‘‘स्वतंत्रता दिवस’’ पर विशेष लेख : भारत बनेगा फिर से विश्व गुरु

15 अगस्त ‘‘स्वतंत्रता दिवस’’ पर विशेष लेख – डाॅ. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) हम लाये हैं तूफान से किश्ती निकाल के:- भारत के लाखों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपनी कुर्बानियाँ देकर ब्रिटिश शासन से 15 अगस्त 1947 को अपने देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया था। तब से इस महान दिवस को भारत में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपने देश की आजादी के लिए एक लम्बी और कठिन यात्रा तय की थी। देश को अन्यायपूर्ण अंग्रेजी साम्राज्य की गुलामी से आजाद कराने में अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले लाखों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान तथा त्याग का मूल्य किसी भी कीमत पर नहीं चुकाया जा सकता। इन सभी ने अपने युग की समस्या अर्थात ‘भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए’ अपने परिवार और सम्पत्ति के साथ ही अपनी सुख-सुविधाओं आदि चीजों का त्याग किया था। आजादी के इन मतवाले शहीदों के त्याग एवं बलिदान से मिली आजादी को हमें सम्भाल कर रखना होगा। भारत की आजादी की लड़ाई में लाखों शहीदों के बलिदानी जीवन हमें सन्देश दे रहे हैं – हम लाये हैं तूफान से किश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्भाल के। (2) उदार चरित्र वालो के लिए यह पृथ्वी एक परिवार के समान है:-  भारत एक महान देश है इसकी महानता इसकी उदारता तथा शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व में छुपी हुई है। विश्वव्यापी समस्याओं के ठोस समाधान भारत जैसे देश के पास ही हैं। भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान दुनियाँ से अलग एवं अनूठी है। इसलिए आज सारा विश्व भारत की ओर बड़ी ही आशा की दृष्टि से देख रहा है। देश की आजादी के समय दो विचारधाराओं के बीच लड़ाई थी। एक ओर अंग्रेजों की संस्कृति भारत जैसे देशों पर शासन करके अपनी आमदनी बढ़ाने की थी तो दूसरी ओर भारत के ऐसे विचारशील लोग थे जो सारी दुनियाँ में ‘उदारचरित्रानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात उदार चरित्र वाले के लिए यह पृथ्वी एक परिवार के समान है, के विचारों को फैलाने में संलग्न थे। भारत की आज़ादी के लिए अनेक शूरवीरों ने हँसते-हँसते अपने प्राण त्याग दिये। इन शूरवीरों ने जो आवाज़ उठाई थी, वह महज़ अंगे्रजांे के खिलाफ़ नहीं बल्कि सारी मानव जाति के शोषण के विरुद्ध थी। भारत की आजादी से प्रेरणा लेकर 54 देशों ने अपने को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कर लिया। (3) भारत जैसे विशाल देश पर सारे विश्व को बचाने का दायित्व है:-  आज से लगभग 157 वर्ष पूर्व बलिदानी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के समक्ष अंग्रेजी दासता से देश को आजाद कराने की चुनौती थी, जिसके विरूद्ध उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ लड़ाई लड़ी और भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया। लेकिन बदलते परिदृश्य में आज विश्व के समक्ष दूसरी तरह की समस्यायें आ खड़ी हुईं हैं। वर्तमान में विश्व की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था पूरी तरह से बिगड़ चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद, भूख, बीमारी, हिंसा, तीसरे विश्व युद्ध की आशंका, 36,000 बमों का जखीरा, ग्लोबल वार्मिंग आदि समस्याओं के कारण आज विश्व के दो अरब तथा चालीस करोड़ बच्चों के साथ ही आगे आने वाली पीढ़ियों का भविष्य अंधकारमय दिखाई दे रहा है। आज ऐसी विषम परिस्थितियों से विश्व की मानवता को मुक्त कराने की चुनौती भारत जैसे महान देश के समक्ष है। (4) भारत ही विश्व में शान्ति स्थापित करेगा:- प्राचीन काल में हमारे देश का सारे विश्व में ‘‘जगत गुरू’’ के रूप में अत्यन्त ही गौरवशाली इतिहास था। हमारे देश के गौरवशाली इतिहास को विदेशी शक्तियों द्वारा कुचला तथा नष्ट किया गया। भारत ही विश्व का ऐसा देश है जिसने सबसे पहले सारे विश्व को अध्यात्म, दर्शन, धर्म, योग, आयुर्वेद, संगीत, कला, न्याय, भाषा आदि का ज्ञान दिया। सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के नाते (1) ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् सारा ‘विश्व एक परिवार है’ की भारतीय संस्कृति तथा (2) भारतीय संविधान (अनुच्छेद 51 को शामिल करते हुए) का संरक्षक होने के नाते, मानवजाति के इतिहास के इस निर्णायक मोड़ पर, संयुक्त राष्ट्र महासभा में संयुक्त राष्ट्र संघ को और अधिक शक्तिशाली बनाने के साथ ही उसे प्रजातांत्रिक बनाने पर जोर देने का दायित्व भारत पर है। ऐसा करके भारत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 के प्राविधानों का पालन करने के साथ ही भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान संस्कृति को भी सारे विश्व में फैलायेंगा। विश्व भर की उम्मीदें भारत से जुड़ी हुई हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि भारत ही वो अकेला देश हैं जो न केवल भारत के 40 करोड़ वरन् विश्व के 2 अरब से ऊपर बच्चों तथा आगे आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है। (5) हमें अपनी संस्कृति तथा संविधान के अनुरूप सारे विश्व को एकता की डोर से बांधना है:-  महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘कोई-न-कोई दिन ऐसा जरूर आयेगा, जब जगत शांति की खोज करता-करता भारत की ओर आयेगा और भारत समस्त संसार की ज्योति बनेगा।’’ साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘यदि हम वास्तव में संसार से युद्धों को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें उसकी शुरूआत बच्चों से करनी होगी।’’ हमारा मानना है कि भारत ही अपनी संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान के अनुच्छेद 51 के बलबुते सारे विश्व को बचा सकता है। इसके लिए हमें प्रत्येक बच्चे के मस्तिष्क में बचपन से ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान संस्कृति डालने के साथ ही उन्हें यह शिक्षा देनी होगी कि हम सब एक ही परमपिता परमात्मा की संताने हैं और हमारा धर्म है ‘‘सारी मानवजाति की भलाई।’ अब हिरोशिमा और नागासाकी जैसी दुखदायी घटनाएं दोहराई न जायें। इसके लिए भारत को अपनी संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान के आदर्श के अनुकूल सारे विश्व में शांति स्थापित करने के लिए विश्व संसद, विश्व सरकार तथा विश्व न्यायालय का शीघ्र गठन करने की अगुवाई पूरी दृढ़ता से करनी चाहिए। वह बाल एवं युवा पीढ़ी जो अपने जीवन के सबसे सुन्दर पलों को इस देश सहित विश्व के निर्माण में लगा रहे हैं वे हमारी ताकत, रोशनी, दृष्टि, ऊर्जा, धरोहर तथा उम्मीद हैं। (6) सी.एम.एस. इस युग की समस्याओं के समाधान हेतु प्रयासरत् हैः-  हमारे विद्यालय को संयुक्त राष्ट्र से अधिकृत एन.जी.ओ. के रूप में … Read more

आइये स्वतंत्रता दिवस पर संकल्प लें नए भारत के निर्माण का

15 अगस्त ‘‘स्वतंत्रता दिवस’’ पर विशेष लेख – डाॅ. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) हम सब मिलकर संकल्प लेते हैं, 2022 तक नए भारत के निर्माण का:-             1942 में हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने एक संकल्प लिया था, ‘भारत छोड़ो’ का और 1047 में वह महान संकल्प सिद्ध हुआ, भारत स्वतंत्र हुआ। हम सब मिलकर संकल्प लेते हैं, 2022 तक स्वच्छ, गरीबी मुक्त, भ्रष्टाचार मुक्त, आतंकवाद मुक्त, सम्प्रदायवाद मुक्त तथा जातिवाद मुक्त नए भारत के निर्माण का। भारत के लाखों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपनी कुर्बानियाँ देकर ब्रिटिश शासन से 15 अगस्त 1947 को अपने देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया था। तब से इस महान दिवस को भारत में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपने देश की आजादी के लिए एक लम्बी और कठिन यात्रा तय की थी। देश को अन्यायपूर्ण अंग्रेजी साम्राज्य की गुलामी से आजाद कराने में अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले लाखों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान तथा त्याग का मूल्य किसी भी कीमत पर नहीं चुकाया जा सकता। इन सभी ने अपने युग की समस्या अर्थात ‘भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए’ अपने परिवार और सम्पत्ति के साथ ही अपनी सुख-सुविधाओं आदि चीजों का त्याग किया था। आजादी के इन मतवाले शहीदों के त्याग एवं बलिदान से मिली आजादी को हमें सम्भाल कर रखना होगा। भारत की आजादी की लड़ाई में लाखों शहीदों के बलिदानी जीवन हमें सन्देश दे रहे हैं – हम लाये हैं तूफान से किश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्भाल के। (2) उदार चरित्र वालों के लिए यह पृथ्वी एक परिवार के समान है:-             भारत एक महान देश है इसकी महानता इसकी उदारता तथा शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व में छुपी हुई है। विश्वव्यापी समस्याओं के ठोस समाधान भारत जैसे देश के पास ही हैं। भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान दुनियाँ से अलग एवं अनूठी है। इसलिए आज सारा विश्व भारत की ओर बड़ी ही आशा की दृष्टि से देख रहा है। देश की आजादी के समय दो विचारधाराओं के बीच लड़ाई थी। एक ओर अंग्रेजों की संस्कृति भारत जैसे देशों पर शासन करके अपनी आमदनी बढ़ाने की थी तो दूसरी ओर भारत के ऐसे विचारशील लोग थे जो सारी दुनियाँ में ‘उदारचरित्रानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात उदार चरित्र वाले के लिए यह पृथ्वी एक परिवार के समान है, के विचारों को फैलाने में संलग्न थे। भारत की आज़ादी के लिए अनेक शूरवीरों ने हँसते-हँसते अपने प्राण त्याग दिये। इन शूरवीरों ने जो आवाज़ उठाई थी, वह महज़ अंगे्रजांे के खिलाफ़ नहीं बल्कि सारी मानव जाति के शोषण के विरूद्ध थी। भारत की आजादी से प्रेरणा लेकर 54 देशों ने अपने को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कर लिया। (3) भारत जैसे विशाल देश पर सारे विश्व को बचाने का दायित्व है:-             आज से लगभग 157 वर्ष पूर्व बलिदानी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के समक्ष अंग्रेजी दासता से देश को आजाद कराने की चुनौती थी, जिसके विरूद्ध उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ लड़ाई लड़ी और भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया। लेकिन बदलते परिदृश्य में आज विश्व के समक्ष दूसरी तरह की समस्यायें आ खड़ी हुईं हैं। वर्तमान में विश्व की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था पूरी तरह से बिगड़ चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद, भूख, बीमारी, हिंसा, तीसरे विश्व युद्ध की आशंका, 36,000 बमों का जखीरा, ग्लोबल वार्मिंग आदि समस्याओं के कारण आज विश्व के दो अरब तथा चालीस करोड़ बच्चों के साथ ही आगे आने वाली पीढ़ियों का भविष्य अंधकारमय दिखाई दे रहा है। आज ऐसी विषम परिस्थितियों से विश्व की मानवता को मुक्त कराने की चुनौती भारत जैसे महान देश के समक्ष है। (4) भारत ही विश्व में शान्ति स्थापित करेगा:-             प्राचीन काल में हमारे देश का सारे विश्व में ‘‘जगत गुरू’’ के रूप में अत्यन्त ही गौरवशाली इतिहास था। हमारे देश के गौरवशाली इतिहास को विदेशी शक्तियों द्वारा कुचला तथा नष्ट किया गया। भारत ही विश्व का ऐसा देश है जिसने सबसे पहले सारे विश्व को अध्यात्म, दर्शन, धर्म, योग, आयुर्वेद, संगीत, कला, न्याय, भाषा आदि का ज्ञान दिया। सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के नाते (1) ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् सारा ‘विश्व एक परिवार है’ की भारतीय संस्कृति तथा (2) भारतीय संविधान (अनुच्छेद 51 को शामिल करते हुए) का संरक्षक होने के नाते, मानवजाति के इतिहास के इस निर्णायक मोड़ पर, संयुक्त राष्ट्र महासभा में संयुक्त राष्ट्र संघ को और अधिक शक्तिशाली बनाने के साथ ही उसे प्रजातांत्रिक बनाने पर जोर देने का दायित्व भारत पर है। ऐसा करके भारत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 के प्राविधानों का पालन करने के साथ ही भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान संस्कृति को भी सारे विश्व में फैलायेंगा। विश्व भर की उम्मीदें भारत से जुड़ी हुई हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि भारत ही वो अकेला देश हैं जो न केवल भारत के 40 करोड़ वरन् विश्व के 2 अरब से ऊपर बच्चों तथा आगे आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है। (5) हमें अपनी संस्कृति तथा संविधान के अनुरूप सारे विश्व को एकता की डोर से बांधना है:-             महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘कोई-न-कोई दिन ऐसा जरूर आयेगा, जब जगत शांति की खोज करता-करता भारत की ओर आयेगा और भारत समस्त संसार की ज्योति बनेगा।’’ साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘यदि हम वास्तव में संसार से युद्धों को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें उसकी शुरूआत बच्चों से करनी होगी।’’ हमारा मानना है कि भारत ही अपनी संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान के अनुच्छेद 51 के बलबुते सारे विश्व को बचा सकता है। इसके लिए हमें प्रत्येक बच्चे के मस्तिष्क में बचपन से ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान संस्कृति डालने के साथ ही उन्हें यह शिक्षा देनी होगी कि हम सब एक ही परमपिता परमात्मा की संताने हैं और हमारा धर्म है ‘‘सारी मानवजाति की भलाई।’ अब हिरोशिमा और नागासाकी जैसी दुखदायी घटनाएं दोहराई न जायें। इसके लिए भारत को अपनी संस्कृति, सभ्यता तथा संविधान के आदर्श के अनुकूल सारे विश्व में शांति स्थापित करने के लिए विश्व संसद, विश्व सरकार तथा विश्व न्यायालय का शीघ्र गठन करने की अगुवाई पूरी … Read more

पवित्र ‘‘गीता’’ सभी को कर्तव्य एवं न्याय के मार्ग पर चलने की सीख देती है!

जन्माष्टमी पर्व  पर विशेष लेख /janmashtami par vishesh lekh  – डाॅ. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक,  सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) पवित्र ‘‘गीता’’ हमें कर्तव्य एवं न्याय के मार्ग पर चलने की सीख देती है:- श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का पावन त्यौहार बड़ी ही श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा की जेल में हुआ था। कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। अर्थात श्रीकृष्ण वह है जो अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। श्रीकृष्ण सबको अपनी ओर आकर्षित कर सबके मन, बुद्धि व अहंकार का नाश करते हैं। भारतवर्ष में इस महान पर्व का आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक दोनों तरह का विशिष्ट महत्व है। यह त्योहार हमें आध्यात्मिक एवं लौकिक संदेश देता है। आस्थावान लोग इस दिन घर तथा पूजा स्थलों की साफ-सफाई, बाल कृष्ण की मनमोहक झांकियों का प्रदर्शन तथा सजावट करके बड़े ही प्रेम व श्रद्धा से आधी रात के समय तक व्रत रखते हैं। श्रीकृष्ण के आधी रात्रि में जन्म के समय पवित्र गीता का गुणगान तथा स्तुति करके अपना व्रत खोलते हैं तथा पवित्र गीता की शिक्षाआंे पर चलने का संकल्प करते हैं। साथ ही यह पर्व हर वर्ष नई प्रेरणा, नए उत्साह और नए-नए संकल्पों के लिए हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। हमारा कर्तव्य है कि हम जन्माष्टमी के पवित्र दिन श्रीकृष्ण के चारित्रिक गुणों को तथा पवित्र गीता की शिक्षाओं को ग्रहण करने का व्रत लें और अपने जीवन को सार्थक बनाएँं। यह पर्व हमें अपनी नौकरी या व्यवसाय को समाज हित की पवित्र भावना के साथ अपने निर्धारित कर्तव्यों-दायित्वों का पालन करने तथा न्यायपूर्ण जीवन जीते हुए न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की सीख देता है। (2) ‘कृष्ण’ को कोई भी शक्ति प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकी:- कृष्ण के जन्म के पहले ही उनके मामा कंस ने उनके माता-पिता को जेल में डाल दिया था। राजा कंस ने उनके सात भाईयों को पैदा होते ही मार दिया। कंस के घोर अन्याय का कृष्ण को बचपन से ही सामना करना पड़ा। कृष्ण ने बचपन में ही ईश्वर को पहचान लिया और उनमें अपार ईश्वरीय ज्ञान व ईश्वरीय शक्ति आ गई और उन्होंने बाल्यावस्था में ही कंस का अंत किया। इसके साथ ही उन्होंने कौरवों के अन्याय को खत्म करके धरती पर न्याय की स्थापना के लिए महाभारत के युद्ध की रचना की। बचपन से लेकर ही कृष्ण का सारा जीवन संघर्षमय रहा किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें प्रभु के कार्य के रूप में न्याय आधारित साम्राज्य धरती पर स्थापित करने से नहीं रोक सकी। परमात्मा ने कृष्ण के मुँह का उपयोग करके न्याय का सन्देश पवित्र गीता के द्वारा सारी मानव जाति को दिया। परमात्मा ने स्वयं कृष्ण की आत्मा में पवित्र गीता का ज्ञान अर्जुन के अज्ञान को दूर करने के लिए भेजा। इसलिए पवित्र गीता को कृष्णोवाच नहीं भगवानोवाच अर्थात कृष्ण की वाणी नहीं वरन् भगवान की वाणी कहा जाता है। हमें भी कृष्ण की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए। (3) परमात्मा सज्जनों का कल्याण तथा दुष्टों का विनाश करते हैं:- महाभारत में परमात्मा की ओर से वचन दिया गया है कि ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।’ अर्थात धर्म की रक्षा के लिए मैं युग-युग में अपने को सृजित करता हूँ। सज्जनों का कल्याण करता हूँ तथा दुष्टों का विनाश करता हूँं। धर्म की संस्थापना करता हूँ। अर्थात एक बार स्थापित धर्म की शिक्षाओं को पुनः तरोताजा करता हूँ। अर्थात जब से यह सृष्टि बनी है तब से धर्म की स्थापना एक बार हुई है। धर्म की स्थापना बार-बार नहीं होती है। (अ) परमात्मा ने अपने धर्म (या कत्र्तव्य) को स्पष्ट करते हुए अपने सभी पवित्र शास्त्रों में एक ही बात कही है जैसे पवित्र गीता में कहा है कि मेरा धर्म है, ‘‘परित्राणांय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’’ अर्थात परमात्मा की आज्ञाओं को जानकर उन पर चलने वाले सज्जनों (अर्थात जो अपनी नौकरी या व्यवसाय समाज के हित को ध्यान में रखकर करते हैं) का कल्याण करना तथा मेरे द्वारा निर्मित समाज का अहित करने वालों का विनाश करना। (ब) परमात्मा ने आदि काल से ही मनुष्य का धर्म (कत्र्तव्य) यह निर्धारित किया है कि वह केवल अपने सृजनहार परमात्मा की इच्छाओं एवं आज्ञाओं को शुद्ध एवं पवित्र मन से पवित्र ग्रन्थों को गहराई से पढ़कर जाने एवं उन शिक्षाओं पर चलकर बिना किसी भेदभाव के सारी सृष्टि के मानवजाति की भलाई के लिए काम करें। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है कि प्रभु की शिक्षाओं को जानना तथा पूजा के मायने है उनकी शिक्षाआंे पर दृढ़तापूर्वक चलना। मात्र भगवान श्रीकृष्ण के शरीर की पूजा, भोग लगाने तथा आरती उतारने से कोई लाभ नहीं होगा। (4) सारी सृष्टि की भलाई ही हमारा धर्म है:- भगवान श्रीकृष्ण से उनके शिष्य अर्जुन ने पूछा कि प्रभु! आपका धर्म क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को बताया कि मैं सारी सृष्टि का सृजनहार हूँ। इसलिए मैं सारी सृष्टि से एवं सृष्टि के सभी प्राणी मात्र से बिना किसी भेदभाव के प्रेम करता हूँ। इस प्रकार मेरा धर्म अर्थात कर्तव्य सारी सृष्टि तथा इसमें रहने वाली मानव जाति की भलाई करना है। इसके बाद अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि भगवन् मेरा धर्म क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम मेरी आत्मा के पुत्र हो। इसलिए मेरा जो धर्म अर्थात कर्तव्य है वही तुम्हारा धर्म अर्थात कर्तव्य है। अतः सारी मानव जाति की भलाई करना ही तुम्हारा भी धर्म अर्थात् कर्तव्य है। भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि इस प्रकार तेरा और मेरा दोनों का धर्म अर्थात् कर्तव्य सारी सृष्टि की भलाई करना ही है। यह सारी धरती अपनी है तथा इसमें रहने वाली समस्त मानव जाति एक विश्व परिवार है। इस प्रकार यह सृष्टि पूरी की पूरी अपनी है परायी नहीं है। (5) ‘अर्जुन’ के मोह का नाश प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लेने से हुआ:- कृष्ण के मुँह से निकले परमात्मा के पवित्र गीता के सन्देश से महाभारत युद्ध से पलायन कर रहे अर्जुन को ज्ञान हुआ कि कर्तव्य ही धर्म है। न्याय के … Read more

पंडित दीनदयाल उपाध्याय -एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा सत्यनिष्ठ नेता

– डाॅ. जगदीश गाँधी, संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ पंडित दीं दयाल उपाध्याय ( जन्म २५ सितम्बर १९१६–११ फ़रवरी १९६८) महान चिन्तक और संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जनसंघ  के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत  की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को ” एकात्म मानववाद ” जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी।दीनदयाल जी की मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। वे भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी मजहब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का जिम्मेदार मानते थे। वह हिन्दू राष्ट्रवादी तो थे ही, इसके साथ ही साथ वे भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। उनकी कार्यक्षमत और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि- ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं’।उपाध्यायजी नितान्त सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य  में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। केवल एक बैठक में ही उन्होंने चन्द्रगुप्त नाटक लिख डाला था।इस वर्ष उनके कार्यों को सम्मान देने के लिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के जन्म शताब्दी को मनाया जा रहा है |  पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के सपनों के सच होने का समय अब आ गया है!अब वह दिन दूर नहीं जब भारत विश्व मंच पर पूरी दुनिया को राह दिखाने वाला होगा!आइये उनके बारे में और जाने … हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं:- पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे जिन्होंने जीवनपर्यंन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्त्व दिया। दीनदयाल जी की मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। वे भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी मजहब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का जिम्मेदार मानते थे। वह हिन्दू राष्ट्रवादी तो थे ही, इसके साथ ही साथ वे भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। उनकी कार्यक्षमत और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि- ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं’। सादगी जीवन के प्रतिमूर्ति पं. दीनदयाल उपाध्याय जी देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे:- विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी, पं. दीनदयाल उपाध्याय जी देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि ‘हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। पं. दीनदयाल जी की एक और बात उन्हें सबसे अलग करती है और वह थी उनकी सादगी भरी जीवनशैली। इतना बड़ा नेता होने के बाद भी उन्हें जरा सा भी अहंकार नहीं था। पं. दीनदयाल उपाध्याय. पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की गणना भारतीय महापुरूषों में इसलिये नहीं होती है कि वे किसी खास विचारधारा के थे बल्कि उन्होंने किसी विचारधारा या दलगत राजनीति से परे रहकर राष्ट्र को सर्वोपरि माना। ‘मानवीय एकता’ का मंत्र हम सभी का मार्गदर्शन करता है:- एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण। पं. दीनदयाल जी द्वारा दिया गया मानवीय एकता का मंत्र हम सभी का मार्गदर्शन करता है। उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है। उनका कहना था कि जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है, बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सामान्यतः मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की चिंता करता है। मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी:- उनका मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी। समाज में जो लोग धर्म को बेहद संकुचित दृष्टि से देखते और समझते हैं तथा उसी के अनुकूल व्यवहार करते हैं, उनके लिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है। वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं। अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाता है:- पंडित दीनदयाल जी के अनुसार धर्म महत्वपूर्ण है परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाता है। एक सुभाषित आता है- बुभुक्षितः किं न करोति पापं, क्षीणा जनाः निष्करुणाः भवन्ति. अर्थात भूखा सब पाप कर सकता है। विश्वामित्र जैसे ऋषि ने भी भूख से पीड़ित हो कर शरीर धारण करने के लिए चांडाल के घर में चोरी कर के कुत्ते का जूठा मांस खा लिया था। हमारे यहां आदेश में कहा गया है कि अर्थ का अभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि वह धर्म का द्योतक है। इसी तरह दंडनीति का अभाव अर्थात अराजकता भी धर्म के लिए हानिकारक है। पं. दीन दयाल उपाध्याय जी के विचार देश ही नहीं, दुनिया का मार्गदर्शन कर सकते हैं:- हमारा मानना है कि पं. दीन दयाल उपाध्याय जी के विचार देश ही नहीं, दुनिया का मार्गदर्शन कर सकते हैं। उनका कहना था कि हमारी प्रगति का आंकलन सामाजिक सीढ़ी के सर्वोच्च पायदान पहुंचे व्यक्ति से नहीं बल्कि सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की स्थिति से होगा। उनका मानना था कि भारत … Read more

स्कूलों में बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के स्थान पर दी जाए ‘योग’ एवं ‘आध्यात्म’ की शिक्षा

27 सितंबर, 2014 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में प्रस्ताव पेश किया था कि संयुक्त राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की शुरुआत करनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने पहले भाषण में मोदी ने कहा था कि ‘‘भारत के लिए प्रकृति का सम्मान अध्यात्म का अनिवार्य हिस्सा है। भारतीय प्रकृति को पवित्र मानते हैं।’’ उन्होंने कहा था कि ‘‘योग हमारी प्राचीन परंपरा का अमूल्य उपहार है।’’ यूएन में प्रस्ताव रखते वक्त मोदी ने योग की अहमियत बताते हुए कहा था, ‘‘योग मन और शरीर को, विचार और काम को, बाधा और सिद्धि को ठोस आकार देता है। यह व्यक्ति और प्रकृति के बीच तालमेल बनाता है। यह स्वास्थ्य को अखंड स्वरूप देता है। इसमें केवल व्यायाम नहीं है, बल्कि यह प्रकृति और मनुष्य के बीच की कड़ी है। यह जलवायु परिवर्ततन से लड़ने में हमारी मदद करता है।’’ स्कूलों में बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के स्थान पर दी जाए ‘योग’ एवं ‘आध्यात्म’ की शिक्षा  संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 जून, 2014 को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने को मंजूरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव के मात्र तीन महीने के अंदर दे दी। इसी के साथ भारत की सेहत से भरपूर प्राचीन विद्या योग को वैश्विक मान्यता मिल गई थी। भारत में वैदिक काल से मौजूद योग विद्या एक जीवन शैली है जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने नया मुकाम दिलाया। संयुक्त राष्ट्र महासभा के 69वें सत्र में इस आशय के प्रस्ताव को लगभग सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया था। भारत के साथ रिकार्ड 177 सदस्य देश न केवल इस प्रस्ताव के समर्थक बने बल्कि इसके सह-प्रस्तावक भी बने। इस मौके पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा था कि, ‘‘इस क्रिया से शांति और विकास में योगदान मिल सकता है। यह मनुष्य को तनाव से राहत दिलाता है।’’  बान की मून ने सदस्य देशों से अपील की कि वे योग को प्रोत्साहित करने में मदद करें। यहाँ उल्लेखनीय है कि भारत में इससे पहले 2011 में हुए एक योग सम्मेलन में 21 जून को विश्व योग दिवस के तौर पर घोषित किया गया था। इस दिन को इसलिए चुना गया क्योंकि 21 जून साल का सबसे लंबा दिन होता है और समझा जाता है कि इस दिन सूरज, रोशनी और प्रकृति का धरती से विशेष संबंध होता है। इस दिन को किसी व्यक्ति विशेष को ध्यान में रख कर नहीं, बल्कि प्रकृति को ध्यान में रख कर चुना गया है।  योग स्वास्थ्य के लिए जरूरी :- वैश्विक स्वास्थ्य और विदेश नीति के एजेंडा के तहत स्वीकार किए गए इस प्रस्ताव में कहा गया है कि योग स्वास्थ्य के लिए आवश्यक सभी जरूरी ऊर्जा प्रदान करता है। श्री मोदी ने सितंबर 2014 में महासभा के सत्र में इसी आशय की बात कही थी। 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित करने के अलावा प्रस्ताव में कहा गया है कि योग के फायदे की जानकारियां फैलाना दुनिया भर में लोगों के स्वास्थ्य के हित में होगा। योग केवल आसान और मुद्राओं तक सीमित नहीं है। यह तो एक आदर्श जीवन शैली है, जो मानवीय उत्थान की ओर ले जाती है। आज के समय लोगों ने भौतिक जगत में बहुत ऊंचाई हासिल कर ली है, लेकिन अपने अंदर झांकने का मौका केवल भारतीय संस्कृति ही देती है। योग और ध्यान न केवल हमारा स्वास्थ्य संवर्धन करते हैं बल्कि हमें आंतरिक और मानसिक बल भी प्रदान करते हैं। काफी समय से ऋषि परंपरा और आध्यात्म को बढ़ाने के प्रयास हो रहे हैं। वास्तव में योग एवं आध्यात्म की शिक्षा में पूरी मानवता को एकजुट करने की शक्ति है। योग में ज्ञान, कर्म और भक्ति का समागम है। अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय:- एक दैनिक समाचार पत्र में ‘स्कूलों में यौन शिक्षा अनिवार्य बनाए जाने की सिफारिश’ शीर्षक से एक समाचार प्रकाशित किया गया था। इस समाचार के अनुसार गठित की गई समिति ने स्कूलों में नाबालिगों को दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न की घटनाओं से बचाने के लिए सुझाव पेश किए हैं। इसके तहत यौन शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाए जाने की सिफारिश की गई है, जो कि आने वाले समय में देश की बाल एवं युवा पीढ़ी को गलत दिशा में ही ले जाने का ही काम करेंगी। हमारा मानना है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर को मनुष्य की ओर से अर्पित की जाने वाली समस्त सम्भव सेवाओं में से सर्वाधिक महान सेवा है – (अ) बच्चों की उद्देश्यपूर्ण शिक्षा, (ब) उनके चरित्र का निर्माण तथा (स) उनके हृदय में परमात्मा की शिक्षाओं को जानकर उन पर चलने का बचपन से अभ्यास कराना न कि स्कूलों में यौन शिक्षा देकर बच्चों को तन तथा मन का रोगी बनाना।  यौन शिक्षा के अनिवार्य होने से विदेशों में बढ़ी हैं समस्यायें:- अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रान्स जैसे देशों से स्कूली बच्चों को यौन शिक्षा देने के परिणाम बुरे आ रहे हैं। इन देशों में अब यह स्पष्ट हो चुका है कि यौन शिक्षा से एच.आई.वी., एड्स आदि जैसे अनेक रोगों पर तो काबू नहीं पाया जा सका है अपितु इन देशों की बाल एवं युवा पीढ़ी पर इसका उल्टा असर हुआ है। इन देशों में यौन शिक्षा के कारण माता-पिता के जीवित रहते हुए भी लाखों बच्चे अनाथ होकर उन्मुक्त जीवन जीने को विवश हैं, जो कि एड्स जैसे महारोग को बढ़ाने का मुख्य कारण है। इसके अलावा इन देशों में विवाहित जोड़ों में दूसरी स्त्रियों तथा पुरूषों से अवैध संबंध बढ़ाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ चुकी है। इन सभ्य कहे जाने वाले पश्चिमी देशों की नकल करने में भारत भी बिना सोचे-विचारे लगा है। उन्मुक्त सेक्स की तरफ बढ़ती प्रवृत्ति के कारण विवाह जैसी पवित्र संस्था का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है।  आधुनिकता के नाम पर भारत में भी पांव पसार रही हैं समस्यायें:- भारत में भी आज कल सभी टी.वी. चैनलों एवं समाचार पत्रों में आधुनिकता के नाम पर युवक-युवतियों द्वारा बिना विवाह के लिव-इन-रिलेशन में साथ रहने के कारण युवतियों के गर्भवती होने व भ्रण हत्या करवाने आदि की घटनायें लगातार सामने आती जा रहीं हैं। इसके बावजूद भी विद्यालयों में यौन शिक्षा देने की तैयारी की जा रही है। हमारा मानना है कि बच्चों की मनः स्थिति का आंकलन किये वगैर बाल एवं युवा पीढ़ी को यौन … Read more

परमात्मा और उसके सेवक कभी भी छुट्टी नहीं लेते हैं!

– डा0 जगदीश गाँधी, संस्थापक-प्रबन्धक,  सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) परमात्मा तथा उसके सेवक छुट्टी कर लें तो संसार तथा ब्रह्ममाण्ड में हाहाकार मच जाये:-              परमात्मा ने जब से यह सृष्टि बनायी तभी से अपने सेवकों सूर्य, वायु, चन्द्रमा, ग्रह, पर्यावरण, प्रकृति आदि को अपने द्वारा रचित मानव जाति की सेवा के लिए नियुक्त किया। सृष्टि का गतिचक्र एक सुनियोजित विधि व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। ब्रह्ममाण्ड में अवस्थित विभिन्न नीहारिकाएं ग्रह-नक्षत्रादि परस्पर सहकार-संतुलन के सहारे निरन्तर परिभ्रमण विचरण करते रहते हैं। अपना भू-लोक सौर मंडल के वृहत परिवार का एक सदस्य है। सारे परिजन एक सूत्र में आबद्ध हैं। वे अपनी-अपनी कक्षाओं में घूमते तथा सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य स्वयं अपने परिवार के ग्रह उपग्रह के साथ महासूर्य की परिक्रमा करता है। इतने सब कुछ जटिल क्रम होते हुए भी सौर, ग्रह, नक्षत्र एक दूसरे के साथ न केवल बंधे हुए हैं वरन् परस्पर अति महत्वपूर्ण आदान-प्रदान भी करते हैं। इस सृष्टि का रचनाकार परमात्मा कभी अवकाश नहीं लेता है तथा उसके सेवक सूर्य अपनी किरणों के द्वारा संसार को रोशनी तथा ऊर्जा से भरने के लिए सदैव बिना थके अपना कार्य करता रहता है। वायु निरन्तर बहते हुए सभी को सांसों के द्वारा जीवन प्रदान करती है। (2) परमात्मा के अवतारों से हमें कर्तव्य मार्ग पर डट जाने की शक्ति प्राप्त होती है:-             परमात्मा से प्रेरणा लेकर उनके अवतार राम, कृष्ण, बुद्ध, अब्राहम, मुसा, महावीर, जरस्थु, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह भी जीवन पर्यन्त बिना छुट्टी लिए मानव जाति के उद्धार के लिए कार्य करते रहे। जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब परमात्मा मानव जाति के दुखों को दूर करके उनके जीवन में हर्ष, आनन्द, स्वास्थ्य, सुख, समृद्धि भरने के लिए संसार के सबसे पवित्रतम हृदय वाले मानव की आत्मा में अवतरित होता है। परमात्मा ने अपने संदेश वाहक के रूप में राम, कृष्ण, बुद्ध, अब्राहम, मुसा, महावीर, जरस्थु, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह को युग युग में अपने मानव कल्याण के कार्य के लिए चुना है। विद्यालय ही केवल समाज के प्रकाश केंद्र हैं (3) परमात्मा की शिक्षाओं पर चलने वाले ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित होते हैं:-             अवतारों का जन्म भी मनुष्य की तरह संसार में किसी माँ की कोख से होता है। अवतारों का शरीर भी मनुष्य की तरह ही हाड़-मांस के बने होते हैं तथा इनकी देह भी नाशवान होती है। वे जीवन-पर्यन्त परमात्मा की इच्छा के लिए जीते हुए भौतिक शरीर को त्याग कर परमात्मा के लोक में चले जाते हैं। संसार से जाने के पूर्व ये अवतार मानव जाति के मार्गदर्शन के लिए पवित्र पुस्तकंे जैसे गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस दे जाते हैं। अवतारों की एकमात्र इच्छा परमात्मा का सेवक बनकर दुखों तथा कष्टों से घिरी मानव जाति को कल्याण, विकास, प्रकाश, ज्ञान तथा मुक्ति की राह दिखाना होता है। ये अवतार अपनी मजबूत आत्मा के बल से भारी कष्ट उठाकर मानव जाति के जीवन में अपनी शिक्षाओं के द्वारा सुख, समृद्धि, यश तथा आनन्द भरकर जीवन यात्रा को सफल बनाते हैं। अवतारों के पास मानव जाति को सुखी बनाने के लिए परमपिता परमात्मा से प्राप्त विचार, मार्गदर्शन तथा प्रेरणा का खजाना होता है।  परमात्मा के द्वारा नियुक्त सभी अवतारों ने मानव जाति के जीवन को सुखी बनाने के लिए कार्य किया और कभी भी छुट्टी नहीं ली। (4) अपने लक्ष्य को हर पल याद रखना ही महानता की कुंजी है:-             परमात्मा तथा उनके अवतारों से प्रेरणा लेकर संसार के महापुरूष भी जीवन-पर्यन्त बिना छुट्टी लिए मानव जाति की एकता, खुशहाली, समृद्धि, विकास तथा न्याय के लिए कार्य करते रहे। महात्मा गांधी, पं0 जवाहर लाल नेहरू, डा0 अम्बेडकर, डा0 राधाकृष्णन, अब्राहम लिंकन, एडीशन, आइंस्टीन, मदर टेरेसा, ग्राहम बेल, मेरी क्यूरी, न्यूटन, आर्य भट्ट, जैम्स बाट, विनोबा भावे जैसे अनेक साधारण व्यक्ति महान इसलिए बने क्योंकि उन्होंने मानव जाति के कल्याण के कार्य से कभी छुट्टी नहीं ली। वे पूरे मनोयोग से मानव कल्याण संबंधी कार्य में लगे रहते थे। महापुरूषों ने अपने परिवारों का भरण पोषण भी भली प्रकार किया। वे भी साधारण लोगों की तरह खाते, पीते, सोते आदि सभी दिनचर्याऐं करते थे लेकिन अपने जीवन का उद्देश्य एक पल के लिए भी नहीं भूलते थे। यदि ये महापुरूष कार्य से अवकाश लेते तो मानव जाति की इतनी महत्वपूर्ण सेवा तथा समाजोपयोगी नई-नई खोजें न कर पाते। परमात्मा की नौकरी करने वालों को अंतिम सांस तक अवकाश प्राप्त नहीं होता है। शरीर बूढ़ा होकर कमजोर हो सकता है लेकिन आत्मा तथा मस्तिष्क कभी बूढ़े नहीं होते हैं। विश्व एकता कला दीप धरती से आतंकवाद को समाप्त करने के लिए जलायें (5) कर्तव्यपरायण व्यक्ति अपने कर्तव्यों को हर पल याद रखते हंै तथा उसके अनुरूप कार्य करते हैं:-             मनुष्य एक भौतिक प्राणी है, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा मनुष्य एक आध्यात्मिक प्राणी है। मनुष्य के जीवन में भौतिकता, सामाजिकता तथा आध्यात्मिकता का संतुलन जरूरी है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर-परिवार के सदस्यों की शिक्षा, स्वास्थ्य, कैरियर, मुकदमें, नाते-रिश्तेदारी आदि के प्रति अपने कत्र्तव्यों को निभाना पड़ता है। साथ ही इससे आगे बढ़कर परमात्मा द्वारा निर्मित समाज की बेहतरी की चिन्ता भी करना चाहिए। संतुलित व्यक्ति अपने घर के कत्र्तव्यों को भली प्रकार पूरा करते हुए अपनी नौकरी तथा व्यवसाय से जुड़े कत्र्तव्यों को भी बड़े ही सुन्दर ढंग से पूरा करते हैं। प्रभु की राह पर चलते हुए नौकरी या व्यवसाय करने वाले लोगों के लिए अन्य लोगों के मन में काफी विश्वास तथा सम्मान की भावना होती है जिसके कारण प्रभु की राह पर चलने वाले इन लोगों का भौतिक, सामाजिक तथा आर्थिक लाभ तथा यश भी अन्य की तुलना में काफी अधिक हो जाता है। लेकिन बेईमानी से नौकरी तथा व्यवसाय करने वालों की भौतिक, सामाजिक तथा आर्थिक समृद्धि तथा लोकप्रियता बिना नींव के मकान की तरह होती है। (6) एक झोली में फूल भरे हैं एक झोली में काॅटे! कोई कारण होगा?:-             विश्व में वही परिवार, समाज, जाति तथा राष्ट्र उन्नति करता है जो कड़ी मेहनत तथा ईमानदारी से निरन्तर अपनी नौकरी या व्यवसाय करता है। इसके विपरीत जो ज्यादा छुट्टी तथा ज्यादा आराम करते हैं वे पिछड़ जाते हैं। कई लोग तो अपने शरीर के साथ ही मस्तिष्क को छुट्टी दे देते हैं। … Read more

अवतारों तथा महापुरूषों के कष्टमय जीवन हमें प्रभु की राह में सब प्रकार के कष्ट सहने की सीख देते हैं!

– डाॅ. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) जब-जब राम ने जन्म लिया तब-तब पाया वनवास:- राम ने बचपन में ही प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान लिया और उन्होंने अपने शरीर के पिता राजा दशरथ के वचन को निभाने के लिए हँसते हुए 14 वर्षो तक वनवास का दुःख झेला। लंका के राजा रावण ने अपने अमर्यादित व्यवहार से धरती पर आतंक फैला रखा था। राम ने रावण को मारकर धरती पर मर्यादाओं से भरे ईश्वरीय समाज की स्थापना की। कृष्ण के जन्म के पहले ही उनके मामा कंस ने उनके माता-पिता को जेल में डाल दिया था। राजा कंस ने उनके सात भाईयों को पैदा होते ही मार दिया। कंस के घोर अन्याय का कृष्ण को बचपन से ही सामना करना पड़ा। कृष्ण ने बचपन में ही ईश्वर की इच्व्छा तथा आज्ञा को पहचान लिया और उनमें अपार ईश्वरीय ज्ञान व ईश्वरीय शक्ति आ गई और उन्होंने बाल्यावस्था में ही कंस का अंत किया। इसके साथ ही उन्होंने कौरवों के अन्याय को खत्म करके धरती पर न्याय की स्थापना के लिए महाभारत के युद्ध की रचना की। बचपन से लेकर ही कृष्ण का सारा जीवन संघर्षमय रहा किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें प्रभु के कार्य के रूप में धरती पर न्याय आधारित साम्राज्य स्थापित करने से नहीं रोक सकी। (2) बुद्ध तथा ईशु ने कष्टमय जीवन जीते हुए हमें जीवन जीने की राह दिखाई:- बुद्ध ने मानवता की मुक्ति तथा ईश्वरीय प्रकाश का मार्ग ढूंढ़ने के लिए राजसी भोगविलास त्याग दिया और अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट झेले। अंगुलिमाल जैसे दुष्टों ने अनेक तरह से उन्हें यातनायें पहुँचाई किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें दिव्य मार्ग की ओर चलने से रोक नहीं पायी। ईशु को जब सूली दी जा रही थी तब वे परमपिता परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे – हे परमात्मा! तू इन्हें माफ कर दे जो मुझे सूली दे रहे हैं क्योंकि ये अज्ञानी हैं अपराधी नहीं। ईशु ने छोटी उम्र में ही प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान लिया था फिर धरती और आकाश की कोई शक्ति उन्हें प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकी। जिन लोगों ने ईशु को सूली पर चढ़ाया देखते ही देखते उनके कठोर हृदय पिघल गये। सभी रो-रोकर अफसोस करने लगे कि हमने अपने रक्षक को क्यों मार डाला? (3) मोहम्मद साहब ने कष्टमय जीवन जीते हुए हमें जीवन जीने की राह दिखाई:- मोहम्मद साहब की प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचानते हुए मूर्ति पूजा छोड़कर एक ईश्वर की उपासना की बात करने तथा अल्लाह की इच्छा तथा आज्ञा की राह पर चलने के कारण मोहम्मद साहब को मक्का में अपने नाते-रिश्तेदारों, मित्रों तथा दुष्टों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा और वे 13 वर्षों तक मक्का में मौत के साये में जिऐ। जब वे 13 वर्ष के बाद मदीने चले गये तब भी उन्हें मारने के लिए कातिलों ने मदीने तक उनका पीछा किया। मोहम्मद साहब की पवित्र आत्मा में अल्लाह (परमात्मा) के दिव्य साम्राज्य से कुरान की आयतें 23 वर्षों तक एक-एक करके नाजिल हुई। (4) नानक तथा बहाउल्लाह ने कष्टमय जीवन जीते हुए हमें जीवन जीने की राह दिखाई:- नानक को ईश्वर एक है तथा ईश्वर की दृष्टि में सारे मनुष्य एक समान हैं, के दिव्य प्रेम से ओतप्रोत सन्देश देने के कारण उन्हें रूढ़िवादिता से ग्रस्त कई बादशाहों, पण्डितों और मुल्लाओं का कड़ा विरोध सहना पड़ा। नानक ने प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया था उन्होंने जगह-जगह घूमकर तत्कालीन अंधविश्वासों, पाखण्डों आदि का जमकर विरोध किया। बहाई धर्म के संस्थापक बहाउल्लाह को प्रभु का कार्य करने के कारण 40 वर्षों तक जेल में असहनीय कष्ट सहने पड़ें। जेल में उनके गले में लोहे की मोटी जंजीर डाली गई तथा उन्हें अनेक प्रकार की कठोर यातनायें दी र्गइं। जेल में ही बहाउल्लाह की आत्मा में प्रभु का प्रकाश आया। बहाउल्लाह की सीख है कि परिवार में पति-पत्नी, पिता-पुत्र, माता-पिता, भाई-बहिन सभी परिवारजनों के हृदय मिलकर एक हो जाये तो परिवार में स्वर्ग उतर आयेगा। इसी प्रकार सारे संसार में सभी के हृदय एक हो जाँये तो सारा संसार स्वर्ग समान बन जायेगा। (5) अर्जुन तथा मीरा ने कष्टमय जीवन जीते हुए हमें जीवन जीने की राह दिखाई:- अर्जुन को कृष्ण के मुँह से निकले परमात्मा के पवित्र गीता के सन्देश से ज्ञान हुआ कि ‘कर्तव्य ही धर्म है’। न्याय के लिए युद्ध करना ही उसका परम कर्तव्य है। फिर अर्जुन ने अन्याय के पक्ष में खड़े अपने ही कुल के सभी अन्यायी योद्धाओं तथा 11 अक्षौहणी सेना का महाभारत युद्ध करके विनाश किया। इस प्रकार अर्जुन ने धरती पर प्रभु का कार्य करते हुए धरती पर न्याय के साम्राज्य की स्थापना की। माता देवकी ने अपनी आंखों के सामने एक-एक करके अपने सात नवजात शिशुओं की हत्या अपने सगे भाई कंस के हाथों होते देखी और अपनी इस हृदयविदारक पीड़ा को प्रभु कृपा की आस में चुपचाप सहन करती रही। देवकी ने अत्यन्त धैर्यपूर्वक अपने आंठवे पुत्र कृष्ण के अपनी कोख से उत्पन्न होने की प्रतीक्षा की ताकि मानव उद्धारक कृष्ण का इस धरती पर अवतरण हो सके तथा वह धरती को अपने भाई कंस जैसे महापापी के आतंक से मुक्त करा सके तथा धरती पर न्याय आधारित ईश्वरीय साम्राज्य की स्थापना हो। (6) मीरा बाई तथा प्रहलाद ने कष्टमय जीवन जीते हुए हमें जीवन जीने की राह दिखाई:- मीराबाई कृष्ण भक्ति में भजन गाते हुए मग्न होकर नाचने-गाने लगती थी जो कि उनके राज परिवार को अच्छा नहीं लगता था। इससे नाराज होकर मीरा को राज परिवार ने तरह-तरह से डराया तथा धमकाया। उनके पति राणाजी ने कहा कि तू मेरी पत्नी होकर कृष्ण का नाम लेती है। मैं तुझे जहर देकर जान से मार दूँगा। मीरा ने प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया था उन्होंने अपने पति से कहा कि पतिदेव यह शरीर तो विवाह होने के साथ ही मैं आपको दे चुकी हूँ, आप इस शरीर के साथ जो चाहे सो करें, किन्तु आत्मा तो प्रभु की है, उसे यदि आपको देना भी चाँहू तो कैसे दे सकती हूँ? यह संसार का कितना बड़ा अजूबा है कि असुर प्रवृत्ति के तथा ईश्वर … Read more

डॉ . अब्दुल कलाम – शिक्षा को समर्पित थी जिनकी जिंदगी

-डॉ. जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक,सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ सरल, उत्साही और प्रेरक व्यक्तित्व के धनी डा. कलाम :-भारत के सबसे ज्यादा लोकप्रिय ग्यारहवें राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को हुआ था। इनके पिता अपनी नावों को मछुआरों को देकर अपने परिवार का खर्च चलाते थे। अपनी आरंभिक पढ़ाई पूरी करने के लिए कलाम जी को घर-घर अखबार वितरण का भी काम करना पड़ा था। कलाम जी ने अपने पिता से ईमानदारी व आत्मानुषासन की विरासत पाई और माता से ईष्वर-विष्वास तथा करूणा का उपहार लिया। वे भारत को अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया का सिरमौर राष्ट्र बनना देखना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने अपने जीवन में अनेक उपलब्धियों को भारत के नाम भी किया। कलाम साहित्य में रूचि रखते थे, कविताएं लिखते थे, वीणा बजाते थे और अध्यात्म से गहराई से जुड़े थे। 27 जुलाई 2015 को डा. कलाम जीवन की अंतिम सांसें लेने से ठीक पहले वह छात्रों से बातें कर रहे थे, वह शायद ऐसे ही संसार से विदा होना चाहते होंगे। उनका साफ मानना था कि बच्चे ही देश का भविष्य हैं। किसी ने उनसे उनकी मनपसंद भूमिका के बारे में सवाल किया था तो उनका कहना था कि शिक्षक की भूमिका उन्हें बेहद पसंद आती है। वह ‘रहने योग्य उपग्रह’ विषय पर अपनी बात रखना चाहते थे कि नियति ने उन्हें हमसे वापस ले लिया, लेकिन उनके सपने देश को और मानव जाति को आगे ले जाने वाले थे। उनके विचारों को हम आगे बढ़ाकर उन्हें सच्ची श्रद्धाजंलि देने के लिए आगे आये।डॉ. कलाम ने करोड़ों आँखों को बड़े सपने देखना सिखाया :-एक साधारण परिवार से होने के बावजूद अपनी मेहनत और समर्पण के बल पर बड़े से बड़े सपनों को साकार करने का एक जीता-जागता उदाहरण है पूर्व राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का जीवन। आपका आदर्षमय जीवन हम सभी के लिये हमेषा प्रेरणास्पद रहा है। उनकी बातें नई दिषा दिखाने वाली हैं। उन्होंने करोड़ों आँखों को बड़े सपने देखना सिखाया। वे कहते थे ‘‘इससे पहले कि सपने सच हो आपको सपने देखने होंगे।’’ इसके साथ ही उनका यह भी कहना था कि ‘‘सपने वह नहीं जो आप नींद में देखते हैं। यह तो एक ऐसी चीज है जो आपको नींद ही नहीं आने देती।’’ उनका मानना था कि छोटी सोच सही नहीं है। जितना मुमकिन हो, उतने ख्वाब देखिये। तरक्की का उनका ख्वाब शहरों से नहीं बल्कि गांव की पंचायतों से शुरू होता था।हम जैसा समाज चाहते हैं हमें वैसी ही षिक्षा अपने बच्चों को देनी चाहिएः-अपने प्रेरक विचारों के कारण डॉ. कलाम बच्चों और युवाओं के बीच अत्यधिक लोकप्रिय रहे। उनका मानना था कि आने वाली पीढ़ी हमें तभी याद रखेगी जबकि हम अपनी युवा पीढ़ी को एक समृद्ध और सुरक्षित भारत दे सके जो कि सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ आर्थिक समृद्धि के परिणामस्वरूप प्राप्त हो। उनका मानना था कि हम जैसा समाज चाहते हैं हमें वैसी ही षिक्षा अपने बच्चों को देनी चाहिए। इसके लिए वे कहते थे कि चूंकि एक षिक्षक का जीवन कई दीपों को प्रज्जवलित करता है इसलिए एक षिक्षक को अपने पेषे के प्रति प्रतिबद्धता होनी चाहिए। उसे षिक्षण एवं बच्चों से प्रेम होना चाहिए। …..उसे न सिर्फ विषय की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक बातें पढ़ानी चाहिए, बल्कि छात्रों में हमारी महान सभ्यता की विरासत एवं सामाजिक मूल्यों की जमीन भी तैयार करनी चाहिए। वे इस बात पर विष्वास करते थे कि एक तेजस्वी मस्तिष्क इस धरती पर, धरती के नीचे या ऊपर आसमान में सबसे सषक्त संसाधन है। इसलिए हमारे षिक्षकों को युवा मस्तिष्कों को तेजस्वी बनाना चाहिए। षिक्षा के संबंध में उनका मानना था कि वास्तविक षिक्षा मानवीय गरिमा और व्यक्ति के स्वाभिमान में वृद्धि करती है।बच्चों को बचपन में दी गई षिक्षा ही उसके सारे जीवन का आधार बन जाती हैः-कलाम जी का मानना था कि बच्चों को बचपन में दी गई षिक्षा ही उसके सारे जीवन का आधार बन जाती है। इसके लिए वे अपना उदाहरण देते हुए बताते थे कि वे बचपन से ही अपने गुरू श्री अय्यर जी से अत्यधिक प्रभावित थे। कक्षा 5 में पढ़ते हुए उनके गुरू श्री अय्यर जी ने उनकी कक्षा के सभी बच्चों को कक्षा में ‘पक्षियों को उड़ने की क्रिया’ पढा़ने के साथ ही उन सभी को शाम को समुद्र तट पर बुलाकर पक्षियों को उड़ते हुए भी दिखाया था। इसका कलाम जी के जीवन में बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा और आने वाले समय में एक रॉकेट इंजीनियर, एयरोस्पेस इंजीनियर तथा प्रौद्योगिकीवेत्ता के रूप में उनका जीवन रूपांतरित हो गया। कलाम जी का कहना था कि ‘‘सात साल के लिये कोई बच्चा मेरी निगरानी में रह जाये, फिर कोई भी उसे बदल नहीं सकता।’’ईष्वर की प्रार्थना हमें अपनी शक्तियों को विकसित करने में मदद करतीं हैं :- भगवान में उनकी गहरी आस्था थी। कोई तो है जो ब्रह्मांड चला रहा है। इतना बड़ा ब्रह्मांड, धरती के करोड़ों जीव-जन्तु क्या अपने आप ही जन्म तथा जीवन जी रहे हैं? कोई शक्ति है जिसके कारण ब्रह्मांड में सब कुछ इतना सुनियोजित है। हम उस शक्ति को कोई भी नाम दे सकते हैं। वे जहां एक ओर कुरान पढ़ते थे तो वहीं दूसरी ओर गीता भी पढ़ते थे। उनका मानना था कि भगवान, हमारे निर्माता ने हमारे मस्तिष्क और व्यक्तित्व में असीमित शक्तियां और क्षमताएं दी हैं और ईष्वर की प्रार्थना हमें इन शक्तियों को विकसित करने में मदद करती हैं। वे कहते थे कि आकाष की तरफ देखिये, हम अकेले नहीं हैं। सारा ब्रह्मांड हमारे लिये अनुकूल है और जो सपने देखते हैं और मेहनत करते हैं उन्हें प्रतिफल देने के लिए सारा ब्रह्मांड उनकी मदद करता है। उनका मानना था कि षिक्षण का मुख्य उद्देष्य छात्रों में राष्ट्र निर्माण की क्षमताएँ पैदा करना है। ये क्षमताएँ षिक्षण संस्थानों के ध्येय से प्राप्त होती है तथा षिक्षकों के अनुभव से सृदृढ़ होती है, ताकि षिक्षण संस्थान से निकलने के बाद छात्रों में नेतृत्वकारी विषिष्टायें आ जायें। कलाम जी कहते थे कि अगर किसी भी देष को भ्रष्टाचार-मुक्त और सुन्दर-मन वाले लोगों का देष बनाना है तो, मेरा दृढ़तापूर्वक मानना है कि समाज के तीन प्रमुख सदस्य माता, पिता और शिक्षक ही ये कर सकते हैं।सिटी मोन्टेसरी स्कूल के बच्चों के … Read more

बच्चों की शिक्षा सर्वाधिक महान सेवा है!

–डाॅ. जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ             ‘‘स्कूल चार दीवारों वाला एक ऐसा भवन है जिसमें कल का भविष्य छिपा है’’ आने वाले समय में विश्व में एकता एवं शांति स्थापित होगी या अशांति एवं अनेकता की स्थापना होगी, यह आज स्कूलों में बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा पर निर्भर करता है। एक शिल्पकार एवं कुम्हार की भाँति शिक्षकों का यह प्रथम दायित्व एवं कत्र्तव्य है कि वह बच्चों को आध्यात्मिक गुणों से इस प्रकार से संवारे और सजाये कि उनके द्वारा शिक्षित किये गये बच्चे ‘विश्व का प्रकाश’ बनकर सारे विश्व को आध्यात्मिक प्रकाश से प्रकाशित कर सकें। महर्षि अरविंद ने शिक्षकों के सम्बन्ध में कहा है कि ‘‘शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींचकर उनमें शक्ति निर्मित करते हैं।’’              बच्चों की शिक्षा सर्वाधिक महान सेवा है – सर्वशक्तिमान परमेश्वर को अर्पित मनुष्य की ओर से की जाने वाली समस्त सम्भव सेवाओं में से सर्वाधिक महान सेवा है- (अ) बच्चों की शिक्षा, (ब) उनके चरित्र का निर्माण तथा (स) उनके हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न करना। इसलिए हमारा मानना है कि बच्चों के मन-मस्तिष्क पर अपने शिक्षकों द्वारा दी गई नैतिक शिक्षाओं का अत्यधिक गहरा प्रभाव पड़ता है। टीचर्स बच्चों को इतना पवित्र, महान तथा चरित्रवान बना सकते हंै कि ये बच्चे आगे चलकर सारे समाज, राष्ट्र व विश्व को एक नई दिशा देने की क्षमता से युक्त हो सकें। एक बालक अच्छे भविष्य की आशा है। यदि एक भी बच्चा पूर्ण गुणात्मक व्यक्ति (टोटल क्वालिटी पर्सन-टी.क्यू.पी.) बन जाये तो वह विश्व में बदलाव लाकर उसे एकताबद्ध कर देगा।              एक अत्यन्त ही सुन्दर सी प्रार्थना है कि ‘हे मेरे परमात्मा मैं साक्षी देता हूँ कि तुने मुझे इसलिए उत्पन्न किया है कि मैं तुझे जाँनू तथा तेरी पूजा करूँ।’ परमात्मा को जानने का मतलब है परमात्मा की ओर से कृष्ण, बुद्ध, ईशु, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह के माध्यम से धरती पर अवतरित हुई शिक्षाओं न्याय, समता, करूणा, भाईचारा, त्याग व हृदय की एकता को जानना और पूजा करने का मतलब है ईश्वर की इन्हीं शिक्षाओं पर चलना। हमारे प्रतिदिन के प्रत्येक कार्य-व्यवसाय परमात्मा की सुन्दर प्रार्थना बने। धरती पर आध्यात्मिक समाज की स्थापना के लिए तीन क्षेत्रों को उजागर करने की आवश्यकता है, जो कि अभी तक अविकसित हंै। ये तीन क्षेत्र हैं (अ) शिक्षा (ब) धर्म और (स) कानून, व्यवस्था और न्याय। इन तीनों का विस्तृत विवरण इस प्रकार है:- (अ) शिक्षा:                         आज के युग तथा आज की परिस्थितियों में विश्व मंे सफल होने के लिए बच्चों को टोटल क्वालिटी पर्सन (टी0क्यू0पी0) बनाने के लिए स्कूल को जीवन की तीन वास्तविकताओं भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शिक्षायें देने वाला समाज के प्रकाश का केन्द्र अवश्य बनना चाहिए। टोटल क्वालिटी पर्सन ही टोटल क्वालिटी मैनेजर बनकर विश्व में बदलाव ला सकता है। उद्देश्यहीन तथा दिशाविहीन शिक्षा बालक को परमात्मा के ज्ञान से दूर कर देती है। उद्देश्यहीन शिक्षा एक बालक को विचारहीन, अबुद्धिमान, नास्तिक, टोटल डिफेक्टिव पर्सन, टोटल डिफेक्टिव मैनेजर तथा जीवन में असफल बनायेगी।              शिक्षा एक सतत् और रचनात्मक प्रक्रिया है। मानव प्रकृति में निहित क्षमताओं को विकसित करना और समाज की समृद्धि एवं प्रगति हेतु उनकी अभिव्यक्ति का संयोजन करना ही उसका लक्ष्य है। बच्चों को आध्यात्मिक, सामाजिक तथा भौतिक ज्ञान से सुसज्जित करके यह सम्भव होता है। सच्ची शिक्षा विश्लेषणात्मक योग्यताओं, आत्मविश्वास, संकल्प शक्ति और लक्ष्यपरक शक्तियों के विकास की क्षमताऐं प्रदान करती हैं। साथ ही वह ऐसी दृष्टि प्रदान करती है जो व्यक्ति को समुदाय के सर्वोत्तम हितों का संरक्षक तथा सामाजिक परिवर्तन का आत्मप्रेरित माध्यम बनने की योग्यता प्रदान करती है। (ब) धर्म:                परमात्मा की ओर से दिव्य अवतारों का युग-युग में अवतरण एक प्रगतिशील दैवी प्रेरणा के अन्तर्गत होता है। यह सच्चा ज्ञान है तथा इसका उचित उपयोग व जीवन में धारण करना बुद्धिमानी है। (पहला) स्वयं के जीवन में सफलता तथा (दूसरा) सामाजिक परिवर्तन के द्वारा पृथ्वी पर आध्यात्मिक सभ्यता स्थापित करने के ज्ञान तथा बुद्धिमत्ता दो सशक्त साधन हैं। परमात्मा सबसे ऊँची आत्मा है। वह सृष्टि का रचयिता है। हम उसे गाॅड, ईश्वर, अल्लाह, रब-नूर आदि नामों से पुकारते हैं। परमात्मा अजन्मा है। उसका कोई नाम तथा आकार-प्रकार नहीं है। परमात्मा को भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता है। परमात्मा प्रकाश पुंज की तरह है। वह मनुष्य के पवित्र हृदय में आत्म तत्व के रूप में रहता है।                         परमात्मा की प्रगतिशील दैवीय प्रेरणा के मायने है कि परमात्मा द्वारा सिलसिलेवार श्रंृखला में युग-युग में अवतरित दैवीय शिक्षक कृष्ण (5000 वर्ष पूर्व), बुद्ध (2500 वर्ष पूर्व), ईशु (2000 वर्ष पूर्व), मोहम्मद (1400 वर्ष पूर्व), नानक (500 वर्ष पूर्व), बहाउल्लाह (200 वर्ष पूर्व) तथा उनकी शिक्षायें युग की आवश्यकता को पूरा करने के लिए विश्व के विभिन्न स्थानों में अवतरित हुई हैं। धर्म का बुनियादी उद्देश्य मानव जाति की एकता, मानवीय प्रेम तथा भाईचारे को विकसित करना है। बच्चों को बताना चाहिए कि सभी अवतार राम, कृष्ण, बुद्ध, ईशु, मोहम्मद, मोजज, अब्राहम, जोरस्टर, महावीर, नानक, बहाउल्लाह एक ही परमात्मा की ओर से आये हैं।                         आध्यात्मिक शिक्षा के अन्तर्गत बालक को पवित्र ग्रन्थों- गीता, कुरान, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस में संकलित परमात्मा की शिक्षाओं का ज्ञान कराना चाहिए तथा परमात्मा की शिक्षाओं पर चलने के लिए प्रेरित करना चाहिए।  (स) कानून, व्यवस्था और न्याय:             बच्चों को बचपन से ही अपने माता-पिता के द्वारा बनाये नियमों तथा स्कूल में प्रिन्सिपल एवं स्कूल के टीचर्स द्वारा बनाये गये नियमों (या कानूनों) का पालन करना सिखाना चाहिए ताकि बड़े होकर जब वे समाज में प्रवेश करें तब वे समाज के नियमों एवं कानूनों का और न्याय का पालन करें। (5) कुछ उपयोगी विचार:             नेल्सन मण्डेला ने कहा है कि ‘शिक्षा सबसे अधिक शक्तिशाली हथियार है जिसके उपयोग से विश्व में बदलाव लाया जा सकता है।’ महान विचारक विक्टर ह्ूगो ने कहा है कि पूरे संसार की समस्त सैन्यशक्ति और बमों की शक्ति से भी अधिक शक्तिशाली ‘वह विचार होता है जिसका समय आ चुका हो।’ बालकों की भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक गुणों की संतुलित शिक्षा वह ‘विचार’ है जिसका समय आ चुका है।  (6)  धरती पर शैतानी सभ्यता के … Read more

बड़े भाग्य से मानव शरीर मिला है!-डाॅ. जगदीश गाँधी

–डाॅ. जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) मानव जीवन अनमोल उपहार है:-             आज के युग तथा आज की परिस्थितियों में विश्व मंे सफल होने के लिए बच्चों को टोटल क्वालिटी पर्सन (टी0क्यू0पी0) बनाने के लिए स्कूल को जीवन की तीन वास्तविकताओं भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शिक्षायें देने वाला समाज के प्रकाश का केन्द्र अवश्य बनना चाहिए। टोटल क्वालिटी पर्सन ही टोटल क्वालिटी मैनेजर बनकर विश्व में बदलाव ला सकता है। उद्देश्यहीन तथा दिशाविहीन शिक्षा बालक को परमात्मा के ज्ञान से दूर कर देती है। उद्देश्यहीन शिक्षा एक बालक को विचारहीन, अबुद्धिमान, नास्तिक, टोटल डिफेक्टिव पर्सन, टोटल डिफेक्टिव मैनेजर तथा जीवन में असफल बनायेगी। तुलसीदास जी कहते है – ‘‘बड़े भाग्य मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सदग्रंथनि पावा।। अर्थात बड़े भाग्य से, अनके जन्मों के पुण्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। इसलिए हम इसी पल से सजग हो जाएं कि यह कहीं व्यर्थ न चला जाये। हिन्दू धर्म के अनुसार 84 लाख पशु योनियों में जन्म लेने के बाद अपनी आत्मा का विकास करने के लिए एक सुअवसर के रूप में मानव जन्म मिला है। यदि मानव जीवन में रहकर भी हमने अपनी आत्मा का विकास नहीं किया तो पुनः 84 लाख पशु योनियों में जन्म लेकर उसके कष्ट भोगने होंगे। यह स्थिति कौड़ी में मानव जीवन के अनमोल उपहार को खोने के समान है। यह सिलसिला जन्म-जन्म तक चलता रहता है।  (2)  मानव जन्म व्यर्थ में नहीं खोना चाहिए:-             हे मेरे परमात्मा मैं साक्षी देता हूँ कि तुने मुझे इसलिए उत्पन्न किया है कि मैं तुझे जाँनू तथा तेरी पूजा करूँ। परमात्मा को जानने का मतलब है परमात्मा की ओर से कृष्ण, बुद्ध, ईशु, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह के माध्यम से धरती पर अवतरित हुई शिक्षाओं न्याय, समता, करूणा, भाईचारा, त्याग व हृदय की एकता को जानना और पूजा करने का मतलब है ईश्वर की इन्हीं शिक्षाओं पर चलना। हमारा मानना है कि बच्चों के मन-मस्तिष्क पर अपने शिक्षकों द्वारा दी गई नैतिक शिक्षाओं का अत्यधिक गहरा प्रभाव पड़ता है। टीचर्स बच्चों को इतना पवित्र, महान तथा चरित्रवान बना सकते हंै कि ये बच्चे आगे चलकर सारे समाज, राष्ट्र व विश्व को एक नई दिशा देने की क्षमता से युक्त हो सकें। मनुष्य गुण रूपी मूल्यवान रत्नों से भरी खान के समान है। केवल शिक्षा ही उसके अंदर छिपे गुणों रूपी खजाने को उजागर कर सकती है और मानव जाति को उनसे लाभ उठाने के योग्य बना सकती है। मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना होने के कारण उस पर सारी सृष्टि को सुन्दर बनाने का दायित्व है। मानव जन्म रूपी रत्न मिला है, सचमुच सौभाग्य मिला है, कौड़ी में इसको न खोना चाहिए। (3)  परमात्मा के सबसे अच्छे पुत्र बनें:-             हमारा व हमारे बच्चों का यह संकल्प होना चाहिए कि हम अपने शरीर के पिता के द्वारा बनाये गये घर के साथ ही अपनी आत्मा के पिता के द्वारा बनाई गई इस सारी सृष्टि को भी सुन्दर बनायेंगे। यही एक अच्छे पुत्र की पहचान भी है। कोई भी पिता अपने उस पुत्र को ज्यादा प्रेम करता है जो कि उसकी बातों को सबसे ज्यादा मानता है। सबसे प्रेम करता है। आपसी सद्भावना पैदा करता है। एकता को बढ़ावा देता है। परमात्मा अपने ऐसे ही पुत्रों को सबसे ज्यादा प्रेम करता है, जो उनकी शिक्षाओं पर चलकर उनकी बनाई हुई सारी सृष्टि को सुन्दर बनाने का काम करते हैं। परमपिता परमात्मा की बनाई हुई इस सारी सृष्टि में ही हमारे शरीर के पिता ने 4 या 6 कमरों का एक छोटा सा मकान बनाया है। हमें इस 4 या 6 कमरों में रहने वाले अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ ही परमपिता परमात्मा द्वारा बनाई गई इस सारी सृष्टि में रहने वाली मानवजाति से भी प्रेम करना चाहिए। तभी हमारे शरीर के पिता के साथ ही हमारी आत्मा के पिता भी हमसे खुश रहेंगे।  (4)  परमात्मा ने अपनी इच्छाओं के पालन के लिए मनुष्य को शरीर रुपी यंत्र दिया है:-             ईश्वर की शिक्षाओं को जानें, उनको समझें और उनकी गहराईयों में जाये और फिर उन शिक्षाओं पर चलें। यही ईश्वर की सच्ची पूजा है और यही हमारी आत्मा का पिता ‘परमपिता परमात्मा’ हमसे चाहता भी है। शरीर चाहे अवतार का हो या संत महात्माओं का हो, माता-पिता का हो, भाई-बहन का हो या किसी और का हो, यही पर रह जाता है। जब तक आत्मा शरीर में है तभी तक यह शरीर काम करता है। परमात्मा ने अपनी आज्ञाओं के पालन के लिए हमें यह शरीर दिया है। परमात्मा हमसे कहता है कि तेरी आँखें मेरा भरोसा हैं। तेरा कान मेरी वाणी को सुनने के लिए है। तेरे जो हाथ हैं वो मेरे चिन्ह् है। तेरा जो हृदय है मेरे गुणों को धारण करने के लिए हैं। यह मानव शरीर को परमात्मा ने हमें अपने काम के लिए अर्थात् ईश्वर की शिक्षाओं को जानने के लिए तथा उसकी पूजा करने अर्थात् उन शिक्षाओं पर चलने के लिए दिया है। इसे किसी भी हालत में व्यर्थ नहीं खोना चाहिए। ’’’’’