मंगत पहलवान

अटूट बंधन में आप वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कई कहानियाँ पढ़ चुके हैं | कई बार उनकी कहानियों में मुख्य कथ्य अदृश्य हो है जिस कारण वो बहुत मारक हो जाती हैं | प्रस्तुत कहानी मंगत पहलवान भी रहस्यात्मक शैली में आगे बढती है और पाठक को अंत तक बाँधे  रखती है | रहस्य खुलने पर हो सकता है आप ये कहानी दुबारा पढ़ें | तो आइये शुरू करते हैं … कहानी – मंगत पहलवान ‘कुत्ता बँधा है क्या?’ एक अजनबी ने बंद फाटक की सलाखों के आर-पार पूछा| फाटक के बाहर एक बोर्ड टंगा रहा- कुत्ते से सावधान! ड्योढ़ी के चक्कर लगा रही मेरी बाइक रुक ली| बाइक मुझे उसी सुबह मिली थी| इस शर्त के साथ कि अकेले उस पर सवार होकर मैं घर का फाटक पार नहीं करूँगा| हालाँकि उस दिन मैंने आठसाल पूरे किए थे| ‘उसे पीछे आँगन में नहलाया जा रहा है|’ मैंने कहा| इतवारके इतवार माँ और बाबा एक दूसरे की मदद लेकर उसे ज़रूर नहलाया करते| उसे साबुन लगाने का जिम्मा बाबा का रहता और गुनगुने पानी से उस साबुन को छुड़ाने का जिम्मा माँ का| ‘आज तुम्हारा जन्मदिन है?’ अजनबी हँसा- ‘यह लोगे?’ अपने बटुए से बीस रुपए का नोट उसने निकाला और फाटक की सलाखों में से मेरी ओर बढ़ा दिया| ‘आप कौन हो?’ चकितवंत मैं उसका मुँह ताकने लगा| अपनी गरदन खूब ऊँची उठानी पड़ी मुझे| अजनबी ऊँचे कद का रहा| ‘कहीं नहीं देखा मुझे?’ वह फिर हँसने लगा| ‘देखा है|’ –मैंने कहा| ‘कहाँ?’ ज़रूर देख रखा था मैंने उसे, लेकिन याद नहीं आया मुझे, कहाँ| टेलीफोन की घंटी ने मुझे जवाब देने से बचा लिया| ‘कौन है?’ टेलीफोन की घंटी सुनकर इधर आ रही माँ हमारी ओर बढ़ आयीं| टेलीफोन के कमरे से फाटक दिखाई देता था| ‘मुझे नहीं पहचाना?’ आगन्तुक हँसा| ‘नहीं| नहीं पहचाना|’ माँ मुझे घसीटने लगीं| फाटक से दूर| मैं चिल्लाया, ‘मेरा बाइक| मेरा बाइक…..’ आँगन में पहुँच लेने के बाद ही माँ खड़ी हुईं| ‘हिम्मत देखो उसकी| यहाँ चला आया…..|’ ‘कौन?’ बाबा वुल्फ़ के कान थपथपा रहे थे| जो सींग के समान हमेशा ऊपर की दिशा में खड़े रहते| वुल्फ़ को उसका नाम छोटे भैयाने दिया था- ‘भेड़िए और कुत्ते एक साझे पुरखे से पैदा हुए हैं|’ तीन साल पहले वही इसे यहाँ लाए रहे- ‘जब तक अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई करने हेतु मैं यह शहर छोडूँगा, मेरा वुल्फ़ आपकी रखवाली के लिए तैयार हो जाएगा|’ और सच ही में डेढ़ साल के अन्दर वुल्फ़ ने अपने विकास का पूर्णोत्कर्षप्राप्त कर लिया था| चालीस किलो वजन, दो फुट ऊँचाई, लम्बी माँस-पेशियाँ, फानाकर सिर, मजबूत जबड़े, गुफ़्फ़ेदार दुम और चितकबरे अपने लोम चर्मके भूरे और काले आभाभेद| ‘हर बात समझने में तुम्हें इतनी देर क्यों लग जाती है?’ माँ झाल्लायीं- ‘अब क्या बताऊँ कौन है? ख़ुद क्यों नहीं देख आते कौन आया है? वुल्फ़ को मैं नहला लूँगी…..|’ “कौन है?’ बाबा बाहर आए तो मैं भी उनके पीछे हो लिया| ‘आज कुणाल का जनमदिन है’- अजनबी के हाथ में उसका बीस का नोट ज्यों का त्यों लहरा रहा था| ‘याद रख कचहरी में धरे तेरे बाज़दावे की कापी मेरे पास रखी है| उसका पालन न करने पर तुझे सज़ा मिल सकती है…..’ ‘यह तुम्हारे लिए है’-अजनबी ने बाबा की बात पर तार्किक ध्यान न दिया औरबेखटके फाटक की सलाखों में से अपना नोट मेरी ओर बढ़ाने लगा| ‘चुपचाप यहाँ से फुट ले’-बाबा ने मुझे अपनी गोदी में उठा लिया- ‘वरना अपने अलसेशियन से तुझे नुचवा दूँगा…..|’ वह गायब हो गया| ‘बाज़दावा क्या होता है?’ मैंने बाबा के कंधे अपनी बाँहों में भर लिए| ‘एक ऐसा वादा जिसे तोड़ने पर कचहरी सज़ा सुनाती है…..|’ ‘उसने क्या वादा किया?’ ‘अपनीसूरत वह हमसे छिपाकर रखेगा…..|’ ‘क्यों?’ ‘क्योंकि वह हमारा दुश्मनहै|’ इस बीच टेलीफोन की घंटी बजनी बंद हो गयी और बाबा आँगन में लौट लिए| दोपहर में जीजी आयीं| एक पैकेट केसाथ| ‘इधर आ’-आते ही उन्होंने मुझे पुकारा, ‘आज तेरा जन्मदिन है|’ मैं दूसरे कोने में भाग लिया| ‘वह नहीं आया?’ माँ ने पूछा| ‘नहीं’-जीजी हँसी- ‘उसे नहीं मालूम मैं यहाँ आई हूँ| यही मालूम है मैं बाल कटवा रही हूँ…..|’ ‘दूसरा आया था’-माँ ने कहा- ‘जन्मदिन का इसे बीस रूपया दे रहा था, हमने भगा दिया…..|’ ‘इसे मिला था?’ जीजी की हँसी गायब ही गयी| ‘बस| पल, दो पल|’ ‘कुछ बोला क्या? इससे?’ ‘इधर आ’-जीजी ने फिर मुझे पुकारा- ‘देख, तेरे लिए एक बहुत बढ़िया ड्रेस लायी हूँ…..|’ मैं दूसरे कोने में भाग लिया| वे मेरे पीछे भागीं| ‘क्या करती है?’ माँ ने उन्हें टोका- ‘आठवाँ महीना है तेरा| पागल है तू?’ ‘कुछ नहीं बिगड़ता’-जीजी बेपरवाही से हँसी- ‘याद नहीं, पिछली बार कितनी भाग-दौड़ रही थी फिर भी कुछ बिगड़ा था क्या?’ ‘अपना ध्यान रखना अब तेरी अपनी ज़िम्मेदारी है’-माँ नाराज़ हो ली- ‘इस बार मैं तेरी कोई ज़िम्मेदारी न लूँगी…..|’ ‘अच्छा’-जीजी माँ के पास जा बैठीं- ‘आप बुलाइए इसे| आपका कहा बेकहा नहीं जाता…..|’ ‘इधर आ तो’-माँ ने मेरी तरफ़ देखा| अगले पल मैं उनके पास जा पहुँचा| ‘अपना यह नया ड्रेस देख तो|’ जीजी ने अपने पैकेट की ओर अपने हाथ बढ़ाए| ‘नहीं|’ –जीजी की लायी हुई हर चीज़ से मुझे चिढ़ रही| तभी से जब से मेरे मना करने के बावजूद वे अपना घर छोड़कर उस परिवार के साथ रहने लगी थीं, जिसका प्रत्येक सदस्य मुझे घूर-घूर कर घबरा दिया करता| ‘तू इसे नहीं पहनेगा?’ –माँ ने पैकेट की नयी कमीज और नयी नीकर मेरे सामने रख दी- ‘देख तो, कितनी सुंदर है|’ बाहर फाटक पर वुल्फ़ भौंका| ‘कौन है बाहर?’ बाबा दूसरे कमरे में टी.वी. पर क्रिकेट मैच देख रहे थे- ‘कौन देखेगा?’ ‘मैं देखूँगी?’ –माँ हमारे पास से उठ गयीं- ‘और कौन देखेगा?’ मैं भी उनके पीछे जाने के लिए उठ खड़ा हुआ| ‘वह आदमी कैसा था, जो सुबह आया रहा?’ जीजी धीरे से फुसफुसायीं| अकेले में मेरे साथ वेअकसर फुसफुसाहटों में बात करतीं| अपने क़दम मैंने वहीं रोक लिए और जीजी के निकट चला आया| उस अजनबी के प्रति मेरी जिज्ञासा ज्यों की त्यों बनी हुई थी| ‘वह कौन है?’ मैंने पूछा| ‘एक ज़माने का एक बड़ा कुश्तीबाज़’-जीजी फिर फुसफुसायीं- ‘इधर, मेरे पास आकर बैठ| मैं तुझे सब बताती हूँ…..|’ ‘क्या नाम है?’ ‘मंगत पहलवान…..|’ ‘फ्री-स्टाइल वाला?’ कुश्ती के बारे … Read more

ऊँट की पीठ

एक लोकगीत जो कई बार ढोलक की थाप पर सुना है, “विदा करके माता उऋण हुईं, सासरे की मुसीबत क्या जाने |” एक स्त्री के लिए हमारा समाज आज भी वैसा ही है | एक ओर ब्याह देने के बाद चाहें कितना भी दुःख हो वापस उसके लिए घर के दरवाजे नहीं खोले जाते  वहीँ दूसरी ओर अगर अगर ससुराल अच्छी नहीं है तो उसके पास घुट-घुट के जीने और मरने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता | एक ऐसा ही दर्द उकेरती है दीपक शर्मा जी की कहानी “ऊँट की पीठ” अब इसमें कौन ऊँट है जिसकी पीठ तमाम कारगुजारियों के बाद ऊँची ही रहती है ये तो आप को कहानी पढने पर ही पता चलेगा …. ऊँट की पीठ “रकम लाए?” बस्तीपुर के अपने रेलवे क्वार्टर का दरवाज़ा जीजा खोलते हैं. रकम, मतलब, साठ हज़ार रुपए….. जो वे अनेक बार बाबूजी के मोबाइल पर अपने एस.एम.एस. से माँगे रहे….. बाबूजी के दफ़्तर के फ़ोन पर गिनाए रहे….. दस दिन पहले इधर से जीजी की प्रसूति निपटा कर अपने कस्बापुर के लिए विदा हो रही माँ को सुनाए रहे, ‘दोहती आपकी. कुसुम आपकी. फिर उसकी डिलीवरी के लिए उधार ली गयी यह रक़म भी तो आपके नामेबाकी में जाएगी…..’ “जीजी कहाँ हैं?” मैं पूछता हूँ. मेरे अन्दर एक अनजाना साहस जमा हो रहा है, एक नया बोध. शायद जीजा के मेरे इतने निकट खड़े होने के कारण. पहलीबार मैं ने जाना है अब मैं अपने कद में, अपने गठन में, अपने विस्तार में जीजा से अधिक ऊँचा हूँ, अधिकमज़बूत, अधिक वज़नदार. तीन वर्ष पहले जब जीजी की शादी हुई रही तो मेरे उस तेरह-वर्षीय शरीर की ऊँचाई जीजा की ऊँचाई के लगभग बराबर रही थी तथा आकृति एवँ बनावट उन से क्षीण एवँ दुर्बल. फिर उसी वर्ष मिली अपनी आवासी छात्रवृत्ति के अन्तर्गत कस्बापुर से मैं लखनऊ चला गया रहा और इस बीच जीजी से जब मिला भी तो हमेशा जीजा के बगैर. “उसे जभी मिलना जब रक़म तुम्हारे हाथ में हो,” जीजा मेरे हाथ के मिठाई के डिब्बे को घूरते हैं. लिप्सा-लिप्त. उन की ज़बान उनके गालों के भीतरी भाग में इधर-उधर घूमती हुई चिन्हित की जा सकती है. मानोअपनीधमकी को बाहर उछालने से पहले वे उस से कलोल कर रहे हों. अढ़ाईवर्ष के अन्तराल के बाद. जिस विकट जीजा को मैं देख रहा हूँ वे मेरे लिए अजनबी हैं : छोटी घुन्नी आँखें, चौकोर पिचकी हुई गालें, चपटी फूली हुई नाक, तिरछे मुड़क रहे मोटे होंठ, गरदन इतनी छोटी कि मालूमदेता है उनकी छाती उनके जबड़ोंऔर ठुड्डी के बाद ही शुरू हो लेती है. माँ का सिखाया गया जवाब इस बार भी मैं नहीं दोहराता, “रुपयों का प्रबन्ध हो रहा है. आज तो मैं केवल अपनी हाई स्कूल की परीक्षा में प्रदेश भर में प्रथम स्थान पाने की ख़ुशी में आप लोगों को मिठाई देने आया हूँ.” अपनी ही ओर से जीजी को ऊँचे सुर में पुकारता हूँ, “जीजी…..” “किशोर?” जीजी तत्काल प्रकट हो लेतीहैं. एकदम खस्ताहाल. बालों में कंघी नहीं….. सलवारऔरकमीज़, बेमेल….. दुपट्टा, नदारद….. चेहरा वीरान और सूना….. ये वही जीजी हैं जिन्हें अलंकार एवँ आभूषण की बचपन ही से सनक रही? अपने को सजाने-सँवारने की धुन में जो घंटों अपने चेहरे, अपने बालों, अपने हाथों, अपने पैरों से उलझा करतीं? जिस कारण बाबूजी को उन की शादी निपटाने की जल्दी रही? वे अभी अपने बी.ए. प्रथम वर्ष ही में थीं जब उन्हें ब्याह दिया गया था. क्लास-थ्री ग्रेड के इन माल-बाबू से. “क्या लाया है?” लालायित, जीजी मेरे हाथ का डिब्बा छीन लेती हैं. खटाखट उसे खोलती हैं और ख़ुशी से चीख़ पड़ती हैं, “मेरी पसन्द की बरफ़ी? मालूम है अपनी गुड़िया को मैं क्या बुलाती हूँ? बरफ़ी…..” बरफ़ी का एक साबुत टुकड़ा वे तत्कालअपने मुँह में छोड़ लेती हैं. अपने से पहले मुझे खिलाने वाली जीजी भूल रही हैं बरफ़ी मुझे भी बहुत पसन्द है. यह भी भूल रही हैं हमारे कस्बापुर से उनका बस्तीपुर पूरे चार घंटे का सफ़र है और इस समय मुझे भूख़ लगी होगी. “जीजा जी को भी बरफ़ी दीजिए,” उनकी च्युति बराबर करने की मंशा से मैं बोल उठता हूँ. “तेरे जीजा बरफ़ी नहीं खाते,” ठठाकर जीजी अपने मुँह में बरफ़ी का दूसरा टुकड़ा ग्रहण करती हैं, “मानुष माँस खाते हैं. मानुष लहू पीते हैं. वे आदमी नहीं, आदमखोर हैं…..” “क्या यह सच है?” हड़बड़ाकर मैं जीजा ही की दिशा में अपना प्रश्न दाग देता हूँ. “हाँ. यह सच है. इसे यहाँ से ले जा. वरना मैं तुम दोनों को खा जाऊँगा. सरकारी जेल इस नरक से तो बेहतर ही होगी…..” “नरक बोओगे तो नरक काटोगे नहीं? चिनगारी छोड़ोगे तो लकड़ी चिटकेगी नहीं? मुँह ऊँट का रखोगे और बैठोगे बाबूजी की पीठ पर?” “जा,” जीजा मुझे टहोका देते हैं, “तू रिक्शा ले कर आ. इसे मैं यहाँ अब नहीं रखूँगा. यह औरत नहीं, चंडी है…..” “तुम दुर्वासा हो? दुर्वासा?” जीजी ठीं-ठीं छोड़तीहैं और बरफ़ी का तीसरा टुकड़ा अपने मुँह में दबा लेती हैं. “जा. तू रिक्शा ले कर आ,” जीजा मुझे बाहर वाले दरवाज़े की ओर संकेत देते हैं, “जब तक मैं इस का सामान बाँध रहा हूँ…..” भावावेग में जीजी और प्रचण्ड हो जाती हैं, “मैं यहाँ से कतई नहीं जाने वाली, कतई नहींजाने वाली…..” “जा, तू रिक्शा ला,” जीजा की उत्तेजना बढ़ रही है, “वरना मैं इसे अभी मार डालूँगा…..” किंकर्तव्यविमूढ़मैंउन के क्वार्टर से बाहर निकल लेता हूँ. बाबूजीका मोबाइल मेरे पास है. उन के आदेश के साथ, ‘कुसुम के घर जाते समय इसे स्विच ऑफ़ कर लेना और वहाँ से बाहर निकलते ही ऑन. मुझे फ़ौरन बताना क्या बात हुई. और एक बात और याद रहे इस पर किसी भी अनजान नम्बर से अगर फ़ोन आए तो उसे उठाना नहीं.’ सन्नाटा खोजनेके उद्देश्य से मैं जीजी के ब्लॉक के दूसरे अनदेखे छोर पर आ पहुँचाहूँ. सामने रेल की नंगी पटरी है. उजड़ एवँ निर्जन. माँ मुझे बताए भी रहीं जीजी के क्वार्टर से सौ क़दम की दूरी पर एक रेल लाइन है जहाँ घंटे घंटे पर रेलगाड़ी गुज़रा करती है. बाबूजीके सिंचाई विभाग के दफ़्तर का फ़ोन मैं मिलाता हूँ. हाल ही में बाबूजी क्लास-थ्री के क्लर्क-ग्रेड से क्लास-टू में प्रौन्नत हुए हैं. इस समय उनके पास अपना अलग दफ़्तर हैऔर अलग टेलीफ़ोन. “हेलो,” बाबूजी … Read more

बिटर पिल

यूँ तो ये जिंदगी एक बिटर पिल ही है जिसे हमें चाहे अनचाहे गटकना ही पड़ता है | ज्यादातर लोग इसे आसानी से गटक जाते हैं क्योंकि वो इसे जस का तस स्वीकार कर लेते हैं | हालाँकि सही या गलत, उचित या अनुचित,निर्णय-अनिर्णय के  बीच में हर कोई एक सीमा में झूलता है, परन्तु जब ये सीमा अपनी  हद से ज्यादा बढ़ जाती है तो मनोविछछेद (psychosis) के लक्षण नज़र आने लगते हैं | वैसे psychosis एक umbrella टर्म है , जिसके अंदर अनेकों लक्षण  आते हैं, लेकिन मुख्य रूप से ये उन चीजों को महसूस  करना है जो नहीं होती या विश्वास करना जिन का वास्तविकता से कोई संबंध  ना हो | एक दर्द और दहशत भरी जिन्दगी की इस बिटर पिल को गटकना बहुत -बहुत मुश्किल है | तो आइये पढ़ें एक वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की एक ऐसी ही मोवैज्ञानिक कहानी … बिटर पिल  वेन इट स्नोज इन योर नोज़ यू कैच कोल्ड इन योर ब्रेन (‘हिम जब आपके नाक में गिरती है तो ठंडक आपके दिमाग़ को जा जकड़ती है’) –ऐलन गिंज बर्ग “यह मोटर किसकी है?” अपने बँगले के पहले पोर्टिको में कुणाल की गाड़ी देखते ही अपनी लांसर गेट ही पर रोककर मैं दरबान से पूछता हूँ. हाल ही में तैनात किए गये इस नये दरबान को मैं परखना चाहता हूँ, हमारे बारे में वह कितना जानता है. “बेबी जी के मेहमान हैं, सर!” दरबान अपने चेहरे की संजीदगी बनाये रखता है. बेटीअपनी आयु के छब्बीसवें और अपने आई.ए.एस. जीवन के दूसरे वर्ष में चल रही है, किन्तु पत्नी का आग्रह है कि घर के चाकर उसे ‘बेबी जी’ पुकारें. घर में मेमसाहब वही एक हैं. “कब आये?” “कोई आधा घंटा पहले…..” अपनी गाड़ी मैं बँगले के दूसरे गेट के सामने वाले पोर्टिको की दिशा में बढ़ा ले आता हूँ. मेरे बँगले के दोनों छोर पर गेट हैं और दोनों गेट की अगाड़ी उन्हीं की भाँति महाकाय पोर्टिको. सात माह पूर्व हुई अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद एक फाटक पर मैंने ताला लगवा दिया है. दोनों सरकारी सन्तरी जो मुझे लौटा देने पड़े, और दो दरबान अब अनावश्यक भी लगते हैं. पोर्टिको के दायें हाथ पर मेरा निजी कमरा है जिसकी चाभी मैं अपने ही पास रखता हूँ. पहले सरकारी फाइलों की गोपनीयता को सुरक्षित रखने का हीला रहा और अब एकान्तवास का अधियाचन है. “हाय, अंकल!” कुणाल मुझे मेरे कमरे की चाभी के साथ उसके दरवाज़े ही पर आ पकड़ता है. “कुणाल को आपसे काम है पापा.” बेटी उसकी बगल में आ खड़ी हुई है. “उधर खुले में बैठते हैं.” मेरे क़दम लॉबी की ओर बढ़ लेते हैं. अपने कमरे की चाभी मैं वापस अपनी जेब को लौटा देता हूँ. दोनों मेरे साथ हो लेते हैं. मेरे डग लम्बे हो रहे हैं. कुणाल को अपना दामाद बनाने कामुझे कोई चाव नहीं. उसकी अपार सम्पदा के बावजूद. किन्तु बेटी के दृढ़ संकल्प के सामने मैं असहाय हूँ. तीन वर्ष पूर्व एम.ए. पूरा करते ही उसने अपने इस बचपन के सहपाठी के संग विवाह करने की इच्छा प्रकट की तो मैंने शर्त रख दी थी, बेटी को पहले आई.ए.एस. में आना होगा. और अपने को आदर्श प्रेमिका प्रमाणित करने की उसे इतनी उतावली रही कि वह अपने पहले ही प्रयास में कामयाब हो गयी. फिरअपनी ट्रेनिंग के बाद उसने जैसे ही अपनी पोस्टिंग इधर मेरे पास, मेरे सम्पर्क-सूत्र द्वारा, दिल्ली में पायी है, कुणाल के संग विवाह की उसकी जल्दी हड़बड़ी में बदल गयी है. फलस्वरूप चार माह पूर्व उसकी मँगनी करनी पड़ी है और अब अगले माह की आठवीं को उसके विवाह की तिथि निश्चित की है. “कहो!” लॉबी के सोफ़े पर मैं बैठ लेता हूँ. “अंकल…..” कुणाल एक सरकरी पत्र मेरे हाथ में थमा देता है, “पापा को सेल्स टैक्स का बकाया भरने का नोटिस आया है…..” मेरे भावी समधी का कनाट प्लेस में एक भव्य शॉपिंग कॉम्प्लेक्स है, दो करोड़ का. “इसकी कोई कॉपी है?” मैं पूछता हूँ. “यह कॉपी ही है,” बेटी कहती है, “हम जानते हैं इस आदेश से छुटकारा दिलवाना आपके बायें हाथ का खेल है…..” वह सच कह रही थी. छत्तीस वर्ष अपने आई.ए.एस. के अन्तर्गत मेरे पास चुनिंदा सरकारी डेस्क रहे हैं और दो चोटी के विभाग. फिर साहित्य और खेलकूद के नाम पर खोले गये कई मनोरंजन क्लबों का मैं आज भी सदस्य हूँ और मेरे परिचय का क्षेत्र विस्तृत है. “मैं देख लूँगा.” कुणाल का काग़ज़ मैं तहाने लगाता हूँ. तभी मेरा मोबाइल बज उठता है. उधर ओ.एन. है. जिस अधिकरण में अगली एक तारीख को एक जगह ख़ाली हो रही है, उस जगह पर उसकी आँख है. मेरी तरह. आई.ए.एस. में हम एक साथ आये थे और हमें कैडर भी एक ही मिला था और उसकी तरह मैंने भी अपनी नौकरी की एक-तिहाई अवधि इधर दिल्ली ही में बितायी है. “तुमने सुना जी.पी. की जगह कौन भर रहा है?” वह पूछता है. “तुम?” मैं सतर्क हो लेता हूँ, “उस पर तुम्हारा ही नाम लिखा है…..” “कतई नहीं. उस पर एक केन्द्रीय मन्त्री के समधी आ रहे हैं….. आज लैटर भी जारी हो गया है…..” नाम बूझने के लिए मुझे कोई प्रयास नहीं करना पड़ा है. “कोई भी आये!” अपने संक्षोभ को छिपाना मैं बखूबी जानता हूँ. “सो लौंग देन…..” “सो लौंग…..” इस बीच कुणाल को बाहर छोड़कर बेटी मेरे पास आ खड़ी हुई है. “कुणाल घबरा रहा था,” मेरे मोबाइल बन्द करने पर वह कहती है, “आप अपनी सहानुभूति उसे दें न दें…..” “हं….. हं.” मैं अपने कन्धे उचकाता हूँ, “मैं अपने कमरे में चलूँगा. मुझे कुछ फ़ोन करने हैं……” “पपा आप इतने लोगों को फ़ोन क्यों करते हैं?” अपनी खीझ प्रकट करने में बेटी आगा-पीछा नहीं करती, तुरन्त व्यक्त कर देती है, “यह कमीशन, वह कमीशन, क्यों? यह ट्रिब्यूनल, वह ट्रिब्यूनल, क्यों? यह बोर्ड, वह बोर्ड, क्यों? यह कमिटी, वह कमिटी, क्यों? क्यों कुछ और हथियाना चाहते हैं, जब आपके पास घर में तमाम वेबसाइट हैं, ढेरों-ढेर म्यूजिक हैं, अनेक किताबें हैं…..” “और जो मुझे कॉफ़ी पीनी हो? तो किससे माँगू?” “आपको मात्र कॉफ़ी पिलाने की ख़ातिर मैं अपनी सत्ताइस साल की नौकरी छोड़ दूँ? जिसके बूते आज मैं अपनी बेटी की शादी का सारा गहना-पाती ख़रीद रही हूँ…..!” पत्नी अपने … Read more

वसूली

वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियों में कस्बापुर का खास स्थान है | लेकिन इस कस्बापुर में बुनी गयी उनकी कहानियों का कैनवास  बहुत विस्तृत है | उनकी कलम मानवीय भावनाओं की सूक्ष्म पड़ताल करती है | प्रस्तुत  कहानी वसूली में एक स्त्री का दर्द है जो कभी -कभी अपने ही घर का सामान गायब करती रहती हैं | मार भी खाती है पर इस प्रश्न से कोई जूझना नहीं चाहता कि आखिर वो ऐसा क्यों करती है ? पूरी कहानी में एक दब्बू कमजोर स्त्री का दर्द तिरोहित होता रहता है | माँ का पुत्र मोह और बेटे का माँ को बचाने का प्रयास ये दो अलग -अलग वसूली हैं, और कहानी को एक मार्मिक अंजाम तक पहुंचाती हैं | कहानी -वसूली  “मालूम है?” मेरी मौसी की देवरानी मेरी दादी के कान में फुसफुसाई, “तुम्हारी बहू अब कस्बापुर वापस न आएगी.” मेरे कान खड़े हो लिए. “मखौल न कर,” दादी ने उसकी पीठ पर धौल जमाया, “आएगी क्यों नहीं?” माँको घर छोड़े हुए तीन हफ़्तों से ऊपर हो चले थे. मौसी की बीमारी ने जब मौसी को बस्तीपुर से लखनऊ के अस्पताल जा पहुँचाया था तो मौसा माँ को अपने संग लखनऊलिवा ले गए थे और जब लखनऊ में चौथे रोज़ मौसी ख़त्म हुई थीं तो मौसा माँ को लखनऊ से सीधे बस्तीपुर ले गए थे, यहाँ वापस न लाए थे. “अबवह अपनी मरी बहन के घर में उसकी जगह लेगी,” मौसी की देवरानी गिलबिलाई, “मेरेजेठने उसके बाप के संग अपनी गुटबंदी मुकम्मिल कर ली है. दस हजाररूपया उसके हाथ में पकड़ाया है और उसकी लड़की उससे ख़रीदली है.” “वाह!” दादी ने अपने हाथ नचाए, “ब्याह के बाद औरत अपनी ससुराल की जायदाद बन जाती है. अपने बाप की मिल्कियत नहीं रहती. उसे वह लाख बेच ले, मगर वह हमारी चीज़ है, हमारी रहेगी.” “वेसब पिछली बातें थीं. अब नया ज़माना है. तलाक के लिए सरकारने नई अदालतें खोल दी हैं. उनमें से किसी एक कमरे में मेरे जेठ उसे ले जाएँगे, उसके नाम से तलाक का मुक़दमा दायर करवाएँगे और उस पर लगा आपका ठप्पा छुड़ा लेंगे.” “उस चींटी की यह मजाल!” मेरे दादा और मेरे पिता के घर लौटने पर मेरी दादी ने जब बात छेड़ी तो मेरे पिता लाल-पीले होने लगे, “एक बार वह मेरे हाथ लगजाए अब. फिरमैं उसे नहीं छोडूँगा. ऐसी गर्दन मरोडूँगा कि उसकी टैं बोलजाएगी.” “बेकार झमेला मोल न लो,” मेरे दादा अपना मुँह मेरे पिता के पास ले गए, “उसे यहाँ किसी तरह फुसलाकर वापस ले आएँगे और फिर किसी रात गाड़ी के नीचे सरकाकर कटवा देंगे…..” मेरे दादा रेलवे के डाक घर में तारबाबू रहे और हम रेलवे स्टेशन के एक कोने में बने क्वार्टरों में रहते थे. कस्बापुर में रेलवे जंक्शन बड़ा था और वहाँ एक साथ कई-कई गाड़ियाँ देर रात में रुका करतीं. “उसे फुसलाने का काम आप हमें सौंपिए,” दादी ने मुझे अपनी गोद में दबोच लिया, “दादी और पोता एक साथ बस्तीपुर जाएँगे और उसे अपने संग लिपटाकर यहाँ लिवालाएँगे.” अगले दिन कस्बापुर से सुबह आठ बजे दादी ने मेरे साथ हावड़ा मेल पकड़ी और ग्यारहबजकर बीस मिनट पर हम बस्तीपुर स्टेशन पहुँच गए. स्टेशन से मौसा के घर पहुँचने में हमें आधा घण्टा और लग गया. रिक्शा तो दूर की बात थी, दादी तो ताँगे पर भी कम ही बैठतीं. खुद भी खूब पैदल चलतीं और दूसरों को भी खूब पैदल चलातीं. दादी के साथ आने-जाने में इसीलिए माँ और मैं बहुत कतराते. “क्या बात है?” दादी को देखकर मौसा ने अपने हाथ का काम रोक लिया. मौसा लकड़ी की चिराई का काम करते थे और उनका आरा उनके घर की ड्योढ़ी मेंही लगा था. “हम विमला रानी को लेने आए हैं,” दादी मुक़ाबले पर उतर आईं. “आपने बेवजह सफ़र की बेआरामी उठाई,” मौसा ने न जाने कैसे अपनी आवाज़ में शहद घोल लिया, नहीं तो मौसा मीठी ज़ुबान न रखते थे, ख़ास कर मौसी के संग तो वे जब भी ज़ुबान खोलते रहे कड़ुवा ही बोलते, “इधर लड़कियों का मामला है. आप तो जानती हैं, थोड़ी-सी बेपरवाही हो गई तो उम्र-भर के लिए…..” मौसा की बात मैंने न सुनी. मैं माँ को देखना चाहता था, जल्दी-बहुत जल्दी. मैं घर की तरफ़ दौड़ लिया. मौसा के घर से मैं अच्छी तरह वाक़िफ़ था, माँ मुझे अक्सरयहाँ लाती रही थीं. ड्योढ़ी पार करते ही एक छोटा बरामदा पड़ता था. बरामदे का एक दरवाज़ा पंखे वाले कमरे में खुलता था और दूसरा भंडार में. रसोई भंडार केआगे पड़ती थी और पाखाना ऊपर छत पर था. मौसी की दोनों लड़कियों के साथ माँ भंडार में बैठी थीं. मौसी की बड़ी लड़की के हाथ में नेल पॉलिश थी और छोटी लड़की के हाथ में माँ काएक पैर. माँ का दूसरा पैर और उन दोनों लड़कियों के पैर गुलाबी नेल पॉलिश से चमक रहे थे. मुझे देखते ही माँ ने अपना पैर अपनी साड़ी में छुपा लिया. उधर घर में माँ कभी ऐसी न दिखी थीं, निखरी-निखरी और सँवरी-सँवरी. माँ का चेहरा भी पहले से बहुत बदल गया था. माँ की आँखें पहले से छोटी लग रही थीं और गालपहले से बहुत ऊँची और चर्बीदार. माँ की पुरानी ठुड्डी के नीचे एक दूसरी नई ठुड्डीउग रही थी. “कुंती,” मौसा ने छोटी लड़की को बरामदे से आवाज़ दी, “दौड़करहलवाई से गरम जलेबी तो पकड़ ला. जब तक पार्वती चाय बना लेगी.” “अपने होश मत खो, विमला रानी,” माँ से अपने चरण स्पर्श करा रही दादी अपने पुरानेमिजाज में बहकने लगीं, “होश मत खो. चल, अब बहुत हो गया. अब घर चल. तेरे बिना वहाँ पूरा घर हाल-बेहाल हुआ जाता है.” “मुझे पाखाना लगा है,” मैंने माँ की तरफ़ देखा. आठ साल की अपनी उस उम्र में पाखाने के लिए माँ की मदद लेने का मुझे अभ्यास था. माँ फ़ौरन मेरे साथ सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं. “बता, तू मुझे कुछ बताएगा क्या?” छत का एकांत पाते ही माँ अधीर हो उठीं. “दादी के साथ तुम वहाँ मत जाना,” मैंने कहा, “वे लोग तुम्हें रात को गाड़ी के नीचे सरका कर कटवा देंगे.” उधर घर पर भी माँ और मैं ‘हम’ रहे और दादी, दादा और मेरे पिता ‘वे लोग’. “तू सच कह रहा है?” माँहँसने लगीं. “हाँ.” मैंने सिर हिलाया. “अच्छी … Read more

माँ का दमा

क्या मन की दशा शरीर में रोग उत्पन्न करती है ? अगर विज्ञानं की भाषा में कहें तो ‘हाँ ” …इस वर्ग में आने वाली बीमारियों को साइको सोमैटिक बीमारियों में रखा जाता है | बचपन से दमा की मरीज माँ को खाँसते देखने वाले बच्चे ने आखिर ऐसा क्या देखा कि उसे लगा कि माँ की बिमारी शारीरिक नहीं मनोशारीरिक है |  माँ का दमा  पापा के घर लौटते ही ताई उन्हें आ घेरती हैं, ‘इधर कपड़े वाले कारख़ाने में एक ज़नाना नौकरी निकली है. सुबह की शिफ़्ट में. सात से दोपहर तीन बजे तक. पगार, तीन हज़ार रूपया. कार्तिकी मज़े से इसे पकड़ सकती है…..’ ‘वह घोंघी?’ पापा हैरानी जतलाते हैं. माँ को पापा ‘घोंघी’ कहते हैं, ‘घोंघी चौबीसों घंटे अपनी घूँ घूँ चलाए रखती है दम पर दम.’ पापा का कहना सही भी है. एक तो माँ दमे की मरीज हैं, तिस पर मुहल्ले भर के कपड़ों की सिलाई का काम पकड़ी हैं. परिणाम, उनकी सिलाई की मशीन की घरघराहट और उनकी साँस की हाँफ दिन भर चला करती है. बल्कि हाँफ तो रात में भी उन पर सवार हो लेती है और कई बार तो वह इतनी उग्र हो जाती है कि मुझे खटका होता है, अटकी हुई उनकी साँस अब लौटने वाली नहीं. ‘और कौन?’ ताई हँस पड़ती हैं, ‘मुझे फुर्सत है?’ पूरा घर, ताई के ज़िम्मे है. सत्रह वर्ष से. जब वे इधर बहू बनकर आयी रहीं. मेरे दादा की ज़िद पर. तेइस वर्षीय मेरे ताऊ उस समय पत्नी से अधिक नौकरी पाने के इच्छुक रहे किन्तु उधर हाल ही में हुई मेरी दादी की मृत्यु के कारण अपनी अकेली दुर्बल बुद्धि पन्द्रह वर्षीया बेटी का कष्ट मेरे दादा की बर्दाश्त के बाहर रहा. साथ ही घर की रसोई का ठंडा चूल्हा. हालाँकि ताई के हाथ का खाना मेरे दादा कुल जमा डेढ़ वर्ष ही खाये रहे और मेरे ताऊ केवल चार वर्ष. ‘कारखाने में करना क्या होगा?’ पापा पूछते हैं. ‘ब्लीचिंग…..’ ‘फिर तो माँ को वहाँ हरगिज नहीं भेजना चाहिए’, मैं उन दोनों के पास जा पहुँचता हूँ, ‘कपड़े की ब्लीचिंग में तरल क्लोरीन का प्रयोग होता है, जो दमे के मरीज़ के लिए घातक सिद्ध हो सकता है…..’ आठवीं जमात की मेरी रसायन-शास्त्रकी पुस्तक ऐसा ही कहती है. ‘तू चुप कर’ पापा मुझे डपटते हैं, “तू क्या हम सबसे ज़्यादा जानता, समझता है? मालूम भी है घर में रुपए की कितनी तंगी है? खाने वाले पाँच मुँह और कमाने वाला अकेला मैं, अकेले हाथ…..” डर कर मैं चुप हो लेता हूँ. पापा गुस्से में हैं, वर्ना मैं कह देता, आपकी अध्यापिकी के साथ-साथ माँ की सिलाई भी तो घर में रूपया लाती है….. परिवार में अकेला मैं ही माँ की पैरवी करता हूँ. पापा और बुआ दोनों ही, माँ से बहुत चिढ़ते हैं. ताईकी तुलना में माँ का उनके संग व्यवहार है भी बहुत रुखा, बहुत कठोर. जबकि ताई उन पर अपना लाड़ उंडेलने को हरदम तत्पर रहा करती हैं. माँ कहती हैं, ताई की इस तत्परता के पीछे उनका स्वार्थ है. पापा की आश्रिता बनी रहने का स्वार्थ. ‘मैं वहाँ नौकरी कर लूँगी, दीदी’, घर के अगले कमरे में अपनी सिलाई मशीन से माँ कहती हैं, ‘मुझेकोई परेशानी नहीं होने वाली…..’ रिश्ते में माँ, ताई की चचेरी बहन हैं. पापा के संग उनके विवाह की करण कारक भी ताई ही रहीं. तेरह वर्ष पूर्व. ताऊकी मृत्यु के एकदम बाद. ‘वहाँ जाकर मैं अभी पता करता हूँ’, पापा कहते हैं, ‘नौकरी कब शुरू की जा सकती है?’ अगले ही दिन से माँ कारखाने में काम शुरू कर देती हैं. मेरी सुबहें अब ख़ामोश हो गयी हैं. माँ की सिलाई मशीन की तरह. और शाम तीन बजे के बाद, जब हमारा सन्नाटा टूटता भी है, तो भी हम पर अपनी पकड़ बनाए रखता है. थकान से निढाल माँ न तो अपनी सिलाई मशीन ही को गति दे पाती हैं और न ही मेरे संग अपनी बातचीत को. उनकी हाँफ भी शिथिल पड़ रही है. उनकीसाँस अब न ही पहले जैसी फूलती है और न ही चढ़ती है. माँ की मृत्यु का अंदेशा मेरे अंदर जड़ जमा रहा है, मेरे संत्रास में, मेरी नींद में, मेरे दु:स्वप्नमें….. फिर एक दिन हमारे स्कूल में आधी छुट्टी हो जाती है….. स्कूल के घड़ियाल के हथौड़िए की आकस्मिक मृत्यु के कारण. जिस ऊँचे बुर्ज पर लटक रहे  घंटे पर वह सालों-साल हथौड़ा ठोंकता रहा है, वहाँ से उस दिन रिसेस की समाप्ति की घोषणा करते समय वह नीचे गिर पड़ा है. उसकी मृत्यु के विवरण देते समय हमारे क्लास टीचर ने अपना खेद भी प्रकट किया है और अपना रोष भी, ‘पिछले दो साल से बीमार चल रहे उस हथौड़िए को हम लोग बहुत बार रिटायरमेंट लेने की सलाह देते रहे लेकिन फिर भी वह रोज ही स्कूल चला आता रहा, घंटा बजाने में हमें कोई परेशानी नहीं होती…..’ स्कूल से मैं घर नहीं जाता, माँ के कारखाने का रुख करता हूँ. माँ ने भी तो कह रखा है, उधर कारखाने में काम करने में मुझे कोई परेशानी नहीं होती….. माँ के कारखाने में काम चालू है. गेट पर माँ का पता पूछने पर मुझे बताया जाता है वे दूसरे हॉल में मिलेंगी जहाँ केवल स्त्रियाँ काम करती हैं. जिज्ञासावश मैं पहले हॉल में जा टपकता हूँ. यह दो भागों में बँटा है. एक भाग में गट्ठों में कस कर लिपटाईगयी ओटी हुई कपास मशीनों पर चढ़ कर तेज़ी से सूत में बदल रही हैं तो दूसरे भाग में बँधे सूतके गट्ठर करघों पर सवार होकर सूती कपड़े का रूप धारण कर रहे हैं. यहाँ सभी कारीगर पुरुष हैं. दूसरे हॉल का दरवाज़ा पार करते ही क्लोरीन की तीखी बू मुझसे आन टकराती है. भाप की  कई, कई ताप तरंगों के संग मेरी नाक और आँखें बहने लगती हैं. थोड़ा प्रकृतिस्थ होने पर देखता हूँ भाप एक चौकोर हौज़ से मेरी ओर लपक रही है. हौज़ में बल्लों के सहारे सूती कपड़े की अट्टियाँ नीचे भेजी जा रही हैं. हॉल में स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ हैं. उन्हीं में से कुछ ने अपने चेहरों पर मास्क पहन रखे हैं. ऑपरेशन करते समय डॉक्टरों और नर्सों जैसे. मैंउन्हें नज़र में उतारता हूँ. मैं एक कोने में जा खड़ा होता … Read more

चमड़े का अहाता

वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियों में एक खास बात रहती है कि वो सिर्फ कहानियाँ ही नहीं बाचती बल्कि उसके साथ किसी ख़ास चीज के बारे में विस्तार से ज्ञान भी देती हैं | वो ज्ञान मनोवैज्ञानिक हो सकता है, वैज्ञानिक या फिर आम जीवन से जुड़ा हो सकता है | इस तरह से वो अपने पाठकों को हौले से न केवल विविध विषयों से रूबरू कराती हैं बल्कि उसके ज्ञान को परिमार्जित भी करती हैं | चमड़े का अहाता भी उनकी ऐसे ही कहानियों की कड़ी में जुड़ा एक मोती है …जो रहस्य, रोमांच के साथ आगे बढ़ती है और अंत तक आते -आते पाठक को गहरा भावनात्मक झटका लगता है | इस कहानी में उन्होंने एक ऐसी समस्या को उठाया है जो आज भी हमारे, खासकर महिलाओं के जीवन को बहुत प्रभावित कर रही है | तो आइये पढ़ें मार्मिक कहानी … चमड़े का अहाता शहर की सबसे पुरानीहाइड-मारकिट हमारी थी. हमारा अहाता बहुत बड़ा था. हम चमड़े का व्यापार करते थे. मरे हुए जानवरों की खालें हम खरीदते और उन्हें चमड़ा बनाकर बेचते. हमारा काम अच्छा चलता था. हमारी ड्योढ़ी में दिन भर ठेलों व छकड़ों की आवाजाही लगी रहती. कई बार एक ही समय पर एक तरफ यदि कुछ ठेले हमारे गोदाम में धूल-सनी खालों की लदानें उतार रहे होते तो उसी समय दूसरी तरफ तैयार, परतदार चमड़ा एक साथ छकड़ों मेंलदवाया जा रहा होता. ड्योढ़ी के ऐन ऊपर हमारा दुमंजिला मकान था. मकान की सीढ़ियाँ सड़क पर उतरती थीं और ड्योढ़ी व अहाते में घर की औरतों व बच्चों का कदम रखना लगभग वर्जित था. हमारे पिता की दो पत्नियाँ रहीं. भाई और मैं पिता की पहली पत्नी से थे. हमारी माँ की मृत्यु के बाद ही पिता ने दूसरी शादी की थी. सौतेलीमाँ ने तीन बच्चे जने परंतु उनमें से एक लड़के को छोड़कर कोई भी संतान जीवित न बच सकी. मेरा वह सौतेला भाई अपनी माँ की आँखों का तारा था| वे उससे प्रगाढ़ प्रेम करती थीं. मुझसे भी उनका व्यवहार ठीक-ठाक ही था| पर मेरा भाई उनको फूटी आँख न सुहाता. भाई शुरू से ही झगड़ालू तबीयत का रहा. उसे कलह व तकरार बहुत प्रिय थी. हम बच्चों के साथ तो वह तू-तू, मैं-मैं करता ही, पिता से भी बात-बात पर तुनकता और हुज्जत करता.फिर पिता भी उसे कुछ न कहते. मैं अथवा सौतेला स्कूल न जाते या स्कूल की पढ़ाई के लिए न बैठते या रात में पिता के पैर न दबाते तो पिता से खूब घुड़की खाने को मिलती मगर भाई कई-कई दिन स्कूल से गायब रहता और पिता फिर भी भाई को देखते ही अपनी ज़ुबान अपने तालु के साथ चिपका लेते. रहस्य हम पर अचानक ही खुला. भाईने उन दिनों कबूतर पाल रखे थे. सातवीं जमात में वह दो बार फेल हो चुका था और उस साल इम्तिहान देने का कोई इरादा न रखता था. कबूतर छत पर रहते थे. अहाते में खालों के खमीर व माँस के नुचे टुकड़ों की वजह से हमारी छत पर चीलें व कव्वे अक्सर मँडराया करते. भाई के कबूतर इसीलिए बक्से में रहते थे. बक्सा बहुत बड़ा था. उसके एक सिरे पर अलग-अलग खानों में कबूतर सोते और बक्से के बाकी पसार में उड़ान भरते, दाना चुगते, पानी पीते और एक-दूसरे के संग गुटर-गूँ करते. भाई सुबह उठते ही अपनी कॉपी के साथ कबूतरों के पास जा पहुँचता. कॉपी में कबूतरों के नाम, मियाद और अंडों व बच्चों का लेखा-जोखा रहता. सौतेला और मैं अक्सर छत पर भाई के पीछे-पीछे आ जाते. कबूतरोंके लिए पानी लगाना हमारे जिम्मे रहता. बिना कुछ बोले भाई कबूतरों वाली खाली बाल्टी हमारे हाथ में थमा देता और हम नीचे हैंड पंप की ओर लपक लेते.उन्नीस सौ पचास वाले उस दशक में जब हम छोटे रहे, तो घर में पानी हैंड पंप से ही लियाजाता था. गर्मी के उन दिनों में कबूतरों वाली बाल्टी ठंडे पानी से भरने के लिए सौतेला और मैं बारी-बारी से पहले दूसरी दो बाल्टियाँ भरते और उसके बाद ही कबूतरों का पानी छत परलेकरजाते. “आज क्या लिखा?” बाल्टी पकड़ाते समय हम भाई को टोहते. “कुछ नहीं.” भाईअक्सर हमें टाल देता और हम मन मसोसकरकबूतरों को दूर से अपलक निहारते रहते. उस दिन हमारे हाथ से बाल्टी लेते समय भाई ने बात खुद छेड़ी, “आज यह बड़ी कबूतरी बीमार है.” “देखें,” सौतेला और मैं ख़ुशी से उछल पड़े.“ध्यान से,” भाई ने बीमार कबूतरी मेरे हाथ में दे दी.सौतेले की नजर एक हट्टे-कट्टे कबूतर पर जा टिकी.“क्या मैं इसे हाथ में ले लूँ?” सौतेले ने भाई से विनती की.“यह बहुत चंचल है, हाथ से निकलकर कभी भी बेकाबू हो सकता है.”“मैं बहुत ध्यान से पकडूँगा.”भाई का डर सही साबित हुआ.सौतेले ने उसे अभी अपने हाथों में दबोचा ही था कि वह छूटकर मुँडेर पर जा बैठा.भाई उसके पीछे दौड़ा. खतरे से बेखबर कबूतर भाई को चिढ़ाता हुआ एक मुँडेर से दूसरी मुँडेर पर विचरने लगा. तभी एक विशालकाय चील ने कबूतर पर झपटने का प्रयास किया. कबूतर फुर्तीला था. पूरी शक्ति लगाकर फरार हो गया. चील ने तेजी से कबूतर का अनुगमन किया. भाई ने बढ़कर पत्थर से चील पर भरपूर वार किया, लेकिन जरा देर फड़फड़ाकर चील ने अपनी गति त्वरित कर ली. देखते-देखते कबूतर और चील हमारी आँखों से ओझल हो गए. ताव खाकर भाई ने सौतेले को पकड़ा और उसे बेतहाशा पीटने लगा. घबराकर सौतेले ने अपनी माँ को पुकारा. सौतेली माँ फौरन ऊपर चली आयीं. सौतेलेकी दुर्दशा उनसे देखी न गयी. “इसे छोड़ दे,” वे चिल्लायीं, “नहीं तो अभी तेरे बाप को बुला लूँगी.वह तेरा गला काटकर तेरी लाश उसी टंकी में फेंक देगा.” “किस टंकी में?” भाई सौतेले को छोड़कर, सौतेली माँ की ओर मुड़ लिया. “मैं क्या जानूँ किस टंकी में?” सौतेली माँ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं. हमारे अहाते के दालान के अन्तिम छोर पर पानी की दो बड़ी टंकियाँ थीं. एक टंकी में नयी आयी खालें नमक, नौसादर व गंधक मिले पानी में हफ़्तों फूलने के लिए छोड़ दी जाती थीं और दूसरी टंकी में खमीर उठी खालों को खुरचने से पहले धोया जाता था. “बोलो, बोलो,” भाई ने ठहाका लगाया, “तुम चुप क्यों हो गयीं?” “चल उठ,” सौतेली माँ ने सौतेले … Read more

बत्तखें

विज्ञान और मनोविज्ञान के मेल पर आधारित कहानी ‘बत्तखें’ को पढने से पहले आइये थोडा सा जान लें मल्टीवर्स थ्योरी के बारे में …ये थ्योरी (हालांकि अभी हाइपोथीसिस केरूप में ही है जिसे सिद्ध किये जाना बाकी है) कहती है कि हम ही नहीं हमारा ब्रह्माण्ड  भी सृष्टि में अकेला नहीं है | करोणों ब्रह्माण्ड हैं जो एक दूसरे से डार्क मैटर से अलग -अलग हैं और अलग -अलग फ़्रीक़ुएन्सी पर कम्पन कर रहे हैं | हम सब जानते हैं कि मैटर -मैटर को आकर्षित करता है | इसी कारण पृथ्वी चंद्रमा सूरज अपने स्थान पर हैं , और पृथ्वी  में भी सब कुछ अपने स्थान पर है | परन्तु डार्क मैटर की उपस्थिति के कारण मैटर -मैटर में विकर्ष्ण  पैदा होता है | वो एक दूसरे से दूर हो जाते हैं | उनका एक दूसरे तक पहुँचना लगभग असंभव होता है | दो ब्रह्मांडो के बीच में यही डार्क मैटर होता है | इसी कारण हमें दूसरे ब्रह्मांडों के विषय में पता नहीं चल पाता | भविष्य में शायद किसी वर्महोल के द्वारा हम वहां तक पहुँच सकें |  इस डार्क मैटर को ही कुछ समानता के कारण डक (बत्तख ) का नाम दिया गया है| माना जाता है कि पृथ्वी पर सब कुछ अपनी स्थिति में है इस लिए यहाँ पर डार्क मैटर नगण्य मात्रा में है | यह तो रही विज्ञान की बात पर मनोविज्ञान कहता है कि पृथ्वी पर डार्क मैटर है जो कुछ नकारात्मक लोगों के दिमाग में छिपा हुआ है …तभी तो वो लोगों को एक दूसरे से दूर करते है | जैसे शशि भाभी ने दूर कर दिया …आइये पढ़े विज्ञान और मनोविज्ञान के जटिल  रहस्यों में उलझी हुई वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की सशक्त कहानी … बत्तखें मेरी नजर में पहले वह खिड़की उतरी थी| दो संलग्न आड़ी दीवारों के बीच एक बुर्ज की भांति खड़ी| बाहर की ओर उछलती हुई| आगे बढ़ी तो देखा बाबूजी उस खिड़की पर खड़े थे| क्या वह नीचे कूदने वाले थे? क्या मैं उन्हें बचा सकूँगी? “बाबूजी,” मैं ने उन्हें वहीं नीचे से पुकारा| वह नीचे आ गए| हवा के रास्ते| “तुम भी हवा के सहारे कहींभीआ जा सकती हो,” वह मुझ से बोले| “आप की तरह?” मैंने पूछा| “हाँ,” उन्होंने मेरा कंधा छुआ मानो वह किसी जादुई छड़ी से मुझे छू रहे थे| और उन के साथ मैं भी हवा पर सवार हो ली| “किधर जाएँगे?” मैंने पूछा| मुझे साइकल चलाना उन्हीं ने सिखाया था और उन दिनों मैं चलने से पहले हमेशा पूछती, “किधर जाएँगे?” और उत्तर में वह मुझ से सवाल करते, ‘तुम बताओ| आज किधर जाएँ?’ दाएं? मिल्क बूथ की तरफ? या फिर बाएं? ऊँचे पुल पर? या फिर आज सामने ही चलें? टाउनहॉल?” उन दिनों हम शकुंतला निवास में रहते थे जो एक तिकोने मोड़ वाली सड़क पर स्थित था| शकुंतला बाबूजी की पहली पत्नी थीं| उनके इकलौते बेटे, अरुण भैया की तथा पहली दो बेटियाँ – कृष्णा जीजी तथा करुणा जीजी – की माँ| “आकाश खटखटाएँ क्या?” बाबूजी हँस पड़े| “हाँ,” उत्साहित हो कर मैंने पुरानी एक ज़ेन कहावत बोल दी, “आकाश खटखटाएँ और उसकी आवाज सुनें…..” “और अगर आकाश ने पूछा, ‘कौन-सा परलोक खोलूँ?’ तो क्या कहोगी…..” लगभग आठ वर्ष पहले हम बाप-बेटी ने अपने विषय-भौतिकविज्ञान-में एक शोध निबंध तैयार किया था- यूनिवर्स एंड मल्टीवर्स(ब्रह्मांड एवं ब्रह्मांडिकी) जिस में हमने ब्रह्मांडिकी कीचर्चित परिकल्पनाओं एवं विचारधाराओं को प्रस्तुत किया था तथा जिन में हमारे इस लोक के अतिरिक्त अनेक, परलोकों की उपस्थिति की बात उठायी गई थी और उसी संदर्भ में हमने सन् १९२९ में हब्बल के टेलिस्कोप अवलोकन से सामने आए बबल्ज़ (बुलबुलों) की परतों ब्लैक होल्ज़ (काले कुंडों) के कवकजाल से ले कर सन् अस्सी के दशक में एलेन गूथ की इनफ़लेशनरी कौस्मौलॉजी(ब्रह्मांडिकी के फैलाव) के अंतर्गत उत्पादित हो रहे कॉस्मिक फ़्युल अंतरिक्षीय जलावन के कारण ब्रह्मांडिकी परलोकों की चर्चा की थी| “माँ कहाँ मिलेंगी?” माँ को देखे-सुने मुझे अठारह वर्ष होने जा रहे थे| माँ के साथ मुझे कई पृष्ठ उलटने-पलटने थे| नए-पुराने, अगले-पिछले| माँ से पूछना था मृत्यु का वरण उन्होंने बाबूजी और मेरी अनुपस्थिति में कैसे और क्यों कर लिया था? उस रात बाबूजी शहर से बाहर थे| अपने गाँव पर| वहां की अपनी पैतृक संपत्ति का निपटारा करने के निमित्त और मैं मीलों दूर पड़ने वाले एक-दूसरे शहर के कॉलेज के छात्रावास में थी, जहाँ बाबूजी ने मुझे भेज रखा था| परिवार में निरंतर बढ़ रहे तनाव से मुझे अलग रखने के वास्ते| माँ को बताना था कि मानसिक संस्तभ लेकर परिवार में सब से बाद में आने वाली छुटकी पहले से कहीं बेहतर स्थिति में है, अनियमित समतोल एवं विषम बौद्धिक स्तर के बावजूद| अपने आइ-पैड पर वह मनपसंद संगीत सुनती है, फिल्में देखती है, विडियो गेम्ज़ खेलती है| उसके पास अपना एक पिआनो भी है, जिसकेपैडल पर अपने पैर जमा कर वह उसकी तान बखूबी घटा-बढ़ा लेती है| कभी ख़ालिस अपने मनोरंजन के लिए तो कभी अपनी मनःस्थिति मुझ तक पहुँचाने को| “मेरी आवाज दमयंती तक अभी पहुँची नहीं,” बाबूजी गंभीर हो गए, “न जाने किस परलोक में है? किस आकाशगंगा में? किस सूर्यमंडल में? किस बबल में? किस काले कुंड में? किस वृत्त में?” “बड़ी बत्तख तो कहीं कोई करतब नहीं दिखा रही?” मैं भी गंभीर हो चली| भौतिक विज्ञानियों के अनुसार परिवर्ती हमारे आकाश और अंतरिक्ष में तिहत्तर प्रतिशत ऊर्जा विकर्षण के सिद्धांत पर काम करती है और बिग बैन्गज द्वारा गढ़े जा रहे नए परलोकों को एक-दूसरे से दूर रखने के लिए उत्तरदायी है और इसी विकर्षण-शक्ति की पूरी जानकारी प्राप्त करने में अभी तक असमर्थ रहे इन विज्ञानियों ने इसे ‘डार्क एनर्जी (अज्ञात ऊर्जा) का नाम तो दे ही रखा है, साथ ही वे इसे ‘डक’ (बत्तख) भीकहा करते हैं, इफ़ इट वॉक्स लाइक अ डक एंड क्वैक्स लाइक अ डक, इट प्रौबब्ली अ डक…..’ यदि यह ऊर्जा एक बत्तख की भांति अकड़ कर चलती है और फिर अपनी टर्र-टर्र रटती रहती है तो फिर यह एक बत्तख ही है| “यही मालूम देता है,” बाबूजी ने कहा, “उधर उस बत्तख ने अपनी डार्क एनर्जी के कारण करतब दिखलाए थे तो इधर यह अपना काम दिखा रही है…..” हम बाप-बेटी ने अरुण भैया की पत्नी, शशि को … Read more

किशोरीलाल की खाँसी

किशोरीलाल जी उस पुरुषवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनके लिए पैसा ही सब कुछ है, उसके आगे उनकी पत्नी के जीवन का भी कोई मूल्य नहीं है | जब भी कभी आपको खांसी आई होगी, बहुत तकलीफ हुई होगी, ऐसा लगता है जैसे सीने की माँस-पेशियाँ सब तहस -नहस हो गयीं | बच्चों की और अपनों की खांसी भी सहन नहीं होती पर  किशोरीलाल जी की खांसी भी आपको वेदना के एक सागर उतार देगी …लेकिन उसका कारण कुछ अलहदा है  किशोरीलाल की खाँसी किशोरीलाल की खाँसी का प्रारम्भ व अन्त अजीब व विवादास्पद रहा| जिस दिन उसकी पत्नी के तपेदिक का इलाज शुरू किया गया, उसी दिन से किशोरीलाल को उसकी खाँसी ने जो पकड़ा सो उसकी पत्नी की मृत्यु के बाद ही उसे छोड़ा| किशोरीलाल हमारा पड़ोसी था और उसकी बड़ी बेटी बारहवीं जमात तक मेरे साथ एक ही स्कूल में पढ़ती भी रही थी, फिर भी किशोरीलाल को उसकी व उसके परिवार-जनों की अनुपस्थिति में हम उसे ‘चचा’ अथवा‘काका’ जैसे आदरसूचक सम्बोधन के बिना ही पुकारा करते थे| उसकी वजह गली में स्थित उसकी परचून की दुकान रही| गली में जिस किसी घर में, जब कभी भी किसी चीज की जरूरत पड़ती, तुरन्त बच्चों में से किसी को हिदायत मिलती : “जाओ, दौड़कर किशोरीलाल की दुकान से पकड़ लाओ|” बारहवीं जमात के बाद जहाँ किशोरीलाल की बड़ी बेटी ब्याह दी गई थी, प्राध्यापक व महत्वकांक्षी पिता की बेटी होने के कारण मुझे सी.पी.एम.टी. की परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किय गया था और सौभाग्यवश मैं उसमें ऊँचे अंकों के साथ उत्तीर्ण भी हो गई थी|  स्थानीय मेडिकल कॉलेज में मुझे दाखिला मिल गया था और अपनी पढ़ाई के पाँचवें साल तक पहुँचते-पहुँचते मैं अपनी गली के सभी बीमार लोगों के इलाज का बीड़ा उठाने लगी थी| छोटी-मोटी बीमारी तो मैं सैम्पल में आई दवाइयों से ही भगा देती और यदि बीमारी क्रोनिक अथवा चिरकालिक प्रकृति की होती तो उसका इलाज मैं अस्पताल के डॉक्टरों से कहकर मुफ्त करवा देती| “माँ की खाँसी जाने का नाम ही नहीं ले रही,” किशोरीलाल की तीसरी बेटी एक दिन जब मुझे गली में दिखाई दी तो उसने मेरा मोपेड रोककर मुझ पर अपनी चिन्ता प्रकट की, “क्या कभी समय निकालकर आप हमारे घर पर माँ को देखने अ सकेंगी?” “हाँ, हाँ, क्यों नहीं?” मैंने उसे आश्वासन दिया| किशोरीलाल की पत्नी के गुणों का बखान सारी गली के लोग खुले कण्ठ से किया करते| दुकान के ऊपर बने मकान के अन्दर बैठी वह दुकान का ढेर सारा काम निपटाया करती| दुकान में रखे अचार उसी के हाथ में बने रहते| लाल मिर्च, धनिया, गर्म मसाला, कलि मिर्च, हल्दी इत्यादि के तैयार पैकेट भी उसी की बदौलत हाथो-हाथ गली के घर-घर में प्रयोग किए जाते| हम सब जानते थे वह कितनी मेहनत तथा ईमानदारी के साथ चीज़ें साफ करने के बाद स्वयं उन्हें अपने हाथों से सान पर पीसती थीं| किशोरीलाल की पत्नी की खाँसी जब मुझे अस्वाभाविक लगी तो मैंने अपने अस्पताल से उसके थूक, उसके पेशाब व उसके खून का परीक्षण कराया| परिणाम आने पर पता चला कि उसे तपेदिक था| मेरे वरिष्ठ अध्यापक-डॉक्टर ने नुस्खे में जो गोलियाँलिखीं, उनमें आइसोनियाज़िड व इथैम्बुटोल तो अस्पताल में उपलब्ध रहीं, मगरराय-फैम्पिसिन तथा पायरैज़िनामाइड बाज़ार से मँगाने की बाध्यता थी| “किशोरीलालकी दुकान खूब चलती है,” मैंने अपने वरिष्ठ अध्यापक-डॉक्टर को बताया, “आप प्रचलित प्रथा के बाहर जाकर इन दूसरी गोलियों को मँगाने की चेष्टा मत कीजिए, सर! किशोरीलालइन्हें बाज़ार से खुद खरीद लेगा|” “तपेदिक अब असाध्य रोग नहीं रहा,” किशोरीलाल के चिन्तित परिवार को मैंने सान्त्वना दी, “अब इसे छः महीने के अन्दर जड़ से खत्म किया जा सकता है| दो महीने तक ये बारह गोलियों की खुराक जब रोज़ाना लेलेगी तो आधा तपेदिकतो वहीं खत्म हो जाएगा| बस, अगले चार महीने एक सप्ताह में ये चौरासी गोलियों की बजाय केवल सत्ताईस गोलियाँ ही काम दे देंगीऔर फिर साथ में जब इन्हें आप सब कीओर से ढेर-सा दुलार, ढेर-सा पौष्टिक आहार, ढेर-सा विश्राम मिलेगा तो ये छः महीनेके अन्दर ही ज़रूर-ब-ज़रूर पूरी तरह से निरोग व स्वस्थ हो जाएँगी…..” तपेदिक में खुली हवा का अपना एक विशेष महत्व रहता है, परन्तु मैंने किशोरीलाल व उसके परिवार से खुली हवा के बारे में एक शब्द भी न कहा| दुकान के दाईं ओर से डेढ़ फुट की तंग चौड़ाई लिए किशोरीलाल के मकान की सीढ़ियाँ पड़ती थी| पहलीमंज़िल पर एक तंग कमरा और एक तंग रसोई उद्घाटित करने के बाद, वे सीढ़ियाँ आगन्तुक को दूसरी मंज़िल के तंग कमरे व गुसलखाने को प्रकट करने के बाद ऊपर छत पर ले जाती थीं|  हवादारी के नाम पर किशोरीलाल की बीस ज़रब बाईस फुट की परचून की दुकान के ऐन ऊपर समान लम्बाई-चौड़ाई लिए इन दो मंज़िलों में केवल चार छोटी खिड़कियाँ रहीं| चारोंखिड़कियाँ गली की ओर ही खुलती थीं क्योंकि गली के बीच वाला मकान होने के कारण बाकी तीनों तरफ बन्द दीवारें-ही-दीवारें थीं| मौसम और समय के अनुसार घर के सदस्य दिन अथवा रात का अधिकतर समय छत पर बिताते, हालाँकि वह छत भी तीनों ओर से अपने से ऊँचे मकानों की चौहद्दी दीवारों के बीच संकुचित व सिकुड़ी रहने के कारण खुलेपन का एहसास देने में सर्वथा असमर्थ रहती| किशोरीलाल की पत्नी के तपेदिक की सूचना गली में बाद में फैली, किशोरीलाल की खाँसी पहले शुरू हुई| शुरू में दूसरे लोगों के साथ-साथ मैं भी यही समझी कि पत्नी के फेफड़ों की संक्रामक खाँसी किशोरीलाल के फेफड़ों में चली गई होगी किन्तु जब मेरे बार-बार आग्रह करने परभी किशोरीलाल अपनी पत्नी के तदनन्तर परीक्षण के लिए राजी न हुआ तो मुझे समझते देर न लगी कि किशोरीलाल अपनी पत्नी को अविलम्ब मृत्यु के हवाले कर देना चाहता था| शायद वह अपनी पत्नी के परिचर्या-व्यय से बचना चाहता था या शायद वह अपनी दुकान के उन ग्राहकों को अपनी दुकान पर लौटा लाना चाहता था जो उसकी पत्नी के तपेदिक की सूचना मिलते ही उसकी दुकान के तैयार मसालों व अचारों के स्पर्श-मात्र से कतराने लगे थे| भार-स्वरुप उसे पत्नी की खाँसी से अधिक उग्र खाँसना अवश्य ही अनिवार्य लगा होगा| इसीलिए जब-जब उसकी पत्नी खाँसते-खाँसते बेहाल होने लगती, तब-तब किशोरीलाल अपनी खाँसी का नखरा-चिल्ला त्वरित कर देता| अगले वर्ष जब तपेदिक ने किशोरीलाल की … Read more

स्पर्श रेखाएं

इससे पहले भी आप atootbandhann.com में वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियाँ पढ़ चुके हैं | वो हमेशा एक नया सब्जेक्ट लाती हैं उसकी काफी रिसर्च करती हैं फिर पात्र के मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक धरातल पर उतर कर कहानी लिखती हैं | ये कहानी भी एक ऐसी ही कहानी है जिसने मुझे बहुत देर तक विचलित किया | क्यों हो जाती है एक अच्छी भली स्त्री पागल? वो पागल हो जाती है या पागल करार दे दी जाती है | शायद  आशा , प्रेम सम्मान जब सब किसी स्त्री से छीन लिए जाते हैं तो वो अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है | क्या अपमान , अप्रेम की स्थिति में एक मानसिक संतुलन खोयी हुई स्त्री के भावनात्मक वलय को छूने वाले स्पर्श रेखाएं नाउम्मीदी की दशा में उसी वलय  में खिची चली जाती है | सच में जीवन बहुत उलझा हुआ है और उससे भी ज्यादा उलझा हुआ है मन और उसका विज्ञान … आइये पढ़ें एक ऐसी कहानी जिसमें उलझ कर आप थोडा ठहरने को विवश होंगे | कहानी -स्पर्श रेखाएं  झगड़ेके बाद माँ अकसर इस मंदिर आया करतीं|घंटे, दो घंटे में जब मेरा गुस्सा उतर कर चिन्ता का रूप धारण करने लगता तो उन्हें घर लिवाने मैं यहीं इसी मंदिर आती| एक-एक कर मैं प्रत्येक रुकाव एवं ठहराव पर जाती| प्रसाद की परची कटवा रहीं, प्रसाद का दोना सम्भाल रही, माथा टेक रही, चरणामृतले रही, बंट रहे प्रसाद के लिए हाथ बढ़ा रही, सरोवर की मछलियों को प्रसाद खिला रही, स्नान-घर में स्नान कर रही सभी अधेड़ स्त्रियोंको मैं ध्यान से देखती-जोहती और दो-अढ़ाई घंटों में माँ का पता लगाने में सफल हो ही जाती| मगर उस दिन मंदिर के मुख्य द्वार की ड्योढ़ी पर पाँव धरते ही मैं ने जान लिया सरोवर के जिस परिसर पर भीड़ जमा रही, माँवहीं थीं| “क्या कोई हादसा हो गया?” परिक्रमा से लौट रही एक दर्शनार्थी से मैंने पूछा| “हाँ, बेचारी एक बुढ़िया यहाँ मरने आयी थी| स्नान के बहाने डूब जाना चाहती थी मगर लोगबाग ने समय रहते शोर मचा दिया और यहाँ के सेवादारों ने उसे गहरे में जाने से रोक लिया…..” लोगों की भीड़ को चीरना मेरे लिए कठिन न रहा| अवश्य ही मेरी चाल व ताक कूतना उनके लिए सुगम रहा होगा| “यह मेरी माँ हैं,” संगमरमर के चकमक फर्श पर माँ पेट के बल लेटी थीं| उनकीसलवार कमीज़ उनकी देह के संग चिपकी थी| “जब यह दूसरे जोड़े के बिना हमारे स्नानघर में दाख़िल हुईं, मैंने तभी जान लिया था, ज़रूर कुछ गड़बड़ है…..” सम्भ्रान्त एक अधेड़ महिला ने मेरा कन्धा थाम लिया| “घर में क्या बहू से झगड़ा हुआ?” एक वृद्धा की आँखों से आँसू ढुलक लिए| “आपके पिता कहाँ हैं?” एक युवक ने उत्साह दिखाया, “मैं उन्हें खबर करता हूँ| आप अकेली इन्हें कहाँ सम्भाल पाएंगी?” “गुड आफ़्टर नून, मै’म,” भीड़ के एक परिचित चेहरे ने मेरी ओर हाथ हिलाया, “मैं अपनी कार से आयी हूँ| आप दोनों को आपके घर पहुँचा आऊँगी…..” “थैन्क यू,”मैंने उसका सहयोग स्वीकारा| “क्या किसी कॉलेज में पढ़ाती हो?” पहली वाली सम्भ्रान्त महिला ने मुझ से पूछा| “हाँ,” मैंने सिर हिलाया, “यह लड़की मेरी छात्रा है|” “नौकरी-पेशा हो कर इतनी नासमझी दिखाई,” सम्भ्रान्त महिला ने मुझे फटकारा, “और माँ के लिए यह नौबत ले आयी|” “तुम्हारा पागलपन बढ़ रहा है, माँ,” शाम को जब माँ मुझे बात सहने लायक दिखायी दीं तो मैं ने उनकी खबर ली, “आज फिर डॉक्टर के पास तुम्हें ले कर जाना पड़ेगा…..” “मैं पागल नहीं हूँ,” माँ रोने लगीं, “बस, अब और जीना नहीं चाहती…..” “इसीलिए तो डॉक्टर के पास जाना ज़रूरी है,” मैं कठोर हो ली| “मैं वहां न जाऊंगी,” माँ व्यग्र हुईं| बिजली के संघात उस डॉक्टर की चिकित्सा-प्रक्रिया के अभिन्न अंग रहे और माँ वहां जाने से बहुत घबरातीं| “आप ऐसे नहीं मानेंगी तो फिर मजबूर हो कर मुझे आपको वहां दाखिल करवाना पड़ेगा,” मुझे माँ पर बहुत गुस्सा आया| “यह दुख तो नहीं ही झेला जाएगा,” माँ गहरे उन्माद में चली गयीं; कभीअपने बाल नोचतीं तो कभी अपने कपड़े फाड़ने का प्रयास करतीं, “पुराने दुख कट गए थे कि आगे सुख मिलने वाला है, मगर इस बार तो कहीं उम्मीद की लकीर भी दिखाई नहीं दे रही…..” “यह दवा खा लो, माँ,” मैं ने डॉक्टर की बतायी दवा माँ के मुँहमें जबरन ठूंस देनी चाही| माँ ने दवा मेरे मुँह पर थूक दी और मेरा हाथ इतने ज़ोर से दबाया कि न चाहते हुए भी मेरी चीख निकल ली| चीख सुन कर मकान मालकिन दौड़ी आयीं| अस्पताल से एम्बुलेंस उन्हीं ने मंगवायी| माँ और मेरे बीच रिश्ता तब तक ही ठीक रहा, जब तक मैं अपने पिता के घर पर अपनी पढ़ाई पूरी करती रही| “तेरी नौकरी की उम्मीद पर जी रही हूँ,” उन पन्द्रह वर्षों के दौरान माँ मुझे जब-जब मिलीं, मुझे अपने सीने से लगा कर अपना एक ही सपना मेरी आँखों में उतारती रही, “तेरी नौकरी लगते ही हम दोनों अपने अपने नरक से निकल लेंगी|” हमारे साथ अजीब बीती थी|असहाय अपनी विधवा माँ तथा स्वार्थी अपने तीन भाइयों के हाथों कच्ची उम्र में ही माँ जब तंगहाल मेरे पिता के संग ब्याह दी गयी थीं तो उधर अपनी महत्वाकांक्षा के अन्तर्गत मेरे पिता बीस वर्ष की अपनी उस उम्र में मिली अपनी स्कूल क्लर्की से असन्तुष्ट रहने की वजहसे अपने लिए कॉलेज लेक्चरर की नौकरी जुटाने में प्रयासरत थे| पढ़िए -नसीब  घोर संघर्ष वविकट कृपणता का वह तेरह-वर्षीय परख-काल माँ के लिए किसी बल-परीक्षा से कम न रहा था|किन्तुसीढ़ी हाथ लगते ही मेरे पिता को माँ बेमेल लगने लगी थीं| माँ को उन्होंने फिर ज़्यादा देर भ्रम में न रखा| उसी वर्ष अपने कॉलेज में पढ़ाने आयी एक नयी लेक्चरर से अपनी शादी रचा ली और माँ को अपनी विपत्ति काटने के लिए नानी के पास भेज दिया| बढ़ रही माँ की बड़बड़ाहटों का हवाला दे कर| हरजाने की एवज़ में माँ ने मेरे पिता से मेरी पढ़ाई का बीड़ा उठाने की मांग रखी थी|जानती रही थीं उनके गरीब मायके पर मेरी पढ़ाई अधूरी रह जाती जब कि मेरे पिता के घर पर एक साथ दो बड़ी तनख्वाहों के आने से मेरी पढ़ाई सही ही नहीं, बल्कि उत्तम दिशा में आगे बढ़ने कीसम्भावना … Read more

चचेरी

सिबलिंग राइवलरी एक ऐसा शब्द है जिससे  कोई अनभिज्ञ नहीं हैं | मामला दो चचेरी बहनों का हो तो ये और भी कहर ढाने वाला हो जाता है | ये बिना बात की जलन ऐसी ,कि जरूरत हो ना जरूरत हो दूसरे के काम को बनता देख दिल में उथल -पुथल शुरू हो जाती है  और दिमाग टांग अडाने की तकनीके सोचने लगता है | आज हम आपके लिए लाये हैं दो चचेरी बहनों की इर्ष्या  पर आधारित एक ऐसे ही कहानी | ये कहानी 2015 में हंस में प्रकाशित हो चुकी है | आइये पढ़ें वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी … चचेरी  “प्रभात कुमार?” वाचनालय के बाहर वाले गलियारे में अपने मोबाइल से उलझ रहे प्रभात कुमार को चीन्हने में मुझे अधिक समय नहीं लगा| “जी….. जी हाँ,” वह अचकचा गया| “मुझे उषा ने आपके पास भेजा है…..” “वह कहाँ है?” उसे हड़बड़ी लग गयी, “उसका मोबाइल भी मिल नहीं रहा…..” “कल शाम दोनों बरिश में ऐसे भीगे कि उषा को बुखार चढ़ आया और उस का मोबाइल ठप्प हो गया,” मैं मुस्कुरायी| कल शाम उषा ने प्रभात कुमार ही के साथ बिताई थी| चंडीगढ़ में पांच दिन के लिए आयोजित की गयी इस साहित्यिक गोष्ठी में हम चचेरी बहनें लखनऊ से आयी थीं और प्रभात कुमार कोलकाता से| किन्तु दूसरे दिन के पहले सत्र में ‘आधुनिक साहित्य-बोध’ के अन्तर्गत हुई चर्चा में उषा की भागीदारी ने प्रभात कुमार पर ऐसी ठगोरी लगायी थी कि वह अगले ही सत्र में उसके अरे-परे आकर बैठने लगा था| परिणाम, उषा का सुनना-सुनाना फिर गोष्ठी से हटकर प्रभात कुमार पर जा केन्द्रित हुआ था| तीसरा दिन दोनों ने विश्वविद्यालय के इस वाचनालय में बिताया था और चौथे दिन, यानी कल, दोपहर ही में वे सैर-सपाटे के लिए बाहर निकल लिए थे| “कितना बुखार है?” प्रभात कुमार का स्वर तक तपने लगा| “एक सौ चार| इसीलिए डॉक्टर ने दिसम्बर की इस हाड़-कंपाने वाली सर्दी में उसे बाहर निकलने से सख़्त मना किया है…..” “मगर मेरा उससे मिलना बहुत ज़रूरी था| कोलकाता का मेरा टिकट कल सुबह के लिए बुक्ड है और वह आज ही बाहर नहीं निकल पा रही,” प्रभात कुमार रोने-रोने को हो आया| “जभी तो उसने यह पत्र आपके नाम भेजा है,” उषा द्वारा तैयार किया गया लिफाफा मैंने उसकी तरफ़ बढ़ा दिया| “लाइए,” उसने लिफाफा खोला और अन्दर रखे पत्र पर झपट पड़ा| “तुम फ़िल्म ज़रूर देखना,” उचक कर उषा की कलम-घिसटती लिखाई में प्रभात कुमार के साथ मैंने भी पढ़ा, “और दूसरी टिकट पर रेवा को साथ ले जाना| वह मेरे ताऊ की बेटी है| औरफ़िल्मों की शौकीन| आज हमारा मिलना ज़रूर असम्भव रहा है मगर यह अन्त नहीं है| स्पेन की उस कहावत को याद रखते हुए जो कल तुम मुझे सुना रहे थे : ‘लव विदाउट एंड हैज़ नो एंड’ (मनसूबा बांधे बिना किया गया प्यार कभी विदा नहीं लेता)- तुम्हारी उषा|” “आइए|” प्रभात कुमार वाचनालय के मुख्य द्वार की ओर लपक पड़ा| “वुडी एलन की ‘मिडनाइट इनपेरिस’ देखी थी, तभी उसकी यह ‘ब्लु जैसमीन’ मेरे लिए देखना ज़रूरी हो गया था,” प्रभात कुमार की हड़बड़ीपूर्ण तेज़ी के साथ कदम मिलाते हुए मैंने वातावरण के भारीपन को छितरा देना चाहा| पढ़िए -हकदारी प्रभात कुमार ने कोई उत्तर नहीं दिया| “आपको वुडी एलन पसन्द नहीं क्या?” “स्कूटर,” प्रभात कुमार चिल्लाया और स्कूटर पर चढ़ लिया| और जब उसने ‘ब्लु जैसमीन’ बिनाबोले गुज़ार दी तो मैंने अपने भीतर एक उत्सुक जिज्ञासा को जागते हुए पाया| “क्या कहीं घूमा जाए?” सिनेमा-हॉल से बाहर निकलते ही मैंने सुझाया| “कहाँ घूमेंगे?” प्रभात कुमार की आँखें और वीरान हो उठीं| “जहाँ उषा के साथ घूमना था,” मैंनेउसे डोर पर लाना चाहा, “जहाँ उसके साथ डोलना-फिरना था…..” “उसने आपको बताया था?” “बिलकुल,” मैंने झूठ कह दिया, “मत भूलिए, हम दोनों चचेरी बहनें हैं और अपने अपने जयपत्र एक-दूसरे के संग साझे तो करती ही हैं…..” मगर सच पूछें तो ऐसा कतई नहीं था| उषा और मैं बहनेली कभी नहीं रही थीं| कारण पारिवारिक मनमुटाव था| जो सन् चौरासी के दिसम्बर में शुरू हुआ था| जिस माह दादा ने चाचा से उनकी भोपाल वाली नौकरी छुड़वाकर उन्हेंलखनऊमें एक कारखाना खरीद दिया था, परिवार की सांझी पूंजी से| “तो क्या पिंजौर चलेंगी आप?” प्रभात कुमार ने पहली बार मुझे अपनी पूरी नज़र में उतारा| “क्यों नहीं?” अपने स्वर में चोचलहाई भरकर मैंने कहा, “नए लोग और नयी जगहें मुझे बेहद आकर्षित करती हैं| जभी तो मैं उषा के साथ चंडीगढ़चलीआयी वरना साहित्य और साहित्य-बोध में मेरी लेश मात्र भी रूचि नहीं…..” “आप ने अभी जिस जयपत्र शब्द का प्रयोग किया उसका प्रसंग मैं समझ नहीं पाया,” पिंजौर की ओर जाने वाली बस में सवार होते ही प्रभात कुमार ने उत्सुकता से मेरी ओर देखा| “प्रसंग उषा की विजय का है, बल्कि महाविजय का है…..” “महाविजय? कैसी महाविजय?” “इतने कम समय में आप जैसे यशस्वी व युवा कवि का मन जीत लेना उसकी महाविजय नहीं तो और क्या है?” “मन तो उसने मेरा जीता ही है| जो दृढ़संकल्प और आत्मविश्वास उसने मेरे भीतर जगाया है, उसने तो मेरा जीवन ही पलट दिया है,” वह लाल-सुर्ख़ हो चला| “वह स्वयं भी तो दृढ़-संकल्प व आत्मविश्वास की प्रतिमूर्ति है,” अपनी डोर मज़बूत रखने के लिए मैंने तिरछी हवा का सहारा लिया, “बचपन से लेकर अब तक जो पढ़ाई में लगी है, सो लगी है| स्कूल-कॉलेज के समय उसे अगले साल के लिए छात्रवृत्ति पानी होती और अब अपनी अध्यापिकी में उसे ऊँचा स्केल पाने के लिए पी. एच. डी. करनी है…..भाई की इंजीनियरिंग और बहन की आई. आई. एम. का र्चा तब तक उठाती रहेगी जब तक उन की पढ़ाई पूरी न हो लेगी और वह आर्थिक निर्भरता हासिल न कर लेंगे…..” “मगर उसके पिता का तो लखनऊ में अपना कारखाना है…..” “है तो! मगर वह शुरू ही से डांवाडोल स्थिति में रहा है| चाचा उसे लीक पर ला ही नहीं पाए| असलमें अपनी इंजीनियरिंग केबाद भोपाल में वह अच्छी नौकरी पा गए थे और वह नौकरी उन्हें कभी छोड़नी नहीं चाहिए थी…..” “हाँ, उषा बता रही थी सन् चौरासी की जिस दो दिसम्बर के  दिन उसके माता-पिता लखनऊ में विवाह-सूत्र में बंध रहे थे, उसी दिन यूनियन कारबाइड की उस इनसैक्टिसाइड फैक्टरी में हुए गैस-स्त्राव … Read more