16 श्रृंगार -सिर्फ खूबसूरती ही नहीं, भाग्य भी बढ़ाता है सोलह श्रृंगार

 किरण सिंह औरत और श्रृंगार एकदूसरे के पूरक हैं अब तक तो यही माना जाता आ रहा है और सत्य भी है क्यों कि सामान्यतः औरतों को श्रृंगार के प्रति कुछ ज्यादा ही झुकाव होता है ! हम महिलाएँ चाहे जितना भी पढ़ लिख जाये, कलम से कितनी भी प्रसिद्धि पा लें लेकिन सौन्दर्य प्रसाधन तथा वस्त्राभूषण अपनी तरफ़ ध्यान आकृष्ट कर ही लेते हैं !भारतीय संस्कृति में सुहागनों के लिए 16 श्रृंगार बहुत अहम माने जाते थे बिंदी  सिंदूर चूड़ियाँ बिछुए पाजेब नेलपेंट बाजूबंद लिपस्टिक  आँखों में अंजन कमर में तगड़ी नाक में नथनी  कानों में झुमके बालों में चूड़ा मणि गले में नौलखा हार हाथों की अंगुलियों में अंगुठियाँ मस्तक की शोभा बढ़ाता माँग टीका बालों के गुच्छों में चंपा के फूलों की माला सिर्फ खूबसूरती ही नहीं, भाग्य भी बढ़ाता है सोलह श्रृंगार – ऋग्वेद में सौभाग्य के लिए किए जा रहे सोलह श्रृंगारों के बारे में विस्तार से बताया गया है।जहाँ बिंदी भगवान शिव के तीसरे नेत्र की प्रतीक मानी जाती है तो सिंदूर सुहाग का प्रतीक !काजल बुरी नज़र से बचाता है तो मेंहदी का रंग पति के प्रेम का मापदंड माना जाता है!मांग के बीचों-बीच पहना जाने वाला यह स्वर्ण आभूषण सिंदूर के साथ मिलकर वधू की सुंदरता में चार चांद लगा देता है। ऐसी मान्यता है कि नववधू को मांग टीका सिर के ठीक बीचों-बीच इसलिए पहनाया जाता है कि वह शादी के बाद हमेशा अपने जीवन में सही और सीधे रास्ते पर चले और वह बिना किसी पक्षपात के सही निर्णय ले सके। कर्ण फूल ( इयर रिंग्स) के पीछे ऐसी मान्यता है कि विवाह के बाद बहू को दूसरों की, खासतौर से पति और ससुराल वालों की बुराई करने और सुनने से दूर रहना चाहिए।गले में पहना जाने वाला सोने या मोतियों का हार पति के प्रति सुहागन स्त्री के वचनवद्धता का प्रतीक माना जाता है!  पहले सुहागिन स्त्रियों को हमेशा बाजूबंद पहने रहना अनिवार्य माना जाता था और यह सांप की आकृति में होता था। ऐसी मान्यता है कि स्त्रियों को बाजूबंद पहनने से परिवार के धन की रक्षा होती और बुराई पर अच्छाई की जीत होती है।नवविवाहिता के हाथों में सजी लाल रंग की चूड़ियां इस बात का प्रतीक होती हैं कि विवाह के बाद वह पूरी तरह खुश और संतुष्ट है। हरा रंग शादी के बाद उसके परिवार के समृद्धि का प्रतीक है।    सोने या चाँदी से बने कमर बंद में बारीक घुंघरुओं वाली आकर्षक की रिंग लगी होती है, जिसमें नववधू चाबियों का गुच्छा अपनी कमर में लटकाकर रखती हैं! कमरबंद इस बात का प्रतीक है कि सुहागन अब अपने घर की स्वामिनी है।और पायल की सुमधुर ध्वनि से घर आँगन तो गूंजता ही था साथ ही बहुओं पर कड़ी नज़र की रखी जाती थी कि वह कहाँ आ जा रही है !  इस प्रकार पुरानी परिस्थितियों, वातावरण तथा स्त्रियों के सौन्दर्य को ध्यान में रखते हुए सोलह श्रृंगार चिन्हित हुआ था!  किन्तु आजकल सोलह श्रृंगार के मायने बदल से गये हैं क्योंकि आज के परिवेश में कामकाजी महिलाओं के लिए सोलह श्रृंगार करना सम्भव भी नहीं है फिर भी तीज त्योहार तथा विवाह आदि में पारम्परिक परिधानों के साथ महिलाएँ सोलह श्रृंगार करने से नहीं चूकतीं !  सोलह श्रृंगार भी हमारी संस्कृति और सभ्यता को बचाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है !                         यह भी पढ़ें …….. समाज के हित की भावना ही हो लेखन  का उदेश्य दोषी कौन अपरिभाषित है प्रेम एक पाती भाई – बहन के नाम

समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उद्देश्य

 किरण सिंह  जिन भावों में हित की भावना समाहित हो वही साहित्य है तथा उन भावों को शब्दों में पिरोकर प्रस्तुत करने वाला ही साहित्यकार कहलाता है  | ऐसे में साहित्यकारों पर सामाजिक हितों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी पड़ जाती है जिसका निर्वहन उन्हें पूरी निष्ठा व इमानदारी से करना होगा ! साथ ही सरकार को भी नवोदित साहित्यकारों के उत्थान के लिए भी कदम उठाना होगा! पत्र पत्रिकाओं अखबारों आदि ने तो साहित्यकारों की कृतियों को समाज के सम्मुख रखते ही आये हैं साथ ही सोशल मीडिया ने भी इस क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिसके परिणाम स्वरूप आज हिन्दी साहित्य जगत में रचनाकारों की बाढ़ सी आ गई है  ( खास तौर से महिलाओं की ) जो निश्चित ही साहित्यक क्रांति है!  बहुत सी महिलायें ऐसी हैं जिन्होंने पूर्ण योग्यता तथा क्षमता रखने के बावजूद भी अपने परिवार तथा बच्चों की देखरेख हेतु स्वयं को घर के चारदीवारी के अन्दर कैद कर लिया  उनकी भावनाओं के लिए सोशल मीडिया जीवन दायिनी का काम किया है! निश्चित ही उनके लेखन से समाज को एक नई दिशा मिलेगी!आज की पीढ़ी का भी हिन्दी साहित्य की तरफ रुझान बढ़ रहा है जिन्हें प्रेरित करने तथा मार्गदर्शन में भी सोशल मीडिया अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है!  किन्तु अफसोस के साथ यह भी कहना पड़ रहा है कि साहित्य जगत भी भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद से अछूता नहीं रह गया है! यहाँ भी नये नये रचनाकाकारों से साहित्य हित के नाम पर मनमानी पैसे ऐठे जा रहे हैं जिनके प्रलोभनों के जाल में नये साहित्यकार आसानी से फँस रहे हैं! भला छपने तथा सम्मान की चाहत किसे नहीं होगी…. इसी लालसा में रचनाकार कुछ साहित्य मठाधीशों के मनमानी के शिकार हो कर अपनी महत्वाकांक्षा को तुष्ट कर रहे हैं जिससे साहित्य हित की परिकल्पना कभी-कभी वीभत्स  सी लगने लगती है!  फिर भी समाज में यदि बुराई व्याप्त है तो अच्छाई भी है इसलिए निराश होने की आवश्यकता नहीं है! अपने लेखन पर ध्यान केंद्रित रखना है सामाजिक हित की भावना से!  लेखिका परिचय :  नाम – किरण सिंह  पति का नाम – श्री भोला नाथ सिंह  सम्प्रति – कवियत्री एवं लेखिका  अनेकों  प्रतिष्ठित पत्रिकाओं व् समाचारपत्रों में कवितायें ,  कहानियाँ लेख आदि प्रकाशित  प्रकाशित पुस्तक – मुखरित संवेदनाएं  निवास – पटना , बिहार  यह भी पढ़ें ……. मुखरित संवेदनाएं – संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती स्त्री के स्वर स्त्री विमर्श का दूसरा पहलू  अपरिभाषित है प्रेम दोषी कौन जब अस्पताल में मनाया वैलेंटाइन डे

स्त्री विमर्श का दूसरा पहलू

एक तरफ समाज की यह बिडम्बना है …!जहाँ दहेज जैसे समस्याओं को लेकर , ससुराल वालों के द्वारा , तरह तरह से महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हो रही हैं …….!.सिसकती है उनकी जिन्दगी ….!.और कभी कभी तो क्रूरता इतनी चरम पर होतीं है , कि छिन जाती है स्वतंत्रता और सरल भावनाओं के साथ साथ उनकी जिन्दगी भी ….! कड़े कानून बने हैं , फिर भी नहीं रुक रहा है ..! स्त्रियों के साथ क्रूरता बढता ही जा रहा है …! बढता जा रहा है उनके साथ दिनोदिन अत्याचार…….!. नहीं सुरक्षित हैं उनके अधिकार……..!.चाहे जितना भी नारी शक्तिकरण की बातें क्यों न हम कर ले……..!चाहे जितने भी कानून क्यों न बने ! वहीं समाज का एक दूसरा सत्य पहलू यह भी है कि , बहुओं के द्वारा भी उनके ससुराल वाले अत्यंत पीडित हैं ..! जिसपर ध्यान कम ही लोगों का जा पाता है…. … !जहाँ महिलाएं अपने मिले हुए अधिकारों का समूचित दुरूपयोग कर रही हैं…….! जो कानूनी हथियार उनकी सुरक्षा के लिए बने होते हैं , उसे वह बेकसूर ससुराल वालों के खिलाफ धडल्ले से इस्तेमाल कर रही हैं ..!.झूठा मुकदमा दर्ज कराकर , धज्जियां उड़ा रही हैं ससुराल वालों की इज्जत प्रतिष्ठा की…….! शायद ऐसी ही स्त्रियों के लिए महाकवि तुलसीदास ने लिखा होगा …! ढोल गंवार शुद्र पशु नारी ] ये सब तारन के अधिकारी ]] ऐसी ही स्त्रियों की वजह से ,समस्त स्त्री जाति को प्रतारणा सहनी पडती है ! कुछ के तो घर टूट जाते हैं ! और कुछ लोग घर न टूटे , इस डर से अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए अपनी बहुओं के प्रत्येक मांग को मानने को मजबूर हो जाते हैं ! इसमें सीधे साधे , शरीफ और संस्कारी लडके अपनी माँ , बहन और पत्नी के बीच पिस से जाते हैं ..! और सबसे मजबूरी उनकी यह होती है , कि वो अपने दुखों की गाथा किसी से सुना भी नहीं सकते ..! क्यों कि पुरूष जो हैं …..!सबल हैं …!नहीं रोते वो …!.कौन सुनेगा उनकी दुखों की गाथा ….? कौन समझेगा उनके दुविधाओं की परिभाषा ? माँ और पत्नी दोनों ही उनकी अति प्रिय होती हैं..! किसी एक को भी छोडना उन्हें अधूरा कर देता है ….!.यदि लडके के माता पिता समझदार एवं सामर्थ्यवान होते हैं , तो ऐसी स्थिति में दे देते हैं अपने अरमानों की बलि…… ! कर देते हैं अलग अपने कलेजे के टुकड़े को ..!.टूट जाता है घर , चकनाचूर हो जाता है हॄदय माता पिता का ! कुछ महिलाओं का तो मुकदमा करने का उद्देश्य ही ससुराल वालों को डरा धमाका कर धन लेने का होता है ..! जिसमें उनके माता पिता का सहयोग होता है…! वो लोग अपनी बेटियों का इस्तेमाल सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह करते हैं , और समाज का सहनुभुति भी प्राप्त कर लेते हैं ! चूंकि बेटे वाले हैं तो समाज की निगाहें भी उनमें ही दोष ढूढती है …! सहानुभूति तो बेटी वालों को प्राप्त होती है …….!ऊपर से कानून का भय अलग ! क्यों बनती हैं महिलाएं नाइका से खलनायिका ? क्यों करती हैं विध्वंस ? क्यों नहीं बहू बेटी बन पाती ? क्यों नहीं अपना पाती ससुराल के सभी रिश्तों को ? क्यों बनती है घरों को तोड़ने का कारण ? क्यों नहीं छोड़ पाती ईर्ष्या द्वेष जैसे शत्रुओं को ? क्यों सिर्फअधिकारो का भान रहता है और कर्तव्यों का नहीं ? नारी तुम शक्ति हो , सॄजन हो पूजनीय हो , सहनशील हो मत छोडों ईश्वर के द्वारा प्राप्त अपने मूल गुणों को ……!.नहीं है तुम्हारे जितना सहनशक्ति पुरुषों में……!.नहीं कर सकते तुम्हारे जितना त्याग……..! नहीं दे पाएंगे वो पीढी दर पीढी वो संस्कार जो तुम्हारे धरोहर हैं…..! नहीं चल पाएगी सॄष्टि तुम बिन…….! नहीं सुरक्षित रह पाएगा सॄष्टि का सौन्दर्य तुम बिन…….!मत छोडो अपनी संस्कृति और सभ्यता…! माना कि अबतक तुम्हारे साथ नाइन्साफी होती रही है …….!.बहुत सहा है तुमने ….!..बहुत दिया है तुमनें ……! सींचा है तुमने निस्वार्थ भाव से परिवार , समाज , सम्पूर्ण सॄष्टि को मान रहे हैं अब सब …!… अब समाज की विचारधाराएं बदल रही है ..! तुम भी पूर्वाग्रहों से ग्रसित मत हो……! मत लो बदला ….!.नहीं तो , रुक जाएगा सम्पूर्ण जगत ……..!.तबाही आ जाएगी …..! विनाश हो जाएगा सम्पूर्ण सॄष्टि का ! महाकवि जयशंकर प्रशाद ने तुम्हारे लिए कितनी सुन्दर पंक्तियों लिखी हैं नारी तुम केवल श्रद्धा हो , विश्वास रजत नभ पग तल में पीयूष श्रोत सी बहा करो , जीवन के सुन्दर समतल में ]] किरण सिंह ************************

अपरिभाषित है प्रेम

संसार में तरह-तरह के व्यक्ति हैं … सभी में अलग अलग कुछ विशेष गुण होते हैं….. जिसे व्यक्तित्व कहते हैं….. कुछ विशेष व्यक्तित्व विशेष व्यक्ति को अपनी तरफ आकर्षित करता है….. यही आकर्षण जब एक दूसरे के विचारों में मेल, पाता है….. एक-दूसरे के लिए त्याग का भाव अनुभव करता है , एक-दूसरे के लिए समर्पित हो जाना चाहता है…. एक दूसरे के प्रसन्नता में प्रसन्नता अनुभव करता है….. एक दूसरे का साथ पाकर सुरक्षित तथा प्रसन्न अनुभव करता है……एक दूसरे पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देना चाहता है…. उसका एक दूसरे से सिर्फ सिर्फ़ शारीरिक या मानसिक ही नहीं आत्मा का आत्मा से मिलन हो जाता वही प्रेम है..! , प्रेम हृदय की ऐसी अनुभूति है जो जन्म के साथ ही ईश्वर से उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ है..! या यूँ कहें कि माँ के गर्भ में ही प्रेम का भाव पल्लवित एवं पुष्पित हुआ है..! चूंकि संतानें अपने माता-पिता के प्रेम की उपज हैं तो यह भी कहा जा सकता हैं कि माँ के गर्भ में आने से पूर्व ही प्रेम की धारा बह रही होगी जो रक्त में प्रवाहित है…! प्रेम अस्तित्व है.. अवलम्ब है… समर्पण है… निः स्वार्थ भाव से चाहत है…. जिसे हम सिर्फ अनुभव कर सकते हैं..प्रेम अपने आप में ही पूर्ण है..जिसे . शब्दों में अभिव्यक्त करना थोड़ा कठिन है… फिर भी हम अल्प बुद्धि लिखने चले हैं प्रेम की परिभाषा..! प्र और एम का युग्म रुप प्रेम कहलाता है जहां प्र को प्रकारात्मक और एम को पालन कर्ता भी माना जाता है..! प्रेम में लेन देन नहीं होता… प्रेम सिर्फ देकर संतुष्ट होता है…! शरीर , मन और आत्मा प्रेम के सतह हैं…प्रेम किसे किस सतह पर होता है यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है..! दार्शनिक आत्मा और परमात्मा के प्रेम का वर्णन करते हैं.. तो महा कवियों के संवेदनशील मन ने हृदय की सुन्दरता को महसूस कर प्रेम का चित्रण अपने अंदाज में किया है..! आम तौर पर हर रिश्तों में अलग अलग भाावनाएं जुड़ी होती हैं उन भावनाओं की अनुभूति भी प्रेम के प्रकार हैं..! उम्र के साथ साथ प्रेम का भाव भी बदलता रहता है..! जब व्यक्ति अपने बालपन की दहलीज को लांघ किशोरावस्था के लिए कदम बढ़ाता है तब उसे शारीरिक और मानसिक स्तर पर कई प्रकार के परिवर्तन का सामना करना पड़ता है.. और वह विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित होता है…और आकर्षण को जब शरीर मन और आत्मा आत्मसात कर लेता है उसी प्रक्रिया को ही हम प्रेम कह सकते हैं..! प्रेम एक दूसरे को देकर संतुष्ट होता है..! राधा कृष्ण के प्रेम सच्चे प्रेम का उदाहरण है..! आज से पहले हमारे यहाँ प्रेम को खुली छूट नहीं मिली थी लैला मजनू , हीर रांझा के प्रेम को समाज की की मान्यता नहीं मिली और प्रेम के लिए उन्होंने अपनी जान की बाजी लगा दी थी ….. वहीं आज प्रेम बहुत ही आसानी से टूट और जुड़ रहे हैं..! आज लोग दिल की अपेक्षा दिमाग से काम ले रहे है.. समाज भी प्रेम को स्वीकार कर रहा है यही वजह है कि आज कल प्रेम विवाह की संख्या तेजी से बढ़ रही है…! आज पश्चिमी सभ्यताका का अन्धानुकरण ने प्रेम का अंदाज ही बदल दिया है..! आजकल का प्रेम जीवन जीवान्तर तक का न होकर कुछ वर्षों में ही टूट और जुड़ रहा है… प्रेमी प्रेमिका बड़ी आसानी से एक-दूसरे के प्रेम बन्धन से मुक्त होकर अन्य प्रेमी प्रेमिका ढूंढ ले रहे हैं…. और बड़ी आसानी से अपने अपने पुराने प्रेमी प्रेमिका को कह देते हैं कि अब हम सिर्फ दोस्त हैं …! कुछ लोग विवाहेत्तर सम्बन्धों को भी प्रेम की संज्ञा देते हैं..उनके अनुसार प्रेम अंधा होता है वह उचित और अनुचित नहीं देखता..सिर्फ़ प्रेम करता है….. अंधा…….. वह अपने तरह-तरह के कुतर्को द्वारा अपने प्रेम को सही साबित करने का प्रयास करता है ! विवाहेत्तर सम्बन्धों का दुष्परिणाम कभी कभी बहुत ही भयावह होता है..! मर्यादित प्रेम यदि जीवन में सुधा की रसधार है तो अमर्यादित प्रेम विष का प्याला..और आग का दरिया है…… इस लिए प्रेम में मर्यादा का होना आवश्यक है..! ****************** किरण सिंह निराश लोगों के लिए आशा की किरण ले कर आता है वसंत                                              नगर ढिढोरा पीटती कि प्रीत न करियो कोय प्रेम के रंग हज़ार -जो डूबे  सो हो पार                                                         आई लव यू -यानी जादू की झप्पी आपको  लेख   “अपरिभाषित है प्रेम ” कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

दोषी कौन ?

किरण सिंह , पटना ********* आए दिन नारी संवेदना के स्वर गूंजते रहते हैं …..द्रवित करते रहते हैं हॄदय को ….छलक ही आते हैं आँखों से अश्रुधार ….परन्तु प्रश्न यह उठता है कि आखिर दोषी कौन है …..पुरुष या स्वयं नारी ? कहाँ होता है महिलाओं की शोषण घर या बाहर ? किससे करें फरियाद ……किससे माँगे अपना हक …… …. पिता से जिसे पुत्री के जन्म के साथ ही …उसकी सुरक्षा और विवाह की चिन्ता सताने लगी थी . या भाई से जिसने खेल खेल में भी अपनी बहन की सुरक्षा का ध्यान रखा….. तभी तो वो ससुराल में सबकुछ सह लेती हैं हँसते हुए कि उनके पिता और भाई के सम्मान में कोई आँच नहीं आए ! वो तो नैहर से विदा होते ही समय चावल से भरा अंजुरी पीछे बिखेरती हुई चल देती हैं कुछ यादों को अपने दिल में समेटे ससुराल को सजाने संवारने ……रोती हैं फिर सम्हल जाती हैं क्यों कि बचपन से ही सुनती जो आई हैं कि बेटियाँ दूसरे घर की अमानत हैं ! छोड़ आती हैं वो अपने घर का आँगन …लीप देती हैं अपने सेवा और प्रेम से पिया का आँगन….. रहता है उन्हें अपने कर्तव्यों का भान ….दहेज के साथ संस्कार जो साथ लेकर आती हैं ……किन्तु क्या उनकी खुशियों का खयाल इमानदारी से रखा जाता है ससुराल में……. उनकी भावनाओं का कद्र किया जाता है ? यह प्रश्न विचारणीय है ! बहुत से लोग इसका उत्तर देंगे कि मैं तो अपनी बेटी से भी अधिक बहू को मानता हूँ या मानती हूँ……आदि आदि….. कुछ लोग हैं भी ऐसे परन्तु गीने चुनें ही …अधिकांशतः वो लोग जिनके बेटे बहू बाहर नौकरी करते हैं ! शायद इसीलिए आजकल नौकरी वाले दूल्हे का मांग ज्यादा है जहां महिलाओं को…नहीं रहना पड़ता ससुराल कैदख़ाने में ……सुरक्षित रहतीं है उनकी आजादी….. परन्तु कुछ वर्ग ऐसा भी है जहां ससुराल वाले पहले से ही अपेक्षा रखते हैं कि उनकी पुत्रवधू लक्ष्मी , सरस्वती , और अन्नपूर्णा की रूप होगी ….वो अपने साथ ऐसी जादुई छड़ी साथ लेकर आएगी कि छड़ी धुमाते ही ससुराल के सभी सदस्यों की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाएं ….या बहू के रूप में ऐसा रोबोट चाहते हैं जो बटन दबाने के साथ ही काम शिघ्रता से सम्पन्न कर दे …..बात बात पर बहू के माँ बाप तक पहुंच कर ताने सुनाना तो सास का मौलिक अधिकार बन जाता है ! बहू के रूप में मिली नौकरानी को मां बाप से मिलने पर भी पाबंदी होती है क्यों कि बहू के मायके वाले उनके मांग को पूरा नहीं कर पाते…. बेटे का कान भरने से भी नहीं चूकतीं वो सास के रूप धरी महिलाएं…… क्या तब वो महिला नहीं रहती …..क्यों बेटियों का दर्द सुनाई देता है और बहुओं की आह नहीं ?.क्यों पिसी जाती हैं महिलाएं मायके और ससुराल के चक्की के मध्य ? कौन सा है उसका घर मायका या ससुराल ? और यदि ससुराल तो क्यों ताने दिये जाते हैं मायके को ? कबतक होती रहेगी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार ? क्यों नहीं सुनाई देता है सास बनते ही नारी को नारी की संवेदना के स्वर ? जागो नारी जागो ….सोंचो , समझो और सुनों नारी की संवेदना के स्वर ! जब तक तुम नारी नारी की शत्रु बनी रहेगी तबतक होती रहेगी बेवस महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार ! ************************

मुखरित संवेदनाएं – संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती स्त्री के स्वर

                                                     लेखिका एवम कवयित्री     किरण सिंह  जी का प्रथम काव्य संग्रह ” मुखरित संवेदनाएं ” एक नज़र में ही मुझे विवश करने लगा  की मैं उस पर कुछ लिखूँ , और पूरा पढने के बाद मैं अपने आप को रोक न सकी | वैसे किरण सिंह जी के आत्मीय स्वाभाव व् उनकी कविताओं से मैं फेसबुक के माध्यम से पहले से ही परिचित थी | उनकी कई  कवितायें व् कहानियां हमारे अटूट बंधन ग्रुप की मासिक पत्रिका ” अटूट बंधन ” व् दैनिक समाचारपत्र ” सच का हौसला में प्रकाशित हो चुकी हैं व् पाठकों द्वारा सराही जा चुकी हैं | इस भावनात्मक जुड़ाव के कारण उनके पहले काव्य संग्रह पर कुछ लिखना  मुझे आल्हादित कर  रहा है | शुरुआत करती हूँ संग्रह के पहले अंश ” अपनी बात से ” जैसा की किरण जी ने लिखा है की छोटी उम्र में विवाह व् घर गृहस्थी के ताम – झाम में वो भूल ही गयी की उनके अन्दर जाने कितनी कवितायें सांस ले रही हैं | जो जन्म लेना चाहती है | जाहिर सी बात है जब कांपते हाथों से उन्होंने कलम थामी तो उदेश्य बस उस बेचैनी का समाधान ढूंढना था जो हर रचनात्मक व्यक्ति अपने अन्दर महसूस करता है | तभी तो अपनी पहली कविता में वह प्रश्न करती हैं ” किस पर  लिखूँ मैं ?” वास्तव में जब मन में इतना कुछ एक साथ चल रहा हो तो एक विषय का चयन कितना दुष्कर हो जाता है | पर वो शीघ्र ही इस झिझक से बाहर आ कर मजबूती से अपनी बात रखती हैं | उन्होंने अपनि सम्वेद्नाओ को कई भागों में बांटा है जिस पर मैं क्रम से प्रकाश  डालना चाहूंगी | मुखरित संवेदनाएं                       यहाँ किरण जी ने अपने लेखकीय जीवन  के शुरूआती दौर  की कवितायें रखी हैं | जहाँ एक अनजानी राह पर जाने की झिझक भी है , संकल्प भी है और सब से बढ़कर कर स्वयं को ढूँढने की बेचैनी है | इस खंड की अंतिम कविता ” मैं ” तक आते – आते वो इसका हल भी ढूढ़ लेती हैं  और उद्घोष करती हैं ………                ” किरने आशाओं  की मैं                     मैं स्वयं की स्वामिनी  हूँ “|  नारी संवेदना के स्वर                                     किरण जी के काव्य संग्रह के दूसरे व् प्रमुख खंड  ” नारी संवेदना के स्वर ” की कविताओं को बार – बार पढने पर उसमें उस स्त्री का अक्स दिखाई देता है जो हमारे देश के छोटे शहरों , गांवों और कस्बों से निकल कर आई है | जो महानगरों की स्त्री की तरह पुरुष विरोधी नहीं है | या यूँ कहिये वो मात्र विरोध करने के लिए विरोध नहीं करती | वो पुरुष से लड़ते – लड़ते पुरुष नहीं बनना चाहती है | उसे अपने  स्त्रियोचित गुणों पर गर्व है | दया ममता करुणा  हो या मेहँदी चूड़ी और गहने वो सब को सहेज कर आगे बढ़ना चाहती है | या यूँ कहें की वो अपनी जड़ों से जुड़े रह कर अपने हिस्से का आसमान चाहती है | वो अपने पिता पति और पुत्र को कटघरे में नहीं घसीटती बल्कि  सामाजिक व्यवस्था  और अपने ही कोमल स्वाभाव के कारण स्वयमेव अपना प्रगति रथ रोक देने के कारण उन्हें दोष मुक्त कर देती है | वो कहती है ……….. क्यों दोष दूं तुम्हे  मैं भी तो भूल गयी थी  स्वयं  तुम्हारे प्रेम में                    आज स्त्री विमर्श के नाम पर जो लिखा जा रहा है  | वो बहुत उग्र है | जिस  तरह से स्त्री खून के बदले खून मांगती है , लिव इन या बेवफाई से उसे गुरेज नहीं है | वो पुरुषों से कंधे से कन्धा मिला कर चलने में यकीन नहीं करती बल्कि सत्ता पलट कर पुरुष  से ऊपर हो जाना चाहती हैं | जिस को पढ़ कर सहज विश्वास नहीं होता | क्योंकि हमें अपने आस – पास ऐसी स्त्रियाँ नहीं दिखती | हो सकता है ये भविष्य हो पर किरण जी की कवितायें आज का यथार्थ लिख रही हैं | जहाँ संवेदनाएं इतनी इस कदर मरी नहीं हैं | पर किरण जी की कवितायें एक दबी कुचली नारी के स्वर नहीं है | वो अपने हिस्से का आसमान भी मांगती हैं पर प्रेम और समन्वयवादी दृष्टिकोण के साथ ………. भूल गयी थी तुम्हारे प्रेम में अपना  अस्तित्व और निखरता गया मेरा  स्त्रीत्व  खुश हूँ आज भी  पर  ना जाने क्यों  लेखनी के पंख से उड़ना चाहती हूँ  मुझे मत रोको  मुझे  स्वर्ण आभूषण  नहीं   आसमान चाहिए  युग चेतना एवं उद्बोधन                                           काव्य संग्रह के इस खंड में उनकी आत्मा की बेचैनी व् समाज के लिए कुछ करने की चाह स्पष्ट रूपसे झलकती है | ……… सीख लें हम बादलों से  किस पर गरजना है  किस पर बरसना है  किसको दिखाना है  किसको छुपाना है  और ……….. पीढा चढ़ कर ऊंचा बन रहे  आत्म प्रशंसा आप ही कर रहे  झाँक रहे औरों के घर में  नहीं देखते अपनी करनी  सूप पर हंसने लगी है चलनी  भक्ति आध्यात्म                                             काव्य संग्रह के इस खंड में अपने हिस्से का आसमान मांगने वाली और समाज की कुप्रथाओं से लड़ने वाली कवयित्री एक भावुक पुजारिन में तब्दील हो जाती है | जहाँ वो और उसके आराध्य के अतरिक्त कोइ दूसरा नहीं है | न जमीन न आसमान न घर न द्वार | यहाँ पूर्ण  समर्पण  की भावना है | भक्ति रस में डूबे ये गीत आत्मा को आध्यात्म की  तरफ मोड़ देते हैं | ……….. जाति  धर्म में हम उलझ कर  मिट रहे … Read more

अटल रहे सुहाग : ,किरण सिंह की कवितायें

                      करवाचौथ पर विशेष ” अटल रहे सुहाग ” में  आइये आज पढ़ते हैं किरण सिंह की कवितायें …….. आसमाँ से चाँद आसमाँ से चाँद फिर लगा रहा है कक्षा देना है आज हमें धैर्य की परीक्षा सोलह श्रॄंगार कर व्रत उपवास कर दूंगी मैं  तुझे अर्घ्य मेरी माँग पूरी कर उग आना जल्द आज प्रेम का साक्षी बन बड़ी हठी हैं हम तोड़ूंगी नहीं प्रण अखंड सौभाग्य रहे तू आराध्य रहे परीक्षा में पास कर हे चंदा पाप हर अटल रहे सुहाग हमारा  ****************** सुनो प्रार्थना चांद गगन के रूप तेरा नभ में यूं चमके बिखरे चांदनी छटा धरा पर माँग सिंदूर सदा ही दमके पूजन करे संसार तुम्हारा अटल रहे…………………. तू है साक्षी मेरे प्रेम की दिया जलाई नित्य नेह की अर्घ्य चढ़ाऊंगी मैं तुझको करो कामना पूरी मन की जग में हो तेरा जयकारा अटल रहे…………………. पति प्रेम जीवन भर पाऊँ सदा सुहागन मैं कहलाऊँ सोलह श्रृंगार कर मांग भरे पिया जब मैं इस दुनियां से जाऊँ पुष्प बरसाए सितारा अटल रहे………………… भूखी प्यासी मैं रही हूँ शीत तपन को मैं सही हूँ चन्द्र दया कर उगो शीघ्र नभ क्षमा करना यदि गलत कही हूँ मेरा पति है तुझसे प्यारा अटल रहे………………… किरण सिंह .

एक पाती भाई /बहन के नाम (किरण सिंह )

चिट्ठी भाई के नाम***************भैया पिछले रक्षाबंधन पर जैसे ही मैंने नैहर की चौकठ पर रखा पांव बड़े नेह से भौजाई लिए खड़ी थी हांथो में थाल सजाकर जुड़ा हमारा हॄदय खुशी से आया नयन भर हमने दिया आशीष मन भर सजा रहे भाई का आंगनभरा रहे भाभी काआँचलरहे अखंड सौभाग्य हमारा नैहर रहे आबाद भैया तुम रखना भाभी का खयाल कभी मत होने देना उदास भाभी तेरे घर की लक्ष्मी है और तुम हो घर के सम्राट माँ भी हैं तेरे साथ उन्हें भी देना मान सम्मान सिर्फ़ तुमसे है इतना आस पापा का बढ़ाना नाम *********************©कॉपीराइट किरण सिंह atoot bandhan

आधी आबादी कितनी कैद कितनी आज़ाद -किरण सिंह

जटिल प्रश्न आधी आबादी कितनी कैद कितनी आजाद इसका उत्तर देना काफी कठिन है क्योंकि उन्हें खुद ही नहीं पता वे चाहती क्या हैं…! वह तो संस्कृति , संस्कारों , परम्पराओं एवं रीति रिवाजों के जंजीरों में इस कदर जकड़ी हुई हैं कि चाहकर भी नहीं निकल सकतीं…. स्वीकार कर लेती हैं गुलामी…. आदी हो जाती हैं वे कैदी जीवन जीने की पिंजरे में बंद परिंदों की तरह जो अपने साथी परिंदों को नील गगन में उन्मुक्त उड़ान भरते हुए देखकर उड़ना तो चाहते हैं किन्तु उन्हें कैद में रहने की आदत इस कदर लगी हुई होती है कि वे उड़ना भूल गए होते हैं और यदि वे पिंजरा तोड़कर किसी तरह उड़ने की कोशिश भी करते हैं तो बेचारे मारे जाते हैं अपने ही साथी परिंदों के द्वारा….! मध्यम और निम्न वर्ग की महिलाओं की तो स्थिति और भी दयनीय है वह ना तो आर्थिक रूप से आजाद हैं ना मानसिक रूप से और ना ही शारीरिक रूप से..! छटपटाती हैं वे किन्तु कोई रास्ता नहीं दिखाई देता है उन्हें और वह अपने जीवन को तकदीर का लिखा मानकर जी लेती हैं घुटनभरी जिंदगी किसी तरह…! दूसरा तबका जो सक्षम है , उड़ान भरना जानती हैं , नहीं आश्रित हैं वे किसी पर, उन्हें नहीं स्वीकार होता है कैदी जीवन, उन्हें चाहिए आजादी ,अपनी जिंदगी की निर्णय लेने की… उन्हें नहीं पसंद होता है किसी की टोका टोकी.. इसीलिए बगावत पर भी उतर जाती हैं वे कभी कभी ….! चूंकि समाज संस्कृति और परंपराओं की घूंघट ओढ़े स्त्री को देखने का आदी रहा है इसलिए स्त्री के ऐसा उन्मुक्त रुप को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता….! बदलाव की तरफ बढ़ रहा है समाज , दर्जा मिल रहा है घरों में बेटा बेटियों को बराबरी का…… कानून भी महिलाओं के पक्ष में बन रहे हैं .. फिर भी महिलाएं अभी तक आजाद नहीं हैं…खास तौर से अपने जीवन साथी के चुनाव करने में जहाँ लड़कों की पसंद को तो स्वीकार कर लिया जाता है किन्तु लड़कियों को आज भी काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है…! ******************************** ©कॉपीराइट किरण सिंह  अटूट बंधन

किरण सिंह की कवितायेँ

                    पटना की किरण सिंह जी  ने जरा देर कलम थामी पर जब से थामी तब से लगातार एक से बढ़कर एक कवितायों की झड़ी लगा दी | अतिश्योक्ति नहीं होगी कि प्रतिभा को बस अवसर मिलने की जरूरत होती है फिर वो अपना रास्ता स्वयं खोज लेती है | सावन में जब पूरी धरती क्या मानव ,क्या पशु -पक्षी ,क्या पेड़ -पौधे सब भीगते  है  तो कवि मन न भीगे ऐसा तो हो ही नहीं सकता | ऐसी ही सावन की बारिश से भीगती किरण सिंह जी की  कविताएं हम आज ‘अटूट बंधन ” ब्लॉग पर ले कर आये हैं ………. जहाँ विभिन्न मनोभाव बड़ी ही ख़ूबसूरती से पिरोये  गए हैं | तो आइये भीगिए भावनाओ की बारिश से ………… आया सावन बहका बहका************************************** बीत गए दिन रैन तपन .के आया सावन बहका बहका झेली बिरहन दिन रैन दोपहरी अग्नि समीर का झटका खत्म हो गई कठिन परीक्षा भीगत तन मन महका आया सावन…………….. आसमान का हृदय पसीजा अश्रु नयन से छलका प्रिय के लिए सज गई प्रिया हरी चूनरी घूंघट लटका आया सावन………………. देख प्रणय धरती अम्बर का बदरी का मन चहका बीच बदरी के झांकते रवि का मुख मंडल  भी दमका आया सावन…………………… रिमझिम बारिश की बूंदो में भीगी लता संग लतिका झुक धरणी को नमन कर रहीं खुशी से खुशी मिले हैं मन का आया सावन………………. चली इठलाती पवन पुरवैया तरु नाचे कमरिया लचका रुनक झुनुक पायलिया गाए संग संग कंगन खनका आया सावन…………….. इन्द्रधनुष का छटा सुहाना सतरंगी रंग ….छलका हरियाली धरती पर बिखरी अम्बर का फूटा मटका आया सावन………………….. …………………………………………. मन आँगन झूला पड़ गयो रे******************************** हरित बसन पहन सुन्दरी बहे बयार उड़ जाए चुन्दरी गिरत उठत घूंघट पट हट गये सजना से नयना लड़ गयो रे मन आँगन…………………….. लतिकाएं खुशी से झूम उठीं झुकी झुकी धरती को चूम उठीं मेघ गरज कर शंख नाद कर मिलन धरा अम्बर भयो रे मन आँगन……………………. पीहु पीहु गाए पपीहरा मन्त्रमुग्ध भये जुड़ गए जियरा पुरवाई भी बहक रही छम छम बरखा बरस गयो रे मन आँगन……………………….. ********************** सखि सावन बड़ा सताए रे*************************** जबसे उनसे लागि लगन म्हारो तन मन में लागि अगन नयन करे दिन रैन प्रतीक्षा अब दूरी सहा नहीं जाए रे सखि सावन………………… भीग गयो तन भी मन भी उर की तपन रह गई अभी भी बहे पुरवाई लिए अंगड़ाई अचरा उड़ी उड़ी जाए रे सखि सावन………………….. बगियन में झूला डारी के सखि संग झूलें कजरी गाई के रिमझिम बरखा बरस बरस नैनों से कजरा बही बही जाए रे  सखि सावन बड़ा……………….  ******************* आज फिर से मन मेरा……********************* आज फिर से मन मेरा भीग जाना चाहता है तोड़ कर उम्र का बन्धन छोड़कर दुनिया का क्रंदन गीत गा बरखा के संग संग नृत्य करना चाहता है आज फिर से मन मेरा…………………. पगडंडियों पर चलो चलें अपने कुछ मन की करें सज संवर सजना के संग मन फिसल जाना चाहता है आज फिर से मन मेरा……………. सपनों का झूला लगाकर बहे पुरवाई प्रीत पिया संग सखियों के संग सुर सजाकर संग कजरी गाना चाहता है आज फिर से मन मेरा…………….. ************************** !!! बूँदें और बेटियाँ !!!****************** बारिश की बूंदो और बेटियों में कितनी समानता है वो भी तो बिदा होकर बादलों को छोड़ चल पड़ती हैं नैहर से सिंचित करने पिया का  घर बेटियों की तरह अपने पलकों में स्वप्न सजाकर सुन्दर और सुखद उनका भी भयभीत मन सोंचता होगा कैसा होगा पीघर डरता होगा बेटियों की तरह मिले सीप सा अगर पिया का घर ले लेती हैं बूंदें आकार मोतियों का और इठलाती हैं अपने भाग्य पर बेटियों की तरह पर यदि दुर्भाग्य से कहीं गिरती हैं नालों में खत्म हो जाता उनका भी अस्तित्व वो भी रोतीं हैं अपने भाग्य पर बेटियों की तरह किरण सिंह  संक्षिप्त परिचय ……………… साहित्य , संगीत और कला की तरफ बचपन से ही रुझान रहा है ! याद है वो क्षण जब मेरे पिता ने मुझे डायरी दिया.था ! तब मैं कलम से कितनी ही बार लिख लिख कर काटती.. फिर लिखती फिर……… ! जब पहली बार मेरे स्कूल के पत्रिका में मेरी कविता छपी उस समय मुझे जो खुशी मिली थी उसका वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकती  ….! मेरा विवाह    १८ वर्ष की उम्र जब मैं बी ए के द्वितीय वर्ष में प्रवेश ही की थी कि १७ जून १९८५ में मेरा विवाह सम्पन्न हो गया ! २८ मार्च १९८८ में मुझे प्रथम पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तथा २४ मार्च १९९४ में मुझे द्वितीय पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई..! घर परिवार बच्चों की परवरिश और पढाई लिखाई मेरी पहली प्रार्थमिकता रही ! किन्तु मेरी आत्मा जब जब सामाजिक कुरीतियाँ , भ्रष्टाचार , दबे और कुचले लोगों के साथ अत्याचार देखती तो मुझे बार बार पुकारती रहती थी  कि सिर्फ घर परिवार तक ही तुम्हारा दायित्व सीमित नहीं है …….समाज के लिए भी कुछ करो …..निकलो घर की चौकठ से….! तभी मैं फेसबुक से जुड़ गई.. फेसबुक मित्रों द्वारा मेरी अभिव्यक्तियों को सराहना मिली और मेरा सोया हुआ कवि मन  फिर से जाग उठा …..फिर करने लगी मैं भावों की अभिव्यक्ति..! और मैं चल पड़ी इस डगर पर … छपने लगीं कई पत्र पत्रिकाओं में मेरी अभिव्यक्तियाँ ..! पुस्तक- संयुक्त काव्य संग्रह काव्य सुगंध भाग २ , संयुक्त काव्य संग्रह सहोदरी सोपान भाग 2 ************ atoot bandhan ………हमारा फेस बुक पेज