कविता विकास जी की स्त्री विषयक कवितायें

यूँ तो स्त्री स्वयं में एक कविता है , जिसमें अनगिनत भावनाएं प्रवाहित होती रहती हैं | जो उसके  दर्द ,प्रेम , सपने, जीने  की आकांक्षा आदि अनेकों भावों को व्यक्त करती हैं | जब कविता स्वयं ही कविता लिखे तो उसमें भावों की प्रचुरता होना स्वाभाविक ही है | आज हम लाये हैं स्त्री के मन की तहों को खोलती  कविता विकास जी कवितायें … आइये पढ़ें  कविता विकास जी की स्त्री विषयक कवितायें स्त्री ————————— जीने का सलीका सीखने वाली परिवार की धुरी बन जिलाने वाली स्त्री ,कितने रूपों में तुमने जीया है ? बेटी बन कर बाबुल की गोद में फुदकती घर – आँगन की शोभा तुमसे सजती तुम सौभाग्य का प्रतीक बन जाती और एक दिन अपने ही चौखट के लिए परायी बन जाती फिर आरम्भ होता तुम्हारा नवावतार चुटकी भर सिंदुर की गरिमा में बलिदान कर देती अपना अस्तित्व अन्नपूर्णा बन बृहद हो जाता व्यक्तित्व दुःख की बदली में तुम सूर्य बन जाती हर प्रहार की ढाल बन जाती और जिस दिन वंश तुमसे बढ़ता तुम स्त्रीत्व की पूर्णता को पाती माँ की संज्ञा पाते ही वृक्ष सा झुक जाती ममता ,माया ,दुलार एक सूत्र में पिरोती तुम ही लक्ष्मी ,तुम ही सरस्वती होती बेटी ,पत्नी और माँ  को जीते – जीते तुम जगदम्बा बन जाती इतने रूपों में भला कोई ढल पाया है ? एक ही शरीर में इतनी आत्माओं को  केवल तुमने  ही जीया है । पर कितनी शर्मनाक बात है ,  अपनी ही कोख में तुम मार दी जाती हो !!! ——————————————————————————– No. 2 ————————- मैं विश्वम्भरा हूँ —————————————— अंतर्मन में दुंदुभी बजती है वाद – प्रतिवाद में खूब ठनती है निःशब्द युध्म महा विध्वंशक होता है मन का तार – तार छलनी करता है । खोलना चाहा जब मन का गिरह झटक दिया तुमने कह मुझे निरीह पग-पग पर बिछाया काँटों की सेज जब की बराबरी ,करना चाहा निस्तेज । रे पुरुष ,अब न सहूँगी , मैंने ठान लिया स्त्री की अस्मिता आखिर तुमने मान लिया  युगांतर में विलम्ब नहीं ,मैं विश्वम्भरा हूँ अंतर्भूत है ज्वाला और ज्वार की उफान हूँ । सूर्यमान सी दीपित होती जाऊँगी प्रबल प्रवाह सी बहती जाऊँगी आये जो तिमिर की सघनता या शिलाखंड की बाधा अनंता । दीप्तमान रहना है ,न लौटूँ हो निराश अजेय रहना है ,काल का तोड़ पाश म्रियमाण नहीं ,साक्षात देवी अवतार  दिविज हूँ ,शक्ति मुझमे अपरम्पार । ———————————————————————- No. 3 —————–   लड़की —————————- पिता की अंगुली पकड़ कर चलने वाली लड़की देखते – देखते सयानी हो जाती है अपने निवाला का फ़िक्र छोड़कर पिता की दवाई का खर्च उठाने लगती है । माँ ने जब से बिस्तर पकड़ा है रसोई को करीने से सजाने की जिम्मेवारी भी वह उठाने लगी है अपना सोलहवां वसंत देखने से पहले ही वह बड़ी हो जाती है । घर के पुराने सामान जैसे बिकते हैं वह भी एक दिन बेच दी जाती है । पति की छाया बन कर चलने वाली लड़की अपने सुगढ़ स्पर्श से एक मकान को घर बना देती है रोटी की सौंधी खुशबू से लेकर बैठक में रखे रजनीगंधा की तरह वह महकती  रहती है। सुबह की शुरुवात उससे होती है दिन भर चक्कर घुरनी की तरह घुमती रात को बिस्तर पे जाने वाली वह अंतिम प्राणी होती है  एक लड़की कहाँ नहीं बसती है ?  कमरे के कोने – कोने से लेकर फिजाओं में जहां तक नज़र जाए वह ही वह होती है । अपने बच्चों में जान बसाने वाली लड़की एक दिन उसके रहमो करम की मोहताज़ हो जाती है । अपनी सुध गवां कर बेटे – बहू की सेवा में अहर्निश जुड़ी रहती है तब घर की रानी सबसे संकीर्ण कमरे में ठेल दी जाती है उसी एक पुराने सामान की तरह जो अपनी अहमियत खो बैठा है । जिम्मेदारियों तले पिस – पिस कर जीने वाली लड़की जानती है कि  वह है ,तो घर है । काश ऐसी पहचान उन सबमें होती जिनसे वह बेटी ,पत्नी और माँ के रूपों में जुड़ी होती है । ——————————————————————————- No. 4 ——————————- फिर उगना आ गया है —————————————— लगाकर  रखा था बरसों तक पहरा हमें घर से निकलना अब आ गया है। छाया था काले धुएँ सा कुहरा हमें सूरज सा निकलना  आ गया है। जीवन के टेढ़े – मेढ़े रास्तों, संभल जाओ हमें राह बदलना  आ गया है। हाथ की  रेखाओं ज़रा बदल जाओ हमें किस्मत गढ़ना  आ गया है। कमर कस  लिया हुनर हज़ार सीखने को हमें हर  हार को जीतना   आ गया है।  बिस्तर की  फ़िक्र है नींद वालों को हमें करवटों में रात गुज़ारना  आ गया है। मेरे परवाज़ को उठती हज़ारों दुआएँ हमें तुम्हारा कद्र करना   आ गया है। ठान लिया , आँधियों का रुख़ मोड़ते जाएँ हमें ढल  कर फिर उगना आ गया है।  ——————————————————————— No. 5 —————————- इंतज़ार ————— तुम्हें पता है  न ,इंतज़ार का आलम अगन – कुंड में जलने जैसा  होता है वह  आग जिस पर पानी भी नहीं डाला जा सकता है  किसी की दुआ और सहानुभूति कारगार नही होती है हर आहट पर चौंक कर पलटना हर ध्वनि पे उस पहचानी सी आवाज़ को तलाशना बिन पलकें झपकाए हर अपरिचित साए को भाँपना बेचैनी के साथ शर्मिंदगी भरा भी होता है और वह बेरहम पल जो आगे बढ़ता ही नहीं मानो  समय नहीं ,युग बीत रहा हो जज़्बातों की दौड़  इस होड़ में कि पहले मैं  निकलूं ,पहले मैं शिराओं की तंग  नलियों में उत्पात मचाने लगती है चेहरे की लालिमा एक अज्ञात भय से नीली – काली होने लगती है कभी सीढियां ,कभी बालकोनी ,कभी खिड़की शायद  ही कोई जगह हो जहाँ पैर न खींचे चले जाते हों और जब इंतज़ार की घड़ियाँ ख़त्म होती हैं तब मानों लावा बिखेर कर ज्वालामुखी शांत हो गया हो न कोई शब्द फूटते ,न बोली केवल आँखें बोलती हैं कुछ शिकायतें ,कुछ इनायतें ख़ामोशी से मुखर पड़ते हैं घड़ी की सुइयों की रफ़्तार तो देखो बिन हाँफे दौड़ती जाती हैं जुदाई की बेला चौखट  पर आ खड़ी होती है तुम्हे साथ ले जाने को और मुझे एक नए इंतज़ार में छोड़ जाने को । ——————————————————————— कविता विकास  परिचय – नाम – कविता विकास ( वरिष्ठ शिक्षिका और लेखिका … Read more

योग दिवस पर 7 हायकू

योग के आसन शरीर मन और आत्मा को स्वस्थ रखते हैं  और सुंदर शब्दों का योग मन को आनंदित कर देते हैं | ऐसे ही प्रस्तुत हैं शब्दों के सुन्दर  योग से बने कुछ हायकू  योग दिवस पर १–  जोड़ता योग जन मन समाज  करे निरोग। २– है प्राणायाम कुंजी उत्तम स्वास्थ्य  ये चारों धाम। ३– करिए रोज  भरपूर आनंद देता योग। ४– प्राचीन ज्ञान जीवन शांतिमय  बनाए योग। ५– हो संतुलन  तन मन आत्मा का  योग सहाय। ६– योग दिवस  नव संकल्प लेवें स्वस्थ बनें। ७– सहज मार्ग स्वस्थ जीवन जियो  करके योग। ———————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें … योग -न हमारे राम न तुम्हारे रहीम का है साडे नाल रहोगे तो योगा करोगे स्कूलों में बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के स्थान पर दी जाए ‘योग’ एवं ‘आध्यात्म’ की शिक्षा योग दिवस आपको    “  योग दिवस पर  “ कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: international yoga day, yoga, 21 june

योग- न हमारे राम और न तुम्हारे रहीम का है

योग एक ऐसे प्रक्रिया है जो तन के साथ मन को भी स्वस्थ करती है | इसके महत्व को समझते हुए इसे अपनाने पर जोर देने के लिए २१ जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया है | योग- न हमारे राम और न तुम्हारे रहीम का है योग———- न हमारे राम और न तुम्हारे रहीम का है। रुग्ण मन,रुग्ण काया किस काम का बोलो, शरीर,शरीर पहले है ये कहां——– किसी हिन्दू या मुसलमान का है। योग———- न हमारे राम और न तुम्हारे रहीम का है। आओ इसके आसन मे प्रेम है अपना ले, स्वस्थ रहेगे ये मन सभी बना ले, आखिर घर-घर है दवाखाना नही—— किसी वैद्य या हकिम का है। योग———- न हमारे राम और न तुम्हारे रहीम का है। इसे घूँघट या पर्दानश़ी औरत मे हरगिज़ न बाँटिये, क्योंकि योग——— हर शख्स़ और तंजीम का है। योग——- न हमारे राम और न तुम्हारे रहीम का है। पुरी दुनिया हो उठी है कायल, इसका फक्र है हमें, क्योंकि हमारा योग एै”रंग”——- न किसी रसिया न किसी चीन का है। योग——-– न हमारे राम और न तुम्हारें रहीम का है। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश) यह भी पढ़ें ………. साडे नाल रहोगे तो योगा करोगे स्कूलों में बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के स्थान पर दी जाए ‘योग’ एवं ‘आध्यात्म’ की शिक्षा योग दिवस आपको    “  योग- न हमारे राम और न तुम्हारे रहीम  का है “ कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: international yoga day, yoga

योग दिवस

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (21 जून ) का उद्देश्य है की लोगों को स्वस्थ जीवन शैली के लिए योग अपनाने की प्रेरणा दी जाए | हम सभी  प्राचीन भारतीय ‘योग ‘को अपना कर स्वस्थ जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहिए |  कविता -योग दिवस स्वस्थ यदि रहना है तो जीवन में योग अपनाओ इसको जीवन अंग बना कर रोगों को दूर भगाओ स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का जब निवास होगा स्वस्थ विचारों सद्कर्मों का अजस्र प्रवाह बहेगा स्वयं करना औरों को भी प्रेरित करना जब सबका लक्ष्य बनेगा तभी देश का हर जन स्वस्थ सुखी बन नव उपमान गढ़ेगा ब्रह्म मुहूर्त में  उठ,  स्नान-ध्यान कर सूर्य नमस्कार करने का पक्का नियम बनाएँ योग करें और  रोज़ करें अपना यह धर्म बनाएँ स्वस्थ निरोगी  काया लेकर कर्म करें कुछ ऐसे घर, समाज और देश सभी गर्वित हों जैसे योग स्वास्थ्य-प्रसन्नता  की कुंजी है सबको यह समझना है स्वस्थ नागरिक बन हम सबको राष्ट्र-निर्माण में जुट जाना है। ———————— डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘ यह भी पढ़ें …….. योग -न हमारे राम न तुम्हारे रहीम का है साडे नाल रहोगे तो योगा करोगे स्कूलों में बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के स्थान पर दी जाए ‘योग’ एवं ‘आध्यात्म’ की शिक्षा योग दिवस आपको    “  योग दिवस  “ कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: international yoga day, yoga, 21 june

पूरक एक दूजे के

 आज पितृ दिवस पर मैं अपने पिता को अलग से याद नहीं कर पाउँगी , क्योंकि माता -पिता वो जीवन भर एक दूसरे के पूरक रहे यहाँ तक की समय की धारा   के उस पार भी उन्होंने एक दूसरे का साथ दिया  |एक बेटी की स्मृतियों के पन्नों से निकली  हृदयस्पर्शी कविता … पूरक एक दूजे के  माँ थी  तो पिता थे पिता थे तो माँ थी पूरक थे दोनों एक-दूजे के…….! जब दोनों थे  हँसते दिन-रातें थीं  हवाएँ घर की  देहरी-आँगन में गीत गाती थीं……! जब दोनों थे बसेरा था त्योहारों का घर में आते थे पंछी घर के बगीचे में शोर मचाते थे नटखट बच्चों की तरह,नृत्य करती थी भोर जैसे उनके साथ में……..! जब दोनों थे  गूँजते थे गीत और कविताएँ घर के कोने-कोने में  आते थे अतिथि  बनती थी पकौड़ियाँ और चाय……! जब दोनों थे फलते थे आम, आड़ू, नाशपाती लीची, चकोतरे बगिया में,पालक, मेथी, धनिया, मूली पोदीना, अरबी फलते थेछोटी-छोटी क्यारियों मेंमिलते थे थैले भर-भर लहलहाती थी बगिया……..! खिलते थे  विविध रंगी गुलाब, गेंदे  गुलमेहँदी, बोगनविलिया  “ उत्तरगिरि “ में…………..! जब दोनों थे बरसता आशीर्वाद मिलती थी स्नेह-छाया हर मौसम में……………! ईश्वर ने  भेजा संदेश  माँ को आने का  तो उनको विदा कर  पिता भी ढूँढने लगे थे  मार्ग जल्दी माँ के पास जाने का……! पूरक थे जीवन भर एक-दूजे के तभी डेढ़ माह बाद ही साथ देने माँ का पहुँचे पिता भी,पूरक बने हैं मृत्यु के बाद भी तारों के मध्य दोनों साथ-साथ चमकते हैं…………! दुख के अंधेरों में  सिर पर हाथ रख सदा की तरह  मेरा साहस बनते हैं तो  खुशियों में आशीष बरसाते नवगीत रचते हैं मेरी श्वास बन  साथ-साथ चलते हैं…………! इसी से नहीं करती उन्हें स्मरण मैं अलग-अलग मातृ दिवस-पितृ दिवस पर…….! हर दिवस  उन्हीं की स्मृतियों के  धनक संग ढलते हैं माँ-पापा आज भी  मेरे हृदय में  बच्चों से पलते हैं……….!! ——————————- डा० भारती वर्मा बौड़ाई                                  यह भी पढ़ें … डर -कहानी रोचिका शर्मा एक दिन पिता के नाम -गडा धन आप पढेंगे ना पापा लघुकथा -याद पापा की आपको  कविता  “    पूरक एक दूजे के “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs, parents

चूड़ियाँ ईद कहती है

ईद का मुबारक मौका हो तो प्रियतमा अपने प्रिय की बाँट जोहती ही है और कहती है कि इस मौके पर तो कम से कम आ ही जाओ और इसे यादगार बना दो | चूड़ियाँ ईद कहती है कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। भर लो बाँहो मे मुझे, क्योंकि बहुत दिन हो गया, किसी से कह नही सकती, कि तुम्हारी हमसे दूरियाँ—- अब ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। सिहर उठती हूं तक के आईना, इसी के सामने तो कहते थे मेरी चाँद मुझको, तेरे न होने पे मै बिल्कुल अकेली हूं , कि चले आओ——– अब बिस्तर की सिलवटे और तन्हाइयां ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)। सभी को ईद मुबारक यह भी पढ़ें … सुशांत शुप्रिय की कवितायें मेखला कैंसर मकान जल जाता है सतरंगिनी आपको “ चूड़ियाँ ईद कहती है  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-Eid,Eid celebrations, Hindi poem, Eid mubarak

पिता…..जुलाहा……रखवाला

पिता … इस शब्द से ही मन में गहरा प्रेम उमड़ता है | पिता एक आसमान है जो हर तकलीफ से संतान  रक्षा करता है इसीलिये तो उसे रखवाला कहा गया है | पिता एक जुलाहा भी है जो समय की ताने -बाने पर संतान का भविष्य बुनता है | पिता के न जाने कितने रूपों को समेटे हुए है कविता … पिता…..जुलाहा……रखवाला खिल गयी है मुस्कुराहट, उसके चेहरे पर आया है नूर निहार,निहार चूमे माथा,लहर खुशी की छाया है सुरूर गर्व से फूल गया है सीना ,बना है वह आज पिता अंश को अपने गोद में लेकर, फूला न समाया , जगजीता सपने नये लगा है संजोने, पाया है सुख स्वर्ग समान तिनका, तिनका जोड़–जोड़, करने लगा नीड निर्माण बीमा, बचत, बैंकों  में खाते, योजना हुई नयी तैयार खेल-खिलोने,घोड़ा-गाड़ी, खुशियाँ मिली उसे अपार सांझ ढले जब काम से आता ,लंबे-लंबे डग भरता ममता, प्यार हृदय में रखता ,जगजाहिर नहीं करता कंधों पर बैठा वो खेलता, कभी घोड़ा वह बन जाता हँसी, ठिठोली , रूठ ,मना कर, असीम सुख वह पाता ढलने लगी है उम्र भी अब तो , अंश भी होने लगाजवां पैरों के छाले नहीं देखता ,लेता चैन नहीं ओसान बच्चों की खुशियों की खातिर, हर तकलीफ़ रहा है झेल जूतों का अपने छेद छुपाता , मोटर गाड़ी का तालमेल अनंत प्यार का सागर है ये ,परिंदे का खुला आसमान अडिग हिमालय खड़ा हो जैसे ,पिघले जैसे बर्फ समान बड़ा अनोखा  है ये जुलाहा , बुन रहा  तागों को जोड़ सूत से नाते बाँध रहा ये , लगा रहा दुनिया से होड़ होने लगी है हालत जर-जर, हिम्मत फिर भी रहा न हार बेटी की शादी, बेटे का काम ,करने लग रहा जुगाड़ दर्द से कंधे लगे हैं झुकने ,रीढ़ भी देने लगी जवाब खुश है रहता अपनी धुन में , देख संतान को कामयाब बेटी अब हो गयी पराई , बेटा भी परदेस गया बाट जोहता रहता हर दिन ,आएगा संदेस नया खाली हाथ अब जेब भी खाली , फिर भी सबसे मतवाला बन गया है धन्ना सेठ , ये जुलाहा, रखवाला                                                          रोचिका शर्मा ,चेन्नई  यह भी पढ़े …. मायके आई हुई बेटियाँ एक दिन पिता के नाम -कवितायें हीं कवितायें अपने पापा की गुडिया पिता की अस्थियाँ आपको “पिता…..जुलाहा……रखवाला  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- Father, Poetry, Poem, Hindi Poem, Emotional Hindi Poem, Father’s Day, Father-Daughter

नया दौर

जमाना बदल रहा है | ये नया दौर है जो पुराने दौर से बिलकुल अलग है |  यहाँ संस्कृतियों का फ्यूजन नहीं हो रहा बल्कि विदेशी संस्कृति हावी होती जा रही है |  हिंदी कविता -नया दौर  फैशन की दोड मे सब आगे है शायद यहीं नया दौर है मम्मी पापा है परम्परावादी मूल्यों की वे आधारशिला वक्त ने बदला हैं उनको बेजोड़ पर मानस में है पुरानी सोच शायद यहीं नया दौड़ है भारतीय सभ्यता की है बेकद्री पाश्चात्य सभ्यता को है ताली पारलर सैलून खूब सजते हजारों चेहरे यहाँ पूतते है मेहनत के धन का दुरूपयोग है बेबसियों का कैसा दौर है शायद यहीं नया दौर है बाला सुंदर सुंदर सजती है मियाँ जी की कमाई बराबर करती है टेन्शन खूब बढाती है अपने को चाँद बना दिखलाती है प्रिय प्राणेश्वर की दीवाणी है हरदम न्यौछावर रहने वाली है शायद यही नया दौर है हिन्दी पर अंग्रेजी हावी है भाषा बोलने में खराबी है अंग्रेजी अपनी दासी है हिन्दी कंजूसी सिखाती है ना हम हिंदूस्तानी हैल बाजार जब मैं जाती हूँ मम्माओं को स्कर्ट शर्ट,जीन्स टॉप पहना हुआ पाती हूँ मम्मा बेटी में नहीं लगता अन्तर बेटी से माँ का चेहरा सुहाना है लगता शायद यहीं नया दौर है अंग्रेजी पढना शान है हिन्दी से हानि है नयी पीढ़ी यहीं समझती है इसलिये हिन्दी अंग्रेजी गड़बड़ाती नौनिहालों का बुरा हाल है माँ को मॉम कहक पिता को डैड कहकर हिन्दुस्तान का सत्यानाश है शायद यहीं नया दौर है बुजुर्ग वृद्धाश्रम की आन है घर में नवविवाहिता का राज है मर्द भी भूल गया पावन चरणों को जिनकी छाया में में बना विशाल वट है संस्कृति , मूल्यों का ह्रास हो रहा पाश्चात्य रंग सभी पर निखर रहा शायद यही नया दौर है डॉ मधु त्रिवेदी संक्षिप्त परिचय  ————————— . पूरा नाम : डॉ मधु त्रिवेदी शान्ति निकेतन कालेज आॅफ बिजनेस मैनेजमेंट एण्ड कम्प्यूटर साइंस आगरा       प्राचार्या,पोस्ट ग्रेडुएट कालेज                     आगरा यह भी पढ़ें … सपने ये इंतज़ार के लम्हे मकान जल जाता है मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के आपको “नया दौर  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- hindi poem, poetry, hindi poetry

मकान जल जाता है

जल जाना यानि सब कुछ स्वाहा हो जाना खत्म हो जाना | क्या सिर्फ आग से मकान जलता है ? बहुत सी परिस्थितियाँ हैं जहाँ आग दिखाई नहीं देती पर बहुत कुछ भस्म हो जाता है | हिंदी कविता –मकान जल जाता है जब राजनेता कोई घिनौनी चाल चल जाता है——— तो उससे बिहार और बंगाल जल जाता है। सब एक दूजे को मरते-मारते है और——— हमारे खून-पसीने से बनाया मकान जल जाता है। जिन्हें ठीक से श्लोक नही आता, और जिन्हें ठीक से आयत नही आती, उन्ही के हाथो———- शहर की पूजा और अजान जल जाता है। कर्फ्यू में– रेहड़ी और खोमचे वाले मजदूरो के बच्चे, आँख मे आँसू लिये, तकते है तवे का सुनापन सच तो ये है कि, शहर के दंगे मे———– गरीबो और मजदूरो की रोटी का सामान जल जाता है। सब एकदूजे को मरते-मारते है और———- हमारे खून-पसीने से बनाया मकान जल जाता है। बिहार और बंगाल के दंगे पे लिखी रचना। @@@@रचयिता——रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर–222002 (उत्तर-प्रदेश)। यह भी पढ़ें … बैसाखियाँ गीत वसंत उम्र के 75 वर्ष मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के आपको “ मकान जल जाता है “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- hindi poem, poetry, hindi poetry

सपने

कितने मासूम होते हैं सपने जो आँखों में चले आते हैं  कहीं दूर आसमानों से , पल भर को सब कुछ हरा लगने लगता हैं …. कितने बेदर्द होते हैं सपने , जो पल भर में टूट जाते हैं नाजुक काँच से और ताउम्र चुभती रहती हैं उनकी किरचे |  कविता -सपने  सपनें प्राय: टूटते ही हैं  बस आँख खुलने की देर है  ज़िंदगी जिस चारपाई पर पड़ी मुस्करा रही थी  वो कुछ और नहीं  मदहोशी थी….  खुमार था  हकीकत की लु  चुभती  हुई  तंद्रा भंग कर जाती हैं…   और सामने वही रेत के टूटे हुये महल  मुंह चिढाता है ।  जो प्राप्य है वो पुरा नही है  जो नहीं मिला उसके पीछे कितना भागते है?   इतना की टखनें खसीटते हुये साथ देते हैं..   आह.. ये मृगमरीचिका  कितना छलेगी… ? ये कैसा तुफान है जो  मन को भटकाता है..   झुठे सपनें दिखाता है  और उस सपने के टुटे किरचे  सदियों तक आत्मा के पाँव को लहुलूहान करती है  और रिसता हुआ एक दर्द नासूर बनता है  इस तरह झुठा सपना छलता है  ____ साधना सिंह       गोरखपुर  यह भी पढ़ें … यह भी पढ़ें … मैं माँ की गुडिया ,दादी की परी नहीं … बस एक खबर थी कच्ची नींद का ख्वाबकिताबें कतरा कतरा पिघल रहा है आपको ”  सपने  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- poem in Hindi, Hindi poetry, dream, dreaming