बाल दिवस पर विशेष कविता : पढो और बढ़ो :डॉ भारती वर्मा बौड़ाई

पढ़ो, बढ़ो, जीवन के दुर्गम पर्वत चढ़ो। मिलें बाधाएँ रौंद उन्हें नव पथ गढ़ो। दिखे कहीं अन्याय, सहो न आगे बढ़ लड़ो। पथ अपना चुन, उस पर अकेले ही बढ़ो। अँधियारा, डरना कैसा? अपना दीपक आप बनो। रंग भले ही हों कितने भी बस भोलापन चुनो। ———————— कॉपीराइट@डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई।

एक वर्ष : अटूट बंधन के साथ

प्रिय अटूट बंधन               आज तुम एक वर्ष के हुए और इसी के साथ हमारी मित्रता भी एक वर्ष की हुई। एक वर्ष की इस यात्रा में विभिन्न, पर नित नए कलेवर में नए-नए साहित्यिक पुष्प लिए तुम जब-जब हमारे सम्मुख आए….हमें सम्मोहित करते गए, अपने आकर्षण में बांधते गए। एक-एक कड़ी के रूप में सदस्य जुड़ते रहे कि आज अटूट बंधन परिवार के रूप में हम तुम्हें अपने संग लिए औरों के सम्मुख थोड़ा गर्व से, थोड़ा प्यार से इठलाते हुए, इतरा कर चलते हैं मानो कह रहे हों कि देखा हमारी एक वर्ष की यात्रा का यह मनोरम रूप कि अब इस यात्रा के दूसरे अध्याय को लिखने की और बढ़े जा रहे हैं।         व्यावसायिकरण के इस युग में जब रिश्तों से विश्वास उठने सा लगा था तब हौले से एक पदचाप सुनाई दी, जिसकी छुअन ने मन-प्राणों में एक सिहरन सी जगाई और देखा कि तुम्हारे रूप में एक देवदूत रिश्तों की गठरी लिए साहित्य के आँगन में हौले-हौले उतर रहा है, जिससे कोलाहित हुए धरती-गगन ! सुवासित हुए हृदयांगन ! उस गठरी से बिखरे मोती नए अर्थ लिए रिश्तों की बगिया सिंचित करने लगे। जीवन से हारे, एकाकी, पक्षियों, तितलियों, भौरों, जुगनुओं जैसे सभी हृदयों को अपनी ओर खींचने लगे।           और एक बात बताऊँ, शायद तुम्हें न भी मालूम हो कि हमारा साथ अभी तक फेसबुक के द्वारा हो पुष्पित-पल्लवित होकर इस मोड़ तक पहुँचा है। साकार रूप में तुम्हें देखना कितना रोमांचक होगा…..कम से कम अभी तो मेरे लिए यह कल्पना करना कठिन है।        तुम्हें नहीं पता अटूट बंधन कि तुम किस तरह मेरे सपनों का आसमान और उनकी उड़ान बन गए हो। तुम्हारे साथ-साथ मेरी सृजनशीलता को भी पंख लग गए हैं। मैं भी नित नए विचार-रंगों से तुम्हारा श्रृंगार करके तुम्हारे ही साथ-साथ विकास की उड़ान भरने के लिए अपने बंधे पंखों को खोल कर सपनों में सच का रंग भरने की और उन्मुख हो गयी हूँ। तुमने न जाने कितने मुझ जैसों को अपने बंधन में बाँध कर, अपना बना कर उत्साह, आत्मविश्वास, सृजनशीलता, नवीनता के इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर किया है। तुम्हारे साथ उत्सवों के रंग चतुर्दिक बिखर कर अपनी द्विगुणित आभा से हमारे मनों में गहराई से उतर रहे हैं। कितना अच्छा और सुखद  लग रहा है विकास की सीढ़ियों पर चढ़ने के लिए तुम्हारे साथ कदम से कदम मिला कर चलना।        तुम इसी तरह नित नए रंग, नए विचार, नया कलेवर लिए हम सबके साथ अपने नाम को सार्थक करते हुए सबके मनों में प्रवेश करो।   बढ़े कदम बढ़ते रहें, नए कदम जुड़ते रहें   प्यार का ये कारवाँ, बस यूँ ही बढ़ता रहे।        जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामनाओं के साथ………..। ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई

अटल रहे सुहाग : मैं आ रहा हूँ…..डॉ भारती वर्मा बौड़ाई

       मैं सदा उन अंकल-आंटी को साथ-साथ देखा करती थी। सब्जी लानी हो, डॉक्टर के पास जाना हो, पोस्टऑफिस, बैंक, बाज़ार जाना हो या अपनी बेटी के यहाँ जाना हो……हर जगह दोनों साथ जाते थे।उन्हें देख कर लगता था मानो एक प्राण दो शरीर हों। आज के भौतिकवादी समय को देखते हुए विश्वास नहीं होता था कि वृद्धावस्था में भी एक-दूसरे के प्रति इतना समर्पित प्रेम हो सकता है।            मैं जब-तब उनके यहाँ जाया करती थी। जैसे ही पहुँचती, अंकल कहते–आओ बेटा! देखो तुम्हारी आंटी ने मेरी किताब ही छीन कर रख दी! कहती है बस आराम करो। भला कैसे चलेगा इस तरह मेरा काम?           तब तक रसोई से आंटी की आवाज़ आती–कुछ भी शिकायत कर लो तुम बीना से, किताब तो तुम्हें नहीं ही मिलेगी। भूत की तरह बस चिपके रहते हो किताब से। न अपनी तबियत की चिंता न दवाई खाने की याद रहती है तुम्हें।              ऐसा भी नहीं था कि दोनों के विचार हर बात  में मिलते ही थे। मतभेद भी काफी रहता था। अंकल थे पढ़ने-लिखने वाले व्यक्ति, एक विद्वान् लेखक। काफी लोग उनके पास आया करते थे।उनका अधिकतर समय लिखने-पढ़ने में ही बीतता था। शेष समय अपने घर के अहाते में बागबानी करने में लगे रहते। फलों के खूब पेड़ लगा रखे थे उन्होंने। फूलों की भी बहुत जानकारी थी उन्हें। और आंटी गृहस्वामिनी थी, पर उनमें भी बहुत सी विशेषताएँ थीं। वे हाथ से बहुत अच्छे स्वेटर बनाती थी जो दिखने में मशीन के बने लगते थे। अपने सारे त्योहारों को पूरे मनोयोग, पूरी आस्था से मनाती थी। अंकल जितने अंतर्मुखी, आंटी उतनी ही बहिर्मुखी और मिलनसार। पर अंकल आंटी के हर काम में शामिल रहते…फिर चाहे वह बड़ियाँ-कचरियाँ बनाने का ही काम क्यों न हो। तीन बच्चे थे उनके। तीनों अपने-अपने परिवारों में आनंदपूर्वक रह रहे थे। आते-जाते रहते थे। बेटी एक ही शहर में रहती थी तो वो जब-तब उनके पास आती रहती थी और इस तरह अंकल-आंटी का जीवन भी अपनी गति से ठीक-ठाक चल रहा था।            पर जाने किसकी नज़र लगी उनकी खुशियों पर, कि आंटी की तबियत खराब रहने लगी। बेटी बीच-बीच में आती, फिर वह दोनों को अपने साथ ही ले गई अपने घर। कई जाँचों के बाद पता चला कि आंटी को गॉल ब्लैडर का कैंसर है। जिन आंटी ने अपने लिए कभी एक दिन भी अस्पताल में रह कर नहीं देखा था, अब उन्हें हर सप्ताह-पंद्रह दिन में चिकित्सा के लिए दिल्ली जाना पड़ने लगा। तब अंकल आंटी की इंतजार का समय उनकी बातें करके,उन्हें याद करके बिताते थे। जब उन्हें आंटी की बीमारी के बारे में बताया गया था तो वे फूट-फूट कर रो पड़े थे और उन्हें समझाना ही मुश्किल हो गया था। दोनों के जीवन का रूप ही बदल गया था। एक-दूसरे के लिए सबकुछ कर दें कि करने के लिए कुछ बाकी न रह जाए…इस भावना से दोनों एक-दूसरे के लिए जीने लगे थे। देखने पर मन भर-भर आता था।          करवाचौथ के बाद उनसे मिलने गई थी तो दोनों मुझे देख कर बहुत खुश हुए थे। मन का दुःख छिपाने की बहुत कोशिश कर रहे थे पर चेहरे पर दुःख साफ़ नज़र आ रहा था।        और सुनाओ बेटा! कैसा रहा तुम्हारा त्यौहार? हमने भी बस जैसे-तैसे मना ही लिया। मैंने बरामदे में कुर्सी पर बैठ कर तुम्हारे अंकल के साथ चाँद देखा और साथ मिल कर जल चढ़ाया। पता नहीं आगे यह सौभाग्य हमें मिले न मिले…कहते-कहते दोनों की आँखों में आँसू आ गए थे। मेरी भी आँखें आँसुओं से भीग गयी थी। मन ही मन दुआ कर रही थी कि आंटी ठीक हो जाएं और पहले की तरह  दोनों अपना जीवन सामान्य रूप से बिताएँ। पर ईश्वर ने तो जैसे स्वयं उन्हीं के मुख से बिछड़ने का सत्य बुलवा दिया था।         पर चाहने से भी कुछ हुआ है! एक दिन आंटी के घर सवेरे-सवेरे एम्बुलेंस आकर रुकी। घर से तुरंत भागी गयी। पता चला आंटी नहीं रहीं। मुझे अंकल की चिंता होने लगी कि अब वे कैसे रहेंगे जिन्होंने अपने जीवन का एक भी पल आंटी के बिना नहीं बिताया था। उनकी हालत देख कर अपने आँसू रोकने मुश्किल हो रहे थे। उनसे मिली तो देखते ही रोने लगे–देखा छोड़ गयी तुम्हारी आंटी मुझे! मैं उन्हें कहता था कि जब तुम ठीक हो जाओगी तो हम एक पार्टी रखेंगे और सबको बुलाएँगे। पर मुझे क्या पता था कि उनकी तेरहवीं में मुझे सबको बुलाना पड़ेगा।        इसके बाद भी मैं अंकल से मिलने जाती रही। मुझे देखते ही हँस कर आ बेटी..कहने वाले अंकल एकदम शांत से हो गए थे। बात करते हुए बातें कम और रोते ज्यादा थे। सोचती थी कि अपनी बेटी, जिनके अंकल-आंटी बहुत नज़दीक थे, के पास रहते हुए वे अपने को संभाल लेंगे….पर मैं गलत थी। उनकी शांति तो तूफ़ान के आने के पहले की शांति थी। कल करवाचौथ है तो कुछ तैयारियाँ आज ही करके रख दूँ ताकि कल शॉपिंग करने जा सकूँ..सोच कर काम करने में लग गई। मुझे क्या पता था कि यह सब नियति का सब पूर्वनियोजित है जिससे मैं कल अंकल को अंतिम विदाई दे सकूँ।        अगले दिन नहाने के लिए कपड़े निकाल ही रही थी कि उनकी बेटी का फोन आया। धड़कते मन से फोन कान पर लगाया ही था कि वो रोते-रोते बोली–बीना! पापा भी मुझे छोड़ गए। वो करवाचौथ पर मेरी माँ को अकेला कैसे देख सकते थे ? पर बीना! मैं क्या करूँ अब ?       और मैं उनके अंतिम दर्शन करके, उन्हें अंतिम विदाई देकर रोते-रोते सोच रही थी की सच्चे प्रेम की पराकाष्ठा भला और क्या होगी कि करवाचौथ पर रात को चंद्र-दर्शन और जल चढ़ा कर पूजा संपन्न करवाने के लिए वे अपनी भौतिक देह को छोड़ कर अपनी संगिनी के पास पहुँच, सदा के लिए एकाकार हो गए थे, अटूट बंधन में बंध गए थे।      ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ कॉपीराइट@डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई

अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस परिचर्चा : जरा सी समझदारी : डॉ भारती वर्मा बौड़ाई

—-डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई–                                                           वृद्धावस्था ! जीवन का महत्वपूर्ण और अंतिम पड़ाव ! जीवन भर के सँजोये मधु-तिक्त अनुभवों का सामंजस्य लिए एक संपूर्ण संसार। हमारे बड़े चाहते हैं कि उनके जीवन की कड़ी धूप में तप कर पाए अनुभवों से उसके अपने कुछ सीख कर उन दुखों से दूर रहें जो उन्हें मिले, वे खुशियाँ और अधिक पाएँ जो उन्हें अपनी कमियों के चलते उतनी नहीं मिल पाई, जितनी मिलनी थीं। अनुभवों का छलकने को आतुर संसार अपनों के सम्मुख अपनेपन से बिखरना चाहता है पर वो अपने, अपने जीवन की, अपनी महत्वाकांक्षाओं को पाने की आपाधापी में, दिन-रात की भागम-भाग के चलते इतना भी समय नहीं निकाल पाते कि दो घड़ी उनके पास बैठ कर दो बात भी कर सकें। मनुष्य को जब जीवन मिलता है तभी से उसकी हर काम के लिए तैयारी आरंभ हो जाती है। पहले अपनी पढाई, नौकरी, विवाह, बच्चे,उन्हें पालने के उपक्रम। फिर उन बच्चों के लिए उसी तरह के उपक्रम….इस तरह हर व्यक्ति अपनी इन सब जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए तैयारी करता है, संघर्ष और श्रम करके अपने कर्तव्यों को पूरा करता है। लेकिन इन सब के बीच उसकी स्वयं अपने लिए तैयारी तो कहीं दृष्टिगोचर होती ही नहीं। क्या यह उचित नहीं है कि व्यक्ति हर कार्य की तरह अपनी वृद्धावस्था के लिए भी तैयारी करे। अपने कर्तव्यों को भली-भाँति निभाते हुए वह कुछ पूँजी अपनी वृद्धावस्था के लिए भी रखे। बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ स्वयं को भी अपने आने वाले शिथिल दिनों के लिए आत्मनिर्भर बनाए। रिटायरमेंट के बाद बहुत से व्यक्ति, जिनमें महिलाएँ और पुरुष दोनों हैं, घर के लोगों के लिए अपनी हर समय की टोका-टाकी करते रहने की प्रवृत्ति के कारण अप्रिय और परेशानी का कारण बनने लगते हैं। युवावस्था में विकसित की गईं रुचियाँ इस उम्र में बहुत लाभदायक सिद्ध होती हैं। रिटायरमेंट के बाद अपनी रुचियों जैसे–पढ़ना-लिखना, संगीत, पेंटिंग, बागबानी आदि को समय देकर उनमें व्यस्त रहे तो एकाकीपन की समस्या आएगी ही नहीं। आजकल तो इतनी स्वयंसेवी संस्थाएँ और संगठन हैं जिनमें व्यक्ति अपनी रुचियों के अनुसार अपनी सेवाएँ देकर समाज के लिए उपयोगी बन सकते हैं साथ ही अपने परिवार को गौरवान्वित करते हुए उनके साथ कदम से कदम मिला कर चल सकते हैं। ये तो मैंने बड़ों के पक्ष पर विचार किया, अब मैं दूसरे पक्ष यानि तथाकथित नई पीढ़ी और परिवार के अन्य सदस्यों की ओर लौटती हूँ तो पाती हूँ की अपनी जिम्मेदारियाँ वे भी निभा तो रहें हैं,पर यदि उनमें कुछ बातों का समावेश कर लें तो समस्या को अपने पैर पसारने का स्थान मिलने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। अपने बड़ों के लिए जो भी करें, उददेश्य तो यही होता है न कि वे प्रसन्न हों। तो उनके स्वभाव, उनकी रुचियों का ध्यान रखते हुए करें तो शायद उन्हें अधिक प्रसन्नता होगी। मैंने कई परिवारों में देखा कि दादा-दादी, नाना-नानी केक खाना पसंद नहीं करते पर परिवार के लोग अपनी पसंद और आधुनिकता के चलते जन्मदिन मनाने के नाम पर जबरदस्ती केक खिलाते हैं और वे मन मार कर खाते हैं। क्या इससे अच्छा यह नहीं कि उन्हें उनकी पसंद की चीज खिलाएँ, उनकी पसंद के अनुरूप उपहार दें, उनकी रूचि-इच्छा के अनुसार उन्हें घुमाने ले जाएँ। यदि हम कर ही रहें हैं तो बड़ों की खुशियों का भी ध्यान रख लें तो क्या अच्छा नहीं होगा? माता-पिता जिस समय में हैं हम भी हर दिन उसी ओर बढ़ रहें हैं। हर व्यक्ति को इस अवस्था में पहुँचना ही है तो क्यों न एक-दूसरे को सँभालते हुए जीवन जिएँ। जो चला जाएगा वो कभी लौट कर आने से रहा। स्मृतियों में इस संतोष के साथ जीवित रखेंगें कि हम जो कर सकते थे हमने किया तो कभी किसी को पछताना नहीं पड़ेगा। बड़े तो बड़े हैं यह सोच कर छोटे ही विनम्र बनें और बड़ों को संभालें।फिर देखिये बड़ों का आशीर्वाद कैसे घर की खुशियों में श्रीवृद्धि करता है। हम सब अपनी जड़ों की और लौटना चाहते हैं, लौट भी रहें हैं, पर अपने स्वभाव और आधुनिकता की झूठी परिभाषा में उलझे स्वयं अपने बीच की दूरियों को बढ़ा रहे हैं। पुरानी और नई पीढ़ी दोनों सामंजस्य रखते हुए बुद्धिमानी से एक-एक कदम आगे बढे तो मुझे पूरा विश्वास है कि वृद्धाश्रम की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी। परिवार चाहे संयुक्त हो या एकल–उनमें दोनों पीढियां एक-दूसरे के अनुभवों से पूर्ण होती हुई अपनी जड़ों को सुरक्षित रखेगी और यही उनके स्वर्णिम दिन होंगें। ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~