जिंदगी का चौराहा

                            यूँ तो चौराहे थोड़ी- थोड़ी दूर पर मिल ही जाते हैं |  जहाँ चार राहे मिलती हैं , वहीँ चौराहा बन जाता है , इसमें खास क्या है , जो इस पर कुछ कहा जाए |  जरूर आप यही सोंच रहे होंगे| मैं भी ऐसा ही सोंचती थी , जब तक थोड़ी देर ठहर कर किसी चौराहे  पर इंतज़ार करने की विवशता नहीं  आ गई | कितना कुछ सिखाता है जिंदगी का चौराहा                          वाकया अभी थोड़े दिन पहले का है , बेटे को कोई एग्जाम दिलाने जाना था | दो घंटे का समय था , मैंने सोंचा इंतज़ार कर लेते हैं , साथ ही वापस चले जायेंगे| पर सेंटर के पास बहुटी ठण्ड थी , सुबह का समय था , तो प्रकोप भी कुछ ज्यादा था | आस -पास नज़र दौड़ाई , थोड़ी दूर पर एक चौराहा था , जहाँ धूप  ने झाँकना  शुरू कर दिया था | धूप  देखते ही मैं उस तरफ ऐसे बढ़ी जैसे गुड़ को देखकर मक्खी  बढती है |खैर वाहन  से चौराहे की चारों राहों का नज़ारा साफ़ – साफ़ दिख रहा था |                           जीवन क्षण  प्रतिक्षण कैसे बदलता है | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अगर देखना हो तो चौराहा सबसे मुफीद जगह है |  हर पल चारों दिशाओं  में भागते लोग, कितनी ख़ूबसूरती से कह जाते हैं कि हर किसी की मंजिल एक नहीं है , जो किसी ने छोड़ा है वही दूसरे के लिए सबसे सही चुनाव हैं | हम सबको चुनने का मौका है| यहाँ हर कोई चुनता है और आगे बढ़ता है| यहाँ कोई शिकायत नहीं होती, मैंने ये क्यों चुना , उसने वो क्यों चुना , शिकायत  चुनाव के बाद होती है , जब अपने द्वारा चुने गए रास्ते से बेहतर दूसरे का रास्ता लगता है| क्यों जिंदगी के हर चौराहे पर हम जरा ठहर कर चुनाव नहीं करते | काश ऐसा कर पाते तो सब अपनी जिन्दगी उसी तरह से जी पाते जैसी जीना चाहते हैं | चौराहे पर गाड़ियों और लोगों की भागदौड़ में एक संतरे वाला उधर से निकला , एक संतरा जिसमें उसने बड़े ही कलात्मक ढंग से एक फूल लगाया हुआ था , ठेले से निकल कर गिर गया , उसने उठा कर रख लिया | आगे बढ़ने पर वो दोबारा गिर गया , उसने फिर उठा कर रख लिया | तभी किसी ने उसे आवाज़ दी , वो आवाज़ की दिशा में चला , तो वो संतरा फिर गिर गया , इस बार उसका ध्यान नहीं गया , वो आगे बढ़ गया , वह  फूल लगा संतरा वहीँ पड़ा रह गया | कितना सच है , जिसको हमसे मिलना होता  है और जिसको बिछड़ना दोनों को कितना भी प्रयास कर लो,रोका नहीं जा सकता | परन्तु संतरे का भाग्य को क्या कहें ,  जो यूँ ही चौराहे पर किनारे पड़ा हुआ था | उसे कोई उठा कर ले नहीं रहा था | लोग आते उससे बच कर निकल जाते , कारण समझ नहीं आ रहा था| कारण समझ आया,जब एक छोटा बच्चा जो अपनी माँ के साथ जा रहा था , उसने संतरे को  पैर से  ठोकर मार दी | उसकी माँ ने यह देख कर बच्चे को चपत लगायी ,फिर डांटते हुए बोली, ” अरे बीच चौराहे पर किसने जाने कौन सा मन्त्र करके डाल दिया होगा | कितनी बार मना  किया है कि चौराहे पर पड़ी चीज को नहीं छूते, पता नहीं कौन सी अलाय-बाले ले कर आ जाएगा| भाग्य केवल मनुष्यों का ही नहीं होता, मेरी आँखों के सामने चौराहे पर गिर पड़ा वो संतरा मनहूस घोषित हो चुका था | हम सब अपने भविष्य से कितना डरे रहते हैं, हर चौराहा इसका प्रमाण है| वही पास कुछ कबूतर दाने चुगने में लगे थे| सब साथ- साथ खा रहे थे| किसी को परवाह नहीं कौन हिन्दू है, कौन मुसलमान, कौन अमीर ,गरीब , कौन बड़ी जाति का, कौन छोटी जाति का| काश ये गुण हम कबूतरों से सीख सकते| ये धर्म ये जातियाँ हमें कितना जुदा कर देती हैं | एक खास नाम एक खास पहचान से जुड़ कर हम भले ही कुछ खास हो जाते हों , पर इंसान नहीं रह जाते| उन्हीं कबूतरों में से एक कबूतर का दाना चुगने में कोई इंटरेस्ट नहीं था , वो लगा था तिनका बीनने में … उसे नन्हे मेहमान के आने से पहले अपना घोंसला बनाना था | एक सुखद भविष्य की कल्पना ही शयद इतनी मेहनत  करने की प्रेरणा देती है| शायद  इसी आशा से पान वाला अपनी गुमटी लगा रहा .. आज ज्यादा पान बिकेंगे , फिर ..  अरररे … ये क्या? एक  साइकिल वाले की  साइकिल कार  से जरा छू गयी , छोटा सा स्क्रेच आ गया| कार  वाले ने आव- देखा न ताव , झट से गाडी से उतर दो झापड़ लगा दिए | इतने पर भी संतोष नहीं हुआ उसे माँ -बहन की तमाम गालियाँ देता हुआ गाडी ले कर चला गया| अब  साईकिल वाले ने अपनी साइकिल उठायी , इधर -उधर देखा फिर उस कार  वाले को माँ -बहन के तामाम्  गालियाँ देता हुआ विजयी भाव से चला गया | भले ही कार वाले ने न सुना हो , पर ये चौराहा साक्षी था , ये कबूतर साक्षी थे , हवा साक्षी थी , सूरज साक्षी था ,  कि उसने अपने अपमान का बदला ले लिया है| गरीब हो या अमीर , अहंकार पर चोट कौन सह सकता है?  और मैं एक बार फिर साक्षी बनी कि  पुरुषों की लड़ाई में महिलाएं अपमानित होती रही हैं … होती रहेंगी | हर चौराहे पर सबकी माँ बहने हैं अदृश्य … अपमानित | तभी एक झाड़ू वाला आया , वो  अपनी लम्बी झाड़ू से सब कुछ साफ़ कर देता है | वो चौराहा अब भी वही है बस पहले की धूल  साफ़ हो गयी , अब वो फिर से तैयार है कुछ नया लिखने को , मौका दे रहा है हमें एक बार फिर से अपनी राह चुनने को | … Read more

अब मकर संक्रांति में लड्डू बनाते हुए हाथ नहीं जलते

                                                                                     मकर संक्रांति में तिल के लड्डुओं का बहुत महत्त्व है | इसमें तिल के लड्डू बनाये , खाए और दान में दिए जाते हैं |मकर संक्रांति में तिल  स्नान भी होता है | तिल पौष्टिक और तासीर में गर्म होता है | सर्दी के दिनों में इसे खाने से सदीं से सुरक्षा होती है | तिल  के और भी बहुत लाभ हैं पर फिलहाल हम लाये हैं तिल से जुदा एक किस्सा – पढ़िए अब मकर संक्रांति में लड्डू बनाते हुए हाथ नहीं क्यों जलते    मेरी उम्र उस समय 10 या 11 साल रही होगी | संक्रांति आने वाली थी| माँ तिल के लड्डू बना रही थीं| मैंने जिद की ,कि मैं भी मदद करुँगी| माँ ने मना  किया पर मैंने हाथ तिल में डाल दिए | टेढ़े-मेढ़े  दो तीन लड्डू बनाने के बाद मेरी हिम्मत टूट गयी | हथेलियाँ लाल हो गयी| दौड़ते -दौड़ते पिताजी के पास पहुंची ,” देखिये पापा , कहकर अपनी हथेलियाँ फैला दी | पीछे से माँ भी आ रही थीं | पापा को देखते ही बोलीं,” देखिये मानी ही नहीं , हाथ जला लिए| पिताजी ने भी माँ को उलाहना देते हुए कहा ,” तुम्हें रोकना चाहिए था| ठीक से कराती, देखो कैसे हाथ लाल हो गए हैं | नहीं बानाएगी मेरी बेटी लड्डू -वद्दू , तुम ही बनाओं ,उसे तो अपनी कलम से देश बनाना है |                     उसके बाद जो भी घर आता  सबको मेरे हाथ लाल हो जाने और कलम से देश बनाने के किस्से सुनाये जाते | जो भी घर आता , सब कहते , अरे मेरी बिटिया के हाथ जल गए , तुम लड्डू न बनाना , तुम पढाई करो | मैं इस दुलार से इतरा जाती | उस समय मुझे बहुत सेलिब्रिटी सा महसूस होता |                                       उस समय का लाड , उम्र के साथ जिम्मेदारी के अहसास में बदल गया | मुझे कलम से देश बनाना है |  ढेरों किताबें , मेरी  अलमारी में सजती जा रही थीं, वो कहते हैं न जितना ज्यादा पढोगे लेखन में उतना ही निखार आएगा|  हाँ , माँ जरूर लड्डू बनाने के पीछे पड़ी रहती | सीख लो हमें ही थुकाओगी, ससुराल -ससुराल ही होती है | मैं सोंचती थी कि ससुराल की ये परिभाषा सही नहीं है |  मैं तोडूंगी ये भ्रम और अपनी कलम के माध्यम से लिखूंगी नयी परिभाषा |  माँ का मन रखने के लिए लड्डू तो क्या सीना , पिरोना सब सीखती चली गयी |  लड्डू सिखाते समय अबकी बार माँ ने कोई गलती नहीं की | उन्होंने एक बड़े कटोरे में पानी रख दिया | लड्डू बनाते हुए जैसे ही हाथ लाल हों, झट से उसमें डाल दो , थोड़ी जलन कम हो जायेगी , फिर लड्डू बनाओं |                                                 समय बीता , विवाह हुए ६ महीने ही बीते थे | पहली मकर संक्रांति थी| उससे कुछ रोज पहले ही मैंने  सार्वजानिक लेखन की इच्छा अपने पति के आगे व्यक्त की थी | उन्होंने तुरंत इनकार कर दिया | छूटते ही कहा था ,” अपने विचार और अपना ये शौक अपने पास रखो, किसी के लिखने से देश नहीं बदलता | तुम्हें ही बस नाम का शौक होगा , सेलेब्रिटी बनने  का शौक ,ये मेरे घर में बिलकुल नहीं होगा |”                    मुझे ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी |  मनाने की बहुत कोशिश की , पर वो नहीं माने | मैं रात भर तडपती रही, तकिया गीला होता रहा और वो आसानी से सोते रहे|  मन में बहुत उहापोह थी , लेखन की शुरुआत हुई नहीं थी , क्या पता सफल होऊं  या न हो सको , फिर लोग क्या कहेंगे? इतनी सी बात पर घर भी तो नहीं छोड़ा जा सकता |  यूँ ही उधेड़बुन में सुबह हो गयी |  तिल के लड्डू बनाने थे | बेखयाली में कटोरे में पानी रखना भूल गयी | दो -तीन लड्डू बनाए ही थे की हाथ जल उठे, उफ़ ! कहते हुए ध्यान गया तो दोनों हथेलियाँ लाल हो चुकी थीं | तभी सासू माँ रसोई में आई | मुझे देखते ही बोलीं ,” क्या किया हाथ जला लिए , अम्मां ने इतना भी नहीं सिखाया | बनती तो बहुत हैं , मेरी बेटी ये जानती है , वो जानती है …. वो बोले जा रही थीं ,मैंने सुनना बंद कर दिया| उठ कर एक कटोरे में पानी रख लिया , उसमें हाथ डुबोये , जलन  थोड़ी शांत हो गयी | फिर लड्डू बनाना शुरू कर दिए |                             इस घटना को बरसों बीत गए| लेखन का ख्वाब अधूरा  रह गया | अब मकर संक्रांति में लड्डू बनाते समय हाथ नहीं जलते | मकर संक्रांति ही क्यों , माँ के एक कटोरा पानी की सीख अभी भी मेरे साथ है | जब भी किसी दर्द से दिल दुखी होता है , गम की तपिश से लाल हो जाता है , तो झट से  पानी में हाथ दे देती हूँ | थोड़ी तपिश शांत हो जाती है और लग जाती हूँ , काम पर |                                         अगर आप पुरुष हैं तो सोंच रहे होंगे ,तो अवश्य सोंच रहे होंगे , आखिर ये कटोरा ले -ले कर कहाँ -कहाँ घूमती है ? और अगर स्त्री हैं तो जानते ही होंगे कि आँखों के कटोरे जब तब भर ही तो जाते हैं , निकलते पानी में हाथ डाल थोड़ी जलन शांत हो जाती है और हम … Read more

इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं

उस समय हम दिल्ली में नए-नए आये थे| मैं घर पर ही रहती थी| वो तब मेरे फ्लोर के ऊपर रहती थी| सुप्रीम कोर्ट में वकील थीं |  उनसे जान- पहचान हुई , फिर दोस्ती | उस समय उनका बेटा  2 -2 1/2 साल का रहा होगा |वो मेरे साथ हिल-मिल गया |  वो दुबारा कोर्ट जाना चाहती थीं|  पर बेटे की देखरेख को किस पर छोडें ये सोंच कर शांत हो जाती थीं| अक्सर मेरे पास आ कर अपनी समस्या कहतीं, ” ये फुल टाइम मेड भी नहीं मिलती | क्या करू? कोर्ट जाना चाहती हूँ पर  इसकी जिम्मदारी किस पर छोडू? मैं उन्हें कुछ मेड के नंबर देती जो दिन भर घर में रह कर बच्चे की देख रेख कर सके|  उन्होंने उनमें से एक से बात कर उसे दिन भर के लिए लगा लिया|                          उस दिन उनका कोर्ट जाने का पहला दिन था | बच्चा मेड के पास रहना था|जाहिर है एक माँ को अपने बच्चे को यूँ छोड़ते समय तकलीफ तो होती होगी | वो मेरे पास आयीं, और आँखों में आंसूं भर कर बोलीं,  ” भाभी जी दिल तो यहीं रखा रहेगा| पता नहीं मेड बच्चे को कैसे ट्रीट करेगी? आप एक दो चक्कर ऊपर के लगा लेना|देख लेना प्लीज | मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा,” आप क्यों चिंता करती हैं , मैं हूँ ना , देख लूंगी | मैंने कई चक्कर ऊपर के लगाए| बच्चा क्योंकि मुझसे हिला हुआ था, मुझे देख कर मेरे साथ चलने की जिद करता| कभी मैं वहीँ बैठ कर उसे खिलाती तो कभी नीचे अपने साथ ले आती| इस तरह से कई दिन बीत गए| मेड को भी आराम हो जाता |                        उस समय मेरे बच्चे भी बहुत बड़े नहीं थे| स्कूल जाते थे| एक माँ के लिए जब बच्चे स्कूल जाते हैं उस समय जो समय बचता है वो बहुत कीमती होता है| ऐसा लगता है कि ये समय सिर्फ मेरा है| मैं इस समय की रानी हूँ, जो चाहे करूँ | अब मेरा वो समय उस छोटे बच्चे के साथ कटने लगा| छोटे बच्चे को रखना आसान काम नहीं है | कब सुसु कब पॉटी या फिर कब काहना और सामान फैला दे ,  कहा नहीं जा सकता | फिर भी एक लगाव की वजह से मैं  उसकी बाल सुलभ शैतानियों में लगी रहती| बीच – बीच में उसकी मम्मी उस मेड की बुराई करती रहती ,जैसे मिठाई वगैरह  खा लेती है, उनकी क्रीम पोत लेती है आदि -आदि | मैं उन्हें वो चीजे ताले में रखने की हिदायत दे देती |                    एक दिन वो मेरे पास आई और बोली ,” अब मैं इस मेड को नहीं रखूँगी| बहुत परेशांन  करती हैं|  पैसे भी दो और परेशानी भी सहो| मेरा बेटा आप से हिला हुआ है| आप भी उसे बहुत प्यार करती हैं| ऐसा करिए आप ही उसे रख लीजिये| मैं जो पैसे मेड को देती हूँ वो आप को दे दूंगीं |                             यह सुनते ही मैं सकते मेरी  आ गयी| मेरी भावना का मोल लगाया जा रहा था| आँखे डबडबा उठी|  हालाँकि उनकी बॉडी लेंगुएज ये बता रही थी कि ये बात उन्होंने मेरा अपमान करने के लिए नहीं कहीं थी |उनकी सोंच प्रैक्टिकल थी| उन्हें लगा दिन भर घर में रहती हैं , ख़ुशी -ख़ुशी  हाँ  कर ही देंगी|                           उनकी आशा के विपरीत बहुत मुश्किल से मैंने अपने को संयत कर के कहा , ” मेरा स्वास्थ्य इतना ठीक नहीं रहता| मुझे क्षमा करें मैं बच्चे को नहीं रख पाऊँगी| इट्स ओके कह कर वो चली गयीं| उन्होंने दूसरी मेड रख ली| कुछ दिक्कतों को वो जिक्र करती रही पर मेरा ऊपर के फ्लोर पर जाना कम हो गया| शायद वो मुझसे कहतीं भाभी जी प्लीज आप रख लीजिये, मैं भी निश्चिन्त रहूंगी तो मैं इनकार न कर पाती|                  भावनाओं की कोई कीमत नहीं होती पर आजकल प्रैक्टिकल सोंच का जमाना है| वो प्रैक्टिकल सोंच जो पैसे से बनती बिगडती है| जहाँ खाली बैठना गुनाह है| जो भी समय है कुछ करने के लिए कमाने के लिए हैं | इसी लिए तो ह भावना रहित रोबोट बनते जा रहे हैं| अन्दर के तालाब को सोख पैसों के ढेर पर बैठे कैक्टस होते इंसानों इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं हैं |          वंदना बाजपेयी कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार happy birthday भैया – अटूट होता है रिश्तों का बंधन हे ईश्वर क्या वो तुम थे निर्णय लो दीदी आपको आपको  लेख “ इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं हैं “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                    

तुम्हारे पति का नाम क्या है ?

                                           आज सुबह सुबह श्रीमती जुनेजा से मुलाक़ात हो गयी | थोड़ी – थोड़ी देर में कहती जा रही थीं | रमेश की ये बात रमेश की वो बात | दरसल रमेश उनके पति हैं | वैसे भी आजकल पत्नियों द्वारा  पति का नाम लेना बहुत आम बात है | और क्यों न लें अब पति स्वामी नहीं बेस्ट फ्रेंड जो है | लेकिन श्रीमती जुनेजा जी ने मुझे अपनी प्यारी रिश्ते की भाभी जी का किस्सा याद याद दिला दिया | उनकी तकलीफ का महिलाएं आसानी से अनुमान लगा सकती हैं | ये उस समय की बात है जब पत्नियों द्वारा पति का नाम लेना सिर्फ गलत ही नहीं अशुभ मानते थे | तो भाभी  की कहानी उन्हीं की जुबानी … क्या – क्या न सहे सितम … पति के नाम की खातिर   भारतीय संस्कृति में पत्नियों  द्वारा पति का नाम लेना वर्जित है।मान्यता है नाम लेने से पति की आयु घटती है। ,अब कौन पत्नी इतना बड़ा जोखिम लेना चाहेगी ?इसलिए  ज्यादातर पत्नियाँ पति  का नाम पूछे जाने पर बच्चों को आगे कर देती हैं “बेटा  बताओं तुम्हारे पापा का नाम क्या है ?”या आस -पास खड़े किसी व्यक्ति की तरफ बहुत  याचक दृष्टि से देखती हैं, वैसे ही जैसे गज़ ,ग्राह  के शिकंजे में आने पर श्री हरी विष्णु की तरफ देखता है “अब तो तार लियो नाथ “.  इस लाचारी को देखते हुए कभी -कभी इनीसिअल्स से काम चलाने के अनुमति धर्म संविधान में दी गयी है। परंतु जरा सोचिये .. आप नयी -नयी बहू हो ,सर पर लम्बा सा घूंघट हो , और आपके साथ मीलों दूर -दूर तक कोई न हो ,ऐसे में परिवार का कोई बुजुर्ग आपसे ,आपके पति का नाम पूँछ दे तो क्या दुर्गति या सद्गति होती हैं इसका अंदाज़ा हमारी बहने आसानी से लगा सकती हैं।  आज हम अपने साथ हुए ऐसे ही हादसे को साझा करने जा रहे है। जब मुझसे पति का नाम पूंछा गया                                                          जाहिर है बात तब की जब हमारी नयी -नयी शादी हुई थी।  हमारे यहाँ लडकियाँ मायके में किसी के पैर नहीं छूती ,पैर छूने का सिलसिला शादी के बाद ही शुरू होता है। नया -नया जोश था , लगता था दौड़ -दौड़ कर सबके पैर छू  ले कितना मजा आता था जब आशीर्वाद मिलता था।  लड़कपन में में तो नमस्ते  के जवाब में हाँ, हाँ नमस्ते ही मिलता था।  हमारी भाभी ने शादी से पहले हमें बहुत सारी  जरूरी हिदायतें दी बहुत कुछ समझाया पर ये बात नहीं समझायी की पारिवारिक समारोह में किसी बुजुर्ग के पैर छूने अकेले मत जाना।अब इसे भाभी की गलती कहें या हमारी किस्मत… शादी के बाद हम एक पारिवारिक समारोह में पति के गाँव गए, तो हमने घर के बाहर चबूतरे पर बैठे एक बुजुर्ग के पाँव छू  लिए। पाँव छूते ही उन्होंने पहला प्रश्न दागा  “किसकी दुल्हन हो “? जाहिर सी बात है गर्दन तक घूँघट होने के कारण वो हमारा चेहरा तो देख नहीं सकते थे |हम  पति का नाम तो ले नहीं सकते और हमारी सहायता करने के लिए मीलों दूर -दूर तक खेत -खलिहानों और उस पर बोलते कौवों के अलावा कोई नहीं था ,लिहाज़ा हमारे पास एक ही रास्ता था की वो नाम ले और हम सर हिला कर हाँ या ना में जवाब दे। उन्होंने पूछना शुरू किया ………….                            पप्पू की दुल्हन हो ?हमने ना में सर हिला दिया।                          गुड्डू की ?                          बंटू की ?                         बबलू की ?                                         मैं ना में गर्दन हिलाती जा रही थी ,और सोच रही थी की वो जल्दी से मेरे पति का नाम ले और मैं चलती बनू। पर उस दिन सारे ग्रह -नक्षत्र मेरे खिलाफ थे। वो नाम लेते जा रहे थे मैं ना कहती जा रही थी , घडी की सुइयां आगे बढ़ती जा रही थी ,मैं पूरी तरह शिकंजे में फसी  मन ही मन  पति पर बड़बड़ा रही थी “क्या जरूरत थी इतना ख़ास नाम रखने की ,पहला वाला क्या बुरा था ?  पर वो बुजुर्ग भी हार मानने को तैयार नहीं थे| उनकी यह जानने की अदम्य इक्षा  थी की उनके सामने खड़ी जिस निरीह अबला नारी ने अकेले में उनके पैर छूने का दुस्साहस किया है वो आखिर है किसकी दुल्हन ?असली घी खाए वो पूजनीय एक के बाद एक गलत नामों की सूची बोले जा रहे थे और मैं ना में गर्दन हिलाये जा रही थी। पति के नाम के अतरिक्त ले डाले सारे नाम                                                   धीरे -धीरे स्तिथि यह हो गयी की उन्होंने मेरे पति के अतिरिक्त अखिल ब्रह्माण्ड के सारे पुरुषों के नाम उच्चारित कर दिए। जून का महीना ,दोपहर का समय ,भारी कामदार साड़ी सर पर लंबा घूँघट ,ढेर सारे जेवर पहने होने की वजह से मुझे चक्कर आने लगे। अब मैंने मन ही मन दुर्गा कवच का पाठ शुरू कर दिया “हे माँ ! अब आप ही कुछ कर सकती हैं ,त्राहि मांम ,त्राहि माम ,रक्षि माम रक्षि माम।                                                             और  अंत में जब माँ जगदम्बा की कृपा से उन्हें मेरे पति का नाम याद आया तो मेरी गर्दन इतनी अकड़ गयी थी  की न हाँ में हिल सकती थी ना ,ना में ………                             … Read more

13 फरवरी 2006

10 फरवरी 2006 वेदना पिघल कर आँखों से छलकने को आतुर थीं.. पलकें अश्रुओं को सम्हालने में खुद को असहाय महसूस कर रही थीं…जी चाहता था कि कोई अकेला कुछ देर के लिए छोड़ देता कि जी भर के रो लेती……….फिर भी अभिनय कला में निपुण अधर मुस्कुराने में सफल हो रहीं थीं ..बहादुरी का खिताब जो मिला था उन्हें….! कैसे कोई समझ सकता था कि होठों को मुस्कुराने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ रहा था…! किसी को क्या पता था कि सर्जरी से पहले सबसे हँस हँस कर मिलना और बच्चों के साथ घूमने निकलना , रेस्तरां में मनपसंद खाना खाते समय मेरे हृदय के पन्नों पर मस्तिष्क लेखनी बार बार एक पत्र लिख -लिख कर फाड़ रही थी… कि मेरे जाने के बाद……………..! 11 फरवरी 2006 11 फरवरी 2006 रात करीब आठ बजे बहन का फोन आया… पति ने बात करने के लिए कहा तब आखिरकार छलक ही पड़े थे नयनों से नीर…. और रूला ही दिए थे मेरे पूरे परिवार को… नहीं सो पाई थी  उस रात को मैं .. कि सुबह ओपेन हार्ट सर्जरी होना था…. सुबह स्ट्रेचर आता है… उसपर मुझे लेटा दिया जाता है…. कुछ दूर चलकर स्ट्रेचर वापस आता है कि सर्जरी आज नहीं होगा……! कुछ लोगों ने तो अफवाह फैला दी  थी  कि डॉक्टर नरेश त्रेहान इंडिया पाकिस्तान का क्रिकेट मैच देखने पाकिस्तान जा रहे हैं..! सर्जरी से तो डर ही रही थी | मुझे  बहाना मिल गया था हॉस्पिटल से भागने का…….. गुस्से से चिल्ला पड़ी थी मैं .. डॉक्टरों की टीम आ पहुंची थी मुझे समझाने के लिए | तभी डॉक्टर नरेश त्रेहान भी आ पहुंचे थे ,और समझाने लगे थे कि मुझे इमर्जेंसी में बाहर जाना पड़ रहा है… मैं चाहता हूँ कि मेरे प्रेजेन्स में ही आपकी सर्जरी हो…………… …..! 13 फरवरी 2006 13 फरवरी 2006 सुबह करीब ९ बजे स्कार्ट हार्ट हॉस्पिटल की नर्स ने जब स्ट्रेचर पर लिटाया और ऑपरेशन थियेटर की तरफ ले जाने लगी थी तो मुझे लग रहा था कि जल्लाद रुपी परिचारिकाएं मुझे फांसी के तख्ते तक ले जा रही हैं……… हृदय की धड़कने और भी तेजी से धड़क रही थी…. मन ही मन मैं सोंच रही थी शायद यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन है…….जी भर कर देखना चाहती थी दुनिया को……… पर नजरें नहीं मिला पा रही थी परिजनों से कि कहीं मेरी आँखें छलककर मेरी पोल न खोल दें…….मैं खुद को बिलकुल निर्भीक दिखाने का अभिनय करती रही थी परिचारिकाएं ऑपरेशन थियेटर के दरवाजे के सामने स्ट्रेचर रोक देती हैं.. और तभी किसी यमदूत की तरह डाक्टर आते हैं..  स्ट्रेचर के साथ साथ डॉक्टर भी ऑपरेशन थियेटर में मेरे साथ चल रहे थे…. चलते चलते वे अपनी बातों में उलझाने लगे थे ..जैसे किसी चंचल बच्चे को रोचक कहानी सुनाकर बातों बातों में उलझा लिया जाता है.. ! डाक्टर  ने कहा किरण जी लगता है आप बहुत नाराज हैं..! मैने कहा हाँ.. क्यों न होऊं…? और मैं हॉस्पिटल की व्यवस्था को लेकर कुछ कुछ उलाहने.देने लगी थी . तथा इसी प्रकार की कुछ कुछ बातें किये जा रही थी..! मैने डाक्टर से पूछा बेहोश करके ही ऑपरेशन होगा न..? डाक्टर ने मजाकिया अंदाज में कहा अब मैं आपका होश में ही ऑपरेशन करके आपपर एक नया एक्सपेरिमेंट करता हूँ..! बातों ही बातों में डॉक्टर ने मुझे बेहोशी का इंजेक्शन दे दिया उसके बाद मुझे क्या हुआ कुछ पता नहीं..! 14 फरवरी 2006 करीब ३६ घंटे बाद १४ फरवरी  को मेरी आँखें रुक रुक कर खुल रही थी ..! आँखें खुलते ही सामने पतिदेव को खड़े देखा तब .मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि मैं सचमुच जीवित हूँ…!कहीं यह स्वप्न तो नहीं है यह सोचकर मैने  अपने पति के तरफ अपना हाँथ बढ़ाया..जब पति ने हांथ पकड़ा तब विश्वास हुआ कि मैं सचमुच जीवित हूँ..! तब मैं भूल गई थी उन सभी शारीरिक और मानसिक यातनाओं को जिन्हे मैंने सर्जरी के पूर्व झेला था ..! उस समय जिन्दगी और भी खूबसूरत लगने लगी थी ..वह हास्पीटल के रिकवरी रूम का वेलेंटाइन डे सबसे खूबसूरत दिन लग रहा था..! अपने भाई , बहनों , सहेलियों तथा सभी परिजनों का स्नेह.., माँ का अखंड दीप जलाना……, ससुराल में शिवमंदिर पर करीब ११ पंडितों द्वारा महामृत्युंजय का जाप कराना..,…… पिता , पति , और पुत्रों के द्वारा किया गया प्रयास… कैसे मुझे जाने देते इस सुन्दर संसार से..! वो सभी स्नेहिल अनुभूतियाँ मेरे नेत्रों को आज भी सजल कर रही हैं …. मैं उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पा रही…हूँ ! आज मुझे डॉक्टर देव , नर्स देवी , और स्कार्ट हार्ट हास्पिटल एक मंदिर लगता है..! एक सकारात्मक परिवर्तन की शुरुआत थी 13 फरवरी 2006 मुझे यही अनुभव हुआ कि समस्याओं से अधिक मनुष्य एक भयानक आशंका से घिर कर डरा होता है और ऐसी स्थिति में उसके अन्दर नकारात्मक भाव उत्पन्न होने लगता है जो कि सकारात्मक सोंचने ही नहीं देता है |  उसके ऊपर से हिन्दुस्तान में सभी डॉक्टर ही बन जाते हैं….! मैं अपने अनुभव के आधार पर यही कहना चाहती हूं कि स्वास्थ्य  सम्बन्धित समस्याओं के समाधान हेतु डॉक्टर के परामर्श पर चलें…. विज्ञान बहुत आगे बढ़ चुका है इसलिए भरोसा रखें डाॅक्टर पर………. आत्मविश्वास के लिए ईश्वर पर भी भरोसा रखें……. और सबसे पहले डॉक्टर और हास्पिटल का चयन में कोई समझौता न करें .! *************** किरण सिंह मित्रों सकारात्मक सोंच बहुत कुछ बदल देती है | जरूरी है हम ईश्वर  पर और अपने ऊपर विश्वास बनाये रखे | किरण सिंह जी का यह संस्मरण आपको कैसा लगा ? पसंद आने पर शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | फ्री ई मेल सबस्क्रिप्शन लें ताकि हमारी नयी पोस्ट सीधे आपके ई मेल पर पहुंचे |  यह भी पढ़ें …….. कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार गुरु कीजे जान कर एक चिट्ठी साहित्यकार / साहित्यकार भाइयों बहनों के नाम २० पैसा

बीस पैसा

©किरण सिंह  ******** हमारे लिए गर्मी की छुट्टियों में हिल स्टेशन तथा सर्दियों में समुद्री इलाका हमारा ननिहाल या ददिहाल ही हुआ करता था! जैसे ही छुट्टियाँ खत्म होती थी हम अपने ननिहाल पहुंच जाया करते थे जहाँ हमें दूर से ही देख कर ममेरे भाई बहन उछलते – कूदते हुए तालियों के साथ गीत गाते हुए ( रीना दीदी आ गयीं…… रीना दीदी……..) स्वागत करते थे कोई भाई बहन एक हाथ पकड़ता था तो कोई  दूसरा और हम सबसे पहले  बाहर बड़े से खूबसूरत दलान में बैठे हुए नाना बाबा ( मम्मी के बाबा ) को प्रणाम करके उनके द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देकर अपनी फौज के साथ घर में प्रवेश करते थे! पढ़िए रिश्तों को सहेजती एक खूबसूरत कहानी – यकीन घर में घुसते ही हंगामा सुनकर नानी समझ जाया करतीं थीं कि यह फौज हमारी ही होगी इसलिए अपने कमरे से निकल कर बाहर तक आ जाती थीं और हम पैर छूकर प्रणाम करते तो वो अपने हथेलियों में हमारा चेहरा लेकर यह जरूर कहतीं थीं कि कातना दुबारा गईल बाड़ी बाछी हमार  ( कितनी दुबली हो गई है मेरी ) भले ही हम कितने भी मोटे क्यों न हुए हों! तब तक आ जातीं मेरी मामी जो हमें आँगन में चबूतरे पर ले जाकर पैरों को रगड़ रगड़ कर धोती थी जिससे पैरों की मालिश अच्छी तरह से हो जाया करती थी और पूरी थकान छू मंतर ! तब तक नानी कुछ खाने के लिए ले आती थीं जिसे मन से नहीं तो डर से खाना ही पड़ता था क्योंकि हम चाहे जितना भी खा लेते थे लेकिन नानी ये जरूर कहा करती थीं कि इची अने नइखे खात ( ज़रा भी अनाज नहीं खा रही है ) ! खा पीकर अपनी टोली के साथ हम बाहर निकलते तो बहुत से बड़े छोटे भाई बहन मुझे प्रणाम करते हुए चिढ़ाने के क्रम में कहते बर बाबा गोड़ लागेनी… ( बर बाबा प्रणाम) और मैं कुछ चिढ़कर या फिर हँसकर उन्हें भी साथ ले लेती थी और निकल पड़ती थी सभी नाना – नानी, मामा – मामी तथा भाई बहनों से मिलने के लिए ! पढ़िए – एक चिट्ठी साहित्यकार /साहित्यकार भाइयों बहनों के नाम अब बर बाबा मुझे क्यों कहते थे वे सब यह भी बता ही देती हूँ! हुआ यूँ कि एकबार बचपन में करीब ढाई तीन साल की उम्र में मैं भी ममेरे भाई बहनों के साथ पटरहिया स्कूल  (गाँव के प्राइमरी स्कूल में ) में गई थी! और किसी बात पर किसी से झगड़ा हो गया तो मैं जाकर बर बाबा जो बरगद के पेड़ के नीचे चबूतरे पर पत्थर की पूजा की जाती थी के सर पर बैठ गई थी… तब से मुझे ननिहाल में बर बाबा ही कहकर चिढ़ाया जाता था!  पटरहिया स्कूल इसलिए कि काठ की बनी आयताकार काली बोर्ड जिसके ठीक ऊपर छोटा सा हैंडल लगा होता था उसपर चूल्हे की कालिख से जिसे कजरी कहा जाता था पोत दिया जाता था, उसके बाद छोटी शीशी से रगड़कर पटरी को चमकाया जाता था..!  पटरी पर लाइन बनाने के लिए मोटे धागे को चाॅक के घोल में भिगोकर बहुत एहतियात के साथ पटरी के दोनों किनारों पर हाथ में धागा पकड़ कर धीरे से बराबर बराबर रख रख कर छोड़ दिया जाता था उसके बाद पटरी के हैंडल को पकड़कर खूब खूब घुमा घुमाकर गाया जाता था….. सुख जा सुख जा पटरी  अब ना लगाइब कजरी  उसके बाद उस पर सफेद चाक के घोल से बांस  के पतली लकड़ियों को कलम बनाकर लिखा जाता था | वैसे तो मेरी मामी बहुत ही शांत स्वभाव की थीं जिनकी हम सबने कभी जोर से आवाज तक नहीं सुनी थी  लेकिन एक दिन अपने करीब  तीन वर्ष के बेटे जो मुझसे आठ वर्ष छोटा है ( मेरे ममेरे भाई) को आँगन में पीटने के लिए दौड़ा रहीं थीं और वह भाग रहा था! यह देखकर मैनें मामी को टोका कि मामी ये क्या कर रही हैं इतने छोटे बच्चे को क्यों दौड़ा रही हैं? तो मामी थोड़े गुस्से में ही बोलीं रीना जी इसको पढ़ने के लिए बीस पैसा महीने में देना पड़ता है और यह है कि पढ़ता ही नहीं है!  मामी का इतना कहना था कि मेरी तो हँसी रुके नहीं रुक रही थी उनका बीस पैसा सुनकर!  क्यों कि उस गांव के मेरे नाना ही सबसे धनाढ्य व्यक्ति थे चूंकि उन दिनों गाँवों में अच्छे स्कूलों की सुविधा नहीं थी तो तब तक उसे भी पटरहिया स्कूल में प्रेक्टिस के लिए भेजा जाता था!  मेरा ममेरा भाई श्याम बिहारी सिंह ( अनु ) पढ़ने में शुरू से ही अव्वल था इसलिए मेरे पापा बलिया लेते आये.. और छठी कक्षा से वह नैनीताल में हास्टल में रह कर पढ़ाई किया… जो आज आर्मी में कर्नल है!  लेकिन आज भी मामी की बीस पैसे वाली बात याद करके मूझे बहुत हँसी आती है!  यह भी पढ़ें ………….. फेसबुक – क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं ? अतिथि देवो भव – तब और अब नवरात्र पर लें बेटी बचाओ बेटी पढाओ का संकल्प हमारे बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं Attachments area

वो पहला खत

बचपन में एक गाना  अक्सर सुनते थे  “लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में हज़ारों रंग के सितारे बन गए ” | गाना हमें बहुत पसंद था पर हमारा बाल मन सदा ये जानने की कोशिश करता ये खत सितारे कैसे  बन जाते हैं।. खैर बचपन गया हम बड़े हुए और अपनी सहेलियों को  बेसब्री मिश्रित ख़ुशी के साथ उनके पति के खत पढ़ते देख हमें जरा -जरा अंदाज़ा होने लगा कि खत सितारे ऐसे बनते हैं।  और हम भी एक अदद पति और एक अदद खत के सपने सजाने लगे।  खैर दिन बीते हमारी शादी हुई और शादी के तुरंत बाद हमें इम्तहान देने के लिए मायके   आना पड़ा।  हम बहुत खुश थे की अब पति हमें खत लिखेंगे और हम भी उन खुशनसीब सहेलियों की सूची में आ जाएंगे जिन के पास उनके पति के खत आते हैं। हमने उत्साह  में भरकर कर पति से कहा आप हमें खत लिखियेगा ,खाली फोन से काम नहीं चलेगा। खत …… न न न ये हमसे नहीं होगा  हमें शार्ट में आंसर देने की आदत है।  ,यहाँ सब ठीक है वहाँ सब ठीक होगा इसके बाद तीसरी लाइन तो हमें समझ ही नहीं आती है।  पति ने तुरंत ऐसे कहा जैसे युद्ध शुरू होने से पहले ही युद्ध विराम की घोषणा हो जाए। हमारे अरमानों  पर घड़ों पानी फिर गया। कहाँ हम अभी खड़े -खड़े ४ पेज लिख दे कहाँ ये तीसरी लाइन लिखने से भी घबरा रहे हैं।ईश्वर के भी क्या खेल हैं पति -पत्नी को जान -बूझ कर विपरीत  बनाते हैं जिससे घर में संतुलन बना रहे किसी चीज की अति न हो। हम पति को खत लिखने के लिए दवाब में ले ही रहे थे की हमारी आदरणीय सासू माँ बीच में आ गयीं और अपने पुत्र का बचाव करते हुए बोली ,” अरे ! इससे खत लिखने को न कहो | इसने आज तक हम लोगों  को खत  नहीं लिखा तुम्हें क्या लिखेगा | सासू माँ की बात सही हो सकती थी पर वो पत्नी ही क्या जो अपने पति की शादी से पहले की आदतें न बदलवा दे | हमें पता था समस्त भारतीय नर्रियाँ हमारी तरफ आशा की दृष्टि से देख रही होंगी | हम हार मानने में से नहीं थे | हम पतिदेव को घंटों पत्र लिखने  का महत्व समझाते रहे ,पर  पति के ऊपर से सारी  दलीले ऐसे फिसलती रहीं जैसे चिकने घड़े के ऊपर से पानी।  अंत में थक हार कर हमने ब्रह्मास्त्र छोड़ा ……….इस उम्र में लिखे गए खत ,खत थोड़ी न होते हैं वो तो प्रेम के फिक्स डिपाजिट होते हैं.| सोंचो    जब तुम होगे ६० साल के और हम होंगे ५५ के ,दिमाग पूरी तरह सठियाया हुआ होगा तब हम यही खत निकाल कर साथ -साथ पढ़ा करेंगे ,और अपनी नादानियों पर हँसा करेंगे।वाह रे हानि लाभ के ज्ञाता ! फिक्स डिपोजिट की बात  कहीं न कहीं पति को भा  गयी और उन्होंने खत लिखने की स्वीकृति दे दी।                       एक अदद खत की आशा लिए हम मायके आ गए। दिन पर दिन गुजरते जा रहे थे ,और खत महाराज नदारद। रोज सूना लैटर बॉक्स देख कर  हमारा मन उदास हो जाता। चाइल्ड साइकोलॉजी पढ़ते हुए भी  हमारी सायकॉलॉजी बिगड़ रही थी।  आख़िरकार हमने खत मिलने की उम्मीद ही छोड़ दी। एक दिन  बुझे मन से लेटर बॉक्स देखने के बाद हम ख़ाना खा रहे थे की हमारा ५ साल का भतीजा चिल्लाते हुए आया “बुआजी ,फूफाजी की चिठ्ठी आई है। हमारा दिल बल्लियों उछल पड़ा ,पर इससे पहले की हम खत उसके हाथ से लेते , हमारी “विलेन ”  भाभी ने यह कहते हुए खत ले लिया “पहले तो हम पढ़ेंगे “| हमें अरेंज्ड मैरिज होने के  कारण यह तो बिलकुल नहीं पता था की पति कैसा खत लिखते हैं। पर हम अपनी भाभी  के स्वाभाव से बिलकुल परिचित थे कि अगर एक लाइन भी ऊपर -नीचे हो गयी तो वो हमें  हमारे पैर कब्र में लटकने तक चिढ़ाएँगी।  लिहाज़ा हमने उनसे पत्र खीचने की चेष्टा की। भाभी पत्र ले कर दूसरी दिशा में भागीं | घर में भागमभाग मच गयी | भाभी आगे भागी हम पीछे। भागते – भागते हम सब्जी की डलिया से टकराये ,आलू -टमाटर सब बिखेरे, हम बिस्तर पर कूदे ,एक -दूसरे पर तकिया फेंकी …………… पर चिठ्ठी भाभी के ही हाथ में रही | अंततः हमें लगा कि लगता है भाभी ने भतीजे के होने में विटामिन ज्यादा खा लिए हैं भाग -दौड़ व्यर्थ है। हार निश्चित हैं | ” आधी छोड़ पूरी को धावे /आधी मिले न पूरी पावे”  के सिद्धांत पर चलते हुए हमने उन्हें पति कि पहली चिठ्ठी पढ़ने कि इज़ाज़त दे दी।                                भाभी ने  खत पढ़ना शुरू किया। . जैसे जैसे वो आगे बढ़ती जा रहीं थी उनका चेहरा उतरता जा रहा था।  धीरे से बोली ” हे भगवान !बिटिया बड़ा धोखा हो गया तुम्हारे साथ “(भाभी हमें लाड में बिटिया कहती हैं )क्या हुआ भाभी हमने डरते हुए पूंछा ?च च च निभाना तो पडेगा ही ,पर दुःख इस बात का ही की पापा से इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी। भाभी ने गंभीरता से कहा।  हमारा जी घबराने लगा “क्या हुआ भाभी ‘”बड़ी मुश्किल से ये शब्द हमारे मुह से निकले। च च च हाय बिटिया ! पापा तो चलो बूढ़े हैं पर तुम्हारे भैया भी तो गए थे लड़का देखने उनसे ये गलती कैसे हो गयी। इंजीनियर देख लिया ,आई आई टी देख लिया बस ,क्या इतना काफी है ? अरे , ये तक नहीं समझ पाये ………… ये लक्षण। हमारी आँखे भर आई। हम पिछले दिनों पति द्वारा बताई गयी बातों से अंदाज़ा लगाने लगे ………… पांचवी में साथ  पढ़ने वाली पिंकी , आठवी वाली सुधा या आई आई टी के ज़माने की मनीषा ,आखिर कौन है वो जिसने हमारा घर बसने से पहले उजाड़ दिया।  भाभी कुछ तो बाताओ ,क्या हुआ है ? न चाहते हुए भी हमरे मुह से ये शब्द निकल गए ,वैसे भी अब जानने को बचा क्या था। बिटिया ,जन्म -जन्मान्तर का साथ है ,निभाना पडेगा ,तुम्हे ही धैर्य रखना … Read more

भुलक्कडपन

वंदना बाजपेयी  पहले मैं अक्सर रास्ते भूल जाया करती थी,क्योंकि अकेले ज्यादा इधर -उधर जाने की आदत थी नहीं स्कूल -कॉलेज और घर ………बस  बात तब की है जब पति के साथ मायके गयी थी ,हमारी बेटी 6 महीने की थी ,किसी ने बताया की वहाँ एक बहुत अच्छे वैध है ,मैंने बेटी की खांसी के लिए उन्हें दिखाने के लिए पति से कहा ,एक दो दिन बीत गए पति परमेश्वर ने हमारी बात पर कोई तवज्जो ही नहीं दी। अपनी ही रियाया में हुक्म की ऐसी  नाफरमानी हमें सख्त नागवार गुजरी। हमने ऎलान कर दिया “आप अपनी दिल्ली की सल्तनत संभालिये यहाँ हमारे बहुत सारे भाई है कोई भी हमारे साथ चल देगा,मौके की नजाकत देखते हुए पति देव ने हमें सारा रास्ता समझा दिया। हमें बस इतना समझ में आया कि बड़े चौराहे से नाक की सीध में चलते हुए एक “साइन -बोर्ड “मिलेगा वहाँ से दायें ,बायें दायें ……कितना आसान …. वरीयता क्रम के हिसाब से हमने छोटे भाई को चुना। … यात्रा प्रारम्भ हुई ,उस समय हमें इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था की किसी साजिश के तहत कानपुर के जिला धिकारी ने रातों -रात वो “साइन -बोर्ड “हटवा दिया है।  …हम आगे -आगे -और आगे बढ़ते गए,बीच -बीच में भाई पूछता जा रहा था “दीदी तुम्हारी नाक कितनी सीधी है ?हम उन्नाव से आगे निकल गए …. थोडा और बढ़ते तो सीधे दूसरे शहर ,हालाँकि दूसरे शहर में हमारे बहुत रिश्तेदार रहते है ,पर अगर किसी शहर में आपके १० रिश्तेदार हो और समयाभाव के कारण आप २ से न मिल पाये। तो धारा 302 के तहत प्रश्नों के फंदे पर तब तक लटकाया जायेगा जब तक जब तक सॉरी बोलते -बोलते जुबान दो इंच लम्बी न हो जाये ,लिहाजा हमने हथियार डालते हुए आँखों में आँसू भर कर कहा “भैया मैं भूल गयी “ चीईईईईईईईईईईईईईई कि आवाज के साथ भाई ने गाड़ी रोक कर कहा “दीदी तुम्हारे चरण कहाँ है ,मैं इसी वाक्य की प्रतीक्षा कर रहा था,दरसल जीजाजी ने हमें रास्ता समझाते हुए ,यह ताकीद कर दी थी कि “बेगम साहिबा को यह एहसास दिल दिया जाये ,कि वो रास्ते भूल जाती है “ ओह्ह्हह्ह्ह्ह ! हमारा आपना भाई विरोधी खेमे में मिल चुका था और अपनी ही सरजमी पर विदेशी राजा के हाथों हमारी शिकस्त हो गयी थी ,पर उस दिन से हमें समझ आया कि जो करना है हमें अपने दम पर करना है क्यूकि पति या भाई हम अबला नारियों का कोई अपना नहीं होता … यह भी पढ़ें … निर्णय लो दीदी क्या आत्मा पूर्वजन्म के घनिष्ठ रिश्तों की तरफ खींचती है वो पहला खत इंजीनीयर का वीकेंड और खुद्दार छोटू