बेटी का अपने पिता से बहुत मीठा सा रिश्ता होता है | पिता बेटियों से कितने सुख -दुःख साझा करते हैं लेकिन एक दिन अचानक पिता बिना कुछ बताये बहुत दूर चले जाते हैं | पिता के होने तक मायका अपना घर लगता है , उसके बाद वो भाई का घर हो जाता है , जहाँ माँ रहती है | पिता का प्यार अनमोल है | पिता के न रहने पर ये प्यार एक कसक बन के दिल में गड़ता है जो कभी कम नहीं होती | ऐसी ही कसक है इन कविताओं में जो अपर्णा परवीन कुमार जी ने पिता कोयाद करते हुए लिखी हैं | पिता को याद करते हुए -अपर्णा परवीन कुमार की कवितायें मेहंदी के मौसमों में त्यौहारों के दिनों में, घेवर की खुशबुओं में, सावन के लहरियों में, इन्द्रधनुष के रंगों में, और पीहर के सब प्रसंगों में, अब कुछ कमी सी है……. बाबा! तुम्हारे बिना, दुनिया चल भी रही है… फिर भी थमी सी है ………. ______________________________________________________ माँ के साथ माँ को नहीं आता था मेहंदी मांडना, वो हथेली में मेहंदी रख के कर लेती थी मुट्ठियाँ बंद, मेरी तीज, मेरे त्यौहार, सब माँ के हाथों में रच जाते थे इस तरह ……….. शगुन का यह खा ले, शगुन का यह पहन ले, माँ करा लेती थीं, न जाने कितने शगुन, पीछे दौड़ भाग के……. रचा देती थीं मेरे भी हाथों में मेहंदी, चुपके से आधी रात को……., माँ, मैंने नहीं सीखा तुम्हारे बिना, त्यौहार मनाना, …… शगुन करना, मीठा बनाना, मेहंदी लगाना, तुम डाँटोगी फिर भी….. अब हर तीज, हर त्यौहार, मैं जी रही हूँ तुम्हारा वैधव्य तुम्हारे साथ ……………. बाबा वो उंचाइयां जो पिरो लीं थी अपनी बातों में तुमने, वो गहराइयाँ जो थमाँ दी थी मेरे हाथों में तुमने, वो वक़्त जो बेवक्त ख़त्म हो गया, सपने सा जीवन, जो अब सपना हो गया, मैं मुन्तजिर हूँ, खड़ी हूँ द्वार पे उसी, आना था तुम्हे तुम्हारी देह ही पहुंची, जो तुम थे बाबा तो तुमसे रंग उत्सव था, माँ का अपनी देह से एक संग शाश्वत था, तुम देह लेकर क्या गए वो देह शेष है, जीने में है न मरने में, जैसे एक अवशेष है, जोड़ा है सबका संबल फिर भी टूट कर उसने, जीवन मरण की वेदना से छूट कर उसने, इस उम्मीद में हर रात देर तक मैं सोती हूँ, सपने में तुम्हे गले लग के जी भर के रोती हूँ, बाबा! कहाँ चले गए कब आओगे? बाबा! जहाँ हो वहां हमें कब बुलाओगे? अख़बार की कतरने पुरानी किताबों डायरीयों में, मिल जाती हैं अब भी इक्की दुक्की, दिलाती है याद सुबह की चाय की, कोई सीख, कोई किस्सा, कोई नसीहत, सिमट आती है उस सिमटी हुई मुड़ी, तुड़ी, बरसों पन्नों के बीच दबी हुई, अखबार की कतरनों में…………… चाय पीते हुए, अखबार पढ़ते हुए, कभी मुझे कभी भैया को बुलाकर, थमा देते थे हाथों में पिताजी अखबार की कतरन…………. कागज़ का वो टुकड़ा, जीवन का सार होता था, हम पढ़ते थे उन्हें, संभल कर रख लेते थे, अब जब निकल आती हैं, कभी किसी किताब से अचानक, तो कागज़ की कतरने भी, उनकी मौजूदगी, उनका आभास बन जाती हैं……………………… अपर्णा परवीन कुमार यह भी पढ़ें ……… आखिरी दिन किरण सिंह की कवितायें एक गुस्सैल आदमी टूटते तारे की मिन्नतें आपको “ पिता को याद करते हुए -अपर्णा परवीन कुमार की कवितायें “ कैसे लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita,father, daughter, memories