पूरक एक दूजे के

 आज पितृ दिवस पर मैं अपने पिता को अलग से याद नहीं कर पाउँगी , क्योंकि माता -पिता वो जीवन भर एक दूसरे के पूरक रहे यहाँ तक की समय की धारा   के उस पार भी उन्होंने एक दूसरे का साथ दिया  |एक बेटी की स्मृतियों के पन्नों से निकली  हृदयस्पर्शी कविता … पूरक एक दूजे के  माँ थी  तो पिता थे पिता थे तो माँ थी पूरक थे दोनों एक-दूजे के…….! जब दोनों थे  हँसते दिन-रातें थीं  हवाएँ घर की  देहरी-आँगन में गीत गाती थीं……! जब दोनों थे बसेरा था त्योहारों का घर में आते थे पंछी घर के बगीचे में शोर मचाते थे नटखट बच्चों की तरह,नृत्य करती थी भोर जैसे उनके साथ में……..! जब दोनों थे  गूँजते थे गीत और कविताएँ घर के कोने-कोने में  आते थे अतिथि  बनती थी पकौड़ियाँ और चाय……! जब दोनों थे फलते थे आम, आड़ू, नाशपाती लीची, चकोतरे बगिया में,पालक, मेथी, धनिया, मूली पोदीना, अरबी फलते थेछोटी-छोटी क्यारियों मेंमिलते थे थैले भर-भर लहलहाती थी बगिया……..! खिलते थे  विविध रंगी गुलाब, गेंदे  गुलमेहँदी, बोगनविलिया  “ उत्तरगिरि “ में…………..! जब दोनों थे बरसता आशीर्वाद मिलती थी स्नेह-छाया हर मौसम में……………! ईश्वर ने  भेजा संदेश  माँ को आने का  तो उनको विदा कर  पिता भी ढूँढने लगे थे  मार्ग जल्दी माँ के पास जाने का……! पूरक थे जीवन भर एक-दूजे के तभी डेढ़ माह बाद ही साथ देने माँ का पहुँचे पिता भी,पूरक बने हैं मृत्यु के बाद भी तारों के मध्य दोनों साथ-साथ चमकते हैं…………! दुख के अंधेरों में  सिर पर हाथ रख सदा की तरह  मेरा साहस बनते हैं तो  खुशियों में आशीष बरसाते नवगीत रचते हैं मेरी श्वास बन  साथ-साथ चलते हैं…………! इसी से नहीं करती उन्हें स्मरण मैं अलग-अलग मातृ दिवस-पितृ दिवस पर…….! हर दिवस  उन्हीं की स्मृतियों के  धनक संग ढलते हैं माँ-पापा आज भी  मेरे हृदय में  बच्चों से पलते हैं……….!! ——————————- डा० भारती वर्मा बौड़ाई                                  यह भी पढ़ें … डर -कहानी रोचिका शर्मा एक दिन पिता के नाम -गडा धन आप पढेंगे ना पापा लघुकथा -याद पापा की आपको  कविता  “    पूरक एक दूजे के “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs, parents

विश्व पर्यावरण दिवस

विकास के साथ हमने जिस चीज का सबसे ज्यादा  विनाश किया वो है हमारा पर्यावरण | पर्यावरण हमारे जीने का आधार है , इसकी उपेक्षा कर के हमने पृथ्वी पर जीवन को ही खतरे में डालने की शुरुआत कर दी है | आज अनेकों बीमारियाँ इसका परिणाम है | अगर अब भी नहीं चेते तो शायद चेतने का मौका भी न मिले | याद रखिये  कि ये पृथ्वी हमें अपने बुजुर्गों से विरासत में नहीं मिली है बल्कि इसे हमने अपने बच्चों से उधार  में लिया है | पर्यावरण की रक्षा करना हम सब का कर्तव्य है | सरकार क़ानून बना सकती है पर पालन हमे ही करना है | इसके लिए जन जाग्रति बहुत जरूरी है | आइये पेड़ लगाये और  अपने पर्यावरण को फिर से स्वस्थ  होने में मदद करें |  विश्व पर्यावरण दिवस पर कविता  आज  पर्यावरण दिवस है  जगह-जगह  पेड़ लगाने के  कार्यक्रम हो रहे है  जगह-जगह  सभाएँ भी  जिनमें  नेता भी  सफेद कुरते-पजामे में  सजे-धजे  विशिष्ट अतिथि बने  पेड़ लगा कर  फोटो खिंचवायेंगे जो कल के  अखबार में  बड़ी-बड़ी सुर्खियों के साथ  पहले-दूसरे पृष्ठ पर  नजर आयेंगे  आज के लगाए पेड़  जिए या मरें  इसकी चिंता  कोई नहीं करेगा  बस आज  पेड़ लगेंगे  फोटो खिंचेंगे  सभाओं में  सेमिनारों में भाषण होंगे फेसबुक पर  फोटो डलेंगी……! यह सब तो होगा पर, सोचा कभी आपने  पर्यावरण के लिए  आप, हम  क्या कर रहे हैं………..!! कोई संकल्प करके  कुछ शुरू किया? प्लास्टिक की थैलियों को छोड़  कपड़ों के थैले लेकर  सब्जी लेने  निकले आप, घर के  जैविक-अजैविक  कूड़े को अलग किया, बिजली के  उपकरणों का प्रयोग  कम किया, माईक्रोवेव को  अपनी रसोई से हटाया, एक दिन  गाड़ी छोड़  पैदल चलने के लिए सोचा, अपने घर के टपकते  नलों को ठीक कराया, अपने घर में  नीम, करी पत्ते और  तुलसी के पौधे लगाए, प्यासी चिड़ियों के लिए  मिट्टी के बर्तन में  पानी रखा……..??? यदि नहीं किया  ये सब तो  पहले ये  छोटे-छोटे काम  स्वयं अपने घर से आरंभ करके  अपने आसपास  अलख जगाइये पर्यावरण बचाने को  इस तरह अपना  कर्तव्य निभा कर  नित सार्थक  पर्यावरण दिवस  मनाइये…………!!! ———————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें … मायके आई हुई बेटियाँ शुक्र मनाओ फिर से रंग लो जीवन सतरंगिनी आपको “ वृक्ष की तटस्था “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- Tree, Poetry, Poem, Hindi Poem, World Environment day

एक पाती नेह भरी -बहुत याद आ रही हो माँ!

आज तुम बहुत याद आ रही हो माँ! पर आज ही क्यों… तुम तो मुझे सदा ही इसी तरह याद आती हो। या यूँ कहूँ तुम मेरी यादों से कभी गई ही नहीं।आज न जाने क्यों मन में स्वयं से ही यह जानने की जिज्ञासा जगी है कि चौवन वर्ष के अपने और तुम्हारे इस अनमोल रिश्ते में मैंने तुमसे क्या-क्या पाया?  एक पाती नेह भरी -बहुत याद आ रही हो माँ!               जिस समय तुमने मुझे जन्म दिया उस समय तो बेटों की चाह बलवती रही होगी। तब अगर तुम मुझे जन्म न देती तो, मैं तो इस संसार में आती ही नहीं। इस रंग भरे संसार में मुझे लाकर तुमने मुझे सबसे पहला अनुपम उपहार दिया। इसका मूल्य और भी अधिक अच्छी तरह मैंने तब जाना, जब स्वयं अपनी बेटी को जन्म दिया। माँ बनने से बड़ा सुख कोई नहीं इस संसार में और माँ से बढ़कर प्यारा, निश्चल कोई दूसरा नहीं इस संसार में। पापा कहा करते थे कि इस संसार में सब कुछ दोबारा मिल सकता है पर अपने माँ-पिता दोबारा नहीं मिलते। सच ही तो कहते थे। सब कुछ है मेरे पास पर तुम और पापा नहीं हो। सिवाय यादों की पूँजी के मेरे पास और क्या है अब?             तुम्हारी वो लोरियाँ आज भी मुझे सुनाई देती हैं। अब, जब मुझे घंटों नींद नहीं आती, आँखे बंद कर चुपचाप लेटी रहती हूँ तब-तब ऐसा लगता है जैसे तुम सिर पर हाथ फेरते हुए तो कभी थपकते हुए, धीमे-धीमे गुनगुना कर मुझे सुला रही हो।           जब बीमार पड़ती तो तुम और पापा बेचैन रहते थे। मैं तुम दोनों को परेशान कर डालती थी।जब ठीक हो जाती तभी तुम दोनों चैन की साँस लेते थे। धीरे-धीरे माँ-बेटी होने के साथ-साथ हम कब सहेलियाँ बन गई…यह तो शायद हम दोनों को भी पता नहीं चला होगा। साथ बाजार जाना, खरीददारी करना, फ़िल्में देखना, टीवी देखना सब एक साथ होता। तुम्हें याद है… जब टीवी में कोई अच्छी फ़िल्म आने वाली होती थी तो हम जल्दी ही खाना बना लेते थे, ताकि आराम से फ़िल्म देख सकें। जब क्रिकेट मैच आता तो पापा के साथ टीवी के सामने जमे रहते। उन दिनों का जो आनंद था वो तो अब बीते दिनों की बात हो गई। मेरे विवाह के बाद भी इसमें व्यवधान नहीं आया। तुम और मैं अपने कामों की सूची बना कर जो रखते थे। जब मैं छुट्टियों में आती तब अपनी सूची देख-देख कर रोज इधर-उधर जाने में लगे रहते थे।           मैं देखती हूँ आज आधुनिकता की दौड़ में उलझे लोगों के रिश्ते भी उलझ से गए हैं। अब सब अपने हमउम्रों में अधिक उठना-बैठना, घूमना-बात करना पसंद करते हैं। मैं तो ईश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि हमने अपने जीवन के अपने सबसे प्यारे रिश्ते का स्वर्णिम काल एक-दूसरे को भरपूर प्यार-मान देते हुए सुंदर और मोहक रूप में जिया कि वो आज भी मेरी स्मृतियों में चंदन की तरह समा कर अपनी सुगंध से मुझे सुवासित करते हुए जीवन की संजीवनी प्रदान कर रहा है। एक बात बताऊँ तुम्हें…तुम्हारी शैतान, नटखट नातिन भी मेरे साथ जीवन के इस अनमोल रिश्ते का वही रूप जी रही है जो हमने जिया। तुम्हारा नाती भी अब अपनी सारी शैतानियाँ छोड़ कर बहुत समझदार हो गया है। बहुत छोटी उम्र में बड़े काम करने में लगा है और साथ तुम्हारे और पापा के जाने के बाद आए मेरे दुःख, खालीपन को अपने साथ से बाँटने-भरने का पूरा प्रयास करता है। विवाह के बाद तुम्हारी नातिन भी वैसे ही भागते-दौड़ते हमसे मिलने, सुख-दुःख जानने आती है जैसे मैं तुम्हारे पास आया करती थी। बस चेहरे बदल गए हैं,पर चरित्र और परिस्थितियाँ वही हैं। तुम्हारे और पापा के स्थान पर मैं और तुम्हारे दामाद हैं और मेरी जगह तुम्हारे नाती-नातिन आ गए हैं। उनके आने पर मैं तुम्हारी तरह ही खुश होती हूँ और जाने के समय दुखी होकर पूछती हूँ….अब फिर कब मिलने आओगे?             अचार डालना तो मैंने तुम्हारे जाने के बाद सीखा, पर मसालों का नपा-तुला डालने का अनुपात तो तब भी नहीं आया। गुझिया बनाना तो सीख ही नहीं पाई। स्पष्टवादिता का जो गुण तुमने मुझमें विकसित किया वो आज मेरे चरित्र की शान है। तुम्हारा मितव्ययिता का गुण मेरी सुचारू रूप से चलने वाली गृहस्थी का सुदृढ़ आधार है।              स्मृतियों के नगर में भ्रमण करना भी तुम्हीं ने सिखाया। जब इस नगर के गलियारों में कहीं-कहीं रूकती हूँ तो पाती हूँ कि मैंने तुम पर जब-तब गुस्सा भी किया….जब तुम अपनी अच्छी और नई साड़ियों को स्वयं न पहन कर मुझे देने की बात करती थी, कहीं जाने के लिए पुरानी साड़ियों को ही पहन कर तैयार हो जाती थी, कोई अच्छी चीज बनाने पर खुद कम लेकर मेरी ही कटोरी में डालती जाती थी। तब बहुत गुस्सा आता… क्यों तुम अपने लिए नहीं सोचती, हम बच्चों के लिए ही सब लुटाने में क्यों लगी रहती हो।            बीमार होने पर जब तुम खा नहीं पाती थी तब भी मुझे गुस्सा आता था यह सोच कर कि बिना खाए कैसे तुम में शक्ति आएगी? जब खाओगी नहीं तो बीमारी से लड़ोगी कैसे?  उस समय तुम्हारी चिंता में कहाँ यह समझ आता था कि बीमार व्यक्ति चाह कर भी नहीं खा पाता। तब तो मृत्यु की ओर बढ़ती अपनी माँ के जीवन का एक पल भी किसी तरह बढ़ा सकूँ…इसी सोच में घुली जाती थी और अपना आपा खो बैठती थी। बाद में हम एक-दूसरे के गले लग कर आँसू बहाते और मनाते।           आज मैं तुम्हारे गले लग कर वो सब कहना चाहती हूँ जो अनकहा रह गया। इसी कारण आज तुम बहुत याद आ रही हो माँ! इसके लिए तुम्हें मेरी माँ बन कर फिर से आना होगा। जो छूट गया करने, कहने, सुनने के लिए… उसे फिर से जीना होगा। और हाँ… यह बात तुम पापा को भी बता देना। यह बात उनके लिए भी है। वे तुम्हारी बात मानते हैं न।    … Read more

बचपन की छुट्टियाँ: नानी का घर

              कई दिनों से मन में स्मृतियों के बादल उमड़-घुमड़ रहे थे, गरज रहे थे पर बरसने का नाम नहीं ले रहे थे। बहुत बेचैन था मन बरसने को आतुर, पर बरसे कहाँ जाकर? माँ-पापा के कंधे तो कब के छूट चुके.. जहाँ मौसम-बेमौसम कभी भी सुख-दुःख में जाकर सिर रख बरस सकते थे। ऐसे में आज”बचपन की छुट्टियाँ:नानी का घर” शीर्षक ने तो जैसे मन को बरसने का अवसर प्रदान कर दिया और मैं चल दी स्मृतियों के नगर के गलियारों में इधर-उधर धींगामस्ती करने के लिए के लिए। आप सब भी तो चल रहें हैं न साथ! संस्मरण -बचपन की छुट्टियाँ: नानी का घर             बचपन में जैसे ही छुट्टियाँ होती तो नानी का घर ही सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र होता था। नानी और मामा के निश्चल प्रेम की गंगा में जी भर गोते लगाने को जो मिलता था। माँ जब जाने की तैयारी में कपड़े रखने को तैयार होती तो मैं अपने कपड़ों को समेट उनके सामने ढेर लगा कर रख देती थी इस हिदायत के साथ… कि पहले मेरे कपड़े रखना ताकि कोई छूट न जाए।                पापा हमें नानी के घर छोड़ने जाते। उसी दिन शाम को और बहुत कहने पर रात को रुक सुबह देहरादून लौट आते। नानी का घर चोहड़पुर( पहले यही नाम था,पर अब विकासनगर है) की पहाड़ी गली में था। एक बड़ी सी हवेली थी, जिसमें चार परिवार नीचे और पाँच परिवार ऊपर रहा करते थे। नानी का घर हवेली की दूसरी वाली मंजिल पर था। तीसरी मंजिल पर कभी तीन तो कभी दो परिवार रहते ही थे। बाक़ी खुली छत थी, जिसका गर्मी-सर्दी में लोग भरपूर उपयोग किया करते थे। छुट्टियों में ऊपर वाले परिवारों में कम ही जाना होता क्योंकि वे अधिकतर व्यापारियों के ही घर होते थे। हाँ, दूसरी और नीचे वाली मंजिल के सभी परिवार आते-जाते बात किए बिना नहीं रहते थे।          शौचालय ऊपरी मंजिल पर था। बस यही मेरी एक समस्या का कारण था। सीढ़ियाँ चढ़ कर शौचके लिए या छत पर चली तो जाती, पर उतरते समय नीचे देखते ही सिर चकराने लगता। इसलिए ऐसे समय किसी का साथ पकड़ना मेरे लिए बहुत ही जरुरी होता था।           जब पापा हमें छोड़ कर लौट जाते तो उस हवेली को, जिसे सब बगड़ कहते थे, उस पूरे बगड़ में खबर हो जाती कमला ( मेरी माँ ) अपनी बेटी के साथ आ गई है। एक-एक कर सब मिलने आते, गले मिलते, मेरे सिर पर हाथ फेर कर,अपने सीने से लगा कर प्यार करते। शकुंतला मौसी, मैना मौसी, नन्हे की बीबी, सुलोचना मौसी की माँ सब मिलने आते। दो-चार दिन बीतते-बीतते सुलोचना मौसी और बिमला मौसी भी छुट्टियों में अपने बच्चों को लेकर आ जाती। शकुंतला मौसी नानी की सखी थी। पर सब उन्हें मौसी कह कर ही बुलाते थे।वे जैसे सबकी मौसी थी।         नीचे की मंजिल में एक सहजो मौसी थी। उनके सहजो नाम पड़ने के पीछे भी एक मनोरंजक कहानी थी। वे कोई भी काम बहुत ही सहज-सहज करती थी। चाहे जल्दी भी हो, उनके काम करने की गति वही सहज-सहज ही रहती। तो धीरे-धीरे उनका नाम ही सहजो पड़ गया। उनका वास्तविक नाम सब भूल गए। जीवन भर वे सबको नाम से ही जानी गई।           नीचे ही मैना मौसी का बेटा प्रवेश उन्हें भाभी कह कर बुलाता था। मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय होता था। वो तो उसकी माँ हैं, तो वो भाभी क्यों कहता है? तब तो मैं भी माँ को भाभी कह सकती हूँ। उसकी देखा-देखी मैंने अपनी माँ को एक-दो बार भाभी भी कह दिया। तब नानी और माँ ने बताया था कि प्रवेश के चाचा उन्हें भाभी कह कह कर बुलाते थे इसलिए प्रवेश भी उन्हें भाभी कहने लगा, पर वो उनकी माँ ही है। 13 फरवरी 2006                नानी के घर छुट्टियों का एक-एक दिन मूल्यवान होता था। अपने नाना की मैं बहुत लाड़ली थी। वे आर्य समाज से जुड़े थे। रविवार को हवन के लिए और जब भी वे आर्यसमाज भवन जाते तो उनके साथ मैं अवश्य जाती थी। उनसे पहले मैं तैयार हो जाती थी। आते-जाते पाँच पैसे की ( उस समय पाँच पैसे में बहुत सारी नमकीन आती थी ) मूँग की दाल वाली नमकीन लेना मैं कभी नहीं भूलती थी। आज इतनी हल्दीराम, बिकानो  आदि न जाने कितने नामों वाली नमकीन बाजार में मिलती है, पर जो स्वाद उस पाँच पैसे में मिलने वाली मूँग की दाल वाली नमकीन में था, वो कहीं भी ढूँढे नहीं मिलता।               नानी के घर में एक आकर्षण वहाँ का आढ़त बाजार था। उसमें खूब सब्जियाँ, फल और भी बहुत सी चीजें आती।नाना कभी तरबूज, कभी खरबूजे,लीची, आड़ू, पुलुम (plum), आम, गन्ने,नाशपाती,कठहल,सिंबल डोडे( सेमल की कलियाँ) रोज कुछ न कुछ लेकर आते थे। गुड़ की भेलियाँ आती, बूरा, घी लाया जाता था।खूब मौज रहती।              रोज या तो माँ से कोई मिलने आता या हम नानी के साथ उनकी किसी सखी के यहाँ कभी नारायण गढ़, तो कभी बाबूगढ़ जाते। नानी की कोई न कोई सखी हमें हर दूसरे-तीसरे दिन खाने पर बुलाते। मक्की, बाजरे की रोटी खूब घी लगाई हुई, साग में घी तैरता हुआ तो खिलाते ही, साथ में पूछ-पूछ कर मनपसंद सब्जी, दाल, खीर,चावल,घी- बूरा भी खिलाते थे। चलते समय माँ को और मुझे रुपए भी देते थे। नानी की एक सखी मुझे कुंता की दादी के नाम से ही याद हैं।वो नानी बिलकुल अपनी नानी की तरह मुझे प्यार करती थी। मैं तो दिन में उनके पास एक चक्कर तो लगा ही आती थी।                  नानी के बगड़ के सब लोग ही मुझे अच्छे लगते। किसके यहाँ आज क्या पका है सबको मालूम रहता। जिस घर के बच्चे को अपने घर में बनी दाल-सब्जी पसंद नहीं आती तो वो अपनी कटोरी लेकर आता और जहाँ मनपसंद बना होता वो कटोरी में भर कर ले जाता।       … Read more

विश्व हास्य दिवस पर दो कवितायें

हँसी.. ख़ुशी का पर्याय है | हँसना वो तरंग है जिस पर जीवन उर्जा नृत्य करती है | फिर भी आज हँसी की कमी होती जा रही है | ये कमी इतनी हो गयी है कि इसे इंडेंजर्ड  स्पीसीज का किताब देते हुए विश्व हास्य दिवस की स्थापना करनी पड़ी | अगर जीवन की उर्जा को जिन्दा रखना है तो हँसी को सहेजना ही होगा | इसी हँसी को सहेजने की कोशिश करती हुई … विश्व हास्य दिवस पर दो कवितायें  १—हँसे….. चलो  हँसे खुल कर  खिलखिलाएँ  बाहर निकल कर  उन लोगों के साथ  जो जीवन से  निराश होकर  हँसना भूल गए हैं  साथ ले चलें  कुछ प्यारे  कोमल से बच्चे  जो बेवजह  हँस सके  बिना किसी  षड्यंत्र के साथ  किसी के भी साथ। २—हँसी बिखर रही है……. अपनी बुनी चादर समस्याओं की  ओढ़ी हुई है  जाने कब से  उतार फेंको… खोल दो  घर के सब  दरवाजे और खिड़कियाँ निकल आओ बाहर  खुले आसमान में… दोनों बाँहे फैला कर  हँसो हँसो खुल के  लगाओ ठहाके  जोर-शोर से…. पता तो लगे हँसी बिखर रही है उन्मुक्त  सूर्य के प्रकाश की तरह  चारों ओर  सर्वत्र……!!!!! ———————————- डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें … मैं माँ की गुडिया ,दादी की परी नहीं … बस एक खबर थी शुक्र मनाओ किताबें कच्ची नींद का ख्वाब   आपको “विश्व हास्य दिवस पर दो कवितायें  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- World Laughter day, laughing, laugh, Laughter club

पीली फराक

बाबू! इस जन्मदिन पर तो मेरे लिए पीले रंग की फराक लाओगे न? हाँ! हाँ! जरूर लाऊँगा। हरिया के दिमाग में उठते ही रधिया की बातें गूँजने लगी।       बदन बुखार और दर्द से टूटा जा रहा था। हिम्मत उठने की नहीं हो रही थी पर आज पीली फराक तो रधिया को लाकर देनी ही थी। तो जैसे- तैसे उठ कर रधिया की माई को चाय बनाने को कह फारिग होने निकल गया। आकर नहाया और चाय के साथ रात की रखी रोटी खाई। डिब्बे में चार रोटी, अचार, मिर्च और प्याज रखवाया। उसे लेकर, सिर पर गमछा लपेट कर चल पड़ा। घंटाघर के पास बड़े डाकघर के सामने जाकर खड़ा  हो गया जहाँ सारे मजदूर खड़े होते थे। फर्क        तब तक उसे वो बाबू दिख गए जो कई बार उसे अपने घर की सफाई करने के लिए ले गए थे। दौड़ कर बाबू को नमस्ते कर दी, शायद बाबू उसे सफाई के लिए ले जाएँ। बाबू ने उसे देखा तो अपने स्कूटर पर बैठा सफाई के लिए घर ले आए। सफाई करते हुए एक बज गया तो मुँह-हाथ धो, मालकिन से पानी माँग कर खाना खाने बैठा।        पानी देते हुए मालकिन ने पूछा.. हरिया! आज तेरी तबियत ठीक नहीं है क्या?       हाँ मालकिन! दो दिन से तेज बुखार है।        तो काम करने क्यों आया? दवाई खाकर घर पर आराम करता। ऐसे तेरा बुखार उतरेगा भला?         जानत हूँ मालकिन! पर वो क्या बताऊँ? हमार बिटिया का आज जन्मदिन है। उसने पीली फराक लाने को बोला कब से? काम करने न आता तो फराक कैसे लूँगा? बस एहि खातिर चला आया। राग पुराना              ठहर, अभी बुखार उतरने की गोली देती हूँ तुझे… कह कर अंदर से लाकर चाय-बिस्किट दिए और और एक पैरासिटामोल दी।            चलते समय पैसों के साथ अपनी बेटी की छोटी हो गई पीले रंग की फ्राक और कुछ लड्डू दिए।            पैसे,फराक और लड्डू लेकर हरिया इतवार को लगने वाले बाजार की और चल पड़ा पीली फराक ख़रीदने के लिए। सोचता हुआ जा रहा था कि रधिया को फराक के साथ दो चाकलेट  भी देगा तो वो कितनी खुश हो जाएगी। ————————————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई  यह भी पढ़ें … घूरो , चाहें जितना घूरना हैं जीवन अनमोल है अनावृत  चोंगे को निमंत्रण आपको आपको  कहानी  “पीली फराक “  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- short stories, Hindi stories, short stories in Hindi, international Labour day, YELLOW FROCK

बुद्ध पूर्णिमा पर 17 हाइकु

हायकू काव्य की एक विधा है जो नौवी शताब्दी से प्रचलन में आई | ये बहुत ही गहन विधा है जिसमें  कम से कम शब्दों में अपनी बात कही जाती है | हायकू कविता  की बनावट 5-7-5 होती है | बुद्ध पूर्णिमा पर पढ़ें – भगवान् बुद्ध  को समर्पित 17 हाइकु  नहीं आसान  स्वयं बुद्ध बनना  हों समाधान। सिखाए पानी  नदी मचाती शोर  सागर शांत। पहने अहं ढीले वस्त्रों समान  उतारें सहम। भौतिक मोह भस्म कर डाले जो  वही है बुद्ध। क्षमा है शक्ति  मिटाती क्रोध शोक  उपजे प्रेम। मार्ग हो धर्म  अपनाइए साथ  मिटे अधर्म। जीवन को दिशा दिखाते भगवान् बुद्ध के 21 अनमोल विचार मिटे अँधेरा  धम्मपद का ज्ञान  देवे सवेरा। महान पल  अस्वीकारें सहाय  मुक्ति संभव। बीता है भूत  भविष्य आया नहीं  है मात्र क्षण। बदलें दिशा  चलते चलो तभी  सुधरे दशा। रचते स्वयं  सेहत रोग शोक  कहते बुद्ध। बुद्ध पूर्णिमा -भगवन बुद्ध ने दिया समता का सन्देश पवित्र बोल  कर्म में परिणत  तभी सार्थक। शांति भीतर  कस्तूरी के समान  करती वास। वहीं है खुशी जो सहेजते इसे  रखते पास। प्रबुद्ध बनें सर्व जन हिताय  समृद्ध बनें। जैसा सोचते  कर्म यथानुसार वैसा बनते। पवित्र मन  समझ से उपजे वो सच्चा प्रेम। ———————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई  यह भी पढ़ें … दीपावली पर हायकू व् चौका हायकू व् हाइगा -डॉ . रमा द्विवेदी  आपको  हायकू  “बुद्ध पूर्णिमा पर 17 हाइकु “ कैसे लगे | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under-   Buddha, Buddha purnima, God  , lord Buddha                                       

किताबें

मैंने हमेशा कल्पना की है कि स्वर्ग एक तरह का पुस्तकालय है -जोर्ज लुईस बोर्गेज  किताबें मनुष्य की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं | ये अपने अंदर  विश्व का सारा ज्ञान समेटे हुए होती हैं | केवल किताबों को पढ़कर एक कोने में रख देना ही काफी नहीं है उन्हें समझ कर उस ज्ञान को आत्मसात करना ही हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए |  किताबें /Kitaabein poem in Hindi मुझे  मुफ़्त में  न लेना कभी  जब भी लो  मूल्य देकर ख़रीदना  मैं अलमारी में  बंद होकर नहीं, तुम्हारे  हृदय में  मीत बन कर  रहना चाहती हूँ  मन से मन तक की  निर्बाध यात्रा  करना चाहती हूँ  सुगंध बन सर्वत्र  बिखरना चाहती हूँ ————————— २— मिल  जाती हूँ विमोचन कार्यक्रमों में  मुफ़्त में  तो सहेज कर  रख लेते हो अपने  सजे-धजे ड्रॉइंगरूम की  बड़ी सी अलमारी में आने-जाने वालों पर  अपने पुस्तक प्रेमी होने का प्रभाव डालने को,  पर पढ़ते नहीं कभी तुम मुझे! सुनो!  एक सलाह देती हूँ  जहाँ भी  कोई भी तुम्हें  दे कोई पुस्तक मुफ़्त में  तो मना करना सीख लो  लेनी ही तो  उसका मूल्य देना सीख लो  मूल्य दोगे तो  कम से कम  अपने दिए पैसों का  मूल्य चुकाने को  उसे पढ़ने की  आदत डालना तो  सीखोगे। —————- डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें …  प्रेम कविताओं का गुलदस्ता नारी मन पर पांच कवितायें फिर से रंग लो जीवन जल जीवन है आपको “ किताबें “कैसी  लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | FILED UNDER- BOOKS, HINDI POETRY, HINDI POEM

शहीद दिवस पर कविता

शहीद दिवस भारत माता के तीन वीर सपूत भगतसिंह , राजगुरु व् सुखदेव को  कृतज्ञ राष्ट्र का सलाम है |अंग्रेजी हुकूमत ने 23 मार्च सन 1931 को फांसी पर लटका दिया था | देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले ये तीनों हमारे आदर्श हैं आइये पढ़ते हैं उन्हीं को समर्पित कविता .. शहीद  दिवस पर कविता वे  देश के लिए  अपना आगा-पीछा  देखे-सोचे बिना  हँसते-हँसते  फाँसी के  फंदे पर झूल गए  और आज  अपने आस-पास  अन्याय होते  देख कर भी  नहीं निकलते  घर से बाहर देखते हैं बस  अपने घर की  खिड़कियों पर लगे  परदों का एक कोना हटा कर  चोरों की तरह  कितना अंतर आ गया है  स्वतंत्र होने के बाद  शहीदों को याद करते हैं  नमन करते हैं  सोशल मीडिया पर  गूगल से ढूँढ-ढूँढ कर  शहीदों की फ़ोटो  पोस्ट करते हैं  सभाएँ,कार्यक्रम करते हैं  उनकी फ़ोटो पर  माल्यार्पण कर  देश के लिए अपना  सर्वस्व समर्पण की  बात करते हैं  पर समय आने पर  देश तो बहुत दूर  अपने आस-पास तक के लिए भी  बाहर निकलने तक में  डरते हैं  कुछ करने में  सौ बार सोचते हैं और केवल सोचते रहते हैं  शहीदों की विरासत को इस तरह संभाले बस खड़े रहते हैं। ————————- डा० भारती वर्मा बौड़ाई फोटो क्रेडिट –shutterstock पढ़िए एक से बढाकर एक कवितायें काव्य जगत में आपको  कविता  “ शहीद  दिवस पर कविता“कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under- shaheed divas, 23 march, bhagat singh

विश्व गौरैया दिवस पर दो कविताएँ

20 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय गौरैया दिवस मनाया जाता है | इसका मुख्य उद्देश्य गौरैया और अन्य घरेलू चिड़ियों के  बारे में जागरूकता पैदा करना है , ताकि इनकी लुप्त होती प्रजाति को बचाया जा सके | ये एक पहल है भारत की nature foever society व् बहुत सारे अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण समूहों की | इसी चेतना अभियान को जगाते हुए गौरैया पर दो कवितायें  विश्व गौरैया दिवस पर दो कविताएँ गौरैया-१ ———— हों  भले ही  कितने ही  नाम तुम्हारे  गुबाच्ची, पिछुका चिमनी, चकली घराछतिया, चराई पाखी  चेर, चिरी, झिरकी, चिरया, पेसर डोमिस्टिकस आदि-आदि  पर मुझे तो  भाता है तुम्हारा  छोटा सा  प्यारा सा नाम  गौरैया! माना कि शहरीकरण के नए दौर में नहीं हैं घरों में बगीचे नहीं है घरों में  ऐसी कोई जगह  जहाँ बना सको  घोंसले तुम  अपने मन से  पर सुनो गौरैया! ऐसा नहीं कि कोई सोचता नहीं  तुम्हारे लिए  अख़बारों में  लिखे जा रहे लेख  आयोजित हो रही है  सभाएँ-चर्चाएँ  जिनके केंद्र में  होती हो तुम  किसी ने तो  अपने पूरे घर को  बना दिया तुम्हारा घर  तो कोई प्लाईवुड के  घर बना कर  बाँटने में लगा है  कई कारागारों में  क़ैदियों ने बनाए है  तुम्हारे लिए  छोटे-छोटे प्यारे घर  जिन्हें वहाँ से  ख़रीद कर लोगों ने  लगाए हैं तुम्हारे लिए घर  तुम वहाँ रहने  ज़रूर जाना  जहाँ भी रखा है  किसी ने तुम्हारे लिए पानी  वहाँ पानी पीने  ज़रूर जाना  जब गर्मी लगे तो  नहाना भी  खाने के लिए बिखेरे दाने  खाना भी  मेरे मोहल्ले के  छोटे-छोटे बच्चे राह देखते हैं नित  उनके लिए  हम सबके लिए  हमारे अँगना में  फिर से आना  चहचहाना  आओगी न  गौरैया! —————— गौरैया-२ ——— गौरैया मेरे आँगन की  मेरी बेटी सी हो कर  उड़नछू हो गई जैसे वो आती है  ससुराल से  घड़ी भर के लिए  बस वैसे ही  गौरैया भी आती है भूले-भटके कभी  पानी की दो बूँद पीने  और जब से  पड़ोसी के विद्वेष ने  कटवाया अशोक का  हर-भरा पेड़  जो हो गया ठूँठ सा  रूठ गई तभी से गौरैया  भूल गई रास्ता  मेरे घर का  रोज रखती हूँ  मिट्टी के चौड़े बर्तन में  पानी उसके लिए  देखो कब आती  पीने पानी  मेरी रूठी  गौरैया रानी! मत कर मनमानी  ————————- डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें … बदनाम औरतें बोनसाई डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ बैसाखियाँ  आपको “ विश्व गौरैया दिवस पर दो कविताएँ“कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keyword-sparrow, world sparrow day, 20 march