मातृ दिवस पर डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई जी की चार कविताएँ

माँ का उसकी संतान से रिश्ता अद्भुत है |माँ हमेशा स्नेह प्रेम और दया की मूर्ति होती है | अगर ये कहें कि माँ धरती पर साक्षात ईश्वर है तो अतिश्योक्ति ना होगी | यूँ तो हर दिन माँ का दिन होता है … पर मदर्स डे विशेष रूप से इसलिए बनाया गया कि कम से कम वर्ष में एक दिन तो माँ के प्रति अपनी सद्भावनाएं व्यक्त की जा सकें | भले ही ये आयातित त्यौहार हो , पर हमें अवसर देता है की हम कह सकें ,” माँ तुम मेरी जिन्दगी में आज भी उतनी ही  अहमियत रखती  हो | “ कुछ ऐसा ही प्रयास है इन कविताओं में …. मातृ दिवस पर डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई जी की चार कविताएँ  ——————————- १– अम्मा जी  ————— जब से  गई हो तुम  रुका नहीं कुछ भी  सब कुछ  चल रहा है वैसे ही  आज भी  बस तुम ही  नहीं हो देखने के लिए  हमारे साथ…! वो पुराना कमरा  जहाँ रखी रहती थी  दो कुर्सियाँ  जिन पर  सदा बैठी मिलती थी  बाबा जी के साथ  और बाद में  नए कमरे में लगे डबल बेड पर  बैठी मिलती थी तुम…. वो दोनों चित्र  आज भी बसे हैं  मेरी आँखो में  बिलकुल वैसे ही… जब कभी  जाती हूँ वहाँ  तो मिलती हो तब भी  पर बैठी हुई नहीं, दीवार पर लगे  चित्र से देखती हुई…. मानो अभी कह उठोगी  बड़े दिन में आए, पता है तुम्हें  इस बीच  बहुत कुछ  बदल गया है  अब आने पर भी  मन नहीं लगता  तुम्हारे बिना, बातें भी नहीं सूझती करने को कुछ…! तुम्हारे होते  कहने–सुनने को  होता था इतना,  पर अब  देखो… जैसे कुछ है ही नहीं  तुम्हें पता है  तुम्हारे सामने  खेलने– कूदने वाले  नाती–पोते  अब कितने बड़े  हो गए है  दो पोतों, एक पोती  और एक नातिन..इनका  विवाह भी हो गया है  तुम्हारा बड़ा परिवार  अब और बड़ा हो गया  जिसमें दो बहुएँ दो दामाद जुड़ गए हैं  और जल्दी ही  एक दामाद और आएगा…! हुई न खुशी  यह सब सुन कर,  इसीलिए तो बताया मैंने….! और हाँ! एक दिन   तुमसे पूछ–पूछ कर  अचार डालने के तुम्हारे  तरीके और मसालों के अनुपात  मैंने जिस कॉपी में  लिखे थे  जाने कहाँ  इधर–उधर हो गई  तभी से मन  बड़ा बेचैन है  ढूँढने वाला भी तो  मेरे सिवा कोई नहीं…. आज  जन्मदिन है तुम्हारा  और आज ही घर की  गृहप्रवेश पूजा हुई थी  इसलिए यह तारीख  कभी भूलती नहीं मैं….! तुम होती  तो आज  तुम्हारे पास आती  पर नहीं हो  तभी याद करते हुए  कल्पनाओं में ही  तुमसे बात करके  तुम्हें पाने का सुख  जी रही हूँ  हो जहाँ  कहीं भी तुम  मैं तो सदा  अपने पास  अपने साथ लिए  तुम्हें चल रही हूँ  अम्मा जी……!!!!!! ———————————— पढ़ें -मदर्स डे पर माँ को समर्पित भावनाओं का गुलदस्ता २– मैं तुझे फिर मिलूँगी ———————— मैं तुझे फिर मिलूँगी  एक नये मोड़ पर, तब तक तुम भी  एक नये रूप में  अवतरित हो चुकोगी  और मैं भी इसकी  तैयारी कर रही होऊँगी…..! एक यात्रा  पूर्ण हो चुकी तुम्हारी माँ  और मैं अभी यात्रा के मध्य हूँ, अगला जन्म  जब ही होगा हमारा  तुम प्रतीक्षा करना, जिंदगी हमारी  पानी के रंग सी  इस तरह घुली–मिली है  कि जिस मोड़ पर भी मिलोगी  मैं तुम्हें पहचान लूँगी माँ….!! कुछ वादे  इस जन्म में  किए थे हमने  अगले जन्म के लिए  और कुछ हर जन्म के लिए…..!!! उन्हें पूरा करने  हमें तो बार–बार मिलना है  तुम्हें मेरी माँ  और मुझे तुम्हारी बेटी बनना है….!!!! तभी तो कहती हूँ  जहाँ भी  जिस मोड़ पर खड़ी  तुम मेरी प्रतीक्षा करोगी  वहीं मैं तुझे मिलूँगी मेरी माँ! जिस भी जन्म में  जो भी रह जायेगा बाकी  उसे पूरा करने  मैं हर एक जन्म में  मैं तुझे मिलूँगी माँ! और पूछती रहूँगी  अपने अंतिम समय में  तुम मुझे क्या कहना चाहती थी माँ…..!!!!! ————————————— ३– हर दिवस मातृ दिवस  ————————————— माँ का  हर दिवस  तभी है सार्थक  जब हर बच्चा उसका  बने एक सच्चा  इंसान….! हो भरपूर  मानवता से  माँ और मातृभूमि  दोनों के वास्ते  रखे प्राणों पर भी  खेल सकने का  जीवट करे रक्षा  सम्मान के साथ…..! जो प्रकृति को दे प्यार  जो करे काम हृदय में बसने को  भले ही  न आए नाम  अखबारों में  कहीं भी  कभी भी…! तब है माँ का  हर दिन सार्थक  हर दिन मातृ दिवस…!!! —————————— ४– धागा  ——— आँधियों में  दरकने लगी है  पैरों तले की जमीन, डूबने को है जहाज और कप्तान भयभीत, जिस आशीष और  बरकत के  पवित्र धागे से  बुना करती थी  सुरक्षा कवच  अपने संसार के  चारों ओर  वो तुम्हारा  दिया धागा  टूटने को है, आओ  फिर से माँ! मैं खड़ी हूँ  तुमसे वो धागा  लेने के लिए  आँधियों का सामना  करने के लिए, आओगी न माँ…..!!!!! —————————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें … मदर्स डे -माँ और बेटी को पत्र मदर्स डे -कौन है बेहतर माँ या मॉम मदर्स डे पर विशेष -प्रिय बेटे सौरभ मदर्स डे -माँ को समर्पित सात स्त्री स्वर आपको कहानी    “”मातृ दिवस पर डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई जी की चार कविताएँ   कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-mother’s day , hindi poem, poetry, mother  keywords-HINDI STORY,Short Story, 

प्रियंका–साँप पकड़ लेती है

फोटो -morungexpress.com से साभार प्रियंका गांधी , चुनाव नहीं लड़ रही हैं पर वो अपने भाई राहुल गांधी व् कोंग्रेस के प्रचार को मजबूती प्रदान करने केव लिए राजनीति के दंगल में उतरी हैं | प्रस्तुत कविता इस दूषित राजनीति में प्रियंका के कदम रखने पर अपने विचार व्यक्त करती है … प्रियंका–साँप पकड़ लेती है कभी नदी——— कभी नाव पकड़ लेती है, मोदी न आये सत्ता में, इस डर से, सपेरो के यहां जा——- प्रियंका साँप पकड़ लेती है. यही तो लोकतंत्र है, कि इस तपती धूप में, महलों की रानी, अपने पति और भाई के लिए गांव की पगडंडी , अपने आप पकड़ लेती है, और सपेरो के यहां जाके— प्रियंका साँप पकड़ लेती है. हँसती है,घंटो बतियाती है इस डर से- कि कही अमेठी से भाजपा की स्मृति न जीत जाये, हाय! ये काग्रेंस की आबरु का सीट बचाने के लिये प्रियंका——- अपने दादी की छाप पकड़ लेती है. और सपेरो की बस्ती में—– साँप पकड़ लेती है. जनता जानती है,समझती है कि क्यो—— चुनाव के समय ही, ये प्रियंका सपेरो के यहा जाके—- साँप पकड़ लेती है. लेकिन ये जनता साँप नही, कि कोई पकड़ ले, ये वोटर है, जो चुनाव से पहले ही, इन रंगे सियारी नेताओ का—- हर पाप पकड़ लेती है. मोदी सत्ता में न आये, इस डर से, सपेरो के यहां जाके —- प्रियंका सांंप पकड़ लेती है. रचनाकार –रंगनाथ द्विवेदी जज कालोनी,मियांपुर जिला–जौनपुर यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़िए बेहतरीन कवितायें संगीता पाण्डेय की कवितायें मायके आई हुई बेटियाँ रूचि भल्ला की कवितायें आपको  कविता  “  प्रियंका–साँप पकड़ लेती है …..“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    डिस्क्लेमर – कविता , लेखक के निजी विचार हैं , इनसे atootbandhann.com के संपादक मंडल का सहमत/असहमत होना जरूरी हैं filed under- priyanka Gandhi, Rahul Gandhi, Modi, Politics

मैं कुल्हड़ हूँ

चाक धीरे -धीरे चल रही है , कुम्हार के सधे हुए हाथ लोनी मिट्टी को आकार दे रहे हैं | उन्हीं में एक कुल्हड़ का निर्माण हो रहा है | कुल्हड़ आकार ग्रहण करने के बाद भी इस लायक कहाँ होता है कि वो जल को संभाल सके , उपयोगी हो सके , तभी तो कुम्हार उसे आग में पकाता है , धूप में सुखाता है और इस दुनिया के लायक बनाता है | अगर छायावाद के सन्दर्भ में इस कविता को देखे तो हम ही वो कुल्हड़ हैं जिसे विधाता समय की चाक पर माटी से आकार देता हैं | जीवन की विषम परिस्थितियाँ हमें तपाती हैं … और उपयोगी सफल आकार निखर कर आता है … मैं कुल्हड़ हूँ मैं कुल्हड़ हूँ, मैं इतनी खूबसूरत और सुघर यूँ हीं नहीं हूँ, मुझे मेरे कुम्हार नें — पसीने से तर-ब-तर भीग, बड़ी मेहनत से गढ़ा है, फिर सुखने के लिए इसने घंटो कड़ी धूप में रख मेरी रखवाली की, सुख जाने पे, मेरे कुम्हार ने — एक एक कर बहुत प्यार से मुझे उठाया ताकि मैं कहीं से फूटूं न ,उसी प्यार से फिर मुझे मेरे कुम्हार ने, आवें मे रख मुझे पकाया और फिर आवें से निकाल उसनें मुझे तका और पूछा, बता तूं , कैसी है?? मैंने भी — अपने कुम्हार से कहा,कि तेरी कला ही कुछ ऐसी है, कि क्या कहूँ?? बस !तू इतना समझ ले, मेरे कुम्हार , मैं पहले सी खूबसूरत और सुघर हूँ. मैं कुल्हड़ हूँ. रंगनाथ द्विवेदी. मियांपुर जिला–जौनपुर यह भी पढ़ें … जाने कितनी सारी बातें मैं कहते -कहते रह जाती हूँ लज्जा फिर से रंग लो जीवन टूटते तारे की मिन्नतें आपको    “  मैं कुल्हड़ हूँ   “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita, pottery, kulhad, kumhaar

जिंदगी मेरे दरवाजे पर

पता नहीं क्यों इस कविता के बारे में लिखते हुए मुझे ये गाना याद आ रहा है , ” जिन्दगी मेरे घर आना …आना जिंदगी” सच है हम कितनी शिद्दत से जिंदगी को बुलाते हैं पर ये जिंदगी ना जाने कहाँ अटकी पड़ी रहती है कि आती ही नहीं … और हम उदासियों की गिरफ्त में घिरते चले जाते हैं | अगर आप जानना चाहते हैं कि ये जिंदगी क्यों नहीं आती तो ये कविता जरूर पढ़ें … जिंदगी मेरे दरवाजे पर  आज  भोर से थोड़ा पहले फिर  खड़ी  थी जिंदगी मेरे दरवाजे पर , दी थी दस्तक , हौले से पुकारा था मेरा नाम , और हमेशा की तरह कान पर तकिया रख कुछ और सोने के लालच में , उनींदी आवाज़ में , लौटा दिया दिया था मैंने , आज नहीं कल आना … बरसों से यही तो हो रहा है जिन्दगी आती है द्वार खटखटाती है और मैं टाल देती हूँ कल पर और भूल जाती हूँ हर रोज  उठते ही कि मैंने ही दिखाया है उसे बाहर का रास्ता हर रोज बोझिल मन से उन्हीं कामों को  करते हुए ऊबते झगड़ते कोसती हूँ किस्मत कहाँ अटक गयी है कुछ भी तो नहीं बदल रहा जिन्दगी में साल दर साल उम्र की पायदान चढ़ते हुए भी ना जाने कहाँ खो गयी है जिन्दगी जो बचपन में भरी रहती थी हर सांस में बात में उल्लास में बढती उम्र की उदासियों के गणित में ये =ये के  की प्रमेय को सिद्ध करने में बस एक मामूली  अंतर बदल देता है सारे परिणाम कि बचपन में हर सुबह हल्की सी दस्तक पर हम खुद ही खोलते थे मुस्कुरा कर दरवाजा जिन्दगी के लिए सरिता जैन यह भी पढ़ें … मंगत्लाल की दीवाली रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “जिंदगी मेरे दरवाजे पर  “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    filed under-poem, hindi poem, poetry, Life, door, Liveliness

होलिका दहन : अपराध नहीं , लोकतंत्र का उत्सव

फोटो क्रेडिट -भारती वर्मा बौड़ाई होलिका दहन कर  को आजकल स्त्री विरोधी घोषित करने का प्रयास हो रहा है | उसी पर आधारित एक कविता जहाँ इसे लोकतंत्र समर्थक के रूप में देखा जा रहा है … होलिका दहन : अपराध नहीं , लोकतंत्र का उत्सव  वो फिर आ  गए अपने दल -बल के साथ हर त्यौहार  की तरह इस बार भी ठीक होली से पहले अपनी  तलवारे लेकर जिनसे काटनी  थी परम्पराएं कुछ तर्कों से , कुछ कुतर्कों से और इस बार इतिहार के पन्नों से खींच कर निकली गयी होलिका आखिर उस का अपराध ही क्या था , जो जलाई जाए हर साल एक प्रतीक के रूप में हाय ! अभागी , एक बेचारी स्त्री पुरुष सत्ता की मारी स्त्री जो हत्यारिन नहीं, थी एक प्रेमिका अपने प्रेमी संग विवाह रचाने को आतुर एक बहन जो  भाई के प्रेम में झट से तैयार हो गयी पूरी करने को इच्छा दे दी आहुति … उसके भस्म होने का , जश्न मनाते बीत गयी सदियाँ धिक्कार है हम पर , हमारी परम्पराओं पर , आह ,  कितने अधम  हैं हम बदल डालो , बदल डालो , नहीं जलानी है अब होलिका आखिर अपराध की क्या था ? आखिर अपराध की क्या था ? की सुंदर नक्काशीदार भाषा के तले बड़ी चतुराई से दबा दिया ब्यौरा इस अपराध का कि कि अपने मासूम  भतीजे को भस्म करने को थी तैयार वो अहंकारिणी जो दुरप्रयोग करने को थी  आतुर एक वरदान का हाँ , शायद ! उस मासूम की राख की वेदी पर करती अपने प्रियतम का वरण , बनती नन्हे -मुन्ने बच्चों की माँ एक भावी माँ जो नहीं जो नहीं महसूस कर पायी अपने पुत्र को खोने के बाद एक माँ की दर्द नाक चीखों को अरे नादानों वो भाई केप्रेम की मारी अबला नहीं उसमें तो नहीं था सामान्य स्त्री हृदय जिस पर दंड देने को थी  आतुर उस मासूम का अपराध भी कैसा बस व्यक्त कर रहा था , अपने विचार जो उस समय की सत्ता के नहीं थे अनुकूल उसके एक विचार से भयभीत होने लगी सत्ता , डोलने लगा सिंघासन मारने के अनगिनत प्रयासों का एक हिस्सा भर थी होलिका एक शक्तिमान हिंसक की मृत्यु और मासूम की रक्षा के चमत्कार का प्रतीक बन गया होलिकादहन समझना होगा हमें ना ये स्त्री विरोधी है न पुरुष सत्ता का प्रतीक ये लोकतंत्र का उत्सव है जहाँ शोषक स्वयं भस्म होगा अपने अहंकार की अग्नि में और मासूम शोषित को मिलेगी विजय शक्तिशाली या कमजोर , मिलेगा हर किसी को अपनी बात रखने का अवसर … तोआइये … पूरे उत्साह के साथ मनइये होलिका दहन ये कोई अपराध नहीं है न ही आप हैं स्त्री मृत्यु के समर्थक करिए गर्व  अपनी परम्परा पर शायद वहीँ से फैली है लोकतंत्र की बेल जिसे सहेजना है हम को आपको नीलम गुप्ता यह भी पढ़ें … होली और समाजवादी कवि सम्मलेन होली के रंग कविताओं के संग फिर से रंग लो जीवन फागुन है होली की ठिठोली आपको “ होलिका दहन : अपराध नहीं , लोकतंत्र का उत्सव “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords- happy holi , holi, holi festival, color, festival of colors, होलिका दहन 

होली आई रे

                                                होली त्यौहार है मस्ती का , जहाँ हर कोई लाल , नीले गुलाबी रंगों से सराबोर हो कर एक रंग हो जाता है ….वो रंग है अपनेपन का , प्रेम का , जिसके बाद पूरा साल ही रंगीन हो जाता है …आइये होली का स्वागत करे एक कविता से … कविता -होली आई रे  फिर बचपन की याद दिलाने बैर  भाव को दूर भगाने जीवन में फिर रंग बढाने होली आई रे … बूढ़े दादा भुला कर उम्र को दादी के गालों पर मलते रंग को जीवन में बढ़ाने उमंग को होली आई रे पप्पू , गुड्डू , पंकू देखो अबीर उछालो , गुब्बारे फेंकों कोई पाए ना बचके जाने होली आई रे गोरे फूफा हुए हैं लाल तो काले चाचा हुए सफ़ेद आज सभी हैं नीले – पीले होली आई रे  बन कन्हैया छेड़े जीजा राधा सी शर्माए  दीदी प्रीत वाही फिर से जगाने होली आई रे घर में अम्माँ गुझिया तलती चाची दही और बेसन मलती बुआ दावत की तैयारी करती होली आई रे बच्चे जाग गए हैं तडके इन्द्रधनुषी बनी हैं सडकें सबको अपने रंग में रंगने होली आई रे  जिनमें कभी था रगडा -झगडा चढ़ा प्रेम का रंग यूँ तगड़ा सारे बैर -भाव मिटाने होली आई रे नीलम गुप्ता यह भी पढ़ें … होली और समाजवादी कवि सम्मलेन होली के रंग कविताओं के संग फिर से रंग लो जीवन फागुन है होली की ठिठोली आपको “ होली आई रे “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords- happy holi , holi, holi festival, color, festival of colors

मछेरन

मछेरन एक रोमांटिक कविता है … जिसमें कवि मछली पकड़ती स्त्री को देखकर मंत्रमुग्द्ध हो जाता है और उसे वो स्त्री दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री लगने लगती है ……. मछेरन मै नदी के किनारे बैठा————- एकटक उस साँवली सी मछेरन को तक रहा था, जो डूबते हुये सूरज की लालिमा मे, अपनी कसी हुई देहयष्टि के कमर तक साड़ी खोसे, एक खम और लोच के साथ, अपनी मछली पकड़ने वाले जाल को खिच रही थी, मुझे यूँ लगा कि जैसे——– उसकी जाल की फँसी मछलियों मे से, एक फँसी हुई मछली सा मेरा मन भी है. वे इससें बेखबर, एक-एक मछली निकाल——- अपने पास रंखे पानी से भरे डिब्बे, मे डालती रही. बस इतना उसने इतनी देर मे जरुर किया, कि अपने माथे पे गिर आये, बाल को पीछे कर, उसने कुछ और बची मछलियाँ, उस डिब्बे मे रख, गीले जाल और डिब्बे को पकड़, ज्यो घुटनों भर पानी से निकली, तो यूँ लगा कि जैसे——– वे साँवली मछेरन, विश्व कैनवास की सबसे खूबसूरत औरत हो. रंगनाथ द्विवेदी जज कालोनी, मियाँपुर जिला–जौनपुर. यह भी पढ़ें … नींव व्हाट्स एप से रिश्ते  रेप से जैनब मरी है डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ हो तुम गुलाब मैं कंटक क्यूँ  आपको “मछेरन  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-Hindi poetry, fisherman, 

चाँद पिता की लाडली

 चाँद पिता की लाडली दोहों में लिखी कविता है | दोहे हिंदी साहित्य की एक लोकप्रिय विधा है |यह मात्रिक छन्द में आता है | दोहे की प्रत्येक पंक्ति में २४ और कुल ४८ मात्राएँ होती हैं |  हर पंक्ति में १३ /११ की मात्रा होते ही यति होती है  १३ मात्र वाली पंक्ति का अंत गुरु -लघु -गुरु या २१२ होता है व ११ मात्रा वाली पंक्ति का अंत गुरु लघु या २१ होना आवश्यक है |दोहे का अंत तुकांत होना आवश्यक है | दोहे में लिखी गयी पस्तुत कविता में सूर्योदय का वर्णन है ….  कविता -चाँद पिता की लाडली डोली किरणों की लिए , आया नवल प्रभात कलरव करती डोलती, चिड़ियों की बरात   तारों की है पालकी, विदा करे है मात सुता निशा की देख तो, चल दी पी के साथ सुता को करके विदा , तड़पती बार –बार पाती –पाती पे  सजे  , माँ के अश्रु हज़ार चाँद पिता की लाडली , चली भानु के साथ शीतलता में पली हुई , ताप ने पकड़ा हाथ दुविधा देखो सुता की, किसे बताये हाल  मैके से विपरीत क्यों, मिलती है ससुराल  सीखे सहना ताप को, बाँध नेह की डोर  दुनिया देखे भोर वो,  देखे पी की ओर  युग- युग से नारी सदा, करती है ये काज  होती दोनों कुलों की , इसीलिये वो लाज  वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें …. मंगत्लाल की दीवाली रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “चाँद पिता की लाडली “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    filed under-poem, hindi poem, moon, sun, daughter of moon, sunrise, night

असली महिला दिवस

—————– दादी ने आँगन की धुप नहीं देखी और पोती को आँगन की धप्प देखने का अवसर ही नहीं मिलता | दोनों के कारण अलग -अलग हैं | एक पर पितृसत्ता के पहरे हैं जो उसे रोकते हैं दूजी को  मुट्ठी भर आसमान के लिए दोगुना, तीन गुना काम करन पड़ रहा है | ये जो सुपर वीमेन की परिभाषा समाज गढ़ रहा है उसके पीछे मंशा यही है है कि बाहर निकली हो तो दो तीन गुना काम करो …बराबरी की आशा में स्त्री करती जा रही है कहीं टूटती कहीं दरकती | महिला दिवस मनना शुरू हो गया है पर असली महिला दिवस अभी कोसों दूर है ………  असली महिला दिवस वो जल्दी ही उठेगी रोज से थोड़ा और जल्दी जल्दी ही करेगी , बच्चों का टिफिन तैयार , नीतू के लिए आलू के पराठे और बंटू के लिए सैंडविच पतिदेव के लिए पोहा , लो कैलोरी वाला ससुरजी के लिए पूड़ी तर माल जो पसंद है उन्हें अभी भी सासू माँ का है  पेट खराब उनके लिए बानाएगी खिचड़ी वो देर से ही बनेगी उनके पूजा -पाठ के निपट जाने के बाद गर्म –गर्म जो परोसनी है उतनी देर में वो निबटा लेगी कपडे -बर्तन और घर की सफाई फिर अलमारी से कलफ लगी साडी निकाल कर लपेटते हुए हर बार की तरह नज़रअंदाज करेगी ताने जल्दी क्यों जाना है ? किसलिए जाना हैं ? उफ़ !ये आजकल की औरतों ? और दफ्तर जाने से पहले निकल जायेगी ‘महिला दिवस ‘पर महिला सशक्तिकरण के लिए आयोजित सभा को संबोधित करने के लिए जहाँ इकट्ठी होंगी वो सशक्त महिलाएं जिन्होंने ओढ़ रखे हैं अपनी क्षमता से दो गुने , तीन गुने काम महिला सशक्तिकरण की बात करते हुए वो नहीं बातायेंगी कि    मारा है रोज नींद का कितना हिस्सा रोज याद आती है फिर  भी  माँ से बात करे भी हो जाते कितने दिन बीमार बच्चे को छोड़ कर काम पर जाने में कसमसाता है दिल पूरी तनख्वाह ले कर भी पीना पड़ता है विष अपनों से मिले ये काम, वो काम, ना जाने कितने काम ना कर पाने के तानों के दंश का कभी पूछा है कि अपनी माँ , बहन पत्नी से कि सपनों को पूरा करने की कितनी कीमत अदा कर रही हैं ये औरतें ? चुपचाप इस आशा में कि कभी तो बदलेगा समाज जब मरे हुए सपनों और दोहरे काम के बोझ से दबी मशीनी जिन्दगी में से नहीं करना पड़ेगा किसी एक का चयन वो दिन … हाँ वो दिन ही होगा असली महिला दिवस वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …….. बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू  #Metoo से डरें नहीं साथ दें  महिला सशक्तिकरण :नव सन्दर्भ नव चुनौतियाँ  मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं आपको “असली महिला दिवस “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-hindi poem women issues, international women’s day, 8 march, women empowerment, women

हे! धतुर वाले बाबा

भोले बाबा जो धतूरा , बेल , मदार और ना जाने कितने जहरीले फल प्रेमसे चढ़ा देने पर प्रसन्न हो जाते हैं और सब की बिगड़ी बनाने लगते हैं | उन्हीं के चरणों में एक भक्तिमय प्रार्थना हे! धतुर वाले बाबा सुना है— सबकी बिगड़ी बनाते हो हे! धतुर वाले बाबा। ना दौलत ना शोहरत से आप खुश हो, ऐसा सुना है,कि आप उन लोगों के भी है, जिनका कोई नहीं—- हे! मजुर वाले बाबा। सुना है—- सबकी बनाते हो हे! धतुर वाले बाबा। ना हो पाऐ पुरी शैतानी ख्वाहिश, इसके लिए—- समंदर से निकला जहर तक पिया हे! त्रिशूल वाले बाबा। सबको दिया घर और दुनिया चलाई, हिमालय की चोटी पर जाकर बैठे, हो खुद आधा नंगा—- हे! फक्कड़,हे! अवघड़, हे! मुड़ वाले बाबा। रहमत जरा सा हमपे भी कर दो, देखो, रोते गले से “रंग” तुमको पुकारे, हे! दूर वाले बाबा। सुना है—- सबकी बिगड़ी बनाते हो हे! धतुर वाले बाबा। @@@रचयिता—रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी, मियांपुर जिला–जौनपुर 222002 (U P) यह भी पढ़ें …….. महाशिवरात्रि -एक रात इनर इंजीनीयरिंग के नाम  सोऽहं या सोहम ध्यान साधना -विधि व् लाभ मनसा वाचा कर्मणा -जाने रोजमर्रा के जीवन में क्या है कर्म और उसका फल उसकी निशानी वो भोला भाला  आपको  रचना    “हे! धतुर वाले बाबा”  कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords-shiv, mahashivraatri, fasting, dohe, bhagvan shiva, ॐ नम:शिवाय , shankar , bhole , baba