मई दिवस पर विशेष : एक दिन मेहनतकशों के नाम

                                         एक विशालकाय थिएटर में फिल्म चल रही है | गहरे अन्धकार में केवल “सिल्वर स्क्रीन” पर प्रकाश है| दर्शकों की सांसे थमी हुई हैं | मजदूर संगठित हो कर अपना हिस्सा मांग रहे हैं | गीत के स्वर चारों ओर गुंजायमान है ………………….. हम मेहनतकश इस दुनिया से गर अपना हिस्सा मांगेंगे  एक बाग़ नहीं, एक खेत नहीं, हम सारी  दुनिया मांगेंगे                                                         तालियों की गडगडाहट से हाल गूंज उठता हैं | हम नायक ,नायिका फिल्म की चर्चा करते हुए बाहर आ जाते हैं , और बहार आ जाते हैं उन संवेदनाओं से जिन्हें हम कुछ देर पहले जी रहे होते हैं | तभी तो कड़क कर जूते  पोलिश करवाते हुए  १२ साल के ननकू को डपटते हैं ” सा*******, क्या हुआ है तेरे हाथ को ,जूता चमक ही नहीं रहा | बुखार में तपती कामवाली बाई को घुड़की  देते हैं “देखो कमला रोज -रोज ऐसे नहीं चलेगा ,टाइम पर आना होगा ,नहीं तो पैसे काट लूँगी | शान से बूढ़े रिक्शेवाले  को  उपदेश देते हैं “जब इतना हाँफता है तो चलाता क्यों है रिक्शा ?और सबसे बढ़कर कालिया जो हमारे घर का सीवर साफ़ करने मेन  होल में घुसा है उसे देख कर घिन से त्योरिया चढ़ा लेते हैं |                                                 मई दिवस के नारे ,श्रम का महत्व पर भाषण से तब तक कुछ भी नहीं होगा जब तक समाज की कथनी और करनी में अंतर रहेगा | काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता | लाखों करोड़ों मजदूर जो हमारा घर बनाते हैं ,जूते  पोलिश करते हैं , सीवर साफ़ करते हैं , घर -घर जा कर सब्जी बेचते हैं ………… और वो सब काम करते हैं जो हम खुद अपने लिए नहीं कर सकते | पूरा समाज उनका ऋणी है| बात सिर्फ मजदूरी देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेने की नहीं हैं | जरूरत है उनके दर्द ,तकलीफ को समझने की ,जरूरत है उनका शोषण न होने देने की ……….. और ज्यादा नहीं तो कम से कम उनके साथ मानवीय व्यवहार करने की | समाज  एक दिन में नहीं बदलता  पर किसी समस्या  पर जिस दिन से हम विचार करने लगते हैं उसी दिन से उसके  समाधान के रास्ते निकल आते हैं |                                                         अटूट बंधन आज मई दिवस के अवसर पर आप के लिए कुछ ऐसी ही कवितायें लाया है जो कहीं न कहीं आपकी संवेदनाओं को झकझोरेंगी | इनमें डूबते -उतराते आप अवश्य उस पीड़ा को महसूस करेंगे जो मजदूर झेलते हैं | पर ये मात्र  उस दर्द को श्रधांजलि देने के लिए नहीं हैं बल्कि सोचने समझने और श्रम का सम्मान करने के लिए खुद को बदले का  आवाहन भी है                                  वह तोड़ती पत्थर  वह तोड़ती पत्‍थर; देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर- वह तोड़ती पत्‍थर। कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार;श्‍याम तन, भर बँधा यौवन, नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन, गुरू हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार :-सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार। चढ़ रही थी धूप; गर्मियों के दिन दिवा का तमतमाता रूप; उठी झुलसाती हुई लू,रूई ज्‍यों जलती हुई भू, गर्द चिनगी छा गयीं, प्राय: हुई दुपहर :-वह तोड़ती पत्‍थर। देखते देखा मुझे तो एक बार उस भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार; देखकर कोई नहीं, देखा मुझे उस दृष्टि से जो मार खा रोई नहीं, सजा सहज सितार, सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर, ढुलक माथे से गिरे सीकर, लीन होते कर्म में फिर ज्‍यों कहा – ‘मैं तोड़ती पत्‍थर।’ सूर्य कान्त त्रिपाठी “निराला “ घिन तो नहीं आती  पूरी स्पीड में है ट्राम खाती है दचके पै दचके सटता है बदन से बदन पसीने से लथपथ । छूती है निगाहों को कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान बेतरतीब मूँछों की थिरकन सच सच बतलाओ घिन तो नहीं आती है? जी तो नहीं कढता है? कुली मज़दूर हैं बोझा ढोते हैं, खींचते हैं ठेला धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर आपस मैं उनकी बतकही सच सच बतलाओ जी तो नहीं कढ़ता है? घिन तो नहीं आती है? दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने बैठना है पंखे के नीचे, अगले डिब्बे मैं ये तो बस इसी तरह लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की सच सच बतलाओ अखरती तो नहीं इनकी सोहबत? जी तो नहीं कुढता है? घिन तो नहीं आती है? नागार्जुन  अखबारवाला  धधकती धूप में रामू खड़ा है  खड़ा भुलभुल में बदलता पाँव रह रह  बेचता अख़बार जिसमें बड़े सौदे हो रहे हैं ।  एक प्रति पर पाँच पैसे कमीशन है,  और कम पर भी उसे वह बेच सकता है  अगर हम तरस खायें, पाँच रूपये दें  अगर ख़ैरात वह ले ले ।  लगी पूँजी हमारी है छपाई-कल हमारी है  ख़बर हमको पता है, हमारा आतंक है,  हमने बनाई है  यहाँ चलती सड़क पर इस ख़बर को हम ख़रीदें क्यो ?  कमाई पाँच दस अख़बार भर की क्यों न जाने दें ?  वहाँ जब छाँह में रामू दुआएँ दे रहा होगा  ख़बर वातानुकूलित कक्ष में तय कर रही होगी  करेगी कौन रामू के तले की भूमि पर कब्ज़ा । रघुवीर सहाय  अच्छे बच्चे  *************************** कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करतेऔर मचलते तो हैं ही नहीं बड़ों का कहना मानते हैं वे छोटों का भी कहना मानते हैं इतने अच्छे होते हैं इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम और मिलते … Read more

अम्बरीश त्रिपाठी की कवितायें

                       कहते हैं साहित्य सोचसमझकर  रचा नहीं जा सकता  बल्कि जो मन के भावों को कागज़ पर आम भाषा में उकेर  दे वही साहित्य बन जाता है …… कई नव रचनाकार अपनी कलम से अपने मनोभावों को शब्दों में बंधने का प्रयास कर रहे हैं …… उन्हीं में से एक हैं अम्बरीश त्रिपाठी जो पेशे से सॉफ्टवेर इंजिनीयर हैं पर पर उनका  मन साहित्य में भी सामान रूप से रमता है | उन के शब्दों में उनके मासूम भाव जस के तस बिना किसी लाग लपेट के कागज़ पर उतरते हैं  …. और पाठक के ह्रदय को उद्वेलित करते हैं | अटूट बंधन का प्रयास है की नयी प्रतिभाओ को सामने लाया जाए इसी क्रम  में आज अटूट बंधन ब्लॉग पर पढ़िए …….. अम्बरीश त्रिपाठी की कवितायें  आज थोडा परेशान हूँ मैं आज थोड़ा परेशान हूँ मैं कहीं अंधेरो मे निकलते हुए पाया की अभी भी बाकी कहीं थोड़ा इंसान हूँ मैं सुबह की दौड़ मे भागती कोई जान हूँ मैं अपने ही बीते हुए कल की छोटी सी पहचान हूँ मैं कभी अपनो के दिल मे बसा सम्मान हूँ मैं तो कभी किसी का रूठा हुआ कोई अरमान हूँ मैं देखता हूँ आज जब जिंदगी को मुड  के पीछे तो पाता हूँ बस इतना की कागज के टुकड़ो से बना कोई भगवान हूँ मैं गिरता संभलता हाथो मे पड़ता किसी भिक्षा मे दिया हुआ कोई दान हूँ मैं कभी बच्चे की कटी पतंग के जैसे आकाश मे लहराती कोई उड़ान हूँ मैं खुदा को समझने मे बिता के पूरी ज़िंदगी आख़िर मे है बस इतना पाया की मस्जीदो मे गूँजती अज़ान हूँ मैं पेडो से पत्तो से पौधो से उगते कुछ महकते हुए फूलो की मुस्कान हूँ मैं तारो सितारों के जहाँ से कई आगे ब्रह्मांड मे चमकता कोई वरदान हूँ मैं लिख के इतने अल्फ़ाज़ जो वापस मैं आया तो पाया की वापस वीरान हूँ मैं माँ  जब भी उठता था सुबह,चाय ले के मेरे सामने होती थी रात में मुझे खिला के खाना,सबको सुला के ही सोती थी बीमार जो होता कभी मै,तो घंटो गीली पट्टियां मेरे सिर पे रखती थी मेरी हर उलटी सीधी जिद को बढ़ चढ़ के पूरा करती थी बचपन में स्कूल जाते वक़्त ,मै उससे लिपट के रोया करता था रात को अँधेरे के डर से,उसके हाथ पे सिर रख के सोया करता था छुट्टी के दिन भी कभी उसकी छुट्टी नही हो पाती थी पूछ के हमसे मनपसंद खाना,फिरसे किचन में जुट जाती थी सरिद्यों में हमे अपने संग धूप में बिठा लेती थी अलग अलग रंग के स्वेटर हमारे लिए बुना करती थी सुबह के नाश्ते से रात के दूध तक बस मेरी ही चिंता करती है ऐसी है मेरी माँ,जो हर दुआ हर मंदिर में बस मेरी ख़ुशी माँगा करती है कहने को बहुत दूर आ गया हूँ मै,पर हर वक्त उसका दुलार याद आता है खाना तो महंगा खा लेता हूँ बाहर,पर उसके हाथ का दाल चावल याद आता है घूम लिए है देश विदेश,पर उसके साथ सब्जी लेने जाना याद आता है स्कूल से आ के बैग फेक के उसके गले लग जाना बहुत याद आता है आज भी जब जाता हूँ घर,फिरसे मेरी पसंद के पराठे बना देती है मेरे मैले कपड़ो को साफ़ करके ,फिरसे तहा देती है जब जा रहा होता हूँ वापस,फिर से उसकी आंखे नम हो जाती है सच कहता हूँ माँ ,अकेले में रो लेता हूँ पर मुझे भी तू बहुत याद आती है सच को मैंने अब जाना है एक फांस चुभी है यादो की , हर राह बची है आधी सी  कुछ नज्मे है इन होठो पर,आवाज़ हुई है भरी सी  सांसो में ये जो गर्मी है ,आँखों में ये जो पानी है  है रूह भी मेरी उलझी सी,राहे भी मेरी वीरानी है  इस चेहरे पे एक साया है,जो खुद से ही झुंझलाया है  मुड़ के देखा है जब भी वो,कुछ सहमाया घबराया है  फिर से उठना है मुझको अब,शायद फिर से कुछ पाना है  एक आइना है साथ मेरे,बस खुद से नज़रे मिलाना है  बचपन के कुछ चर्चे भी है,यौवन के कुछ पर्चे भी है है साथ मेरे अब भी वो पल,कुछ मासूम से खर्चे भी है कुछ सपने है इन पलकों पर,वो अपने है फिर फलको पर दौलत ओहदे सब ढोंग ही है,जीवन चलते ही जाना है खोजा है सच को मैंने जब,पाया है खुद को तब से अब वो आज दिखा है आँखों में,उसको मैंने पहचाना है अल्ला मौला सब एक ही है,ना राम रहीम में भेद कोई जाती पाती में पड़ना क्या,ये मुद्दा ही बचकाना है मंदिर मस्जिद जा कर भी तो,बस दौलत शोहरत मांगी है जो दिया हाथ किसी बेबस को,तो खुद से क्या शर्माना है कहता है ये ‘साहिल‘ भी अब,कुछ देर हो गयी जगने में जाने से पहले दुनिया में,एक हस्ती भी तो बनाना है इतना कहूंगा दोस्तों तुम्हारे बिना आज भी रात नहीं होती ये तो न सोचा था कभी कि इतना आगे आ जाऊंगा मै सोच कर पुराने हसीँ लम्हे,अकेले में कहीं मुस्कुराऊंगा मै याद आते है सारे पल उस शहर के,उनमे क्या फिरसे खो पाउँगा मै वो छोटी से पटरी पे प्लास्टिक कि गाड़ी,अब न कभी उसे चला पाउँगा मै वो गर्मी कि छुट्टी , वो भरी हुई मुठ्ठी  वो पोस्टमैन का आना और गाँव कि कोई चिठ्ठी मोहल्ले के साथी और क्रिकेट के झगड़े वो बारिश के मौसम में कीचड वाले कपड़े वो पापा का स्कूटर और दीदी कि वो गाड़ी वो छोटे से मार्केट से माँ लेती थी साड़ी भैया कि पुरानी किताबो में निशान लगे सवाल वो होली कि हुडदंग  में उड़ता हुआ गुलाल दीवाली के पटाखे और दशहरे के मेले काश साथ मिल कर हम फिर से वो खेले स्कूल के वो झगड़े और कॉलेज के वो लफड़े वो ढाबे की चाय और लड़कियों के कपड़े सेमेस्टर के पेपर और रातों की पढाई आखिर का सवाल था बंदी किसने पटाई हॉस्टल के किस्से और जवानियों के चर्चे वो प्रक्टिकल में पाकेट में छुपाये हुए पर्चे वो सिगरेट का धुआं और दारू की वो बस्ती आज भी चल रही है उधर पे ये कश्ती आज … Read more

  अशोक कुमार जी कि कविताओं में एक तड़प है ,एक बैचैनी है जैसे कुछ खोज रहे हो … वस्तुत मानव मन कि अतल गहराइयों कि खोज ही किसी को कवि बनाती है ……… उनकी हर कविता इसी खोज का हिस्सा है जो बहुत गहरे प्रहार करती है…. आइये पढ़ते हैं वो अपनी खोज में कितने सफल हुए हैं बीत जाती पीढियाँ ________________ बस कुछ संवत्सर बीत जाते थे पहले कहने को लोकते थे फिर करने को लोकते थे कहने और करने को लोकने के खेल में गिरते थे कई सीढियाँ बस बीत जाती थीं कुछ पीढियाँ. भूल ____ मैंने कल जो कहा था आज सच कहता हूँ वह एक भूल थी मैं आज जो कह रहा हूं कल बताऊँगा वह भी क्या फिर एक भूल होगी. बवंडर _______ नदियों में भँवर थे और डूबने का खतरा था मुझे तैरना कहाँ आता था चलना आता था मुझे तलमलाते पाँव से पर मैदान में चल रहे थे बवंडर जान गया था गोल घूमती हैं हवायें चूँकि गोल उड़ रहे थे सूखे पत्ते और यह भी कि खेत भूत नहीं जोत रहे थे. परेशानी ____________ हमारे कस्बे में सीधा मतलब निकालते थे लोग बातों का परेशानी का सबब था कि हवाओं में जुमले तैर रहे थे.  उद्दण्डता ‘ उसकी भाषा समृद्ध न थी इसलिये वह चुप था वह मेरी साफ चमकीली पोशाक से सहम कर चुप था मेरे भव्य घर की दीवारों से डर कर वह चुप था मुझे बड़ा मानता था वह इसलिये भी चुप था मैं भी तो सहमा था उससे जैसा वह मुझसे मैं जानता हूँ जिस दिन वह अपनी भाषा दुरुस्त कर लेगा बोलेगा वह और मेरी धज्जियाँ उड़ा देगा . चौखटे _________ चौखटे पहले ही बना दिये गये थे बरसों पहले सही कहें तो अरसे पहले जब सदियाँ करवटें बदल रही थीं किसी नदी के किनारे चौखटे हदें टाँक चुकी थीं कुरते पर टाँकी बटनों की तरह और कुरते के फैलाव के भीतर ही हम दम फुलाते थे चौखटे की सरहदें थीं और आग उसके भीतर ही सुलगती थी अलाव में दहकते अंगारे किसी लाल आँखों की तस्वीर भर थी जहाँ आँच आँख की कोरों के बाहर नहीं छलकती चौखटे दिमाग के फ्रेम बन गये थे जिसमें टांग दी गयी थी अरसे पहले उकेरी गयी उदास रंगों वाली एक तस्वीर चौखटे श्रद्धा और आस्था के पवित्र खाँचे बन गये थे जिसके बाहर जाना आज भी निषिद्ध था चौखटे के भीतर पैदा हुए थे वे लोग भी जो चौखटे के बाहर सिर निकालते थे यह जानते हुए भी कि चौखटे के बाहर लोहे की नुकीली कीलें ठुकी हुई हैं जो उनके सिर फोड़ सकती हैं. किताबों में ____________ किताबें पढ़ रहे थे सब और किताबें थीं जो चेहरों पर टंग गयी थीं हाथों से छूट कर फड़फड़ा कर किताबें तो उन चेहरों पर भी थे जो बस में मिले थे सड़क पर दफ्तर से लौटते हुए पर झुँझला कर मैं लौट आता था माथे पर पड़ी शिकन की पहली परत से किताबें वहाँ थीं जहाँ एक भरी- पूरी दुनिया थी पर उनमें खुशहाली की तीखी खुशबू थी जब कोई सूँघता पीले पन्ने मैं सुनता था जंगल बढ़ रहा था टेलिविजन पर और धर्म और स्त्रियों पर अपने राज की लतायें पसार रहा था दोनों सिर्फ जिन्दा रखे जा रहे थे पीढ़ियों के लिये जंगल रोज सुबह अखबारों में पढता था मैं और चाय का स्वाद जुबान पर जाकर चिपक जाता था जब समझ नहीं आता था कि सचमुच के जंगल में बाघों की बढती संख्या पर कैसी प्रतिक्रिया दूँ हसूँ रोऊँ जंगल का जंगल में होना जरूरी था जंगल में बाघ का होना जरूरी था मैं अपनी किताबों को लेकर परेशान था जहाँ जंगल पसरे जा रहे थे बेतहाशा और जिनमें बाघों की संख्या बढ़ती जा रही थी किताबों में घटते हुए आदमियों से हताश था मैं किताबों में जंगल पसर रहे थे बाघ बढ़ रहे थे. ‘ कारण _______________ ठंड के मौसम में भी कुछ लोग मरे थे गरमी के मौसम में भी भूख भी एक सदाबहार ऋतु थी उस देश की जहाँ लोग मरते थे सालों भर मौत का कारण न ठंड थी न लू और न भूख बस कुछ ठंडी पड़ी संवेदनायें थीं जहाँ तर्क जम जाते थे बर्फ की अतल गहराईयों में दबी हुई थी करुणा जो तलाशे जा रहे कारणों से दूर पड़ी थी . एलम्नी मीट ____________ कोई मोटा हो गया था कोई गंजा किसी के बाल पक गये थे किसी की मूँछें वह खूबसूरत तो थी पर युवा नहीं रह गयी थी कोई छरहरी गुलथुल हो गयी थी किसी की आँखों के नीचे गढ़े काले पड़ गये थे किसी के चेहरे पर झुर्रियों के आने की सूचना थी समय फासले मिटा रहा था बरसों की समय फैसले सुना रहा था बरसों बाद. अशोक कुमार काल इंडिया में कार्यरत समस्त चित्र गूगल से साभार अटूट बंधन ………हमारा फेस बुक पेज

संगीता पाण्डेय कि कवितायें

                                      नाम – संगीता पाण्डेय सम्प्रति :अध्यापन शैक्षिक योग्यता – अंग्रेजी , शिक्षाशास्त्र तथा राजनीती विज्ञानं में परास्नातक ,  शिक्षाशास्त्र विषय में नेट परीक्षा उत्तीर्ण , पी एच डी हेतु नामांकित।  मेरा परिचय ………….  साहित्य प्रेमी माता – पिता की संतान होने के कारण बचपन से ही मेरा भी रुझान साहित्य में रहा। कवि सम्मेलनों में जाना और काव्य पाठ  सुनना ही कवितायेँ लिखने हेतु मेरी प्रेरणा के स्रोत  बने।  अंग्रेजी  साहित्य में परास्नातक करते समय कवितायेँ लिखने का श्री गणेश हुआ। वैसे तो प्रकृति में व्याप्त प्रत्येक वस्तु  मुझे आकर्षित करती है।  किन्तु मानव स्वाभाव तथा मानवीय सम्बन्ध  मेरी जिज्ञासा   का विषय रहें हैं। उपकरणीय जटिलताओं और विद्रूपताओं ने  मानवीय संबंधों के समीकरण को यांत्रिक बना दिया। सबकुछ स्थायी एवं सुविधापूर्ण बनाने की लालसा ने मानवीय संवेदनाओं को बुरी तरह से प्रभावित किया। मुझे ऐसी परिस्थितियां सदैव कुछ कहते रहने को विवश करती रहीं।                             भावुक ह्रदय  संगीता पाण्डेय दिल से लिखती हैं उनका लेखन हृदयस्पर्शी होता है। आज हम अटूट बंधन पर उनकी उन रचनाओं को पढ़ेंगे जिसमें उन्होंने नारी के मनोभावनाओं  को खूबसूरती से उकेरा है  विकल्प अस्पताल का बिस्तर,  अनंत को चीरती,  शून्य को निहारती , निस्तेज आखें , अस्सी / नब्बे प्रतिशत भुना शरीर। आज, क्या कुछ, नहीं , याद आ रहा , पापा ने ताउम्र सिखाया , विकल्पों में से ,उचित चयन।   उसने सीखा ही था ,सुन्दर चुनना  पापा लाते ,दो बहनो की ,दो गुड़िया  नीली और काली आँखों वाली,  वो चुनती नीली आँखों वाली , अपने खातिर। गुलाबी और पीले फ्रॉक , वो चुनती गुलाबी , अपने खातिर। विवाह के लिए ,कई तस्वीरें  पर, उसके पास था ,एक राजकुमार  ” सबका विकल्प।” किन्तु, ये विकल्प नहीं भाया ,किसी को भी…  क्यूंकि, ये विकल्प लोगों ने जो नहीं दिए थे  बस, समाप्त हो गया, चुनने का क्रम  थोपा जाने लगा ,सभी कुछ।  जब कुछ दिन कुछ साल गए  नए राजकुमार ने जाना , पुराने राजकुमार का किस्सा  हाँ ! उसने किया था  ” प्रेम अपराध ” प्रारम्भ हो गया नया सफ़र.।  जैसे, इस अमावस की , सुबह कभी न होगी  प्रश्न ,प्रताड़ना ,प्रत्यारोप   ” व्याकुल प्रारब्ध ”  प्रतिदिन ,प्रतिक्षण। यूँ भी चुनने की आदत अब शेष न थी  किन्तु, ऐसे जीवन के विकल्प में , उसने चुन ही  लिया, मृत्यु को  नीली आखें ,गुलाबी फ्रॉक , गोद वाला डेढ़ बरस का गुड्डा,  सब बेमानी। आखो से बहते गर्म लहू , अब घावों को दुःख देते थे.।  आज भी भोले मन को , निश्छल सी प्रतीक्षा थी , एक विकल्प की।  काश, कोई कहता कहो क्या चाहिए , ” जीवन या मृत्यु ? ” किन्तु, जीवन हर साँस के संग , डूबने को आतुर – व्याकुल। ये अंतिम युद्ध भी कैसा था !!!!! जिसमे _____ हार -जीत का कोई विकल्प ही न था।  ”परिणाम, पूर्वघोषित ” हाँ !  क्यूंकि, ” विकल्पों का अस्तित्व “ जीवन के साथ हुआ करता है, किन्तु, जीवन का विकल्प  होकर भी  ” साथ नहीं चलता।” तुमने कहा था हाँ , तुमने कहा था  इसीलिए बस  जला दिये वो  सारे ख़त  जो तुमने भेजे थे। क्या हुआ ? गर उनमे सपने रीते थे , यादें बसती थी , सांसें रमती थी। धुआं धुआं था , मन भीगा था , बचपन  की कुछ  यादें थी , कुछ नटखट सी बातें थीं, तुम भी थे और हम भी थे। कुछ चिनगारी बन कर उड़ गए  कुछ लपटों  संग भीतर  उतरे  कुछ उड़े  तो दूर तलक थे   लौटे आकर,  गोद में गिरे   लपटे थोड़ी ठहर गयी जब  जब थोड़ी सी तन्द्रा लौटी  सारे भस्म समेटे मैंने    नहीं करेंगे तर्पण इसका  सोच लिया था . अब  तुमने जो नहीं कहा था , इसीलिए बस  हमने  तर्पण नहीं किया  जब तक  हूँ  ये संग रहेंगे  नहीं  रह सके गर तुम ,तो क्या ? हाँ , तुमने कहा था  इसीलिए बस  जला दिये वो  सारे ख़त  जो तुमने भेजे थे। .  . हाँ की वो पत्नी ही थी…!!!!!  आज अक्षर मूक था , विष्मय  था . दर्द था , चिलचिलाती धूप थी, हृदय में स्पंदन था,  किन्तु लय विलुप्त था। चारो तरफ तृष्णा थी, रस था रंग था , खरीद- फ़रोख्त थी …..संवेदनाओ की …… ज़िस्म था , बज़्म था , जीस्त थी , तश्नगी थी , अलग ही कयास थे कितभी   फिर ये कैसा शोर था ?  किसी की वेदना थी या की खोखलेपन की गूँज …? कुछ शेष था, तो बस छल था . लोग थे किन्तु प्राण हीन से . तभी एक सुबह, सड़को की धूल फाकते वक़्त मैंने सहसा उसको देखा ………!!!!! पति के कलाई में ग्लूकोज की ड्रिप थी उसके हाथो में थी ग्लूकोज की बोतल वो लटकाए पीछे चलती आज दिखी थी तलब थी बीड़ी की, खरीद रहा था ठेले से वह बस एक अनुगामिनी चिर मौन संग चली जा रही लगा था की पत्नी ही थी ….. सहचरी की….. शायद जीवनसंगिनी थी हाँ की वो पत्नी ही थी …!!!!! शिकायत   उफ्फ़ ……!!  तुम्हे तो हमेशा शिकायतें, मुझे याद है.………  जब कम बोलते थे  तुम कहते  ” कुछ कहती ही नहीं ” ” ये तो चन्दन है जंगल का ” और अब  कहते हो  ” कभी तो शांत रहा करो ” ” कितना किट किट करती हो” अब भी  तुम्हे  बस  शिकायते ही हैं  उफ्फ़….!! मगर ……… !! एक बात जो मुझे पता है , तुम्हे नहीं पता………….  कह दूँ , कह ही दूँ  अब जिस दिन मैं  न बोलूंगी  उस दिन तुम ……. तुम छोड़ दोगे………  शिकायत ही …… !! माँ ! मेरी क्या खता थी ? हम दोनों तुझसे ? ये सोच , तेरे प्यार में तुझसे , मुझको दूर कर दिया। माँ ! साल बीते तो मैंने तेरी माँ को अपनी माँ समझा और तेरे पिता को अपना पिता। माँ ! कुछ सालों  के बाद तेरी माँ ने फिर से मुझसे मेरी माँ छीन ली , ये कहकर कि , मैं  तो तेरी बेटी हूँ माँ ! मैं भीतर तक टूट गयी थी, माँ ! रद्दी  के पन्ने सा वज़ूद लगा था। पता है माँ ! तब मैंने तेरी ओर हाथ बढ़ाया था तुझको पाने को ,तुझको छूने को। पर माँ ! … Read more

मायके आई हुई बेटियाँ

मायके आई हुई बेटियाँ , फिर से अपने बचपन में लौट आती है , और जाते समय आँचल के छोर में चार दाने चावल के साथ बाँध कर ले जाती है थोडा सा स्नेह जो सुसराल में उन्हें साल भर तरल बनाये रखने के लिए जरूरी होता है |  कविता -मायके आई हुई बेटियाँ  (१ ) बेटी की विदाई के बाद  अक्सर खखोरती है माँ  बेटी के पुराने खिलौनो के डिब्बे  उलट – पलट कर देखती है  लिखी -पड़ी  गयी  डायरियों के हिस्से  बिखेरकर फिर  तहाती है पुराने दुपट्टे  तभी तीर सी  गड जाती हैं  कलेजे में   वो  गांठे  जो बेटियों के दुप्पटे पर   माँ ही लगाती आई हैं  सदियों  से  यह कहते हुए  “बेटियाँ तो सदा पराई होती हैं ”   (२ ) बेटी के मायके आने की  खबर से  पुनः खिल उठती है   बूढी बीमार माँ  झुर्री भरे हाथों से  पीसती है दाल  मिगौड़ी -मिथौरी  बुकनू ,पापड ,आचार  के सजने लगते हैं मर्तबान  छिपा कर दुखों की सलवटे  बदल देती हैं  पलंग की चादर  कुछ जोड़ -तोड़ से  खाली कर देतीं है  एक कोना अलमारी का  गुलदान में सज जाते है  कुछ चटख रंगों के फूल  भर जाती है रसोई  बेटी की पसंद के  व्यंजनों की खशबू से  और हो जाता है  सब कुछ पहले जैसा  हुलस कर मिलती चार आँखों में  छिप जाता है  एक झूठ  (३ ) मायके आई हुई बेटियाँ  नहीं माँगती हैं  संपत्ति में अपना हिस्सा  न उस दूध -भात  का हिसाब  जो चुपके से  अपनी थाली से निकालकर  रख दियाथा भाई की थाली में  न दिखाती हैं लेख -जोखा  भाई के नाम किये गए व्रतों का  न करनी होती है वसूली  मायके की उन चिंताओं की  जिसमें काटी होती हैं  कई रातें  अपलक  आसमान निहारते हुए  मायके आई हुई बेटियाँ  बस इतना ही  सुनना चाहती है  भाई के मुँह से   जब मन आये चली आना  ये घर   तुम्हारा अपना ही है  (४ ) अकसर बेटियों के  आँचल के छोर पर  बंधी रहती है एक गाँठ  जिसमें मायके से विदा करते समय माँ ने बाँध दिए थे  दो चावल के दाने    पिता का प्यार  और भाई का लाड  धोते  पटकते निकल जाते है ,चावल के दाने  परगोत्री घोषित करते हुए   पर बंधी रह जाती है  गाँठ  मन के बंधन की तरह  ये गाँठ  कभी नहीं खुलती  ये गाँठ  कभी नहीं खुलेगी  (५ ) जब भी जाती हूँ  मायके  न जाने कितने सपने भरे आँखों में  हुलस कर दिखाती हूँ  बेटी का हाथ पकड़  ये देखो  वो आम का पेड़  जिस पर चढ़कर  तोड़ते थे कच्ची अमियाँ  खाते थे डाँट  पड़ोस वाले चाचा की  ये देखो  बरगद का पेड़  जिसकी जटाओं  पर बांधा था झूला  झूलते थे  भर कर लम्बी -लम्बी पींगें  वो देखो खूँटी पर टँगी  बाबूजी की बेंत  जिसे अल -सुबह हाथो में पकड़  जाते थे सैर पर  आँखें फाड़ -फाड़ कर देखती है बिटियाँ  यहाँ -वहाँ ,इधर -उधर  फिर झटक कर मेरा  हाथ  झकझोरती है जोर से  कहाँ माँ कहाँ  कहाँ है आम का पेड़ और ठंडी छाँव  वहां खड़ी है ऊँची हवेली  जो तपती  है धूप  में  कहाँ है बरगद का पेड़  वहां तो है  ठंडी बीयर की दुकान  जहाँ झूलते नहीं झूमते हैं  और नाना जी की बेंत  भी तो नहीं वहां टंगी है एक तस्वीर  पहाड़ों की  झट से गिरती हूँ मैं पहाड़ से  चीखती हूँ बेतहाशा  नहीं है ,नहीं है  पर मुझे तो दिखाई दे रही है साफ़ -साफ़  शायद नहीं हैं  पर है …. मेरी स्मृतियों में  इस होने और नहीं होने की कसक  तोड़ देती है मुझे  टूट कर बिखर जाता है सब  फिर समेटती हूँ  तिनका -तिनका  सजा देती हूँ जस का तस  झूठ ही सही  पर !हाँ  … अब यह है  क्योंकि इसका होना  बहुत जरूरी है  मेरे होने के लिए  वंदना बाजपेयी   atoot bandhan…… हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे  कैंसर कच्ची नींद का ख्वाब ये इंतज़ार के लम्हे सतरंगिनी आपको “ मायके आई हुई बेटियाँ  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- maaykaa, Poetry, Poem, Hindi Poem, Emotional Hindi Poem, girl, 

सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ

सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ  1. खो गई चीज़ें                                वे कुछ आम-सी चीज़ें थींजो मेरी स्मृति में सेखो गई थींवे विस्मृति की झाड़ियों मेंबचपन के गिल्ली-डंडे कीखोई गिल्ली-सी पड़ी हुई थीं वे पुरानी ऐल्बम में दबेदाग़-धब्बों से भरेकुछ श्वेत-श्याम चित्रों-सी दबी हुई थींवे पेड़ों की ऊँची शाखाओं मेंफड़फड़ाती फट गईपतंगों-सी अटकी हुई थींवे कहानी सुनते-सुनते सो गएहम बच्चों की नींद मेंअधूरी-सी खड़ी हुई थींकभी-कभी जीवन की अंधी दौड़ मेंहम उनसे यहाँ-वहाँ टकरा जाते थेतब हम अपनी स्मृति केकिसी ख़ाली कोने कोफिर से भरा हुआ पाते थे …खो गई चीज़ेंवास्तव में कभी नहीं खोती हैंदरअसल वे उसी समयकिसी और जगह पर मौजूद होती हैं                           ———-०———-                             2.  स्वप्न                            ————-                                               वह एक स्वप्न थामेरी नींद मेंआना ही चाहता था किटूट गई मेरी नींदकहाँ गया होगा वह स्वप्न —भटक रहा होगा कहींया पा ली होगी उसनेकिसी की नींद में ठौरडर इस बात का है कियदि किसी की भी नींद मेंठिकाना न मिला उसे तोकहीं निराश हो करआत्म-हत्या न कर लेआज की रातएक स्वप्न                               ———-०———-                                  3. वे जो वग़ैरह थे                                ———————                                                                वे जो वग़ैरह थेवे बाढ़ में बह जाते थेवे भुखमरी का शिकार हो जाते थेवे शीत-लहरी की भेंट चढ़ जाते थेवे दंगों में मार दिए जाते थेवे जो वग़ैरह थेवे ही खेतों में फ़सल उगाते थेवे ही शहरों में भवन बनाते थेवे ही सारे उपकरण बनाते थेवे ही क्रांति का बिगुल बजाते थेदूसरी ओरपद और नाम वाले हीसरकार और कारोबार चलाते थेउन्हें भ्रम था कि वे ही संसार चलाते थेकिंतुवे जो वग़ैरह थेउन्हीं में सेक्रांतिकारी उभर कर आते थेवे जो वग़ैरह थेवे ही जन-कवियों कीकविताओं में अमर हो जाते थे …                            ———-०———-                                  4. जब तक                                —————                                                        – जब तक स्थिति परक़ाबू पानेपुलिस आती हैजल चुके होते हैंदर्जनों घर आगज़नी मेंजब तकफ़्लैग-मार्च के लिएसेना आती हैमर चुके होते हैंदर्जनों लोग दंगों मेंजब तकशांति-वार्ता कीपहल की जाती हैआ चुकी होती हैएक बड़ी दरार मनों मेंजब तकसूरज दोबाराउगता हैअँधेरा लील चुका होता हैइंसानियत को … प्रेषकः सुशांत सुप्रिय          A-5001,          गौड़ ग्रीन सिटी ,          वैभव खंड ,           इंदिरापुरम ,           ग़ाज़ियाबाद -201010          ( उ. प्र. ) मो: 8512070086 ई-मेल: sushant1968@gmail.com समस्त चित्र गूगल से                              ———-0——-––atoot -bandhan हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे  आपको    “सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ      “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

गिरीश चन्द्र पाण्डेय “प्रतीक” की कवितायें

अब रेखाएं नहीं अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं हर पाँच साल बाद फिर रँग दिया जाता है इन रेखाओं को अपने-अपने तरीके से अपनी सहूलियत के रँग में कभी दो गज इधर कभी दो गज उधर बनी रहती है रेखा जस की तस गिरीश चन्द्र पाण्डेय जी की कवितायें मैं तक सीमित नहीं हैं उनकी  कवितायों में सामाजिक भेद भाव के प्रति गहरी संवेदनाएं हैं ….. कवि मन कई अनसुलझे   सवालों के उत्तर चाहता है …. कहीं निराश होता है कहीं आशा का दामन थामता है…. आज के सन्दर्भ में स्त्री मुक्ति आन्दोलन है उसे वो भ्रमित करने वाला बताते हैं ….भ्रम में दोनों हैं स्त्री भी ,पुरुष भी  ………. कही बुजुर्ग माता -पिता की विवशता दिखाती हैं …. कुल मिला कर गिरीश जी की कवितायें अनेकों प्रश्न उठाती हैं और  हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं  गिरीश चन्द्र पाण्डेय “प्रतीक” की कवितायें                           ●●असमान रेखाएँ●● एक रेखा खींची है हमने अपने मनोमस्तिष्क में नाप लिया है हमने इंच दर इंच अपने पैमाने से क्या नापा और कैसे नापा हमने ये बताना मुश्किल है अगम ही नहीं अगोचर भी है वो रेखा जो खिंच चुकी है हजारों वर्ष पहले उसको मिटाने की जद्दो जहद आज कल खूब चल रही है बड़े बड़े लोग उनकी बड़ी बड़ी बातें पर काम वही छोटे सोच वही संकीर्णता के दल-दल में फँसी और धँसी हुई रेखा जस की तस और गहरी और विभत्स होती हुई और लम्बाई लेते हुए दीवार को गिराना आसान है पर दिलों में पड़ी दरार को पाटना बहुत मुश्किल जातियों वर्गों के बीच की काली रेखाएं अब रेखाएं नहीं अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं हर पाँच साल बाद फिर रँग दिया जाता है इन रेखाओं को अपने-अपने तरीके से अपनी सहूलियत के रँग में कभी दो गज इधर कभी दो गज उधर बनी रहती है रेखा जस की तस अपनी जगह पर हाँ कुछ वर्षौ से एक छटपटाहट देखी गयी है रेखा के आर-पार मिटाने की कवायद जारी है वर्षौ से खिंची रेखा को मिटाने लगेंगे वर्षौ ये कोई गणित के अध्यापक की रेखागणित नहीं जिसे जब चाहो वर्ग बनालो जब चाहो आयत बना लो जब कब चाओ त्रिभुज बनालो जब चाहो वृत बनालो ये तो अदृश्य है समाज के इस छोर से उस छोर तक अविकसित से विकसित तक हर जगह व्याप्ति है इसकी ये रेखाएं जल,जमीन,जंगल सब जगह इसको मिटाना ही होगा हम सबको अपने दिलों से दिमाग से समाज से आओ सब मिल संकल्प लें इस नये वर्ष में दूरियाँ कुछ कम करें                                              ●गत को भूल स्वागत है तेरा● मुश्किल है समेटना हर पल विपल को और उस बीते हुए कल को घड़ी की सुई ही दे सकती है हिसाब और परिभाषित कर सकती है हर क्षण को मुझमें तो क्षमता है नहीं कि में लिख सकूँ उन अँधेरी रातों की आहट जिन्दगी की छटपटाहट ख्वाबों से लड़ता नौजवान इंसान को काटता इन्सान कैसे लिखूँ उस विभीषिका को जिसने लूट लिया उस विश्वास को जो था उस परम आत्मा पर उस इन्सान को इन्सान कह पाना मुश्किल है जिसने हैवानियत की हद पार कर दी हो कैसे बांचा जा सकता है सत्ता के गलियारों का स्याह पहलु कौन उकेर पायेगा उस माँ का दर्द जिसने खो दिया हो अपने लाल को और अपने सुहाग को कैसे पिघलेगा मोम सा दिल जब रौंद दिया गया हो दिल के हर कोने को बना दिया गया हो नम आंखों को सूखा रेगिस्तान कैसे होगा संगम दिलों का,सीमाओं का,जातियों का उन भावों को जो सरस्वती सी लुप्त हो चुकी नदि से हैं बहुत कुछ चीख रहा है उन पाहनों के नीचे दबा कुचला बचपन सिसक रही हैं आत्माएं अनगिनत दुराचारों की काल कोठरियों में कैसे कहूँ की में शिक्षित हो गया हूँ अभी भी अशिक्ष असंख्य मस्तिष्क हैं यहाँ डिग्रियां छप रहीं है होटलों के कमरों में बिक रहा है ईमान कौड़ी के मोल कैसे परिभाषित करूँ खुद को एक पुरुष के रूप में एक मानव के चोले में बहुत कुछ लुट चूका है वजूद भाग रहा हूँ पैसों की अंधी दौड़ में न जाने क्या पा जाऊंगा और कितनी देर के लिए कुछ पता नहीं है कुर्सी महंगी ही नहीं मौत का आसन भी है फिर भी दौड़ रहा हूँ खाई की तरफ दौड़ रहा हूँ मरुस्थल की ओर जानता हु ये मृगमरीचिका है फिर भी दौड़ रहा हूँ बुला रहा हूँ सामने खडी मौत को कैसे लिखूं उस सुबह को जिसने मुझे जगाने का प्रयास किया उस हर किरण को जिसने तमस को दूर किया उस उर्जा के पुंज को जिसने एक नव ऊर्जा का संचार किया ओह उस भविष्य को पकड नहीं सकता जो मेरे कदम से एक कदम आगे है बस उसके पीछे चल रहा हूँ रास्ते के हर मोड़ को जीते हुए जरा सम्हाल कर जरा सम्हल कर चलना है इंतजार है उस सुबह का जो एक नए उत्साह को लायेगी जिसके सहारे वक्त को जी पाऊंगा वक्त पर जो थोडा मुश्किल होगा पर ना मुमकिन नहीं                                                  ●नदी से भाव● बह रही थी नदीपाहनों से टकराते हुए,छलकते हुएकुछ ऐसे ही थे मेरे भावजो टकरा रहे थेउन बिडंबनाओं सेउन रुढियों सेजो मुझे मानव होने से रोकती हैंदेखता हूँ इस नदी की गतीजो बह रही हैअपनी चाल परपर कुछ किनारे बदल रहे थेउसकी ढालमजबूर कर रहे थेरास्ता बदलने कोजैसे मुझसे कोई कह देतेरा रास्ता तू नहींकोई और बनाएगानदी चली जा रही है।बिना किसी की परवाह करेअगले पड़ाव को पार करने की होड़हर जल बिंदु मचल रही हो जैसेसागर में समा जाने को।उस सागर मेंजहां उसका अस्तित्व ,ना के बराबर होगा।फिर भी चाहिए उसे मंजिलअपने को समर्पित कर देनाआसान नहीं हैमेरे लिए तो बिल्कुल नहींनदी का वेग बढ़ता चला गयाज्यो ज्यों घाटी नजदीक आने लगीकुछ यों ही मेरे भाव भी उतावले थेउस समतल को पाने के लिएजहाँ सब समान होंजहाँ कोई … Read more

राधा क्षत्रिय की कवितायेँ

      प्रेम मानव मन का सबसे  खूबसूरत अहसास है प्रेम एक बहुत ही व्यापक शब्द है इसमें न जाने कितने भाव तिरोहित होते हैं ये शब्द जितना साधारण लगता है उतना है नहीं इसको समझ पाना  और शब्दों में उतार पाना आसान नहीं है फिर भी यही वो मदुधुर अहसास है  जो  जीवन सही को अर्थ देता है, आज हम अटूट बंधन पर राधा क्षत्रिय जी  प्रेम  विषय पर लिखी हुई कवितायेँ  पढ़ेंगे   फ़र्क  मोहब्बत ओर इबादत में, फ़र्क बस इतना जाना है! मोहब्बत में खुद को खोकर चाहत को पाना है, इबादत में खुद को खोकर, पार उतर जाना है!  तन्हाईयाँ तुमसे मिलने के बाद, तन्हाईयों से, प्यार हो गया हमें—- जहाँ सिवा तुम्हारे, और मेरे ,कोई नहीं आता—— बूँदों का संगीत बारिश का तो, बहाना है, तुम्हारे ओर करीब , आना है! रिम-झिम गिरती, बूंदों का, संगीत बडा, सुहाना है! तुम साथ, हो मेरे, मुझे अंर्तमन तक, भीग जाना है ! ख्वाब  सारी रात वो मुझको  ख्वावों में बुना करता है और हर सुबह एक नयी ग़जल लिखा करता है “निगाहें” जब पहली बार उनसे  निगाहें मिलीं पता  नहीं क्या हुआ हमने शरमा कर पलकें झुका ली जब हमने पलकें उठाई तो वो एकटक हमें ही देखे जा रहे थे और जब निगाहें निगाहों से मिली हम अपना दिल  हार गये पता नहीं क्या जादू कर दिया था उन्होने हम पर हमें तो पूरी दुनीयाँ  बदली-बदली नजर  आने लगी फ़िर महसूस हुआ बिना उनके प्यार  के जिदंगी कितनी अधूरी थी… ” दिल”  जब तन्हाँ बैठे तो तुम्हारा ख्याल आया और दिल आया हमारी नजरों की ओस  से भीगी यादें दर -परत-दर खुलती चली गई और दिल भर आया जो अफ़साने अंजाम  तक न पहूँचें और दिल में दफ़न हो गये जेहन में दस्तक दे उठे वो एहसास फ़िर मचल उठे और दिल भर आया बहुत कोशिश की दिल के बंद दरवाजे न खोलें पर नाकाम रहे जो वादा तुमसे किया था वो टूट गया और दिल भर आया— हमसफ़र  तुम हमसफर क्या बने जहाँ भर की खुशियाँ हमार नसीब बन गयीं जिदंगी फूलों की  खुशबू की तरह  हसीन ,साज पर छिड़े संगीत की तरह सुरीली तितलीयों के पंखों जितनी रंगीन बन गई उस पर तुम्हारी बेपनाह मोहब्बत हमारा नसीब बन गई. रात एक हसीन ख्बाब  की तरह चाँद तारों से सज गई. हवाओं में तुम्हारे प्यार की खुशबू बिखर गई हम पर तुम्हारी  मोहब्बत का नशा इस कदर छा गया हमने खुदा को भी भुला दिया और तुम्हें अपना खुदा बना लिया तुम्हारी चाहत ही  हमारी इबादत  बन गई— रिश्ते  प्यार और रिश्तों का तो, जन्म से ही साथ होता है ! वक्त की आँच पर तपकर, ये सोने की तरह निखर उठता है! पर कुछ रिश्ते , सब से जुदा होते हैं ! इन्हें किसी संबधों में, परिभाषित नहीं किया जा सकता ! इनका संबध तो सीधा , अंर्तमन से होता है ! ये तो मन की डोर से , बँधे होते हैं ! अपनेपन का एहसास इनमें, फूलों सी ताजगी भर देता है ! ऊपर वाले से माँगी हुई, हर दुआ जैसे, जो हौंसलों का दामन , हमेशा थामके रखते हैं ! और उनकी माँगी हुई दुआओं पर, खुदा भी नज़रे -इनायत करता है ! और मांझी विपरीत बहाव में भी, नाव चलाने का साहस कर लेता है !    प्यार के पंख  मेरी ख्वाईशें क्यों , इस कदर मचल रही हैं! जैसे कोई बरसाती नदिया! जो तोड़ अपने तटों को, तीव्र गति से, बहना, चाहती हो! हृदय सरिता , प्यार की बर्षा से तट तक , भर गयी है! सरिता का जल, रोशनी से झिलमिल और हवा से छ्प-छप कर रहा है! अरमानों को पंख, लग गये हैं! मन पूरा अंबर , बाँहों मैं, लेने को आतुर है! दिल की धड़कनें, बेकाबू हो, मचल रही हैं! लगता है मेरी, ख्वाईशों मैं, तुम्हारे प्यार के पंख लग गये हैं! … भूल  हमने उनको इस कदर  टूटकर चाहा कि खुद  को ही भूल गये अगर हमें पता होता  किसी को चाहना हमें हमसे जुदा  कर देगा तो हम भूल से भी ये भूल न करते पर जब भूल  से ये भूल हो गयी तो इस भूल की सजा भी हमको ही मिली अब तो ये आलम हे  कि आईने में भी अपनी पहचान  भूल गये बस उनकी ही सूरत  हमारी आँखों में है और हम उनकी  आँखों में खो गये सर्वप्रथमप्रकाशित रचना..रिश्तों की डोर (चलते-चलते) ।  स्त्री, धूप का टुकडा , दैनिक जनपथ हरियाणा ।  ..प्रेम -पत्र.-दैनिक अवध  लखनऊ । “माँ” – साहित्य समीर दस्तक वार्षिकांक।  जन संवेदना पत्रिका हैवानियत का खेल,आशियाना, करुनावती साहित्य धारा ,में प्रकाशित कविता – नया सबेरा. मेघ तुम कब आओगे,इंतजार. तीसरी जंग,साप्ताहिक ।  १५ जून से नवसंचार समाचार .कॉम. में नियमित ।  “आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह ” भोपाल के तत्वावधान में साहित्यिक चर्चा कार्यक्रम में कविता पाठ ” नज़रों की ओस,” “एक नारी की सीमा रेखा” आगमन बार्षिकांक काव्य शाला में कविता प्रकाशित​.. आपको    “राधा क्षत्रिय की कवितायेँ     “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

भावनाएं

                                                                     स्त्री या पुरुष दोनों को कहीं न कहीं यह शिकायत रहती है कि अगला उनकी भावनाएं नहीं समझ पा रहा है …… यह भावनाएं कहाँ पर आहत हैं यह समझने के लिए हम दो स्त्री ,दो पुरुष स्वरों को एक साथ लाये हैं ….. आप भी पढ़िए अटूट बंधन पर आज :भावनाएं (स्त्री और पुरुष की )  एक इच्छा  अनकही  सी …. किरण आचार्य  तुम …. दीपक गोस्वामी  तुम मेरे साथ हो …..डिम्पल गौर  ढूढ़ लेते हैं …..डॉ  गिरीश चन्द्र पाण्डेय  एक इच्छा अनकही सी आज फिर गली से निकलाऊन की फेरी वालासुहानें रंगों के गठ्ठर सेचुन ली है मैनेंकुछ रंगों की लच्छियाँएक रंग वो भीतुम्हारी पसंद कातुम पर खूब फबता है जोबैठ कर धूप मेंपड़ोसन से बतियाते हुए भीतुम्हारे विचारों में रतअपने घुटनों पर टिकाहल्के हाथ से हथेली पर लपेटहुनर से अपनी हथेलियों कीगरमी देकर बना लिए हैं गोलेफंदे फंदे में बुन दिया नेहतुम्हारी पसंद के रंग का स्वेटरटोकरी में मेरी पसंदके रंग का गोला पड़ाबाट देखता है अपनी बारी कीऔर मैं सोचती हूँअपनी ही पसंद काक्या बुनूँकोई नहीं रोकेगाकोई कुछ नहीं कहेगापर खुद के लिए ही खुद ही,,,एक हिचक सीपर मन करता हैकभी तो कोई बुनेमेरी पसंद के रंग के गोलेलो फिर डाल दिए हैनए रंग के फंदेटोकरी में सबसे नीचेअब भी पड़ा हैंमेरी पसंद के रंग का गोलालेखिका किरन आचार्यआक्समिक उद्घोषकआकाशवाणीचित्तौड़गढAdd – B-106 प्रतापनगर चित्तौड़गढ (राज.)               तुम जब भी सोचता हूँ तुम्हारे बारे में भावनाएं एक कविता कहती है कभी निर्झर हो गिरते है आवेश मेरे तो कभी मुझसे तुम तक तुमसे मुझ तक एक अछूती, अनदेखी शांत सरिता बहती है। जब भी सोचता हूँतुम्हारे बारे में भावनाएं एक कविता कहती है अक्सर घंटो बतियाते है आवेग मेरे दिनों तक निर्वात रखता है व्यस्त मुझे महीनों में खुद के हाथ नही आता वर्षो मेरे अस्तित्व की संभावनाएं वनवास सहती है जब भी सोचता हूँतुम्हारे बारे में भावनाएं एक कविता कहती है। दीपक गोस्वामी  कविता –तुम मेरे साथ हो —————————–यादों के झरोंखों में देखूं तोतुम बस तुम ही नजर आते होकुछ खोए खोए गुमसुम सेनजर आते होकोलाहल के हर शोर मेंस्वर तुम्हारे सुनते हैंरेत के बने घरोंदों मेंनिशाँ तुम्हारे दीखते हैंहर विशाल दरख्त की छायाअहसास तुम्हारा कराती हैतुम हो मेरे आसपास हीमन में यही आसजगाती है——————————-–—————————डिम्पल गौर ‘ अनन्या ‘  ●●●●●●●ढूँढ़ लेते हैं●●●●●●●●● बहुत कमियाँ हैं मुझमें,आजा ढूँढ लेते हैंबहुत खामियाँ हैं मुझमें,आजा ढूँढ़ लेते हैं कोई चाहिए मुझे, जो बदल दे मेरी जिन्दगीबहुत गुत्थियाँ हैं मुझमें,आजा खोल लेते हैं आज तक जो मिला,बस आधा ही मिला हैबहुत खूबियाँ हैं मुझमें,आजा खोज लेते हैं जो दिखता हूँ मैं,वो अक्सर  होता ही नहींबहुत दूरियाँ हैं मुझमें,आजा कम कर लेते हैं चाँद भी कहाँ पूरा है बहुत दाग देखे हैं मैंनेबहुत कमियाँ हैं मुझमें,प्रतीक मान लेते हैं डॉ गिरीश चन्द्र पाण्डेय प्रतीकडीडीहाट पिथोरागढ़ उत्तराखंडमूल-बगोटी ,चम्पावत09:57am//07//12//14रविबार आपको    ”  भावनाएं    “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ

                    अरविन्द जी की कविताओं में एक बेचैनी हैं ,जहाँ वो खुद को व्यक्त करना चाहते हैं।  वही उसमें एक पुरुष की समग्र दृष्टि पतिबिम्बित होती है ,”छोटी -छोटी खुशियाँ “में तमाम उत्तरदायित्वों के बोझ तले  दबे एक पुरुष की भावाभिव्यक्ति है. बिटिया में  सहजता से कहते हैं की बच्चे ही माता -पिता को  वाला सेतु होते हैं। ………कुल मिला कर अपनी स्वाभाविक शैली में वो  कथ्य को ख़ूबसूरती से व्यक्त कर पाते हैं। आइये आज “अटूट बंधन” पर पढ़े अरविन्द खड़े जी की कविताएं ……………   अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ    1-कविता–पराजित होकर लौटा हुआ इंसान —————————————— पराजित होकर लौटे हुए इंसान की कोई कथा नहीं होती है न कोई किस्सा होता है वह अपने आप में एक जीता–जागता सवाल होता है वह गर्दन झुकाये बैठा रहता है घर के बाहर दालान के उस कोने में जहॉ सुबह–शाम घर की स्त्रियां फेंकती है घर का सारा कूड़ा–कर्कट उसे न भूख लगती न प्यास लगती है वह न जीता है न मरता है जिए तो मालिक की मौज मरे तो मालिक का शुक्रिया वह चादर के अनुपात से बाहर फैलाये गए पाँवों की तरह होता है जिसकी सजा भोगते हैं पांव ही.                        2-कविता–तुम कहती हो कि….. ——————————— तुम कहती हो कि तुम्हारी खुशियां छोटी–छोटी हैं ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं जिनकी देनी पड़ती हैं मुझे कीमत बड़ी–बड़ी कि जिनको खरीदने के लिए मुझे लेना पड़ता है ऋण चुकानी पड़ती हैं सूद समेत किश्तें थोड़ा आगा–पीछा होने पर मिलते हैं तगादे थोड़ा नागा होने पर खानी पड़ती घुड़कियां ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि मुझको पीनी पड़ती है बिना चीनी की चाय बिना नमक के भोजन और रात भर उनींदे रहने के बाद बड़ी बैचेनी से उठना पड़ता है अलसुबह जाना पड़ता है सैर को ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि तीज–त्योहारों उत्सव–अवसरों पर मैं चाहकर भी शामिल नहीं हो पाता हूँ और बाद में मुझे देनी पड़ती है सफाई गढ़ने पड़ते हैं बहानें प्रतिदान में पाता हूँ अपने ही शब्द ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि बंधनों का भार चुका  नहीं पाता हूँ दिवाली आ जाती है एक खालीपन के साथ विदा देना पड़ता है साल को और विरासत में मिले नए साल का बोझिल मन से करना पड़ता है स्वागत भला हो कि होली आ जाती है मेरे बेनूर चेहरे पर खुशियों के रंग मल जाती है उन हथेलियों की गर्माहट को महसूसता हूँ अपने अंदर तक मुक्त पाता हूँ अपने आप को अभिभूत हो उठता हूँ तुम्हारे प्रति कृतज्ञता से भार जाता हूँ शुक्र है मालिक कि तुम्हारी खुशियां छोटी–छोटी हैं                                               3-कविता–जब भी तुम मुझे ————————- जब भी तुम मुझे करना चाहते हो जलील जब भी तुम्हें जड़ना होता है मेरे मुंह पर तमाचा तुम अक्सर यह कहते हो– मैं अपनी हैसियत भूल जाता हूँ भूल जाता हूँ अपने आप को और अपनी बात के उपसंहार के ठीक पहले तुम यह कहने से नहीं चुकते– मैं अपनी औक़ात भूल जाता हूँ जब भी तुम मुझे नीचा दिखाना चाहते हो सुनता हूँ इसी तरह उसके बाद लम्बी ख़ामोशी तक तुम मेरे चेहरे की ओर देखते रहते हो तौलते हो अपनी पैनी निगाहों से चाह कर भी मेरी पथराई आँखों से निकल नहीं पाते हैं आंसू अपनी इस लाचारी पर मैं हंस देता हूँ अंदर तक धंसे तीरों को लगभग अनदेखा करते हुए तुम लौट पड़ते हो अगले किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में. 4-कविता–उस दिन…उस रात…… ——————————– उस दिन अपने आप पर बहुत कोफ़्त होती है बहुत गुस्सा आता है जिस दिन मेरे द्वार से कोई लौट जाता है निराश उस दिन मैं दिनभर द्वार पर खड़ा रहकर करता हूँ इंतजार दूर से किसी वृद्ध भिखारी को देख लगाता हूँ आवाज देर तक बतियाता हूँ डूब जाता हूँ लौटते वक्त जब कहता है वह– तुम क्या जानो बाबूजी आज तुमने भीख में क्या दिया है मैं चौंक जाता हूँ टटोलता हूँ अपने आप को इतनी देर में वह लौट जाता है खाली हाथ साबित कर जाता है मुझे कि मैं भी वही हूँ जो वह है उस दिन अपने आप पर…… उस रात मैं सो नहीं पाता हूँ दिन भर की तपन के बाद जिस रात चाँद भी उगलता है चिंगारी खंजड़ी वाले का करता हूँ इंतजार दूर से देख कर बुलाता  हूँ करता हूँ अरज– ओ खंजड़ी वाले आज तो तुम सुनाओ भरथरी दहला दो आसमान फाड़ दो धरती धरा रह जाये प्रकृति का सारा सौंदर्य वह एक लम्बी तान लेता है दोपहर में सुस्ताते पंछी एकाएक फड़फड़ा कर मिलाते है जुगलबंदी उस रात…….                          ५ बिटिया ——– बिटिया मेरी, सेतु है, बांधे रखती है, किनारों को मजबूती से, मैंने जाना है, बेटी का पिता बनकर, किनारे निर्भर होते हैं, सेतु की मजबूती पर.                            –अरविन्द कुमार खेड़े. ——————————————————————————————— 1-परिचय… अरविन्द कुमार खेड़े  (Arvind Kumar Khede) जन्मतिथि–  27 अगस्त 1973 शिक्षा–  एम.ए. प्रकाशित कृतियाँ– पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित सम्प्रति–प्रशासनिक अधिकारी लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग मध्य प्रदेश शासन. पदस्थापना–कार्यालय मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी, धार, जिला–धार म.प्र. पता– 203 सरस्वती नगर धार मध्य प्रदेश. मोबाईल नंबर– 9926527654 ईमेल– arvind.khede@gmail.com  आत्मकथ्य– ”न मैं बहस का हिस्सा हूँ…न मुद्दा हूँ….मैं पेट हूँ….मेरा रोटी से वास्ता है….” ……………………………………………………………………………………………………………. आपको    ”  अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ   “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita