गीदड़-गश्त

गीदड़ एक ऐसा पशु है जो खंडहरों में गश्त लगाते हैं |कहानी में वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी ने अतीत में बार -बार जाने की बात की तुलना इसी गीदड़ गश्त से करी है | स्वाभाविक है कि हम अतीत में बार -बार तभी जाते हैं जब वहाँ कोई ट्रामा हो, गिल्ट हो, या कोई ऐसा सिरा हो जो अधूरा रह गया हो | जिसको खोजने मन बार -बार वहां पहुँच जाता है | आखिर क्या है कि कहानी का नायक बैंकुवर में बस जाने के बाद भी ४० साल पीछे की स्मृतियों में जाकर कर बार बार गश्त लगाता है |ये कहानी बहुत कम शब्दों में बहुत गहन संवेदना प्रस्तुत करती है |  आइये पढ़ते हैं किसी  के विश्वास को ठगे जाने की मार्मिक कहानी …. गीदड़-गश्त किस ने बताया था मुझे गीदड़, सियार, लोमड़ी और भेड़िये एक ही जाति के जीव जरूर हैं मगर उनमें गीदड़ की विशेषता यह है कि वह पुराने शहरों के जर्जर, परित्यक्त खंडहरों में विचरते रहते हैं? तो क्या मैं भी कोई गीदड़ हूँ जो मेरा चित्त पुराने, परित्यक्त उस कस्बापुर में जा विचरता है जिसे चालीस साल पहले मैं पीछे छोड़ आया था, इधर वैनकूवर में बस जाने हेतु स्थायी रूप से? क्यों उस कस्बापुर की हवा आज भी मेरे कानों में कुन्ती की आवाज आन बजाती है, ‘दस्तखत कहाँ करने हैं?’ और क्यों उस आवाज के साथ अनेक चित्र तरंगें भी आन जुड़ती हैं? कुन्ती को मेरे सामने साकार लाती हुई? मुझे उसके पास ले जाती हुई? सन् उन्नीस सौ पचहत्तर के उन दिनों मैं उस निजी नर्सिंग होम के एक्स-रे विभाग में टैक्नीशियन था जिस के पूछताछ कार्यालय में उसके चाचा किशोरी लाल क्लर्क थे| उसे वह मेरे पास अपने कंधे के सहारे मालिक, हड्डी-विशेषज्ञ डॉ. दुर्गा दास की पर्ची के साथ लाये थे| उसका टखना सूजा हुआ था और मुझे उसके तीन तरफ से एक्स-रे लेने थे| “छत का पंखा साफ करते समय मेरी इस भतीजी का टखना ऐसा फिरका और मुड़का है कि इस का पैर अब जमीन पकड़ नहीं पा रहा है,” किशोरी लाल ने कारण बताया था| तीनों एक्स-रे में भयंकर टूटन आयी थी| कुन्ती की टांग की लम्बी शिन बोन, टिबिया और निचली छोटी हड्डी फिबुला टखने की टैलस हड्डी के सिरे पर जिस जगह जुड़ती थीं, वह जोड़ पूरी तरह उखड़ गया था| वे लिगामेंट्स, अस्थिबंध भी चिर चुके थे जिन से हमारे शरीर का भार वहन करने हेतु स्थिरता एवं मजबूती मिलती है| छः सप्ताह का प्लास्टर लगाते समय डॉ. दुर्गादास ने जब कुन्ती को अपने उस पैर को पूरा आराम देने की बात कही थी तो वह खेद्सूचक घबराहट के साथ किशोरी लाल की ओर देखने लगी थी| जभी मैंने जाना था वह अनाथ थी मेरी तरह| मुझे अनाथ बनाया था मेरे माता-पिता की संदिग्ध आत्महत्या ने जिसके लिए मेरे पिता की लम्बी बेरोजगारी जिम्मेदार रही थी जबकि उसकी माँ को तपेदिक ने निगला था और पिता को उनके फक्कड़पन ने| अगर अनाथावस्था ने जहाँ मुझे हर किसी पारिवारिक बन्धन से मुक्ति दिलायी थी, वहीं कुन्ती अपने चाचा-चाची के भरे-पूरे परिवार से पूरी तरह संलीन रही थी, जिन्होंने उसकी पढ़ाई पर ध्यान देने के बजाए उसे अपने परिवार की सेवा में लगाए रखा था| मेरी कहानी उस से भिन्न थी| मेरी नौ वर्ष की अल्प आयु में मेरे नाना मुझे अपने पास ले जरूर गए थे किन्तु न तो मेरे मामा मामी ने ही मुझे कभी अपने परिवार का अंग माना था और न ही मैंने कभी उनके संग एकीभाव महसूस किया था| मुझ पर शासन करने के उन के सभी प्रयास विफल ही रहे थे और अपने चौदहवें साल तक आते-आते मैंने सुबह शाम अखबार बांटने का काम पकड़ भी लिया था| न्यूज़ एजेन्सी का वह सम्पर्क मेरे बहुत काम आया था| उसी के अन्तर्गत उस अस्पताल के डॉ. दुर्गादास से मेरा परिचय हुआ था जहाँ उनके सौजन्य से मैंने एक्स-रे मशीनरी की तकनीक सीखी-समझी थी और जिस पर जोर पकड़ते ही मैंने अपनी सेवाएँ वहां प्रस्तुत कर दी थीं| पहले एक शिक्षार्थी के रूप में और फिर एक सुविज्ञ पेशेवर के रूप में| उस कस्बापुर में मुझे मेरी वही योग्यता लायी थी जिसके बूते पर उस अस्पताल से सेवा-निवृत्त हुए डॉ. दुर्गादास मुझे अपने साथ वहां लिवा ले गए थे| कस्बापुर उनका मूल निवास स्थान रहा था और अपना नर्सिंग होम उन्हीं ने फिर वहीं जा जमाया था| कस्बापुर के लिए बेशक मैं निपट बेगाना रहा था किन्तु अपने जीवन के उस बाइसवें साल में पहली बार मैंने अपना आप पाया था| पहली बार मैं आप ही आप था| पूर्णतया स्वच्छन्द एवं स्वायत्त| अपनी नींद सोता था और उस कमरे का किराया मेरी जेब से जाता था| जी जानता है कुन्ती से हुई उस पहली भेंट ने क्यों उसे अपनी पत्नी बनाने के लिए मेरा जी बढ़ाया था? जी से? मेरे उस निर्णय को किस ने अधिक बल दिया था? किशोरी लाल की ओर निर्दिष्ट रही उस की खेदसूचक घबराहट ने? अथवा अठारह वर्षीया सघन उसकी तरुणाई ने? जिस ने मुझ में विशुद्ध अपने पौरुषेय को अविलम्ब उसे सौंप देने की लालसा आन जगायी थी? किशोरी लाल को मेरे निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं रही थी और मैंने उसी सप्ताह उस से विवाह कर लिया था| आगामी पांच सप्ताह मेरे जीवन के सर्वोत्तम दिन रहे थे| प्यार-मनुहार भरे….. उमंग-उत्साह के संग….. कुन्ती ने अपने प्लास्टर और पैर के कष्ट के बावजूद घरेलू सभी काम-काज अपने नाम जो कर लिए थे| रसोईदारी के….. झाड़ू-बुहारी के….. धुनाई-धुलाई के….. बुरे दिन शुरू किए थे कुन्ती के प्लास्टर के सातवें सप्ताह ने….. जब उस के पैर का प्लास्टर काटा गया था और टखने के नए एक्स-रे लिए गए थे| जिन्हें देखते ही डॉ. दुर्गादास गम्भीर हो लिए थे “मालूम होता है इस लड़की के पैर को पूरा आराम नहीं मिल पाया| जभी इसकी फ़िबुला की यह प्रक्षेपीय हड्डी में लियोलस और टिबिया की दोनों प्रक्षेपीय हड्डियाँ मैलिलायी ठीक से जुड़ नहीं पायी हैं| उनकी सीध मिलाने के निमित्त सर्जरी अब अनिवार्य हो गयी है| टखने में रिपोसिशनिंग पुनः अवस्थापन, अब मेटल प्लेट्स और पेंच के माध्यम ही से सम्भव हो पाएगा….. तभी ओ.आर.आए.एफ. (ओपन रिडक्शन एंड इन्टरनल फिक्सेशन) के बिना कोई विकल्प है … Read more

दम-दमड़ी

“दम–दमड़ी” ये कहानी है वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की, जो रुपये पैसों के ऊपर टूटते –बिखरते रिश्तों का नंगा सच प्रस्तुत करती हैं | एक कहावत है कि “चमड़ी जाए पर दमड़ी ना जाये” | वैसे तो ये कहावत कंजूस लोगों के लिए हैं पर प्रश्न फिर भी वही है कि क्या पैसा इंसान को इतना स्वार्थी बना देता है ? कहानी है एक गरीब कबाड़ी परिवार की जहाँ एक बच्चा अपनी माँ व् पिता के साथ रह रहा है | रेलवे लाइन के पास बसे इस घर में रहने वाली बच्चे की माँ बीमार है | इलाज के पैसे नहीं हैं | तभी उनके घर के सामने ट्रेन एक्सीडेंट होता है | जहाँ घायलों और लाशों के बीच फैला उनका सामान वहां बसने वाले लोगों के मन में नैतिकता के सारे मायने भुला देने को विवश कर रहा है | ऐसे में उस बच्चे के घर में क्या होगा ? आइये जानते हैं ….   दीपक शर्मा की कहानी -दम-दमड़ी रेलवे लाइन के किनारे बप्पा हमें पिछले साल लाए थे. “उधर गुमटी का भाड़ा कम है,” लगातार बिगड़ रही माँ की हालत से बप्पा के कारोबार ने टहोका खाया था, “बस, एक ख़राबी है. रेल बहुत पास से गुजरती है.” लेकिन रेल को लेकर माँ परेशान न हुई थीं. उलटे रेल को देखकर मानो ज़िन्दग़ी के दायरे में लौट आई रहीं. बहरेपन के बावजूद हर रेलगाड़ी की आवाज़ उन्हें साफ़ सुनाई दे जाती और वह कुछ भी क्यों न कर रही होतीं, रेल के गुज़रने पर सब भूल-भूला कर एकटक खड़ी हो जातीं- छत पर, खिड़की पर, दरवाज़े पर. बल्कि कभी-कभी तो बाहर ही लपक लेतीं- किसी न किसी सवारी का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने. कभी-कभार उनकी यहकोशिश सफ़ल भी हो जाती और भेंट में उन्हें कभीखाने की कोई पोटली मिल जाती तो कभी पानी की ख़ाली बोतल. एक-दो बार तो उनकी तरफ़ किसी ने अपना रुमालही फेंक डाला तो किसी दूसरे ने रेज़गारी. रेल के लिए माँ की यही लपक देखकर बप्पा ने अपना नया शाप गढ़ा था, ‘ठठरी ज़रूर रेलगाड़ी के नीचे कट कर मरेगी.’ “देख, गोविंदा, इधर देख,” उस दोपहर में माँ ने मुझे सोते से जगाया था, “इत्ते रुपएतूने देखे हैं कभी?” अनगिनत रुपयों के वे पुलिन्दे मेरी आँखों तले क्या आए मेरी आँखें फ़ैल गईं.   एक जनाना बटुआ माँ की गोदी में टिका था और उनके सूखे हाथ उन रुपयों की गड्डियों की काट पकड़ने में उलझे थे. कुछ रुपए मैंने भी उठा लिए. लाल रंग का हज़ार रुपए का नोट और हरे रंग का पाँच सौ का नोट उस दिन मैंने पहली बार देखा और छुआ. “कहाँ से लिए?” इशारे से मैंने माँ से पूछा. “संतोषी माता ने अपनी बच्ची के इलाज की लागत भेजी है.” अपनी शादी के बाद लगातार ग्यारह-बारह साल तक माँ ने जो बप्पा के छँटे हुए कबाड़ की मँजाई की, सोवह उनकी गलफाँसी साबित हुई थी. गुदड़ी-बाज़ार ले जाने से पहले बोरा-भर अपना कबाड़ बप्पा सीधे घर लाया करते. यहीं उसमें से मरम्मत के क़ाबिल सामान छाँटतेऔरउसके रोगन या जंग-मैल छुड़ाने का ज़िम्मा माँ पर डालदेते. डॉक्टर के मुताबिक़ माँ की उँगलियों के गलके, मसूड़ोंकी नीली परत, उदर-शूल,जीभ का धात्विक स्वादऔर बहरापन सब उस सीसेकेज़हर की दूरमार थे जो बप्पा केअंगड़-खंगड़को तेज़ाब और रेगमाल से कुरेदते-खुरचते वक़्त या रगड़ते-चमकाते वक़्त माँ की नसों और अंतड़ियों ने सोख लिया था. “कहाँ से लिए?” मैं चिल्लाया. “बाहर टक्कर हुई,” माँ ने गाल बजाया. “मुई, इस बटुए वाली जनानी ने ज़ेवर भी ख़ूब क़ीमती पहन रखेथे. लेकिन निकम्मे मेरे हाथ उन्हें अलग न करपाए……” दो छलाँग में गुमटी पारकर मैं दरवाज़े पर जा पहुँचा. बाहर कुछ ही क़दम परअजीब अफ़रा-तफ़री मची थी. लहूफेंकरही, बिलबिलाती-हुहुआती सवारियों और लोहे, काँच, लकड़ीऔर रोड़ी-मिट्टीकी छिपटियों और किरचों कीटूट-फूट के बीच दो एयरकंडीशन्ड कोच इधर लुढ़के पड़े थे. स्कूल की अपनी तीसरी जमात तक आते-आते अँगरेज़ी के अक्षर जोड़ कर पढ़ने के क़ाबिलतो मैं रहाही. उसी हो-हल्ले के बीच एक भगदड़ और पड़ी रही. हमारे अड़ोस-पड़ोस में सभी अन्दर-बाहर दौड़ रहे थे- पहले-पहल, ख़ाली हाथ….. दूसरे पल, अंकवार-भर. “बोरा लाऊँ?” माँ मेरे पास चली आईं, “मौका अच्छा है.” “न,” मैंने सिर हिलाया. सामने एक पुलिस जीप आ खड़ी हुई. सिपाहियों ने नीचे उतरने में फुरती दिखाई. “मालूम? उधर कितना सामान लावारिस पड़ा है?” –माँ ने मुझे उकसाना चाहा. “न,” मैं काँपने लगा और अपने टाट पर लौट आया. “इन्हें गिन तो,” माँ ने रुपए फिर मेरी तरफ़ बढ़ाने चाहे, “मेरे इलाज का बन्दोबस्त तो ये कर ही देंगे. डॉक्टर कहता था पूरी ठीक होने में मुझे साल-दो साल लग जाएँगे.” “न,” मैंने सिर हिलाया और रुपए पकड़ने की बजाय कोने में पड़ा, अपने स्कूल का बस्ता अपनी गोदी में ला धरा. मेरी कँपकँपी जारी रही. “चल, भाग चलें,” रुपयों के बण्डल माँ ने एक थैली में भर लिए, “तेरे बप्पा ने मुझे मेरा इलाज नहीं कराने देना. इन रुपयों को देखते ही वह इन्हें अपने कब्ज़े में लेलेगा.” “न,” मैंने सिर हिलाया और अपने बस्ते से हिन्दी की क़िताब निकालकर माँ को इशारे से समझाया, “मेरी पढ़ाई है यहाँ.” इस इलाके के स्कूल में जाकर ही मैंने जाना था किसी भी कविता, किसी भी कहानी को ज्यों का त्यों दोहराने में मेरे मुक़ाबले कोई न था. पिछले आठ महीनों में मेरी क्लास टीचर मुझे सात बार बाहर प्रतियोगिताओं में लेकर गई थी और हर बार मैं इनाम जीत कर लौटता रहा था. “यह क्या वहाँ नहीं मिलेगी?” माँ गुलाबी नशे में बहकने लगीं, “वहाँ इससे भी बड़े स्कूल में तुझे पढ़ाई कराऊँगी….. एक बार, बस मेरा इलाज हो जाए. फिर देख कैसे मैं काम में जुटती हूँ….. सिलाई मशीन खरीदूँगी….. अपनी टेलरिंग की दुकान खोलूँगी मैं.” उधर कस्बापुर में माँ के पिता टेलरिंग का काम करते थे. दिहाड़ी पर. मरते दम तक सिलाई की अपनी मशीन उन्हें नसीब न हुई. “न,” कबाड़ की तरफ़ इशारा कर मैं रोने लगा- हमारी गुमटी का एक-तिहाई हिस्सा कबाड़ के हवाले रहा- “यहाँ बप्पा हैं.” बप्पा मुझे बहुत प्यारे रहे. उनके कन्धों की सवारी में कहाँ-कहाँ न मैं घूमा करता. उनके घुटनों के झूले पर बैठकर कितनी-कितनी पेंग न मैं लेता. अपने मज़बूत हाथों से जब वे मुझे ज़मीन से ऊपर उठाकर उछालते तो उस ऊँचाई से नीचे … Read more

भनक

टिनीटस एक बीमारी है जिसमें कानों में अजीब अजीब सी आवाजें आती हैं | ऐसा कान का पर्दा सूज जाने के कारण होता है | आम भाषा में इसे काम का भनभनाना भी कहते हैं | क्या किसी को भविष्य की भनभनाहट भी सुनाई देती है | पढ़िए वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी … भनक  नहीं, बीणा को नहीं मालूम रहा….. जब भी उसकी बायीं दिशा से कोई कर्णभेदी कोलाहल उसके पास ठकठकाता और वह अपने बाएँ कान को ढँक लेती तो उसके दाएँ कान के परदे पर एक साँय-साँय क्यों चक्कर काटने लगती? अन्दर ही अन्दर! मन्द और मद्धम! कभी पास आ रही किसी मधुमक्खी की तरह गुँजारती हुई…..  तो कभी दूर जा रही किसी चिखौनी की तरह चहचहाती हुई. नहीं, बीणा को नहीं मालूम रहा- उसके विवाह के तदनन्तर वह साँय-साँय उसके अन्दर से आने की बजाय अब बाहर से क्यों धपकने लगी थी? तेज़ और तूफ़ानी! मानो कोई खुपिया बाघ अपनी ख़ोर से निकलकर उसकी ओर एकदिश धारा में अब लपका, तब लपका. उस समय भी लोको कॉलोनी के उस क्वार्टर में जैसे ही किसी एक सुपर-फ़ास्ट ट्रेन की तड़ातड़ तड़तड़ाहट ने उसे अपने बाएँ कान को अपने हाथ से ढँकने पर मजबूर कर रखा था और उसका दाहिना कान उस जान्तव चाप की चपेट में था जब उसके जेठ उसके मायके से आए एक टेलीफ़ोन-सन्देश की सूचना देने अपने लोको वर्कशॉप से उस लोको क्वार्टर पर दोपहर में आए थे : बीणा की माँ अस्पताल में दाख़िल है. पिछले दस घंटे में उसे होश नहीं आया है. बीणा के मायके वाले बीणा को बुला रहे हैं. “तुम हमारे काम की चिन्ता न करो,” जेठानी ने उदारता दिखाई थी, “कौन जाने तुम्हें फिर अपनी माँ देखने को मिले, न मिले. तुम मायके हो आओ…..” बीणा और उसके पति को उसके जेठ-जेठानी ने अपने क्वार्टर का छोटा कमरा दे रखा था. बीणा के पति पिछले दो साल से रेलवे की भरती के इम्तिहान में बैठते रहे थे और फ़ेल हो जाते रहे थे. पैसे की तंगी को देखते हुए फिर पिछले साल उनकी शादी बीणा से कर दी गई थी ताकि घर में टेलीविज़न और स्कूटर जुटाया जा सके. बीणा अपने पाँच भाइयों की अकेली बहन थी और उसके बप्पा अभी डेढ़ वर्ष पहले ही एक सरकारी दफ़्तर की अपनी चालीस साल की ड्राइवरी से सेवानिवृत्त हुए थे. बीणा की माँ ने लोको कॉलोनी के उस क्वार्टर को रेलगाड़ियों की निरन्तर आवाजाही की धमक से पल-पल थरथराते हुए जब देखा था तो पति से विनती कर बैठी थी, ‘लड़की को इधर न ब्याहिए. रेलगाड़ियों की यह गड़गड़ाहट, लड़की का बाँया कान भी बहरा कर देगी.’ मगर बप्पा को लड़के की बी.ए. की डिग्री चकाचौंध कर देने में सक्षम रही थी और उन्हें दृढ़ विश्वास था कि वह डिग्री किसी रोज़ उनके दामाद को रेलवे क्लर्की ज़रूर दिला देगी. “कौन?” एमरजेन्सी वार्ड के सत्ताइस नम्बर बेड से माँ बुदबुदाईं. “जूजू,” कहते-कहते बीणा ने अपनी ज़ुबान अपने तालू से चिपका ली. ‘जूजू’ उसकी ख़रमस्ती का नाम था जो दस वर्ष पहले एक तपती दोपहरी में उसने माँ के साथ खेलते समय अपने लिए रखा था. उस दोपहर के सन्नाटे में जिस समय बप्पा अपनी ड्यूटी पर रहे और चटाई पर भाई सोए रहे, बीणा की बाँह अपनी गरदन से अलग कर माँ उठ ली थीं. इस भ्रम में कि बीणा भी सो रही थी. लेकिन बीणा जाग रही थी और उसने माँ का पीछा किया था और माँ उसे घर की बरसाती में मिली थीं. हिचकियाँ लेकर सुबकती हुईं. वह अपना मुख उनके कान के पास ले गई थी और आँधी बनकर उसमें हवा फूँकने लगी थी. ‘कौन है?’ चौंककर माँ ने सिसकना छोड़ दिया था. ‘जूजू’ कहकर बीणा माँ से लिपट ली थी. ‘चल हट’, माँ हँस पड़ी थीं, ‘कैसे डरा दिया मुझे?’ बीणा ने अपनी बाँह माँ की गरदन पर फिर जा टिकाई थी : ‘और तुम जो हरदम डराती रहती हो? जूजू आया, जूजू आया?’ उनके छह भाई-बहनों को अपनी बात मनवाने हेतु माँ अक्सर ‘जूजू’ का हवाला दिया करती थीं. हँस रही माँ अकस्मात् रोने लगी थीं. ऐसा अक्सर होता था. माँ जब भी हँसतीं, बीच में ही अपनी हँसी रोक कर रोने लगतीं. बीणा के पूछने पर कहतीं, ‘चल हट. मैं रोई कब रही? ये आँसू तो हँसी के बढ़ जाने से आए रहे.’ वह चुप हो जाती. “कौन?” माँ के होंठ फिर हिले और एक कम्पन उन्हें झकझोर गया. माँ की बेहोशी का यह चालीसवाँ घंटा था. बीणा ने माँ का हाथ पकड़ लिया. उसके दोनों कान एक साथ बज रहे थे. चलन के विरुद्ध. आहट पीछे से नहीं सामने से आ रही थी. चरपरी और तीक्ष्ण. कड़ी और कठोर. दुरारोह और दुर्बोध. आगे ही आगे बढ़ती हुई. माँ के बराबर आ पहुँचने. “नहीं, नहीं,” बीणा ने डरकर अपनी आँखें बन्द कर लीं. माँ ने बचपन में उसे जो यमराज की कहानी सुनाई थी वही यमराज अपने उस रूप में सामने खड़े थे….. सुर्ख़ परिधान में….. लाल आँखें लिए….. भैंसे पर सवार….. हाथ में मृत्युफंदा….. गदा पर कपाल….. चार-चार आँखों वाले दो कुत्ते भी उसे दिखाई दिए जो माँ के कहे अनुसार यमराजपुरी के प्रवेशद्वार पर पहरा दिया करते थे….. “नहीं, नहीं, नहीं,” अपनी पूरी ताक़त के साथ बीणा ने मृत्युदेव से प्रार्थना की, “दक्षिण दिशा के दिक्पाल, मानव जाति के इतिहास के प्रथम पुरुष, हे मृत्युदेव, मेरी माँ की मृत्यु टाल जाइए. बदले में मुझे ले जाइए, मुझे ले जाइए…..” एमरजेन्सी वार्ड के काउन्टर पर तैनात दोनों डॉक्टरों और चारों नर्सों ने बीणा को सत्ताइस नम्बर बेड पर लुढ़कते हुए देखा तो तत्काल उधर लपक लिए. “कौन?” बीणा की माँ को एक दूसरा कम्पन दुगुने वेग से झकझोर गया और उनकी बेहोशी टूट गई. मरते-मरते वे जी उठीं. एमरजेन्सी वार्ड के स्टाफ ने शीघ्र ही बीणा के लिए एक दूसरे बेड की व्यवस्था कर दी और उन्हीं के चेकअप के दौरान बीणा को मालूम हुआ उस रोग का नाम टिनाइटस था जिसके अन्तर्गत उसके बाएँ कान का परदा भी उसके दाहिने कान के परदे की तरह पूरा-पूरा सूज गया था और इसीलिए पथ से हटकर विसामान्य ध्वनियाँ सुनने लगा था. आजकल बीणा के दोनों कानों का इलाज चल रहा है….. … Read more

मेंढकी

मेंढकी -एक उभयचर जीव, कभी पानी में , कभी थल पर और कभी कूद कर पेड़ पर चढ़ जाना | जीवन की कितनी कलाएं उसे पता है | हर परिस्थिति से सामंजस्य स्थापित करने की उसकी क्षमता है | एक ऐसे ही मेंढकी तो थी निम्मो, फिर ऐसा क्या हुआ कि …| ये कहानी निम्मों के साथ आगे बढती है और पाठकों के मानस पर एक रहस्य तारी रहता है | उसे मेंढकी पर भरोसा है | यही भ्रम बनाए रखना ही कथाकार की रचनाशीलता का कौशल | कहानी के अंत में ही पता चलता है कि अंतत : कौन साबित हुआ उभचर  जिसने विपरीत परिस्थिति का ग्रास बनने से पहले साम-दाम , दंड भेद से दूसरी दिशा में छलांग लगा ली  | आइये पढ़ते हैं वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की वो कहानी जिसे भोपाल विश्वविध्यालय के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है |  मेंढकी  निम्मो उस दिन मालकिन की रिहाइश से लौटी तो सिर पर एक पोटली लिए थी, “मजदूरी के बदले आज कपास माँग लायी हूँ…” इधर इस इलाके में कपास की खेती जमकर होती थी और मालिक के पास भी कपास का एक खेत था जिसकी फसल शहर के कारखानों में पहुँचाने से पहले हवेली के गोदाम ही में जमा की जाती थी। “इसका हम क्या करेंगे?” हाथ के गीले गोबर की बट्टी को अम्मा ने दीवार से दे मारा। “दरी बनाएंगे…” “हमें दरी चाहिए या रोकड़?” मैं ताव खा गया। मालिक के कुत्ते की सेवा टहल के बदले में जो पैसा मुझे हाथ में मिलता था, वह घर का खरचा चलाने के लिए नाकाफ़ी रहा करता। “मेंढकी की छोटी बुद्धि है। ज्यादा सोच-भाल नहीं सकती”, गुस्से में अम्मा निम्मो को मेंढकी का नाम दिया करती। तभी से जब छह महीने पहले वह इस घर में उसे लिवा लायी थीं। निम्मो की आँखें उन्हें मेंढकी सरीखी गोल-गोल लगतीं, ‘कैसे बाहर की ओर निकली रहती है!’ और निम्मो की जीभ उन्हें लंबी लगती, ‘ये मुँह के अंदर कम और मुँह से बाहर ज़्यादा दिखाई दिया करती है…’ “अम्माजी, आप गलत बोल रही हो”-निम्मो हँसी-जब भी वह अम्मा से असहमत हो, हँसती ज़रूर “मेंढकी की बुद्धि छोटी नहीं होती। बहुत तेज होती है। जिसे वह अपने अंदर छिपाये रहती है। जगजाहिर तभी करती है जब उसकी जुगत सफल हो जाए और जुगती वह बेजोड़ है। चाहे तो पानी में रह ले और चाहे तो खुश्की पर। चाहे तो पानी में रह ले और चाहे तो कूद कर पेड़ पर जा चढ़े। और यह भी बता दूँ, मेंढकी जब कूदने पर आती है तो कोई अंदाजा नहीं लगा सकता वह कितना ऊँचा कूद लेगी…” “कूदेगी तू?” निम्मो की पीठ पर मैंने लात जा जमायी टनाटन- “कूद कर दिखाना चाहती है तो कूद… कूद… अब कूद…” मेंढकों की कुदान के साथ मेरे कई कसैले अनुभव जुड़े थे। अपने पिता के हाल-बेहाल के लिए मैं मेंढक को भी उतना ही जिम्मेदार मानता था जितना मालिक को जिसके पगला रहे बीमार कुत्ते ने मेरे पिता की टाँग नोच खायी थी और जब डाक्टर ने इलाज, दवा, टीके मँगवाने चाहे थे तो मालिक ने मुँह फेर लिया था। ऐसे में बेइलाज चल रहे मेरे पिता का दर्द बेकाबू हो जाता तो वह मेंढकों की खाल के जहरीले रिसाव का सहारा ले लिया करते। उस रिसाव को अपने घाव पर लगाते-लगाते चाट भी बैठते। कभी कभी तो मेंढक की खाल को सुखा कर धुँधाते भी। अपने नशे की खातिर। ताल से मेंढक पकड़ने का काम मेरा रहा करता, उनकी इकलौती संतान होने के नाते। दरी बनाने का भूत, निम्मो के सर से उतरा नहीं। अगले दिन, बेशक मजदूरी ही लायी, कपास नहीं। हाँ, अपने कंधों पर एक चरखा जरूर लादे रही, “मालकिन का है। उसे लोभ दे कर लायी हूँ, पहली दरी उसी के लिए बिनुंगी…” “मतलब?” अम्मा की त्योरी चढ़ आयी। “अब तुझे दरियाँ ही दरियाँ बनानी हैं? घर का काम-काज मेरे मत्थे मढ़ना है?” “घर का पूरा काम काज पहले जैसी ही करती रहूँगी। दरियाँ मैं अपनी नींद के टाइम बिनुंगी…” और रसोई से छुट्टी पाते ही वह अपनी पोटली वाली रुई से जा उलझी उसे धुनकने और निबेड़ने ताकि उसे चरखे पर लगाया जा सके। रातभर उसका चरखा चलता रहा और सुबह हम माँ-बेटे को रुई की जगह सूत के वह दो गोले नज़र आए जिनके अलग अलग सूत को वह एक साथ गूँथ रही थी एक मोटी डोरी के रूप में। अगला वक्त हमारे लिए और भी नये नज़ारे लाया। कभी वह हमें सूत के लच्छों को सरकंडों के सहारे हल्दी या फिर मेंहदी या फिर नील के घोल में डुबोती हुई मिली तो कभी उन रंगे हुए लच्छों के सूख जाने पर उनकी डोरी बँटती हुई। सब से नया नज़ारा तो उस दिन सामने आया जब हमने एक सुबह लगभग चार फुटी दो बाँसों के सहारे नील-रंगी सूत को लंबाई में बिछा पाया। जमीन से लगभग ६ इंच की ऊँचाई पर। अपने आधे हिस्से में हल्दी रंगी चोंच और पैर वाली मेंहदी रंगी चिड़ियाँ लिए जिन्हें निम्मो लंबे बिछे अपने ताने पर इन दो धागों को आड़े तिरछे रख कर पार उतार रही थी। “रात भर जागती रही है क्या?” अम्मा मुझसे भी ज़्यादा हैरान हो आयी थी। “हाँ। मुझे यह दरी आज पूरी कर ले जानी है मालकिन को दिखाने के वास्ते कि उधार ली गयी उसकी कपास मेरे हाथों क्या रूप रंग पाती है। जभी तो उससे और कपास ला पाऊँगी…” “मगर दूसरी दरी क्या होगी? किधर जाएगी?” मैंने पूछा। “बाज़ार जाएगी। मेरी मेहनत का फल लायेगी…” निम्मो ने अपनी गरदन तान ली। उसके सर में एक अजानी मजबूती थी, एक अजाना जोश। ऐसी मजबूती और ऐसा जोश उसने हमारे नजदीकी के पलों में भी कभी नहीं दिखाया था। “कितना फल?” मैं कूद गया। एक अजीब खलबली मेरे अंदर आन बैठी थी। “साठ से ऊपर तो ज़रूर ही खींच लाएगी। मेरे बप्पा के हाथ की इस माप की दरी का दाम तो सौ से ऊपर जा पहुँचता…” “एक दरी का सौ रूपया?” अम्मा की उँगली उसके दाँतों तले जा पहुँची। हम माँ-बेटा उसके जुलाहे बाप से कभी मिले नहीं थे।हमारी शादी से पाँच साल पहले ही वह निमोनिया का निवाला बन चुका था अपने पीछे सात … Read more

कब्ज़े पर

हिस्टीरिया  एक ऐसी बिमारी है जिसमें व्यक्ति अपने ऊपर नियंत्रण खो देता है | ऐसा उनके साथ होता है जो बहुत ही दवाब में जीते हैं | कई बार आम लोग इसे मिर्गी समझ लेते हैं | परन्तु उससे अलग है | महिलाएं इसकी शिकार ज्यादा है |जब मन एक सीमा से ज्यादा दवाब नहीं सह पाता तो हिस्टीरिया के दौरे पड़ते हैं | या मरीज स्वयं ही इन दौरों को लाने की कोशिश करता है | ऐसा वो दूसरों को अपने कब्जे में लेने या उनसे अपनी बात मनवाने के लिए करता है | परन्तु यहाँ बात मानने वाले लोग अपने होते हैं जो भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं | परन्तु अगर ये जुड़ाव ना हो …? किसी दूसरे इंसान को अपने कब्जे पर लेने की चाहत क्या -क्या करवाती है …पढ़िए दीपक शर्मा जी की कहानी कब्जे पर में … कब्ज़े पर अपनी दूसरी शादी के कुछ समय बाद पापा मुझे मेरी नानी के घर से अपने पास लिवा ले गए. “यह तुम्हारी स्टेप-मॉम है,” अपने टॉयलेट के बाद जब मैं लाउन्ज में गई तो पापा ने मुझे स्टेप-मॉम से मिलवाया. वे मुस्करा रही थीं. “हाऊ आर यू?” अजनबियों से पहचान बढ़ाना मैं जानती हूँ. “हाथ की तुम्हारी अँगूठी क्या सोने की है?” स्टेप-मॉम मेरी माँ की एक अच्छी साड़ी में मेरी माँ के गहनों से लकदक रहीं. “यह अँगूठी माँ की है,” मैंने कहा. माँ के अंतिम स्नान के समय जब माँ की अँगुली से यह अँगूठी उतारी गई थी तो फफक कर मेरी नानी ने यह अँगूठी मेरे बाएँ हाथ के बीच वाली बड़ी अँगुली में बैठा दी थी- “इसे अब उतारना मत.” “तुम्हारी उम्र में सोना पहनना ठीक नहीं,” स्टेप-मॉम ने अपने हाथ मेरी अँगूठी की ओर बढ़ाए, “कोई भी सोने के लोभ में तुम्हारे साथ कैसा अनर्थ कर सकता है.” “न, मैं इसे न उतारूँगी.” मैंने अपने दाएँ हाथ से अपनी अँगूठी ढक ली. “आज रहने दो.” पापा ने कहा. “रहने कैसे दूँ?” स्टेप-मॉम ने अपनी मुस्कान वापस ले ली, “आपने नहीं कहा था, आशु के हाथ वाली अँगूठी मेरी है?” “आज रहने दो.” पापा ने दोहराया, “आओ खाना खाएँ.” हमारे खाने की मेज हमारे लाउन्ज के दूसरे कोने में रही. खाना मेज पर पहले से लगा था. खाने की मेज पर हम तीनों एक साथ बैठे. “तुम्हारे लिए तुम्हारी स्टेप-मॉम ने खाना बहुत मेहनत से तैयार किया है,” पापा ने मेरी प्लेट में चावल परोसे. “थैंक यू, पापा. मैंने कहा. माँ की ज़िद थी जब भी पापा मेरे साथ नरमी दिखाएँ, मुझे ज़रूर ‘थैंक यू’ बोलना चाहिए. “मुझे नहीं अपनी स्टेप-मॉम को थैंक-यू बोलो.” पापा ने अपनी टूटरूँ-टू शुरू की, “तुम्हारी स्टेप-मॉम बहुत ही अच्छी, बहुत ही भली, बहुत ही सुशील और बहुत ही सुंदर लड़की हैं…..” “थैंक यू,” न चाहते हुए भी मैंने स्टेप-मॉम की तरफ़ अपने बोल लुढ़का दिए. माँ कहती थीं पापा का कहना मानना बहुत ज़रूरी है. “बहुत अच्छा अचार है.” स्टेप-मॉम ने नींबू का अचार दोबारा लिया….. अकस्मात् मुझे अचार बना रही माँ दिखाई दे गईं. माँ का पुराना सूती धोती का वह टुकड़ा दिखाई दे गया जिसे मैंने झाड़न बनाकर नींबू पोंछने के लिए इस्तेमाल किया था….. “ये नींबू मैंने गिने थे,” मैंने कहा, “वन टू वन हंडरड एंड फोर……” “तुम्हें गिनती आती है?” स्टेप-मॉम ने अपनी भौंहें ऊपर कीं, “मुझे बताया गया था तुमने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा है.” “माँ ने सिखाई थी.” मैंने कहा. “आशु तुम्हारे काम में भी तुम्हारी मदद करेगी,” पापा ने स्टेप-मॉम को ख़ुश करना चाहा. “जब तक आशु मुझे अपनी अँगूठी न देगी, मैं उससे कोई मदद न लूँगी,” स्टेप-मॉम अपनी ज़िद भूली नहीं. खाना छोड़कर मैं अँगूठी की तरफ़ देखने लगी. अँगूठी की दिशा से एक हिलकोरा उठा और मुझे हिलाने लगा. मेरे समेत मेरी कुर्सी लड़खड़ाई. “तुम खाना खाओ,” पापा अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए, “आशु को अपनी माँ की तरह मिरगी के दौरे पड़ते हैं. मैं आशु को सोफ़े पर लिटाकर अभी आया. खाने की कुर्सी से पापा ने मुझे नरमी से उठाया और लाउन्ज के सोफ़े पर धीरे से लिटा दिया. माँ की बड़बड़ाहट मैं हूबहू अपनी ज़बान पर ले आई, “नर्क, नर्क, नर्क, मैं यहाँ न रहूँगी. यह नर्क है, नर्क, नर्क, नर्क……” “क्या वे भी ऐसा बोलती थीं?” स्टेप-मॉम सहम गई. “तुम खाना खाओ,” खाने की मेज पर लौटकर पापा ने दोहराया, “मिरगी के रोगी को अकेले छोड़ देना बेहतर रहता है……” “मैं खाना नहीं खा सकती,” स्टेप-मॉम की आवाज़ फिर डोली, “ऐसी हालत में कोई खाना खा सकता है भला?” लेकिन अपनी बड़बड़ाहट के बीच मैं जानती रही, पापा ज़रूर खाना खा सकते थे….. पापा ज़रूर खाना खा रहे थे….. माँ की मिरगी के दौरान पापा हमेशा खाना खाते रहे थे…… अगले दिन स्टेप-मॉम ने पापा के ऑफिस जाते ही मुझे मेरे कमरे में आ घेरा, “यह अँगूठी उतार दो.” “मैं नहीं उतारूँगी,” मैंने कहा, “इसमें माँ की रूह है इसे मैं अपने से अलग नहीं कर सकती.” “देख लो. नहीं उतारोगी, मिरगी का दौरा डाल लोगी तो मैं तुम्हें यहाँ न रहने दूँगी. अस्पताल में फेंक आऊँगी. वहाँ डॉक्टर तुम्हें बिजली के ऐसे झटके लगाएँगे कि तुम अपने झटके भूल जाओगी.” “ठीक है. मैं डॉक्टर के पास जाऊँगी. यहाँ नर्क है, नर्क, नर्क, नर्क, मैं यहाँ न रहूँगी.” “तेरे कूकने से मैं नहीं डरती,” स्टेप-मॉम मुझ पर झपटीं. “आज मैं तुझसे यह अँगूठी लेकर रहूँगी.” हूबहू पापा के अंदाज़ में मैंने स्टेप-मॉम के बाल नोच डाले. माँ को नोचते-खसोटते समय पापा हमेशा माँ के बालों से शुरू करते. फ़िरक कर स्टेप-मॉम ने एक फेरा लिया और मुझे जबरन ज़मीन पर पीठ के बल उल्टा कर दिया. ज़मीन को छूते ही हूबहू माँ की तरह मैं काँपी और बड़बड़ाई, “मौत-मौत, मौत, मुझे मौत चाहिए. मौत, मैं मौत चाहती हूँ, मौत, मौत, मौत……” तभी मैंने माँ को देखा. कुछ स्त्रियाँ माँ को स्नान दे रही थीं. हाथ में साबुन लगाए स्टेप-मॉम के हाथ माँकी अँगूठी उतारना चाह रहेथे, लेकिन अँगूठी माँ की अँगुली पर जा बैठी, सो बैठी रही थी, टस से मस न हुई थी. “अँगूठी उतरी क्या?” पापा ने पूछा. “नहीं.” स्टेप-मॉम ने कहा. “मैं देखता हूँ.” पापा फलवाली छुरी उठा लाए, सफ़ेद दस्तेवाली छुरी. अँगूठी की जगह … Read more

दीपक शर्मा की कहानी -चिराग़-गुल

ये कहानी पढ़कर फिल्म पाकीजा का एक गीत ख्यालों में चला आ रहा है |  “ये चिराग़ बुझ रहे हैं मेरे साथ जलते -जलते”           दीपावली का मौका है और बुझते चिरागों की बात करना अच्छा नहीं लगता | फिर भी ये एक ऐसी स्त्री की कहानी है  जिसकी जिन्दगी के बुझते चिराग को बचाने की कोशिश किसी ने नहीं की …ना पति ने न पिता या भाई ने और भाभी ने …उसको तो खैर जाने ही दीजिये |  वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की ये कहानी है एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसको एक बिमारी पति से मिली है पर मायका उसके साथ इसलिए नहीं खड़ा है क्योंकि आखिरकार सम्बन्ध टूटने की वजह लोगों को बताएँगे क्या ? स्त्री स्वास्थ्य की उपेक्षा का गंभीर मुद्दा उठाते हुए ये कहानी भावनाओं के गुल होते हुए चिरागों के बारे में बहुत कुछ कह  जाती है … चिराग़-गुल बहन की मृत्यु का समाचार मुझे टेलीफोन पर मिला. पत्नी और मैं उस समय एक विशेष पार्टी के लिए निकल रहे थे. पत्नी शीशे के सामने अपना अन्तिम निरीक्षण कर रही थी और मैं तैयार कबाबों से भरे दो हॉट-केस व बर्फ़ की तीन बाल्टियों को गाड़ी में टिका कर पत्नी को लिवाने कमरे में लौटा था. “टेलीफ़ोन सुनें या रहने दें?” टेलीफ़ोन की घंटी की ओर मेरा ध्यान पत्नी ने ही आकर्षित किया था. “तुम बताओ.” आधुनिक यन्त्रों में मैं सबसे अधिक टेलीफ़ोन से घबराता हूँ. “चलो, सुन लेते हैं,” पत्नी मुस्करायी, “रेणु का हुआ तो कह देना बस पहुँच ही रहे हैं.” पार्टी पत्नी की बड़ी बहन के घर पर आयोजित थी. पत्नी की बड़ी बहन के पति मुझसे सर्विस में आठ साल सीनियर हैं तथा मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ. “हलो,” मैंने टेलीफ़ोन उठाया. “मैं राजेश बोल रहा हूँ,” उधर से आवाज़ आयी, “आपको यहाँ तुरन्त पहुँचना चाहिए. शशि की आज अस्पताल में मृत्यु हो गयी है…..” “कैसे?” मैं चीख पड़ा. “सब खैरियत तो है?” पत्नी ने लपक कर मेरे हाथ से टेलीफ़ोन ले लिया, “हलो….. हाँ….. हाँ….. मैं समझ रही हूँ…..” बाक़ी समाचार पत्नी ने ही ग्रहण किए. मैं अपना मुँह छिपा कर रोता रहा. “राजेश ने क्या कहा?” मैंने थूक निगला. “बोला, शशि का पैलविक एब्सैस (श्रोणीय फोड़ा) उसके पेट में फूट गया था और खून में जहर भर जाने से उसकी हालत बहुत ख़राब…..” “तो उस धूर्त ने हमें क्यों नहीं बुलाया?” क्रोधावेश में मैं अपना सन्तुलन खो बैठा. “कल सब अचानक ही तो हुआ. शशि ने पेट में दर्द की शिकायत की तो उसे तुरन्त अस्पताल ले जाया गया…..” पत्नी बहन से आठ साल छोटी रही मगर पत्नी के समाज में बच्चों को छोड़कर सब लोग – मर्द क्या, औरत क्या, बड़े क्या, छोटे क्या – सबके सब एक-दूसरे को नाम से अथवा सर या मै’म के सम्बोधन से पुकारते हैं- ‘जीजी’, ‘भैया’, ‘चाचा’, ‘काकी’ जैसे सभी आदरसूचक शब्द प्रयोग करने की उन्हें सख्त मनाही है. “जरूर उस नीच ने अपनी सरगरमी फिर से शुरू करनी चाही होगी और बेचारी शशि अपना बचाव करने में असमर्थ रही होगी…..” पिछले चार वर्षों में बहन मुझे केवल दो बार ही मिली थी : एक बार दो वर्ष पहले मेरी शादी पर तथा दूसरी बार चार महीने पहले माँ की मृत्यु पर. दोनों बार ही राजेश उसके साथ रहा था और परिस्थितियाँ असामान्य! मेरे विवाह का आयोजन एक सार्वजनिक क्लब में होने के कारण बहन एक औपचारिक अतिथि से अधिक कुछ न रही थी और माँ की मृत्यु पर अतिथि मैं रहा था. पत्नी का संक्रामक गर्भ-सुख मुझे अपने शहर में शीघ्र लौटा ले गया था. हाँ, इधर, जब से अपने निरन्तर बिगड़ रहे गले के इलाज के लिए बाबूजी कस्बापुर से मेरे पास चले आए थे, बहन फोन पर अक्सर मुझसे भी दो-चार बात करती रही थी. बाबूजी के गले को लेकर वह बहुत चिंतित रहने लगी थी. “मुझे डर है, मैं फिर बीमार हो रही हूँ,” पिछले सप्ताह बहन की जब मुझसे फोन पर बात हुई थी तो उसने मुझे चेताया था. “तुम घबराना नहीं,” मैंने उसे ढाँढस बँधाया था, “इधर रेवा अस्पताल में है. जैसे ही वह कुछ ठीक हुई मैं आकर तुम्हें यहाँ अपने पास ले आऊँगा…..” “रेवा को क्या हुआ?” बहन घबरा उठी थी. “उसका केस बिगड़ गया है,” एक लेट-पार्टी के बाद पत्नी का गर्भपात हो गया था, “डॉक्टर बच्चे को नहीं बचा पायी और रेवा को अस्पताल में अभी दो-तीन दिन गुज़ारने पड़ेंगे.” “तुम अभी रेवा को देखो,” बहन शोकार्त्त होकर रो पड़ी थी, “उसे कहना, निराश न होए, भगवान के घर में उसके नाम का टोकरा बहुत बड़ा है….. उसकी झोली में सब कुछ आएगा….. वह धीरज रखे…..” जिन दिनों बहन की शादी हुई थी, मैं आई. ए. एस. की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था. भूगोल में एम. ए. कर लेने के बाद बहन लखनऊ के एक महिला कॉलेज में पढ़ाने लगी थी. अख़बार के एक विज्ञापन द्वारा ही बहन को राजेश का परिचय मिला था. राजेश जर्मनी से इंजीनियरिंग की एक उच्च डिग्री लेकर अभी हाल ही में लौटा था तथा उत्तर प्रदेश में ही स्थित किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी करने का इरादा रखता था. एक प्राइवेट इंटर कॉलेज के प्रिंसीपल के पद से रिटायर हो रहे बाबूजी को राजेश व राजेश का परिवार बहन के लिए ठीक-ठाक ही लगा था. बहन ने विवाह की तिथि निश्चित होते ही अपने प्रॉविडेंट फण्ड के लोभ में नौकरी छोड़ दी थी और अपनी मनपसन्द साड़ियाँ बटोरनी शुरू कर दी थीं. राजेश के भयंकर छुतहा रोग का रहस्य तो शादी के बाद ही उद्घाटित हुआ था जब हमें शादी के दसवें दिन बहन की रुग्णावस्था का तार मिला था. बाबूजी और माँ बहन को तुरन्त घर पर लिवा भी लाए थे, परन्तु अभी बहन स्वास्थ्य लाभ ही ग्रहण कर रही थी कि राजेश अनेक डॉक्टरी सर्टिफिकेटों के साथ हमारे घर पर आ धमका था. राजेश के डॉक्टरों ने उसे पूर्णरूपेण निरोग बताते हुए विवाहित जीवन के योग्य घोषित किया था. डॉक्टरोंकी इस घोषणा के साथ राजेश ने अपनी मृदुल विनयशीलता जोड़ ली थी और बाबूजी बहन को राजेश के साथ वापस भेजने के लिए सहमत हो गए थे. आने वाले अमंगल का पूर्वसंकेत … Read more

कुनबेवाला

“तुम बिलकुल जानवर हो ?”यह कह कर किसी इंसान का अपमान कर देना हम इंसानों की आदत में शुमार है | पर क्या जानवर इंसान से गया बीता है ? अगर वफादारी की बात करें तो नहीं | जहाँ इंसानी रिश्ते कदम -कदम पर ठगते हों वहां जानवर का हर हाल में रिश्ता निभाना मन को भावुक कर देता है | दीपक शर्मा जी की कहानी भी इंसान और जानवर (डॉग ) के रिश्तों को परिभाषित करी हुई कहानी है …. कुनबेवाला “ये दिए गिन तो|” मेरे माथे पर दही-चावल व सिन्दूर कातिलक लगा रही माँमुस्कुराती है| वह अपनी पुरानी एक चमकीली साड़ी पहने है| उस तपेदिक से अभी मुक्त है जो उसने तपेदिक-ग्रस्त मेरे पिता की संगति में पाया था| सन् १९४४ में| जिस वर्ष वह स्वर्ग सिधारे थे| “भाई को गिनती आती है,” साथ में बहन खड़ी है| रिबन बंधी अपनी दो चोटियों व नीली सलवार कमीज़ में| वैधव्य वाली अपनी उस सफ़ेद साड़ी में नहीं, जो सन् १९६०से ले कर सन् २०१० में हुई उस की मृत्यु तक उस के साथ लगी रही थी| “मुझसे सीखी है| आएगी कैसे नहीं?” कुछ ही दूरी पर बैठे नाना अपनी छड़ी घुमाते हैं| वह उसी स्कूल में अध्यापक थे जहाँ से हम बहन भाई ने मैट्रिक पास की थी| मैं ने, सन् १९४९ में| और बहन ने सन् १९५३ में| पिता के बाद हम नाना ही के घर पर पले-बढ़े थे| माँ की मृत्यु भी वहीं हुई थी| सन् १९५० में| “चौरासी हैं क्या?” मेरे सामने विशुद्ध बारह पंक्तियों में सात सात दिए जल रहे हैं| “हैप्पी बर्थडे, सर,” इधर मैं गिनती ख़त्म करता हूँ तो उधर माँ, बहन व नाना के स्थान पर आलोक आन खड़ा हुआ है| मेरे हर जन्मदिन पर मुझे बधाई देने आना उसे ज़रूरी लगता है| उस स्नेह व सत्कार के अन्तर्गत जिसे वह सन् १९७६ से मुझे देता आया है, जिस वर्ष उस की आगे की पढ़ाई का बीड़ा मैं ने ले लिया था| कुल जमा अठारह वर्ष की आयु में वह उस कॉलेज में बतौर लैब असिस्टेन्ट आया था, जिस की अध्यापिकी सैंतीस साल तक मेरी जीविका रही थी- सन् १९५३ से सन् १९९० तक- और आज वह उसी कॉलेज का प्रिंसीपल है| “गुड मॉर्निंग, सर,” जभी नंदकिशोर आन टपकता है| वहमेराभांजा है जिसे बहन ने मेरे हीघर पर बड़ा किया है और जिस के बड़े होने पर मैंने उसे अपने कॉलेज में क्लर्की दिलवायी रही| पढ़ाई में एकदम फिसड्डी जो रहा| साथ ही आलसी व लापरवाह भी| “तुम ने चौरासी पूजा नहीं रखवायी?” आलोक उसका बॉस तो है ही, उससे सवाल जवाब तो करता ही रहता है, “सर का चौरासीवाँ जन्मदिन है…..” “रौटी का शौक जो रहा,” प्रणाम की मुद्रा में मालती आन जुड़ती है| नंद किशोर की पत्नी| गंवार व फूहड़| बहन उसे अपनी ससुराल से लायी रही| उधर भी अपना सम्बन्ध बनाए रखने के निमित्त| वहां वाली ज़मीन में बेटे के हिस्से की खातिर| “रौटी का शौक?” आलोक मेरा मुँह ताकता है| “रौटी मेरा रौट व्हीलर है जिसे आलोक ही ने मुझे भेंट किया है| बहन की मृत्यु पर खेद प्रकट करने आया तो बोला मेरी रौट व्हीलर ने अभी पिछले ही सप्ताह पांच पप्सजने हैं| उन में से एक पप मैं आपको देना चाहूँगा| शायद वह आप की क्षति पूरी कर दे| उस के प्रस्ताव से मैं चौंका तो था, बहन की खाली जगह वह पप भर सकेगा भला? किन्तु प्रस्ताव आलोक की ओर से रहा होने के कारण मैं ने हामी भर दी थी और यकीनमानिए वह हामी यथा समय मेरे लिए विलक्षण उपहार ही सिद्ध हुई है| “इस युगल ने उसे मार डाला,” मैं कहता हूँ, “और अब यह मुझे मार डालने की तैयारी कर रहे हैं| अपने बेटे की दुल्हन के लिए इन्हें मेरा कमरा चाहिए…..” “धिक! धिक!” आलोककी धिक्कार तो मैं सुन पा रहा हूँ किन्तु उसे देख नहीं पा रहा….. वह लोप हो चुका है….. दृष्टिक्षेत्र में आ रहे हैं नंद-किशोर व मालती….. मेरे कमरे की वही खिड़कियां खोलते हुए, जिन्हें मैं हमेशा बंद रखता रहा हूँ….. मोटे पर्दों के पीछे…..  पर्दों के आगे विशालकाय मेरी टी.वी. जो रहा करती है, जिस का आनन्द लेने की इस युगल व इसके बेटे को सख़्त मनाही रही है….. मगर टी.वी. अब वहां है ही नहीं….. नही मेरी मेज़-कुर्सी जहाँ बैठ कर मैं अपना पढ़ता-लिखता हूँ….. न ही मेरा पलंग जहाँ मैं सोता हूँ….. मेरा कमरा मेरे होने का कोई प्रमाण नहीं रखता….. मैं वहां कहीं नहीं हूँ….. कमरा अब मेरा है ही नहीं….. (२) दु:स्वप्न के बारे में लोग-बाग सही कहते हैं, दु:स्वप्न निद्रक में केवल त्रास-भाव जगाता है, उसे कार्यान्वित नहीं करता| नो थर्ड एक्ट| तीसरा अंक नहीं रखता| बल्कि यूनानी देव-कथाएँ तो स्वप्न-दुस्वप्न लाने वाली एक त्रयी की बात भी करती हैं, जो निद्राजनक मिथक हिपनौज़ के पंखधारी त्रिक बेटे हैं : भविष्य-सूचक मौरफ़ियस, दु:स्वप्न-वाहक फ़ौबिटरवकल्पना-धारकफैन्टोसौस – जो विभिन्न छवियाँ लेकर पिता की घुप्प अँधेरी गुफ़ा सेचमगादड़ों की भांति निकलते हैं और उन्हें निद्रक पर लाद जाते हैं| कभी सामूहिक रूप से तो कभी पृथक हैसियत से| परिणाम: स्वप्न-चित्र कब अतीत को आन अंक भर ले, भविष्य – कब वर्तमान को निगल डाले, कोई भरोसा नहीं| दु: स्वप्न कब किसी मीठे सपने को आन दबोचे, कुछ पता नहीं| (३) मैं जाग गया हूँ| अपने बिस्तर पर हूँ| कमरे में कहीं भी कुछ यत्र-तत्र नहीं| मेरी पढ़ने वाली मेज़-कुर्सी खड़ी है| यथावत| खिड़कियाँ भी बंद हैं| यथा-नियम| रौटीमेरे पलंग की बगल में बिछेअपने बिस्तर पर ऊंघ रहा है|यथापूर्व| उसे मैं अपने कमरे ही में सुलाता हूँ| छठे साल में चल रहा रौटीअपना पूरा कदग्रहण कर चुका है : अढ़ाई फुट| वजन भी: साठ किलो| ठोस व महाकाय उस की उपस्थिति मेरामनोबल तो बढ़ाती ही है साथही मेरे अकेलेपन को भी मुझ से दूर रखती है| मेरी माँ और बहन के अतिरिक्त यदि किसी तीसरे ने मुझे सम्पूरित प्रेम दिया है तो इसी रौटी ने| विवाह मेरा हो नहीं पाया था| विवाह-सम्बन्धी अनुकूल अनेक वर्ष नाना के इलाज व सेवा- सुश्रुषा ने ले लिए थे जिन्हें कैन्सर ने आन दबोचा था| सन् १९५८ में| जिस वर्ष बहन की शादी की गयी थी| हमारी माँ नाना की इकलौती सन्तान थीं और ऐसे में मुझे छोड़ कर … Read more

पुरानी फाँक

पूर्वानुमान या इनट्युशन किसी को क्यों होता है इसके बारे में ठीक से कहा नहीं जा सकता | फिर भी ये सच है कि लोग ऐसे दावे करते आये हैं कि उन्हें घटनाओं के होने का पूर्वानुमान हो जाता है | ऐसी ही है इस कहानी  की नायिका बिल्लौरी  उर्फ़ उषा | लेकिन   बातों  के पूर्वानुमान के बाद भी क्या वो अपना भविष्य बदल सकी या भविष्य में होने वाले दर्दों को जिन्हें वो पहले ही महसूस करने में सफल हुई थी वो अतीत की पुरानी फाँक के रूप में उसे हमेशा गड़ते रहे | पढ़िए वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की कहानी … पुरानी फाँक सुबह मेरी नींद एक नये नज़ारेने तोड़ी है….. कस्बापुर के गोलघर की गोल खिड़की परमैं खड़ी हूँ….. सामने मेरे पिता का घर धुआँ छोड़ रहा है….. धुआँ धुहँ…… काला और घना….. मेरी नज़र सड़क पर उतरती है…… सड़क झाग लरजा रही है….. मुँहामुँह….. नींद टूटने पर यही सोचती हूँ, उस झाग से पहले रही किस हिंस्र आग को बेदम करने कैसे दमकल आए रहे होंगे….. हुँआहुँह….. सोचते समय दूर देश, अपने कस्बापुर का वह दिन मेरे दिमाग़ में कौंध जाता है….. “चलें क्या?” गोलघर के मालिक के बीमार बेटे सुहास का काम निपटाते ही मंजू दीदी मुझे उसके कमरे की गोल खिड़की छोड़ देने का संकेत देती हैं. “चलिए,” झट से मैं मंजू दीदी की बगल में जा खड़ी होती हूँ. वे मेरी नहीं मेरी सौतेली माँ की बहन हैं और मेरी छोटी-सी चूक कभी भी महाविपदा का रूप ग्रहण करसकती है….. हालाँकि उस खिड़की पर खड़े रहना मुझे बहुत भाता है. वहाँ से सड़क पार रहा वह दुमंजिला मकान साफ़ दिखाई दे जाता है जिसकी दूसरी मंजिल के दो कमरे मेरेपिताने किराये पर ले रखे हैं. ऊपर की खुली छत के प्रयोग की आज्ञा समेत. अपनीदूधमुँही बच्ची को अपनी छाती से चिपकाए घर के कामकाज मेंव्यस्त मेरी सौतेली माँ इस खिड़की से बहुत भिन्न लगती हैं- एकदम सामान्य और निरीह. उसके ठीक विपरीत अपनी मृत माँ मुझे जब-जब दिखाई देती हैं, वह हँस रही होती हैं या अपने हाथ नचाकर मेरी सौतेली माँ को कोई आदेश दे रही होती हैं….. “आप बताइए, सिस्टर,” सुहास मंजू दीदी को अपने पास आने का निमन्त्रण देता है, “आपकी यह बिल्लौरी कहती है, मेरी खिड़की से उसे भविष्य भी उतना ही साफ़ दिखाईदेता है जितना कि अतीत. यह सम्भव है क्या?” “मुझे वर्तमान से थोड़ी फुरसत मिले तो मैं भी अतीत या भविष्य की तरफ़ ध्यान दूँ.” मंजू दीदी को सुहास का मुझसे हेलमेल तनिक पसन्द नहीं, “जिन लोगों के पास फुरसत-ही-फुरसत है, वही निराली झाँकियाँ देखें……” “फुरसत की बात मैं नहीं जानता,” सुहास हँस पड़ा है, “लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ, वर्तमान से आगे या पीछे पहुँचना असम्भव है और इसीलिए आपकी बिल्लौरी को अपने वर्त्तमान में पूरी तरह सरक आना चाहिए…..” “बुद्धितो इसी बात में है.” मंजू दीदी मुझे घूरती हैं. “तुम्हें अपने वर्तमान को अनुभवों से भर लेना चाहिए.” सुहास मेरी ओर देखकर मुस्कराता है, “चूँकि तुम्हारे पास नये अनुभवों की कमी है, इसलिए तुम आने वाले अनुभवों का मनगढ़न्त पूर्व धारण करती हो या फिर बीत चुके अनुभवों का पुनर्धारण. तुम्हें केवल अपने वर्तमान को भरना चाहिए.” “वर्तमान?” घबराकर मैं अपनी आँखें मंजू दीदी के चेहरे पर गड़ा लेती हूँ. मेरा वर्तमान? खिड़की के उस तरफ़ एक भीषण रणक्षेत्र? और इस तरफ़ एक तलाकशुदा छब्बीस वर्षीय रईसजादे के साथ एक कच्चा रिश्ता? दोनों तरफ़ एक ढीठ अँधेरा? “चलें?” मंजू दीदी समापक मुद्रा से अपने हाथ का झोला मेरी ओर बढ़ा देती हैं. मैं उसे तत्काल अपनी बाँहों में ला सँभालती हूँ. उनके झोले में लम्बेदस्तानोंऔर ब्लडप्रेशरकफ़ के अतिरिक्त स्टेथोस्कोप भी रहता है. वे सरकारी अस्पताल में सीनियर नर्स हैं और अपने ख़ाली समय में सुहास के पास कई सप्ताह से आ रही हैं. अपनी सहायता के लिए वे मुझे भी अपने साथ रखती हैं. “कलयहबिल्लौरी गोलघर नहीं जाएगी.” मंजू दीदी आते ही बहन के सामने घोषणा करती हैं, “वहाँ मेरा काम बँटाने के बजाय मेरा ध्यान बँटा देती है…..” “कहाँ?” मैं तत्काल प्रतिवाद करती हूँ, “बिस्तर मैं बदलती हूँ. स्पंज मैं तैयार करती हूँ. तौलिए मैं भिगोती हूँ, मैं निचोड़ती हूँ…..” सुहासका काम करना मुझे भाता है. वैसेउसकीपलुयूरिसी अब अपने उतार पर है. उसके फेफड़ों को आड़ देने वाली उसकी पलुअर कैविटी, झिल्लीदार कोटरिका, में जमा हो चुके बहाव को निकालने के लिए जो कैथीटर ट्यूब, नाल-शलाका, उसकी छाती में फिट कर दी गयी थी, उसे अब हटाया जा चुका है. उसकी छाती और गरदन का दर्द भी लगभग लोप हो रहा है. उसकी साँस की तेज़ी और क्रेकल ध्वनि मन्द पड़ रही है और बुखार भी अब नहीं चढ़ रहा. “समझ ले!” मेरी सौतेली माँ मुझसे जब भी कोई बात कहती हैं तो इन्हीं दो शब्दों से शुरू करती हैं, “मंजू का कहा-बेकहा जिस दिन भी करेगी उस दिन तेरा एक टाइम का खाना बन्द…..” “मैंउनका कहा हमेशा सुनती हूँ.” सोलह वर्ष की अपनी इस आयु में मुझे भूख़ बहुत लगती है, “आगे भी सुनती रहूँगी.” “ठीक है.” मंजू दीदी अपनी बहन की गोदी में खेल रही उनकी बच्ची को मेरे कन्धे से ला चिपकाती है, “इसे थोड़ा टहला ला. छत पर ताज़ी हवा खिला ला.” माँ से अलग किए जाने पर आठ माह की बच्ची ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती है. “मेरे पास खेलेगी?” मेरी सौतेली माँ उसकी ओर हाथ बढ़ाती हैं. अपनी बेटी को वे बहुत प्यार करती हैं. “अबछोड़िए भी.” मंजू दीदी उन्हें घुड़क देती हैं, “कुछ पल तो चैन की साँस ले लिया करें…..” “समझले,” मेरी सौतेली माँ अपने हाथ लौटा ले जाती हैं, “इसे अपने कन्धे से तूने छिन भर के लिए भी अलग किया तो मुझसे बुरा कोई न होगा.” उनकी आवाज़ में धमकी है. बच्ची और ज़ोर से रोने लगती है. उसके साथ मैं छत पर आ जाती हूँ. उसे चुप कराने के मैंने अपने ही तरीक़े ख़ोज रखे हैं. कभीमैंउसेऊपर उछालती हूँ तो वह अपने से खुली हवा में अपने को अकेली पाकर चुप हो जाती है….. याफिरउसकेसाथ-साथ जब मैं भीअपना गला फाड़कर रोने का नाटककरती हूँ तो वह मेरी ऊँची आवाज़ से डरकर अपना रोना बन्द कर दिया करती है, लेकिन उस दिन मेरे ये दोनों कौशल नाक़ाम रहते हैं…… तभीमेरी निगाह सुहास की … Read more

कुँजी

जैसे होने की उत्त्पत्ति ना होने से होती है , जीवन की मृत्यु से और प्रकाश की अन्धकार से …वैसे ही कई बार विलपत स्मृतियाँ उस समय के अँधेरे में और स्पष्ट होकर दिखाई देने लगतीं है जब परिस्थितियाँ  हमें दुनियावी चीजों से ध्यान हटा अंतरतम में झाँकने को विवश कर देती हैं | ये कहानी ऐसी ही विस्मृत स्मृतियों की है जो कई साल बाद मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद चेतन मन के अंधकार में  अवचेतन मन की गहराई से ना केवल प्रकट हुई बल्कि स्पष्ट भी हुईं | एक बार बचपन की स्मृतियों में अपने अंधे -माता -पिता को याद करते हुए अपने प्रश्नों के उत्तर भी मिले | अवचेतन द्वारा उत्तर दिया जाना शोध का विषय हो सकता है पर खानी का विषय स्त्री शोषण की वो दास्ताँ है जिसे उस समय वो बच्चा भी नहीं समझ पाया था | कुँजी बीती वह पुरानी थी….. लेकिन मोतियाबिंद के मेरे ऑपरेशन के दौरान जब मेरी आँखें अंधकार की निःशेषता में गईं तो उसकी कौंध मेरे समीप चली आई….. अकस्मात्….. मैंने देखा, माँ रो रही हैं, अपने स्वभाव के विरुद्ध….. और गुस्से में लाल, बाबा हॉल की पट्टीदार खिड़की की पट्टी हाथ में पकड़े हैं और माँ को नीचे फेंक रहे हैं….. अनदेखी वह कैसे दिख गई मुझे? धूम-कोहरे में लिपटी माँ की मृत्यु ने अपनी धुँध का पसारा खिसका दिया था क्या? अथवा मेरे अवचेतन मन ने ऑपरेशन की प्रक्रिया से प्रेरित मेरी आँख की पीड़ा कोपीछे धकेलने की ख़ातिर मुझे इस मानसिक दहल की स्थिति में ला पहुँचाया था? मेरा चेतन मन हिसाब बैठाता है : माँ की मृत्यु हुई, 28 फरवरी, 1956 की रात और मेरा ऑपरेशन हुआ 28 फरवरी, 2019 की शाम….. तिरसठ साल पीछे लौटता हूँ….. बाबा दहाड़ रहे हैं, “वह कुँजी मुझे चाहिए ही चाहिए…..” माँ गरज रही हैं, “वह कुँजी मेरे पास रहेगी. मेरे बाबूजी की अलमारी की है. मेरी संपत्ति है…..” 1904 में जन्मे मेरे नाना संगीतज्ञ थे. नामी और सफ़ल संगीतज्ञ. रेडियो पर प्रोग्राम देते, संगीत-गोष्ठियों में भाग लेते. विशिष्ट राष्ट्रीय कार्यक्रमों में बुलाए जाते. अपनेअड़तीसवें वर्ष, 1942 में, उन्होंने अपनी पुश्तैनी इमारत की ऊपरी मंजिल पर अपना विद्यालय स्थापित किया : सुकंठी संगीत विद्यालय. बोर्ड के निचले भाग पर लिखवाया : शिष्याओं के लिए पृथक कक्ष एवं पृथक शिक्षिका की व्यवस्था. लड़कियों को माँ पढ़ाती थीं. वे नाना की इकलौती संतान थीं और ‘सुकंठी’ उन्हीं का नाम था. अपने नाम के अनुरूप उनके कंठ में माधुर्य और अनुशासन का ऐसा जोड़ था कि जो भी सुनता, विस्मय से भर उठता. लेकिन वे अंधी थीं. ऐसे में 1946 में जब सत्रह वर्षीय बाबा नाना के विद्यालय में गाना सीखने आए तो नाना ने उन्हें अपने पास धर लिया. बीस वर्षीया अपनी सुकंठी के लिए बाबा उन्हें सर्वोपयुक्त लगे थे. बाबा अंधे थे. अनाथ थे. सदाचारी थे. तिस पर इतने विनम्र और दब्बू कि प्रतिभाशाली होने के बावजूद अहम्मन्यता की मात्रा उनमें शून्य के बराबर थी. नाना उन्हें ‘नेपोलियन थ्री’ कहा करते. ‘नेपोलियन टू’ इसलिए नहीं क्योंकि वह उपाधि वे माँ को पहले दे चुके थे. उन दिनों नेपोलियन को सफ़लता और दृढ़निश्चय का पर्याय माना जाता था और नेपोलियन की परिश्रम-क्षमता का एक किस्सा नाना सभी को सुनाया करते : एक रात काउंसलर थककर ऊँघने लगे तो नेपोलियन ने उन्हें डांटा , ‘हमें जागते रहना चाहिए, अभीतो सिर्फ़ दो बजे हैं. अपने वेतन के बदले में हमें पूरा-पूरा काम देना चाहिए.’ नेपोलियन के एक भक्त उनकी बात सेबहुत प्रभावित हुएऔरअपने साथी काउंसलरों सेबोले, ‘ईश्वर ने बोनापार्ट बनाया और फिर आराम से चला गया.’ काम करने की ख़ब्त नाना, माँ और बाबा को बराबर की रही, लेकिन बाबा रात को देर में सोते थे और सुबह देर से उठते थे. इसकेविपरीत नाना और माँ रात में जल्दी सोने के आदी रहे और सुबह जल्दी जग जाने के. माँऔरबाबाके तनाव का मुख्य बिंदु भी शायद यही रहा. आज स्वीकार किया जा रहाहै कि हममें से कुछ लोग फ़ाउल्ज(चिड़ियाँ), मॉर्निंग पीपल (प्रातः कालीन जीव) होते हैं और कुछ आउल्ज(उल्लू), नाइट पीपल(रात्रि जीव). किंतु बाबा को माँका जल्दी सो जाना अग्राह्य लगता. शायद इसीलिए उन्होंने शराब पीनी शुरू की. नाना के जीवनकाल में छुपकर और बाद में खुल्लमखुल्ला. मेरा जन्म सन उनचास में हुआ था, माँ और बाबा की शादी के अगले वर्ष. मेरी प्रारंभिक स्मृतियाँ उषाकाल से जुड़ी हैं : नाना के शहद-घुले गुनगुने पानी के भरे चम्मच से….. नाना के हाथ के छीले हुए बादाम से, जोरात में भिगोए जाते थे….. नानाऔरमाँकी संगति में किए गए सूर्य-नमस्कार से….. माँ और नाना द्वारा गिने जा रहे और हस्तांतरित हो रहे रुपयों और सिक्को से….. कब्ज़ेदार दो लोहे के पत्तरों की स्लेट के बीच काग़ज़ रखते हुए माँ के हाथों से….. काग़ज़ पर ‘रेज्ड डॉट्स (ऊपर उठाए गए बिंदु) लाने के लिए उन पत्तरों में बने गड्ढों पर काग़ज़ दबाते हुए माँ के स्टाइलस से….. माँ ब्रेल बहुत अच्छा जानती थीं. और सच पूछिए तो मैंने अपने गणित के अंक और अंग्रेजी अक्षर अपने स्कूल जाने से पहले ब्रेल के माध्यम से सीख रखे थे. और ब्रेल मुश्किल भी नहीं. इसके कोड में तिरसठ अक्षर और बिंदु अंकन है. प्रत्येक वर्ण छह बिन्दुओं के एक सेल में सँजोया जाता है, जिसमें दो वर्टीकल, सीधे खानों में एक से लेकर छह ‘रेज्ड डॉट्स’ की पहचान से उसका विन्यास निश्चित किया जाता है. अपने तीसरे ही वर्ष से मैं नाना के पास सोने लगा था….. हॉल के दाएँ कमरे में….. नाना की निचली मंजिल पर बनी चार दुकानों के ऐन ऊपर बना वह हॉल नाना ने तीन कक्षों में बाँट रखा था, दो छोटे और एक बड़ा. हॉल में चार आदम-कद, पट्टीदार खिड़कियाँ थीं, जो सड़क की तरफ़ खुलती थीं और हर एक खिड़की के ऐन सामने बीस फुट की दूरी पर एक-एक दरवाज़ा था जो अन्दर आँगन में खुलता. बड़ाकक्ष दो खिड़कियाँ और दो दरवाज़े लिए था और दाएँ-बाएँ के दोनों कक्ष एक-एक खिड़की और एक-एक दरवाज़ा. बाएँ कक्ष में नाना ने विद्यालय का दफ़्तर खोल रखा था और दाएँ कक्ष को वे निजी, अनन्य प्रयोग में लाते थे. उसी कक्ष में उनका पलंग था. उनके कपड़ों की घोड़ी थी, उनकी किताबों का रैक था, उनके निजी संगीत वाद्य थे और वह अलमारी जिसमें रूपया रहता … Read more

उपच्छाया

उपच्छाया का शाब्दिक अर्थ है मूल छाया से इतर पड़ने वाली छाया अर्थात आंशिक छाया | ये कहानी भी ऐसी  ही है | १९५५ की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी ये कहानी दो भाई -बहनों के अपने अस्तबल के घोड़ों के लिए नाल बनाते लुहारों से बातचीत पर  आधारित है परन्तु इस कहानी पर महराना प्रताप की वीरता की छाया पड़ रही है | वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी अपनी खास शैली के लिए जानी जाती हैं | उनकी कहानियों से पाठक को दो लाभ होते हैं …एक तो साहित्य के अनूठे रस में डूबता ही है, दूसरे कहानी के माध्यम से उसे सम्बंधित विषय की काफी जानकारी भी हो जाती है | इस कहानी में भी हथियार बनाने वाले गाडूरिया लोहारों के विषय में बहुत दुर्लभ जानकारी मिलती है | एक तरफ वो लोग हैं जो आज भी देश के लिए अपनी कसम निभा रहे हैं तो दूसरी तरफ वो लोग हैं जिन्होंने सुविधाओं के लिए अपने ही नहीं देश के भी स्वाभिमान से समझौता कर लिया | स्वतंत्रता दिवस पास ही है | ऐसे में ये कहानी  आपको देश और अपने कर्तव्यों  के विषय में सोचने पर जरूर विवश कर देगी |  उपच्छाया बहन मुझ से सन् १९५५ में बिछुड़ी| उस समय मैं दस वर्ष का था और बहन बारह की| “तू आज पिछाड़ी गयी थी?” एक शाम हमारे पिता की आवाज़ हम बहन-भाई के बाल-कक्ष में आन गूँजी| बहन को हवेली की अगाड़ी-पिछाड़ी जाने की सख़्त मनाही थी|अगाड़ी, इसलिए क्योंकि वहाँ अजनबियों की आवाजाही लगी रहती थी| लोकसभा सदस्य, मेरे दादा, के राजनैतिक एवं सरकारी काम-काज अगाड़ी ही देखे-समझे जाते थे| और पिछाड़ी, इसलिए क्योंकि वहाँ हमारा अस्तबल था, जहाँ उन दिनों एक लोहार-परिवार घोड़ों के नाल बदल रहा था| “मैं ले गया था,” बहन के बचाव के लिए मैं तत्काल उठ खड़ा हुआ| “उसे साथ घसीटने की क्या ज़रुरत थी?” पिता ने मेरे कान उमेठे| “लड़की ही सयानी होती तो मना नहीं कर देती?” दरवाज़े की ओट सुनाई दे रही चूड़ियों की खनक हमारे पास आन पहुँची| पिछले वर्ष हुई हमारी माँ की मृत्यु के एक माह उपरान्त हमारे पिता ने अपना दूसरा ब्याह रचा डाला था और हमारी सौतेली माँ उस छवि पर खरी उतरती थीं जो छवि हमारी माँ ने हमारे मन में उकेर रखी थी| रामायण की कैकेयी से ले कर परिकथाओं की ‘चुड़ैल-रुपी सौतेली माँ के’ हवाले से| “भूल मेरी ही है,” बहन पिता के सामने आ खड़ी हुई, “घोड़ों के पास मैं ही भाई को ले कर गयी थी…..” “घोड़ों के पास या लोहारों के पास?” नई माँ ठुनकीं| उस लोहार-परिवार में तीन सदस्य थे : लोहार, लोहारिन और उनका अठारह-उन्नीस वर्षीय बेटा| “हमें घोड़ों के नाल बदलते हुए देखने थे,” मैं बोल पड़ा, “और वे नाल वे लोहार-लोग बदल रहे थे…..” “वही तो!” नई माँ ने अपनी चूड़ियाँ खनकायीं, “टुटपुंजिए, बेनाम उन हथौड़ियों के पास जवान लड़की का जाना शोभा देता है क्या?” “वे टुटपुंजिए नहीं थे,” मैं उबल लिया, “एक बैलगाड़ी के मालिक थे| कई औज़ारों के मालिक थे| और बेनाम भी नहीं थे| गाडुलिया लोहार थे| हमारी तरह चित्तौरगढ़ के मूल निवासी थे…..” “लो,” नई माँ ने अपनी चूड़ियों को एक घुमावदार चक्कर खिलाया, “उन लोग ने हमारे संग साझेदारी भी निकाल ली| हमारी लड़की को अपने साथ भगा ले जाने की ज़मीन तैयार करने के वास्ते…..” “आप ग़लत सोचती हैं,” मैं फट पड़ा, “वे लोग हम से रिश्ता क्यों जोड़ने लगे? वे हमें देशद्रोही मानते हैं क्योंकि हम लोग ने पहले मुगलों की गुलामी की और फिर अंगरेज़ों की…..” “ऐसा कहा उन्होंने?” हमारे पिता आगबबूले हो लिए| “यह पूछिए ऐसा कैसे सुन लिया इन लोग ने? और यही नहीं, सुनने के बाद इसे हमें भी सुना दिया…..” “यह सच ही तो है,” पहली बार उन दोनों का विरोध करते समय मैं सिकुड़ा नहीं, काँपा नहीं, डरा नहीं, “जभी तो हम लोग के पास यह बड़ी हवेली है| वौक्सवेगन है| दस घोड़े हैं| एम्बैसेडर है| तीन गायें हैं| दो भैंसे हैं…..” “क्या बकते हो?” पिता ने एक ज़ोरदार तमाचा मेरे मुँह पर दे मारा| “भाई को कुछ मत कहिए,” बहन रोने लगी, “दंड देना ही है तो मुझे दीजिए…..” “देखिए तो!” नई माँ ने हमारे पिता का बिगड़ा स्वभाव और बिगाड़ देना चाहा, “कहती है, ‘दंड देना ही है तो…..’ मानो यह बहुत अबोध हो, निर्दोष हो, दंड की अधिकारी न हो…..” “दंड तो इसे मिलेगा ही मिलेगा,” हमारे पिता की आँखें अंगारे बन लीं “लेकिन पहले भड़कुए अपने साईस से मैं उन का नाम-पता तो मालूम कर लूँ| वही उन्हें खानाबदोशों की बस्ती से पकड़ कर इधर हवेली में लाया था…..” “उन लोहारों को तो मैं भी देखना चाहती हूँ,” नई माँ ने आह्लादित हो कर अपनी चूड़ियाँ खनका दीं, “जो हमारे बच्चों को ऐसे बहकाए-भटकाए हैं…..” “उन्हें तो अब पुलिस देखेगी, पुलिस धरेगी| बाबूजी के दफ़्तर से मैं एस.पी. को अभी फ़ोन लगवाता हूँ…..” हमारे पिता हमारे बाल-कक्ष से बाहर लपक लिए| बहन और मैं एक दूसरे की ओर देख कर अपनी अपनी मुस्कराहट नियन्त्रित करने लगे| हम जानते थे वह लोहार-परिवार किसी को नहीं मिलने वाला| वह चित्तौरगढ़ के लिए रवाना हो चुका था| (२) उस दोपहर जब मैं पिछली तीन दोपहरों की तरह अस्तबल के लिए निकलने लगा था तो बहन मेरे साथ हो ली थी, “आज साईस काका की छुट्टी है और नई माँ आज बड़े कमरे में सोने गयी हैं…..” बड़ा कमरा मेरे पिता का निजी कमरा था और जब भी दोपहर में नई माँ उधर जातीं, वे दोनों ही लम्बी झपकी लिया करते| अपने पिता और नई माँ की अनभिज्ञता का लाभ जैसे ही बहन को उपलब्ध हुआ था, उसे याद आया था, स्कूल से उसे बग्घी में लिवाते समय साईस ने उस दोपहर की अपनी छुट्टी का उल्लेख किया था| पुराना होने के कारण वह साईस हमारे पिता का मुँह लगा था और हर किसी की ख़बर उन्हें पहुँचा दिया करता| और इसी डर से उस दोपहर से पहले बहन मेरे संग नहीं निकला करती थी| वैसे इन पिछली तीन दोपहरों की अपनी झाँकियों की ख़ाका मैं बहन को रोज़ देता रहा था : कैसे अपनी कर्मकारी के बीच लोहार, लोहारिन और लोहार-बेटा गपियाया करते और किस प्रकार कर्मकारी उन … Read more