मातृ दिवस पर- एक माँ के अपने बच्चों ( बेटे और बेटी ) के नाम पत्र

                                      आज इन दो पत्रों को पढ़ते हुए फिल्म कभी ख़ुशी कभी गम का एक डायलाग याद आ गया | पिता भले ही अपने स्नेह को व्यक्त करे न करे  बच्चों के साथ खुल कर बात करे न करें पर माँ कहती रहती है , कहती  रहती है , भले ही बच्चा सुने न सुने | पर ये कहना सिर्फ कहना नहीं होता इसमें माँ का स्नेह होता है आशीर्वाद होता है और विभिन्न परिस्तिथियों में अपने बच्चे को समन्वय करा सकने की कला का उपदेश भी | पर जब बच्चे दूर चले जाते हैं तब भी फोन कॉल्स या पत्र के माद्यम से माँ अपने बच्चे का संरक्षण करती रहती है | वैसे तो आजकल लड़का , लड़की की परवरिश में में कोई भेद नहीं पर एक माँ ही जानती है की दोनों को थोड़ी सी शिक्षा अलग – अलग देनी है | जहाँ बेटी को पराये घर में रमने के गुर सिखाने हैं वहीँ बेटे के मन में स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना भरनी है | ऐसे ही एक माँ ( डॉ >  भारती वर्मा ) के अपने बच्चों ( बेटे व् बेटी ) के लिए लिए गए भाव भरे खत हम अपने पाठकों के लिए लाये है | ये खत भले ही ही निजी हों पर उसमें दी गयी शिक्षा हर बच्चे के लिए है | पढ़िए और लाभ उठाइये ……… मातृ दिवस पर …बेटी के नाम पत्र —————————————— प्यारी बेटी उर्वशी          आज तुमसे बहुत सारी बातें करने का मन है। हो भी क्यों न….माँ-बेटी का रिश्ता है ही ऐसा…जहाँ कितना भी कहो, कितना भी सुनो…फिर भी बहुत कुछ अनकहा-अनसुना रह जाता है।            मैं अपने जीवन के उस स्वर्णिम पल को सर्वश्रेष्ठ मानती हूँ जब तुम्हें जन्म देकर मैंने तुम्हारी माँ होने का गौरवपूर्ण पद प्राप्त किया। जन्म से लेकर तुम्हें बड़ा करने तक, शिक्षा-दीक्षा, विवाह से लेकर विदाई तक के हर उस सुख-दुख, त्याग का अनुभव किया जिसे मेरी माँ ने मेरे साथ अनुभव किया होगा। हर माँ की तरह मैंने भी तुम्हारे बचपन के साथ अपना बचपन जिया। तुम्हारे सपनों में अपने सपने मिला कर तुम्हारे सपनों को जिया। मैं जो नहीं कर सकी वो तुमने किया। इसमें छिपी माँ की प्रसन्नता शब्दों में तो वर्णित नहीं ही हो सकती, केवल अनुभव की जा सकती है।               मैंने अपने जीवन में वही किया जो मुझे सही लगा। अपने लिए किसी भी निर्णय पर कभी पश्चाताप नही हुआ। मेरे आत्मविश्वास ने ऐसा करने में मेरी सहायता की। यह आत्मविश्वास अपने माता-पिता से मिले संस्कारों पर चलते हुए तथा जीवन में मिलने वाले कड़वे-मीठे अनुभवों से मिला। समयानुसार उसमें कुछ नया जोड़ते हुए हमने तुम्हारा लालन-पालन किया और प्रयत्न किया कि तुम वो आत्मविश्वास प्राप्त कर सको जो जीवन में आने वाली कठिनाइयों के समय सही निर्णय लेने में सहायक बने। हम अपने प्रयत्न में कहाँ तक सफल हुए हैं….यह तो आने वाला समय ही बताएगा।               सही पर अडिग रहना और गलत होने पर क्षमा माँगना… ये दो बातें जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं। जीवन में ऐसा समय भी आएगा जब तुम्हें कठिन फैसले लेने पड़ेंगे। तब अपना आत्मविश्वास बनाए रखना। अच्छी और बुरी दोनों स्तिथियों में अपने को संभालते हुए अपनों को संभाल कर रखना।           जीवन में सदा अपने मन का नहीं होता। हमें सबके मनों को समझ कर , उनका ध्यान रखते हुए चलना होता है। ऐसा करते हुए जो आत्मसंतुष्टि, सुख और प्रसन्नता मिलती है…उसे तुमने स्वयं भी अनुभव किया होगा।                जीवन का एक ही मूल मंत्र है….जो सही लगे वही करो, अपनी राह स्वयं चुनो, अपने सपने स्वयं बुनो, पर उस राह पर अपने सपनों को पूरा करने के लिए अपनों को साथ लेकर चलो। अपनों का साथ सपनों को पूरा करने की यात्रा में आशीर्वाद बन कर साथ चलता है।               जीवन में कोई भी परफ़ेक्ट नहीं होता। एक-दूसरे की कमियों को स्वीकार करते हुए अपने जीवनसाथी के साथ अपने लक्ष्य, सपनों को पूरा करने के लिए सकारात्मक सोच रखते हुए ईमानदारी के साथ जीवन जीना। अपने नाना की तरह कठिन परिश्रम को जीवन का अंग बनाना। तब देखना जीवन कितना सुंदर, सुंदरतम होता जाएगा और कितने इंद्रधनुष खुशियों के चमकते हुए दिखाई देंगे।           तुम्हारा आत्मविश्वास और समझदारी देख कर मेरा विश्वास मजबूत हो चला है कि तुम सही राह पर चलते हुए सही निर्णय लेने में समर्थ बनोगी और सबकी आँख का तारा रहोगी।            मुझे गर्व है कि तुम मेरी बेटी हो और मैं तुम्हारी माँ हूँ।                   तुम्हारी मम्मी                      भारती ——————————————— डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई, देहरादून,(उत्तराखंड) —————————————————— मातृ दिवस पर….. बेटे के नाम पत्र —————————————— प्रिय अभिषेक                       बहुत सी बातें हैं जिन्हें एक लंबे अरसे से कहना चाह रही थी, पर अपने-अपने कामों की व्यस्तता के चलते कहने का समय नहीं मिल पाया। जीवन का क्या…..आज है कल नहीं। तो क्यों न जो कहना है आज ही कह दिया जाए।             तुम वो कड़ी हो जिसने हमारे जीवन में जुड़ कर हमारे परिवार को संपूर्णता प्रदान की। बहन को भाई मिला। हम सौभाग्यशाली हैं बेटी-बेटे की माँ बनने के साथ जामाता ओर पुत्रवधु के रिश्तों को भी जीने का भरपूर सुख प्राप्त होगा।          पुरुष प्रधान समाज होते हुए भी हमने बेटी-बेटे में कोई भेदभाव न करते हुए तुम दोनों को एक समान परिस्थितियों में एक जैसी सुख-सुविधाएँ देते हुए बड़ा किया। हमारे अनुसार बच्चों के लिए स्वतंत्रता का अर्थ था….हमारे बच्चे अपनी रुचियों के अनुसार अपना लक्ष्य निर्धारित करें, अपने सपने स्वयं देखें और जिएं। अपनी इच्छाओं का दबाव बच्चों पर डालना कभी हमारे परिवार की परंपरा नहीं रही । जो स्वतंत्रता … Read more

मदर्स डे : माँ और बेटी को पत्र

मेरी प्यारी बेटीकैसी हो?कितने दिन हो गए तुम्हें अपने गले से लगाए हुए। कहाँ तो एक दिन भी तुम्हें याद किए बिना बीतता नहीं था मेरा। पर अब कितनी विवश हूँ मैं। याद रोज़ करती हूँ, रोज़ अपनी अश्रुपूर्ण आँखों से तुम्हारे पापा के साथ उन रूपों के बीच निहारती हूँ तुम्हें, जिनमेँ जब-तब हमें याद कर आँसू बहाते हुए ढूँढती हो तुम। पर मैं तुम्हारे आँसू पोंछ नहीं सकती, तुम्हें सांत्वना नहीं दे दे सकती, तुम्हें अपनी छाती से लगा कर चुप नहीं करा सकती, क्योंकि अब मैं तुम्हारे पापा के साथ उस संसार में हूँ जहाँ से , लोग कहते हैं कोई लौट कर नहीं आता। बस दूर से अपनों को देख सकता है। अब यही हमारे बस में है बेटी ।जब तुम्हारा जन्म हुआ था तब कितने धनवान हो गए थे हम। उस मजनूँ को, जो हमारे यहाँ काम करने आया करता था, को तो तुम जानती हो न, के साथ तुम्हारे पापा ने पूरी कॉलोनी में लड्डू बाँटे थे। तुम्हें पाकर फूले नहीं समाते थे हम। सब कुछ भूल हम दोनों तुम्हीं में खोए रहते थे। एक बार तुम बीमार पड़ी तो हमारे हाथ-पाँव फूल गए थे। टाइफाइड का बुखार चढ़ता, उतरता, पर ठीक होने में नहीं आ रहा था। हम तो जैसे सोना ही भूल गए थे। बस चारपाई पर लेती हुई तुम्हें देखते रहते। हर समय एक डर मन में बना रहता कि कहीं तुम हमें छोड़ कर न चली जाओ। ईश्वर की कृपा हुई और एक नए डॉक्टर हमें मिले, जिनकी दवाई से तुम ठीक होती गई। हमारे सपने फिर खिलने लगे और तुम उनमें नए रंग भरने लगी। धीरे-धीरे तुम बड़ी हुई, स्कूल जाने लगी।अरे! एक बात बताऊँ तुम्हें। तुम्हें छोटे बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। बहुत दिनों तक तुम्हारा कोई भाई-बहिन नहीं हुए तो तुम पड़ोसियों के छोटे बच्चों को गोद में लिए उन्हें खिलाया करती थी। बाद में जब तुम्हारे अपने दो भाई घर आए तो तुमने पड़ोसियों के बच्चों को गोद में भी लेना छोड़ दिया था। कोई तुम्हें बुलाता तो तुम तपाक से कहती- अब तो मेरे भाई है न ,मैं क्यों आऊं? ऐसी थी तुम नटखट, शैतान की नानी।कब मेरी बेटी इतनी बड़ी हो गई थी कि स्कूल से कॉलेज और पढाई पूरी कर, अध्यापिका बन एक दूसरे प्रांत में नौकरी भी करने चली गई , पता ही नहीं चला। तुम्हारे जाने के बाद मैं बहुत रोई थी क्योंकि मैं अकेली जो रह गयी थी। हर काम हम मिल कर किया करते थे। कहीं जाना हो हो, शॉपिंग करनी हो, फ़िल्म देखनी हो, घर में काम हो, सब मिल कर ही तो करते थे हम और तुम्हारे जाने से मेरी सहेली जैसे दूर हो गई थी।जानती हो, जब तुम चली गई थी तो पड़ोसियों, रिश्तेदारों, जान-पहचान वालों….सभी ने मुझसे कहा था कि कैसी और कितनी पत्थरदिल हो तुम! तुम्हारी एक ही बेटी और उसे भी तुमने इतनी दूर भेज दिया! तो मैंने कहा था था कि हां, मैं तो ऐसी ही पत्थर दिल हूँ। पर बेटी मेरा सोचना था कि अपने बच्चों को सपने देखने के लिए खुला आसमान देना चाहिए और उन सपनों को पूरा करने की उड़ान भरने में माता-पिता को बाधक नहीं सहायक होना चाहिए और मैंने यही किया।इन वर्षों में कितना कुछ घटा। तुम्हारा और तुम्हारे भाइयों का विवाह हुआ, तुम तीनों बहिन-भाई माता-पिता बने और हम नाना-नानी और दादा-दादी बने। हमारा परिवार पूर्ण हुआ । इस बीच दो-तीन बार तुम्हारे पापा इतने बीमार भी पड़े कि ऐसा लगने लगता था कहीं हमें छोड़ कर न चले जाएँ। तब तुम्हारा बार बार छुट्टियाँ लेकर आना, रह कर हमें मजबूती देना और अपने पापा की सेवा करना, मुझे ढाँढस बँधाना, घर के सारे काम करना, क्या मैं कभी भूल सकती हूँ?दिन बदले, समय बदला, पर मेरा-तुम्हारा सहेलियों वाला रिश्ता नहीं बदला। थोड़े-बहुत उतार-चढाव आये जरूर, पर रिश्तों की सुंदरता और गर्माहट वैसी ही बनी रही। उम्र बढ़ने के साथ शक्ति कम होने से मैं तुम पर और भी अधिक निर्भर होने लगी थी। फोन पर लंबी-लंबी बातें किए बिना हमें तो जैसे चैन ही नहीं आता था। तुम्हारे पापा भी कहते थे कि तुम दोनों माँ-बेटी द्रौपदी के चीर की तरह इतनी देर तक क्या बतियाती रहती हो। तभी तो जब तुम अपनी नौकरी से स्वैच्छिक सेवनिवृत्ति लेकर आई तो सबसे ज्यादा खुश मैं और तुम्हारे पापा ही थे , क्योंकि हम तुम्हारे आने से अपने को मजबूत समझने लगे थे। हमारा अकेलापन कम हो गया था।लिखने की तो मेरी बेटी इतनी बातें हैं मेरे पास कि अगर उन सब बातों को लिखना शुरू करूँ तो ये पत्र कभी खत्म ही न हो।हमारी खुशियाँ लौट आईं थी की पहले तुम्हारे पापा बीमार हुए, वे संभले तो मैंने बिस्तर पकड़ लिया। उस समय तुम और तुम्हारे पूरे परिवार ने जिस तरह हमें संभाला, उसके लिए हमें तुम पर गर्व है। बेटियाँ किस तरह अपने माता-पिता का शक्ति स्तंभ बिना कहे बन जाती हैं ये तुम्हें देख कर ही मैंने जाना। मुझे एक ही दुःख सालता है कि मैं चलते समय तुम्हें कुछ कह नहीं सकी। मैंने तुम्हारा इंतज़ार नहीं किया। मैं तुम्हारे पापा और तुम्हारी आँखों में अपने खोने का डर रोज़ देख रही रही थी। मैं चाहती थी कि मैं ख़ुशी बन कर तुम दोनों की यादों में जीऊँ, डर बन कर नहीं, बस इसीलिए बिना कुछ कहे, तुम दोनों का इंतज़ार किए बिना चली गई। इंतज़ार करती तो तुम दोनों क्या मुझे जाने देते। ये बात अलग है कि मेरे जाते ही तुम्हारे पापा भी तुम्हें छोड़ कर मेरे पास आ गए। हमारे बिना तुम कितनी अकेली हो, कितनी दुखी हो, बस इसी से हम बहुत दुखी हैं। पर मैं जानती हूँ कि मेरी साहसी बेटी हमे अपनी स्मृति में बसाए हुए हमारे अधूरे और अपने पूरे सपनों को अवश्य पूरा करेगी।पुनर्जन्म में हमें पूरा विश्वास है और तुमने हमारे लिए एक कविता लिखी थी न, उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे याद आ रही हैं…..पुनर्जन्म जब भी हो तुम्हाराफिर से जीवन साथी बननाऔर जब माता-पिता बनो तुम मुझको ही अपनी बेटी चुनना।इसलिए हम तो अब इसी प्रतीक्षा में हैं अपने इसी विश्वास को लिए हुए कि हमारा पुनर्जन्म अवश्य होगा, हम फिर जीवन … Read more

” मेरी बेटी….मेरी वैलेंटाइन “

            कहते हैं कि बेटियाँ माँ की परछाई होती है। एक-दूसरे की प्राण होती हैं। एक जन्म देकर माँ बनती है तो दूसरी जन्म पाकर बेटी। दोनों एक-दूसरे को पाकर पूर्ण होती हैं, इसी से एक-दूसरे की पूरक बन जाती है। बिना कहे समझ जाती हैं दिल की बात, आवाज़ से ही जान जाती हैं कि दुःख की बदरी सी मन-प्राणों पर छाई है या कोई ख़ुशी छलकी जा रही है। इसका अनुभव अपनी माँ की बेटी बन कर खूब बटोरा, और अब अपनी बेटी की माँ बन कर फिर वही सब जीने का अवसर मिला है। ओस की निर्मल बूँद सी होती हैं बेटियाँ… जो अपने निश्छल प्यार की शीतलता से जीवन में खुशियों का अंबार लगाए रखती हैं, घर को अपनी खिलखिलाहट और चहचहाट से गुँजायमान रखती हैं कि उदासी पसरने ही नहीं पाती। कभी गुनगुनाती हैं, कभी कुछ पकाती हैं, कभी सब उलट-पुलट कर घर को सजाने-सँवारने लगती हैं, तो कभी पूरे घर को आसमान पर उठाए फिरती हैं।सखी-सहेली बनती है तो माँ से बतियाने की कोई सीमा ही नहीं रहती।अतिथि आ जाए तो आतिथ्य की जिम्मेदारी से मुक्त कर स्वयं लग जाती है।          और यही बेटी जब दुल्हन बन, सात फेरे लेकर  अपने ससुराल चली जाती है तो जैसे घर की सारी रौनक, चहल-पहल अपने साथ ही ले जाती है। पर ये रिश्ता माँ-बेटी का ऐसा है कि इसमें दूरियाँ कोई मायने नहीं रखती। बिना कहे, बिना आए एक-दूसरे को अनुभव करती रहती है, एक-दूसरे को अपने हृदय में जीते हुए एक-दूसरे का साहस बनी रहती हैं।      बस इसीलिए मैं अपनी बेटी को अपने एकदम निकट पाती हूँ और सोच की गहराइयों में डूब कर अपनी बेटी को ही ” ” “अपना वैलेंटाइन” पाती हूँ। डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘ यह भी पढ़ें  निराश लोगों के लिए आशा की किरण ले कर आता है वसंत अपरिभाषित है प्रेम प्रेम के रंग हज़ार -जो डूबे  सो हो पार                                                         आई लव यू -यानी जादू की झप्पी आपको  लेख   “” मेरी बेटी….मेरी वैलेंटाइन “” कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

शिक्षक दिवस पर विशेष :मैं जानता था बेटी….( संस्मरण )

     डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘   ये तब की बात है जब मैं पांचवीं कक्षा में पढ़ती थी। एक सप्ताह में संस्कृत विषय के नौ पीरियड हुआ करते थे। मध्याह्न के तीन पीरियड में संस्कृत के गुरु जी सबकी लिखाई अच्छी हो, इसके लिए वे पुस्तक का एक पूरा पाठ लिखवा कर देखा करते थे। कक्षा के कुछ छात्र तो इस अंतिम पीरियड में भाग जाते, कुछ अधूरा पाठ लिख कर दिखाते थे। मेरी लिखाई अच्छी थी। मैं पूरा पथ लिखती, दिखाती और सदा वेरी गुड पाती थी। उन शैतान विद्यार्थियों की देखा-देखी मैंने भी लिखाई के पीरियड में आधा पाठ लिख कर दिखाना आरंभ किया और गुरु जी पूर्ववत वेरी गुड देकर शाबाशी देते रहे, हस्ताक्षर करते रहे। मन में एक कचोट सी उठती थी कि मैं उनसे झूठ बोल रही हूँ। एक दिन कॉपी दिखाते समय मुझसे रहा नहीं गया और कॉपी में उनके गुड लिखने से पहले ही मैं बोल उठी–गुरु जी मुझे गुड़ मत दीजिए, मैंने पाठ पूरा नहीं लिखा है। तो वे बहुत प्यार से बोले–मैं जानता था बेटी, और ये जानता था कि अपनी इस गलती को तुम स्वयं अनुभव करोगी और आकर मुझे बताओगी, क्योंकि कक्षा के जिन शैतान  विद्यार्थियों के साथ आलस्य व झूठ के जिस रास्ते पर तुमने कदम रखा,वह रास्ता तो तुम्हारा है ही नहीं। इसलिए तुम्हें गुड-वेरी गुड़ देने में मुझे कभी संकोच नहीं हुआ। तुम अपने रास्ते पर लौट आई हो…तो अब देखना, जीवन में फिर कभी भी तुम ऐसे लोगों का साथ नहीं करोगी।     संस्कृत के गुरु जी के मुझ पर किये उस विश्वास की आभा ने मुझमे सही और गलत पहचानने की जो क्षमता मुझमे विकसित की, उसके कारण ही मैं आज भी गलत लोगों के साथ से दूर हूँ। इसके लिए जीवन भर मैं उन गुरु जी की ऋणी रहूँगी। —————————- डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई

बैरी_सावन

मन के दबे से दर्द जगाने फिर से बैरी सावन आया। सूना आँगन सूनी बगिया माना नहीं है कोई घर में यादें कहती मुझे बुलाकर हम भी तो रहती हैं घर में मायके की याद दिलाने फिर से बैरी सावन आया। थोड़ी सी मेहँदी लगवा लूँ और पहन लूँ हरी चूड़ियाँ साड़ी हरी, संग ले घेवर और लगा लूँ माथे बिंदिया सज कर चलूँ मायके अपने मुझे बुलाने सावन आया। फोटो के पास बैठकर कुछ अपनी कहना,उनकी सुनना थोड़ी देर बस् रूठना उनसे और मनाने गले भी लगना दूर बहुत ,पर है मेरे मन में यही बताने सावन आया। मन के दबे से दर्द जगाने फिर से बैरी सावन आया। ————————————– डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई फोटो क्रेडिट ::राकेश आनंद बौड़ाई  हमारा वेब पोर्टल

कुछ हाइकू…….पृथ्वी दिवस पर

(1) धरा दिवस       लगें वृक्ष असंख्य       करें प्रतिज्ञा। (२) माता धरती       करें चिंता इसकी       शिशु समान। (3) कहे समय       रहेगी न धरती       करोगे क्या? (4) हम निर्दयी       न सोचे ये धरती       हो कुछ ऐसा। (5) रक्षक बनें       बची रहे धरती       फैले संदेश। (6) बरसें मेघ       नदियाँ रहैं भरी       पोसें धरा। (7) धरा पुकारे       बचे अस्तित्व मेरा       खोजें उपाय। (8) संकल्प ठने       पॉलिथीन मुक्त हो       अपनी धरा। (9) सम्मान करें       धरा से मिले प्राण       उसे लौटाएँ। (10) धरा दिवस         मनाएँ रोज सब         निखरे धरा। (11) कचरा कम          बने जैविक खाद          उर्वर धरा। (12) ढूँढे तरीके         रिसाइकिल करें         निज वस्तुएँ। (13) मिलें संस्कार         सेवा भाव घर से         हंसेंगी धरा। (14) मांगे प्यार         धूल धूसरित धरा         बुलाए हमें। (15) नर्तन करे         हरी भरी धरती         सँवारे सभी। —————————— कॉपीराइट@डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई

रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून

…   आज विश्व जल संरक्षण दिवस पर मुझे कवि रहीम का दोहा…….       रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।      पानी गए न उबरे, मोती, मानुस चून।। बरबस याद आ रहा है, क्योंकि अरुणाचल प्रदेश के शिक्षा विभाग में अध्यापिका के रूप में बिताये चौबीस वर्षों में जल के महत्त्व को मैंने बखूबी समझा और यही मूलमंत्र जीवन में पाया कि सोने-चांदी, हीरे-मोती से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण और अमूल्य है जल। वहाँ की स्मृतियों में जब-तब मैं डूबती-उतराती रहती हूँ। आज विश्व जल संरक्षण दिवस पर उन स्मृतियों को साझा करने की मन में हिलोर उठी। लगा कि इन स्मृतियों को शब्दों में पिरोना चाहिए। अरुणाचल प्रदेश में हम जहाँ भी रहे वहाँ दूर-दूर हैंडपंप लगे होते थे। पहाड़ी जगहों में पानी के स्रोत पर पाइप लाइन फिट करके,पाइप बिछाते हुए जगह-जगह, पर दूर-दूर नल लगा दिए जाते थे। आप कितना भी पानी संग्रह करके रख लें, यदि मितव्ययिता व्यवहार में नहीं है, तो कम ही होता है। वर्षा के दिनों में पाइपों में मिट्टी-पत्ते भर जाते तो पानी का आवागमन अवरुद्ध हो जाता था। पर वहाँ पानी की समस्या से बखूबी परिचित होने के कारन बच्चे, गाँव वाले, शिक्षक सभी उसे ठीक करना अपना नैतिक कर्तव्य समझते थे और इसीलिए सरकारी कर्मचारी की प्रतीक्षा किए बिना जिसे भी पता चलता, वह तीन-चार को संग ले, अपने औजार-हथियारों सहित ठीक करने जा पहुँचते थे और ठीक करके ही लौटते थे। दूर से बाल्टियों में पानी लाना कठिन होता था, तो उसके लिए हमने सरसों-सफोला तेल के पांच लीटर  के प्लास्टिक कैन लेकर पानी लाना आरंभ किया, क्योंकि ढक्कन व पकड़ने की सुविधा होने के कारण उसमें पानी लाने में सुविधा होती थी। वहाँ सरकारी घरों में टीन की छत  थी, तो पति महोदय ने अपनी बुद्धि लगा कर, कनस्तरों को काट-काट कर, उन्हें जोड़ कर पतनाला जैसा बना कर पतले तारों से उसे टीन की छत पर लटकाया। वहाँ जब वर्षा होती तो कई-कई दिन तक होती थी। वर्षा होने पर हम बड़ा ड्रम रखते, उसमें पानी का संग्रह होता रहता। तब मैं विद्यालय और घर के कार्यों की सारी थकान भूल कर बर्तन-कपड़े धोने के कार्य में जुट जाती थी, क्योकि इंद्रदेव  की कृपा से पानी हमें घर के द्वार पर मिल रहा होता था। हमारी ऐसी व्यस्थाओं को देख कर कई शिक्षकों ने अपने घर में पतनाले लगवाए, तेल के प्लास्टिक कैन में पानी लाना   आरंभ किया और कई बार हमें बताया की ऐसी व्यवस्था करके उन्हें बहुत सुविधा हुई है।             पानी ले नल पर बाल्टियों की लंबी लाइन लगी रहती थी। कोई तेज़ बुद्धि वाला पीछे राखी अपनी बाल्टी आँख बचा कर पहले भर लेता तो घरों के अंदर खिड़की से लगातार ताक-घात लगाए महिलाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत के लिए आगा-पीछा देखे बिना तुरंत कूद पड़ती थी। चिल्ल-पों, कच-कच, वाकयुद्ध और फिर कई दिनों तक बातचीत बंद। ऐसे में मेरा तो साहस ही नहीं होता था कि उस लंबी लाइन में मैं भी अपनी बाल्टी रखूँ। पति महोदय ने इसका भी उपाय सोचा। रात के ग्यारह बजे तक सब अपना कार्य करके सो चुके होते थे। वह दो सौ फ़ीट का प्लास्टिक पाइप खरीद कर लाए। उसे हम रात के बारह बजे नल पर लगाते और सुबह के तीन बजे तक पानी भरते। मैं लालच में रात को कपडे भी धो डालती।घर के सारे बर्तनों में, कोल्ड ड्रिंक की पचासों से भी ज़्यादा बोतलों में, बड़े ड्रम, बाल्टियाँ, भगोने…सबमें पानी भर कर रख लेती थी। फिर तीन-चार दिनों तक पानी भरने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।                एक दिन विद्यालय के स्टाफ रूम में बैठे शिक्षकों ने हमसे पूछा….बौड़ाई सर! आप कभी पानी भरते दिखाई नहीं देते, क्या बात है? खाना, नहाना, कपडे धोना होता भी है या नहीं? और जब हमारी व्यवस्था सुनी तो दाँतो तले ऊँगली दबा ली। अनुकरण तो उसका होना होना ही था, क्योंकि उसमें मानसिक शांति और आराम जो था।             एक उपाय हम और भी किया करते थे। रविवार को कपड़ों में साबुन लगा घर में रगड़ लेते, फिर उन्हें थैले में रख, कुछ खाने-पीने की चीजें संग लेकर दोनों बच्चों और एक-दो विद्यार्थियों को साथ लेकर नदी की तरफ चले जाते थे।वहाँ बहती नदी में कपड़ों का साबुन निकल कर वहीँ सुखाते, कहते-पीते,फ़ोटो खींचते….और इस तरह पिकनिक का आनंद लेकर घर लौटते। आप सच मानेंगे? कई शिक्षक बंधुओं ने इसका भी अनुसरण किया। देख कर अच्छा लगता है जब आपके किए किसी अच्छे कार्य का अनुकरण होता है।               पानी को और केवल पानी ही नहीं, बिजली, कागज़ आदि कोई भी चीज़ हो, उसे किफ़ायत से खर्च-उपयोग करना आज भी मेरी आदत में शुमार है। कई बार बच्चे कहते है कि अब आप अरुणाचल प्रदेश में नहीं, देहरादून में हो,अपने को बदलो।तो मेरा उत्तर यही होता है कि पानी का संरक्षा और सही उपयोग तो आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। पर्यावरण को सही रखने के लिए, प्रदुषण कम करने और प्राकृतिक संसाधन सुरक्षित रहे, इनका दोहन न हो…..तो इसके लिए हर व्यक्ति को अपनी लापरवाही की आदत बदलनी होगी।          इंटीरियर में रहने पर वहाँ समस्याओं से जूझते-दो-चार होते हुए सहायता-सहयोग करने की भवन स्वयमेव बन जाती है, क्योंकि सब समझते हैं कि यदि हम दुसरे के काम नहीं आएंगे तो अपनी समस्या के समय अकेले पड़ कर हम स्वयं कुछ नहीं कर पाएंगे। पर शहरी सभ्यता में लोगों ने सुविधाओं से संपन्न होने पर जो लबादा ओढ़ कर अपने को चारों ओर से बंद कर लिया है उसमे दूसरों के लिए तो जगह ही नहीं बचती। चिंता होती भी है तो केवल अपनी होती है। ऐसे में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की बात तो दूर ही हो जाती है। शहरी संस्कृति में महात्मा गांधी जी के गोल मेज सम्मलेन की तरह पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी वर्ग टी.वी. देखते हुए डाइनिंग टेबल कॉन्फ्रेंस तो कर सकता है,पर स्वयं बाहर निकल कर, मिल कर कार्य करने की बहुत कम सोचता है। हाँ, काम करते हुओं की खिल्ली जरूर आगे बढ़ कर उड़ा सकता है। आज कागजों पर अनगिन एन.जी. ओ कार्य कर रहे है, पर उनमें तन-मन और धन  से भी कार्य करने  वाले कुछ ही लोग प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को रोकने और उनके संरक्षण के … Read more

होलिका दहन-वर्ण पिरामिड

1– हो दर्प दहन खिलें रंग अपनों संग प्रेम विश्वास के होली के उल्लास में। ————————– 2– आ छोड़ें अपनी द्वेष ईर्ष्या करें संपन्न होलिका दहन मथें विचार गहन। ———————– 3) ——- आ  चल जलाएँ  बुराइयाँ होलिका संग  बदलेगा ढंग  सबके जीवन का। ——————— 4) ——- हो  जीत  अधर्म  बेईमानी  अन्याय पर  होलिका दहन  करे इनको वहन  ———————- 5 ——— स्व बचे लकड़ी पर्यावरण हो सुरक्षित कंडे अपनाएँ यूँ होलिका जलाएँ।   ————————- 6 ——— आ पूजें  होलिका  रंग कंडे मौली ले हाथ  जलाएँ दीप आठ  परिक्रमा करें सात। ———————— डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई । फोटो क्रेडिट –जनसत्ता होली की हार्दिक शुभकामनाएं 

अंतर्राष्ट्रीय गोरैया दिवस पर ……..’ओ री गौरैया ‘ .

. मेरी बचपन की प्यारी सखी गौरैया! तुम्हें पता है आज विश्व गोरैया दिवस है। इसे एक तरह से इसे मैं तुम्हारा जन्मदिवस ही मानती हूँ। सो मेरी प्यारी सखी!जन्मदिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएँ। तुम्हें याद होगा, बचपन में माँ से आलू-प्याज रखने वाली टोकरी माँग कर ,पापा से उसमें सुतली बंधवाती थी । एक लकड़ी की सहायता से उसे खड़ा करते, उसके नीचे चावल के दाने बिखेर कर, मैं पापा के साथ सुतली पकड़ कर तुम्हारे इंतज़ार में छिप कर बैठ जाती थी। तुम आती और चावल खा कर फुर्र से उड़ जाती, और मैं देखने के चक्कर में सुतली खींचना ही भूल जाती थी। माँ अलग डाँटती कि खाना छोड़ कर चिड़िया के चक्कर में लगे हो। पर कभी कभी तुम मेरे झाँसे में आकर टोकरी में बंद हो जाती थी और मैं अपनी विजय पर फूली नहीं समाती थी। थोड़ी देर तुम्हें देखती, चावल के और दाने डालती, एक कटोरी में पानी रखती थी। फिर थोड़ी देर बाद टोकरी उठा कर तुम्हें उड़ा देती थी। न जाने कितनी बार हम-तुम इसी तरह बचपन में मिलते रहे।       अब तुम्हारा आना कम हो गया। हम मनुष्य अपने लिए ही सोचने वाले बन गए। कभी सोचा ही नहीं कि अपने लिए सुविधाएँ जुटाने के चक्कर में हम तुम्हारे लिए कितनी कठिनाइयाँ उत्पन्न कर रहे हैं।       पर मेरी सखी! अब तुम बिलकुल चिंता मत करो। अब सभी तुम्हारी चिंता करने लगे हैं। कई एन. जी.ओ. तुम्हारे संरक्षण के लिए  कार्य कर रहे हैं। कई घरों में लोगों ने तुम्हारे लिए घोंसले लगवाए है। अब गर्मियाँ आ रही हैं, तो लोगों ने अभी से मिट्टी के बर्तन में तुम्हारे लिए पानी रखना आरंभ कर दिया है, चावल के दाने, रोटी रखने लग गए हैं। आज तुम्हारा जन्मदिवस मान कर मेरे दोनों बच्चे भी मिट्टी का बर्तन लाने गए हैं,ताकि नए बर्तन में वे तुम्हारे लिए पानी भर कर रख सकें। इसी तरह सभी लोग अब तुम्हारी चिंता करके तुम्हारे संरक्षण के लिए सोचने और कार्य करने में लग गए हैं।           जैसे तुम मेरे बचपन की सखी हो हो, उसी तरह न जाने कितनों की तुम सखी होंगी। वे सब भी मेरी ही तरह बचपन की पुरानी स्मृतियों में तुम्हें देख रही होंगी। तुम हमारे आँगन आनाओ मत भूलना। आज की नई पीढ़ी ने अपने ढंग से तुम्हारे लिए सपने देखे हैं। उन्हें निराश न करना। तुम बिन आँगन सूना है, घर में लगे वृक्ष तुम्हारी राह देख रहे हैं। बताओ मेरी सखी गोरैया! कब आ रही हो हमारे घर। पानी का नया बर्तन तुम्हें बुला रहा है।       ……….आज विश्व गोरैया दिवस पर उसके संरक्षण के लिए हम सब कुछ न कुछ सार्थक सोचें और करें। डॉ भारती वर्मा बौड़ाई 

किशोर बच्चे : बढ़ती जिम्मेदारियाँ

  किशोरावस्था ! संधिकाल….. जहाँ बाल्यावस्था जाने को है और यौवन दस्तक दे रहा है। यह ऐसी अवस्था है कि बचपन पूरी तरह से गया नहीं और योवन द्वार पर आ खड़ा हुआ….ठीक ऐसे कि पहले से आया एक अतिथि गया नहीं कि दूसरे अतिथि ने घर के गेट पर दस्तक दे दी। देखा जाए तो किशोरावस्था ऐसी कोमल अवस्था है जहाँ सब कुछ अच्छा और सुंदर दिखाई देता है, जहाँ अंगड़ाई लेता यौवन सामने होता है, पर बचपन की कोमलता भी बनी रहती है। सतरंगी सपने उड़ान भरने, सीमाएँ तोड़ने को प्रेरित करते रहते हैं। ऐसे में बंधन, उपदेश बिलकुल अच्छे नहीं लगते। अच्छे लगते हैं तो केवल अपने मित्र ! उ नके साथ घूमना, बात करना….इसी में आनंद आता है। बस यहीं से मार्ग भटक जाने की घंटी सुनाई पड़ने लगती है। बहुत से मार्ग भटक भी जाते हैं, नशे की गिरफ्त में पहुँच जाते हैं। विपरीत लिंग के पारस्परिक आकर्षण में बंध कर अपनी मर्यादाएं और संस्कार भूल कर दैहिक संबंधों की ओर मुड़ जाते हैं। आजकल नगरों-महानगरों में लिव इन की प्रवृति लोकप्रिय होती जा रही है क्योंकि उसमें बंधन नहीं है, जिम्मेदारी नहीं है। जब तक अच्छा लगा साथ रहे, नहीं अच्छा लग रहा तो साथ खत्म। फिर कोई दूसरा साथ….. और ऐसी इच्छाओं, आकर्षणों का कोई अंत नहीं है।        तब यहीं से माता-पिता की विशेष जिम्मेदारी का आरम्भ होता है, विशेष रूप से माँ का। आप वो समय नहीं रहा की आपने डांट-डपट कर,धमका कर और आवश्यकता समझी तो थोड़ी पिटाई करके काम चला लिया। ऐसा करने पर आए दिन समाचारपत्रों और दूरदर्शन में कितने ही आत्महत्याओं के समाचार पढ़ने-सुनने को मिलते हैं। आज जिस तकनिकी युग में हम रह रहे हैं वहां एक क्लिक से ही सारा संसार आपके सामने आ खड़ा होता है, क्लिक से ही अधिकतर काम संपन्न हो जाते हैं। तो ऐसी स्थिति में हम पूरी तरह पुराने समय के साथ नहीं चल सकते। चलेंगे तो अपने बड़े होते बच्चों के साथ चलने में पीछे रह जाएंगे, उनके साथ कदम से कदम मिला कर चलने में पिछड़ जाएंगे।       पहले समाज में पिता कमा कर लाते थे और माँ घर देखती थी। संयुक्त परिवारों का चलन ज्यादा था। ऐसे में बच्चों को माँ के साथ परिवार के अन्य सदस्यों दादा-दादी, नाना-नानी,ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ, मौसी, मामा आदि सभी सम्बंधियों और घर के बच्चों का साथ भी मिलता था। पर आज संयुक्त परिवारों का चलन घटता जा रहा है, एकल परिवार बढ़ रहे हैं। कैरियर कांशस और महत्वाकांक्षी होने के कारण पिता के साथ-साथ माँ भी काम करने के लिए बाहर निकल रही है। अपने बच्चों को कम समय दे पाने के अपराधबोध को कम करने के लिए दामी उपहार, गैजेट्स दिलवाते हैं जो बाद में उन्हीं के लिए परेशानी का कारण बनते हैं।        ऐसे में माँ की भूमिका ही सबसे महत्वपूर्ण होती है। माँ ही अपनी मर्यादाओं- संस्कारों का परिचय करवाते हुए उनके व्यक्तित्व को निखारती है, खेल-खेल में, काम करते-करवाते हुए, बात करते हुए कब उसे संस्कारित-शिक्षित करती चली जाती है यह पता ही नहीं चलता। यह करने के लिए हम अपने बच्चों के मित्र बनें। उनके साथ गाने सुनें, फ़िल्म देखें, योग-व्यायाम करें, घूमने जाएँ, गप्पे मारें, उनके साथ अपनी दिन भर की बातें साझा करें और उनकी सुनें, उनकी समस्याएं सुन कर उनका निराकरण करें, उनके साथ-साथ उनके मित्रों के भी मित्र बनें…..फिर देखें आपके बच्चे आपके इतना निकट होंगे की वे निसंकोच अपनी हर बात हमसे साझा करेंगे और इसके लिए वे इधर-उधर नहीं भटकेंगे। कभी-कभी बच्चों के भटकाव की शुरुआत यहीं से होती है जब उन्हें यह लगता हैं कि उनके माता-पिता के पास उनकी बातें सुनने का समय नहीं नहीं है या वे कहां हमारी बात समझेंगे और तब मित्रों की तलाश उन्हें अच्छे-बुरे का आकलन करने का अवसर नहीं देती। हम मित्र बन कर उनके हृदय में पहुंचे।        ऐसी और भी बातें हैं जो करके हम जीवन में उन्हें आगे बढ़ाने में सहायक बन सकते हैं……हम हर समय उन्हें सिखाने की कोशिश न करें उनसे सीखें भी। हर समय अपने समय की दुहाई देते हुए टोका-टाकी करते हुए अपने को अप्रिय न बनाएं। समय के साथ चलते हुए उनके हमजोली बन कर अपने सपनों के साथ उनके सपनों को भी जीना सीखें, विवाद की जगह आत्मीय संवाद सदा बनाएं रखें। अपने समय की अपनी कुछ बातें शेयर करते हुए उन्हें बताएं की आज अपनी समस्याओं के बारे में अपने माता-पिता से बात करना कितना आसान है।         अपने किशोर बच्चों के साथ आप भी अपनी किशोर वय को जियें और इस सबसे बढ़ कर……उन पर विश्वास करें, शक नहीं। शक विद्रोह को जन्म देता है।       इन सब बातों के साथ अपने बच्चों के साथ  जियें जीवन के खूबसूरत पल……फिर देखिये उनके साथ सामंजस्य बैठाना, सीखना-सिखाना और उन्हें संभालना कितना सुगम होगा। पर पहले उनके लिए इस राह पर चलने के लिए हम पहला कदम बढ़ाएं तो सही। ~~~~~~~~~~~~~~~~~ डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई —————————————–