शाश्वत प्रेम

कृष्ण और राधा के शाश्वत प्रेम पर एक खूबसूरत कविता  किरण सिंह  सुनो कृष्ण  यूँ तो मैं तुममें हूँ  और तुम मुझमें  बिल्कुल सागर और तरंगों की तरह  या फिर  तुम बंशी और मैं तुम्हारे बंशी के स्वर की तरह  शब्द अर्थ की तरह  आदि से अनंत तक का नाता है  मेरा और तुम्हारा  मैं हूँ तेरी राधा  हमारा प्रेम कभी कामनाओं पर आधारित नहीं था  क्यों कि हमारी भावनायें सशक्त थीं  हम दोनों तो दो आत्माएँ हैं  हम दोनों में प्रियतमा और प्रियतम का भेद है ही नहीं।  बस मिलन की तीव्र जिज्ञासा  पैदा करती है अभिलाषा  हम दोनों को एकाकार कर दिया  जो शरीर से अलग होने के बाद भी  अलग नहीं हुए कभी  इसलिए मुझे कभी वियोग नहीं हुआ  तुमसे अलग होने पर भी  लेकिन तुमने अपना बांसुरी त्याग दिया था  मथुरा जाते समय  अपना गीत, संगीत, सुर, साज  क्यों कि तुम कर्म योगी थे  तुम्हें कई लक्ष्य साधने थे  मैनें अपने प्रेम को तुम्हारे लक्ष्य में  कभी बाधक नहीं बनने दिया  प्रेम को अपना शक्ति बनाया  कमजोरी नहीं  अरे हमने ही तो प्रेम को परिभाषित किया है   तभी तो स्थापित है हम  साथ-साथ मन्दिरों में  भजे जाते हैं  भजन कीर्तनों में  कि प्रेम शक्ति है कमजोरी नहीं  प्रेम त्याग है स्वार्थ नहीं  हम तो  हर दिलों में धड़कते हैं  बनकर  शाश्वत प्रेम  © किरण सिंह Attachments area किरण सिंह जी का रचना संसार

लक्ष्मी की कृपा

लक्ष्मी की कृपा  किरण सिंह बहुत दिनों बाद मेरे सामने वाला फ्लैट किराए पर लगा…! सभी फ्लैट वासियों के साथ साथ मुझे भी खुशी और उत्सुकता हुई कि चलो घर के सामने कोई दिखेगा तो सही …. भले ही पड़ोसी अच्छा हो या बुरा……! मन ही मन सोंच रही थी कि ज्यादा घुलूंगी मिलूंगी नहीं.. क्यों कि बच्चों की पढ़ाई , अपना काम सब बाधित होता है ज्यादा सामाजिक होने पर… और फिर पता नहीं कैसे होंगे वे लोग….मिलने को तो कई लोग मिल जाते हैं यहाँ….. घुल मिल भी जाते हैं…. दोस्ती की दुहाई देकर दुख सुख भी बांटते हैं…….मुंह पर तो प्रशंसा के पुल बांधते हैं और पीठ पीछे चुगली करने से भी नहीं चूकते…इसलिए मैंने मन ही मन सोंच लिया कि पहले मैं उनके रंग ढंग देखकर ही घुलूंगी मिलूंगी…! करीब शाम चार बजे आए मेरे पडोसी मिस्टर एंड मिसेज सिन्हा जी..! मेरे ड्राइंग रूम की खिड़की से सामने वाले फ्लैट में आने जाने वालों की आहट मिल जाती थी फिर भी मैं अपने स्वभाव के विपरीत बैठी खटर पटर की आवाज सुन रही थी….. सोंची नहीं निकलूंगी बाहर पर आदत से मजबूर मेरे कदम बढ़ ही गए नए पड़ोसी के दरवाजे तक चाय पकौड़ी के साथ…..! देखी पड़ोसन बिल्कुल ही साधारण सी साड़ी में लिपटी हुई… माथे पर बड़ी सी बिंदी… भारी भरकम शरीर…… कुछ थकी हुई सी….. चाय पकौड़ी को देखकर शायद बहुत ही राहत मिली उन्हें…… चेहरे पर मुस्कान खिल गई और पति पत्नी दोनों ही शुक्रिया अदा करने से नहीं चूके….! मैंने भी कह दिया मैंने कुछ भी तो नहीं किया और रात के भोजन के लिए आमंत्रित कर आई…! उनसे मिलने के बाद काफी खुशी मिली मुझे….. मन में सोंचने लगी इतने बड़े पद पर रहने के बाद भी ज़रा सा भी दंभ नहीं है और पहली ही नजर में वे अच्छे लगने लगे .! पढ़िए – रिश्तों पर खूबसूरत कहानी यकीन रात्रि में वे सपरिवार हमारे घर आए…… बच्चे तो घर में प्रवेश करते ही प्रसन्नता से उछल पड़े….. कोई मेरे ड्राइंग में सजे हुए एक्वेरियम की मछलियों को देखने लगा तो कोई दीवार में लगे पेंटिंग्स का….!थोड़ा बहुत दबी जुबान में मिस्टर सिन्हा भी प्रशंसा कर ही दिए…… पर मिसेज सिन्हा बिल्कुल धीर – गम्भीर, चुपचाप मूरत बनी बैठी थी…..! खाने-पीने के साथ-साथ बातें भी हुई….. और बहुत देर बाद मिसेज सिन्हा का मौन ब्रत टूटा…कहने लगी देखिए जी हमलोग सादा जीवन जीना पसंद करते हैं….. दिखावा में विश्वास नहीं करते….. और हमारा परिवार थोड़े में ही सन्तुष्ट है….और फिर अपनी कहानी सुनाने लगीं…! एक रिश्तेदार ( ममेरी देवर ) के यहाँ मैं कुछ दिनों के लिए गई थी…. देवरानी ( पम्मी ) सुन्दर – सुन्दर महंगे कपड़े पहनी थी… पर दूसरे ही दिन बिल्कुल साधरण कपड़े पहनने लगी… मैंने कहा कल तुम बहुत सुंदर लग रही थी आज क्यों इतनी सिम्पल………तब वह कहने लगी भाभी आपकी सादगी देखकर मुझे शर्म महसूस होने लगी इसलिए…… कि आप इतनी सम्पन्न और फिर भी इतनी सादगी ………….! इतना सुनने के बाद तो मेरे मन में उनके लिए और भी अधिक सम्मान उत्पन्न हो गया…! हम पड़ोसी में प्रगाढ़ता बढ़ने लगी….सिनेमा…. बाजार… या कहीं भी साथ साथ निकलते थे… अपना दुख सुख एक-दूसरे से बांटने लगे….! तब ब्रैंडेड कपड़े सभी नहीं पहनते थे…. किन्तु हमारे बच्चे तब भी ब्रैंडेड कपड़े , जूते आदि पहनते थे…! एकदिन मिस्टर सिन्हा ने मेरे पति से कहा कि इतने महंगे-महंगे कपड़े अभी से पहनाएंगे तो बच्चों में खुद कमाने की जिज्ञासा ही नहीं रहेगी….! तब स्कूल के परीक्षाओं में उनके बच्चों का नम्बर अधिक आता था… पतिदेव ने आकर मुझे सुनाई तो मुझे भी उनकी बातें अच्छी और सच्ची लगी….! यही बात मैंने अपने बेटे ऋषि से कही….. तो उसने कहा कि आप चिंता मत करिए….. यदि हम आज ऐसे रह रहे हैं तो कल और भी बेहतर तरीके से रहने के लिए और भी मेहनत करेंगे… और फिर कहा कि दुनिया में हर इन्सान अपने से ऊपर वाले इन्सान को गाली देता है पर रहना चाहता है उन्हीं की तरह…. यह सब वे ईर्ष्या वश कह रहे हैं…. आप लोगों की बातें क्यों सुनती हैं….! मैने अपने बेटे से कोई बहस नहीं करना चाहती थी इसलिए चुप रहना ही उचित समझा…! पर उस समय मिस्टर सिन्हा की बातें मुझे कुछ हद तक सही लग रही थीं… पर करती भी क्या……. बच्चों की आदतें तो मैंने ही खराब की थी…! पढ़िए – फेसबुक : क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं धीरे-धीरे समय बीतता गया….. हम दोनों के परिवारों के बीच प्रगाढ़ता बढ़ने लगी…! मिस्टर सिन्हा के ऊपर लक्ष्मी की कृपा भी बरसने लगी…! कुछ ही महीनों में उन्होंने सामने वाला फ्लैट खरीद भी लिया… घर के इन्टिरियर में बिल्कुल मेरे घर की काॅपी की गई थी…! बच्चों के महंगे ब्रैंडेड कपड़ों की तो पूछिए ही मत…! और मिसेज सिन्हा के वार्डरोब में तो महंगी साड़ियाँ देखते ही बनती थीं…मिस्टर सिन्हा के क्या कहने…. उनकी तो अतृप्त ईच्छा मानो अब जाकर पूरी हुई हो…. पचास वर्ष की आयु में किशोरों के तरह कपड़े पहन मानो किशोर ही बन गए हों…! मुझे अपने बेटे की कही हुई एक एक बात सही लगने लगी…… और मैं मन ही मन सोंचने लगी कि यह तो लक्ष्मी जी की कृपा है…! यह भी पढ़ें ………. टाइम है मम्मी काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता अस्पताल में वैलेंटाइन डे दोषी कौन  परिचय … साहित्य , संगीत और कला की तरफ बचपन से ही रुझान रहा है ! याद है वो क्षण जब मेरे पिता ने मुझे डायरी दिया.था ! तब मैं कलम से कितनी ही बार लिख लिख कर काटती.. फिर लिखती फिर……… ! जब पहली बार मेरे स्कूल के पत्रिका में मेरी कविता छपी उस समय मुझे जो खुशी मिली थी उसका वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकती  ….! घर परिवार बच्चों की परवरिश और पढाई लिखाई मेरी पहली प्रार्थमिकता रही ! किन्तु मेरी आत्मा जब जब सामाजिक कुरीतियाँ , भ्रष्टाचार , दबे और कुचले लोगों के साथ अत्याचार देखती तो मुझे बार बार पुकारती रहती थी  कि सिर्फ घर परिवार तक ही तुम्हारा दायित्व सीमित नहीं है …….समाज के लिए भी कुछ करो …..निकलो घर की … Read more

” अतिथि देवो भव् ” : तब और अब

किरण सिंह  आजकल अधिकांश लोगों के द्वारा यह कहते सुना जाता है कि आजकल लोग एकाकी होते जा रहे हैं , सामाजिकता की कमी होती जा रही है, अतिथि को कभी देव समझा जाता था लेकिन आजकल तो बोझ समझा जाने लगा है आदि आदि..!  यह सही भी है किन्तु जब हम इस तरह के बदलाव के मूल में झांक कर देखते हैं तो पाते हैं कि इसमें दोष किसी व्यक्ति विशेष का न होकर आज की जीवन शैली, शिक्षा  – दीक्षा , एकल तथा छोटे परिवारों का होना, घरों के नक्शे तथा पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण है!  एकल परिवारों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा मनोनुकूल जीवनशैली तो रहती है जहाँ किसी अन्य का रोक – टोक नहीं होता इसीलिये इसका चलन बढ़ भी रहा है ! किन्तु एकल परिवारों तथा आज की जीवनशैली में मेहमानवाजी के लिए समय निकालना जरा कठिन है!  संयुक्त परिवार में हर घर में बूढ़े बुजुर्ग रहते थे जिनके पास काम नहीं होता था या कर नहीं सकते थे तो जो भी आगन्तुक आते थे बूढ़े बुजुर्ग बहुत खुश हो जाया करते थे क्योंकि कुछ समय या दिन उनके साथ बातें करने में अच्छा गुजर जाता था तथा मेहमान भी मेहमानवाजी और अपनापन से प्रसन्न हो जाते थे! इसके अलावा बच्चे भी मेहमानों को देखकर उछल पड़ते थे क्योंकि एक तो मेहमान कुछ न कुछ मिठाइयाँ आदि लेकर आते थे इसके अलावा घर में भी तरह-तरह का व्यंजन बनता था जिसका बच्चे लुत्फ उठाते थे! तब घर की बहुओं को चूल्हा चौका से ही मतलब रहता था बहुत हुआ तो थोड़ा बहुत आकर मेहमानों को प्रणाम पाती करके हालचाल ले लिया करतीं थीं और बड़ों के आदेश पर खाने पीने आदि की व्यवस्था करतीं थीं! मतलब संयुक्त परिवार में हर आयु वर्ग के सदस्यों में काम बटे हुए होते थे जिससे मेहमान कभी बोझ नहीं लगते थे बल्कि उनके आने से घर में और खुशियों का माहौल रहता था !  किन्तु एकल परिवारों में बात से लेकर खाने – पीने रहने – सोने तक सब कुछ का इन्तजाम घर की अकेली स्त्री को ही करना पड़ता है क्योंकि पुरुष को तो आॅफिस टूर आदि से फुर्सत ही नहीं मिलता और घर में जब स्मार्ट और सूघड़ बीवी हो तो वे निश्चिंत भी हो जाते हैं ! और बच्चों पर भी पढ़ाई का बोझ इतना रहता है कि उनके पास मेहमानवाजी करने का फुर्सत नहीं रहता! यदि वे मेहमानों के साथ बैठना चाहें भी तो मम्मी पापा का आदेश होता है कि जाओ तुम फालतू बातों में मत पड़ो अपनी पढ़ाई करो!  ऐसे में मेहमानों के आगमन पर काम के बोझ के साथ-साथ स्त्रियों का अपना रूटीन खराब हो जाता है ! जिससे खीजना स्वाभाविक ही है!  जहाँ घरेलू स्त्री है वहाँ तो फिर भी ठीक है किन्तु जहाँ पर पति पत्नी दोनों ही कार्यरत हैं वहाँ की समस्या तो और भी जटिल है! और उससे भी ज्यादा मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करने वाले दम्पत्तियों के पास तो मेहमानों के लिए बिल्कुल भी समय नहीं है क्योंकि उनका रुटीन भी कुछ अलग है ! कभी नाइट शिफ्ट तो कभी डे शिफ्ट… ऐसे में उनके पास सिर्फ वीकएंड बचता है जिसमें उन्हें आराम भी करना होता है और घूमना भी होता है जो कि निर्धारित ही रहता है ऐसे में उनके पास अचानक कोई मेहमान टपक पड़े तो फिर दिक्कत तो होगी ही!  अब हम बात करते हैं कि पहले अतिथि देव क्यों होते थे ! इसका सीधा उत्तर है कि पहले अतिथि बिना आमन्त्रण के नहीं आते थे , और जब कोई किसी को आमन्त्रित करता है तो अवश्य अपना समय, सामर्थ्य को देखते हुए आत्मीय जन को ही करता होगा तो वैसे अतिथि तो कभी भी प्रिय ही होंगे!  बात मित्रों की हो या रिश्तेदारों की जाना वहीं चाहिए जहाँ पर आत्मीयता हो और आपके जाने से आपके मित्र या रिश्तेदार को खुशी मिले! यदि मित्रों या रिश्तेदारों के पास जाना हो तो जाने से पहले सूचित अवश्य कर दें ताकि आपका मित्र या रिश्तेदार आपके लिए समय निकाल सके!  # जाने के बाद मेजबान के कार्य में थोड़ी बहुत मदद अवश्य करें!  # अपना सामान यथास्थान ही रखें ! बच्चे साथ हों तो उनपर ध्यान दें!  # घर का सामान यदि बिखर गया हो तो धीरे से ठीक कर दें!  # और सबसे जरूरी कि जो भी व्यंजन खाने पीने के लिए परोसे जायें उसका तारीफ अवश्य कर दें!  फिर देखियेगा आप अवश्य ही अतिथि के रूप में देव ही महसूस करेंगे!  मेजबानों को भी चाहिए कि अपने कीमती समय में से थोड़ा समय निकालकर मेहमानों को खुशी – खुशी दें ! विश्वास करें इससे खुशियों में गुणोत्तर बढ़ोत्तरी होगी!  फेसबुक : क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता अस्पताल में वैलेंटाइन डे दोषी कौन  परिचय … साहित्य , संगीत और कला की तरफ बचपन से ही रुझान रहा है ! याद है वो क्षण जब मेरे पिता ने मुझे डायरी दिया.था ! तब मैं कलम से कितनी ही बार लिख लिख कर काटती.. फिर लिखती फिर……… ! जब पहली बार मेरे स्कूल के पत्रिका में मेरी कविता छपी उस समय मुझे जो खुशी मिली थी उसका वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकती  ….! घर परिवार बच्चों की परवरिश और पढाई लिखाई मेरी पहली प्रार्थमिकता रही ! किन्तु मेरी आत्मा जब जब सामाजिक कुरीतियाँ , भ्रष्टाचार , दबे और कुचले लोगों के साथ अत्याचार देखती तो मुझे बार बार पुकारती रहती थी  कि सिर्फ घर परिवार तक ही तुम्हारा दायित्व सीमित नहीं है …….समाज के लिए भी कुछ करो …..निकलो घर की चौकठ से….! तभी मैं फेसबुक से जुड़ गई.. फेसबुक मित्रों द्वारा मेरी अभिव्यक्तियों को सराहना मिली और मेरा सोया हुआ कवि मन  फिर से जाग उठा …..फिर करने लगी मैं भावों की अभिव्यक्ति..! और मैं चल पड़ी इस डगर पर … छपने लगीं कई पत्र पत्रिकाओं में मेरी अभिव्यक्तियाँ ..!  पुस्तक- संयुक्त काव्य संग्रह काव्य सुगंध भाग २ , संयुक्त काव्य संग्रह सहोदरी सोपान भाग 2 मेरा एकल काव्य संग्रह है .. मुखरित संवेदनाएं फोटो कोलाज  फर्स्ट फोटो क्रेडिट – आध्यात्म विश्वविद्यालय सेकंड फोटो क्रेडिट – legacy of wisdom

फेसबुक :क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं ?

किरण सिंह  निजता एक तरह की स्वतंत्रता है | एक ऐसा दायरा जिसमें व्यक्ति खुद रहना चाहता है | इस स्वतंत्रता पर हर व्यक्ति का हक़ है – रौन पॉल  जिस प्रकार महिलाएँ किसी की बेटी बहन पत्नी तथा माँ हैं उसी प्रकार पुरुष भी किसी के बेटे भाई पति तथा पिता हैं इसलिए यह कहना न्यायसंगत नहीं होगा कि महिलायें सही हैं और पुरुष गलत ! पूरी सृष्टि ही पुरुष तथा प्रकृति के समान योग से चलती है इसलिए दोनों की सहभागिता को देखते हुए दोनों ही अपने आप में विशेष हैं तथा सम्मान के हकदार हैं!  महिलाएँ आधुनिक हों या रुढ़िवादी हरेक की कुछ अपनी पसंद नापसंद, रुचि अभिरुचि बंदिशें, दायरे तथा स्वयं से किये गये कुछ वादे होते हैं इसलिए वे अपने खुद के बनाये गये दायरे में ही खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं ! उन्हें हमेशा ही यह भय सताते रहता है कि लक्ष्मण रेखा लांघने पर कोई रावण उन्हें हर न ले जाये ! वैसे तो ये रेखाएँ समाज तथा परिवार के द्वारा ही खींची गईं होती हैं किन्तु अधिकांश महिलाएँ इन रेखाओं के अन्दर रहने की आदी हो जातीं हैं इसलिए आजादी मिलने के बावजूद भी वे अपने लिये स्वयं रेखाएं खींच लेतीं हैं… ऐसे में इन रेखाओं को जो भी उनकी इच्छा के विरुद्ध लांघने की कोशिश करता है तो शक के घेरे में तो आ ही जाता है भले ही कितना भी संस्कारी तथा सुसंस्कृत क्यों न हो!  यह बात आभासी जगत में भी लागू होता  है जहाँ महिलाओं को अभिव्यक्ति की आजादी मिली है ! यहाँ किसी का हस्तक्षेप नहीं है फिर भी अधिकांश महिलाओं ने अपना दायरा स्वयं तय कर लिया है.! जहाँ तक अपने बारे में जानकारी देना सही समझती हैं वे अपने प्रोफाइल, पोस्ट तथा तस्वीरों के माध्यम से दे ही देतीं हैं! और दायरों के अन्दर कमेंट के रिप्लाई में कुछ जवाब दे ही देतीं हैं | इसीलिये बिना विशेष घनिष्टता या बिना किसी विशेष जरूरी बातों के मैसेज नहीं करना चाहिए और यदि कर भी दिये तो  रिप्लाई नहीं मिलने पर यह  समझ जाना चाहिए कि अमुक व्यक्ति को व्यक्तिगत तौर पर बातें करने में रुचि नहीं है या फिर उसके पास समय नहीं है और दुबारा मैसेज नहीं भेजना चाहिए !  इसके अलावा  कमेंट तथा रिप्लाई भी दायरों में रह कर ही करना चाहिए !  जिससे पुरुषों के भी स्वाभिमान की रक्षा हो सके तथा वे अपने हिस्से का सम्मान प्राप्त कर सकें!  यह भी पढ़ें ………. टाइम है मम्मी काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता अस्पताल में वैलेंटाइन डे दोषी कौन  परिचय … साहित्य , संगीत और कला की तरफ बचपन से ही रुझान रहा है ! याद है वो क्षण जब मेरे पिता ने मुझे डायरी दिया.था ! तब मैं कलम से कितनी ही बार लिख लिख कर काटती.. फिर लिखती फिर……… ! जब पहली बार मेरे स्कूल के पत्रिका में मेरी कविता छपी उस समय मुझे जो खुशी मिली थी उसका वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकती  ….! घर परिवार बच्चों की परवरिश और पढाई लिखाई मेरी पहली प्रार्थमिकता रही ! किन्तु मेरी आत्मा जब जब सामाजिक कुरीतियाँ , भ्रष्टाचार , दबे और कुचले लोगों के साथ अत्याचार देखती तो मुझे बार बार पुकारती रहती थी  कि सिर्फ घर परिवार तक ही तुम्हारा दायित्व सीमित नहीं है …….समाज के लिए भी कुछ करो …..निकलो घर की चौकठ से….! तभी मैं फेसबुक से जुड़ गई.. फेसबुक मित्रों द्वारा मेरी अभिव्यक्तियों को सराहना मिली और मेरा सोया हुआ कवि मन  फिर से जाग उठा …..फिर करने लगी मैं भावों की अभिव्यक्ति..! और मैं चल पड़ी इस डगर पर … छपने लगीं कई पत्र पत्रिकाओं में मेरी अभिव्यक्तियाँ ..!  पुस्तक- संयुक्त काव्य संग्रह काव्य सुगंध भाग २ , संयुक्त काव्य संग्रह सहोदरी सोपान भाग 2 मेरा एकल काव्य संग्रह है .. मुखरित संवेदनाएं

यकीन

 पढ़िए ” यकीन “पर एक खूबसूरत  कहानी  किरण सिंह ******** अभी मीना को दुनिया छोड़े कुछ दो ही महीने हुए होंगे कि उसके  पति महेश का अपनी बेटी के रिंग सेरेमनी में शामिल होने के लिए हमें निमंत्रण आया! जिस समारोह का मुझे बेसब्री से इंतजार था पर उस दिन मेरा मन बहुत खिन्न सा हो गया था तथा मन ही मन में महेश के प्रति कुछ नाराजगी भी हुई थी मुझे ! मैं सोचने लगी थी कि वही महेश हैं न जो अपनी माँ के मृत्यु के छः महीने बाद भी घर में होली का त्योहार नहीं मनाने दिये! घर के बच्चों ने भी तब चाहकर भी होली नहीं खेली थी और ना ही नये वस्त्र पहने थे ! याद आने लगा कि जब होली के दिन किसी ने सिर्फ टीका लगाना चाहा था तो ऐसे दूर हट गये थे जैसे कि किसी ने उन्हें बिजली की करेंट लगा दी हो, पर मीना के दुनिया से जाने के दो महीने बाद ही यह आयोजन…….. मन तो हो रहा था कि उन्हें खूब जली कटी सुनाऊँ पर…! जाना तो था ही आखिर मीना मेरी पक्की सहेली जो थी .. इसके अलावा महेश जी और  मीना ने जो मेरे लिए किया उसे कैसे कभी भूल सकती थी कि जब मेरी ओपेन हार्ट सर्जरी दिल्ली में हुई थी तब ये लोग ही उस घड़ी में हर समय हमारे साथ खड़े रहे! यह बात तो कभी भूलता ही नहीं जब मैं हास्पिटल में ऐडमिट थी और महेश जी हर सुबह और शाम एक ही बात कहते थे –  कि आप बहादुर महिला हैं ऐसे ही बहादुरी से रहियेगा और मोवाइल कट जाती थी! मुझे महेश जी के इन बातों से ढाढस तो बहुत मिलता था लेकिन मन ही मन अपने आप पर हँसी भी आती थी कि मैं वाकई अभिनय कला में निपुण हूँ कि किसी को मेरी घबराहट का एहसास तक नहीं होता था और फिर कुछ ही क्षणों बाद आँखों में आँसू छलछला जाता था जिसे मैं बड़ी मुश्किल से छुपा पाती थी!  अभिनय कला में तो पारंगत थी ही इस लिए चली गई सगाई में अपने होठों पर झूठी मुस्कुराहट के साथ ! सगाई समारोह बहुत ही भव्य तरीके से हुआ ! लेकिन समारोह में महेश जी को खुश देखकर मेरा मन अन्दर ही अन्दर दुखी हो रहा था! मन ही मन मैं सोचने लगी कि कितना अन्तर होता है न पुरुषों और स्त्रियों में!  ऐसी स्थिति में क्या मीना होती तो ऐसा कर पाती क्या… स्त्रियों के साथ तो ऐसी परिस्थितियों में  नियति के क्रूर चक्र के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों का भी दंश झेलना पड़ता है और अंतर्मन की पीड़ा तो मरण शैया तक या फिर मरणोपरांत भी नहीं छोड़ती है! छिः सभी पुरुष ऐसे ही होते हैं.. कुछ समय के लिए तो पूरी पुरुष जाति से नफरत सी होने लगी थी मुझे किन्तु मैं अपनी भावनाओं को छुपाने का भरसक प्रयास करती रही थी! मैं समारोह में उपस्थित थी किन्तु मेरा मन तो मीना  के ख्यालों में ही खोया हुआ था… काश वो होती!  लेकिन मैं मन को सम्हालने में कामयाब हो गई थी कि चलो दामाद तो काफी अच्छा है जिसे दीदी ने खुद पसंद किया था!  समारोह सम्पन्न हुआ और हम सभी रिश्तेदार अपने – अपने घर वापस लौट आये!  फिर एक महीने के बाद मीना की बेटी का विवाह का निमन्त्रण भी आया ! तब भी मन दुखी हुआ था कि इतनी जल्दी क्या थी कम से कम साल तो लग जाने देते…..! विवाह में भी हम पहुंचे ! विवाह की व्यवस्था देखकर तो मैं दंग रह गई सोंचने लगी कि ऐसी व्यवस्था तो शायद मीना होती तो भी नहीं हो पाती! महेश जी तथा उनके परिवार वाले स्वागत सत्कार में कहीं से भी किसी चीज की कमी नहीं होने दिये थे फिर भी खून के रिश्तों की भरपाई कहाँ किसी से हो पाती है इसीलिए मीना के सभी खून के रिश्तेदार रोने के लिए एकांत ढूढ लेते थे! और फिर हल्के होकर होठों पर कृत्रिम मुस्कान बिखेरते हुए मांगलिक कार्यक्रमों में शरीक हो जाते थे !  दिल्ली में रहते – रहते महेश जी भी पक्का दिल्ली वाले हो गये हैं इसीलिए तो अपने रस्मों को निभाने के साथ साथ कुछ दिल्ली के पंजाबियों के रस्म रिवाजों को भी अपना लिये थे!  विवाह के एक दिन पहले मेंहदी के रस्म के बाद शाम सात बजे से काकटेल पार्टी की व्यवस्था की गयी थी जो हम सभी के लिए कुछ नई थी! हर टेबल पर एक – एक बैरा तैनात थे, स्टार्टर के साथ – साथ कोल्डड्रिंक्स और दारू भी चल रहा था जहाँ मैं कुछ असहज सी महसूस कर रही थी! उसके बाद कुछ हम जैसों को छोड़कर सभी डांस फ्लोर पर खूब नाच रहे थे साथ में महेश जी भी कई पैग चढ़ाकर सभी के साथ नाच रहे थे और एक एक करके सभी को डांस फ्लोर पर ले गये और खूब नाचे..! पर मैं हर जगह अपनी बीमारी की वजह से बच जाती हूँ सो यहाँ भी मुझसे किसी ने भी जोर जबरजस्ती नहीं की.. लेकिन जब मीना का बेटा आया और बोला प्लीज मौसी जी आप भी फ्लोर तक चलिये.. उसके आग्रह को मैं नकार नहीं सकी और थोड़ा बहुत मैं भी ठुमका लगा ही ली !  सबसे ज्यादा खला फोटो खिंचवाते समय जब सभी पति पत्नी साथ होते थे और महेश जी अकेले ही हम सभी के साथ फोटो खिंचवा रहे थे ! अगले दिन विवाह का रस्म था जिसे महेश जी के भैया भाभी निभा रहे थे !  विवाह के दिन महेश जी को मैंने ज़रा उदास देखा तो दुख तो हुआ लेकिन उनकी उदासियों में मुझे हल्का सा सुकून भी मिल रहा था कि चलो मीना को याद तो कर रहे हैं न वे! विवाह बहुत ही अच्छे ढंग से सम्पन्न हो गया ! एक एक करके सभी रिश्तेदार जाने लगे जिनकी विदाई भी जीजा जी ने बहुत अच्छे सै किया!  मीना दी की माँ की जब जाने की बारी आई तो महेश जी उनका हाथ पकड़कर फफक फफक कर रो पड़े और सभी को रुला दिये!  शायद सभी  मुस्कुराने का अभिनय करते  – करते थक चुके थे … Read more

काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता

क्या मन्त्र से जाति बदल सकती है  किरण सिंह ********************************* बिना किसी पूर्व सूचना दिए ही मैं नीलम से मिलने उसके घर गई…! सोंचा आज सरप्राइज दूं | घंटी बजाते हुए मन ही मन सोंच रही थी कि इतने दिनों बाद नीलम मुझे देखकर उछल पड़ेगी..! पर क्या दरवाजा आया खोलती है और घर में घुसते ही चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा हुआ | मेरा तो जी घबराने लगा और आया से पूछ बैठी कि घर में सब ठीक तो है न….! तभी अपने बेडरूम से नीलम आई और अपने चेहरे की उदासी पर पर्दा डालने के लिए मुस्कुराने का प्रयास करती हुई…! पर मैं अपने बचपन की सहेली के मनोभावों को कैसे न पढ़ लेती|फिर भी प्रतिउत्तर में मैं भी मुस्कुराते हुए उसके समीप ही सोफे पर बैठ गई….! मैंने हालचाल पूछने के क्रम में नीलम से उसकी बेटी स्नेहा का हाल भी पूछ लिया, और स्नेहा के रिश्ते के लिए एक बहुत ही योग्य स्वजातीय  अच्छा लड़का बताया | क्योंकि नीलम अक्सर ही मुझसे कहा करती थी कि तुम्हारे नज़र में कोई अच्छा लड़का हो तो बताना…… बल्कि कई बार फोन पर भी बोली थी स्नेहा तुम्हारी भी बेटी है … लड़का ढूढने की जिम्मेदारी तुम्हारी……! पर क्या मैंने लड़के के बारे में बताना शुरू किया तो वो मेरी बात बीच में ही रोकते हुए चाय लाती हूँ, कहकर किचेन में चली गई….! मुझे अकेले बैठे देख नीलम की सास मेरे समीप आकर बैठ गई जैसे वे नीलम के अन्दर जाने की प्रतीक्षा ही कर रही थी……….! और कहने लगीं…बहुते मन बढ़ गया है आजकल के बचवन का….. एक से बढ़कर एक रिश्ता देखे रहे नंदकिशोर  ( उनका बेटा नीलम के पति ) बाकीर स्नेहा बियाह करे खातिर तैयारे नाहीं है…! मैंने कहा पूछ लीजिए नेहा से कहीं किसी और को तो नहीं पसंद कर ली है…? मेरे इतना कहने पर आंटी झल्ला उठीं कहने लगीं तुम भी कइसन बात करने लगी किरण……. अरे हमन लोग ऊँची जाति के हैं कइसे अपने से नीच जाति में अपन घर की इज्जत ( बेटी ) दे दें.. अउर नीच जाति का स्वागत सत्कार हम ऊँची जाति वाले अपन दरवाजे पर नाहीं करे सकत हैं…! अरे एतना इज्जत कमाया है हमर लड़का नन्दकिशोर… सब मिट्टी मा मिल जाई…! एही खातिर पहिले लोग बेटी का जनम लेते ही मार देत रहा सब….अब ओकरे पसंद के नीच जाति मैं बियाह करब तो खानदान पर कलंके न लगी…इ कइसन बेटी जनम ले ली हमर नन्द किशोर का…..! मैं आंटी की बातें बिना किसी तर्क किए चुपचाप सत्यनारायण भगवान् की कथा की तरह सुन रही थी.|और याद आने लगी आंटी की पिछली वो बातें जब मैं पिछली बार यहां आई थी…! आंटी नेहा की प्रशंसा करते नहीं थक रही थी |  कह रहीं थीं एकरा कहते हैं परवरिश….. आज तक नेहा पढाई में टॉप करत रह गई…पहिले बार में नौकरियो बढिया कम्पनी में हो गवा…..अउर एतना मोटा रकम पावे वाली बेटी को देखो तो तनियो घमंड ना है | उका……………..घर का भी सब काम कर लेत है…. अउर खाना के तो पूछ मत…. किसिम किसीम के  (तरह तरह का) खाना बनावे जानत है…… आदि आदि…………….. भगवान् केकरो ( किसी को भी ) *बेटी दें तो नेहा जइसन…. और तब मैं आंटी के हां में हां मिलाते जाती थी| तभी नीलम नास्ते का ट्रे लेकर आ गई और मैं स्मृतियों से वापस वर्तमान में लौट आई…! आंटी की बातों से नेहा की उदासी का पूरा माजरा समझ चुकी थी मैं, फिर भी मैं नीलम के मुह से सुनना चाहती थी इसलिए नीलम से पूछा आखिर बात क्या है नीलम……………… और स्नेहा किसे पसंद की है….. लड़का क्या करता है आदि आदि………. नीलम की आँखें छलछला आईं… और आँसू पोंछते हुए मुझसे कहने लगी लड़का आईआईएम से मैनेजमेंट करके जाॅब कर रहा है पचास लाख का पैकेज है……. देखने में भी हैंडसम है……बाप की बहुत बड़ी फैक्ट्री है….! मैंने कहा तो अब क्या चाहिए… इतना अच्छा लड़का तो दिया लेकर ढूढने से भी नहीं मिलेगा…. फिर ये आंसू क्यों……? मैं सबकुछ समझते हुए भी नीलम से पूछ रही थी…!  नीलम कहने लगी लड़का बहुत छोटी जाति का है…. किसी और शहर में रहता तो कुछ सोंचा भी जा सकता था…अपने ही शहर का है….. लोग तरह-तरह की बातें करेंगे…. हम लोगों का शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा…! मैंने कहा लोगों की छोड़ो पहले तुम क्या सोंचती हो ये बताओ…? नीलम कहने लगी मेरे चाहने न चाहने से क्या होगा…. मेरे पति इस रिश्ते के लिए कतई तैयार नहीं हैं… और मैं अपने पति के खिलाफ नहीं जाऊँगी….! और फिर उसके आँखों से आँसू छलक पड़े………….  नेहा कहने लगी…. सुबह चार बजे से उठकर…… दिन रात एक करके मेरे पति कितना मेहनत करके बच्चों को पढ़ाए…. कितना दिल में अरमान था स्नेहा के विवाह का……….मेरे बच्चे इतने स्वार्थी हो जाएंगे मैंने सपने में भी नहीं सोंचा था…. काश कि उसे इतना नहीं पढ़ाए होते…! मैंने बीच में रोकते हुए नीलम से पूछा…. इस विषय में तुम स्नेहा से खुद बात की..? नीलम ने कहा हां एक दिन मेरे पति ने बहुत परेशान होकर कहा कि पूछो स्नेहा से कि वो सोसाइट करेगी या मैं कर लूँ….! मेरी तो जान ही निकल गई थी मैंने स्नेहा को समझाने की भरपूर कोशिश की… पर उसका एक ही उत्तर था कि मैं यदि अंकित से शादी नहीं करूंगी तो किसी और से भी नहीं कर सकती.. अंकित को मैं बचपन से जानती हूँ उसके अलावा मैं किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती…… फिर मैंने धमकाया भी कि तब तुम्हें हमलोगों से रिश्ता तोड़ना पड़ेगा…… फिर वो खूब रोने लगी… बोली प्लीज माँ मैं किसी को भी छोड़ना नहीं चाहती….. अंकित यदि छोटी जाति में पैदा हुआ है तो इसमें उसकी क्या गलती है….. उससे कम औकात वाले करोड़ों रुपये दहेज में मांगते हैं और उसको भी उसके स्वजातिय देंगे ही…… आखिर उसमें कमी क्या है……. और झल्ला कर कहने लगी रोज धर्म परिवर्तन हो रहा है क्या छोटी जाति को ऊँची जाति में परिवर्तन करने का कोई उपाय नहीं है…… प्लीज मम्मी कुछ करो….! मैं  सोंचने लगी सही ही तो कह रही है स्नेहा…! बालिग है… आत्मनिर्भर … Read more

हे श्याम सलोने

©किरण सिंह ************ हे श्याम सलोने आओ जी  अब तो तुम दरस दिखाओ जी  राह निहारे यसुमति मैया  तुम ठुमक ठुमक कर आओ जी  आओ मधु वन में मुरलीधर प्रीत की बंशी बजाओ जी दबा हुआ बच्चों का बचपन  अब राह नई दिखलाओ जी  पुनः द्रौपदी चीख रही है  अस्मत की चीर बचाओ जी  राग द्वेष से मुक्त करो हमें  गीता का पाठ पढ़ाओ जी  मति हीन हम सब मूरख हैं  अपना स्वरूप दिखलाओ जी  जन्म ले लिये कृष्ण मुरारी  सखियाँ सोहर गाओ जी 

हमारे बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं..!

 किरण सिंह जिन्होंने अपने सुन्दर घर बगिया को अपने खून पसीने से सींच सींच कर उसे सजाया हो इस आशा से कि कुछ दिनों की मुश्किलों के उपरान्त उस बाग में वह सुकून से रह सकेंगे ! परन्तु जब उन्हें ही अपनी सुन्दर सी बगिया के छांव से वंचित कर दिया जाता है तब वह  बर्दाश्त नहीं कर पाते .और खीझ से इतने चिड़चिड़े हो जाते हैं कि अपनी झल्लाहट घर के लोगों पर बेवजह ही निकालने लगते हैं जिसके परिणाम स्वरूप घर के लोग उनसे कतराने लगते हैं …! तब बुजुर्ग अपने आप को उपेक्षित महसूस करने लगते हैं ! “उनके अन्दर नकारात्मक विचार पनपने लगता है फिर शुरू हो जाती है बुजुर्गों की समस्या  !  परन्तु कुछ बुजुर्ग बहुत ही समझदार होते हैं, वो नई पीढ़ी के जीवन शैली के साथ  समझौता कर लेते हैं, उनके क्रिया कलापो में टांग नहीं अड़ाते  हैं बल्कि घर के छोटे मोटे कार्यो में उनकी मदद कर उनके साथ दोस्तों की भांति विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, और घर के सभी सदस्यों के हृदय में अपना सर्वोच्च स्थान बना लेते हैं ! उनका जीवन खुशहाल रहता है !   बुजुर्गों के समस्याओं का मुख्य कारण- एकल परिवार का होना है  ! जहाँ  उनके बेटे बेटियाँ बाहर कार्यरत रहते हैं,  जिनकी दिनचर्या काफी व्यस्त रहती है  ! उनके यहाँ जाने पर बुजुर्ग कुछ अलग थलग  से पड़ जाते हैं,  क्यों कि बेटा और बहू दोनों कार्यरत रहते हैं, वहां की दिनचर्या उनके अनुकूल नहीं होती ,  जिनमें  सामंजस्य स्थापित करना उनके लिए कठिन हो जाता है ! इसलिए वो अपने घर और अपने समाज में रहना अधिक पसंद करते हैं ! ऐसी स्थिति में हम किसे दोषी ठहराएं ? कहना मुश्किल है क्योंकि यहां पर परिस्थितियों को ही दोषी ठहराकर हम तसल्ली कर सकते हैं क्यों कि  जो बोया वही काटेंगे!  भौतिक सुखों की चाह में सभी अपने बच्चों को ऐसे रेस का घोड़ा बना रहे हैं जिनका लक्ष्य होता है किसी कीमत पर सिर्फ और सिर्फ अमीर बनना इसलिए उनकी कोमल भावनायें दिल के किसी कोने में दम तोड़ रही होती हैं बल्कि भावुक लोगों को को वे इमोशनल फूल की संज्ञा तक दे डालते हैं!  loading …. इन समस्याओं के समाधान के लिए कुछ उपाय किये जा सकते है !  घर लेते समय यह ध्यानमें जरूर रखना चाहिए कि हमारे पड़ोसी भी समान उम्र के हों ताकि हमारे बुजुर्गों को उनके माता पिता से भी मिलना जुलना होता रहे और हमारे बुजुर्ग भी आपस में मैत्रीपूर्ण संबंध रखते हुए दुख सुख का आदान प्रदान कर सके..! मंदिरों में भजन कीर्तन होता रहता है उन्हें अवश्य मंदिर में भेजने का प्रबंध करें ..! प्रार्थना और भजन कीर्तन से मन में नई उर्जा का प्रवेश होता है जिससे हमारे बुजुर्ग प्रसन्न रहेंगे, और साथ में हमें भी प्रसन्नता मिलेगी ..! अपार्टमेंट निर्माण के दौरान युवा और बच्चों के सुविधाओं का ध्यान रखने के साथ  साथ बुजुर्गों के सुविधाओं तथा मनोरंजन का भी खयाल रखना चाहिए जहां बुजुर्गो के लिए अपनी कम्युनिटी हॉल हो जहां वो बैठकर बात चित ,  भजन कीर्तन, पठन पाठन आदि कर सके साथ ही सरकारी तथा समाजसेवी संस्थानों को भी ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जहां बुजुर्गों के सुरक्षा,  सुविधा, एवं मनोरंजन का पूर्ण व्यवस्था हो ! बुजुर्गों के पास अनुभव बहुत रहता है सरकार को ऐसी व्यवस्था बनाना चाहिए जहां उनके अनुभवों का सदुपयोग हो सके जिससे उनकी व्यस्तता बनी रहे !  बुजुर्गों को अपने लिए कुछ पैसे बचाकर रखना चाहिए सबकुछ अपनी जिंदगी में ही औलाद के नाम नहीं कर देना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर अपनी सेवा  – सुश्रुशा दवाइयों आदि में खर्च कर सकें !  जिन्हें अपनी संतान न हो उन्हें किसी भी बच्चे को गोद अवश्य ले लेना चाहिए ! क्यों कि जिनके औलाद नहीं होते उनके सम्पत्ति में हिस्सेदारी लेने तो बहुत से लोग आ जाते हैं परन्तु उनके सेवा सुश्रुसा का कर्तव्य निभाने के लिए बहुत कम लोग ही तैयार होते हैं !  एक ऐसी ही निः संतान अभागी बुढ़िया का शव मेरे आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूम रहा है जिसका शव पड़ा हुआ था और रिश्तेदारों में धन के लिये आपस में झगड़ा हो रहा था! कोई बैंक अकाउंट चेक कर रहा था तो कोई गहने ढूढ रहा था मगर जीते जी किसी ने उसकी देखभाल ठीक से नहीं की! सभी  एकदूसरे पर दोषारोपण करते रहे तथा कहते रहे कि जो सम्पत्ति लेगा वह सेवा करेगा लेकिन वो बूढ़ी चाहती थी कि मेरी सम्पति सभी को मिले क्यों कि जब अपना बच्चा नहीं है तो सभी रिश्तों के बच्चे बराबर हैं!  आज की परिस्थितियों में बुजुर्गों को थोड़ा उदार तथा मोह माया से मुक्त होकर संत हृदय का होना पड़ेगा अर्थात नौकर चाकर पर खर्च करना होगा जिससे उनकी ठीक तरीके से देखभाल हो सके! क्यों कि अक्सर देखा जाता है कि गरीब अपने  बुजुर्गों की सेवा तथा देखभाल तो स्वयं कर लेते किन्तु अमीरों को सेवा करने की आदत नहीं होती ऐसे में उन्हें सेवक पर ही निर्भर होना होता है और सेवक तो तभी मिलेंगे न जब कि खर्च की जाये! यदि बुजुर्ग स्वयं नहीं खर्च करते हैं अपना पैसा खुद पर तो उनकी संतानों को चाहिए कि अपने माता-पिता के लिए सेवक नियुक्त कर दें क्यों कि माता-पिता के सेवा सुश्रुसा का दायित्व तो उन्हीं का है यदि नहीं कर सकते तो किन्हीं से करवायें वैसे भी अपने पेरेंट्स के सम्पत्ति के उत्तराधिकारी तो वे ही हैं!   यह सर्वथा ध्यान रखना चाहिए कि कल को सभी को इसी अवस्था से गुजरना है, हम आज जो अपने बुजुर्गों को देंगे हमारी औलादें हमें वही लौटाएंगी !  माना कि समयाभाव है फिर भी कुछ समय में से समय चुराकर बुजुर्गों पर खर्च करना चाहिए जिससे हमें तो आत्मसंतोष मिलेगा ही.. बुजुर्गों को भी कितनी प्रसन्नता मिलेगी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है ..!  ©किरण सिंह रिलेटेड पोस्ट …….. बुजुर्गों की सेवा से मेवा जरूर मिलेगा व्यस्त रखना है समाधान टाइम है मम्मी मित्रता एक खूबसूरत बंधन सिर्फ ख़ूबसूरती ही नहीं भाग्य भी बढाता है 16 श्रृंगार

टाईम है मम्मी

किरण सिंह जॉब के बाद ऋषि पहली बार घर आ रहा था..!कुछ छःमहीने ही हुए होंगे किन्तु लग रहा था कि छः वर्षों के बाद आ रहा है ! बैंगलोर  से आने वाली फ्लाइट पटना में ग्यारह बजे लैंड करने वाली थी.पर मेरे पति को रात भर नींद नहीं आई.उनका वश चलता तो रात भर एयरपोर्ट पर ही जाकर बैठे रहते..! ! कई बार ऋषि से बात करते रहे कब चलोगे.. थोड़ा जल्दी ही घर से निकलना..सड़क जाम भी हो सकता है…… आदि आदि..! उनकी इस बेचैनी को देखते हुए मैंने थोड़ा चुटकी लेते हुए कहा चले जाइए ना रात में ही एयरपोर्ट..! मैं तो ऋषि के लिए तरह-तरह के व्यंजन बनाई ही थी किन्तु पिता के मन को माता से ही प्रतिस्पर्धा…. कहां मानने वाला था पिता का दिल सो उन्होंने बाजार से खरीद कर घर में ऋषि के मनपसंद फलों और मिठाइयों का ढेर लगा दिया..! शायद उनका वश चलता तो पूरा बाजार ही घर में उठा लाते..! एयरपोर्ट घर से तीन चार किलोमीटर ही दूर होगा और जाने में टाइम भी पांच से दस मिनट ही लगता… पर मेरे पति नौ बजे ही एयरपोर्ट चले गए… एक पिता के हृदय का कौतूहल देखकर मैंने भी बिना टोके जाने दिया….! पहली बार मुझे पिता का प्रेम माता से भारी प्रतीत हो रहा था….! मैंने घर का मेन गेट खुला छोड़ रखा था इसलिए डोरवेल भी नहीं बजा और घर में प्रवेश कर गए बाप बेटे.. पहली बार मैंने उन्हें इतना खुश होकर मित्रवत वार्तालाप करते हुए देखकर मुझे भी काफी खुशी हुई साथ में डर भी लग रहा था कि कहीं मेरी नज़र ही न लग जाए…! मैं अभी खुशियों के अनुभूतियों में डूबी हुई थी कि ऋषि अपने स्वभावानुसार सबसे पहले फ्रिज खोला ये ऋषि की बचपन की ही आदत थी देखने की कि फ्रिज में क्या क्या है…! और फिर कोल्ड्रिंक्स का बॉटल निकाल कर लाया..और हांथ में लेकर अपने रूम में चला गया ! और फिर बैग खोलकर ढेर सारे गिफ्ट्स निकाल कर लाया……. मेरे लिए टैब्लेट, अपने पापा के और चाचा के लिए कीमती घड़ी………… आदि……! पहले तो पतिदेव ने कहा क्या जरूरत थी बेटा इतना खर्च करने की लेकिन जब ऋषि ने पहनाया तो उनके चेहरे की खुशी देखते ही बनती थी ठीक जैसे कभी ऋषि अपना गिफ्ट देखकर खुश हुआ करता था….! मैंने जो टेबल पर कई तरह के व्यंजन परोसे थे दोनों बाप बेटे व्यंजनों का आनंद ले रहे थे.. फिर मेरे पति ने याद दिलाया मैंने काजू की बरफी लाई है उसे भी लाओ और देखना कच्चा गुल्ला भी………………. मैं परोस रही थी और बाप बेटे बातों में इतने व्यस्त..कि उस दिन मेरे पति आफिस भी नहीं गए..! पिता पुत्र को इतनी देर तक बातें करते देख बहुत खुशी हो रही थी और सबसे खुशी इस बात की कि सिर्फ उपदेश देने वाले पिता आज पुत्र की सुन रहे… और मेरे आँखों के सामने पिछला स्मरण चलचित्र की तरह घूमने लगा…! जब ऋषि सेमेस्टर एग्जाम के बाद छुट्टियों में घर आता था…. प्रतीक्षा और स्नेह तो तब भी इतना ही करते थे.. तब भी फल और मिठाइयों से घर भर देते थे ऋषि के पिता….! सिर्फ अब और तब में अन्तर इतना ही था कि बेटे के घर में प्रवेश करते ही शुरू हो जाता था पिता का प्रश्न और उपदेश….. एग्जाम कैसा गया…. मेहनत से ही सफलता मिलती है…………  सक्सेस का एक ही मूलमंत्र है…. मेहनत  मेहनत और मेहनत और ऋषि का हर बार एक ही जवाब होता था……. मेहनत करने वाले जिन्दगी भर मेहनत करते रह जाते हैं और दिमाग वाले हमेशा ही आगे निकल जाते हैं……. मेहनत तो मजदूर भी करते हैं कहां सफलता मिलती है उन्हें……! और फिर होने लगती थी पिता पुत्र में गर्मागर्म बहस और मैं बड़ी मुश्किल से बहस को शांत कराती…….! मैं ऋषि को समझाने लगती बेटा क्यों नहीं सुन लेते पापा की आखिर वे तुम्हारे लिए ही तो कहते हैं…. खामखा नाराज कर दिया तुमने……..! और ऋषि कहता गलत क्यों सुनें वे कहता था कि आदमी को जिस विषय में अभिरुचि है यदि उस कार्य को करे तो विशेष मेहनत करने की जरूरत नहीं होती है…! और लोग परेशान इसलिए रहते हैं कि वे अपने कैरियर बनाने के लिए विषय का चुनाव अपनी अभिरुचि के अनुसार नहीं करते…और इसीलिए उन्हें अपना काम उबाऊ लगता है और विशेष मेहनत की आवश्यकता पड़ती है..! उसने फिर मुझे उदाहरण सहित समझाया कि मम्मी जैसे आपको लेखन कार्य में अभिरुचि है तो आपको कविता या कहानी लिखने के लिए अलग से मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ती होगी बल्कि आपके लिए मनोरंजक होगा….! और यही कार्य किसी और को करने के लिए दिया जाए तो यह उसके लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी..! और मैं ऋषि से पूर्णतः सहमत हो जाती थी…..! सबसे मुश्किल तब होता था  ऋषि के रात में जगने वाली आदत से……! मैं तो रात में खाने के लिए ऋषि के मनपसंद व्यंजन बनाकर रख देती थी और सो जाती थी…! पर कभी-कभी रात में पतिदेव के चिल्लाने की आवाज सुनकर उठ जाती थी….. रात रात भर कम्प्यूटर पर क्या करते हो …….. ये कौन सा रुटीन है…………… जब तक रुटीन सही नहीं रहेगा तब तक लाइफ में कुछ नहीं कर सकते……………. कौन सी कम्पनी तुम्हारे लिए रात भर खुली रहेगी…….. आदि आदि…..! और शान्ति स्थापना  हेतु मेरी नाइट ड्यूटी लग जाती थी…! पर आज तो सूरज पश्चिम में उग आया था…! ऋषि बोल रहा था और उसके पिता सुन रहे थे कभी कभी कुछ पूछने के लिए बोलते थे बाकी समय सिर्फ सुन रहे थे सत्यनारायण भगवान् की कथा की तरह….! एक वक्ता इतना अच्छा श्रोता कैसे बन गया मुझे खुशी के साथ साथ आश्चर्य हो रहा था….! मैं तो विजयी मुद्रा में बैठी देख और सुन रही थी……..!  अंत में मुझसे रहा नहीं गया और मैंने चुटकी लेते हुए ऋषि से कहा ऋषि तुम्हारा घड़ी तो कमाल कर दिया……… फिर ऋषि ने भी मुस्कुराते हुए कहा.. टाइम है मम्मी….! ************** ©कॉपीराइट किरण सिंह  यह भी पढ़ें ………. एक पाती भाई के नाम सिर्फ ख़ूबसूरती ही नहीं भाग्य भी बढाता है 16 श्रृंगार मित्रता – एक खूबसूरत बंधन स्त्री विमर्श का … Read more

मित्रता एक खूबसूरत बंधन

special article on friendship day किरण सिंह  मित्रता वह भावना है जो दो व्यक्तियों के  हृदयों को आपस में जोड़ती है! जिसका सानिध्य हमें सुखद लगता है तथा हम मित्र के साथ  स्वयं को सहज महसूस करते हैं, इसलिए अपने मित्र से अपना दुख सुख बांटने में ज़रा भी झिझक नहीं होती ! बल्कि अपने मित्र से अपना दुख बांटकर हल्का महसूस करते हैं और सुख बांटकर सुख में और भी अधिक सुख की अनुभूति करते हैं!  समान उम्र , समान स्तर , तथा समान रूचि के लोगों में होती है  अधिक गहरी मित्रता  वैसे तो कहा जता है कि मित्रता में जाति, धर्म, उम्र तथा स्तर नहीं देखा जाता ! किन्तु मेरा व्यक्तिगत अनुभव कि मित्रता यदि समान उम्र , समान स्तर , तथा समान रूचि के लोगों में अधिक गहरी होती है क्योंकि स्थितियाँ करीब करीब समान होती है  ऐसे में एक दूसरे के भावनाओं को समझने में अधिक आसानी होती है इसलिए मित्रता अच्छी तरह से निभती है!  कौन होता है सच्चा मित्र  वैदिक काल से ही मित्रता के विशिष्ट मानक दृष्टिगत होते आये है| जहाँ रामायण काल में राम और निषादराज, सुग्रीव और हनुमान की मित्रता प्रसिद्ध है वहीँ महाभारत काल में कृष्ण- अर्जुन, कृष्ण- द्रौपदी और दुर्योधन-कर्ण की मित्रता नवीन प्रतिमान गढती है| कृष्ण और सुदामा की मित्रता की तो मिसाल दी जाती है जहाँ अमीर और गरीब के बीच की दीवारों को तोड़कर मित्रता निभाई गई थी | वैसे तो जीवन में मित्रता बहुतों से होती है लेकिन कुछ के साथ अच्छी बनती है जिन्हें सच्चे मित्र की संज्ञा दी जा सकती है ! तुलसीदासजी ने भी लिखा है  “धीरज,धर्म, मित्र अरु नारी ; आपद काल परखिये चारी|  अर्थात जो विपत्ति में सहायता करे वही सच्चा मित्र है|  भावनात्मक संबल है आभासी मित्रता  अब मित्रता की बात हो और आभासी मित्रों की बात न हो यह तो बेमानी हो जायेगी! बल्कि यहीं पर ऐसी मित्रता होती है जहाँ हम सिर्फ और सिर्फ भावनाओं से जुड़े होते हैं! यहाँ किसी भी प्रकार का स्वार्थ नहीं जुड़ा होता! बहुत से लोगों का मत है कि आभासी दुनिया की मित्रता सिर्फ लाइक कमेंट पर टिकी होती है यह सत्य भी है,किन्तु यदि हम सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे तो यह लाइक और कमेंट ही हमें आपस में जोड़तें हैं ! क्यों कि पोस्ट तथा लाइक्स और कमेंट्स ही व्यक्ति के व्यक्तित्व को उजागर करता है जिनमें हम वैचारिक समानता तथा शब्दों में अपनत्व को महसूस करते हैं और मित्रता हो जाती है! यह भी सही है कि आभासी दुनिया की मित्रता में बहुत से लोग ठगी के शिकार हो रहे हैं! इस लिए मित्रों के चयन में सावधानी बरतना आवश्यक है चाहे वह आभासी मित्रता हो या फिर धरातल की!  मित्रता एक खूबसूरत बंधन है जो हमें एकदूसरे से जोड़ कर हमें मजबूती का एहसास कराता है ! इसलिए इस बंधन को टूटने नहीं देना चाहिए !  आप सभी मित्रों को मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं   यह भी पढ़ें … फ्रेंडशिप डे पर विशेष – की तू जहाँ भी रहे तू मेरी निगाह में है एक पाती भाई के नाम सिर्फ ख़ूबसूरती ही नहीं भाग्य भी बढाता है 16 श्रृंगार क्यों लिभाते हैं फेसबुक पर बने रिश्ते Attachments area