जमा-मनफ़ी
कहते हैं कि स्त्री के दोनों हाथों में लड्डू नहीं हो सकते …कुछ पा के भी उसे बहुत कुछ खोना पड़ता है … एक स्त्री जिसे हम सशक्त स्त्री कहते हैं उसके भी दर्द होते हैं, जिसे वो अपनी उपलब्द्धियों के आवरण में छुपा कर मुस्कुराती दिखती है | सशक्त स्त्री के दर्द, स्त्री विमर्श का वो अँधेरा कोना है जिस पर स्त्री रचनाकारों की कलम भी बहुत कम ही चली है | जमा-मनफ़ी वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की एक ऐसी ही कहानी है जो ऐसे ही एक अँधेरे कोने का सच सामने रखती है | कहानी एक रहस्य के साथ आगे बढती है और अंत में पाठक पर एक गहरा प्रभाव छोडती है | आइये पढ़ें …… कहानी -जमा मनफी पपा के दफ़्तर पहुँचते-पहुँचते मुझे चार बज जाते हैं| वे अपने ड्राइंगरूम एरिया के कम्प्यूटर पर बैठे हैं| अपनी निजी सेक्रेटरी, रम्भा के साथ| दोनों खिलखिला रहे हैं| “रम्भा से आज कुछ भी ठग लो,” मुझे देखते ही पपा अपनी कम्प्यूटर वाली कुर्सी से उठकर मुझे अपने अंक में ले लेते हैं, “इसने अभी कुछ देर पहले ५०,००० रुपए बनाए हैं…..” “कैसे?” उनके आलिंगन के प्रति मैं विरक्त हो उठती हूँ| पहले की तरह उसके उत्तर में अपनी गाल उनकी गाल पर नहीं जा टिकाती| “शेयर्स से| सुबह जो शेयर ख़रीदे थे उनकी कीमत तीन बजे तक पांच गुणा चढ़ गई और इसने उन्हें बेचडाला| बधाई दो इसे…..” “इधर मैं इसे बधाई देने ही तो आई हूँ,” पपा से मैं थोड़ी अलग जा खड़ी होती हूँ, “इसकी ड्राइविंग सीखने के लिए और इसकी नई ऑल्टो के लिए…..” रम्भा की खिलखिलाहट लोप हो रही है| हरीश ने तो सिखाई नहीं होगी,” मैं व्यंग्य कर रही हूँ| रम्भा हरीश की पत्नी है, जो पपा केरिटायरमेन्ट के समय के सरकारी दफ़्तर में एक जूनियर पी. ए. है और पपा ने उससे जब अपनी रिटायरमेन्ट के बाद खोली गई अपनी इस नईकन्सलटेन्सी के लिए एक निजी सेक्रेटरी की ज़रुरत की बात की थी तो उसने रम्भा को आन पेश किया था| ५००० रु. माहवार पर| “किचन को फ़ोन करो, रम्भा,” पपा तुरंत स्थिति संभाल ले जाते हैं, “तीन चाय और एक प्लेट पनीर पकौड़े इधर भेज दे…..” “जी, सर,” मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना रम्भा सोफ़े के बगल में रखे फ़ोन पर तीन अंक घुमाकर पूछती है, “किचन?” पपा ने अपना यह दफ़्तर अपने एक मित्र के गेस्ट हाउस के एक स्वीट में खोल रखा है जिसकी रसोईसे जोचाहें, जब चाहें, कुछ भी मँगवा सकते हैं| सच पूछें तो यह पपा का दफ़्तर कम और अतिथि आवास ज़्यादा है| शहर से बाहर के अपने मित्रों और परिवारजन को पपा यहीं ठहराते हैं| उधर ममा के पास नहीं| “पपा, मेरे लिए कुछ मत मंगवाइए,” पहले की तरह सोफ़ा ग्रहण करने की बजाए मैं वहीं खड़ी रहती हूँ, “मुझे आप से एक बात करनी है| सौरभ के बारे में| अकेले में|” सौरभ मेरे पति हैं| १९९३ से| रईस पिता के इकलौते बेटे| शहर के सबसे बड़े मॉल की एक बड़ी दुकानके अपने पिता की साझेदारी के मालिक| पंद्रह वर्षीय मेरे रोहित और ग्यारह वर्षीया मेरी वृन्दा के पिता| “अकेले में?” हड़बड़ाकर पपा रम्भा की ओर देखते हैं| “मैं जाऊँ?” वह अपनी हीं-हीं छोड़तीहै| पिछले शनिवार के अंदाज़ में| सौरभ उस दिन बच्चों को अपने क्लब के स्विमिंग पूल ले जा रहे थे और मैं ममा-पपा से मिलने उनके घर पर गई हुई थी| रम्भा उस समय वहीं थी| अभी तीन हीदिन पहले पपा ने मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया था और उन दिनों दफ़्तर नहीं जा रहे थे| रम्भा ही दफ़्तर से डाक ला रही थी| लंचके लिए जब हमारा नौकर, परसराम, पपा को बुलाने गया तो उन्होंने उससे खाने की मेज़ पर रम्भा की प्लेट भी लगवा ली| “यह लड़की बाद में खाएगी,” माँ ने मेज़ पर पहुँचते ही परसराम को रम्भा की प्लेट उठा ले जाने का आदेश दिया| जबतक पपा भी रम्भा के साथ वहां पहुँच लिए, “या तो यह लड़की भी अभी खाएगी या फिर मैं बाद में इसके साथ खाऊँगा…..” “नो को हौर्टिन्ग विद अ सर्फ़ औन माए टेबल,” (अपनी मेज़ पर मुझे एक दास की संगत स्वीकार नहीं), रम्भा की कमज़ोर अंग्रेज़ी का लाभ उठाते हुए ममा ने अंग्रेज़ी में पपा से कहा| “वह दास नहीं है,” रम्भा की सुविधा के लिए पपा हिंदी में बोले, “मेरी मित्र है| मेरी मेहमान है…..” हाथ बांधकर परसराम ममा की ओर देखने लगा| पढ़िए– लोकप्रिय कहानी -वृक्षराज पपा से ज़्यादा वह ममा की बात मानता है| जानता है उसे पक्की सरकारी नौकरी दिलाने में ममा उसके लिए अधिक सहायक सिद्ध हो सकती हैं| यों तो पपा और ममा आए.ए.एस. में एक ही साल १९७० में आए थे और रिटायर भी एक ही साल, २००५ में हुए थे, ममा मार्च में और पपा सितंबर में, किंतु ममा को अपनी एक विदेशी पोस्टिंग के आधार पर सार्वजनिक एक विशाल संस्था में अध्यक्षा की नियुक्ति मिल गई थी| १ अप्रैल, २००५ ही से| रिटायरमेंट के बाद का एक दिन भी उनका खाली नहीं गया था| जैसे पपा के जनवरी तक के पूरे चार माह| “लेट-अप यौर टेम्पर ममा| लेट इट बी,” मैंने ममा को संकेत दिया, (वे अपने गुस्से को विराम दे दें और ऐसा ही चल लेने दें)| “येट अगेन? (एक बार फिर?)”, ममा का चेहरा बुझ चला, “बट शी इज़ नॉट आर इक्युल(किंतु वह हमारे बराबर की नहीं…..)” “क्यों?” पपा चिल्ला पड़े, “उसके हाथ में उंगलियाँ कम हैं? या खाने के लिए मुंह ज़्यादा हैं?” “मैं जाऊँ?” रम्भा ने पपा की ओर देखकर अपनी हीं-हीं छोड़ी| उसकी इसी हीं-हीं की बारम्बारता को देखते हुए हम माँ-बेटी उसे अकेले में ‘लाफ़िंग गैस’ (हास्स-गैस) पुकारा करते हैं| “आए डिड नॉट वौंट टु शेयर द डेलिकेसीज दैट आए हैड गौट फ़ौर यू(तुम्हारे लिए विशेष बना भोजन मैं उसके साथ बाँटना नहीं चाहती थी),” ममा की आवाज़ टूटने लगी| “रिमिट यौर हौटर, ममा(अपना दर्प छोड़ दो, माँ)| फ़ौर माए सेक (मेरी ख़ातिर)|” “ठीकहै,” ममा ने परसराम को संबोधित किया, “सभी प्लेट यहीं रहने दो…..” खाने की कुर्सी के पास खड़ी रम्भा ने अपनी हास-गैस फिर छोड़ी| पपा की ओर देखते हुए| “बैठो, रम्भा,” पपा से पहले मैंने उसे कह दिया| मर्यादा बनाए रखने के लिए … Read more