—-डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई– वृद्धावस्था ! जीवन का महत्वपूर्ण और अंतिम पड़ाव ! जीवन भर के सँजोये मधु-तिक्त अनुभवों का सामंजस्य लिए एक संपूर्ण संसार। हमारे बड़े चाहते हैं कि उनके जीवन की कड़ी धूप में तप कर पाए अनुभवों से उसके अपने कुछ सीख कर उन दुखों से दूर रहें जो उन्हें मिले, वे खुशियाँ और अधिक पाएँ जो उन्हें अपनी कमियों के चलते उतनी नहीं मिल पाई, जितनी मिलनी थीं। अनुभवों का छलकने को आतुर संसार अपनों के सम्मुख अपनेपन से बिखरना चाहता है पर वो अपने, अपने जीवन की, अपनी महत्वाकांक्षाओं को पाने की आपाधापी में, दिन-रात की भागम-भाग के चलते इतना भी समय नहीं निकाल पाते कि दो घड़ी उनके पास बैठ कर दो बात भी कर सकें। मनुष्य को जब जीवन मिलता है तभी से उसकी हर काम के लिए तैयारी आरंभ हो जाती है। पहले अपनी पढाई, नौकरी, विवाह, बच्चे,उन्हें पालने के उपक्रम। फिर उन बच्चों के लिए उसी तरह के उपक्रम….इस तरह हर व्यक्ति अपनी इन सब जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए तैयारी करता है, संघर्ष और श्रम करके अपने कर्तव्यों को पूरा करता है। लेकिन इन सब के बीच उसकी स्वयं अपने लिए तैयारी तो कहीं दृष्टिगोचर होती ही नहीं। क्या यह उचित नहीं है कि व्यक्ति हर कार्य की तरह अपनी वृद्धावस्था के लिए भी तैयारी करे। अपने कर्तव्यों को भली-भाँति निभाते हुए वह कुछ पूँजी अपनी वृद्धावस्था के लिए भी रखे। बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ स्वयं को भी अपने आने वाले शिथिल दिनों के लिए आत्मनिर्भर बनाए। रिटायरमेंट के बाद बहुत से व्यक्ति, जिनमें महिलाएँ और पुरुष दोनों हैं, घर के लोगों के लिए अपनी हर समय की टोका-टाकी करते रहने की प्रवृत्ति के कारण अप्रिय और परेशानी का कारण बनने लगते हैं। युवावस्था में विकसित की गईं रुचियाँ इस उम्र में बहुत लाभदायक सिद्ध होती हैं। रिटायरमेंट के बाद अपनी रुचियों जैसे–पढ़ना-लिखना, संगीत, पेंटिंग, बागबानी आदि को समय देकर उनमें व्यस्त रहे तो एकाकीपन की समस्या आएगी ही नहीं। आजकल तो इतनी स्वयंसेवी संस्थाएँ और संगठन हैं जिनमें व्यक्ति अपनी रुचियों के अनुसार अपनी सेवाएँ देकर समाज के लिए उपयोगी बन सकते हैं साथ ही अपने परिवार को गौरवान्वित करते हुए उनके साथ कदम से कदम मिला कर चल सकते हैं। ये तो मैंने बड़ों के पक्ष पर विचार किया, अब मैं दूसरे पक्ष यानि तथाकथित नई पीढ़ी और परिवार के अन्य सदस्यों की ओर लौटती हूँ तो पाती हूँ की अपनी जिम्मेदारियाँ वे भी निभा तो रहें हैं,पर यदि उनमें कुछ बातों का समावेश कर लें तो समस्या को अपने पैर पसारने का स्थान मिलने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। अपने बड़ों के लिए जो भी करें, उददेश्य तो यही होता है न कि वे प्रसन्न हों। तो उनके स्वभाव, उनकी रुचियों का ध्यान रखते हुए करें तो शायद उन्हें अधिक प्रसन्नता होगी। मैंने कई परिवारों में देखा कि दादा-दादी, नाना-नानी केक खाना पसंद नहीं करते पर परिवार के लोग अपनी पसंद और आधुनिकता के चलते जन्मदिन मनाने के नाम पर जबरदस्ती केक खिलाते हैं और वे मन मार कर खाते हैं। क्या इससे अच्छा यह नहीं कि उन्हें उनकी पसंद की चीज खिलाएँ, उनकी पसंद के अनुरूप उपहार दें, उनकी रूचि-इच्छा के अनुसार उन्हें घुमाने ले जाएँ। यदि हम कर ही रहें हैं तो बड़ों की खुशियों का भी ध्यान रख लें तो क्या अच्छा नहीं होगा? माता-पिता जिस समय में हैं हम भी हर दिन उसी ओर बढ़ रहें हैं। हर व्यक्ति को इस अवस्था में पहुँचना ही है तो क्यों न एक-दूसरे को सँभालते हुए जीवन जिएँ। जो चला जाएगा वो कभी लौट कर आने से रहा। स्मृतियों में इस संतोष के साथ जीवित रखेंगें कि हम जो कर सकते थे हमने किया तो कभी किसी को पछताना नहीं पड़ेगा। बड़े तो बड़े हैं यह सोच कर छोटे ही विनम्र बनें और बड़ों को संभालें।फिर देखिये बड़ों का आशीर्वाद कैसे घर की खुशियों में श्रीवृद्धि करता है। हम सब अपनी जड़ों की और लौटना चाहते हैं, लौट भी रहें हैं, पर अपने स्वभाव और आधुनिकता की झूठी परिभाषा में उलझे स्वयं अपने बीच की दूरियों को बढ़ा रहे हैं। पुरानी और नई पीढ़ी दोनों सामंजस्य रखते हुए बुद्धिमानी से एक-एक कदम आगे बढे तो मुझे पूरा विश्वास है कि वृद्धाश्रम की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी। परिवार चाहे संयुक्त हो या एकल–उनमें दोनों पीढियां एक-दूसरे के अनुभवों से पूर्ण होती हुई अपनी जड़ों को सुरक्षित रखेगी और यही उनके स्वर्णिम दिन होंगें। ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~