गाँधी

किताबोंफ़ोटो मेंड्राइंगरूमओफिसों में हीबचें हैं गाँधीनहीं हैं तो बससबके दिलों में नहीं हैंशिक्षाएँ उनकीपुस्तकालयों,भाषणों मेंक़ैद हैचरख़ाम्यूज़ियम मेंजब उन्हेंजगाना होगागाँधी जयंती औरशहीद दिवस मनाना होगामध्यावधि-पूर्णावधि चुनावों मेंवोट माँगने होंगेतभी ढूँढा जाएगाखोये गाँधी कोअन्यथा तो वेआउट ऑफ़ डेटआउट ऑफ़ फ़ैशनआउट ऑफ़ पॉलिटिक्स हैं।—————————————डा० भारती वर्मा बौड़ाई,देहरादून

अन्तराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस पर कविता – मैं वृद्धाश्रम में हूँ

मैंवृद्धाश्रम में हूँपर दुखी नहीं हूँअपने समवयस्कों के साथमिल करगति देती हूँदैनिक कार्यों कोयहाँ सबबाँटते हैं एक साथअपने सुखधूप में बैठ करलगाते हैं ठहाकेकभी जाते पिकनिकतो कभी देखते फ़िल्मटी वी पर सुनतेदेश विदेश के समाचार भीदेखते सीरियल भीपड़ता जब बीमार कोईलग जाते हैं सबसेवा में उसकीजब तक वह ठीक नहींहो जातायहाँन नफ़रत हैन स्वार्थकेवल प्रेम हैक्योंकि सबके दुःख सुखएक समान हैंअपनों से तिरस्कृतसब बन जाते यहाँरक्त संबंध बिसरासबके अपनेभूले से कभीआ गये बेटा बहूपोते-पोती कभीतो कहूँगी मैंन आना कभी भीअपनी दिखावे की दुनियालेकर यहाँमैं यहाँप्रेमधाम मेंअपनों के साथप्रेम में मस्त हूँव्यस्त हूँ । डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई “

क्या हम तैयार है?

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई ———————       हिंदी की दशा कैसी है, किस दिशा में जा रही है, क्या हो रहा है, क्या नही हो रहा है, सरकार क्या कर रही है..आदि-आदि पर हिंदी दिवस आने से कुछ पहले और कुछ बाद तक चर्चा चलती रहती है। इस रोदन, गायन-चर्चा से अच्छा क्या यह नहीं होगा कि हिंदी के लिए कुछ सार्थक  करने का जरिया हम स्वयं ही बनें।         पढ़ना-पढ़ाना एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे हम सभी दो-चार होते हैं। कोई विद्यालय-महाविद्यालय में पढ़ाता है, तो कोई घर पर बच्चों को ट्यूशन देते हैं, कोचिंग का व्यापार भी खूब फलफूल रहा है, अपने बच्चों को भी सभी माता-पिता पढ़ाते ही हैं, तो इस प्रक्रिया में हम हिंदी के लिए कुछ करने के लिए सोचें? सचमुच हिंदी से प्रेम करते हैं, तो कुछ छोटे-छोटे सार्थक कदम उठाने पर अवश्य चिंतन किया जा सकता है। पढ़िए – हिंदी जब अंग्रेज हुई          आइए , विचार करते हैं कि हम क्या और कैसे इसकी शुरुआत कर सकते हैं?  प्राथमिक, माध्यमिक विद्यालयों में तो पढ़ाई के अतिरिक्त अन्य इतर गतिविधियों के रूप में सामान्य ज्ञान, वाद-विवाद, निबंध, कहानी लेखन प्रतियोगिताएँ, कविता पाठ, श्लोक ज्ञान प्रतियोगिताएँ होती ही हैं, उच्च माध्यमिक विद्यालयों, महाविद्यालयों में विद्यालय-महाविद्यालय पत्रिकाएँ भी निकाली जाती हैं। यदि हम सभी अपने घर के आसपास, मोहल्ले के पढ़ने वाले छोटे बच्चों को  साथ लेकर किसी पर्व-त्योहार, दिवस विशेष पर मोहल्ले-पड़ोस वालों के साथ मिल कर समय-समय पर कुछ आयोजन करें जिसमें सामान्य ज्ञान, किसी विषय वाद-विवाद प्रतियोगिता हो, सुलेख प्रतियोगिता हो, विषय देकर आधा, एक-डेढ़ मिनट बोलने का अवसर ढें, छोटे-छोटे नाटक हों, कृष्णजन्माष्टमी, दशहरे-दीवाली पर रामलीला, कृष्णलीला जैसे छोटे -छोटे सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हों, कविताएँ, दोहे-चौपाईंयाँ याद करवाकर प्रतियोगिताएँ हों भाषा को समृद्ध करने का उपाय साहित्य विरोध से नहीं .ये छोटे-छोटे ऐसे सार्थक कार्यक्रम हैं जो हम अपने घर के आसपास, मोहल्लेवालों, मोहल्ला समिति के सहयोग से सहज ही आयोजित कर सकते हैं और अपने बच्चों में हिंदी के प्रति प्रेम और सृजन के बीज बोकर उनकी इस क्षमट्स को विकसित करने में सहज ही योगदान दे सकते हैं। पुरस्कार स्वरूप छोटी-छोटी पुस्तकें भी बच्चों के उपयोग में आने वाली चीजों के साथ सहज में दे सकते हैं          इन छोटे और सार्थक उठाए गए कदमों के दूरगामी, पर स्थायी परिणाम अवश्य आ सकते हैं। यही हमारी हिंदी चाहती भी है कि बोलने में समय व्यर्थ न करते हुए, कुछ सार्थक करके हम सब किसी न किसी रूप में हिंदी को आगे बढ़ाने का जरिया बनें।         बताइये…..क्या तैयार हैं? —————————————– यह भी पढ़ें ………. समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उदेश्य गाँव के बरगद की हिंदी छोड़ आये हैं Attachments area

शिक्षक दिवस – हमारे व्यक्तित्व को गढ़ने के लिए जीवन के हर मोड़ पर मिलते हैं शिक्षक

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई ——————————- हमारी संस्कृति ऐसी है कि इसमें हर पल, हर समय हम अपने माँ, पिता, गुरुओं, मित्रों को अपने साथ लेकर चलते है। इनसे मिली शिक्षाएँ, सबक जीवन भर हमारे मार्ग को आलोकित करते हैं, प्रशस्त करते हैं, कठिन घड़ी में संबल बनते हैं तो ये जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं।             प्रथम गुरु माँ और पिता से शुरू हुई सीखने की यह यात्रा आज भी अनवरत चल रही है। माँ-पिता से मिली सीख, सबक, शिक्षाएँ कभी खोती नहीं। भूलना भी चाहें तो भी भूलती नहीं। उनका वास्तविक अर्थ तब समझ में आता है जब हम स्वयं माता-पिता बन कर उन स्थितियों से दो-चार होते है।            मेरे माता-पिता ऐसे शिक्षक थे जो जीवन भर विद्यार्थी बने रहे। जो भी चीज सामने आए..उसे सीखने के लिए बच्चों जैसी ललक उनमें रहती। और सीख कर ही वे दम लेते थे। वे हमेशा कहते…जो सीख सको..सीखते जाओ। जीवन में कब कौन सी सीखी हुई चीज काम आ जाए… क्या पता! आत्मनिर्भर बनने की ओर यह पहला कदम है, इसलिए सीखने में संकोच मन करो। पर ये बात तब उतनी समझ नही आ पाती थी।  मेरी माँ मुझे सिलाई सिखाना चाहती थी। उन्होंने सिलाई में एक वर्ष का प्रशिक्षण भी लिया था। मेरी रुचि सिलने में नहीं थी। उन्होनें सोचा.. कि मुझसे तो ये सीखेगी नहीं तो उन्होंने स्कूल की छुट्टियों में एक महीना मेरी रुचि परखने के लिए भेजा, लेकिन मैं एक सप्ताह के बाद वहाँ गई ही नहीं। साइकिल सिखाने की भी बहुत कोशिश की, पर संकोच के मारे मेरी गाड़ी आगे चल ही नहीं पाई। आज जब छोटे-छोटे काम के लिए टेलर के पास भागना पड़ता है, कहीं जाने के के लिए पति, और बच्चों पर निर्भर रहना पड़ता है, तब उनका कहा बहुत याद आता है। इसी कारण बेटी को साइकिल और कार चलानी सिखाई। आज वह आत्मनिर्भर है। मुझे भी जरूरत पड़ने पर लेकर जाती है और पति की अनुपस्थिति में अपने ससुराल में भी अपनी दादी सास, सास ससुर जो को लेकर सब काम करवा लाती है तो देख कर  संतोष होता है। उसके नाना-नानी भी अपनी दूसरी दुनिया से देख कर बहुत प्रसन्न होते होंगे कि जो बेटी की कमी को नातिन ने अपने में नहीं रहने दिया।             आज मुझे आठवीं कक्षा में पढ़ने के समय के अंग्रेजी के शिक्षक पांडे सर की बहुत याद आ रही है। वे सप्ताह के अंतिम दिन शनिवार के पीरियड में लिखाई अच्छी कैसे हो…इस बारे में बता कर, फिर उस पर अभ्यास करवाया करते थे। उनका कहना होता था कि जब लिखना आरंभ करो तो अक्षर अलग-अलग पैन उठा कर मत लिखो, बल्कि लिखना आरंभ करो और शब्द पूरा होने पर पैन उठाओ और तब दूसरा शब्द लिखो। पहले-पहले बहुत असंभव लगा। लेकिन शनिवार में उनके इस पीरियड की बहुत प्रतीक्षा रहती। कब वे कहेंगे कि अब तुम ऐसा लिखने में पारंगत हो गई…. इसके लिए मैं घर में भी अभ्यास करती रहती थी। कक्षा में कॉपी देखते समय जब वे लाल निशान लगाते कि यहाँ पैन बीच में ही उठा दिया…तो यह देख कर प्रसन्नता भी बहुत होती कि मेरी कॉपी में सबसे कम लाल निशान लगते थे। जिस दिन कॉपी में लाल निशान नहीं लगा और उन्होंने मुझे कहा कि अब तुम पारंगत हो गई हो तो उनका वो कहना मेरे लिए किसी मैडल मिलने से कम नहीं था। कक्षा में जैसा लिखना पांडे सर सिखाना चाहते थे…वैसा जल्दी से जल्दी सीख कर पारंगत होने वाली कक्षा की मैं सबसे पहली विद्यार्थी थी। आज जब सब मेरी अंग्रेजी और हिंदी की लिखावट की बहुत प्रशंसा करते हैं तो इसमें सर्वाधिक योगदान पांडे सर का ही है जिन्होंने सिखा-बता कर अभ्यास पर शिक्षक होने के साथ विद्यार्थी बने रह भी सिखाने में रुचि ली थी।        कॉलेज में जब पहुँची तो उस समय की प्रसिद्ध कहानीकार, उपन्यासकार शशिप्रभा शास्त्री महादेवी कन्या पाठशाला डिग्री कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष थी।         साहित्य प्रेम पापा से मिला था और वे ही मेरे साहित्यिक गुरु भी थे। तो शशिप्रभा शास्त्री जी लेखिका है, वे हमें पढ़ाएंगी भी, दिखने में कैसी होंगी…आदि-आदि जानने की बहुत ही उत्सुकता थी। उनकी लिखी रचनाएँ ढूँढ-ढूँढ कर पढ़ डाली थी। वे जब पढ़ाती तो मैं मनोयोग से सुनती। गर्व भी होता था कि एक बड़ी लेखिका से पढ़ने का अवसर मुझे मिल रहा है। पारिवारिक उपन्यास, कहानियाँ पढ़ने की ओर रुचि उन्होंने ही मुझमें जगाई। देहरादून के रचनाकारों में मैंने उन्हें ही सबसे ज्यादा पढ़ा।            और अब साहित्य के संसार से, जिसमें प्रवेश पापा के ही कारण हो पाया था, नाता इतना दृढ़ हो गया है कि चाह कर भी टूट नही पाता। सोशल मीडिया ने फ़ेसबुक का मंच प्रदान किया… जिसके कारण बहुत से मित्रों का संसार बना। इसमें विभा रानी श्रीवास्तव, जितेंद्र कमल आनंद जी और वंदना वाजपेयी जी मित्र बने….पर कब प्रेरणा गुरु बन गए पता ही नहीं चला। विभा रानी श्रीवास्तव जी के सम्पर्क-सानिध्य से वर्ण पिरामिड जैसी विधा से परिचित हुई, हाइकू, लघुकथा लेखन में गतिशील हुई और इस तरह वे मेरी गुरु संगी बनीं।  वंदना वाजपेयी जी…जिनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन ने मुझमें नई ऊर्जा का संचार किया, आत्मविश्वास प्रदान किया। रचनाओं पर मिलने वाले इनके कमेंट्स निरंतर और अच्छा करने की ओर मुझे प्रेरित करते हैं…. इस तरह वंदना जी मेरी प्रेरणा-प्रोत्साहन गुरु बन कर मेरे जीवन में शामिल हुई।         इसी फ़ेसबुक के संसार में अपने पापा के बाद आध्यात्मिक साहित्य गुरु के रूप में, मार्गदर्शक के रूप में मुझे जितेंद्र कमल आनंद गुरु जी मिले। जिनसे रचनाओं में सुधार भी प्राप्त होता है, विभिन्न काव्य विधाओं की जानकारी भी प्राप्त होती है और आध्यात्मिक संसार से भी परिचित होते चलते हैं।           जीवन में मिलने वाली ठोकरें, धोखे, ठगी..इन सब ने भी कोई न कोई सबक सिखाया ही है। उन मिले सबको ने भी व्यक्तित्व को निखारने के काम किया ही है।           आज दिवस परंपरा  के कारण अपने इन सब गुरुओं को स्मरण करते हुए … Read more

देश भक्ति के गीत

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई, देहरादून, उत्तराखंड जय गान करें ———————– भारत का जय गान करें आओ हम अपने भारत की नई तस्वीर गढ़ें भारत का…. अपनी कीमत खुद पहचाने हम क्या हैं खुद को भी जाने अपने मूल्यों और संस्कृति की एक पहचान बनें भारत का…. जो खोया वो फिर पाना है जो छीना वो फिर पाना है अपनी धरोहर की रक्षा में नहीं किसी से डरें भारत का…. अपनी गलती से सीखें हम उसको कभी न दोहराएं हम हिंदुत्व अपने में लेकर हम हर एक कदम धरें भारत का… ———————————— –कुछ इस तरह ———————— जिऊँ कुछ इस तरह देश मेरे कुछ ऋण तुम्हारा उतार सकूँ सोचूँ  कुछ इस तरह देश मेरे जीवन में तुम्हें बसा सकूँ गाऊँ कुछ इस तरह देश मेरे गीतों में तुम्हें गुनगुना सकूँ लिखूं कुछ इस तरह देश मेरे शब्दों में तुम्हें बाँध सकूँ उड़ूँ कुछ इस तरह  देश मेरे तिरंगा अपना लहरा सकूँ देखूँ कुछ इस तरह  देश मेरे हरदम तुम्हें हिय में बसा सकूँ मैं रोऊँ-गाऊँ कुछ भी करूँ देश मेरे जब चाहूँ तुमको बुला सकूँ।        मरुँ कुछ इस तरह देश मेरे मिट्टी में मिल तुझमें समा सकूँ। —————————- मेरा भारत महान ~जय हिन्द  Attachments are

कान्हा तेरी प्रीत में – जन्माष्टमी के पावन पर्व पर डॉ . भारती वर्मा की कवितायें

कान्हा तेरी प्रीत में ~पढ़िए प्रभु श्रीकृष्ण को समर्पित डॉ . भारती वर्मा की कवितायें  1–कान्हा ————– कान्हा तेरी प्रीत में हुई बावरी मैं तेरे रंग में रंग कर हुई साँवरी में  भावे न अब कछु मोहे तुझे देखती मैं दिवस हो या रैन अब तुझे जपती मैं तेरी प्रीत के गीत ही गाती रहती मैं कोई कहे चाहे कुछ भी बनी मतवाली मैं जब बजती बंसी तेरी रुक न पाती मैं आ कदम्ब के पेड़ तले बैठी रहती मैं तुम छलिया छलते सदा मूरख बनती मैं  रास रचाते यमुना तीरे तुम्हें देखती मैं ना मैं मीरा ना मैं राधा पर तेरी हूँ मैं  तेरी राह निहारूँ नित किससे कहूँ मैं तेरी प्रीत के रंग रंगी भूल गई सब मैं। ————————— 2–साँवरे ————– साँवरे अपने रंग रंग दीन्हा। मोर मुकुट मन में बसाए नैनों को अब कुछ ना भाए साँवरे ये तूने क्या कर दीन्हा। बंसी तेरी मधुर तान सुनाए मन तेरी और खींचा चला आए साँवरे ये कैसा  दुःख दीन्हा। ——————- 3–मुरली —————-  कान्हा तेरी मुरली जब से बजी सुन इसे सबने धीर धरी कान्हा तेरी मुरली जब से बजी सुन इसे सबकी पीर गई कान्हा तेरी मुरली के रंग हज़ार मिलें यहीं ढूंढों चाहे बाज़ार कान्हा तेरी मुरली छलिया बड़ी छल से मन में जाय बसी कान्हा तेरी मुरली कहे पुकार सुन इसे आओ मेरे द्वार कान्हा तेरी मुरली ने छीना चैन सब लीन्हा किया बेचैन कैसा जादू किया तेरी मुरली ने तेरे रंग में रंगा संसार कान्हा तेरी मुरली अपरंपार इसमें छिपा है जीवन सार। ———————————-

क्या है स्वतंत्रता सही अर्थ :जरूरी है स्वतंत्रता, स्वछंदता, उच्श्रृंखलता की पुनर्व्याख्या

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई, देहरादून, उत्तराखंड ——————————————-             स्वतंत्रता का क्या अर्थ है?  स्वतंत्रता का अर्थ वही है जो हम समझना चाहते हैं, जो अर्थ हम लेना चाहते हैं। यह केवल हम पर निर्भर है कि हम स्वतंत्रता,स्वाधीनता,स्वच्छंदता और उच्छ्रंखलता में अंतर करना सीखें।           वर्षों की गुलामी के बाद स्वतंत्रता पाई, पर लंबे समय तक पराधीन रहने के कारण मिली स्वतंत्रता का सही अर्थ लोगों ने समझा ही नहीं और हम मानसिक परतंत्रता से मुक्त नहीं हो पाए। अपनी भाषा पर गर्व, गौरव करना नहीं सीख पाए।           आज देखा जाए तो स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों के ही अर्थ बदल गए है।  हर व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार इन्हें परिभाषित कर आचरण करता हैं और इसके कारण सबसे ज्यादा रिश्ते प्रभावित हुए हैं। रिश्तों ने अपनी मर्यादा खोई है, अपनापन प्रभावित हुआ है, संस्कारों को रूढ़िवादिता समझा जाने लगा और ऐसी बातें करने और सोच रखने वालों को रूढ़िवादी। रिश्तों में स्वतंत्रता का अर्थ…स्पेस चाहिए। मतलब आप क्या कर रहे हैं इससे किसी को कोई मतलब नहीं होना चाहिए, कुछ पूछना नहीं चाहिए…यदि पूछ लिया तो आप स्पेस छीन रहे हैं। इसे क्या समझा जाए। क्या परिवार में एक-दूसरे के  बारे में जानना गलत है कि वह क्या कर रहे हैं, कहाँ जा रहे हैं, कब आएँगे, कब जाएँगे… और इसी अति का परिणाम…रिश्ते हाय-हैलो और दिवसों तक सीमित होकर रह गए हैं।  विवाह जैसे पवित्र बंधनो में आस्था कम होने लगी हैं क्योंकि वहाँ जिम्मेदारियाँ हैं और जिम्मेदारियों को निभाने में कुछ बंधन, नियम मानने पड़ते हैं और मानते हैं तो स्वतंत्रता या यूँ कहें मनमानी का हनन होता है। तब लिव इन का कांसेप्ट आकर्षित करने लगा…जहाँ स्वतंत्रता ही स्वतंत्रता। हर काम बँटा हुआ…जब तक अच्छा लगे साथ, नहीं लगे तो कोई और साथी। इसमें नुकसान अधिक लड़की का ही होता है, पर वह स्वतंत्रता का सही अर्थ ही समझने को तैयार नहीं, अपने संस्कार, अपनी मर्यादाओं में विश्वास करने को तैयार नहीं          स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं… इसने भी स्वतंत्रता के अर्थ बदल दिए हैं। इसने मनमानी और उच्छ्रंखलता को ही बढ़ावा दिया है। प्रकृति ने स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे का पूरक बनाया है तो उसे स्वीकार कर रिश्ते, परिवार, समाज, देश संभाला जाए, पर नहीं… बराबरी करके संकटों को न्योता देना ही है।             एकल परिवारों की बढ़ती संख्या भी इसी का परिणाम है। सबको अपने परिवार में यानी पति-पत्नी,बच्चों को अपने मनमाने ढंग से रहने के लिए देश-विदेश में इतनी स्वतंत्रता चाहिए कि उसमें वृद्ध माता-पिता के साथ रहने के लिए कोई जगह ही नहीं बचती। तभी ऐसी घटनाएं घटती हैं कि कभी जब बेटा घर आता है मेहमान की तरह तो उसे कंकाल मिलता है।            आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपना विवेक जगाएँ, सही और गलत को समझें…तब स्वतंत्रता, स्वछंदता, उच्श्रृंखलता, मनमानी के सही अर्थ समझें, इनकी पुनर्व्याख्या करें, अपनी संस्कृति, अपनी मर्यादाएँ, अपनी सभ्यता, अपने आचरण पर विचार करें | तभी रिश्ते कलंकित होने से बच पाएंगे, परिवार सुरक्षित होंगे, समाज और देश भी सुरक्षित हाथों में रह कर, ईमानदारी के रास्ते पर चल कर अपना विकास करने में समर्थ होंगे। ——————————————- रिलेटेड पोस्ट … आइये स्वतंत्रता दिवस पर संकल्प ले नए भारत के निर्माण का स्वतंत्रता दिवस पर आधी आबादी जाने अपने अधिकार भावनात्मक गुलामी भी गुलामी ही है स्वतंत्रता दिवस पर विशेष : मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के मेरा भारत महान ~जय हिन्द  Attachments area

शिखरिणी छंद

शिखरिणी छंद—रक्षाबंधन पर डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई देहरादून, उत्तराखंड 1– रेशम सूत्र बनता नेह डोर संबंध गूढ़। —— 2– भाई बहन प्रफुल्लित हैं दोनों राखी पहन। —– 3– शीश चंदन सजती हाथ राखी भाई मगन। —– 4– सजाए थाली रोली चावल राखी बैठी बहना। —– 5– चाहे बहना रहे समृद्धि प्रेम भाई अँगना। —— 6– रहे मायका बना सदा भाई से चाहे बहना। —— 7– हों भाई भाभी बच्चे भी साथ तभी रक्षाबंधन। ——- 8– मिटें दूरियाँ रक्षा सूत्र पहुँचे लेकर नेह। —— 9– बदला रूप खिले रक्षासूत्र ले नई पहचान। —— 10– न हो सीमित संबंध बनें सब स्नेह बँधन। —— 11– भुलाएँ सब आपसी वैमनस्य मनाएँ राखी। —– 12– अभयदान दें प्रकृति को बाँध रेशम सूत्र। —– 13– रक्षा संकल्प लेकर सभी जन हों कटिबद्ध। ——– 14– कहे त्योहार रखना सदा याद प्रेम अपार। —— 15— राखी का मोल भावनाएँ जिसमें भरी अमोल। ——————————

पिता को याद करते हुए

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई ——————————– कल बहुत दिनों बाद सुबह मिली  खिली खिली बोली उदास होकर तुम्हारे पिता मुझसे रोज़ मिला करते थे गेट का ताला खोल कर इधर-उधर देश-समाज साहित्य, घर-संसार और तुम्हारी कितनी ही बातें करने के बाद तब तुम्हारी माँ सँग सुबह की चाय पिया करते थे फिर बरामदे में बैठ सर्दियों की गुनगुनी धूप में गर्मियों की सुबह-सुबह की ठंडक में साहित्य-संवाद किया करते थे बारिश होने पर बरामदे में आई बूँदों और ओलों को देख अपनी नातिन को पुकारते फ़ोटो खींचने और कटोरी में ओले  भरने को जब बन जाते धीरे-धीरे वे पानी तब वो पूछती ओले कहाँ गए “चैकड़ी पापा” उन दोनों की बालसुलभ सरल बातें सुन मैं भी मन ही मन मुस्काती उनके सँग बैठी रहती थी पर अब मैं रोज़ आती हूँ गेट भी खुलता है पर वो सौम्य मुस्कान लिए चेहरा नज़र नही आता तुम्हीं बताओ अब किसके सँग बैठूँ किससे कहूँ अपना दुख-सुख मुझसे मिलने अब कोई नही आता जो आते है वे सब कुछ करते हैं पर मुझसे बोलते तक नहीं बताओ सही है क्या भला यह! कभी अपने पिता की तरह मुझसे मिलने “उत्तरगिरि” में आओ न सुबह-सुबह। ————————–

मैं गंगा

फ़ोटो क्रेडिट::::अभिषेक बौड़ाई मैं गंगा जानते हैं सभी बहती आई हूँ सदियों से अपनों के लिए इस पावन धरा पर अलग-अलग रूप लिए अलग-अलग नाम से उमड़ता है एक प्रश्न मथता है मनो-मस्तिष्क मेरे अपने मेरे अस्तित्व को बचाए रखने को बनाई योजनाएँ अमल में लाते क्यों नही? हर जन जब स्वयं अपने से आरंभ करे प्रयत्न मुझे सुरक्षित रखने का तभी मेरा अस्तित्व अक्षुण्ण रह पाएगा सोचो, करो, देखो तुम सबका प्रयास व्यर्थ नहीं जाएगा वादा मेरा मैं इस धरा पर बहने के साथ साथ बहूँगी सर्वदा तुम सबके भीतर नए विश्वास के साथ। ———————————- डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘ डॉ . भारती वर्मा ;बौड़ाई ‘ की अन्य रचनाएँ पढने के लिए क्लिक करें