्ध भये जुड़ गए जियरा पुरवाई भी बहक रही छम छम बरखा बरस गयो रे मन आँगन……………………….. ********************** सखि सावन बड़ा सताए रे*************************** जबसे उनसे लागि लगन म्हारो तन मन में लागि अगन नयन करे दिन रैन प्रतीक्षा अब दूरी सहा नहीं जाए रे सखि सावन………………… भीग गयो तन भी मन भी उर की तपन रह गई अभी भी बहे पुरवाई लिए अंगड़ाई अचरा उड़ी उड़ी जाए रे सखि सावन………………….. बगियन में झूला डारी के सखि संग झूलें कजरी गाई के रिमझिम बरखा बरस बरस नैनों से कजरा बही बही जाए रे  सखि सावन बड़ा……………….  ******************* आज फिर से मन मेरा……********************* आज फिर से मन मेरा भीग जाना चाहता है तोड़ कर उम्र का बन्धन छोड़कर दुनिया का क्रंदन गीत गा बरखा के संग संग नृत्य करना चाहता है आज फिर से मन मेरा…………………. पगडंडियों पर चलो चलें अपने कुछ मन की करें सज संवर सजना के संग मन फिसल जाना चाहता है आज फिर से मन मेरा……………. सपनों का झूला लगाकर बहे पुरवाई प्रीत पिया संग सखियों के संग सुर सजाकर संग कजरी गाना चाहता है आज फिर से मन मेरा…………….. ************************** !!! बूँदें और बेटियाँ !!!****************** बारिश की बूंदो और बेटियों में कितनी समानता है वो भी तो बिदा होकर बादलों को छोड़ चल पड़ती हैं नैहर से सिंचित करने पिया का  घर बेटियों की तरह अपने पलकों में स्वप्न सजाकर सुन्दर और सुखद उनका भी भयभीत मन सोंचता होगा कैसा होगा पीघर डरता होगा बेटियों की तरह मिले सीप सा अगर पिया का घर ले लेती हैं बूंदें आकार मोतियों का और इठलाती हैं अपने भाग्य पर बेटियों की तरह पर यदि दुर्भाग्य से कहीं गिरती हैं नालों में खत्म हो जाता उनका भी अस्तित्व वो भी रोतीं हैं अपने भाग्य पर बेटियों की तरह किरण सिंह  संक्षिप्त परिचय ……………… साहित्य , संगीत और कला की तरफ बचपन से ही रुझान रहा है ! याद है वो क्षण जब मेरे पिता ने मुझे डायरी दिया.था ! तब मैं कलम से कितनी ही बार लिख लिख कर काटती.. फिर लिखती फिर……… ! जब पहली बार मेरे स्कूल के पत्रिका में मेरी कविता छपी उस समय मुझे जो खुशी मिली थी उसका वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकती  ….! मेरा विवाह    १८ वर्ष की उम्र जब मैं बी ए के द्वितीय वर्ष में प्रवेश ही की थी कि १७ जून १९८५ में मेरा विवाह सम्पन्न हो गया ! २८ मार्च १९८८ में मुझे प्रथम पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तथा २४ मार्च १९९४ में मुझे द्वितीय पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई..! घर परिवार बच्चों की परवरिश और पढाई लिखाई मेरी पहली प्रार्थमिकता रही ! किन्तु मेरी आत्मा जब जब सामाजिक कुरीतियाँ , भ्रष्टाचार , दबे और कुचले लोगों के साथ अत्याचार देखती तो मुझे बार बार पुकारती रहती थी  कि सिर्फ घर परिवार तक ही तुम्हारा दायित्व सीमित नहीं है …….समाज के लिए भी कुछ करो …..निकलो घर की चौकठ से….! तभी मैं फेसबुक से जुड़ गई.. फेसबुक मित्रों द्वारा मेरी अभिव्यक्तियों को सराहना मिली और मेरा सोया हुआ कवि मन  फिर से जाग उठा …..फिर करने लगी मैं भावों की अभिव्यक्ति..! और मैं चल पड़ी इस डगर पर … छपने लगीं कई पत्र पत्रिकाओं में मेरी अभिव्यक्तियाँ ..! पुस्तक- संयुक्त काव्य संग्रह काव्य सुगंध भाग २ , संयुक्त काव्य संग्रह सहोदरी सोपान भाग 2 ************ atoot bandhan ………हमारा फेस बुक पेज 

“एक दिन पिता के नाम “…….. तात नमन (कविता -इंजी .आशा शर्मा )

                                                                          तात नमन समझ न पाया प्यार पिता का, बस माँ की ममता को जाना पुत्र से जब पिता बना मैं, तब महत्ता इसकी पहचाना लम्हा-लम्हा यादें सारी, पल भर में मैं जी गया तुम्हे रुलाये सारे आंसू घूँट-घूँट मैं पी गया जब भी मुख से मेरे कड़वे शब्द कोई फूटे होंगे जाने उस नाज़ुक मन के कितने कौने टूटे होंगे अनुशासन को सज़ा मान कर तुमको कोसा था पल-पल इसी आवरण के भीतर था मेरा एक सुनहरा “कल” लोरी नहीं सुनाई तो क्या, रातों को तो जागे थे मेरे सपने सच करने, दिन-रात तुम्हीं तो भागे थे ममता के आंचल में मैंने, संस्कारों का पाठ पढ़ा हालातों से हार न माने, तुमने वो व्यक्तित्व गढ़ा जमा-पूँजी जीवन भर की मुझ पर सहज लुटा डाली फूल बनता देख कली को, खाली हाथ खिला माली आज नहीं तुम साथ मेरे तब दर्द तुम्हारा जीता हूँ सच्ची श्रध्दा सुमन सहित, तात नमन मैं करता हूँ इंजी .आशा शर्मा  अटूट बंधन ………….. हमारा फेस बुक पेज 

“एक दिन पिता के नाम “……कवितायें ही कवितायें

अटूट बंधन परिवार द्वारा आयोजित “एक दिन पिता के नाम ‘श्रंखला में  आप सब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया इसके लिए हम आप सब रचनाकारों का ह्रदय से धन्यवाद करते हैं | हमारी कोशिश रही कि हम इस प्रतियोगिता में अच्छी से अच्छी रचनाओं को ब्लॉग पर प्रकाशित करे …. जिससे पाठकों को एक एक स्थान पर श्रेष्ठ सामग्री पढने को मिले | वैसे पिता के प्रति हर भाव अनमोल है हर शब्द अनूठा है हर वाक्य अतुलनीय है | ……… हम अपने आधार पर किसी भी भावना को कम या ज्यादा घोषित नहीं कर कर सकते थे पर लेखन कौशल और भावों की विविधता को व् रचनाकार के विजन को देखते हुए हमने ब्लॉग पर प्रकाशित की जाने वाली रचनाओं का चयन किया है | हमें प्राप्त होने वाली ५० से अधिक कविताओं में से हमने ७ का चयन किया है| आज प्रतियोगिता के अंतिम दिन आप संजना तिवारी , इंजी .आशा शर्मा ,तृप्ति वर्मा ,दीपिका कुमारी ‘दीप्ति ‘डॉ भारती वर्मा बौड़ाई ,रजा सिंह व् एस .एन गुप्ता की कवितायें पढेंगे | इस प्रतियोगिता के सफलता पूर्वक आयोजन के लिए “अटूट बंधन “परिवार रचनाकारों ,पाठकों व् निर्णायक मंडल के सदस्यों का ह्रदय से आभार व्यक्त करता है |  पापा मैं आप जैसी क्या इन यादों के लिए कोई शब्द भी हैं ? या इस पीड़ा के लिए कोई मरहम ?? मैं आपको खोजती हूँ जाने कहाँ – कहाँ ?? आप मृत्यु शया पर सज कर कब के जा चुके हो !! ये यकिन दिलाऊं भी तो खुद को कैसे ?? आईना देखती हूँ तो पाती हूँ —– वही आँखे…. हाँ ” पापा ” आपकी वही आँखे …… जिनसे नजरें मिलाना मुझे पाप लगता था आज चिपकी हैं मेरी ही आँखों पे ….। खुद को मुस्कुराते देखती हूँ तो…. महसूस होता है जैसे जैसे…. ये वही हुबहू चेहरा है आपका !!!!!! मुस्कुराता चेहरा ….।। जब कभी बच्चों को झिड़कती हूँ झूठे तो लगता है ये डांट…..?? ये तो वही डांट है जो कई बार आपने मुझे सुनाई थी झिड़कियों में ….।। मैं आपकी एक झलक नहीं पूर्ण व्यक्तित्व बन चुकी हूँ मेरे हाथ -पैर .. और उनकी सूजन भी…. उठना – बैठना – चलना और खीजना भी….. हाँ आप ही तो हैं मेरे भीतर -मेरे भीतर साँसे ले रहे हैं …. हैं ना ????? जानते हैं ” पापा ” नहीं देखती हूँ मैं खुद को रोते हुए क्योंकि आपकी ये लाडो नहीं देख पाएगी आपको खुद में रोते हुए…… नहीं देख पाउंगी मैं आपको रोते हुए ……. संजना तिवारी याद है मुझे पापा एक अटूट बंधन है  पिता का पुत्री से , माँ जननी तो पिता भाग्यविधाता, पिता की यादें वो खुशियाँ मानो ऊसर भूमि पर हरियावल। याद है मुझे पिता की सारी बातें बिताए गए उनके साथ वो पल -पल की हँसी, खेल, तमाशे,  मेरा रूठ जाना उनका मनाना,  मेरी एक एक जङता को पूरा करना। याद है मुझे मेरे वो तोहफे फ्रॉक, गाडियाँ व मिठाइयाँ,  जिसे छिपा देते तकिये के नीचे और ताकते दूर से, मानो खोज रहे मेरे चेहरे की खुशियाँ। याद है मुझे  पिता के जीवन की पहली कामयाबी, उनका बाइक खरीदना और  मुझे पहले बैठा घुमाना । याद हैं मुझे दिन भर खेल गर दुख जाते पैर  मेरे तो पिता का उन्हें सहलाना। याद हैं मुझे हर रात खेल कही भी सो जाती मैं पर आँखे खुलती तो पिता को ही पास पाती मैं।                    तृप्ति वर्मा तात नमन समझ न पाया प्यार पिता का, बस माँ की ममता को जाना पुत्र से जब पिता बना मैं, तब महत्ता इसकी पहचाना लम्हा-लम्हा यादें सारी, पल भर में मैं जी गया तुम्हे रुलाये सारे आंसू घूँट-घूँट मैं पी गया जब भी मुख से मेरे कड़वे शब्द कोई फूटे होंगे जाने उस नाज़ुक मन के कितने कौने टूटे होंगे अनुशासन को सज़ा मान कर तुमको कोसा था पल-पल इसी आवरण के भीतर था मेरा एक सुनहरा “कल” लोरी नहीं सुनाई तो क्या, रातों को तो जागे थे मेरे सपने सच करने, दिन-रात तुम्हीं तो भागे थे ममता के आंचल में मैंने, संस्कारों का पाठ पढ़ा हालातों से हार न माने, तुमने वो व्यक्तित्व गढ़ा जमा-पूँजी जीवन भर की मुझ पर सहज लुटा डाली फूल बनता देख कली को, खाली हाथ खिला माली आज नहीं तुम साथ मेरे तब दर्द तुम्हारा जीता हूँ सच्ची श्रध्दा सुमन सहित, तात नमन मैं करता हूँ इंजी. आशा शर्मा पिताजी प्रथम पुज्य भगवान (कविता)मेरे सर पर उनकी साया है वे हैं मेरा आसमान।मेरे लिए मेरे पिताजी  हैं प्रथम पुज्य भगवान।।ऊंगली पकड़ के चलना सिखाया,जीवन का हर मतलब समझाया,मेरे मंजिल का उसने राह बताया,आगे बढ़ने का मुझमें जोश जगाया,उनके आशिर्वाद से हम पा लेंगे हर मकाम।मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।प्यार से भी कभी नहीं डाँटा,बचपन में भी कभी न मारा,कैसा है सौभाग्य ये मेरा,बाबुल रुप में भगवान मिला,इनके पावन चरणों में ही मेरा है  चारो धाम।मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।अपनी चाहत कभी न जताया,धैर्य का उसने भंडार पाया,वृक्ष बन देते शितल छाया,स्वर्ग से सुंदर  घर बनाया,मेरी यही तमन्ना है मैं बढ़ाऊं इनकी शान।मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।– दीपिका कुमारी दीप्ति (पटना) सबसे बड़ा उपहार होता है पिता का  ये दुनिया जो उनके घर जन्म लेकर मिलता है हर बेटी को। दुनिया दिखा कर ऊँगली थामे चलना सिखाये बचपन की शरारतों में  साथ देकर  माँ की डाँट से बचाये कैशौर्य की उड़ानों में करे सावधान युवावस्था के सपनों में मार्गदर्शक बन  चले साथ-साथ सुख की छाया में भले ही दूर से देखे चुपचाप पर दुःख की धूप में समाधान लिए बने छायादार वृक्ष, टूटते-गिरते क्षणों में रखे कंधे पर हाथ और कहे धीरे से कानों में ‘तू चल, मैं हूँ तेरे साथ’ माँ के साथ भी और माँ के बाद भी  दिलाये मायके के होने का सुदृढ़ अहसास, उस बेटी का पिता जब चला जाए अचानक, तब, एक दिन तो क्या  पूरा जीवन भी कम है  पिता के लिए। –डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई– पिता  पिता एक शब्द नहीं एक सम्पूर्ण संसार है एक सुरक्षा है आश्वासन है कर्तव्य है अधिकार है। एक छाया है जिसके तले महफूज़ है बेफिक्र है। पिता का जो कुछ है अपना है ,नहीं है कुछ उसकाजो संतान का है। उसकी श्रम ,सम्पति और अधिकारअपने जाये के लिए है। माँ का सुहाग हैपिता ,उसकी … Read more

आयुष झा “आस्तीक ” की स्त्री विषयक कवितायें

आयुष झा “आस्तीक ” ने अल्प समय में कवितों के माध्यम से अपनी पहचान बना ली है | वह विविध विषों पर लिखते हैं | विषयों पर उनकी सोच और पकड़ काबिले तारीफ़ है | आज कल स्त्रियों पर बहुत लिखा जा रहा है एक तरफ जहाँ स्त्रियों के लेखन में उनका भोग हुआ यथार्थ है वही जब पुरुष स्त्रियों के बारे में लिखते हैं तो अंतर्मन की गहराइयों में जाकर स्त्री मन की संवेदनाओं को पकड़ने का प्रयास करते हैं | और काफी हद तक सफल भी होते हैं | आज हम” अटूट बंधन “आयुष झा “आस्तीक की कुछ स्त्री विषयक कवितायें लाये हैं |जिसमें उन्होंने नारी मनोभावों को चित्रित करने का प्रयास किया है | वो इसमें कहाँ तक सफल है ….पढ़ कर देखिये ससूराल की ड्योढी पर प्रथम कदम रखते ही नींव डालती है वो घूंघट प्रथा की /जब अपनी अल्हडपन को जुल्फों में गूँठ कर/ सहेज लेती है वो अपने आवारा ख्यालों को घूंघट में छिपा कर ….. अपनी ख्वाहिशों को आँचल की खूट में बाँध कर वो जब भी बुहारती है आँगन एक मुट्ठी उम्मीदें छिडक आती है वो कबूतरों के झूंड में …. मूंडेर पर बैठा काला कलूटा कन्हा कौआ अनुलोम-विलोम .उपवास रखने वाली जिद्दी तुनकमिजाज औरतें ______________________ अविवाहीत लडकी से संपुर्ण स्त्री बनने का सफर सात कदमों का होता है लेकीन प्रत्येक कदम पर त्याग सर्मपण और समझौता के पाठ को वो रटती है बार-बार …. मायके से सीख कर आती है वो हरेक संस्कार पाठ जो माँ की परनानी ने सीखलाया था उनकी नानी की माँ को कभी … ससूराल की ड्योढी पर प्रथम कदम रखते ही नींव डालती है वो घूंघट प्रथा की /जब अपनी अल्हडपन को जुल्फों में गूँठ कर/ सहेज लेती है वो अपने आवारा ख्यालों को घूंघट में छिपा कर ….. अपनी ख्वाहिशों को आँचल की खूट में बाँध कर वो जब भी बुहारती है आँगन एक मुट्ठी उम्मीदें छिडक आती है वो कबूतरों के झूंड में …. मूंडेर पर बैठा काला कलूटा कन्हा कौआ अनुलोम-विलोम करता है तब /जब कौआ की साँसे परावर्तित होती है स्त्री की पारर्दशी पीठ से टकरा कर …. जीद रखने वाली अनब्याही लडकीयां होती है जिद्दी विवाह के बाद भी/ बस जीद के नाम को बदल कर मौनव्रत या उपवास रख दिया जाता है / अन्यथा पुरूष तो शौख से माँसाहार होते हैं स्त्रीयों के निराहार होने पर भी.. सप्ताह के सातो दिन सूर्य देव से शनी महाराज तक का उपवास/ पुजा अर्चना सब के सब बेटे/पति के खातीर …. जबकी बेटी बचपन से ही पढने लगती है नियम और शर्तें स्त्री बनने की ! और पूर्णतः बन ही तो जाती है एक संपुर्ण स्त्री वो ससूराल में जाकर…. आखीर बेटे/पति के लिए ही क्युं ? हाँ हाँ बोलो ना चुप क्युं हो ? बेटीयों के चिरंजीवी होने की क्यूं नही की जाती है कामना… अगर उपवास रखने से ही होता है सब कुशल मंगल ! तो अखंड सौभाग्यवती भवः का आर्शीवाद देने वाला पिता/मंगल सूत्र पहनाने वाला पति आखीर क्युं नही रह पाता है एक साँझ भी भूखा…. सुनो , मेरी हरेक स्त्री विमर्श कविता की नायिका कहलाने का हक अदा करने वाली जिद्दी तुनकमिजाज औरतों ! देखो ! हाँ देखो , तुम ना स्त्री-स्त्री संस्कार-संस्कार खेल कर अब देह गलाना बंद करो …. मर्यादा की नोंक पर टाँक कर जो अपनी ख्वाहिशों के पंख कतर लिए थे तुमने/ अरी बाँझ तो नही हो ना ! तो सुनो ! इसे जनमने दो फिर से….. स्त्री होने के नियम शर्तों को संशोधित करके/ बचा लो तुम स्त्रीत्व की कोख को झूलसने से पहले ही …… लडकियों के शयनकक्ष में __________________ लडकियों के शयनकक्ष में होती है तीन खिडकियां दो दरवाजे तीन तकिए और तीन लिफाफे भी … दो लिफाफे खाली और तिसरे में तीन चिट्ठीयां … पहले लिफाफ में माँ के नाम की चिट्ठी डाल कर वो पोस्ट करना चाहती है ! जिसमें लडकी भागना चाहती है घर छोड कर … दुसरे खाली लिफाफे में वो एक चिट्ठी प्रेयस के नाम से करती है प्रेषीत… जिसमें अपनी विवशता का उल्लेख करते हुए लडकी घर छोडने में जताती है असमर्थता …. तीसरे लिफाफे के तीनों चिट्ठीयों में वो खयाली पुलाव पकाती है अपने भूत-वर्तमान और भविष्य के बारे में … अतीत को अपने चादर के सिलवटों में छुपा कर भी वो अपने प्रथम प्रेम को कभी भूल नही पाती है शायद … जो उसे टीसती है जब भी वो लिखती है एक और चिट्ठी अपने सपनों के शहजादे के नाम से…. उनके सेहत,सपने और आर्थीक ब्योरा का भी जिक्र होता है उसमें … अचानक से सामने वाले दरवाजे से भांपती है वो माँ की दस्तक । तो वही पिछले दरवाजे पर वो महसूसती है प्रेयस के देह के गंध को ….. लडकी पृथक हो जाती है अब तीन हिस्से में ! एक हिस्से को बिस्तर पर रख कर, माथा तकिए पर टीकाए हुए , दुसरा तकिया पेट के नीचे रख कर वो ढूँढती है पेट र्दद के बहाने ….. तीसरे तकीए में सारी चिट्ठीयां छुपा कर अब लडकी बन जाती है औरत …. जुल्फों को सहेज कर मंद मंद मुस्कुराते हुए वो लिपटना चाहती है माँ से … तीसरे हिस्से में लडकी बन जाती है एक मनमौजी मतवाली लडकी ! थोडी पगली जिद्दी और शरारती भी… वो दिवानी के तरह अब बरामदे के तरफ वाली खिडकी की सिटकनी खोल कर ख्वाहिशों की बारीश में भींगना चाहती है …… प्रेयस चाॅकलेटी मेघ बन कर जब भी बरसता है खिडकी पर ! वो लडकी पारदर्शी सीसे को अनवरत चुमते हुए मनचली बिजली बन जाती है ….. अलंकृत होती है वो हवाओं में एहसास रोपते हुए । चालीस पार की हुनरमंद औरतें ________________ इतनी हुनरमंद होती है ये औरतें कि भरने को तो भर सकती हैं ये चलनी में भी टटका पानी। मगर घड़ा भर बसिया पइन से लीपते पोतते नहाते हुए यह धुआँ धुकर कर बहा देती है स्वयं की अनसुलझी ख्वाहिशें। रेगिस्तान को उलीछ कर सेर- सवा सेर माछ पकड़ने के लिए तत्पर रहती है ये औरतें! कभी बाढ़ कभी सुखाड़ मगर उर्वर रहती है ये औरतें। ख्वाहिशों की विपरीत दिशा में मन मसोस कर वृताकार पथ पर गोल गोल चक्कर लगाती हुई … Read more

बोनसाई

                        बोनसाई हां ! वही बीज तो था मेरे अन्दर भी जो हल्दिया काकी ने बोया था गाँव की कच्ची जमीन पर बम्बा के पास पगडंडियों के किनारे जिसकी जड़े गहरी धंसती गयी थी कच्ची मिटटी में खींच ही लायी थी तलैया से जीवन जल मिटटी वैसे भी कहाँ रोकती है किसी का रास्ता कलेजा छील  के उठाती है भार तभी तो देखो क्या कद निकला है हवाओ के साथ झूमती हैं डालियाँ कभी फगवा कभी सावन गाते कितने पक्षियों ने बना रखे हैं घोंसले और सावन पर झूलो की ऊँची –ऊँची पींगे हरे कांच की चूड़ियों संग जुगल बंदी करती बाँध देती हैं एक अलग ही समां और मैं … शहर में बन गयी हूँ बोनसाई समेटे हुए हूँ अपनी जड़े कॉन्क्रीट कभी रास्ता जो नहीं देता और पानी है ही कहाँ ? तभी तो ऊँची –ऊँची ईमारते निर्ममता से   रोक लेती है किसी के हिस्से की मुट्ठी भर धूप पर दुःख कैसा ? शहरों में केवल बाजार ही बड़े हैं अपनी जड़े फैलाए खड़े हैं चारों तरफ अपनी विराटता पर इठलाते  अट्हास करते  बाकी सब कुछ बोनसाई ही है बोनसाई से घर घरों में बोनसाई सी बालकनी रसोई के डब्बो में राशन की बोनसाई बटुए में नोटों की बोनसाई रिश्ते –नातों में प्रेम की बोनसाई और दिलो में बोनसाई सी जगह इन तमाम बोंनसाइयों के मध्य मैं भी एक बोनसाई यह शहर नहीं बस  बोंनसाइयों का जंगल  है जो आठो पहर अपने को बरगद सिद्ध करने पर तुले हैं वंदना बाजपेई   atoot bandhan………क्लिक करे 

बैसाखियाँ

                                                                           बैसाखियाँ  जब जीवन के पथ पर  गर्म रेत सी लगने लगती   दहकती  जमीन जब बर्दाश्त के बाहर हो जाते  है दर्द भरी लू  के थपेड़े संभव नहीं दिखता  एक पग भी आगे बढ़ना और रेंगना बिलकुल असंभव तब ढूढता है मन बैसाखियाँ २ ) ठीक उसी समय बैसाखियाँ ढूंढ रही होती हैं लाचार लाचारों  के बिना खतरे में होता है उनका वजूद आ जाती हैं देने सहारा गड जाती हैं बाजुओं में एक टीभ सी उठती है सीने के बीचो -बीच विवशता है सहनी ही है यह गडन  लाचारी  ,और बेबसी से भरी नम आँखें बहुधा नजरंदाज करती हैं बैसाखियाँ ३ ) मानता है अपंग लौटा नहीं जा सकता अतीत में न मांग कर लाये जा सकते हैं दबे कुचले  पाँव जीवन है तो चलना है गर जारी रखनी है यात्रा आगे की तरफ तो जरूरी है लेना बैसाखियों का सहारा ४ ) बैसाखियाँ कभी हौसला नहीं देती वो  देती है सहारा कराती हैं अहसास अपाहिज होने का जब आदत सी बन जाती हैं बैसाखियाँ तब मुस्कुराती हैं अपने वजूद पर कि कभी -कभी भाता  है उनको देखना गिरना -पड़ना और रेंगना की बढ़ जाता है उनका कुछ कद साथ ही बढ़ जाती है लाचार के बाजुओ की गडन ५ ) बैसाखियाँ प्रतीक हैं अपंगता की बैसाखियाँ प्रतीक हैं अहंकार की बैसाखियाँ प्रतीक हैं शोषण की फिर भी आज हर मोड़ पर मिल जाती हैं बैसाखियाँ बिना किसी रंग भेद के बिना किसी लिंग भेद के देने को सहारा या एक दर्द भरी गडन जो रह ही जाती है ताउम्र ६ ) बैसाखियाँ सदा से थी ,है और रहेंगी जब -जब भावुक लोग महसूस करेगे अपने पांवों को कुचला हुआ तब -तब वजूद में आयेगी  बैसाखियाँ इतरायेंगी  बैसाखियाँ सहारा देकर स्वाभिमान छीन  ले जायेंगी बैसाखियाँ जब तक भावनाओं  के दंगल में हारा ,पंगु हुआ पथिक अपने आँसू खुद पोछना नहीं सीख जाएगा तब तक बैसाखियों का कारोबार यूँ ही फलता -फूलता जाएगा वंदना बाजपेई atoot bandhan  ………कृपया क्लिक करे 

मदर्स डे पर माँ को समर्पित भावनाओ का गुलदस्ता

                                                                                                                                 माँ एक ऐसा शब्द है जो अपने आप में पूरे ब्रह्माण्ड को समेटे हुए है ।माँ कहते ही भावनाओं का एक सागर उमड़ता है,स्नेह का अभूतपूर्व अहसास होता है ,………और क्यों न हो ये रिश्ता तो जन्म से पहले जुड़ जाता है  निश्छल और निस्वार्थ प्रेम का साकार रूप है  ….   मदर्स डे पर कुछ लिखने से पहले मैं अपनी माँ को और संसार की समस्त माताओ को सादर नमन करती हूँ। ……….  हे माँ  अपने चरणों में  स्वीकार करो  नमन मेरा । धन वैभव इन सबसे बढ़कर,है अनमोल आशीष तेरा ॥  ,                                                                    कहते हैं  माँ के ऋण से कोई उऋण नहीं हो सकता । सच ही है उस निर्मल निस्वार्थ ,त्यागमयी प्रेम की कहीं से किसी से  भी तुलना नहीं हो सकती ।   कोई लेखक हो या न हो , कवि हो या न हो शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने कभी न कभी अपनी  माँ के प्रति भावनाओं को शब्दों में पिरोने की कोशिश न की हो ।पर शायद   ही संसार की कोई ऐसी कविता हो , लेख हो ,कहानी हो जो माँ के प्रति हमारी भावनाओं को पूरी पूरी तरह से व्यक्त कर सकती हो । शब्द बौने पड  जाते हैं । भावनाएं शब्दातीत हो जाती है । माँ पर मैंने अनेकों कविताएं लिखी है पर जब आज” मदर्स डे ” जब कुछ शब्दों पुष्पों  के द्वारा  माँ के प्रति अपने स्नेह को व्यक्त करने का प्रयास किया…तो बस इतना ही लिख पायी  .    माँ ,क्या तुमको मैं आज दूं । तुमसे निर्मित ही तो मैं हूँ ॥ कुछ दिया नहीं बस पाया है । आज भी कुछ मांगती हूँ ॥ जाने -अनजाने अपराधों की । बस क्षमा मांगती हूँ तुमसे । बस क्षमा मांगती हूँ तुमसे  ॥                           माँ का भारतीय संस्कृति में सदा से सबसे ऊंचा स्थान रहा है । यह सच है की माँ के लिए अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए समस्त जीवन ही कम है । पर ये दिन शायद इसी लिए बनाये जाते हैं की कि उस दिन हम सामूहिक रूप से भावनाओं का प्रदर्शन करें  ।  …………भाई बहन का त्यौहार रक्षा बंधन , पति के लिए करवाचौथ ,या संतान के लिए अहोई अष्टमी इसका उदाहरण है। “अटूट बंधन ” परिवार ने पूरा सप्ताह माँ को समर्पित करा है । जिसमें आप सब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया । उसके लिए हम आप सब का धन्यवाद करते हैं । आज मदर्स डे  पर “माँ कोई तुझ जैसा कहाँ ” श्रृंखला की  सातवी व् अंतिम कड़ी के रूप में हम  आप के लिए माँ पर लिखी हुई कवितायेँ लाये हैं ।  वास्तव में यह कविताएं नहीं हैं भावनाओं का गुलदस्ता है। जिसमें अलग -अलग रंगों के फूल हैं । जो त्याग और ,निश्वार्थ प्रेम की देवी  ,घर में ईश्वर का साकार रूप माँ के चरणों में समर्पित हैं                                     वंदना बाजपेयी  मैं भी लिखना चाहती हूँ  माँ पर कविता , माँ यशोदा की तरह प्यारी न्यारि …… लिखती हूँ जब कागज के पन्नों पर , एक स्नेहिल छवि उभरती है                                         शायद…….संसार की सबसे अनुपम कृति है …..’माँ ‘ जब भी सोचती हूँ माँ को , हर बार या यूं कहें बार-बार माँ के गोद की सुकून भरी रात और साथ ही ,,,,,, नरमी और ममता का आंचल और भी बहुत कुछ प्यार की झिड़की ,तो संग ही दुवाओं का अंबार ऐसा होता है माँ का प्यार ……. हर शब्द से छलक़ता ,,,,, प्यार ही प्यार … सच तो यह है कि, माँ की ममता का नेह और समर्पण , ही पहचान है ,उसकी अपनी तभी तो इस जगत में, ”माँ” महान है …….!!!          संगीता सिंह ”भावना”   माँ आज समझ सकती हू माँ तेरा वो भीगी पलकों में तेरा मुस्कुराना हसकर सब सहते हुए भी अपने सारे दर्द छुपाना न बताना किसी को कुछ अपनों से भी अपने ज़ख्म छुपाना जब दे कर जोर पूछती मैं तो यही होता हरदम तुम्हारा जवाब न बताना किसी को दुःख अपने यह दुनिया है बड़ी ख़राब यह सब सामने तो सुनती पर पीठ पीछे हसती है न बता सकते हम दुःख माँ बाप को क्योंकि बेटियो में उनकी जान बसती है वो भी दुखी होते है बेटियो के साथ न देख पाते है बेटियो के टूटे ख्वाब न कर पायेगे वो फिर इज़्ज़त दामाद की देखेगे जब उनको तो याद आएगी बेटी के टूटे हुए अरमानो की पर इतना याद रखना मेरी बच्ची तुम भी एक औरत हो कल तुम्हे भी ब्याह कर किसी के घर जाना है जो न करवा पाती अपने पति कि इज़्ज़त उनकी भी इज़्ज़त कहा करता यह ज़माना है ! दर्द हो जो भी उसे अपने अंदर समेट के रखना लेकिन हद से ज्यादा ज्यादतियां भी कभी न तुम बर्दाश्त करना थोड़ी बहुत कहासुनी हर घर में होती है कभी न उसे झगड़े का रूप तुम देना !!! गर्व होता अब मुझे खुद पर मैं भी तुम्हारी तरह हो गई हूँ माँ तुम्हारी ही तरह झूठी जिंदगी जीना मैं भी अब सीख गई हूँ माँ भीगी पलकों से अब मैं भी मुस्कुराती हू किसी को न अपना दर्द सुनाती हू गर हो गई कभी इंतेहा दर्द की तो आँखे बंद कर सपनो में मैं तुम्हारी गोद में सो जाती हू मन ही मन बता देती हू तुम्हे सारे दर्द अपने सर पर तुम्हारे हाथो का प्यार भरा स्पर्श तब पाती हू आ जाती है एक नयी … Read more