अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष -मैं स्त्री

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष  मैं  ———— अपने पराये रिश्तों में इतना विष मिला  पीकर नीलकंठ हो गई मैं अब  विष भी अमृत सा लगता हैं नहीं लगता अब कुछ बुरा अच्छे-बुरे की सीमाओं से  ऊपर उठ गई हूँ मैं बहुत कुछ है इस संसार में जो अभी तक  देखा नहीं जो अभी तक  किया नहीं हरी मखमली दूब पर लेट कर दिन में सूरज से  आँख मिला कर तो रात में  चाँद की चाँदनी में नहा कर उलझाना है उन्हें नदी के संग  नदी बन कर बहते जाना है मुझे हवा के संग दूर -दूर तक की यात्राएँ करनी है मुझे तितलियों के संग उड़ना जुगनुओं के संग गाहे-बगाहे चमकना है मुझे जिन गौरैयों को पापा के संग मिल क्षण भर के लिए भी पकड़ा था उन्हें मनाना है मुझे श्यामा और सुंदरी मेरी जिन गायों ने दूध देकर दोस्ती का रिश्ता निभाया था मुझसे कहाँ हैं वे अब उन्हें ढूँढना है मुझे और वो जूली बिल्ली जिसे थैले में रख  घंटाघर छोड़ कर  आए थे हम क्योंकि अपने ही बच्चों को काटने लगी थी वो कहाँ होगी वो और उसकी बेटी स्वीटी सोचती हूँ  उन्हें भी तो ढूँढ कर कुछ समझाना-दुलराना होगा और वो मिट्ठू जो एक दिन भूल से बरामदे में रह गया था उसी दिन किसी दूसरी बिल्ली ने पंजे मार घायल कर डाला था उसे कि फिर वो जी ही नहीं पाया था उसके दुःख में माँ ने तीन दिन तक खाना ही नहीं खाया था कहाँ होगा वो किस रूप में फिर जन्मा होगा वो ये भी तो पता लगाना है कितने ही काम हैं ऐसे जो करने है मुझे तो भला कैसे मैं उलझी रह सकती हूँ मैं इसमें कि किसने मुझे  कब, क्या कह कर दुखी किया मैं सही हूँ या गलत यह सिर्फ और सिर्फ  मैं जानती हूँ किस राह चलना है ये भी मैं जानती हूँ क्या करना है मुझे ये भी मैं ही जानती हूँ तो जिन रिश्तों ने दर्द दिया उन्हें वैसा ही छोड़ अपने लक्ष्य के लिए आगे बढ़ना भी मैं ही जानती हूँ, इसलिए चल पड़ी हूँ अब नहीं रुकूँगी मैं पीछे मुड़ कर देखूँगी नहीं मैं। ——————- २—स्त्री—१ ———— स्त्री  माँ बहन बेटी  भाभी चाची मौसी  नानी दादी किसी भी  रूप में हो  वह एक स्त्री है  इससे ज़्यादा और कुछ नहीं  दूसरों के लिए  स्त्री  पूछना चाहती है  बहुत कुछ  ग़ुस्से में घर के अंदर या बाहर  तेज़ आवाज़ में  बोलता पुरुष सही और घर के अंदर भी  बोलती हुई स्त्री  ग़लत क्यों? शराब के नशे में  सिर से पाँव तक डूबे  गालियाँ देते  मारते-पीटते पुरुष को सहती  विज्ञान द्वारा  प्रमाणित होने पर भी  बेटा न उत्पन्न कर पाने का ठीकरा  उसी के माथे पर  क्यों फोड़ दिया जाता है  ज़िम्मेदार पुरुष  अपने पुरुषत्व को सहेजते  सबके सामने मूँछों पर ताव देते पुरुष को  स्वयं योग्य होते हुए भी  विवश हो  उसे स्वीकारती,  सफलता की ओर बढ़ती स्त्री  ‘चालू है’ की सोच रखते पुरुष  और यहाँ तक की  स्त्री की भी  मानसिकता से लड़ती  घर में  चकरघिन्नी सी घूमती  अपने को भूल  घर, सारे रिश्ते सहेजती- समेटती कुछ क्षण अपने को महसूस करती स्त्री  असहनीय क्यों होती है? ऐसे कितने ही प्रश्न  उमड़ते हैं उसके अंदर वह जानती है अगर वह पूछेगी तो  प्रताड़ना के सिवा  कुछ नहीं पाएगी इसी से खुली आँखों में  उन्हें लिए  स्वयं से पूछती है प्रश्न सही होते हुए भी  ग़लत क्यों है वह  ग़लत नहीं तो  सहती क्यों है वह सहती है तो  दुखी क्यों होती है वह  यह सब सोचती  खड़ी क्यों है वह  जब रहते हैं अनुत्तरित प्रश्न उन्हें सहेज कर  आँखों में  कर लेती है  पलकें बंद  और चलती रहती है उसकी  अनवरत यात्रा इसी तरह  मैं कहना चाहती हूँ  हर स्त्री से  रुको वहीं  जहाँ तुम्हें रुकना हो  मौन रहो वहीं  जहाँ तुम्हें मौन रहना हो  मन की सुनो  यदि पथ है सही  लक्ष्य स्वयं गढ़ो अपनी राह पर आगे  बेधड़क बढ़ो। —————————  अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष -कुछ पाया है ….कुछ पाना है बाकी ३—स्त्री-२ ——————- सारे  रिश्तों से लदी  उन्हें अपने में समेटे  घर की मालकिन होने के बोझ से  दबी सी  भरे-पूरे घर में भी  अकेली होती है स्त्री  लिखती है  रेशम के धागों से  भविष्य का महाकाव्य निबटा कर  घर के काम-काज  ऊन और सलाइयाँ लिए  बैठती है धूप में  बुनती है वर्तमान के सुंदर डिज़ाइन रसोई में  मसालों की सुगंध में  रची-बसी  रचती है रोज  एक नई कविता  जीवन की अपने नए  सपनों के साथ। ——————— ४—सुनो ———— सुख मिले तो उसे जीने को शामिल करो सबको पर दुःख में बहते आँसुओं को थामने-पोंछने अपना हाथ अपना रुमाल स्वयं बनो पर इत्तनी भी उन्मुक्त दर्पयुक्त न बनो कि अपनों, आस-पास गुजरने वालों की पदचाप सुन कर उन्हें पहचान ही न सको अस्तित्व बराबरी की  प्रतियोगिता से संपृक्त हो बाज़ारवाद की चपेट से बचते हुए सोचो तुम अर्थ हो घर-संसार का सफलता में कहीं तुम पीछे हो किसी के तो कहीं कोई पीछे है तुम्हारे सबके साथ मिल कर लिखती हो जीवन के अध्याय  तो फिर अपने लिए किसी एक दिवस की आवश्यकता क्यों अनुभव करें हर दिवस तुम्हारा हम सबका है वो जो लोहे के बंद दरवाज़े है उन्हें खोल कर लिखो नई इबारत जो कल नया इतिहास रचेंगी अपने रंगों को समेट उठो, चलो, दौड़ो मिल कर देखो…… दूर-दूर तक सारा आकाश तुम्हारा है सारा आकाश हमारा है। ———————————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें …  प्रेम कविताओं का गुलदस्ता नारी मन पर पांच कवितायें फिर से रंग लो जीवन जल जीवन है आपको “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष -मैं स्त्री  “कैसी  लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

होली के रंग कविताओं के संग

होली का त्यौहार यानि रंगों का त्यौहार , ये रंग हैं ख़ुशी के आल्हाद के , जीवंतता के , “बुरा न मानों होली है”के उद्घोष के साथ जीवन को सहजता से लेने के इन्हीं रंगों से तो रंग है हमारा जीवन , ऐसे ही विविध रंगों को सहेजते हुए हम आपके लिए लाये हैं  कुछ ख़ास कवितायें – होली के रंग कविताओं के संग  १—होली में  ——————— होली में उड़े रे गुलाल आओ रंगे तन मन हम! बच्चों ने थामी पिचकारी भिगोने चले धम-धम! बड़े चले सब मिल कर रंगे पुते जाने किधर! स्त्रियों ने  छेड़ी मीठी तान नाचे गाएँ झूम झूम कर! बच्चे बूढ़े खाएँ मन भर गुझिया मठरी ले ले थाल कैसे कहें रंगों ने जोड़े दिल के टूटे हुए तार होली आई मस्ती भरी आज करे मन वीणा झंकार।।  ——————————— २—होली पर  ——————- दूर कहीं सोच रही बिटिया लेने आएगा भाई मुझे आज सोचें देवर पहली होली भाभी की कैसे कैसे रंगना उन्हें आज सरहद पर सैनिक सपना देखे अगली होली जाऊँगा मैं घर मस्ती भरी होली जैसी इस बार आई ऐसी फिर आए सबके घर खुशियों के रंग मीठी गुझिया के संग सबको बुलाए होली अगले वर्ष सिंधारा देकर  भेज रही बेटे को आज  बिटिया के ससुराल में माँ। ———————————- ३—पहली होली  ———————— तेरी पहली होली संग पिया परिवार के खिलें रंगों के इंद्रधनुष तेरे घर-आँगन-द्वार में महके सुगंध पकवानों की चतुर्दिक दिशाओं में उड़ें खुशियों के गुलाल जहाँ-जहाँ तक दृष्टि जाए दिखें दूर-दूर तक चलती  मस्ती भरी हवाएँ फागुन की  रंगे तन-मन तेरा गाढ़े प्रेम रंग में लाए होली हर बार नव उपहार आँचल में हो सरल हर कठिन परिस्थिति हमारा आशीर्वाद होली में। ————————————- होली पर इंस्टेंट गुझिया मिक्स मुफ्त – स्टॉक सीमित ४—रंग होली के  ———————- रंग  होली के  तन से अधिक  रंगे मन को  गहनता से  प्रेम में  गहरा हो  विश्वास तो  जन्मती है कल्पना  मन की आवाज़  करती उसे  साकार   तो चुन  रंग कुछ ऐसे  बने आवाज़ मन की  रंग जाएँ रिश्ते भी  निर्भय बन  जीवन में  हर रंग  कहता सबसे  सुनो मेरी कहानी  बदलते हैं जीवन  सही रंग से  चलो  कुछ रंग लेकर  रंगे वो जिंदगियाँ  लूट गए रंग जिनके  उन्हें रंग आएँ  अपनेपन में  होली  कहे अब  दिखावा न हो  हों मन कर्म भाव सच्चे  तो खिले हर रंग  आँगन में। ———————————- ५—-होली ——————- होली  ———- होली  बरसाना की हो  मथुरा वृंदावन की हो  शांतिनिकेतन की  गाँव शहर की हो कहीं की भी हो  खेले जाते जिसमें  रंग फूलों के  अबीर गुलाल के  सच्चाई और विश्वास के  तभी खिलते  बिखरते सर्वत्र  रंग उमंग उल्लास के ख़ुशियों से सराबोर जीवन में पर  सिर उठाती विकृतियाँ  लील रही   रंग होली के  अब होली  नहीं जगाती उमंग  मन में रंगों से खेलने की  जिनकी आड़ में  विकृत मानसिकता  करती बेरंग  चेहरों को  आइए  खेलें होली  शुचिता लिए रंगों से  पकवानों की  सुगंध के साथ पर खेलें न कभी  किसी की  जिंदगी के साथ। ————————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई यह भी पढ़ें ……. फिर से रंग लो जीवन होली स्पेशल – होलिकी ठिठोली होलिकादहन – वर्ण पिरामिड फागुन है आपको “होली के रंग कविताओं के संग “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति

       आज समाचारपत्रों, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं से ही नहीं, बल्कि अड़ोस-पड़ोस, गली, गाँव, मोहल्ला आदि के वातावरण को अनुभव करने से यह पता चलता है कि बच्चों  में हिंसक प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। बच्चों में क्यों बढ़ रही है हिंसक प्रवृत्ति ?           इसके कारणों पर अगर हम विचार करें तो हम पायेंगे बदली हुई तकनीक, उससे प्रभावित अर्थव्यवस्था और अंततः सामाजिक व्यवस्था में हो रहे बदलाव इस प्रवृत्ति के मूल कारण हैं। बदली हुई जीवन शैली, एकल परिवार, बच्चों का अकेलापन, माता-पिता की व्यस्तता, स्कूल की पढ़ाई का बोझ आदि भी सभी के मिले-जुले प्रभाव ने इस समस्या को जन्म दिया है।              तीन दशक पहले इस प्रकार की हिंसा की घटनाएँ विदेशों में सुनने को मिलती थी, पर आज उसी प्रकार की घटनाएँ हमें अपने देश और समाज में देखने- सुनने को मिल रही हैं जो निश्चित ही चिंता का विषय बनता जा रहा है। एकल होते परिवार            इस समस्या के कारणों पर विचार करें तो बदलता सामाजिक परिवेश और लुप्त होते जीवन मूल्य इसके लिए उत्तरदायी हैं। परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है। परिवार का परिवेश बदल गया है। बहुत से परिवार बुज़ुर्गों से अलग रहते हैं। अनेक तो ऐसे भी देखे गए हैं जो एक छत के नीचे रहते हुए भी अपने माता-पिता से अधिक मतलब नहीं रखते हैं। जो समय बच्चों का दादा-दादी के साथ बीतता था वह टेलीविजन और विडियो गेम्स खेलने में बीतता है। बच्चों की दिनचर्या ऐसी बन जाती है कि वे  उसमें थोड़ा सा भी खलल सहन नहीं करते। प्रवृत्ति धीरे-धीरे हिंसक होती जाती है। अधिकांश मध्यवर्गीय शहरी परिवारों में माता-पिता के पास बच्चों के लिए पर्याप्त समय नहीं है। ध्वस्त हुई सामाजिक व्यवस्था             लोकल सोसाइटी, गली और मोहल्लों का बदलता परिवेश बच्चों के व्यक्तित्व को विकृत कर रहा है। आज से कुछ दशक पहले मोहल्ले के सभी बच्चे मोहल्ले के सभी बड़े-बूढ़ों का मन-सम्मान रखते थे। बड़ी उम्र का व्यक्ति चाहे गरीब और अनपढ़ ही क्यों न हो वह बच्चों को कुछ भी अच्छी बात समझाने के लिए स्वतंत्र था, पर आज अहंकार का स्तर इतना ऊँचा हो गया है कि हर व्यक्ति यह सोचने लगा है कि अपने बच्चों को हम स्वयं समझा लेंगे, हमारे बच्चों को कुछ मत कहो। गली-मोहल्ले की ध्वस्त हुई सामाजिक व्यवस्था ने भी बच्चन को उच्शृंखल, अनुशासनहीन, क्रोधी, अहंकारी और हिंसक बना दिया है। कई जगह माता-पिता भी अपने बच्चों की गलत बातों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करते हुए दिखाई देते हैं। इस बदले हुए परिवेश ने भी बच्चों को हिंसक बनाया है। विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों की  भूमिका            बच्चों में हिंसा की प्रवृत्ति पनपाने में विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों भी अहम भूमिका निभाई है। आज शिक्षा का उद्देश्य अधिक से अधिक अंक प्राप्त करना है। इसके लिए स्कूल में पढ़ाई, उसके बाद ट्यूशन, बचा-खुचा समय होमवर्क आदि में बीत जाता है। अगर हम आमतौर पर विद्यालयों का सर्वे करे तो पायेंगे कि विद्यालय एक नीरस स्थान है। विषय, परीक्षा और अधिक अंक…..स्कूल के उद्देश्य यही रह गए हैं। बच्चों में अन्य गुणों के विकास के लिए खेल,सांस्कृतिक गतिविधियाँ नगण्य हैं और अगर हैं भी तो मात्र दिखावे के लिए। अगर हम ध्यान दें तो पायेंगे बहुत से बच्चे कक्षा पाँच से लेकर कक्षा आठ तक अपनी इच्छाएँ और रूचियाँ को पहचानने लगते हैं। उनमें कोई न कोई प्रतिभा होती है।  प्रतिभा कैसी भी हो सकती है मगर शिक्षा व्यवस्था में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि बच्चे की प्रतिभा को पहचान कर उसके विकास के लिए विद्यालय कुछ करें।  हमारे देश में यह भाग्य भरोसे है कि इत्तफाक से कोई अध्यापक अच्छा मिल गया या माता-पिता समझदार निकल गए,बच्चे की प्रतिभा को पहचान गए और उसे उसी में आगे बढ़ने का अवसर दिया। अन्यथा मुझे तो ऐसा लगता है ९९.९९ प्रतिशत बच्चन को एक बनी-बनाई शिक्षा व्यवस्था के साँचे में धकेल दिया जाता है। बच्चे को अच्छा लगे अथवा नहीं,उसकी रुचि है या नहीं…इन बातों पर विचार करने का समय शायद किसी के पास नहीं है। पढ़िए –बस्तों के बोझ तले दबता बचपन  परिणाम सामने है जैसे ही बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम सामने आते हैं आत्महत्याओंके समाचार मिलते हैं। लड़ाई-झगड़ा, मारपीट, गली-गलौज, घरों में माता-पिता से बहस, अध्यापकों का अपमान…ये बातें आम हो गई हैं और इनके लिए बहुत हद तक हमारे विद्यालय ही ज़िम्मेदार हैं।इन्हीं में से कुछ बालक महाविद्यालयों में पहुँचते हैं। घमंड, अहंकार, क्रोध आदि का पारा और ऊपर चढ़ जाता है जिसका भरपूर उपयोग राजनैतिक नेता करते हैं, छात्रसंघ के चुनावों के समय मारपीट, तोड़फोड़ तो एक सामान्य बात है। अर्थव्यवस्था की ख़ामियाँ भी दोषी              बच्चों में हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति के सामाजिक, शैक्षणिक और पारिवारिक पहलू…..ये सब तो बच्चों और युवाओं में हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे ही रहे हैं, अर्थव्यवस्था की ख़ामियाँ भी आग में घी डालने का काम करती हैं। ग़रीबी, कुपोषण, जुआ, शराब, नशा…..ये महानगरों के चारों तरफ़ बसिहुई झुग्गी-झोंपड़ियों में भरपूर मात्रा में पाया जाता है और हिंसक प्रवृत्ति ही नहीं, हिंसक अपराधियों को जन्म देता है। वहाँ के सरकारी स्कूल और आंगनबाड़ियों की हालत और भी ख़राब है। समस्या का समाधान हमारे हाथ में      1) इस समस्या का समाधान हमारे ही हाथों में निहित है। आवश्यकता है उस पर ध्यान देकर करने की। यह ठीक है शहरों में संयुक्त परिवार नहीं हैं, पर समय-समय पर दादा-दादी, नाना-नानी,चाचा-ताऊ, बुआ, मामा आदि के रिश्तों में बच्चों का आना-जाना, उठना-बैठना तो हो ही सकता है। इसका बालकोंके मन पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और उनका एकाकीपन दूर होगा, सामाजिक ताने-बाने की अहमियत को समझने लगेंगे।  2 )गली-मोहल्ले में हमें आपस में मिलना-जुलना और बच्चों के सामूहिक रूप से कुछ कार्यक्रम करवाना तथा नैतिक बातों पर उनसे चर्चा एवं विचार-विमर्श करना, सुधार लाने के लिए एक उपयोगी कार्य हो सकता है।  पढ़िए -किशोर बच्चे बढती जिम्मेदारियां 3)शिक्षा में मूल्याँकन का आधार यह होना चाहिए किसने अपनी किस प्रतिभा का विकास अधिक किया। विद्यालयों में अध्यापकों के द्वारा बच्चों का पढ़ाए जाने का समय कुल स्कूल के समय का … Read more

त्यौहारों का बदलता स्वरूप

      हमारा देश उत्सवों का देश है। इसी कारण पूरे वर्ष भर किसी न किसी उत्सव- त्योहार को मनाने का अनुपम प्रवाह चलता रहता है। हर माह, हर ऋतु किसी न किसी त्योहार के आने का संदेसा लेकर आती है और आए भी क्यों न, हमारे ये त्योहार हमें जीवंत बनाते हैं, ऊर्जा का संचार करते हैं, उदास मनों में आशा जागृत करते हैं, अकेलेपन के बोझ को थोड़ी देर के लिए ही सही, कम करके साथ के सलोने अहसास से परिपूर्ण करते हैं। यह उत्सवधर्मिता ही तो है जो हमारे देश को अन्य की तुलना में एक अलग पहचान, अस्मिता प्रदान करती है। व्रत -अनुष्ठान भी  त्यौहार  समान                   हमारे यहाँ तो व्रत भी किसी त्योहार से काम नहीं होते। उनके लिए सुबह से तैयारी करना, घर की साफ़-सफ़ाई, व्रत के अनुसार व्यंजनों को बनाने की तैयारी, फिर सबका साथ मिल कर पूजा करना, प्रसाद ग्रहण कर भोजन करना… क्या किसी त्योहार से काम है? संकट चौथ, पूर्णमासी, महाशिवरात्रि, अप्रैल और अक्टूबर में आने वाले नवरात्र, कृष्णजनमाष्टमी, अहोई अष्टमी, करवाचौथ, होली एक दिन पूर्व का व्रत, बड़मावस आदि कई व्रत हैं… जो करने पर त्योहार से कम नहीं लगते।           होली, रक्षाबंधन, दिवाली, भैयादूज… इनकी रौनक़ तो देखते ही बनती थी। इनको मनाने के पुराने स्वरूप पर विचार करें तो त्योहारों की तैयारी कई दिनों पहले से ही हो जाती थी। गुझिया , मठरी, नमकपारे, मीठे पारे आदि बनाने के लिए सब मिल कर एक- एक दिन एक घर में जाकर बनवाते थे। रक्षाबंधन में सिवईं (हाथ से बनाए हुओं को जवें कहते हैं) भी इसी तरह सब मिल कर बनवाते थे। सुविधाओं की कमी थी, पर आपसी खुलापन, मेल-मिलाप अधिक था तो सब काम इसी तरह किए जाते। एक का मेहमान सबका होता, बेटियाँ सबकी होती, मायके आती तो सब मिलने आते, सब कुछ  कुछ न कुछ उसे अवश्य देते। यह उस समय की आवश्यकता भी थी। आज वो आत्मीयता भरा समय याद तो बहुत आता है, उस आत्मीयता की कमी भी अनुभव होती है  बदलने लगा है त्योहारों का स्वरुप              पर अब समय बदल गया है। परिस्थितियाँ बदल गई हैं, आर्थिक स्थिति भी सबकी अच्छी ही नहीं, काफ़ी अच्छी है, सुविधाएँ भी सभी के पास हैं… तो रहन-सहन भी बदला है, तौर-तरीक़े भी बदले हैं, महत्वाकांक्षाओं के चलते सब काम कर रहे हैं, दिन-रात भाग रहें हैं, समय की कमी है। तकनीकी विकास ने भी हमें आती व्यस्त बनाया है। तो जब सब कुछ बदल रहा है तो त्योहारों को मनाने का पुराना स्वरूप भी बदलेगा ही। इसे हमें स्वीकार भी करना चाहिए।               टी वी और फ़िल्मों ने हमारे त्योहारों को बहुत ग्लैमरस रूप दे दिया है। कुछ-कुछ उसी तरह नई पीढ़ी उन्हें मनाने की कोशिश भी करती  दिखाई देती है। इसका एक सकारात्मक पक्ष जो मुझे दिखता है वो ये कि काम से काम इस भागती-दौड़ती व्यस्त ज़िंदगी में वे अपने त्योहारों से परिचित तो हो रहें हैं। हम पुराने स्वरूप को याद तो अवश्य करें, कुछ पुराना साथ लेकर चलें और कुछ नया स्वरूप अपनाएँ…ये आज की बहुत बड़ी आवश्यकता भी है क्योंकि आज की पीढ़ी को अपने मूल्यों, संस्कारों, रीति-रिवाजों से परिचित भी तो करवाना है जो उनके साथ मिलकर चलने से ही  ही संभव होगा।             पहले जन्मदिन पर हलवा बना कर, भगवान को भोग लगाने के बाद खिलाने-बाँटने का रिवाज था, अब उसकी जगह केक ने ले ली।तो क्या हुआ… सुबह हलवा बना कर पहले की तरह अपनी उस परंपरा को भी जी लें और बच्चों की ख़ुशी भी जी लें उनके साथ। रिलेटेड –उपहार जो मन को छू जाएँ             पहले दीवाली पर मिठाई बाँटने का चलन था, तब घर की स्त्रियाँ घर में ही रहती थीं, उनके पास बनाने -करने का अधिक समय होता था। आज महिलाएँ बाहर काम करती हैं, समय काम होता है, फिर आज ड्राई फ़्रूट्स और मिठाई के डिब्बों का चलन हो गया है तो क्या किया जाए? हमारे अपने मोहल्ले में ही मैंने देखा कि दीवाली की पूजा करते ही लोग प्लेट्स लेकर निकल पड़ते, जिसके घर जाते वो उसी समय प्लेट  की बस मिठाई बदल कर उसी खील- बताशे के साथ वापस दे देता। लोगों को ये बुरा लगता, मुझे भी लगता। पर मैं तो थाली रख लेती और अगले दिन देने जाती। तब लोगों ने ये देने का चलन ही समाप्त कर दिया। अब किसी के घर में कोई मृत्यु हो जाती है तो उसके घर में त्योहार न होने की स्थिति में मिठाई देने जाते हैं बस।             इसी तरह अब होली, दिवाली, करवाचौथ, तीज संस्थाओं के माध्यम से, किटी पार्टी में मिल कर लोग मनाने लगे हैं।इस बदलते स्वरूप में भी त्योहार आकर्षित तो करते ही हैं। अपनी परंपराओं, जड़ों से जुड़ाव को भी नई पीढ़ी को बताने के लिए उन्हें भी अपने साथ जोड़े और उनके साथ जुड़ें भी। नए और पुराने का सामंजस्य ही तो सुंदरता को बढ़ाता है।  परिवर्तन को खुले दिल से स्वीकार करें                परिवर्तन शाश्वत है। प्रकृति के उसी नियमके अनुसार सभी त्योहारों में भी परिवर्तन आया है। इस बदले हुए रूप में भी त्योहार आकर्षित तो करते ही हैं,आनंद और उल्लास भी मन को प्रसन्नता देते हैं। फ़िट रहने की प्रतिबद्धता में गुलगुले, मठरी, पूरी,हलवा आदि शगुन के रूप में ही बनते और कम ही खाए जाते हैं। शारीरिक श्रम कम होने के चलते यह प्रतिबद्धता भी आवश्यक लगती है।             पहले फ़ोटो का इतना चलन नहीं था। फ़ोटोग्राफ़रों के यहाँ विचार बना कर जाते और एक- दो फ़ोटो खिंचवा कर आ जाते थे और यह भी बहुत महँगा सौदा लगता था। आज मोबाइल के कैमरों ने फ़ोटो खिंचना इतना सरल बना दिया है कि हम जीवन के मूल्यवान क्षणों को आसानी से सहेज कर रख सकते हैं। फ़ेसबुक पर लिख कर जब साथ में हम फ़ोटो भी पोस्ट करते हैं, व्हाट्सअप पर अपने मित्रों से शेयर करते हैं तो भी … Read more

कहीं हम ही तो अपने बच्चों के लिए समस्या नहीं?

            दृश्य-१-  बहुत दिनों से सोच रही थी कि शीतल से मिल आऊँ, उसके हाल-चाल जान आऊँ…सो आज चली गई उसके घर। गप्पों के बीच उसने बीच उसने आवाज़ दी अपनी बेटी को….मोना! अच्छी चाय बना कर ले आ आंटी के लिए। बेटी चाय लेकर आई, रख कर वो बातें करने लगी।         मोना! यही सीखा है तुमने? इस तरह चाय सर्व करते हैं? कब सीखोगी कुछ? देखा सोनी! ये हैं इसके हाल! हम तो ऐसे किया करते थे, वैसे किया करते थे, पर ये आजकल के बच्चे….करना ही नहीं चाहते कुछ। दूसरे घर जाकर नाक कटवाएँगे हमारी। जब भी उसके घर गई… इसी तरह के दृश्य देखने को मिले मुझे। इसके फलस्वरूप उसकी बेटी हकला कर बोलने लगी….पर शीतल के स्वभाव में कोई बदलाव नहीं। उसका कोसना आज भी वैसे ही जारी है।        दृश्य-२–  बेटा बाहर से खेल कर आया। पिता के मित्र घर में बैठे हुए थे। बेटे के घर में प्रवेश करते ही पिताजी बोलने शुरू हो गए…..आ गए बेटा तीर मार कर। पढ़ने-लिखने से तो कोई संबंध है नहीं तुम्हारा। सचिन तेंदुलकर समझते हो ख़ुद को। मेहनत करना तो बस का नहीं…..बनने चले हो विराट कोहली। बेटे ने एक उपेक्षित भाव से अपने पिता की ओर देखा और पिता के मित्र को नमस्कार कर अंदर चला गया।           दृश्य-३– घर में किसी मेहमान के आते ही मालती अपने दोनों बेटा-बेटी को परेशान कर डालती…. बेटा आंटी को पोयम सुनाओ तो, बेबी…आंटी को डाँस करके दिखाओ।और जब वे करते…ढंग से कुछ नहीं सुनाते-दिखाते तुम। शर्मा आंटी के बच्चों को देखो और एक तुम हो…..जो कुछ ढंग से करते ही नहीं। इस तरह बच्चे मेहमानों के सामने आने से कतराने लगे।         दृश्य-४- आजकल घरों में, स्कूलों में बहुत अच्छी-अच्छी बातें सिखाई जाती हैं…. दूसरों की मदद करनी चाहिए, सेवा करनी चाहिए, माह में एक बार दो-चार घंटे का समय किसी के लिए अच्छा काम करने में देना चाहिए। यदि कोई सच में ऐसा कुछ करता दिखाई देता है…..तो कुछ इस तरह की टिप्पणियाँ सुनने को मिलती हैं…..फ़ालतू इधर से उधर घूमते हैं….ये करना कौन सी बड़ी बात है…..या…अरे अभी से बच्चा तुम इस फ़ालतू काम में लग गए….ये तो रिटायर हो चुके लोगों का काम है। तुम खाओ-पियो, नौकरी करो, परिवार बनाओ। अच्छाई की तरफ़ बढ़ते क़दमों को लौटाने का प्रयास। जो हो रहा है ….उसके ज़िम्मेदार कहीं हम ही तो नहीं?                ये सभी दृश्य काल्पनिक नहीं हैं मैं स्वयं प्रत्यक्षदर्शी हूँ इन दृश्यों की। वास्तव में लोग आजकल दोहरी मानसिकता को लेकर जीते हैं। कहते कुछ हैं, सोचते कुछ हैं और करते कुछ हैं। अपनी संतान के मामले में तो माता-पिता का दृष्टिकोण बनना अपने और दूसरों को देख कर ही बनता है।हमारे समय में ऐसा था, हम ऐसा करते थे, वैसा करते थे, पढ़ाई भी और घर का पूरा काम भी करते थे….पर आज के बच्चे! काम करना तो दूर, ढंग से पढ़ते भी नहीं। जो समय हमने जिया, उसमें हमने जो किया, जैसे किया, वो उस समय के अनुसार  था….पर आज क्या जरूरी है कि बच्चा आज के समय अनुसार न चले। हर समय अपना हवाला देकर बच्चों को दूसरों के सामने नीचा दिखाना, हतोत्साहित करना, हँसी का पात्र बनाना क्या उचित है? फिर जब बच्चे  उपेक्षा करते हैं, विद्रोह करते हैं तो आज के समय और आज की पढ़ाई को कोसने लगते हैं।            अपनी रूचियाँ, अपने अधूरे सपनों का बोझ अपने बच्चों पर पर डाल कर उनके सपनों का अंत करना क्या उचित है? होना तो यह चाहिए कि हम आज के समय को समझते हुए अपने बच्चों की रुचियों को पहचाने, उनके सपनों की आवाज सुनें और उन्हें पूरा करने में उनके साथ क़दम मिलाएँ, गिरें-लड़खड़ायें तो उन्हें थामें, उत्साहित करें ताकि वे अपने सपनों को पूरा कर सकें। इसके लिए माता-पिता को अपनी भूमिका निभाने के साथ मित्र भी बनना होगा। कहीं-कहीं घरों में डर और अनुशासन का इतना आतंक रहता है की बच्चा अपनी बात कहने से कतराते हैं, बाहर कहते हैं,ड्रग्स लेने लगते हैं। हर बात के लिए दूसरों पर आरोप न लगा कर अपनी ओर भी देखना-सोचना चाहिए कि जो हो रहा है ….उसके ज़िम्मेदार कहीं हम ही तो नहीं? बच्चों के साथ  के साथ कैसा हो माता -पिता का व्यवहार               न तो बच्चा बंदर या कठपुतली हैं न हमारी भूमिका क़ादरी की है, तो फिर क्यों हम मेहमानों के आने पर उन्हें नाच दिखाने,गाना-कविता सुनाने को कहते हैं। दूसरों से तुलना करना तो और भी ग़लत है। हर बच्चा दूसरे से अलग होता है। तुलना करके हम उसे हेय बना कर हतोत्साहित करते हैं, उसके विकास की गति को अवरुद्ध करते है।               बच्चे के अंदर स्वतंत्र निर्णय ले सकने की क्षमता का विकास होने देने के लिए उसे स्वतंत्रता देनी चाहिए। सही निर्णय पर प्रशंसा और ग़लत निर्णय पर समझना….ये दोनों प्रक्रियाएँ होनी चाहिए।              आज बच्चे अपने जीवन में जिन भी समस्याओं से जूझते दिखाई पड़ते हैं…..उनकी तह में जाने पर मूल में घर का अशांत वातावरण, माता-पिता का उन्हें अपनी अनुकृति बनने का भरपूर प्रयास ही मिलता है।               आज के समय में तो आज के अनुसार ही जीना-करना होगा। अतीत का गुणगान इतना न हो कि वर्तमान तो बिगड़े ही, भविष्य भी धूमिल हो जाए। इससे परेशानी तो दोनों पक्षों को भुगतनी पड़ती है। तो हम क्यों अपने बच्चों के लिए समस्याएँ उत्पन्न करने का कारण बनें?            होना तो यह चाहिए कि हम अपने बच्चों की सफलता-विकास की यात्रा में उसके सहयात्री बन कर साथ चलें…..इसके लिए हमें यानी माँ और पिता को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करना होगा, नहीं तो हम जाने-अनजाने उनके लिए समस्या बनने वाले कारक मात्र  बन कर रह जाएँगे। डा० भारती वर्मा बौड़ाई देहरादून यह भी पढ़ें …… घर में बड़ों का रोल निभाते बच्चे  संवेदनाओं का मीडिया करण – नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चों के रिश्तों को … Read more

दीपावली के बाद अनावश्यक गिफ्ट्स का क्या करें ?

दीपों के त्यौहार दीपावली में गिफ्ट्स लेने – देने की परंपरा है | पर अक्सर त्यौहार के बाद लोग उन गिफ्ट्स को इधर – उधर बाँट कर जैसे एक बहुत बड़े बोझ से हल्का होने का प्रयास करते हैं | क्या आप भी उनमें से एक हैं ? तो ये लेख आपके लिए हैं आइये जाने …  महत्वपूर्ण  सवाल  दीपावली के बाद आप गिफ्ट्स का क्या करते हैं ? हमारे सभी त्योहार घर-आँगन में ख़ुशहाली बिखेरते हुए मनों में जैसे अक्षय ऊर्जा का संचार कर जाते है, जिनकी गूँज कई-कई दिनों तो कानों में मधुर संगीत की तरह बजती हुई सुनाई देती रहती है। कुछ इसी तरह चल रहा था था पिछले वर्ष दीवाली बीतने के बाद। दो-चार दिन बाद मेरी एक अभिन्न मित्र ने मुझे अपनी किटी पार्टी में आने का निमंत्रण दिया….फ़ोन पर बोली कि कितने दिन हो गए हमें मिले हुए….तो तुम्हें आना ही है। इस बहाने तुम हमारी किटी पार्टी भी देख लेना कैसी होती है।तो मैं गयी। वहाँ काफ़ी कुछ देखा और सुना… जिसने मेरे मन में उथल-पुथल सी मचा दी थी। क्या दीपावली के बाद आप का भी मुख्य अजेंडा  गिफ्ट्स निपटाने का होता है ?   क्या बताऊँ भाभी जी! इतनी मिठाई, इतने गिफ़्ट्स इकट्ठे हो गए कि क्या बताऊँ? मिठाई हम इतनी खाते नहीं, गिफ़्ट्स भी ऐसे…जो रखने लायक नहीं…कल सब निबटाये तो आज आराम मिला।       कहाँ निबटा डाले मिसेज़ शर्मा! बताइए ज़रा।हम भी इसी समस्या से जूझ रहे हैं।          निबटाने कहाँ….अपनी कामवाली, माली,डाकिया, धोबी…..इन्हीं को दे-दिवा कर छुट्टी पायी मैंने तो। और हाँ….कुछ भिखारियों को भी दे दिए।       ये अच्छा रास्ता बता दिया आपने तो। हम भी अपने भार से हल्के हो लेंगे जी।        तभी एक कोई मिसेज़ शील बोली….अरे मिसेज़ शर्मा…जिन भिखारियों को आप दे रही थी वे तो आगे जाकर रास्ते में ही वे सब समान छोड़ गए थे… मैंने अपनी आँखों से दहख था।  ये सब वर्णन सुनते हुए मेरे मन में उथल-पुथल सी होने लग गयी थी। कई दिनों तक में इसी विषय पर सोचती रही। क्या जो बातें वे सब किटी पार्टी में बोलने में लगी हुई थीं… वे पूर्णतया सच थी?  सब एक-दूसरे के सामने अपने को ऊँचा दिखाने  के चक्कर में दिखावा करते हुए बढ़-चढ़ कर बोलने में लगी हुई थी। दीपावली के बाद क्या करे  बेजरूरत गिफ्ट्स का ?         अगर सचमुच में हमारे पास देने के लिए चीज़ें इकट्ठी हो गयी हैं और वे हमारे उपयोग की भी नहीं हैं तो उन्हें निबटाने की सोच क्यों? उन्हें देने की और सही जगह देने की सोच क्यों न हो? कामवालियाँ,माली, धोबी कई घरों में काम करते हैं, वहाँ से उन्हें इतना मिलता है कि वे उस मिले हुए को बहुत महत्व भी नहीं देते…. हाँ तुलना ज़रूर कर लेते हैं कि किसने महँगा दिया, किसने सस्ता दिया,किसने कम दिया,किसने ज़्यादा दिया। जब हमें कुछ देना ही है तो क्यों न … उसे दिया दिया जाए जिसे सबसे ज़्यादा ज़रूरत हो, जिसे पाकर सच में उसके चेहरे पर मुस्कराहट आए। इसमें श्रम तो अवश्य होगा पर खोज करके जिसे दिया जाएँ उसकी मुस्कराहट देख कर संतोष अवश्य होगा सही व्यक्ति तक हमारा दिया पहुँच रहा है।            जो दें मन से दें, यह सोच कर दें कि जिसे दे रहे हैं उसे देकर और लेने वाले को लेकर अच्छा लगे। ऐसा न हो कि हम देकर यह सोचें कि चलो निबटा यह काम भी और जिसे दिया वो ले कर यह सोचें कि हे! राम इससे तो यह ना ही देता।          हो ये रहा है कि आज दिखावे के वशीभूत होकर लोग देने का दिखावा तो कर रहे है,पर दिया जाने वाला समान दिए जाने वाले व्यक्ति की रुचि का, मन का नहीं होता….तो वह यूँ ही पड़ा रहता है और निबटाया ही जाता है।           सम्बन्धियों के दिए उपहार तो इधर से उधर घूमते ही रहते हैं। हम जिसे कुछ उपहार दे रहे हैं वह काम में आने वाला हो और अपने बजट के अनुकूल हो …यह ध्यान तो होना ही चाहिए। भावनाएँ जुड़ी न हों तो दिए उपहार का कोई लाभ नहीं है।  दीपावली के अनमोल उपहार जो आप दे सकते हैं ?    त्योहार है….और वो भी अवसर दीवाली का है तो आइए अपनी ज़रूरतों में से थोड़ा सा कम करके उन लोगों के घरों में ख़ुशियों के दीप जलाएँ जिनके घरों के लोग अपने घरों के दरवाज़े पर ख़ुशियों के आने का रास्ता देख रहें हैं। बितायें उनके साथ अपना थोड़ा सा समय, उन वृद्धजनों के बनें अपने…. जिनके अपनों ने छोड़ दिया उन्हें ….. कुछ सुनें उनकी कुछ अपनी सुनायें….जलायें अपनेपन का एक दिया उनके सूने जीवन में… .जलायें ज्ञान का एक दीप उन बच्चों के लिए, जो किसी विवशता के मारे पढ़ाई से दूर हैं… जलाएँ संकल्प का एक दीप कि मृत्यु के बाद आपके नेत्र किसी के जीवन का अंधियारा दूर कर उजाले से प्रकाशित करेंगे संसार।   त्योहार कहते हैं हमें कि जिन संकीर्णताओं की श्रृंखलाओं में अपने को जकड़ लिया है हमने…..उन्हें तोड़ कर अपने मैं से बाहर निकलें, अपनाएँ प्रेम-स्नेह और अपनेपन से सबको। अपने में सबको देखें और सबमें अपने को….. तभी एक- दूसरे के दुःख -सुख को मानवता के धरातल पर हम अनुभव कर सकेंगे और सच्चे बन कर वास्तविक दीप जला सकेंगे।              तो चलें……सर्वप्रथम हम अपने अज्ञान के अंधेरे को दूर करने के लिए एक दीप जलाएँ और उससे फिर दीप से दीप जला कर उजाले से सज़ा दे सारा संसार। तभी होगी वास्तविक दीवाली। डा०भारती वर्मा बौड़ाई मित्रों आपको डॉ . भारती वर्मा बौड़ाई जी का लेख ” दीपावली के बाद आप गिफ्ट्स का क्या करते हैं ?”कैसा लगा ? अपनी राय से हमें अवगत करायें | पसंद आने पर शेयर करे | हमारा  फ्री ई  मेल सबस्क्राइब करायें जिससे  ‘अटूट बंधन “की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपको अपने ई मेल पर मिल   सकें | यह भी पढ़ें …….. उपहार जो मन को छू जाए बनाए रखे भाषा की तहजीब क्या आत्मा पिछले जन्म के घनिष्ठ रिश्तों … Read more

संस्मरणात्मक आलेख ~आस्था का पर्व – अहोई अष्टमी

कुछ यादें अहोई अष्टमी की  शरद पूर्णिमा की अमृतमयी खीर का आस्वादन करने के पश्चात् दांपत्य प्रेम में प्रेम के इंद्रधनुषी रंग भरने के लिए करवाचौथ ने घर की देहरी पर आहट कर आँगन में प्रवेश किया। उन रंगों में अभी विचरण कर ही रहे थे कि आस्था ओर विश्वास के, परिवार और संतान के कल्याण की कामना को अपने में समाये हुए “अहोई अष्टमी” के पर्व ने हमारे घर-आँगन में अपनी सुगंध बिखराई।             स्मृतियों के संसार में प्रवेश करती हूँ तो एक बहुत सुखद अहसास मन में हिलोरें लेने लगता है। मेरी माँ को इन पर्व-त्योहारों में बहुत आस्था थी। वे बहुत मन से, पूरी निष्ठा से अपने त्योहारों को परंपरागत रूप में मनाया करती थी। आज की तरह हर चीज़ बाज़ार से लाने का तब चलन नहीं था। सब कुछ घर में बनाया जाता था। उनके इस बनाने के आयोजनों में मैं और पापा शामिल रहा करते थे। आज तो सब अहोई अष्टमी का कैलेंडर लाकर लगते हैं ताकि दीवारों के रंग-रोगन पर आँच न आए। पर तब दीवार पर गेरू से अहोई माता का चित्र बनाया करते थे। माँ के पास एक काग़ज़ पर पेन्सल से बना हुआ चित्र रखा रहता था। मैं उस दिन प्रसन्नता और उत्साह में अपने विद्यालय की छुट्टी कर दिया करती। बड़े मनोयोग से पहले पेन्सल से दीवार पर चित्र बनती, फिर गेरू से रंग भारती। पूरा बन जाने पर माँ-पापा से जो शाबाशी मिलती….वह मेरे लिए किसी अनमोल उपहार की तरह होती थी।                माँ का उपवास होता था तो उस दिन शाम को मैं ही खाना बनाती। क्या-क्या सब्ज़ियाँ बनेंगी…यह सुबह ही निश्चित हो जाता था। आलू गोभी, कद्दू की सब्ज़ी, छोले, खीरे या बूंदी का रायता और पूरी। मुझे उस दिन खाना बनाने में बहुत आनंद आता। गुलगुले और मीठी मठरी माँ ही बनती। हर वर्ष चाँदी के दो मोती अहोई माता का माला  में डालती जिसे वे पूजा करते समय पहनती। हम तीनों बहन-भाइयों के लिए सूखे मेवों की माला बना कर पूजा के समय पहनाती थी।शाम को चार बजे के बाद माँ के साथ बैठ कर मैं और पापा अहोई अष्टमी की कथा सुनते। उसके बाद पापा ही माँ के लिए ज़्यादा दूध वाली चाय बनाते। हम सब तारों के निकलने की प्रतीक्षा करते रहते।  जैसे ही तारा दिखाई देता तो मैं दौड़ कर माँ को सूचना देती….तारा निकल गया माँ! चलो अर्ध्य की तैयारी करो जल्दी। दीप जला,अहोई माता की पूजा कर, तारों को अर्ध्य देकर जब हम सब अंदर आते तब माँ के बनाए गुलगुले-मठरी एक धागे में पिरोये रहते। उसका एक छोर माँ और एक छोर पापा पकड़े रहते और माँ हमें आवाज़ लगाती….आओ बच्चों! गुलगुले-मठरी तोड़ लो….और हम तीनों बहन-भाई छीना-झपटी में लीन हो जाते। आज वो दृश्य जब मेरी आँखों के सम्मुख कल्पनाओं में आता है तो बरबस होंठों पर मुस्कराहट तैर जाती है। पड़ोस में अहोई अष्टमी का प्रसाद देने के बाद हम सब मिल कर खाना खाते हुए दिवाली की तैयारियों के बारे में बात करते रहते। जब तक हम बच्चे अपने-अपने पैरों पर खड़े नहीं हुए थे तब तक त्योहारों का एक अलग ही आनंद था। धीरे-धीरे पढ़ाई पूरी होने के बाद अपनी-अपनी नौकरियों में हम सब बाहर निकल गये, फिर विवाह हो गए, सबकी प्राथमिकताएँ बदल गयीं।  बहुत मुश्किल से किसी त्योहार पर सब इकट्ठे हो पाते थे। ले-देकर माँ-पापा दोनों उसी निष्ठा, विश्वास, उत्साह से त्योहारों के रंगों को जीते रहे। अब ये सब बातें एक याद बन कर रह गयीं हैं। आज माँ-पापा दोनों नहि हैं। अब जब मैं इन त्योहारों को मनाती हूँ तो उसी उत्साह को जीने का प्रयत्न करती हूँ क्योंकि बेटी विवाह के बाद ससुराल में है और बेटा अपने बिज़नेस के कारण नोएडा में है। हम भी अब अधिकतर दो ही रह जाते हैं। यूँ बेटा कोशिश तो करता है की त्योहार के अवसर पर हमारे साथ रहे।                 परिवर्तन शाश्वत है। प्रकृति के उसी नियमके अनुसार सभी त्योहारों में भी परिवर्तन आया है। इस बदले हुए रूप में भी त्योहार आकर्षित तो करते ही हैं,आनंद और उल्लास भी मन को प्रसन्नता देते हैं। फ़िट रहने की प्रतिबद्धता में गुलगुले, मठरी, पूरी,हलवा आदि शगुन के रूप में ही बनते और कम ही खाए जाते हैं। शारीरिक श्रम कम होने के चलते यह प्रतिबद्धता भी आवश्यक लगती है। पहले फ़ोटो का इतना चलन नहीं था। फ़ोटोग्राफ़रों के यहाँ विचार बना कर जाते और एक- दो फ़ोटो खिंचवा कर आ जाते थे और यह भी बहुत महँगा सौदा लगता था। आज मोबाइल के कैमरों ने फ़ोटो खिंचना इतना सरल बना दिया है कि हम जीवन के मूल्यवान क्षणों को आसानी से सहेज कर रख सकते हैं। फ़ेसबुक पर लिख कर जब साथ में हम फ़ोटो भी पोस्ट करते हैं, व्हाट्सअप पर अपने मित्रों से शेयर करते हैं तो भी बहुत प्रसन्नता होती है।              इस बदले हुए रूप में भी हमारे इन त्योहारों की अस्मिता बनी हुई है और बच्चे प्रयत्न करके जब किसी भी त्योहार पर आते हैं तो उस समय प्रसन्नता के रंग और गहरे हो जाते हैं। यही हमारे इन त्योहारों की सार्थकता है।            पहले अहोई अष्टमी का व्रत बेटों वाली स्त्री ही करती थी। बेटियोंवाली स्त्री चाह कर भी यह व्रत नहीं रख पाती थी। रखने की बात कहते ही परंपराओं की दुहाई देकर उसे रोक दिया जाता था, पर अब समाज में परिवर्तन दिखाई देने लगा है। जब यह व्रत संतान की कल्याण की भावना से किया जाता है तो जिनकी बेटियाँ हैं वे भी अब इस व्रत को रख कर अहोई अष्टमी मनाने लगी हैं। स्वयं मेरी माँ ने मेरी छोटी भाभी को, जिनकी दो बेटियाँ हैं, यह व्रत रखवाया था। यह अलग बात है कि मेरी माँ के तारों के संसार में चले जाने के बाद उन्होंने यह व्रत रखना छोड़ दिया। आज जब बेटी-बेटे के भेदभाव से ऊपर उठ कर माएँ संतान के अच्छे स्वास्थ्य, दीर्घ आयु और कल्याण की कामना से अहोई अष्टमी का व्रत रखती और यह त्योहार मनाती हैं तो इन त्योहारों … Read more

सामर्थ्य

होलाड़ली मेंसामर्थ्य इतनाउड़े ऊँची उड़ानअपने जिये सपनों के लिएतो चलेंउसके साथबिना किसी शर्त केऊबड़-खाबड़,पथरीलेरास्तों पर भीकरेअन्याय कासामना स्वयंदे दोषियों को सज़ाबीच चौराहे परतो बनेंउसकी शक्तिनिर्विरोध समाज के सम्मुखहोशिक्षित स्वयंजगायेअलख शिक्षा कीअज्ञान के अंधेरे मेंतोदें शिक्षाजो वह चाहेकरने देंजो वह करना चाहेन बनेंबाधकपड़ोसियों,सम्बन्धियोंसमाज के डर सेरखने देंनई लीककल जिस परचल कर पीछे-पीछेउसके विरोधियों कोअपना भविष्य गढ़ना हैतो भरेंसामर्थ्यलाड़लियों में अपनीबना सकेंसामर्थ्यवान हर जन को।डा०भारती वर्मा बौड़ाई

करवाचौथ और बायना

   जीवन की आपाधापी में, भागते-दौड़ते हुए जीवन को जीने के संघर्ष में अपने ये त्योहार जब आते हैं तो मन को कितनी शांति और संतोष प्रदान करते हैं ये उन्हें मनाने के बाद ही पूर्णरूपेण पता चलता है। त्योहारों को मनाने की तैयारियों में घरों की साफ़-सफ़ाई से लेकर शुरू हुआ ये सिलसिला भैया दूज मनाने के बाद ही थमता है।  करवाचौथ और परंपरा  शरद पूर्णिमा की रात को बरसे अमृत से पूर्ण खीर का आस्वदन करने के बाद जिस त्योहार की गूँज घर की देहरी पर सुनाई देती है वह दाम्पत्य जीवन को सुदृढ़ता-गहनता प्रदान करने वाला करवाचौथ का त्योहार है, जिसके लिए बाज़ार सज गये हैं, मेहँदी लगाने वाले-वाली  जगह-जगह महिलाओं के झुंड से घिरे मेहँदी लगाने में लगे हुए हैं,तो कुछ घर-घर जाकर लगा रहें हैं। हर सुहागिन साड़ी से लेकर मैचिंग चूड़ियों और गहने पहनने की योजना बना चुकी होंगी। बाज़ारों की रौनक़ और घर की चहल-पहल देखते ही बनती है। कहीं अपनी ओर बहू की सरगी की तैयारी, तो कहीं बेटी के पहले करवाचौथ पर उसे भेजे जाने वाले “ सिंधारे “ की तैयारी, कहीं करवाचौथ की पूर्व संध्या पर होने वाले आयोजन…ऐसे में मन आनंदित क्यों नहीं होगा भला! करवाचौथ क्वीन भी तो सभी बनना चाहेंगी। वैसे सभी अपने-अपने पतियों की क्वीन तो हैं ही न!             भले ही आज हमारे सभी त्योहार टी वी और फ़िल्मों के बढ़ते प्रभाव से ग्लैमरस और तड़क-भड़क से भरपूर हो गये हैं, पर मुझे तो अपनी नानी-दादी और माँ के समय के भारतीय परम्परा के वो भोले-भाले, सादगी से मनाये जाने वाले रूप ही भाते हैं। यह भो हो सकता है कि आधुनिकता की दौड़ में में अपनी पुरानी सोच ही लिए चल रही हूँ।              सुबह-सुबह नहाना-धोना,शाम को चार बजे अपनी मोहल्ले की सखियों के साथ सज-धज कर करवाचौथ की कथा सुनना, फिर रात के व्यंजनों को बनाने की तैयारी, रात को पूजा करके सास या जिठानी के लिए बायना निकालना, चंद्रमा के उदित होने पर दीप जला कर छलनी से पहले चंद्रमा को और उसके बाद पति को निहारना, अर्ध्य देकर हाथों पानी पीकर व्रत तोड़ना, बायना देकर अपने बड़ों से आशीर्वाद लेना और फिर घर में बड़ों, पति तथा बच्चों की पसंद के अपने हाथों से बनाये खाने को सबके साथ मिल कर खाना….कितना आनंद आता है, शब्दों में व्यक्त कर पाना मुश्किल है। करवाचौथ और बायना              अब बात आती है बायने की। अपने आसपास देखे-सुने बायने देने वालियों की कई बातें इस समय मेरी स्मृतियों में उमड़-घुमड़ रही हैं…..   *“ हर साल का झंझट है यह बायने का भी। कुछ भी, कैसा भी दे दो…मेरी सास को पसंद ही नहीं आता। मैं तो पैसे और मिठाई देकर छुट्टी करती हूँ।”  * “ क्या यार! सारे साल तो सास-ससुर की सेवा में रहते ही हैं,अब इस दिन भी  इस बायने के नियम की कोई तक है?” *    जॉब के कारण बाहर रहते हैं, इसलिए जब आना होता है तब पैसे दे दिए और काम ख़त्म।”   *    एक घर की दो बहुओं ने तो बायने को एक प्रतिस्पर्धा का ही रूप दे डाला था। डोनो में होड़ रहती कौन दूसरी से ज़्यादा देगा! आज आलम यह है की दोनों में बातचीत तक नहीं होती। बायना है प्यार की सौगात              बायना देना हमारी भारतीय परंपरा में अपने बड़ों को आदर-सम्मान देने की एक चली आ रही रीत है।माना हम अपने बड़ों के लिए रोज़ करते ही हैं,पर अपनी परंपरा में आस्था-विश्वास रखते हुए हम उन्हें कुछ विशेष अनुभव कराएँ और यह अहसास दिलायें कि वे हमारे लिए कितने विशेष हैं तो इसमें क्या बिगड़ता है और क्या जाता है? अपने जिस पति के लिए हम व्रत करते हैं,उसकी लम्बी आयु  की कामना करते हैं…वह पति सास-ससुर की ही तो देंन  है और वे उसके लिए लिए ही तो हमें ब्याह कर, घर की लक्ष्मी बना कर घर में लाते हैं, तो हमारा भी तो  कर्तव्य बनता है कि हम उनके लिए किसी पर्व पर विशेष रूप से कुछ करें। करवाचौथ अपनी सास,उनकी और अपनी सहेलियों के साथ एक साथ मिल कर मनायें,न कि अलग-अलग मना  कर पीढ़ियों के अंतराल को और हवा दें। करवाचौथ पर बायना देते समय ध्यान  रखने योग्य बातें  *आपकी सास युवा है तो आप बायने में जो भी देंगी वह सब कुछ खाएँगी, पर यदि आपकी सास कुछ बीमार रहती हैं, दवाइयाँ लेती है, पथ्य-परहेज़ का पालन करती हैं तो उनके नियम को मानते हुए स्वास्थ्य के अनुसार चीज़ें बायने में रखें ताकि उन्हें खाने में उन्हें कोई परेशानी न हो।        *   मेरी एक परिचित आंटी बता रही थी किमेरी बहू बायने में अपनी पसंद की तली-भुनी चीज़ें ही इतनी रखती है जो मेरे स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं होती हैं, इसलिए लेकर मैं थाली में कुछ उपहार रख कर उसे ही दे देती हूँ कि लो ये सब तुम्हीं खाओ। अगर बहू मेरे खा सकने लायक चीज़ें रखे तो मुझे वापस देना ही न पड़े।पर वो न कुछ पूछती है न सुनती है…..इसलिए जैसा चल रहा है वो चलता रहेगा।         *    इसी तरह उस घर की दोनो बहुएँ यदि मेल मिला कर, विचार-विमर्श करके बायना दें तो तीनों ख़ुश रह सकते हैं। तब कटुता तो पास फटक भी नहीं सकती।     *      हम जो दें मन से दें, पसंद को देखते हुए दें। कपड़ों में भी, खाने में भी उपयोग में आने वाली चीज़ें दें ….जिसे पाकर हमारे बड़े प्रसन्नता का अनुभव करें। जब हम अपने लिए अपनी पसंद का सब कुछ लाते-खाते हैं तो बड़ों की पसंद का भी पूरा  ध्यान रखें। मिल कर मनाएं त्यौहार                पर्व-त्योहार पर कहीं बाहर जाने की योजना बनती है  और हम अपने सास-ससुर के साथ रहते हैं तो उन्हें शामिल किए बिना या उन्हें छोड़ कर कोई बाहर का कार्यक्रम न बने तो बेहतर होता है। त्योहार की रौनक़ साथ मिल कर मनाने में होती है, अलग होकर मनाने में केवल आत्मतुष्टि प्राप्त हो सकती है।संतोष और प्रसन्नता तो … Read more

करवाचौथ : एक चिंतन

   हमारा देश एक उत्सवधर्मी देश है। अपने संस्कारों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों का संवाहक देश ! पूरे वर्ष कोई न कोई उत्सव, इसलिए पूरे वर्ष खुशियों का जो वातावरण बना रहता है उसमें डूबते-उतराते हुए जीवन के भारी दुःख उत्सवों के द्वारा मिलने वाली छोटी-छोटी खुशियों में बहुत हल्के लगने लगते हैं। यही है हमारे उत्सवों की सार्थकता।    प्रेम ! एक शाश्वत सत्य है। जहाँ प्रेम है वहां भावनाएँ हैं और जहाँ भावनाएँ हैं वहां उनकी अभिव्यक्ति भी होगी ही। मीरा, राधा ने कृष्ण से प्रेम किया। दोनों के प्रेम की अभिव्यक्ति भक्ति और समर्पण के रूप में हुई। प्रेम की पराकाष्ठा का भव्य रूप ! हनुमान ने राम से प्रेम किया तो सेवक के रूप में और सेवा भक्ति के रूप में अपने प्रेम को अभिव्यक्ति दी। लक्ष्मण को अपने भाई राम से इतना प्रेम था की उसकी अभिव्यक्ति के लिए वे आज्ञाकारी भाई बन, अपनी पत्नी को छोड़ कर राम के साथ वन गए  और भरत, उन्होंने अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए त्याग का माध्यम चुना। तो इसका अर्थ ये हुआ की जहाँ प्रेम है, भावनाएँ हैं उनकी अभिव्यक्ति भी होनी उतनी ही आवश्यक है जितना जीवन में प्रेम का होना आवश्यक है।       जीवन में प्रेम है तो संबंध भी होंगे और हमारा देश संबंधों के मामले में बहुत धनी है। इतने संबंध, उनमें भरी ऊष्मा, ऊर्जा और प्रेम ! अपने पूर्वजों के प्रति आदर और श्रद्धा प्रकट करने के लिए श्राद्ध पर्व तो माँ का अपने बच्चों के प्रति प्रेम जीवित पुत्रिका,अहोई अष्टमी ,संकट चौथ व्रत, तो भाई -बहन के लिए रक्षाबंधन और भैयादूज और पति-पत्नी के प्रेम के लिए तीज और करवाचौथ। यहाँ तक कि गाय रुपी धन के  लिए भी गोवर्धन पूजा का विधान है।      इन संबंधों की, उत्सवों की सार-संभाल करने, उन्हें अपनी भावनाओं  से गूँथ कर पोषित करने में स्त्री की सबसे बड़ी भूमिका होती है। घर की लक्ष्मी कहलाती है इसी से घर के सभी व्यक्तियों के संबंधों को सहेजते हुए अपने प्रेम, त्याग, कर्तव्य से उन्हें ताउम्र संभाल कर रखती है। पति-पत्नी का सम्बन्ध, उनका प्रेम जितना खूबसूरत है उसका प्रतीक करवाचौथ का उत्सव भी उतना ही खूबसूरत है। सभी संबंध प्रतिदिन के है और उनमें प्रेम व भावनाओं की अभिव्यक्ति भी होती रहती है, पर उत्सवों के रूप में अपने प्रेम और भावनाओं की अभिव्यक्ति से इन्हें नवजीवन, ऊष्मा और ऊर्जा मिलती है और प्रेम जीवंत बना रहता है।उसी प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए पत्नी करवाचौथ का व्रत करती है।  एक-दो दिन पहले से ही उसकी तैयारियों में जुट जाती है, मेहंदी लगाती है, निराहार रह कर व्रत करती है। शाम को पूर्ण श्रृंगार करके अपनी सखी-सहेलियों के साथ व्रत की कथा सुनती है। पति और घर में अन्य सभी की पसंद का खाना बना कर चाँद के उदय होने की प्रतीक्षा करती है। रात को चलनी से चंद्र-दर्शन कर,अर्ध्य देकर, अटल सुहाग का वर मांगते हुए अपना व्रत खोलती है। बड़ों के पाँव छूकर, आशीर्वाद लेकर अपनी सास को, उनके न होने पर जिठानी की बायना देती है जिसमें श्रृंगार के सामान के साथ ड्राई फ्रूट्स, मिठाई और साड़ी और शगुन के रूप में कुछ रुपए भी होते हैं। इस दिन सुई से कुछ भी न सिलने का प्रावधान होता है। इसके पीछे शायद यह भावना हो कि सुई से सिलना मानो सुई चुभा कर पीड़ा देने के समान है, इसीलिए यह नियम बनाया गया होगा।       कहीं पर व्रत के दिन सुबह सरगी, विशेषकर पंजाबियों में, खाने का चलन है तो कहीं पूरी तरह निराहार रहकर व्रत करने का चलन है। कई स्त्रियां पूजा करते समय हर वर्ष अपने विवाह की साड़ी ही पहनती हैं तो कई हर बार नई साड़ी लेती हैं और अपने-अपने मन के विश्वास पर चलती हैं।       आज इस अटल सुहाग के पर्व का स्वरुप बदला-बदला लगने लगा है। फिल्मों और टी.वी.सीरियल्स ने सभी उत्सवों को ग्लैमराइज कर इतनी चकाचौंध और दिखावे से भर दिया है की उसमें वास्तविक प्रेम और भावनाओं की अभिव्यक्ति दबने सी लगी है। पहले प्रेम की अभिव्यक्ति मर्यादित और संस्कारित थी, अब इतनी मुखर है की कभी-कभी अशोभनीय हो जाती है। उपहार और वह भी भारी-भरकम हो, पहले से ही घोषित हो जाता है। व्रत से पहले खरीददारी होगी ही। बाज़ार ने अपने प्रभाव से संबंधों को भी बहुत हद तक प्रभावित करना शुरू कर दिया है। निराहार व्रत की कल्पना नई पीढ़ी को असंभव और पुरानी लगती है।खाना बाहर खाना है,उसके बाद फ़िल्म देखनी है आदि-आदि। और पर्व के बाद मुझे उपहार में यह मिला, तुम्हें क्या? और जिसे नहीं मिला वह सोच में रहेगी कि मैं तो यूँ ही रह गयी बिना उपहार के….       मैं यह नहीं कहती कि यह सब गलत है।सोचने की बात मेरी दृष्टि से सिर्फ इतनी है कि ग्लैमर और दिखावे की चकाचौंध में प्रेम और भावनाएँ कहीं पीछे छूटतीचली जा रहीं हैं और जो छूट रहा है उसकी ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं जा रहा है? क्या यह बात समझनी इतनी कठिन है कि प्रेम और प्रेम की अभिव्यक्ति सार्वजानिक रूप से प्रदर्शन की चीज नहीं है और जिसका प्रदर्शन होता है वह वास्तविकता से कोसों दूर  केवल दिखावा है। शायद दिखावे का ये अतिरेक किसी दिन समझ में आए तो वही इन उत्सवों की सार्थकता होगी। ~~~~~~~~~~~~~~~~~डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई फोटो क्रेडिट – wikimedia से साभार यह भी पढ़ें … करवाचौथ पर विशेष