मंगत पहलवान
अटूट बंधन में आप वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कई कहानियाँ पढ़ चुके हैं | कई बार उनकी कहानियों में मुख्य कथ्य अदृश्य हो है जिस कारण वो बहुत मारक हो जाती हैं | प्रस्तुत कहानी मंगत पहलवान भी रहस्यात्मक शैली में आगे बढती है और पाठक को अंत तक बाँधे रखती है | रहस्य खुलने पर हो सकता है आप ये कहानी दुबारा पढ़ें | तो आइये शुरू करते हैं … कहानी – मंगत पहलवान ‘कुत्ता बँधा है क्या?’ एक अजनबी ने बंद फाटक की सलाखों के आर-पार पूछा| फाटक के बाहर एक बोर्ड टंगा रहा- कुत्ते से सावधान! ड्योढ़ी के चक्कर लगा रही मेरी बाइक रुक ली| बाइक मुझे उसी सुबह मिली थी| इस शर्त के साथ कि अकेले उस पर सवार होकर मैं घर का फाटक पार नहीं करूँगा| हालाँकि उस दिन मैंने आठसाल पूरे किए थे| ‘उसे पीछे आँगन में नहलाया जा रहा है|’ मैंने कहा| इतवारके इतवार माँ और बाबा एक दूसरे की मदद लेकर उसे ज़रूर नहलाया करते| उसे साबुन लगाने का जिम्मा बाबा का रहता और गुनगुने पानी से उस साबुन को छुड़ाने का जिम्मा माँ का| ‘आज तुम्हारा जन्मदिन है?’ अजनबी हँसा- ‘यह लोगे?’ अपने बटुए से बीस रुपए का नोट उसने निकाला और फाटक की सलाखों में से मेरी ओर बढ़ा दिया| ‘आप कौन हो?’ चकितवंत मैं उसका मुँह ताकने लगा| अपनी गरदन खूब ऊँची उठानी पड़ी मुझे| अजनबी ऊँचे कद का रहा| ‘कहीं नहीं देखा मुझे?’ वह फिर हँसने लगा| ‘देखा है|’ –मैंने कहा| ‘कहाँ?’ ज़रूर देख रखा था मैंने उसे, लेकिन याद नहीं आया मुझे, कहाँ| टेलीफोन की घंटी ने मुझे जवाब देने से बचा लिया| ‘कौन है?’ टेलीफोन की घंटी सुनकर इधर आ रही माँ हमारी ओर बढ़ आयीं| टेलीफोन के कमरे से फाटक दिखाई देता था| ‘मुझे नहीं पहचाना?’ आगन्तुक हँसा| ‘नहीं| नहीं पहचाना|’ माँ मुझे घसीटने लगीं| फाटक से दूर| मैं चिल्लाया, ‘मेरा बाइक| मेरा बाइक…..’ आँगन में पहुँच लेने के बाद ही माँ खड़ी हुईं| ‘हिम्मत देखो उसकी| यहाँ चला आया…..|’ ‘कौन?’ बाबा वुल्फ़ के कान थपथपा रहे थे| जो सींग के समान हमेशा ऊपर की दिशा में खड़े रहते| वुल्फ़ को उसका नाम छोटे भैयाने दिया था- ‘भेड़िए और कुत्ते एक साझे पुरखे से पैदा हुए हैं|’ तीन साल पहले वही इसे यहाँ लाए रहे- ‘जब तक अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई करने हेतु मैं यह शहर छोडूँगा, मेरा वुल्फ़ आपकी रखवाली के लिए तैयार हो जाएगा|’ और सच ही में डेढ़ साल के अन्दर वुल्फ़ ने अपने विकास का पूर्णोत्कर्षप्राप्त कर लिया था| चालीस किलो वजन, दो फुट ऊँचाई, लम्बी माँस-पेशियाँ, फानाकर सिर, मजबूत जबड़े, गुफ़्फ़ेदार दुम और चितकबरे अपने लोम चर्मके भूरे और काले आभाभेद| ‘हर बात समझने में तुम्हें इतनी देर क्यों लग जाती है?’ माँ झाल्लायीं- ‘अब क्या बताऊँ कौन है? ख़ुद क्यों नहीं देख आते कौन आया है? वुल्फ़ को मैं नहला लूँगी…..|’ “कौन है?’ बाबा बाहर आए तो मैं भी उनके पीछे हो लिया| ‘आज कुणाल का जनमदिन है’- अजनबी के हाथ में उसका बीस का नोट ज्यों का त्यों लहरा रहा था| ‘याद रख कचहरी में धरे तेरे बाज़दावे की कापी मेरे पास रखी है| उसका पालन न करने पर तुझे सज़ा मिल सकती है…..’ ‘यह तुम्हारे लिए है’-अजनबी ने बाबा की बात पर तार्किक ध्यान न दिया औरबेखटके फाटक की सलाखों में से अपना नोट मेरी ओर बढ़ाने लगा| ‘चुपचाप यहाँ से फुट ले’-बाबा ने मुझे अपनी गोदी में उठा लिया- ‘वरना अपने अलसेशियन से तुझे नुचवा दूँगा…..|’ वह गायब हो गया| ‘बाज़दावा क्या होता है?’ मैंने बाबा के कंधे अपनी बाँहों में भर लिए| ‘एक ऐसा वादा जिसे तोड़ने पर कचहरी सज़ा सुनाती है…..|’ ‘उसने क्या वादा किया?’ ‘अपनीसूरत वह हमसे छिपाकर रखेगा…..|’ ‘क्यों?’ ‘क्योंकि वह हमारा दुश्मनहै|’ इस बीच टेलीफोन की घंटी बजनी बंद हो गयी और बाबा आँगन में लौट लिए| दोपहर में जीजी आयीं| एक पैकेट केसाथ| ‘इधर आ’-आते ही उन्होंने मुझे पुकारा, ‘आज तेरा जन्मदिन है|’ मैं दूसरे कोने में भाग लिया| ‘वह नहीं आया?’ माँ ने पूछा| ‘नहीं’-जीजी हँसी- ‘उसे नहीं मालूम मैं यहाँ आई हूँ| यही मालूम है मैं बाल कटवा रही हूँ…..|’ ‘दूसरा आया था’-माँ ने कहा- ‘जन्मदिन का इसे बीस रूपया दे रहा था, हमने भगा दिया…..|’ ‘इसे मिला था?’ जीजी की हँसी गायब ही गयी| ‘बस| पल, दो पल|’ ‘कुछ बोला क्या? इससे?’ ‘इधर आ’-जीजी ने फिर मुझे पुकारा- ‘देख, तेरे लिए एक बहुत बढ़िया ड्रेस लायी हूँ…..|’ मैं दूसरे कोने में भाग लिया| वे मेरे पीछे भागीं| ‘क्या करती है?’ माँ ने उन्हें टोका- ‘आठवाँ महीना है तेरा| पागल है तू?’ ‘कुछ नहीं बिगड़ता’-जीजी बेपरवाही से हँसी- ‘याद नहीं, पिछली बार कितनी भाग-दौड़ रही थी फिर भी कुछ बिगड़ा था क्या?’ ‘अपना ध्यान रखना अब तेरी अपनी ज़िम्मेदारी है’-माँ नाराज़ हो ली- ‘इस बार मैं तेरी कोई ज़िम्मेदारी न लूँगी…..|’ ‘अच्छा’-जीजी माँ के पास जा बैठीं- ‘आप बुलाइए इसे| आपका कहा बेकहा नहीं जाता…..|’ ‘इधर आ तो’-माँ ने मेरी तरफ़ देखा| अगले पल मैं उनके पास जा पहुँचा| ‘अपना यह नया ड्रेस देख तो|’ जीजी ने अपने पैकेट की ओर अपने हाथ बढ़ाए| ‘नहीं|’ –जीजी की लायी हुई हर चीज़ से मुझे चिढ़ रही| तभी से जब से मेरे मना करने के बावजूद वे अपना घर छोड़कर उस परिवार के साथ रहने लगी थीं, जिसका प्रत्येक सदस्य मुझे घूर-घूर कर घबरा दिया करता| ‘तू इसे नहीं पहनेगा?’ –माँ ने पैकेट की नयी कमीज और नयी नीकर मेरे सामने रख दी- ‘देख तो, कितनी सुंदर है|’ बाहर फाटक पर वुल्फ़ भौंका| ‘कौन है बाहर?’ बाबा दूसरे कमरे में टी.वी. पर क्रिकेट मैच देख रहे थे- ‘कौन देखेगा?’ ‘मैं देखूँगी?’ –माँ हमारे पास से उठ गयीं- ‘और कौन देखेगा?’ मैं भी उनके पीछे जाने के लिए उठ खड़ा हुआ| ‘वह आदमी कैसा था, जो सुबह आया रहा?’ जीजी धीरे से फुसफुसायीं| अकेले में मेरे साथ वेअकसर फुसफुसाहटों में बात करतीं| अपने क़दम मैंने वहीं रोक लिए और जीजी के निकट चला आया| उस अजनबी के प्रति मेरी जिज्ञासा ज्यों की त्यों बनी हुई थी| ‘वह कौन है?’ मैंने पूछा| ‘एक ज़माने का एक बड़ा कुश्तीबाज़’-जीजी फिर फुसफुसायीं- ‘इधर, मेरे पास आकर बैठ| मैं तुझे सब बताती हूँ…..|’ ‘क्या नाम है?’ ‘मंगत पहलवान…..|’ ‘फ्री-स्टाइल वाला?’ कुश्ती के बारे … Read more