मृत्यु संसार से अपने ‘असली वतन’ जाने की वापिसी यात्रा है!
(जब जन्म शुभ है तो मृत्यु अशुभ कैसे हो सकती है?) – डा0 जगदीश गांधी, संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) जीवन-मृत्यु के पीछे परमपिता परमात्मा का महान उद्देश्य छिपा है:- इस सत्य को जानना चाहिए कि शरीर से अलग होने पर भी आत्मा तब तक प्रगति करती जायेगी जब तक वह परमात्मा से एक ऐसी अवस्था में मिलन को प्राप्त नहीं कर लेती जिसे सदियों की क्रान्तियाँ और दुनिया के परिवर्तन भी बदल नहीं सकते। यह तब तक अमर रहेगी जब तक प्रभु का साम्राज्य, उसकी सार्वभौमिकता और उसकी शक्ति है। यह प्रभु के चिह्नों और गुणों को प्रकट और उसकी प्रेममयी कृपा और आशीषों का संवहन करेगी। बहाई धर्म के संस्थापक बहाउल्लाह कहते हंै कि हमें यह जानना चाहिए कि प्रत्येक श्रवणेंद्रीय, अगर सदैव पवित्र और निर्दोष बनी रही हो तो अवश्य ही प्रत्येक दिशा से उच्चरित होने वाले इन पवित्र शब्दों को हर समय सुनेगी। सत्य ही, हम ईश्वर के हैं और उसके पास ही वापस हो जायेंगे। मनुष्य की शारीरिक मृत्यु के रहस्यों और उसकी असली वतन अर्थात दिव्य लोक की अनन्त यात्रा को प्रकट नहीं किया गया है। माता के गर्भ में बच्चे के शरीर में परमात्मा के अंश के रूप में आत्मा प्रवेश करती है। जिसे लोग मृत्यु कहते हैं, वह देह का अन्त है। शरीर मिट्टी से बना है वह मृत्यु के पश्चात मिट्टी में मिल जाता है। परमात्मा से उनके अंश के रूप में आत्मा संसार में मानव शरीर में आयी थी मृत्यु के पश्चात आत्मा शरीर से निकलकर अपने असली वतन (दिव्य लोक) वापिस लौट जाती है। मृत्यु संसार से अपने ‘असली वतन’ जाने की वापिसी यात्रा है! (2) प्रभु कृपा की लघुता तथा विशालता पर विचार नहीं करना चाहिए:- मृत्यु प्रत्येक दृढ़ अनुयायी को वह प्याला अर्पित करती है जो वस्तुतः जीवन है। यह आनन्द की वर्षा करती है और प्रसन्नता की संवाहिका है। यह अनन्त जीवन का उपहार देती है। जिन्होंने मनुष्य के भौतिक जीवन का आनन्द उठाया है, जो आनन्द एक सत्य प्रभु को पहचानने में निहित है, उनका मृत्यु के बाद का जीवन ऐसा होता है, जिसका वर्णन करने में हम असमर्थ है। यह ज्ञान केवल सर्वलोकों के स्वामी प्रभु के पास ही है। इस युग में व्यक्ति का संपूर्ण कर्तव्य यह है कि उस पर प्रभु द्वारा बरसायी जाने वाली अनन्त कृपा के अमृत जल का भरपूर पान करें। किसी को भी उस कृपाजल की विशालता या लघुता पर विचार नहीं करना चाहिए। उस कृपाजल का भाग किसी की हथेली भर हो सकता है, किसी को एक प्याले भर मिल सकता है और किसी को असीम जलराशि की प्राप्ति हो सकती है। (3) जो कोई भी प्रभु आज्ञा को पहचानने में असफल रहा है, वह प्रभु से दूर होने का दुःख उठायेगा:- मनुष्य को उत्पन्न करने के पीछे का उद्देश्य उसे इस योग्य बनाने का है और सदा रहेगा कि वह अपने सृष्टा को जान सके और उसका सान्निध्य प्राप्त कर सके। इस सर्वोत्तम तथा परम उद्देश्य की पुष्टि सभी धर्मिक ग्रंथों गीता, त्रिपटक, बाइबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस में अवतारों कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह इत्यादि ने की है। जिस किसी ने भी उस दिव्य मार्गदर्शन के दिवा स्त्रोत को पहचाना है और उसके पावन दरबार में पदार्पण किया हैं, वह प्रभु के निकट आया है, उसने प्रभु के अस्तित्व को पहचाना है। वह अस्तित्व जो सच्चा स्वर्ग है और स्वर्ग के उच्चतम प्रसाद उसके प्रतीक मात्र है। ऐसा व्यक्ति उस स्थान को प्राप्त करता है जो बस, केवल दो पग दूर है। जो कोई भी उसे पहचानने में असफल रहा है, वह प्रभु से दूर होने का दुःख उठायेगा। ऐसी दूरी असत्य-लोक और शन्ूय में विचरण करने के बराबर है। बाहरी तौर पर वह व्यक्ति चाहे सांसारिक सुखों के सिंहासन पर ही क्यों न विराजमान हो, किन्तु दिव्य सिंहासन के दर्शन से वह सदैव वंचित रहेगा। (4) संसार में रहते हुए अगले दिव्य लोक की क्षमतायें विकसित करें:- मानव जीवन के आरम्भ में मनुष्य गर्भाशय के संसार में भ्रूण की अवस्था में था। वहाँ उसने मानव-अस्तित्व की वास्तविकता के लिये क्षमता और संपन्नता प्राप्त की। इस संसार के लिये आवश्यक शक्तियाँ और साधन शिशु को उसकी उस सीमित अवस्था में दिये गये थे। इस संसार में उसे आँखों की जरूरत थी उसने उसे इस संसार में पाया। उसे कानों की जरूरत थी, उसे उसने वहाँ तैयार पाया, जो उसके नये अस्तित्व की तैयारी थी। जिन शक्तियों की आवश्यकता उसे इस दुनिया के लिये थी, उन्हें गर्भाशय की अवस्था में दे दिया गया। अतः इस संसार लोक में उसे अगले जीवन की तैयारी अवश्य ही करनी चाहिये। प्रभु के साम्राज्य में उसे जिसकी जरूरत पडे़गी, उसे यहाँ अवश्य ही प्राप्त कर लेना चाहिये। जैसे उसने गर्भावस्था में ही इस दुनियाँ के अस्तित्व के लिये सभी शक्तियाँ अर्जित कर ली उसी तरह दिव्य अस्तित्व के लिये जिन अपरिहार्य शक्तियों की आवश्यकता है, उन्हें अवश्य इस संसार में प्राप्त कर लेना चाहिये। (5) जो प्रभु का आज्ञापालक है तो वह प्रभु के प्रकाश को प्रतिबिम्बित करेगा:- आत्मा की प्रकृति के सम्बन्ध में हमें यह जानना चाहिए कि यह ईश्वर का एक चिह्न है, यह वह दिव्य रत्न है जिसकी वास्तविकता को समझ पाने में ज्ञानीजन भी असमर्थ रहे हंै और जिसका रहस्य किसी भी मस्तिष्क की समझ से परे है, चाहे वह कितना भी तीक्ष्ण क्यों न हो। प्रभु की श्रेष्ठता की घोषणा करने में सभी सृजित वस्तुओं में वह प्रथम है, उसकी ज्योति को पहचानने में प्रथम है, उसके सत्य को मानने में प्रथम है और उसके समक्ष नतमस्तक होने में प्रथम है। यदि वह प्रभु का आज्ञापालक है तो वह उसके प्रकाश को प्रतिबिम्बित करेगा और अन्ततः उसी में समाहित हो जायेगा। यदि प्रभु से तादात्म्य स्थापित करने में असमर्थ रहता है तो यह स्वार्थ और वासना का शिकार बनेगा और अन्त में उन्हीं की गहराईयों में डूब कर रह जायेगा। (6) दिव्य लोक की ओर ऊँची उड़ान भरने के लिए गुणों को विकसित करना चाहिए:- बहाउल्लाह कहते हैं तुम उस पक्षी के समान हो जो अपने दृढ़ आनंददायक विश्वास और पंखों की शक्ति के सहारे दूर गगन के विस्तार में विचरण करता होता है और तब तक नीचे नहीं आता … Read more