विद्या सिन्हा – करे फिर उसकी याद छोटी-छोटी सी बात …

फोटो क्रेडिट -इंडियन एक्सप्रेस ना जाने क्यों होता है ये जिन्दगी के साथ , अचानक ये मन  किसी के जाने के बाद , करे फिर उसकी याद   छोटी-छोटी सी बात …                          ये गीत फिल्म ‘छोटी सी बात’ में विद्या सिन्हा पर फिल्माया गया था | विद्या सिन्हा के अभिनय की तरह ये गीत भी मुझे बहुत पसंद था | बरसों पहले अक्सर ये गीत गुनगुनाया भी करती थी | फिर जैसे -जैसे विद्या सिन्हा ने फिल्मों से दूरी बना ली वैसे -वैसे मैंने भी इस गीत से दूरी बना ली | परन्तु आज  जैसे ही विध्या सिन्हा की मृत्यु की खबर आई … ये गीत किसी सुर लय ताल में नहीं , एक सत्य की तरह मेरे मन में उतरने लगा और विद्या सिन्हा की फिल्में उनसे जुडी तमाम छोटी बड़ी बातें स्मृति पटल पर अंकित होने लगीं | विद्या सिन्हा – करे फिर उसकी याद   छोटी-छोटी सी बात …                           साधारण शक्ल सूरत लेकिन भावप्रवण अभिनय वाली विद्या सिन्हा ने ‘रजनीगंधा फिल्म से अपन फ़िल्मी कैरियर शुरू किया | ये फिल्म मन्नू भंडारी जी की कहानी ‘यही सच है ‘पर आधारित थी | ये कहानी एक ऐसी पढ़ी -लिखी शालीन लड़की की कहानी है जो अपने भूतपूर्व और वर्तमान प्रेमियों में से किसी एक को चुनने के मानसिक अंतर्द्वंद में फंसी हुई है |  बासु दा निर्देशित इस कहानी में विद्या सिन्हा ने अपने अभिनय से प्राण फूंक दिए |  उन पर फिल्माया हुआ गीत ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे महके जैसे आँगन में  / यूँही महके प्रीत पिया की मेरे अनुरागी मन में “बहुत लोकप्रिय हुआ | उनकी सादगी ने दरशकों को मोहित कर दिया | उसके बाद उन्होंने कई फिल्में करीं | ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने ग्लैमर की जगह सादगी और भावप्रवण अभिनय पर ध्यान केन्द्रित किया | शीघ्र ही उनकी पहचान एक सशक्त अभिनेत्री के रूप में होंने लगीं | उन्होंने ज्यादातर सेमी आर्ट फिल्मों में अपना योगदान दिया | फिर भी छोटी सी बात और पति पत्नी और वो की लड़की सायकल वाली को कौन भूल सकता है |  फ़िल्मी जीवन उनका चाहें जैसरह हो पर निजी जीवन बेहद दुखद था | जिसका असर फ़िल्मी जीवन पर भी पड़ा | और उन्होंने निराशा में बहुत जल्दी फिल्मों से दूरी बना ली | अभी हाल में वो फिर से एक्टिव हुईं थी पर ईश्वर ने उन्हें तमाम साइन प्रेमियों से छीन कर अपने पास बुला लिया |  उनका जन्म 15 नवम्बर १९४७ में हुआ था | उन्हें जन्म देते ही उनकी माँ की मृत्यु हो गयी | उनके पिता एस .मान सिंह प्रसिद्द  सहायक निर्देशक  थे | पर माके बिना उनका लालन -पालन उनके नाना मोहन सिन्हा के याहन हुआ जो प्रसिद्द निर्देशक थे | मोहन सिन्हा को ही मधुबालाको सुनहरे परदे पर लाने का श्रेय  जाता है |  विद्या सिन्हा का एक्टिंग को कैरियर बनाने का इरादा नहीं था परतु उनकी एक आंटी ने उन्हें मिस बॉम्बे प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए मना लिया | उन्होंने १७ वर्ष की आयु में इस प्रतियोगिता को जीता | उसके बाद उनका मोड्लिंग का सफ़र शुरू हो गया १८ वर्ष की आयु तक वो कई मैगजींस के कवर पर आ चुकी थीं | उसी समय उनकी मुलाकात वेंकेटश्वरन अय्यर से हुई | ये मुलाकात प्रेम में बदली और उन्होंने १९६८ में उनसे विवाह कर लिया | विवाह के बाद भी वो मोडलिंग करती रहीं | बासु दा ने उन्हें एक मैगजीन के कवर पर देख कर अपनी फिल्म के लिए उनसे कांटेक्ट किया | १९७४ में उन्होंने रजनीगंधा में काम किया जो बहुत हित फिल्म साबित हुई उसके बाद बासु दा उनके मेंटर और शुभचिंतक के रूप में उनका साथ देने लगे |  १२ साल तक उन्होंने अभिनय क्षेत्र की ऊँचाइयों को छुआ | फिर उन्होंने एक बच्ची जाह्नवी को गोद लिया और उसकी परवरिश के लिए उस समय फ़िल्मी दुनिया को विदा कह दिया जब उनका कैरियर पीक पर था | अपने पति और बच्ची के साथ उन्होंने थोडा सा ही जीवन शांति से गुज़ार पाया होगा कि उनके पति की मृत्यु (1996 ) हो गयी | उसके बाद वो अपनी बेटी के साथ (2001)ऑस्ट्रेलिया चली गयीं ताकि इन दर्दनाक यादों से दूर रह कर अपनी बेटी की अच्छी परवरिश कर सकें | यहीं पर उनकी मुलाक़ात भीमराव शालुंके  से हुई |कुछ समय बाद दोनों ने शादी कर ली | शालुंके का व्यवहार उनके प्रति अच्छा नहीं था | शारीरिक व् मानसिक प्रताड़ना से तंग आकर उन्होंने (२००९ ) में तलाक ले लिया | जिसके खिलाफ उन्होंने FIR भी दर्ज की थी |  बेटी के समझाने पर उन्होंने फिर से अभिनय की दुनिया में कदम रखा | 2004 में एकता कपूर के सीरियल काव्यांजलि से उन्होंने टीवी में अभिनय की शुरुआत की | हालांकि अभिनय उन्होंने इक्का दुक्का फिल्मों और सीरियल में ही किया |  वो काफी समय से वो वेंटिलेटर पर थी और आज  १५ अगस्त 2019 को  ७१ वर्ष की आयु में उन्होंने अपने इस जीवन के चरित्र का अभिनय पूरा कर उस लोक में प्रस्थान किया | भले ही आज वो हमारे बीच नहीं है पर अपने सादगी भरे अभिनय के माध्यम से वो अपने चाहने वालों के बीच में सदा रहेंगी |  *सत्यम शिवम् सुन्दरम में पहले रूपा का रोल उन्हें ही ऑफर किया गया था जिसे उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि वो कम कपड़ों में सहज  महसूस नहीं करती |  यह भी पढ़ें … हैरी पॉटर की लेखिका जे के रॉलिंग का अंधेरों से उजालों का सफ़र लोकमाता अहिल्या बाई होलकर डॉ .अब्दुल कलाम -शिक्षा को समर्पित थी उनकी जीवनी स्टीफन हॉकिंग -हिम्मत वालें कभी हारते नहीं आपको  फिल्म समीक्षा    “विद्या सिन्हा – करे फिर उसकी याद   छोटी-छोटी सी बात …“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  filed under -vidya sinha                   … Read more

वैज्ञानिक व् अध्यात्मिक विकास के समन्वय के प्रबल समर्थक थे स्वामी विवेकानंद

Cultural India से साभार हम सब के आदर्श स्वामी विवेकानंद, जिन्होंने भारतीय संस्कृति व् दर्शन का पूरे विश्व में प्रचार -प्रसार किया और वेदांत पर आधारित जीवनशैली ( जो समाजवाद पर आधारित है ) पर जोर दिया | जीवन पर्यंत वो धार्मिक कर्मकांड आदि विसंगतियों को दूर करने का प्रयास करते रहे | उनके आध्यात्मिक दर्शन के बारे में अधिकतर लोग जानते हैं पर बहुत कम लोगों को उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बारे में पता है | वो आध्यात्म और विज्ञानं के समन्वय पर जोर देते थे | उन्होंने अपने भाई को सन्यास में दीक्षा लेने के स्थान पर इलेक्ट्रिकल इंजिनीयर बनने को प्रेरित किया |उनका मानना था कि अगर जीवन के ये आन्तरिक और बाह्य पहलू मिल जाएँ तो विश्व चिंतन के शिखर पर पहुँच जाएगा | तो आइये जानते हैं उनके जीवन के इस दूसरे पहलू के बारे में …  वैज्ञानिक व् अध्यात्मिक विकास के समन्वय के प्रबल समर्थक थे स्वामी विवेकानंद  भारत के महानतम समाज सुधारक, विचारक और दार्शनिक स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हुआ था। वह अध्यात्म एवं विज्ञान में समन्वय एवं आर्थिक समृद्धि के प्रबल समर्थक थे। स्वामी विवेकानंद के अनुसार ‘‘लोकतंत्र में पूजा जनता की होनी चाहिए। क्योंकि दुनिया में जितने भी पशु–पक्षी तथा मानव हैं वे सभी परमात्मा के अंश हैं।’’  स्वामी जी ने युवाओं को जीवन का उच्चतम सफलता का अचूक मंत्र इस विचार के रूप में दिया था –  ‘‘उठो, जागो और तब तक मत रूको, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये।’’              स्वामी विवेकानंद का वास्तविक नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता के एक सफल वकील थे और मां श्रीमती भुवनेश्वरी देवी एक शिक्षित महिला थी। अध्यात्म एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नरेन्द्र के मस्तिष्क में ईश्वर के सत्य को जानने के लिए खोज शुरू हो गयी। इसी दौरान नरेंद्र को दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी रामकृष्ण परमहंस के बारे में पता चला। वह विद्वान नहीं थे, लेकिन वह एक महान भक्त थे। नरेंद्र ने उन्हें अपने गुरू के रूप में स्वीकार कर लिया। रामकृष्ण परमहंस और उनकी पत्नी मां शारदा दोनों ही जितने सांसारिक थे, उतने आध्यात्मिक भी थे। नरेन्द्र मां शारदा को बहुत सम्मान देते थे। रामकृष्ण परमहंस का 1886 में बीमारी के कारण देहांत हो गया। उन्होंने मृत्यु के पूर्व नरेंद्र को अपने उत्तराधिकारी के रूप में नामित कर दिया था। नरेंद्र और रामकृष्ण परमहंस के शिष्यों ने संन्यासी बनकर मानव सेवा के लिए प्रतिज्ञाएं लीं।             1890 में नरेंद्रनाथ ने देश के सभी भागों की जनजागरण यात्रा की। इस यात्रा के दौरान बचपन से ही अच्छी और बुरी चीजों में विभेद करने के स्वभाव के कारण उन्हें स्वामी विवेकानंद का नाम मिला। विवेकानंद अपनी यात्रा के दौरान राजा के महल में रहे, तो गरीब की झोंपड़ी में भी। वह भारत के विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृतियों और लोगों के विभिन्न वर्गो के संपर्क में आये। उन्होंने देखा कि भारतीय समाज में बहुत असंतुलन है और जाति के नाम पर बहुत अत्याचार हैं। भारत सहित विश्व को धार्मिक अज्ञानता, गरीबी तथा अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ 1893 में स्वामी विवेकानंद शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका गए। ‘स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर 1893 में अमेरिका के शिकागो की विश्व धर्म संसद में ऐतिहासिक तथा सार्वभौमिक सत्य का बोध कराने वाला भाषण दिया था।  इस भाषण का सार यह था कि धर्म एक है, ईश्वर एक है तथा मानव जाति एक है।              स्वामी विवेकानंद अपनी विदेश की जनजागरण यात्रा के दौरान इंग्लैंड भी गए। स्वामी विवेकानंद इंग्लैण्ड की अपनी प्रमुख शिष्या, जिसे उन्होंने नाम दिया था भगिनी (बहन) निवेदिता। विवेकानंद सिस्टर निवेदिता को महिलाओं की एजुकेशन के क्षेत्र में काम करने के लिए भारत लेकर आए थे। स्वामी जी की प्रेरणा से सिस्टर निवेदिता ने महिला जागरण हेतु एक गल्र्स स्कूल कलकत्ता में खोला। वह घर–घर जाकर गरीबों के घर लड़कियों को स्कूल भेजने की गुहार लगाने लगीं। विधवाओं और कुछ गरीब औरतों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से वह सिलाई, कढ़ाई आदि स्कूल से बचे समय में सिखाने लगीं। जाने–माने भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस की सिस्टर निवेदिता ने काफी मदद की, ना केवल धन से बल्कि विदेशों में अपने रिश्तों के जरिए। वर्ष 1899 में कोलकाता में प्लेग फैलने पर सिस्टर निवेदिता ने जमकर गरीबों की मदद की।             स्वामी जी ने अनुभव किया कि समाज सेवा केवल संगठित अभियान और ठोस प्रयासों द्वारा ही संभव है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए स्वामी विवेकानंद ने 1897 में रामकृष्ण मिशन की शुरूआत की और अध्यात्म, वैज्ञानिक जागरूकता एवं आर्थिक समृद्धि के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपने युगानुकूल विचारों का प्रसार लोगों में किया। अगले दो वर्षो में उन्होंने बेलूर में गंगा के किनारे रामकृष्ण मठ की स्थापना की। उन्होंने भारतीय संस्कृति की अलख जगाने के लिए एक बार फिर जनवरी, 1899 से दिसंबर, 1900 तक पश्चिम देशों की यात्रा की। स्वामी विवेकानंद का देहान्त 4 जुलाई, 1902 को कलकत्ता के पास बेलूर मठ में हो गया।  स्वामी जी देह रूप में हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके अध्यात्म, वैज्ञानिक जागरूकता एवं आर्थिक समृद्धि के विचार युगों–युगों तक मानव जाति का मार्गदर्शन करते रहेंगे।               प्रधानमंत्री श्री मोदी स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानते हैं। भारतीय संस्कृति की सोच को विश्वव्यापी विस्तार देने की प्रक्रिया को आज प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी निरन्तर अथक प्रयास कर रहे हैं। जब से उन्होंने देश की बागडोर अपने हाथों में ली है, तब से सनातन संस्कृति की शिक्षा को आधार मानते हुए इसके प्रसार के लिए वे ‘अग्रदूत’ की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। श्री मोदी न केवल सनातन संस्कृति के ज्ञान को माध्यम बनाकर विश्व समुदाय को जीवन जीने का नवीन मार्ग बता रहे हैं, बल्कि भारत को एक बार फिर विश्वगुरू के रूप में स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस दृष्टिकोण को ‘माय आइडिया आफ इंडिया’ के रूप में कई बार संसार के समक्ष भी रखा है। श्री मोदी का कहना है कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा बताए गए मार्ग पर चलते हुए हमें देश के प्रत्येक व्यक्ति का आत्मविश्वास तथा जीवन स्तर बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत करना है।             देश के प्रसिद्ध विज्ञानरत्न लक्ष्मण … Read more

वाटर मैंन ऑफ़ इंडिया राजेन्द्र सिंह -संकल्प लो तो विकल्प न छोड़ो

                                 क्या आप ने कभी कोई संकल्प लिया है … जैसे सुबह जल्दी उठने का चार घंटे रोज मैथ्स लगाने का या मॉर्निंग वाक , मेडिटेशन, वजन घटाना आदि करने का | अवश्य लिया होगा और ज्यादातर लोगों की तरह सम्भावना है कि आप का ये संकल्प टूट भी गया होगा | क्योंकि  सोचा होगा कि  चार घंटे रोज़ पढने के स्थान पर तीन घंटे  भी तो पढ़ा जा सकता है या कभी मित्र के आ जाने पर  या मूवी देखने वाले दिन कुछ भी नहीं पढ़ा जा सकता है | आज वाक  का मन नहीं है कल जायेंगे , कल ज्यादा कर लेंगे | मेडिटेशन में तो ध्यान भटक जाता है …. क्यों  रोज करें , पार्क में शांत बैठना अपने आप में मेडिटेशन है | अरे डाईट कंट्रोल से वजन तो घटता हीओ नहीं फिर क्यों मनपसंद खाने के लिए मन मारे                                                      ये सब कोई बड़े संकल्प नहीं हैं … बहुत छोटे हैं … फिर भी टूट जाते हैं | कहने का मतलब ये है कि हम बहुत सारे संकल्प लेते और तोड़ते रहते हैं | क्या आप जानते हैं कि सिर्फ और सिर्फ यही हमारी असफलता का राज है |  आज हम बात करेंगे “ Water man of  India” के नाम से जाने जाने वाले राजेन्द्र सिंह जी की जिन्होंने अपने संकल्प से राजस्थान को हरा-भरा बनाने का प्रयास किया है | अनेकों पुरूस्कार जीत चुके राजेन्द्र जी वर्षों गुमनामी में चुपचाप बस अपना काम करते रहे | उनसे जब उनकी सफलता का राज पूंछा जाता है तो वो हमेशा यही कहते हैं कि लोगों को संकल्प नहीं लेने चाहिए , लेकिन अगर संकल्प ले लिया है तो फिर उसके सारे विकल्प बंद कर देने चाहिए और उसी संकल्पित काम में जुट जाना चाहिए | ये वाक्य खुद राजेन्द्र सिंह ने एक सेमीनार में  साझा किया है , जिसे हम अपने शब्दों में आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं |  आइये जाने उनकी कहानी-  वाटर मैंन ऑफ़ इंडिया राजेन्द्र सिंह -संकल्प लो तो विकल्प न छोड़ो                                                      कहते हैं की जहाँ चाह  है वहां राह है | राजेन्द्र सिंह उत्तर प्रदेश के बागपत निवासी थे | उनका जन्म ६ अगस्त १९५९ को हुआ था | उन्होंने हिंदी साहित्य में स्नातक की डिग्री ली थी | उनके पिता जमींदार थे | उनके पास ६० एकड़ जमीन थी | राजेन्द्र सिंह को कोई दिक्कत नहीं थी | वो आराम से जीवन यापन कर सकते थे परन्तु वो समाज के लिए कुछ करना चाहते थे | उन्होंने १९७५ में एक संस्था ” तरुण भगत सिंह बनायीं | अच्छी नौकरी को छोड़ कर अपना सब कुछ २३००० रुपये में बेंच कर समाज के लिए कुछ करने की अंत: पुकार उन्हें  घर से बहुत दूर अलवर के एक छोटे से गाँव में ले गयी | एक निश्चय के साथ  ” water man of India ” अपने चार दोस्तों के साथ अलवर के छोटे छोटे से गाँव में गए | वो चारों  गाँव में शिक्षा का प्रचार करना चाहते थे , परन्तु गाँव में कोई पढ़ने  को तैयार ही नहीं था | राजेन्द्र सिंह व् उनके दोस्त बहुत हताश हुए |  एक दिन गाँव के एक बूढ़े व्यक्ति ने उन्हें अपने पास बुलाया और कहा ,” हमारे घर की औरतें पानी लेने के लिए २५ -२५ किलोमीटर दूर जाया करती हैं | अगर तुम लोग पानी की समस्या का समाधान कर सको तो मैं वचन देता हूँ कि तुम जो कहोगे , गाँव के सब लोग मानेगें | राजेन्द्र सिंह ने उन्हें समझाने की कोशिश की , कि वो तो शिक्षक हैं वो कैसे ये काम कर सकते हैं | पर बुजुर्ग बोले ,” अब जो है सो है , मैंने तो अपनी शर्त रख दी |  तुम लोगों को खाना मिलेगा व् रहने की जगह मिलेगी पर पैसे हम नहीं दे पायेंगे , अब ये तुम पर है या तो हाँ बोलो और काम शुरू करो या वापस लौट जाओ | उन बुजुर्ग ने उन्हें पानी लाने का रास्ता भी बताया | बुजुर्ग ने कहा की हमारे गाँव में ये जो पहाड़ है , उसे काट कर तुम्हें नहरे बनानी हैं व् नीचे गाँव में तालाब बनाना है | जब बादल आयेंगे तो पहाड़ से टकरा कर बरसेंगे, जिससे नहरों से होता हुआ पानी तालाब में इकट्ठा होगा और हम उसे पीने में इस्तेमाल करेंगे | ये पानी जमीन के अन्दर भी जाएगा जिससे वाटर टेबल उठेगा | जिससे भविष्य में हमारे गाँव में कुए भी खोदे जा सकेंगे |और पानी की समस्या से जूझ रहा हमारा गाँव ल्लाह्लाहा उठेगा |   राजेन्द्र सिंह का संकल्प और प्रारंभिक अडचनें  राजेन्द्र  सिंह ने अपने साथियों से बात की | जाहिर है काम बहुत कठिन था , परन्तु उससे लोगों का बहुत भला किया जा सकता था | काफी सोच –विचार के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि वो ये काम करेंगें | उन्होंने उन बुजुर्ग व्यक्ति को अपना निर्णय सुना दिया | बुजुर्ग व्यक्ति ने खुश हो कर उनके रहने की व्यवस्था कर दी | अगले दिन सुबह से काम पर जाने का निश्चय हुआ | रात में वो पाँचों सोने चले गए | रात के करीब दो बजे होंगे कि राजेन्द्र सिंह के दो दोस्तों ने उन्हें उठाया और कहा कि, भैया तुम तो बहुत हिम्मत वाले हो तुम शायद ये काम कर सको पर हम लोगों के अन्दर इतना motivation नहीं है | हम ये काम नहीं कर पायेंगे | राजेन्द्र सिंह व् उनके दोनों साथियों ने  जाने वाले साथियों को बहुत समझाया | विनती की , “रुक जाओं , ये एक अच्छा काम है , देखो अगर हम  हम पांच लोग ये काम करेंगें तो शायद काम ५, ६ सालों में हो जाए पर अगर हम तीन लोग ही करेंगे तो काम होने में १५ , १६ साल लग … Read more

कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़ ए बयां और …

जब – जब उर्दू शायरी की बात होगी तो ग़ालिब का जिक्र न हो ऐसा हो ही नहीं सकता | जिसको  दूर – दूर तक शायरी में रूचि न हो उससे भी अगर किसी शायर का नाम पूंछा जाए तो वो नाम ग़ालिब का ही होगा | अगर उन्हें शायरी का शहंशाह  कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी | दरसल ग़ालिब की शायरी महज शब्दों की जादूगरी नहीं थी उसमें उनके जज्बात की मिठास ऐसे ही घुली  थी जैसे पानी में शक्कर … जो पीने वालों को एक सुकून नुमा अहसास कराती है | हालांकि ग़ालिब की जिंदगी बहुत दर्द में गुज़री , ये दर्द उनके जज्बातों में घुलता – मिलता उनकी शायरी  में पहुँच गया | ग़ालिब बुरा न मान जो वैज बुरा कहे  ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे   मिर्जा ग़ालिब की जीवनी /Biography of Mirza Ghalib अपनी शायरी से लोगों के दिलों में राज करने वाले ग़ालिब का असली नाम मिर्जा असद उल्ला बेग खान था | जो उर्दू और फ़ारसी में शायरी करते थे | वो अंतिम भारतीय शासक बहादुर शाह जफ़र के दरबारी कवि थे | उनके मासूम दिल ने उस समय का ग़दर व् मुग़ल काल का पतन अपनी आँखों से देखा था | एक संवेदनशील शायर का ह्रदय उस समय के यथार्थ , प्रेम और दर्शन का मिला जुला रूप  में बिखरने लगा | हालांकि उस समय उन्हें कल्पना वादी बता कर उनकी शायरी का बहुत विरोध हुआ |इतने विरोधों के बाद भी उनकी ग़ालिब की शायरी आज भी शायरी क शौकीनों  की पहली पसंद बनी हुई है तो कुछ तो खास होगा ग़ालिब में | हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे  कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और ..  ग़ालिब का आरंभिक जीवन मिर्जा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर 179७ को आगरा में हुआ था | ग़ालिब मूलत : तुर्क थे | उनके दादा मिर्जा कोबान बेग खान समरकंद के रहने वाले थे जो अहमद शाह के शाशन काल में भारत आये थे | हालाँकि मात्रभाषा तुर्की होने के कारण अपने आरम्भिक प्रवास के दौरान उन्हें बड़ी दिक्कते आई | क्योंकि वो हिन्दुस्तानी के कुछ टूटे फूटे शब्द ही बोल पाते थे | कुछ दिन लाहौर रहने के बाद वो दिल्ली चले आये | उनके चार बेटे व् तीन बेटियाँ थी |उनके बेटे अब्दुल्ला बेग ग़ालिब के वालिद थे | उनकी माँ इज्ज़त –उत –निशा –बेगम कश्मीरी मुल्क की थी | जब ग़ालिब मात्र पांच साल के थे तभी उनका इंतकाल हो गया | कुछ समय बाद ग़ालिब के एक चाचा का भी इंतकाल हो गया | उनका जेवण अपने चाचा की पेंशन पर निर्भर था | ग़ालिब जब मात्र 11 साल के थे तब उन्होंने शायरी लिखना शुरू कर दिया | उनकी आरम्भिक शिक्षा उनकी शिक्षित माँ द्वारा घर पर ही हुई | बाद में उन्होंने जो कुछ सीखा सब स्वध्याय व् संगति का असर था | कहने की जरूरत नहीं की ग़ालिब के सीखने की ललक व् काबिलियत इतनी ज्यादा थी की वो फ़ारसी भी यूँ ही सीख गए | ईश्वर के रहमो करम से वो जिस मुहल्ले में रहे वहां कई शायर रहते थे | जिनसे उन्होंने शायरी की बारीकियां सीखीं | हमको मालूम  है जन्नत की हकीकत लेकिन  दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है  मात्र १३ साल की उम्र में उन्होंने उमराव बेगम से निकाह कर लिया | बाद में वो उनके साथ दिल्ली आ कर बस गए | यहीं उनके साथ उनका छोटा भाई भी रहता था | जो दिमागी रूप से अस्वस्थ था | सन १८५० में ग़ालिब अंतिम मुग़ल शासक  बहादुर शाह जफ़र के दरबार में उन्हें शायरी सिखाने  जाने लगे | बहादुर शाह जफ़र को भी शायरी का बहुत शौक था | उन्हें ग़ालिब की शायरी बहुत पसंद आई | इसलिए वो वहां दरबारी कवि बन गए | शायरी  की दृष्टि से वो एक बहुत ही अच्छा समय था |आये दिन महफिलें सजती और शेरो शायरी का दौर चलता | ग़ालिब को दरबार मे बहुत सम्मान हासिल था | उनकी ख्याति दूर दूर तक पहंचने लगी | इसी समय उन्हें दो शाही सम्मान “ दबीर उल मुल्क “ और नज़्म उद  दौला” का खिताब मिला |  पर समय पलटा  ग़ालिब के भाई व् उनकी सातों संतानों की मृत्यु हो गयी | बहादुर शाह के शासन का अंत और उन्हें मिलने वाली पेंशन भी बंद हो गयी | थी खबर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे  देखने हम भी गए पर तमाशा न हुआ  ग़ालिब का व्यक्तित्व  अपनी शायरी की सुन्दरता की तरह ही ग़ालिब एक आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थी | ईरानी होने के कारण बेहद गोरा रंग , लम्बा कद , इकहरा  बदन व् सुडौल नाक उनके व्यक्तिव में चार – चाँद लगाती थी | ग़ालिब की ननिहाल बहुत सम्पन्न थी | वो खुद को बड़ा रईसजादा  ही समझते थे | इसलिए अपने कपड़ों पर बहुत ध्यान देते थे |कलफ लगा हुआ चूड़ीदार पैजामा व् कुरता उनकी प्रिय पोशाक थी | उस पर सदरी व् काली टोपी उन पर खूब फबती  थी |ग़ालिब हमेशा कर्ज में डूबे  रहे पर उन्होंने अपनी शानो शौकत में कोई कमी नहीं आने दी |जब घर से बाहर जाते तो कीमती लबादा पहनना नहीं भूलते | मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का  उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले  ग़ालिब का रचना संसार ग़ालिब ने गद्य लेखन की नीव रखी इस कारण उन्हें वर्तमान  उर्दू गद्य का जनक  का सम्मान भी दिया जाता है | इनकी रचनाएँ “लतायफे गैबी”, दुरपशे कावयानी ”, “नाम ए  ग़ालिब” , “मेह्नीम आदि गद्य में हैं | दस्तंब में उन्होंने १८५७ की घटनाओं का आँखों देखा विवरण लिखा है | ये गद्य फारसी में है | गद्य में उनकी भाषा सदा सरल और सुगम्य रही है | तोडा उसने कुछ ऐसे ऐडा से ताल्लुक ग़ालिब  कि सारी  उम्र हम अपना कसूर ढूंढते रहे   “कुलियात”में उनकी फ़ारसी कविताओं का संग्रह है |उनकी निम्न  लोकप्रिय किताबें  हैं .. उर्दू ए  हिंदी उर्दू ए मुअल्ला “नाम ए ग़ालिब “लतायफे गैबी”, दुरपशे कावयानी                       इसमें उनकी कलम से देश की तत्कालीन , सामजिक , राजनैतिक और आर्थिक स्थिति का वर्णन हुआ है … Read more

सब कुछ संभव है : बिना -हाथ पैरों वाले निक व्युजेसिक कि प्रेरणादायक कहानी

फोटो क्रेडिट –विकिमीडिया कॉमन्स ईश्वर से शिकायतें करना सबसे आसान काम है | हम सब इसे बड़ी कुशला से करते भी हैं | क्या आप को नहीं लगता की हममें  से सबकी शिकायत रहती है की हम इसलिए सफल नहीं हो पाए क्योंकि हमारे पास ये ये या वो वो नहीं था | जो दूसरे सफल व्यक्तियों के पास है | पर जब आप एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जानेगे जिसके हाथ पैर ही नहीं हैं |और वो व्यक्ति सफल मोटिवेशनल स्पीकर है | जिसने अपनी शारीरिक कमियों के बावजूद न सिर्फ अपनी जिन्दगी को संवारा बल्कि वो अनेकों जिन्दिगियों  को सफल जीवन जीने की प्रेरणा दे रहा है | यकीनन आप उसके बाद उसके साहस को नमन करते हुए कहेंगे की    “सब कुछ संभव है” …… निकव्युजेसिक  शारीरिक रूप से विकलांग है | जब वो पैदा हुए थे तभी से उनके हाथ – पैर नहीं थे | डॉक्टरों ने जन्म के समय उन्हें वेजिटेटिव घोषित कर दिया था |अपने छोटे से पैर और दो अँगुलियों के बल पर तन और मन की जंग जीतने वाले  निक आज एक सफल मोटिवेशनल स्पीकर हैं | उनकी कहानी है कठिन संघर्ष पर महान विजय की | आज हम “ a man without limbs “ प्रेरणा दायक कहानी आप के साथ साझा कर रहे हैं जो आपको सोंचने पर विवश कर देगी … चमत्कार आसमानी खुदाओं की जादुई छड़ी से नहीं अपनी इच्छा शक्ति पर निर्भर होते हैं | आइये जानते हैं बिना हाथ पैरों वाले निक व्युजेसिक के बारे में  निक व्युजेसिक का पूरा नाम निकोलस जेम्स व्युजेसिक है |निक उनका “ निक नेम है | उनका जन्म 4 दीसंबर 1982 को ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न शहर में हुआ था | निक की माँ का नाम दुशांका व् पिता का नाम बोरिस्लाव व्युजेसिक है | निक के माता – पिता सर्बिया के मूल निवासी थे | वो ऑस्ट्रेलिया में आ कर बस गए थे |  उनके पिता अकाउंटेंट व् माँ हॉस्पिटल में नर्स का काम करती थी | निक के जन्म से पहले उसकी माँ भी वैसे ही उत्त्साहित थीं जैसे कोई सामान्य माँ होती है | परन्तु निक का जन्म एक सामान्य बच्चे की तरह नहीं हुआ | वो टेट्रा अमेलिया सिंड्रोम से पीड़ित थे | टेट्रा एमिलिया सिंड्रोम एक ग्रीक शब्द है जहाँ टेट्रा का अर्थ चार व् एमिलिया का अर्थ एब्सेंस ऑफ़ आर्म्स है | ये एक बहुत रेयर डिसीज है | जिस कारण उनके उनके हाथ पैर थे ही नहीं | जन्म के समय निक के एक पैर में कुछ जुडी हुई अंगुलियाँ थीं | इस बिमारी के साथ पैदाहुए ज्यादातर बच्चे स्टील बोर्न पैदा होते हैं या जन्म के कुछ समय बाद ही मर जाते हैं |       निक को देखने के बाद नर्स ने उसकी माँ को मानसिक रूप से तैयार करने के लिए उन्होंने उसे एकदम से देखने भी नहीं दिया | वो बहुत निराश हुई हालंकि बाद में उसके माता – पिता सामान्य हो गए | डॉक्टर्स ने निक की जुडी हुई अंगुलियाँ अलग – अलग करने के लिए ओपरेशन किया ताकि निक उनसे चीजों को पकड़ सके व् उनका इस्तेमाल हाथ की अँगुलियों की तरह कर सके | निक व्युजेसिक का प्रारंभिक निराशा से भरा जीवन निक के दो भाई – बहन और थे | जो सामान्य थे | निक से पहले दिव्यांग बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ नहीं पढने दिया जाता था | परन्तु निक के समय में कानून में परिवर्तन हुआ और निक उन शुरूआती बच्चों में रहे जो सामान्य बच्चों के साथ स्कूल में पढ़ सकते थे |क्योंकि उनकी माँ की इच्छा थी की निक जीवन को सामान्य नज़रिए से ही देखें |  हालांकि निक का स्कूली  जीवन सामान्य नहीं था | बिना हाथ – पैर वाले बच्चे को देखकर सारे बच्चे उनका मजाक उड़ाते | जिस से मासूम निक अवसाद में घिर गए | उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की और एक बार बाथ टब  में खुद को डुबाने का भी प्रयास किया | पर अपने माता – पिता के प्रेम को देख कर बाद में उन्होंने आत्महत्या का प्रयास छोड़ दिया | और जीवन का संघर्ष करने का मन बनाया |  निक ने अपने म्यूजिक वीडियो “ समथिंग मोर “अपने बचपन के दर्द का वर्णन किया हैं | निक शुरू से काफी आस्थावान रहे हैं | वो ईश्वर से रोज प्रार्थना करते थे कि उनके हाथ पैर उग आये | एक बार तो उन्होंने ईश्वर को अल्टीमेटम भी दे दिया कि अगर वो उनके हाथ पैर नहीं उगायेंगे तो वो ज्यादा दिन तक उनकी पूजा नहीं कर पायेंगे | हालांकि निक अब कहते हैं की ईश्वर को उन्हें कुछ ख़ास देना था इसलिए वो उनकी प्रार्थनाओं को अनसुना कर रहे थे |इसकी शुरुआत उन्होंने उस दिन करी जब उनकी माँ ने उन्हें न्यूज़ पेपर का एक आर्टिकल पढवाया | वो एक ऐसे दिव्यांग व्यक्ति के बारे में था जो अपने जीवन से शारीरिक रूप से लड़ रहा था  परन्तु हार नहीं मानी और मानसिक शक्ति के बल पर सफलताएं अर्जित की | इस लेख ने निक को बहुत प्ररणा दी | उन्हें लगा की जिन्दगी भर अपने अभावों पर रोने के स्थान पर अपने इसी शरीर के साथ भी कुछ अच्छा कर सकते हैं | ऐसा करके वो बहुतों को प्रेरणा भी दे सकते हैं | उनका कहना था … अगर आप के साथ चमत्कार नहीं हो सकता तो खुद चमत्कार बन जाइए | असंभव को संभव करती निक की जिंदगी की लड़ाई                       निक की आत्मनिर्भर बनने  की लड़ाई में उनके माता – पिता ने उनका भरपूर साथ दिया | निक ने अपनी दो अँगुलियों से वो सब कुछ करना सीखा जो एक सामान्य व्यक्ति करता है | इसकी शुरुआत उन्होंने छोटी सी उम्र में तैराकी सीखने से की | उन्होंने दो नन्हीं अँगुलियों की मदद से चम्मच पकड़ना व् टाइपिंग करना सीखा | विशेषज्ञों की मदद से उनके लिए एक ऐसी चीज बनवाई गयी जिसे वो अपनी अँगुलियों में पहन कर आसानी से लिख सकते थे |आप को जान कर आश्चर्य होगा की निक अपनी दो अँगुलियों के सहारे न सिर्फ पढ़ – लिख सकते हैं बल्कि फुटबॉल ,गोल्फ खेल सकते हैं , मछली … Read more