रिश्तों में मिठास घोलते फैमिली फंक्शन

भतीजी की दूसरी वर्षगांठ पर अपने मायके बलिया जाने की तैयारी करते हुए पिछले वर्ष के स्मृति वन में खग मन विचरण रहा है ! पिछले वर्ष तीन दिनों के अंदर तीन जगह (  बलिया, जबलपुर, तथा हल्द्वानी ) आने का न्योता मिला था ! तीनों में किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता था! 21नवम्बर को बलिया  ( मायके ) में भतीजी का पहला जन्मदिन, 23, 24 नवम्बर जबलपुर में चचेरे देवर के बेटे का विवाह और तिलक, और 24, 25 नवम्बर को मेरे फुफेरे भाई के बेटे ( भतीजे ) का तिलक और विवाह !  काफी माथापच्ची तथा परिजनों के सुझावों के बाद हम निर्णय ले पाये कि कहाँ कैसे जाना है!  बलिया तो मात्र तीन चार घंटे का रास्ता है इसलिए वहाँ निजी वाहन से ही हम 21 नवम्बर के सुबह ही चलकर पहुंच गये ! चुकीं भतीजी का पहला जन्मदिन था तो बहुत से लोगों को आमन्त्रित किया गया था! सभी रिश्तेदार तो आये ही थे गाँव से गोतिया के चाचा चाची भी आये थे! उन लोगों से मिलकर काफी अच्छा लग रहा था क्योंकि कभी कोई चाची अपने पास बुला कर बात करतीं तो कभी कोई , ऐसा लग रहा था मानो मैं पुनः बचपन में लौट आई हूँ!  एक चाची तो बहुत प्रेम से अपने पास बुला कर कहने लगीं.. ऐ रीना अब बेटा के बियाह कर ! मैंने कहा हाँ चाची करूंगी अभी बेटा शादी के लिए तैयार नहीं है तो सोची कि कुछ टाइम दे ही दूँ! तो चाची समझाते हुए कहने लगीं रीना तू पागल हऊ, कवनो लइका लइकी अपने से बियाह करे के कहेला?  अब तू क द पतोहिया तोहरा संगे रही नू ( तुम बुद्धू हो, कोई लड़का लड़की खुद शादी करने को कहता है क्या..? शादी कर दोगी तो बहु तुम्हारे साथ रहेगी न..?)  चाची की ये बात सुनकर तो मुझे हँसी भी आने लगी कि जब बेटा ही बाहर रहता है तो  बहु कैसे मेरे साथ रह सकती है, लेकिन उनकी बातों को मैं हाँ में हाँ मिलाकर सुन रही थी और मजे ले रही थी !  खैर यात्रा का पहला पड़ाव जन्मदिन बहुत ही अच्छी तरह से सम्पन्न हुआ और मैं अपने साथ सुखद स्मृतियाँ लिये 22 नवम्बर को सुबह – सुबह ही पटना के लिए चल दी!  फिर 22 नवम्बर रात के ग्यारह बजे से दूसरी यात्रा जबलपुर के लिए ट्रेन से रवाना हुए हम और 23 नवम्बर को सुबह के करीब एक बजे पहुंचे!  तिलक शाम सात बजे से था ! बात ससुराल की थी इसलिए हम पाँच बजे ही तैयार वैयार होकर पहुंच गये विवाह स्थल पर ! वहाँ पहुंचते ही बड़े, बुजुर्गों तथा बच्चों के द्वारा स्नेह और अपनापन से जो स्वागत सत्कार हुआ उसका वर्णन शब्दों में कर पाना थोड़ा कठिन लग रहा है बस इतना ही कह सकती हूँ कि वहाँ मायके से भी अधिक अच्छा लग रहा था!  जैसे ही घर के अंदर पहुंच कर ड्राइंग रूम में सभी बड़ों को प्रणाम करके सोफे पर बैठी आशिर्वाद की झड़ी लग गई थी जिसे समेटने के लिए आँचल छोटा पड़ रहा था!  अभी चाय खत्म भी नहीं हुआ था कि एक चचिया सास आकर ए दुलहिन तबियत ठीक बा नू.. मैंने कहा हाँ…. तो बोलीं तनी ओठग्ह रह ( थोड़ा लेट लो ) मैने कहा नहीं नहीं बिल्कुल ठीक हूँ और मन में सोच रही थी कि ठीक न भी होती तो क्या तैयार होकर लेटने जाती.. अन्दर अन्दर थोड़ी हँसी भी आ रही थी..! तभी फिर से पाँच मिनट बाद आकर उसी बात की पुनरावृत्ति.. ए दुलहिन तनी ओठग्ह रह.. और फिर मैं मना करती रही…. यह ओठग्ह रह वाला पुनरावृति तो मैं जब तक थी हर पाँच दस मिनट बाद होता रहता था..यह कहकर कि तोहार ससुर कहले बाड़े कि किरन के तबियत ठीक ना रहेला तनी देखत रहिह (  किरण की तबीयत ठीक नहीं रहती है थोड़ा देखते रहना ) बस इतना ही तक नहीं  उस कार्यक्रम में मैं जहाँ जहाँ जाती वो चचिया सास जी बिल्कुल साये की तरह मेरे साथ होती थीं! और हर थोड़े अंतराल के बाद ओठग्ह रह और पानी चाय के लिए पूछने का क्रम चलता रहता था !  तिलक के बाद घर के देवी देवताओं की पूजा, हल्दी मटकोड़ आदि लेकर रात बारह बजे तक कार्यक्रम चला !  फिर हम सुबह जनेऊ में सम्मिलित होकर उन लोगों से बारात में सम्मिलित न हो पाने की विवशता बताकर क्षमा माँगते हुए  एयरपोर्ट के लिए निकल तो गये क्यों कि हल्द्वानी जाने के लिए दिल्ली पहुंचकर ही ट्रेन पकड़ना था लेकिन मन यहीं रह गया था! रास्ते भर वहाँ का अपनापन और प्रेम की बातें करके आनन्दित होते रहे हम!  हल्द्वानी भी पहुंचे!इतनी व्यस्ता और मना करने के बाद भी फुफेरे भैया हमें खुद स्टेशन से लेने आये थे ! यहाँ तो और भी इसलिए अच्छा लग रहा था कि बहुत से रिश्तेदारों से तीस बत्तीस वर्ष बाद मिल रही थी मैं इसलिए बात खत्म ही नहीं हो पा रही थी, सबसे बड़ी बात कि इतने अंतराल के बाद भी अपनापन और स्नेह में कोई कमी नहीं आई थी बल्कि और भी ज्यादा बढ़ गई थी!  मैं जब पहुंची थी तो मटकोड़ का कार्यक्रम चल रहा था!मैं जाकर भाभी का जब पैर छुई तो व्यस्त तो थीं ही बस यूँ ही खुश रहो बोल दीं! लेकिन जब ध्यान से देखीं तो बोलीं अरे रीना और आकर मुझसे लिपट गईं ! इसके अलावा भी बहुत कुछ है बताने को फिर कभी लिखूंगी !  सच में खून अपनी तरफ़ खींचता ही है चाहे कितनी ही दूरी क्यों न हो!  इतना जरूर कहूंगी कि अपने फैमिली फंक्शन को मिस नहीं करनी चाहिए ! किरण सिंह  फोटो क्रेडिट –विकिपीडिया यह भी पढ़ें ……… कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार गुरु कीजे जान कर हे ईश्वर क्या वो तुम थे 13 फरवरी 2006 आपको आपको  लेख “रिश्तों में मिठास घोलते  फैमिली फंक्शन “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

आखिर क्यों 100 % के टेंशन में पिस रहे है बच्चे

अक्सर ही स्त्रियों की  समस्याओं को लेकर परिचर्चा होती रहती है , आये दिन स्त्री विमर्श देखने सुनने तथा पढ़ने को मिल जाता है लेकिन बच्चे जाने अनजाने ही सही अपने अभिभावकों द्वारा सताये जाते हैं इस तरफ़ कम ही लोगों को ध्यान जा पाता है! प्रायः सभी के दिमाग में यह बात बैठा हुआ है कि माता – पिता तो बच्चों के सबसे शुभचिंतक होते हैं इसलिए वे जो भी करते हैं अपने बच्चों की भलाई के लिए ही करते हैं इसलिए इस गम्भीर समस्या पर गम्भीरता से न तो समाज चिंतन करता है और न ही सामाजिक संगठन ! कहाँ से आ रहा है 100 % के टेंशन  अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए माता पिता अपने बच्चों की आँखों में अपने सपने पालने को विवश कर देते हैं परिणामस्वरूप बच्चों का बालमन अपनी सहज प्रवृत्तियाँ खोता जा रहा है क्योंकि उन्हें भी तो टार्गेट पूरा करना होता है अपने अभिभावकों के सपनों का!क्लास में फर्स्ट आना है, 100%मार्क्स आना चाहिए, 100%अटेंडेंस का अवार्ड मिलना चाहिए, उसके बाद एक्स्ट्रा एक्टिविटीज अलग से मानों बच्चे ” बच्चे नहीं कम्प्यूटर हो गये हों!  जब मैं स्वयं 100% फेर में पड़ी  मैं आज भी खुद अपने बेटे के साथ की गई ज्यादती को याद करके बहुत दुखी हो जाती हूँ ! मेरा छोटा बेटा कुमार आर्षी आनंद दूसरी कक्षा में पढ़ता था खेल खेल में उसका हाथ फ्रैक्चर कर गया था , संयोग से उस दिन शनिवार था तो अगले दिन रविवार को भी छुट्टी मिल गई! बेटा हाथ में प्लास्टर चढ़ाये डेढ़ महीने तक लगातार स्कूल गया! वैसे स्कूल के स्टूडेंट्स और बच्चों का बहुत सपोर्ट मिलता था! तब मैं इतना ही कर पाई थी कि बेटे को स्कूल बस से न भेजकर खुद गाड़ी से ले आने ले जाने का काम करती थी ! स्कूल के बच्चों की सहयोगात्मक भावना से मैं अभिभूत थी क्योंकि तब बेटे के बैग उठाने को लेकर बच्चों में आपसी कम्पटीशन होता था! एक दिन तो जब मैं बेटे को स्कूल से लाने गई तो एक मासूम सी बच्ची मुझसे आकर बोली आंटी आंटी देखिये मैं आर्षी का बैग लाना चाहती थी लेकिन शाम्भवी मुझे नहीं उठाने दी रोज खुद ही उठाती है! मैं तब भाव विह्वल हो गई थी और उस बच्ची को प्यार से गले लगाते हुए समझाई थी! एनुअल फंक्शन हुआ, मेरे बेटे ने क्लास में 98. 9%नम्बर लाकर क्लास में सेकेंड रैंक और 100%अटेंडेंस का अवार्ड भी प्राप्त किया! तब मेरे आँखों से आँसू छलक पड़े थे और गर्व तो हुआ ही था! लेकिन आज मुझे वह सब महज एक बेवकूफी लगता है जो मैंने अन्जाने में ही सही की थी! आज सोचती हूँ ऐसे में मुझे बच्चे को स्कूल नहीं भेजना चाहिए था! बच्चे की 100%अटेंडेंस और  माँ का टेंशन  मुझसे भी अधिक तो मेरी एक पड़ोसन सहेली बच्चों के पढ़ाई को लेकर बहुत गम्भीर रहती थीं उनका बेटा हमेशा ही क्लास में फर्स्ट करता था और हमेशा ही उसे 100%अटेंडेंस का अवार्ड मिलता था! एक दिन किसी कारण वश रोड जाम हो गया था तो वे बच्चों को रास्ते से ही वापिस लेकर आ गयीं! अचानक वो दोपहर में मेरे घर काफी परेशान हालत में आयीं! पहले तो उन्हें देखकर मैं डर गयी क्यों कि उनके आँखों से आँसू भी निकल रहा था फिर मैं उन्हें बैठाकर उनकी बातै इत्मिनान से सुना  तो पता चला कि उस दिन स्कूल खुला था और वे इस बात को लेकर रो – रो कर कह रहीं थीं कि बताइये जी हम बच्चे को बुखार में भी स्कूल भेजते थे बताइये जब रोड पर पथराव हो रहा था तो आज स्कूल नहीं न खोलना चाहिए था! उनका रोना और परेशान होना देखकर मेरा छोटा बेटा तो उन्हें समझा ही रहा था साथ में बड़ा बेटा भी समझाते हुए कहा आंटी आप इतनी छोटी सी बात के लिए क्यों परेशान हैं ” 100%अटेंडेंस का सर्टिफिकेट ही चाहिए न तो मैं आपको कम्प्यूटर से निकालकर अभी दे देता हूँ ! उनकी परेशानी देखकर मैं स्कूल में फोन करके भी गुस्साई कि जब रोड जाम था तो आज स्कूल क्यों खुला रहा, तो स्कूल वालों ने बताया कि कुछ बच्चे पथराव से पहले ही स्कूल आ चूके थे इसलिए स्कूल खुला रहा लेकिन आज का अटेंडेंस काउंट नहीं होगा , यह सुनकर मेरी सहेली के जान में जान आई!                                      कहने का मतलब है कि हमें बच्चों के एजुकेशन को लेकर गम्भीर होना चाहिए पर इतना भी नहीं! अति सर्वत्र वर्जयते! दुनिया जहान के सभी बच्चे फले , फूले, खुश रहें, अपने लक्ष्य को प्राप्त करें, उनके सपने साकार हों यही शुभकामना है | ©किरण सिंह  यह भी पढ़ें …  क्या सभी टीचर्स को चाइल्ड साइकोलोजी की समझ है ख़राब रिजल्ट आने पर बच्चों कोकैसे रखे पॉजिटिव बाल दिवस :समझनी होंगी बच्चों की समस्याएं माता – पिता के झगडे और बाल मन आपको आपको  लेख “ आखिर क्यों 100 % के टेंशन में  पिस रहे है बच्चे  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    keywords: parents, children issues, exam, tension , 100%expectation 

उपहार -जो मन को छू जाए

किसी को उपहार में क्या दें पर विशेष लेख  घरेलू उत्सव ( शादी विवाह, जन्मदिन, गृह प्रवेश आदि) तथा तीज – त्योहारों का उपहारों से एक खूबसूरत रिश्ता है जो समय – समय पर आदान – प्रदान करने से हमारे खूबसूरत रिश्तों को और भी खूबसूरती तथा मजबूती प्रदान करते रहते हैं! उपहार सिर्फ एक वस्तु ही न होकर उपहार देने वालों के भावनाओं का द्योतक होता है इसलिए अवसर के हिसाब से उपहारों का चयन सोच समझकर करना चाहिए जिससे उपहार प्राप्त करने वालों के हृदय में आपके लिए विशेष स्थान बन सके! जरूरी नहीं कि उपहार कीमती ही दिया जाये! अपने सामर्थ्य के अनुसार ही उपहार का चयन करना चाहिए ताकि उपहार देकर तो खुशी मिले ही और लेने वाले भी उपहार लेकर प्रसन्न हों, न कि उपहार के बोझ से खुद को दबा हुआ महसूस करें!  मौके के अनुरूप हो उपहार  @ जैसे यदि त्योहार दीपावली का है तो इस अवसर पर मिठाइयों के साथ-साथ बर्तन, भी दिया जा सकता है.. यदि उपहार महंगा देना हो तो ज्वैलरी भी अपने सामर्थ्य के अनुसार दिया जा सकता है! उसी प्रकार होली में रंग गुलाल के साथ-साथ मेवा मिठाइयाँ, आदि दिया जा सकता है! @ जन्मदिन पर  बच्चों के उम्र का ध्यान रखते हुए ही खिलौने तथा कपड़ो का चयन करना चाहिए  ! वैसे भी बच्चों को अपने जन्मदिन का बेसब्री से प्रतीक्षा रहता है और साथ ही अपने विशेष रिलेटिव से विशेष गिफ्ट की अपेक्षा भी ! जन्मदिन के अवसर पर गिफ्ट की बात पर मुझे अपने बेटे आर्षी की बात याद करके अभी भी हँसी आ जाती है जब वह करीब पाँच वर्ष का था तो अपने जन्मदिन पर मिले हरेक गिफ्ट को अपने बिस्तर पर फैलाकर बोल रहा था आज हम सबसे अमीर हो गये हैं..! @  शादी विवाह में तो बहुत कुछ देने का आप्शन होता है फिर भी आवश्यकता और पसंद को ध्यान में रखते हुए ही उपहार देना चाहिए ! उसी प्रकार विवाह की वर्ष गांठ पर भी बहुत से आप्शन होते हैं उपहार देने के लिए!! फिर भी कुछ विशेष उपहार विशेष खुशी देते हैं! एकबार मैं अपनी सहेली के विवाह के पच्चीवीं वर्षगांठ पर साड़ी कपड़ो के साथ-साथ चूड़ी केश में भर कर रंग बिरंगी चूड़ियाँ तथा कंगन उपहार में दे दी… उसके बाद तो वह हर त्योहार पर मुझे फोन करके कहती थी कि आज तुम्हारी वाली ही चूड़ियाँ पहनी हूँ यह सुनकर सच में मन बहुत खुश हो जाता था ! @ अपने यहाँ गृह प्रवेश के अवसर पर भी उपहार देने की परम्परा है ! इसमें ज्यादातर नये घर में जरूरी सामान ( बर्तन, चादर. ब्लैंकेट्स, सजावटी सामान आदि ) देना उचित होता है !                                            गृह प्रवेश से याद आयी करीब ढाई वर्ष पूर्व की अपने गृह प्रवेश की बात…. फरवरी का महीना था और गुलाबी ठंड! मुझे तो वैसे भी ठंड बहुत कम लगती है उसमें भी व्यस्तता और खुशी की गर्मी की वजह से ठंड मेरे आसपास भी नहीं फटकती थी! रात में मेहमानों के सोने की व्यवस्था देखते हुए कुछ बातचीत करके करीब बारह एक बजे मध्य रात्रि में अपने कमरे में आकर कुछ देर बिस्तर पर लेटी तो ठंड महसूस होने लगी! बिस्तर आदि दूसरे फ्लैट में रखा गया था जिसमें मेहमान सोये थे! अब इतनी रात गये किसी मेहमान को भी दरवाजा खटखटाकर परेशान नहीं करना चाहती थी ! फिर मेरे दिमाग में आया और मैं अपना वार्डरोब खोलकर गिफ्ट देखने लगी  तो एक सबसे बड़े मोटे गिफ्ट को ऊपर से ही छूकर देखी तो मेरे मन में कुछ उम्मीद की किरण जगी .. खोलकर देखी तो बिल्कुल मेरे अनुमान के अनुरूप ही गिफ्ट में खूबसूरत दोहर निकला जिसे ओढ़ कर हम रात बिताये! यह उपहार मेरी ननद की सास ने दी थी जो मेरे लिए सबसे उपयोगी और खूबसूरत स्मृतिचिन्ह के रूप में मेरे बिस्तर के साथ-साथ मेरे जेहन में अब तक बसा हुआ है!  चलन में है रिटर्न गिफ्ट  गिफ्ट में रिटर्न गिफ्ट की परम्परा भी काफी खूबसूरत होती हैं जो मेहमानों के लौटते समय मेजबानों के द्वारा दिया जाता है! अभी पिछले वर्ष की ही बात है जब हम अपने फुफेरे भाई के बेटे की शादी अटेंड कर हल्द्वानी से पटना काठगोदाम एक्सप्रेस ट्रेन से लौट रहे थे ! उस ट्रेन में कैंटीन नहीं था! सुबह ब्रश करने के बाद मैंने भाभी का दिया हुआ रिटर्न गिफ्ट का डब्बा खोली तो उसमें साड़ी कपड़े के साथ ही तरह – तरह की सूखी मिठाइयाँ तथा तरह – तरह के नमकीन भी मिले जिसे देखकर मन खुश हो गया! और हम समय से स्वादिष्ट नाश्ता का आनन्द उठा सके!  सिर्फ दिखावा न हो उपहार  याद रखें उपहार कभी भी दिखाने और फोकस के लिए कभी नहीं देना चाहिए जो सिर्फ देखने में ही सुन्दर हो और जब बाद में पता चले तो उपहार लेने वाले मन ही मन आपके प्रति दुर्भावना पाल लें !  जैसे बहुत से लोग डुप्लीकेट सिल्क की साड़ी या फिर डुप्लीकेट कपड़े दे देते हैं जो देखने दिखाने में तो बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन लेने वाले इधर उधर दान ही कर दिया करते हैं! कम कीमत में ही देना हो तो काॅटन के कपड़े भी दिये जा सकते हैं जिसे लेने वाला खुद पहन  सके ! वैसे आजकल आॅनलाइन गिफ्ट की सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं जो की आज की जेनरेशन के लिए काफी सुविधाजनक है!  जो भी दें जब भी उपहार दें तो ऐसा दें जो मन को छू जाए  ©किरण सिंह यह भी पढ़ें ……… बेगम अख्तर मल्लिकाएं ग़ज़ल को सलाम अतिथि देवो भव – तब और अब आखिर हम इतने अकेले क्यों होते जा रहे हैं ? आज गंगा स्नान नहीं गंगा को स्नान करने की आवश्यकता है क्या आप जानते है की आप के घर का कबाड़ बढ़ा सकता है आप का अवसाद मित्रों , किरण सिंह जी का आलेख उपहार जो मन को छू जाए आपको कैसा लगा  | पसंद आने पर शेयर करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको ” अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फ्री … Read more

13 फरवरी 2006

10 फरवरी 2006 वेदना पिघल कर आँखों से छलकने को आतुर थीं.. पलकें अश्रुओं को सम्हालने में खुद को असहाय महसूस कर रही थीं…जी चाहता था कि कोई अकेला कुछ देर के लिए छोड़ देता कि जी भर के रो लेती……….फिर भी अभिनय कला में निपुण अधर मुस्कुराने में सफल हो रहीं थीं ..बहादुरी का खिताब जो मिला था उन्हें….! कैसे कोई समझ सकता था कि होठों को मुस्कुराने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ रहा था…! किसी को क्या पता था कि सर्जरी से पहले सबसे हँस हँस कर मिलना और बच्चों के साथ घूमने निकलना , रेस्तरां में मनपसंद खाना खाते समय मेरे हृदय के पन्नों पर मस्तिष्क लेखनी बार बार एक पत्र लिख -लिख कर फाड़ रही थी… कि मेरे जाने के बाद……………..! 11 फरवरी 2006 11 फरवरी 2006 रात करीब आठ बजे बहन का फोन आया… पति ने बात करने के लिए कहा तब आखिरकार छलक ही पड़े थे नयनों से नीर…. और रूला ही दिए थे मेरे पूरे परिवार को… नहीं सो पाई थी  उस रात को मैं .. कि सुबह ओपेन हार्ट सर्जरी होना था…. सुबह स्ट्रेचर आता है… उसपर मुझे लेटा दिया जाता है…. कुछ दूर चलकर स्ट्रेचर वापस आता है कि सर्जरी आज नहीं होगा……! कुछ लोगों ने तो अफवाह फैला दी  थी  कि डॉक्टर नरेश त्रेहान इंडिया पाकिस्तान का क्रिकेट मैच देखने पाकिस्तान जा रहे हैं..! सर्जरी से तो डर ही रही थी | मुझे  बहाना मिल गया था हॉस्पिटल से भागने का…….. गुस्से से चिल्ला पड़ी थी मैं .. डॉक्टरों की टीम आ पहुंची थी मुझे समझाने के लिए | तभी डॉक्टर नरेश त्रेहान भी आ पहुंचे थे ,और समझाने लगे थे कि मुझे इमर्जेंसी में बाहर जाना पड़ रहा है… मैं चाहता हूँ कि मेरे प्रेजेन्स में ही आपकी सर्जरी हो…………… …..! 13 फरवरी 2006 13 फरवरी 2006 सुबह करीब ९ बजे स्कार्ट हार्ट हॉस्पिटल की नर्स ने जब स्ट्रेचर पर लिटाया और ऑपरेशन थियेटर की तरफ ले जाने लगी थी तो मुझे लग रहा था कि जल्लाद रुपी परिचारिकाएं मुझे फांसी के तख्ते तक ले जा रही हैं……… हृदय की धड़कने और भी तेजी से धड़क रही थी…. मन ही मन मैं सोंच रही थी शायद यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन है…….जी भर कर देखना चाहती थी दुनिया को……… पर नजरें नहीं मिला पा रही थी परिजनों से कि कहीं मेरी आँखें छलककर मेरी पोल न खोल दें…….मैं खुद को बिलकुल निर्भीक दिखाने का अभिनय करती रही थी परिचारिकाएं ऑपरेशन थियेटर के दरवाजे के सामने स्ट्रेचर रोक देती हैं.. और तभी किसी यमदूत की तरह डाक्टर आते हैं..  स्ट्रेचर के साथ साथ डॉक्टर भी ऑपरेशन थियेटर में मेरे साथ चल रहे थे…. चलते चलते वे अपनी बातों में उलझाने लगे थे ..जैसे किसी चंचल बच्चे को रोचक कहानी सुनाकर बातों बातों में उलझा लिया जाता है.. ! डाक्टर  ने कहा किरण जी लगता है आप बहुत नाराज हैं..! मैने कहा हाँ.. क्यों न होऊं…? और मैं हॉस्पिटल की व्यवस्था को लेकर कुछ कुछ उलाहने.देने लगी थी . तथा इसी प्रकार की कुछ कुछ बातें किये जा रही थी..! मैने डाक्टर से पूछा बेहोश करके ही ऑपरेशन होगा न..? डाक्टर ने मजाकिया अंदाज में कहा अब मैं आपका होश में ही ऑपरेशन करके आपपर एक नया एक्सपेरिमेंट करता हूँ..! बातों ही बातों में डॉक्टर ने मुझे बेहोशी का इंजेक्शन दे दिया उसके बाद मुझे क्या हुआ कुछ पता नहीं..! 14 फरवरी 2006 करीब ३६ घंटे बाद १४ फरवरी  को मेरी आँखें रुक रुक कर खुल रही थी ..! आँखें खुलते ही सामने पतिदेव को खड़े देखा तब .मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि मैं सचमुच जीवित हूँ…!कहीं यह स्वप्न तो नहीं है यह सोचकर मैने  अपने पति के तरफ अपना हाँथ बढ़ाया..जब पति ने हांथ पकड़ा तब विश्वास हुआ कि मैं सचमुच जीवित हूँ..! तब मैं भूल गई थी उन सभी शारीरिक और मानसिक यातनाओं को जिन्हे मैंने सर्जरी के पूर्व झेला था ..! उस समय जिन्दगी और भी खूबसूरत लगने लगी थी ..वह हास्पीटल के रिकवरी रूम का वेलेंटाइन डे सबसे खूबसूरत दिन लग रहा था..! अपने भाई , बहनों , सहेलियों तथा सभी परिजनों का स्नेह.., माँ का अखंड दीप जलाना……, ससुराल में शिवमंदिर पर करीब ११ पंडितों द्वारा महामृत्युंजय का जाप कराना..,…… पिता , पति , और पुत्रों के द्वारा किया गया प्रयास… कैसे मुझे जाने देते इस सुन्दर संसार से..! वो सभी स्नेहिल अनुभूतियाँ मेरे नेत्रों को आज भी सजल कर रही हैं …. मैं उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पा रही…हूँ ! आज मुझे डॉक्टर देव , नर्स देवी , और स्कार्ट हार्ट हास्पिटल एक मंदिर लगता है..! एक सकारात्मक परिवर्तन की शुरुआत थी 13 फरवरी 2006 मुझे यही अनुभव हुआ कि समस्याओं से अधिक मनुष्य एक भयानक आशंका से घिर कर डरा होता है और ऐसी स्थिति में उसके अन्दर नकारात्मक भाव उत्पन्न होने लगता है जो कि सकारात्मक सोंचने ही नहीं देता है |  उसके ऊपर से हिन्दुस्तान में सभी डॉक्टर ही बन जाते हैं….! मैं अपने अनुभव के आधार पर यही कहना चाहती हूं कि स्वास्थ्य  सम्बन्धित समस्याओं के समाधान हेतु डॉक्टर के परामर्श पर चलें…. विज्ञान बहुत आगे बढ़ चुका है इसलिए भरोसा रखें डाॅक्टर पर………. आत्मविश्वास के लिए ईश्वर पर भी भरोसा रखें……. और सबसे पहले डॉक्टर और हास्पिटल का चयन में कोई समझौता न करें .! *************** किरण सिंह मित्रों सकारात्मक सोंच बहुत कुछ बदल देती है | जरूरी है हम ईश्वर  पर और अपने ऊपर विश्वास बनाये रखे | किरण सिंह जी का यह संस्मरण आपको कैसा लगा ? पसंद आने पर शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | फ्री ई मेल सबस्क्रिप्शन लें ताकि हमारी नयी पोस्ट सीधे आपके ई मेल पर पहुंचे |  यह भी पढ़ें …….. कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार गुरु कीजे जान कर एक चिट्ठी साहित्यकार / साहित्यकार भाइयों बहनों के नाम २० पैसा

संस्मरणात्मक आलेख – कलियुग में भी होते हैं श्रवण कुमार

संस्मरणात्मक आलेख – कलियुग  में भी होते हैं श्रवण कुमार  अबतक तक हम घरों की विशेष साफ सफाई दीपावली से पहले लक्ष्मी जी के स्वागतार्थ करते आये हैं किन्तु काबिले तारीफ हैं आज की पीढ़ी जो अपने पेरेंट्स के स्वागतार्थ उनके आने की सूचना पाते ही घरों की साफ सफाई में लग जाते हैं ! धन्य हैं वे माता पिता जिनकी सन्ताने उन्हें इतना मान देतीं हैं! उन धन्य माताओं में से एक मैं भी हूँ! हुआ यूँ कि इस बार मार्च में होली के ठीक दो दिन पहले पतिदेव अचानक बंगलूरू जाने के लिए फ्लाइट का टिकट लेते आये थे  जबकि हमने अपने मायके और ससुराल  ( बलिया ) जाने की पूरी तैयारी कर ली थी लेकिन बात जब बच्चों के यहाँ जाने की थी तो मन में खुशी के साथ – साथ तन में अचानक स्फूर्ति भी भर गयी  और मैं बंगलूरू जाने की तैयारी करने लगी! चूंकि होली का समय था इसलिए गुझिया, लड्डू, नमकीन आदि जल्दी जल्दी में जितना भी हो सका अपनी सहायिका की सहायता से बनाकर फटाफट अपना बैग पैक कर ली ! पतिदेव तो चाहते थे कि इसबार चलो हम लोग ही बच्चों को सरप्राइज दें लेकिन मुझे डर था कि कहीं सरप्राइज के चक्कर में हम ही न सरप्राइज्ड हो जायें क्यों कि वीकेंड में तो इनलोगों का प्रोग्राम फिक्स रहता है कहीं घूमने का.. इसीलिए छोटे बेटे को बता दी थी यह कहकर कि अपने भाई को मत बताना उसको सरप्राइज देना है!लेकिन बात भाई – भाई की थी इसलिए छोटे भाई अपने बड़े भाई को यह बताने से कैसे चूकते कि पटना से उड़ाकादल आ रहा है भाई सजग हो जाओ !  बंगलूरू एयरपोर्ट पर जैसे ही फ्लाइट लैंड की बेटे का काॅल आ गया कि हम एयरपोर्ट आ गये हैं जबकि हमने कई बार मना किया था कि मत आना हम कैब लेकर आ जायेंगे! हम सामान लेकर बाहर निकले .. तभी देखा काले रंग की चमचमाती हुई गाड़ी हमारे सामने आकर रुकती है एक बेटा ड्राइविंग सीट पर है और दूसरा बेटा उतरकर हम लोगों का पैर छूकर झट से सामान डिक्की में रखा और हम चल दिये अपने गन्तव्य स्थल की तरफ़ ! गाड़ी में गाना हमारे ही पसंद का बज रहा था पतिदेव की प्रसन्नता उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी !  कुछ दूर बढ़ते ही गाड़ी किसी फाइव स्टार होटल में रुकी ! खाना पीना वहीं हुआ ! पतिदेव अभी अपने पर्स से क्रेडिट कार्ड निकाल ही रहे थे कि बेटे ने अपने कार्ड पहले ही पेमेंट कर दिया!  खाने के बाद हम बेटों घर पहुंचे ! दरवाजा जैसे ही खुला चमचमाता हुआ फर्श और दिवारें  जैसे नये वस्त्र पहनकर हमारे स्वागत के लिए तैयार हो गयीं थीं! मेरे तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि आखिर इतना घर चमक कैसे रहा है लेकिन अपने कौतूहल को छुपाते हुए पहले खूब तारीफ़ कर दी! दोनों बेटे एकदूसरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे!  अंत में छोटा बेटा धीरे से सफाई वाला राज खोल ही दिया !  बताया कि अब तो सारी सुविधाएँ आॅनलाइन उपलब्ध हैं ही इसलिए आपलोगों के आने की खबर सुनकर कल हमलोग छुट्टी ले लिये तथा एकदिन के अन्दर ही घर की साफ सफाई और पेंट पाॅलिश करा डाली! उसके बाद बेटों ने कहा जल्दी सो जाइये सुबह – सुबह ही हम लोग रामेश्वर और कन्या कुमारी चलेंगे यह सुनकर तो हम और भी खुश हो गये कि जो बेटे हमारे पूजा पाठ से इतना परेशान रहते हैं वे ही हमें खुद तीर्थ यात्रा पर ले जा रहे हैं! वैसे भी मैं जब भी बंगलूरू जाती हूँ पूजन सामग्री के साथ-साथ एक बोतल गंगाजल जरूर ले जाती हूँ सो इसबार भी ले गई थी और गंगाजल तो सबसे पहले ही रख ली !  बच्चों के साथ सफ़र वह भी उनके हिसाब से कुछ ज्यादा ही आनन्द दायक था!  मीनाक्षी मंदिर रास्ते में पहले ही पड़ रहा था सो वहाँ भी हम दर्शन  कर लिये! मंदिर की कलाकृति और भव्यता तो देखते ही बनती थी! रास्ते में खाते पीते रात में हम रामेश्वरम् पहुंचे! चौदह घंटे के सफ़र के बाद शरीर तो थककर चूर चूर हो गया था इसलिए जल्दी ही सो गये कि सुबह में मंदिर में आराम से दर्शन होगा!  सुबह तीन बजे अपनेआप नींद भी खुल गई तो हम नहा धोकर मंदिर में पहुंचे! मंदिर में दर्शन का फल क्या मिलेगा यह तो बाद की बात थी उस समय तो हम मंदिर की कलाकृति ही देखते रह गये , साथ-साथ पंडा मंदिर की कहानी सुना रहा था और मंदिर के हर कुंए से स्नान कर हम जल्दी जल्दी भगवान के दर्शन के लिए  हाथ में गंगाजल लेकर लाइन में लग गये ! गंगाजल देखकर मंदिर का पंडा बहुत खुश हुआ और सबसे पहले हमारे द्वारा ले गये गंगाजल से अभिषेक हुआ जिसे हम ईश्वरीय कृपा ही समझ रहे थे!  रामेश्वरम् दर्शन के उपरान्त रामसेतु और कन्या कुमारी के लिए निकल पड़े! गाड़ी सड़क पर और सड़क के दोनों किनारे हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी का खूबसूरत दृश्य कुछ स्वर्ग सा ही एहसास करवा रहा था! तीर्थ यात्रा बहुत ही सुखद और खास रही क्यों कि बेटों ने करवाई थी!  फिर हम कैसे कह सकते हैं कि श्रवण कुमार सिर्फ सतयुग में ही पैदा हुए हैं! हाँ सतयुग के श्रवण कुमार कांवड़ पर बिठा कर अपने माता-पिता को तीर्थ यात्रा करवाए तो कलियुग के बेटे गाड़ी से  !  ©किरण सिंह  यह भी पढ़ें … आस्था का पर्व – अहोई अष्टमी टाइम है मम्मी

गुरु कीजे जान कर

गुरु कीजिये जानी के , पानी पीजे छानी ,  बिना विचारे गुरु करे , परे चौरासी खानी ||                                                         कबीर दास किरण सिंह  गुरु नहीं बहुरूपिये करते हैं संत परंपरा को बदनाम  कभी-कभी मनुष्य की परिस्थितियाँ इतनी विपरीत हो जाती हैं कि आदमी का दिमाग काम करना बंद कर देता है और वह खूद को असहाय सा महसूस करने लगता है ! ऐसे में उसे कुछ नहीं सूझता ! निराशा और हताशा के कारण उसका मन मस्तिष्क नकारात्मक उर्जा से भर जाता है! ऐसे में यदि किसी के द्वारा भी उसे कहीं छोटी सी भी उम्मीद की किरण नज़र आती है तो वह उसे ईश्वर का भेजा हुआ दूत या फिर ईश्वर ही मान बैठता है ! ऐसी ही परिस्थितियों का फायदा उठाया करते हैं साधु का चोला पहने ठग और उनके चेले ! वे मनुष्य की मनोदशा को अच्छी तरह से पढ़ लेते हैं और ऐसे लोगों को अपनी मायाजाल में फांसने में कामयाब हो जाते हैं ! ये बहुरूपिये हमारी पुरातन काल से चली आ रही संत समाज को बदनाम कर रहे हैं ! संत हमेशा से ही सुख सुविधाओं का स्वयं त्यागकर योगी का जीवन जीते हुए मानव कल्याण हेतु कार्य करते आये हैं! माता सीता भी वन में ऋषि के ही आश्रम में पुत्री रूप में  रही थीं ! आज भी कुछ संत निश्चित ही संत हैं लेकिन ये बहुरूपिये लोगों की आस्था के साथ इतना खिलवाड़ कर रहे हैं कि अब तो किसी पर भी विश्वास करना कठिन हो गया है !  गुरु पर मेरा निजी अनुभव  आज से करीब उन्तीस वर्ष पूर्व मुझे भी एक संत मिले जो झारखंड राज्य , जिला – साहिबगंज, बरहरवा में पड़ोसी के यहाँ आये हुए थे! मुझे तब भी साधु संत ढोंगी ही लगते थे इसीलिए मैं उनसे पूछ बैठी..  बाबा  किस्मत का लिखा तो कोई टाल नहीं सकता फिर आप क्या कर सकते हैं ? तो गुरू जी ने बड़े ही सहजता से कहा कि भगवान राम ने भी शक्ति की उपासना की थी…  जैसे तुमने दिया में घी तो भरपूर डाला है लेकिन आँधी चलने पर दिया बुझ जाता है यदि उसका उपाय न किया जाये तो ! जीवन के दिये को भी आँधियों से बचा सकतीं हैं ईश्वरीय शक्तियाँ! फिर मैंने पूछा कि हर माता पिता की इच्छा होती है कि अपने बच्चों की शादी विवाह करें आप अपने माता-पिता का तो दिल अवश्य ही दुखाए होंगे न इसके अतिरिक्त साधु बनना तो एक तरह से अपने सांसारिक कर्तव्यों से पलायन करना ही हुआ न!  इसपर उन्होंने बस इतना ही कहा कि मेरी माँ सौतेली थी!  इस प्रकार का कितने ही सवाल मैनें दागे और गुरू जी ने बहुत ही सहजता से उत्तर दिया!  सच्चे गुरु भौतिक सुखों से दूर रहते हैं  गुरू जी खुद कोलकाता युनिवर्सिटी में इंग्लिश के हेड आफ डिपार्टमेंट रह चुके थे लेकिन साधु संतों की संगति में आकर उनसे प्रभावित हुए और भौतिक सुख सुविधाओं का त्याग कर योगी का जीवन अपना लिये थे!  कभी-कभी गुरु आश्रम के महोत्सव में हम सभी गुरु भाई बहन सपरिवार पहुंचते थे जहाँ हमें एक परिवार की तरह ही लगता था! सभी को जमीन पर दरी बिछाकर एक साथ खाना लगता था ! गुरु जी भी सभी के साथ ही खाते थे ! बल्कि कभी-कभी तो सभी के थाली में कुछ कुछ परोस भी दिया करते थे! वे स्वयं को भगवान का चाकर ( सेवक ) कहते थे खुद को भगवान कहकर कभी अपनी पूजा नहीं करवाई ! बल्कि कोई बीमार यदि अपनी व्यथा कहता तो उसे डाॅक्टर से ही मिलने की सलाह दिया करते थे!  तब उनका आश्रम बंगाल के साइथिया जिले में एक कुटिया ही था जिसे कुछ अमीर गुरु भाई बहन खुद बनवाने के लिए कहते थे लेकिन गुरु जी मना कर दिया करते थे! बल्कि गरीब गुरु भाई बहनों के बेटे बेटियों की शादी में यथाशक्ति मदद करवा दिया करते थे हम सभी से ! अब तो गुरू जी की स्मृति शेष ही बच गई है!  गुरु कीजे जान कर                                                                     लिखने का तात्पर्य सिर्फ़ इतना है कि किसी एक के खराब हो जाने से उसकी पूरी प्रजाति तथा विरादरी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता !आवश्यकता है अपने दिमाग को प्रयोग करने की , सच और झूठ और पाप पुण्य की परिभाषा समझने की , स्वयं को दृढ़ करने की !  कोई मनुष्य यदि स्वयं को ईश्वर कह रहा है तो वह ठगी कर रहा है! हर मानव में ईश्वरीय शक्तियाँ विराजमान हैं आवश्यकता है स्वयं से साक्षात्कार  की! यह भी पढ़ें … रोहिंग्या मुसलमानों का समर्थन यानी तुष्टिकरण का मानसिक कैंसर वाद चमत्कार की तलाश में बाबाओं का विकास फेसबुक -क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं ? टाइम है मम्मी

बीस पैसा

©किरण सिंह  ******** हमारे लिए गर्मी की छुट्टियों में हिल स्टेशन तथा सर्दियों में समुद्री इलाका हमारा ननिहाल या ददिहाल ही हुआ करता था! जैसे ही छुट्टियाँ खत्म होती थी हम अपने ननिहाल पहुंच जाया करते थे जहाँ हमें दूर से ही देख कर ममेरे भाई बहन उछलते – कूदते हुए तालियों के साथ गीत गाते हुए ( रीना दीदी आ गयीं…… रीना दीदी……..) स्वागत करते थे कोई भाई बहन एक हाथ पकड़ता था तो कोई  दूसरा और हम सबसे पहले  बाहर बड़े से खूबसूरत दलान में बैठे हुए नाना बाबा ( मम्मी के बाबा ) को प्रणाम करके उनके द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देकर अपनी फौज के साथ घर में प्रवेश करते थे! पढ़िए रिश्तों को सहेजती एक खूबसूरत कहानी – यकीन घर में घुसते ही हंगामा सुनकर नानी समझ जाया करतीं थीं कि यह फौज हमारी ही होगी इसलिए अपने कमरे से निकल कर बाहर तक आ जाती थीं और हम पैर छूकर प्रणाम करते तो वो अपने हथेलियों में हमारा चेहरा लेकर यह जरूर कहतीं थीं कि कातना दुबारा गईल बाड़ी बाछी हमार  ( कितनी दुबली हो गई है मेरी ) भले ही हम कितने भी मोटे क्यों न हुए हों! तब तक आ जातीं मेरी मामी जो हमें आँगन में चबूतरे पर ले जाकर पैरों को रगड़ रगड़ कर धोती थी जिससे पैरों की मालिश अच्छी तरह से हो जाया करती थी और पूरी थकान छू मंतर ! तब तक नानी कुछ खाने के लिए ले आती थीं जिसे मन से नहीं तो डर से खाना ही पड़ता था क्योंकि हम चाहे जितना भी खा लेते थे लेकिन नानी ये जरूर कहा करती थीं कि इची अने नइखे खात ( ज़रा भी अनाज नहीं खा रही है ) ! खा पीकर अपनी टोली के साथ हम बाहर निकलते तो बहुत से बड़े छोटे भाई बहन मुझे प्रणाम करते हुए चिढ़ाने के क्रम में कहते बर बाबा गोड़ लागेनी… ( बर बाबा प्रणाम) और मैं कुछ चिढ़कर या फिर हँसकर उन्हें भी साथ ले लेती थी और निकल पड़ती थी सभी नाना – नानी, मामा – मामी तथा भाई बहनों से मिलने के लिए ! पढ़िए – एक चिट्ठी साहित्यकार /साहित्यकार भाइयों बहनों के नाम अब बर बाबा मुझे क्यों कहते थे वे सब यह भी बता ही देती हूँ! हुआ यूँ कि एकबार बचपन में करीब ढाई तीन साल की उम्र में मैं भी ममेरे भाई बहनों के साथ पटरहिया स्कूल  (गाँव के प्राइमरी स्कूल में ) में गई थी! और किसी बात पर किसी से झगड़ा हो गया तो मैं जाकर बर बाबा जो बरगद के पेड़ के नीचे चबूतरे पर पत्थर की पूजा की जाती थी के सर पर बैठ गई थी… तब से मुझे ननिहाल में बर बाबा ही कहकर चिढ़ाया जाता था!  पटरहिया स्कूल इसलिए कि काठ की बनी आयताकार काली बोर्ड जिसके ठीक ऊपर छोटा सा हैंडल लगा होता था उसपर चूल्हे की कालिख से जिसे कजरी कहा जाता था पोत दिया जाता था, उसके बाद छोटी शीशी से रगड़कर पटरी को चमकाया जाता था..!  पटरी पर लाइन बनाने के लिए मोटे धागे को चाॅक के घोल में भिगोकर बहुत एहतियात के साथ पटरी के दोनों किनारों पर हाथ में धागा पकड़ कर धीरे से बराबर बराबर रख रख कर छोड़ दिया जाता था उसके बाद पटरी के हैंडल को पकड़कर खूब खूब घुमा घुमाकर गाया जाता था….. सुख जा सुख जा पटरी  अब ना लगाइब कजरी  उसके बाद उस पर सफेद चाक के घोल से बांस  के पतली लकड़ियों को कलम बनाकर लिखा जाता था | वैसे तो मेरी मामी बहुत ही शांत स्वभाव की थीं जिनकी हम सबने कभी जोर से आवाज तक नहीं सुनी थी  लेकिन एक दिन अपने करीब  तीन वर्ष के बेटे जो मुझसे आठ वर्ष छोटा है ( मेरे ममेरे भाई) को आँगन में पीटने के लिए दौड़ा रहीं थीं और वह भाग रहा था! यह देखकर मैनें मामी को टोका कि मामी ये क्या कर रही हैं इतने छोटे बच्चे को क्यों दौड़ा रही हैं? तो मामी थोड़े गुस्से में ही बोलीं रीना जी इसको पढ़ने के लिए बीस पैसा महीने में देना पड़ता है और यह है कि पढ़ता ही नहीं है!  मामी का इतना कहना था कि मेरी तो हँसी रुके नहीं रुक रही थी उनका बीस पैसा सुनकर!  क्यों कि उस गांव के मेरे नाना ही सबसे धनाढ्य व्यक्ति थे चूंकि उन दिनों गाँवों में अच्छे स्कूलों की सुविधा नहीं थी तो तब तक उसे भी पटरहिया स्कूल में प्रेक्टिस के लिए भेजा जाता था!  मेरा ममेरा भाई श्याम बिहारी सिंह ( अनु ) पढ़ने में शुरू से ही अव्वल था इसलिए मेरे पापा बलिया लेते आये.. और छठी कक्षा से वह नैनीताल में हास्टल में रह कर पढ़ाई किया… जो आज आर्मी में कर्नल है!  लेकिन आज भी मामी की बीस पैसे वाली बात याद करके मूझे बहुत हँसी आती है!  यह भी पढ़ें ………….. फेसबुक – क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं ? अतिथि देवो भव – तब और अब नवरात्र पर लें बेटी बचाओ बेटी पढाओ का संकल्प हमारे बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं Attachments area

नवरात्रि पर ले बेटी बचाओ , बेटी पढाओ का संकल्प

किरण सिंह  हिन्दू धर्म में व्रत तीज त्योहार और अनुष्ठान का विशेष महत्व है। हर वर्ष चलने वाले इन उत्सवों और धार्मिक अनुष्ठानों को हिन्दू धर्म का प्राण माना जाता है  इसीलिये अधिकांश लोग इन व्रत और त्योहारों को बेहद श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाते हैं।व्रत उपवास का धार्मिक रूप से क्या फल मिलता है यह तो अलग बात है लेकिन इतना तो प्रमाणित है कि व्रत उपवास हमें संतुलित और संयमित जीवन जीने के लिए मन को सशक्त तो करते ही हैं साथ ही सही मायने में मानवता का पाठ भी पढ़ाते हैं! वैसे तो सभी व्रत और त्योहारों के अलग अलग महत्व हैं किन्तु इस समय नवरात्रि चल रहा है तो नवरात्रि की विशिष्टता पर ही कुछ प्रकाश डालना चाहूंगी! नवरात्रि विशेष रूप से शक्ति अर्जन का पर्व है जहाँ माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है!  शैलपुत्री – इसका अर्थ- पहाड़ों की पुत्री होता है। ब्रह्मचारिणी – इसका अर्थ- ब्रह्मचारीणी।चंद्रघंटा – इसका अर्थ- चाँद की तरह चमकने वाली।कूष्माण्डा – इसका अर्थ- पूरा जगत उनके पैर में है।स्कंदमाता – इसका अर्थ- कार्तिक स्वामी की माता।कात्यायनी – इसका अर्थ- कात्यायन आश्रम में जन्मि।कालरात्रि – इसका अर्थ- काल का नाश करने वली।महागौरी – इसका अर्थ- सफेद रंग वाली मां।सिद्धिदात्री – इसका अर्थ- सर्व सिद्धि देने वाली। माँ दुर्गा के नौ रूपों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि एक स्त्री समय समय पर अपना अलग अलग रूप धारण कर सकती है ! वह सहज है तो कठोर भी है, सुन्दर है तो कुरूप भी है, कमजोर है तो सशक्त भी है……तभी तो महिसासुर जैसे राक्षस जिससे कि सभी देवता भी त्रस्त थे उसका वध एक देवी  के द्वारा ही हो सका.! .  इसीलिए कन्या पूजन का विधान बनाया गया है ताकि स्त्रियों के प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न हो सके !  शक्ति की उपासना का पर्व शारदीय नवरात्र का अनुष्ठान सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने  समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय भी प्राप्त की। तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा विजय पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। जिस भारत वर्ष की संस्कृति और सभ्यता इतनी समृद्ध हो वहाँ पर स्त्रियों की यह दुर्दशा देखकर बहुत दुख होता है जिसके लिए स्त्री स्वयं भी दोषी हैं ! ठीक है त्याग, ममता, शील, सौन्दर्य उनका बहुमूल्य निधि है किन्तु अत्याचार होने पर सहने के बजाय काली का रूप धारण करना न भूलें ! आज की सबसे बड़ी समस्या है कन्या भ्रुण हत्या जिसे रोका जाना अति आवश्यक है! आज हरेक क्षेत्र में बेटियाँ बेटों से भी आगे निकल रही हैं तो क्यों न इस महापर्व में हम बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का मन से दृढ़ संकल्प लें!  यह भी पढ़ें … फेसबुक – क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं ? अतिथि देवो भव – तब और अब Attachments area काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता अस्पताल में वैलेंटाइन डे

एक चिट्ठी :साहित्यकार /साहित्यकारा भाइयों एवं बहनो के नाम

किरण सिंह  बहुत दिनों से कहना चाह रही थी तो सोंची आज कह ही दूँ… अरे भाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो मैं क्यों चुप रहूँ भला! बात बस इतनी सी है कि यह मुख पोथी जो है न आजकल की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली पत्रिका है जहाँ हर प्रकार के साहित्यिक तथा असाहित्यिक रचना को थोक भाव में मुफ्त में स्वयं प्रकाशित किया जा सकता है तथा नाम या बदनाम कमाया जा सकता है ! इतना ही नहीं आजकल तो लाइव आकर अपनी रचनाएँ सुनाया भी जा सकता है यहाँ! फिर काहे को छपने छपाने की मृगतृष्णा में पैसा देकर इक्का दुक्का रचना छपवाई जाये जिसके कि पाठक तो मिलने से रहे हाँ आलमारियों की शोभा अवश्य बढ़ेगी ! अच्छा तो यह रहेगा कि अपनी रचनाओं को बेहतर से बेहतरीन करने का प्रयास किया जाये  तत्पश्चात अच्छे पत्र पत्रिकाओं तथा ब्लागों में प्रकाशन के लिए भेजी जाये जहाँ प्रकाशन के लिए कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती है और लोग आपको पढ़ते भी हैं! आप चाहें तो अपना स्वयं का भी बलाॅग बना सकते हैं!  पढ़िए – समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उद्देश्य यदि हम गौर फरमायेंगे तो पायेंगे कि नवोदित साहित्यकार अपने अति महत्वाकांक्षा की वजह से साहित्यक माफियाओं के द्वारा स्वयं ही शोशित हो रहे हैं ! जरा सोंचिये साझा संग्रह छपवाने के लिए रचनाएँ हमारी, पैसा हमारा, और नाम और पैसा कमाकर महिमामंडन करवाये कोई और सिर्फ आपको आपके ही पैसे से मेडल , कप, तथा सर्टिफिकेट का झुनझुना थमाकर ! कुछ साहित्यिक संस्थाओं में तो ऐसा भी सुनने में आया है कि नवोदित साहित्यकार अपनी रचना लेकर गये हैं और उसी रचना में थोड़ा बहुत फेर बदल कर स्वयंभू  ( उनसे कुछ बड़े साहित्यकार ) अपने नाम से मंच पर उद्घोष कर देते हैं और नवोदित साहित्यकार किंकर्तव्य विमूढ़ देखते रह जाते हैं!  फिर भी बहुत से साहित्यकार तथा साहित्यिक संस्थाएँ आज भी साहित्य हित के उद्देश्य से कार्यरत हैं सिर्फ आवश्यकता है परखने की!  इस लेख  का उद्देश्य सिर्फ साहित्यकारों को जागरूक करना है न तो किसी को नीचा दिखाना है और न ही किसी को हतोत्साहित करना है | मेरा उद्देश्य सिर्फ उनके समय और पैसे को बचाते हुए उनकी प्रतिभा को सही दिशा देना है |  यह भी पढ़ें ……. फेसबुक – क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं ? कवि और कविता कर्म व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाडा फेसबुक और महिला लेखन Attachments area

प्रेम और इज्जत

अपने अतीत और वर्तमान के मध्य उलझ कर अजीब सी स्थिति हो गई थी दिव्या की! खोलना चाहती थी वह अतीत की चाबियों से भविष्य का ताला! लड़ना चाहती थी वह प्रेम के पक्ष में खड़े होकर वह समाज और परिवार से यहाँ तक कि अपने पति से भी जिसके द्वारा पहनाये गये मंगलसूत्र को गले में पहनकर हर मंगल तथा अमंगल कार्य में अब तक मूक बन साथ देती आई है ! जो दिव्या अपने प्रेम को चुपचाप संस्कारों की बलि चढ़ते हुए उफ तक नहीं की थी पता नहीं कहाँ से उसके अंदर इतनी शक्ति आ गयी थी दिव्या में !  दिव्या अपनी पुत्री में  स्वयं को देख रही थी ! डर रही थी कि कहीं उसी की तरह उसकी बेटी के प्रेम को भी इज्जत की बलि न चढ़ा दी जाये! सोंचकर ही सिहर जा रही थी कि कैसे सह पायेगी उसकी बेटी संस्कृति अपने प्रेम के टूटने की असहनीय पीड़ा……मैं तो अभिनय कला में निपुण थी इसलिए कृत्रिम मुस्कुराहट में  छुपा लेती थी अपने हृदय की पीड़ा…… क्यों कि बचपन से यही तो शिक्षा मिली थी कि बेटियाँ घर की इज्जत होतीं हैं , … नैहर ससुराल का इज्जत रखना , एक बार यदि इज्जत चली गई तो फिर वापस नहीं आयेगी..! यह सब बातें दिव्या के मन मस्तिष्क में ऐसे भर गईं थीं कि उसने इज्जत के खातिर अपनी किसी भी खुशी को कुर्बान करने में ज़रा भी नहीं हिचकती थी ….यहाँ तक कि अपने प्रेम को भी…!  प्रेम का  क्या… दिव्या ने तो प्रेम से भी कभी नहीं स्वीकारा कि वे उससे प्रेम करती है… क्यों कि उसे प्रेम करने का परिणाम पता था कि सिर्फ इज्जत की छीछालेदरी ही होनी है प्रेम में………!  नहीं नहीं मैं अपनी बेटी के साथ ऐसा नहीं होने दूंगी मन ही मन निश्चय करती हुई दिव्या  अपने अतीत में चली जाती है ! याद आने लगता है उसे अपना प्रेम जिसे वे कभी अपनी यादों में भी नहीं आने देती थी!  जब कभी भी उसे प्रेम की याद आती उसकी ऊँगुलियाँ स्वतः उसके मंगलसूत्र तक पहुंच जातीं और खेलने लगतीं थीं मंगलसूत्र से और निकाल लेती थी विवाह का अल्बम जिसमें अपनी तस्वीरें देखते देखते याद करने लगती थी अपने सात फेरों संग लिए गये वचन! और दिव्या अपने कर्तव्यों में जुट जाती थी!  वैसे तो प्रेम को भूला देना चाहती थी दिव्या कभी मिलना भी नहीं चाहती थी प्रेम से, फिर भी प्रेम यदा कदा दिव्या के सपनों में आ ही जाया करता था और दिव्या सपनों में ही प्रेम से प्रश्न करना चाहती थी तभी दिव्या की नींद खुल जाती थी और सपना टूट जाता था तथा दिव्या के प्रश्न अनुत्तरित ही जाते थे! झुंझलाकर वह कुछ कामों में खुद को व्यस्त रखने की कोशिश करती थी ताकि वह प्रेम को भूल सके.. लेकिन इतना आसान थोड़े न होता है पहले प्यार को भूलना..वह भी पहला ! वह जितना ही भूलने की कोशिश करती प्रेम उसे और भी याद आने लगता था!  पढ़ें – लक्ष्मी की कृपा (कहानी ) किसी विवाह समारोह में गई थी दिव्या वहीं प्रेम से मिली थी! उसे याद है कि जब पहली बार आँखें चार हुईं थीं तो प्रेम उसे कैसे देखता रह गया था और दिव्या की नज़रें झुक गई थीं! शायद दिव्या को भी पहले प्यार का एहसास हो गया था तभी वह अपनी नजरें चाह कर भी नहीं उठा पाई थी शायद उसे डर था कि कहीं उसकी आँखें प्रेम से कह न दे कि हाँ मुझे भी तुमसे प्यार हो गया है!  अक्सर प्रेम दिव्या से बातें करने का बहाना ढूढ लेता था! दिव्या तो सबकी लाडली थी इसलिए कभी दिव्या को कोई अपने पास बुला लेता था तो कभी कोई और प्रेम तथा दिव्या की बातें अधूरी ही रह जाती थी!  दिव्या गुलाबी लिबास में बिल्कुल गुलाब की तरह खिल रही थी! जैसे ही कमरे से बाहर निकली उधर से प्रेम आ रहा था और दोनों आपस में टकरा गये! दिव्या जैसे ही गिरने को हुई प्रेम उसे थाम लिया दोनों की नज़रें टकराई और दिव्या शर्म से गुलाबी से लाल हो गई.. फिर झट से प्रेम से हाथ छुड़ाकर बिजली की तरह भागी थी दिव्या!  विवाह के रस्मों के बीच भी दोनों की आँखें कभी-कभी चार हो जाया करतीं थीं फिर दिव्या की नज़रें झुक जाया करतीं थीं.. यह क्रम रात भर चलता रहा!  कभी-कभी रस्मों रिवाजों के बीच दिव्या और प्रेम भी कल्पना में खो जाते और खुद को दुल्हा दुल्हन के रूप में सात फेरे लेते पाते तभी बीच में कोई पुकारता तो तंद्रा भंग हो जाती और धरातल पर वापस लौट आते !  विवाह सम्पन्न हो गया तो दिव्या अपने परिवार के साथ अपने घर लौटने को हुई लेकिन दिव्या का मन जाने का नहीं कर रहा था, वह चाह रही थी कि उसे कोई रोक लेता और उसकी आँखें तो प्रेम को ही ढूढ रहीं थीं पर प्रेम कहीं दिखाई नहीं दे रहा था! उदास दिव्या सभी बड़े परिजनों को प्रणाम तथा छोटों से गले मिलकर गाड़ी में बैठने को हुई तो प्रेम भी अचानक आ पहुंचा तथा धीरे से दिव्या के हाथ में कुछ सामान ( मिठाइयों वगरा के साथ) एक चिट्ठी भी पकड़ा दिया जिसे दिव्या बड़ी मुश्किल से सभी की नजरों से छुपा पाई थी!  दिव्या का मन चिट्ठी पढने के लिए बेचैन हो रहा था! रास्ते भर सोंच रही थी कि प्रेम क्या लिखा होगा इसमें! घर पहुंच कर अपने कमरे में जाकर सबसे पहले चिट्ठी खोली जिसमें लिखा था….  दिव्या मैनें जब तुम्हें पहली ही बार देखा तो लगा कि मैं तुम्हें जन्मों से जानता हूँ! तुम मेरी पहली और आखिरी पसंद हो लेकिन पता नहीं मैं तुम्हें पसंद हूँ या नहीं… यदि तुम भी मुझे पसंद कर लो तो………….  प्रेम  तब दिव्या को तो मानो पूरी दुनिया भर की खुशियां मिल गयीं थीं ! उसे भी तो प्रेम उतना ही पसंद था बल्कि कहीं अधिक ही पर स्त्री मन प्रेम कितना भी अधिक कर ले पर प्रेम के इज़हार में तो हमेशा ही पिछड़ जाता है और इस मामले में पुरुष हमेशा ही अव्वल रहते हैं!  दिव्या भी प्रतिउत्तर में प्रेम को चिट्ठी लिख … Read more