रिश्तों में मिठास घोलते फैमिली फंक्शन
भतीजी की दूसरी वर्षगांठ पर अपने मायके बलिया जाने की तैयारी करते हुए पिछले वर्ष के स्मृति वन में खग मन विचरण रहा है ! पिछले वर्ष तीन दिनों के अंदर तीन जगह ( बलिया, जबलपुर, तथा हल्द्वानी ) आने का न्योता मिला था ! तीनों में किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता था! 21नवम्बर को बलिया ( मायके ) में भतीजी का पहला जन्मदिन, 23, 24 नवम्बर जबलपुर में चचेरे देवर के बेटे का विवाह और तिलक, और 24, 25 नवम्बर को मेरे फुफेरे भाई के बेटे ( भतीजे ) का तिलक और विवाह ! काफी माथापच्ची तथा परिजनों के सुझावों के बाद हम निर्णय ले पाये कि कहाँ कैसे जाना है! बलिया तो मात्र तीन चार घंटे का रास्ता है इसलिए वहाँ निजी वाहन से ही हम 21 नवम्बर के सुबह ही चलकर पहुंच गये ! चुकीं भतीजी का पहला जन्मदिन था तो बहुत से लोगों को आमन्त्रित किया गया था! सभी रिश्तेदार तो आये ही थे गाँव से गोतिया के चाचा चाची भी आये थे! उन लोगों से मिलकर काफी अच्छा लग रहा था क्योंकि कभी कोई चाची अपने पास बुला कर बात करतीं तो कभी कोई , ऐसा लग रहा था मानो मैं पुनः बचपन में लौट आई हूँ! एक चाची तो बहुत प्रेम से अपने पास बुला कर कहने लगीं.. ऐ रीना अब बेटा के बियाह कर ! मैंने कहा हाँ चाची करूंगी अभी बेटा शादी के लिए तैयार नहीं है तो सोची कि कुछ टाइम दे ही दूँ! तो चाची समझाते हुए कहने लगीं रीना तू पागल हऊ, कवनो लइका लइकी अपने से बियाह करे के कहेला? अब तू क द पतोहिया तोहरा संगे रही नू ( तुम बुद्धू हो, कोई लड़का लड़की खुद शादी करने को कहता है क्या..? शादी कर दोगी तो बहु तुम्हारे साथ रहेगी न..?) चाची की ये बात सुनकर तो मुझे हँसी भी आने लगी कि जब बेटा ही बाहर रहता है तो बहु कैसे मेरे साथ रह सकती है, लेकिन उनकी बातों को मैं हाँ में हाँ मिलाकर सुन रही थी और मजे ले रही थी ! खैर यात्रा का पहला पड़ाव जन्मदिन बहुत ही अच्छी तरह से सम्पन्न हुआ और मैं अपने साथ सुखद स्मृतियाँ लिये 22 नवम्बर को सुबह – सुबह ही पटना के लिए चल दी! फिर 22 नवम्बर रात के ग्यारह बजे से दूसरी यात्रा जबलपुर के लिए ट्रेन से रवाना हुए हम और 23 नवम्बर को सुबह के करीब एक बजे पहुंचे! तिलक शाम सात बजे से था ! बात ससुराल की थी इसलिए हम पाँच बजे ही तैयार वैयार होकर पहुंच गये विवाह स्थल पर ! वहाँ पहुंचते ही बड़े, बुजुर्गों तथा बच्चों के द्वारा स्नेह और अपनापन से जो स्वागत सत्कार हुआ उसका वर्णन शब्दों में कर पाना थोड़ा कठिन लग रहा है बस इतना ही कह सकती हूँ कि वहाँ मायके से भी अधिक अच्छा लग रहा था! जैसे ही घर के अंदर पहुंच कर ड्राइंग रूम में सभी बड़ों को प्रणाम करके सोफे पर बैठी आशिर्वाद की झड़ी लग गई थी जिसे समेटने के लिए आँचल छोटा पड़ रहा था! अभी चाय खत्म भी नहीं हुआ था कि एक चचिया सास आकर ए दुलहिन तबियत ठीक बा नू.. मैंने कहा हाँ…. तो बोलीं तनी ओठग्ह रह ( थोड़ा लेट लो ) मैने कहा नहीं नहीं बिल्कुल ठीक हूँ और मन में सोच रही थी कि ठीक न भी होती तो क्या तैयार होकर लेटने जाती.. अन्दर अन्दर थोड़ी हँसी भी आ रही थी..! तभी फिर से पाँच मिनट बाद आकर उसी बात की पुनरावृत्ति.. ए दुलहिन तनी ओठग्ह रह.. और फिर मैं मना करती रही…. यह ओठग्ह रह वाला पुनरावृति तो मैं जब तक थी हर पाँच दस मिनट बाद होता रहता था..यह कहकर कि तोहार ससुर कहले बाड़े कि किरन के तबियत ठीक ना रहेला तनी देखत रहिह ( किरण की तबीयत ठीक नहीं रहती है थोड़ा देखते रहना ) बस इतना ही तक नहीं उस कार्यक्रम में मैं जहाँ जहाँ जाती वो चचिया सास जी बिल्कुल साये की तरह मेरे साथ होती थीं! और हर थोड़े अंतराल के बाद ओठग्ह रह और पानी चाय के लिए पूछने का क्रम चलता रहता था ! तिलक के बाद घर के देवी देवताओं की पूजा, हल्दी मटकोड़ आदि लेकर रात बारह बजे तक कार्यक्रम चला ! फिर हम सुबह जनेऊ में सम्मिलित होकर उन लोगों से बारात में सम्मिलित न हो पाने की विवशता बताकर क्षमा माँगते हुए एयरपोर्ट के लिए निकल तो गये क्यों कि हल्द्वानी जाने के लिए दिल्ली पहुंचकर ही ट्रेन पकड़ना था लेकिन मन यहीं रह गया था! रास्ते भर वहाँ का अपनापन और प्रेम की बातें करके आनन्दित होते रहे हम! हल्द्वानी भी पहुंचे!इतनी व्यस्ता और मना करने के बाद भी फुफेरे भैया हमें खुद स्टेशन से लेने आये थे ! यहाँ तो और भी इसलिए अच्छा लग रहा था कि बहुत से रिश्तेदारों से तीस बत्तीस वर्ष बाद मिल रही थी मैं इसलिए बात खत्म ही नहीं हो पा रही थी, सबसे बड़ी बात कि इतने अंतराल के बाद भी अपनापन और स्नेह में कोई कमी नहीं आई थी बल्कि और भी ज्यादा बढ़ गई थी! मैं जब पहुंची थी तो मटकोड़ का कार्यक्रम चल रहा था!मैं जाकर भाभी का जब पैर छुई तो व्यस्त तो थीं ही बस यूँ ही खुश रहो बोल दीं! लेकिन जब ध्यान से देखीं तो बोलीं अरे रीना और आकर मुझसे लिपट गईं ! इसके अलावा भी बहुत कुछ है बताने को फिर कभी लिखूंगी ! सच में खून अपनी तरफ़ खींचता ही है चाहे कितनी ही दूरी क्यों न हो! इतना जरूर कहूंगी कि अपने फैमिली फंक्शन को मिस नहीं करनी चाहिए ! किरण सिंह फोटो क्रेडिट –विकिपीडिया यह भी पढ़ें ……… कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार गुरु कीजे जान कर हे ईश्वर क्या वो तुम थे 13 फरवरी 2006 आपको आपको लेख “रिश्तों में मिठास घोलते फैमिली फंक्शन “ कैसा लगा | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |