जमा-मनफ़ी

कहते हैं कि स्त्री के दोनों हाथों में लड्डू नहीं हो सकते …कुछ पा के भी उसे बहुत कुछ खोना पड़ता है … एक स्त्री जिसे हम सशक्त स्त्री कहते हैं उसके भी दर्द होते हैं, जिसे वो अपनी उपलब्द्धियों के आवरण में छुपा कर मुस्कुराती दिखती है | सशक्त स्त्री के दर्द, स्त्री विमर्श का वो अँधेरा कोना है जिस पर स्त्री रचनाकारों की कलम भी बहुत कम ही चली है | जमा-मनफ़ी वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की एक ऐसी ही कहानी है जो ऐसे ही एक अँधेरे कोने का सच सामने रखती है | कहानी एक रहस्य के साथ आगे बढती है और अंत में पाठक पर एक गहरा प्रभाव छोडती है | आइये पढ़ें …… कहानी -जमा मनफी  पपा के दफ़्तर पहुँचते-पहुँचते मुझे चार बज जाते हैं| वे अपने ड्राइंगरूम एरिया के कम्प्यूटर पर बैठे हैं| अपनी निजी सेक्रेटरी, रम्भा के साथ| दोनों खिलखिला रहे हैं| “रम्भा से आज कुछ भी ठग लो,” मुझे देखते ही पपा अपनी कम्प्यूटर वाली कुर्सी से उठकर मुझे अपने अंक में ले लेते हैं, “इसने अभी कुछ देर पहले ५०,००० रुपए बनाए हैं…..” “कैसे?” उनके आलिंगन के प्रति मैं विरक्त हो उठती हूँ| पहले की तरह उसके उत्तर में अपनी गाल उनकी गाल पर नहीं जा टिकाती| “शेयर्स से| सुबह जो शेयर ख़रीदे थे उनकी कीमत तीन बजे तक पांच गुणा  चढ़ गई और इसने उन्हें बेचडाला| बधाई दो इसे…..” “इधर मैं इसे बधाई देने ही तो आई हूँ,” पपा से मैं थोड़ी अलग जा खड़ी होती हूँ, “इसकी ड्राइविंग सीखने के लिए और इसकी नई ऑल्टो के लिए…..” रम्भा की खिलखिलाहट लोप हो रही है| हरीश ने तो सिखाई नहीं होगी,” मैं व्यंग्य कर रही हूँ| रम्भा हरीश की पत्नी है, जो पपा केरिटायरमेन्ट के समय के सरकारी दफ़्तर में एक जूनियर पी. ए. है और पपा ने उससे जब अपनी रिटायरमेन्ट के बाद खोली गई अपनी इस नईकन्सलटेन्सी के लिए एक निजी सेक्रेटरी की ज़रुरत की बात की थी तो उसने रम्भा को आन पेश किया था| ५००० रु. माहवार पर| “किचन को फ़ोन करो, रम्भा,” पपा तुरंत स्थिति संभाल ले जाते हैं, “तीन चाय और एक प्लेट पनीर पकौड़े इधर भेज दे…..” “जी, सर,” मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना रम्भा सोफ़े के बगल में रखे फ़ोन पर तीन अंक घुमाकर पूछती है, “किचन?” पपा ने अपना यह दफ़्तर अपने एक मित्र के गेस्ट हाउस के एक स्वीट में खोल रखा है जिसकी रसोईसे जोचाहें, जब चाहें, कुछ भी मँगवा सकते हैं| सच पूछें तो यह पपा का दफ़्तर कम और अतिथि आवास ज़्यादा है| शहर से बाहर के अपने मित्रों और परिवारजन को पपा यहीं ठहराते हैं| उधर ममा के पास नहीं| “पपा, मेरे लिए कुछ मत मंगवाइए,” पहले की तरह सोफ़ा ग्रहण करने की बजाए मैं वहीं खड़ी रहती हूँ, “मुझे आप से एक बात करनी है| सौरभ के बारे में| अकेले में|” सौरभ मेरे पति हैं| १९९३ से| रईस पिता के इकलौते बेटे| शहर के सबसे बड़े मॉल की एक बड़ी दुकानके अपने पिता की साझेदारी के मालिक| पंद्रह वर्षीय मेरे रोहित और ग्यारह वर्षीया मेरी वृन्दा के पिता| “अकेले में?” हड़बड़ाकर पपा रम्भा की ओर देखते हैं| “मैं जाऊँ?” वह अपनी हीं-हीं छोड़तीहै| पिछले शनिवार  के अंदाज़ में| सौरभ उस दिन बच्चों को अपने क्लब के स्विमिंग पूल ले जा रहे थे और मैं ममा-पपा से मिलने उनके घर पर गई हुई थी| रम्भा उस समय वहीं थी| अभी तीन हीदिन पहले पपा ने मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया था और उन दिनों दफ़्तर नहीं जा रहे थे| रम्भा ही दफ़्तर से डाक ला रही थी| लंचके लिए जब हमारा नौकर, परसराम, पपा को बुलाने गया तो उन्होंने उससे खाने की मेज़ पर रम्भा की प्लेट भी लगवा ली|   “यह लड़की बाद में खाएगी,” माँ ने मेज़ पर पहुँचते ही परसराम को रम्भा की प्लेट उठा ले जाने का आदेश दिया| जबतक पपा भी रम्भा के साथ वहां पहुँच लिए, “या तो यह लड़की भी अभी खाएगी या फिर मैं बाद में इसके साथ खाऊँगा…..” “नो को हौर्टिन्ग विद अ सर्फ़ औन माए टेबल,” (अपनी मेज़ पर मुझे एक दास की संगत स्वीकार नहीं), रम्भा की कमज़ोर अंग्रेज़ी का लाभ उठाते हुए ममा ने अंग्रेज़ी में पपा से कहा| “वह दास नहीं है,” रम्भा की सुविधा के लिए पपा हिंदी में बोले, “मेरी मित्र है| मेरी मेहमान है…..” हाथ बांधकर परसराम ममा की ओर देखने लगा| पढ़िए– लोकप्रिय कहानी -वृक्षराज पपा से ज़्यादा वह ममा की बात मानता है| जानता है उसे पक्की सरकारी नौकरी दिलाने में ममा उसके लिए अधिक सहायक सिद्ध हो सकती हैं| यों तो पपा और ममा आए.ए.एस. में एक ही साल १९७० में आए थे और रिटायर भी एक ही साल, २००५ में हुए थे, ममा मार्च में और पपा सितंबर में, किंतु ममा को अपनी एक विदेशी पोस्टिंग के आधार पर सार्वजनिक एक विशाल संस्था में अध्यक्षा की नियुक्ति मिल गई थी| १ अप्रैल, २००५ ही से| रिटायरमेंट के बाद का एक दिन भी उनका खाली नहीं गया था| जैसे पपा के जनवरी तक के पूरे चार माह| “लेट-अप यौर टेम्पर ममा| लेट इट बी,” मैंने ममा को संकेत दिया, (वे अपने गुस्से को विराम दे दें और ऐसा ही चल लेने दें)| “येट अगेन? (एक बार फिर?)”, ममा का चेहरा बुझ चला, “बट शी इज़ नॉट आर इक्युल(किंतु वह हमारे बराबर की नहीं…..)” “क्यों?” पपा चिल्ला पड़े, “उसके हाथ में उंगलियाँ कम हैं? या खाने के लिए मुंह ज़्यादा हैं?” “मैं जाऊँ?” रम्भा ने पपा की ओर देखकर अपनी हीं-हीं छोड़ी| उसकी इसी हीं-हीं की बारम्बारता को देखते हुए हम माँ-बेटी उसे अकेले में ‘लाफ़िंग गैस’ (हास्स-गैस) पुकारा करते हैं| “आए डिड नॉट वौंट टु शेयर द डेलिकेसीज दैट आए हैड गौट फ़ौर यू(तुम्हारे लिए विशेष बना भोजन मैं उसके साथ बाँटना नहीं चाहती थी),” ममा की आवाज़ टूटने लगी| “रिमिट यौर हौटर, ममा(अपना दर्प छोड़ दो, माँ)| फ़ौर माए सेक (मेरी ख़ातिर)|” “ठीकहै,” ममा ने परसराम को संबोधित किया, “सभी प्लेट यहीं रहने दो…..” खाने की कुर्सी के पास खड़ी रम्भा ने अपनी हास-गैस फिर छोड़ी| पपा की ओर देखते हुए| “बैठो, रम्भा,” पपा से पहले मैंने उसे कह दिया| मर्यादा बनाए रखने के लिए … Read more

वृक्षराज

यूँ तो वृक्षों के रूप में प्रकृति ने हमें अनमोल खजाना दिया है , परन्तु उनमें से कुछ वृक्ष विशेष रूप से पूजे जाते हैं | देखा गया है कि जो वृक्ष पूजे जाते हैं उनका आयुर्वेद में बहुत महत्व है | लेकिन जब हम किसी वृक्ष नदी या पहाड़ को पूजने लगते हैं तो वो प्रकृति ही नहीं हमारी आस्था का केंद्र भी हो जाता है , और हर छोटे बड़े संकट में हमारा संबल बनता है , चाहें वो मामूली बुखार हो या युद्ध की विभीषिका | ये कहानी भी कुछ ऐसी ही कहानी है जहाँ पृष्ठभूमि में भारत -पाक का १९६५ का युद्ध है ….परन्तु घर के बाहर लगे हुए वृक्षराज पीपल इसमें भी एक अनोखे रूप में साथ है | वो अनोखा रूप क्या है … जानने के लिए पढ़ें वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी ………. वृक्षराज कलरात मुझे अमृतसर का अपना पुराना पीपल फिर दिख गया| हूबहू वैसा ही, जैसा लगभग पचास वर्ष पूर्व हम पीछे छोड़ आए थे और जिसके काटे जाने पर वहां हुए हंगामे की खबर के साथ मैं पिछली रात सोने गयी थी| साथ ही दिख गयी तिमंजिले अपने किराए के मकान की तीसरी मंजिल वाली वह खिड़की, जहाँ से माँ की संगति में हम भाई बहन ने उस चीनी मिल को धराशायी होते हुए देखा था जहाँ हमारे पिता रसायनज्ञ थे| वह मिल अमृतसर के औद्योगिक क्षेत्र, छहरटे, में स्थित थी| खांडवाले चौक के अंदर| जिसके ऐन सामने वह पीपल पड़ता था जिसने हमारी से बीस  गली को उसकी पहचान दे रखी थी, पीपल वाली गली| वह पीपल था तो हमारे मकानसे बीस फुट की दूरी पर मगर उसके पत्ते गली के दूसरे ऊँचे मकानों की छतों की तरह हमारी छत पर भी आन झूमते थे| अपनी लंबी शाखाओं के संग| बिना किसी तेज़ हवा का झोंका लिए| माँ कहतीं, इन पत्तों में देवता वास करते हैं| जभी तो इनमें ऐसी झूम है| जिस पर नास्तिक रहे हमारे बाबूजी हम भाई-बहन की ओर देख कर हँस देते, ये पत्ते तो इसलिए लहराया करते हैं क्योंकि उनकी डंडियाँ लंबी हैं और उनके ढाँचे चौड़े जो अपने अंतिम छोर तक पहुँचते-पहुँचते क्रमशः पतले होते जाते हैं| हम दोनों भाई बहन भी बाबूजी की ओर देखकर हँसने लगते| बचपन में हम दोनों बाबूजी से एकमत रखते थे, माँ से नहीं| तिस पर भी माँ अपनी जमीन छोड़ती नहीं, अड़ी रहतीं| पीपल वाली बात पर भी अड़ जाया करतीं, “आपकी तिकड़ी के मानने न मानने से क्या होता है? यहाँ तो गली के हम तमाम लोग सुबह उठकर इसी की पूजा-अर्चना करते हैं| इसे ही जल चढ़ाते हैं| जानते जो हैं जड़ से यह ब्रह्मस्वरूप है, तने से विष्णुस्वरूप और अग्रभाग से शिव-स्वरुप| जभी तो भगवद् गीतामें श्रीकृष्ण ने यह घोषणा भीकी थी, ‘पेड़ों में मैं पीपल हूँ|’ और आप जो विज्ञान कीबात करते हो तो आयुर्वेद भी तो वनस्पति-विज्ञान की समझ रखता है और उसी समझ से इस के पत्तों को दमे, मिरगी, मधुमेह, पीलिया और पेट के रोगों के इलाज के लिए प्रयोगमेंलाया करता है|”  इसपर बाबूजी फिर मुस्कुराने लगते, ‘मगर आयुर्वेद पर विश्वास ही कितने लोग रखते हैं? हम लोग भी तो बीमारी में किसी एलोपैथ ही का इलाज मानते हैं|’ पचास-साठ वर्ष पहले जन-सामान्य में आयुर्वेद आज जितना लोकप्रिय नहीं रहा था| तथापि स्थिति तत्थोथंभो नहीं रह पायी| अन्तोगत्वा उस पीपल ने हम तीनों के मन में भी अपनी जगह बना ही डाली| सन् १९६५ के सितंबर माह में जिस की ६ तारीख से हमारे एक पड़ोसी देश तथा हमारे देश की वायु सेनाओं के बीच भिड़ंतें शुरू हुई थीं, साथ ही उसकी सीमा से लगे हमारे अमृतसर के आकाश में लड़ाकू विमानों की आवाजाही और उनके युद्ध के संघर्ष| वैसे तो सन् १९६५ शुरू ही हुआ था कच्छ के रणक्षेत्र वाली भारत-पाक सीमा की झड़पों के साथ| जो अगस्त तक आते-आते सियालकोट तथा जम्मू-काश्मीर पर जा केंद्रित हुई थीं| फिर उधर से पाकिस्तान का ध्यान बाँटने के निश्चय के साथ हमारी पैदल सेना अमृतसर से कुल जमा तीस मील की दूरी पर स्थित लाहौर की सीमा जा लांघी थी| उस पर त्रिभुजीय धावा बोलती हुई| ६ सितंबर के दिन| वहां के बाटापुर, बरकी और डगराई केकईभाग अपने कब्जे में लेती हुई| और यों बढ़ते-बढ़ते हमारी सेना इच्छोगिल नहर तक भी पहुँच ली थी| और उसी शाम पाकिस्तानी वायुसेना ने जब हमारे पठानकोट, आदमपुर और हलवाड़ा के हवाई अड्डों पर बमबारी की तो जवाबी हवाई हमलोंका दौर शुरू हो चला| इतिहासकार बताते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद टैंकों से हुई यह लड़ाई सर्वाधिक भीषण रही थीजब एक-दूसरे के राज्य क्षेत्र में इंच भर भी आगे बढ़ने के लिए जबरदस्त टक्कर ली जाती थी| किन्तु विकट उस समय में भी गली-वासी अपना जीवट अपने अधिकार में रखे रहे थे| आकाशमें विचर रहे युद्धक विमान उनमें भय कम और जिज्ञासा अधिक जगाते थे| हमारे बाबूजी हैरान हो जाया करते जब वह देखते, जिला प्रशासन द्वारा जारी किए गए ए. आर. पी. (एयर-रेड प्रीकौशन्ज)- हवाई हमलों के दौरान ली जाने वाली सावधानियों की जानकारी के बावजूद हमारे वे गली-वासी उनका उल्लंघन करने में तनिक न हिचकिचाते और खतरे का पहला सायरन बजते ही वे अपनी छत पर या ऊँची खिड़कियों पर जा खड़े होते| हालाँकि प्रशासन ने हम नागरिकों पर यह स्पष्ट कर रखा था कि हवाई बमबारी से अपने को सुरक्षित रखने का उत्तरदायित्व सीधा-सीधा प्रत्येक नागरिक को स्वयं निभाना था और हमारी सुविधा के लिए हमें सावधान करने हेतु प्रशासन ने सायरन बजाने का आयोजन किया था| राडार पर शत्रु विमान को देखते ही एकल सायरन बजता था| तीन मिनट तक अविराम| और फिर शत्रु के विमान के लौटने पर या ध्वंसित हो जाने पर ‘ऑल क्लियर’ का सिगनल देने हेतु तीन सायरन बजाए जाते थे, जिनमें प्रत्येक दो सायरनों के बीच दो-दो मिनट के अंतराल रहते थे| तथा हमें यह विशेष रूप से समझाया जा चुका था कि पहले और अंतिम उन सायरनों के बीच के समय पर हमें या तो अपने घरों की खाली जमीन पर खोदी गयी खन्दकों में शरण ले लेनी चाहिए या उन खन्दकों के उपलब्ध न रहने पर अपने कमरे के कोनों में जा खड़े होना चाहिए| सच पूछें तो हमारे … Read more

बिगुल

यूँ तो बिगुल बजाना एक मुहावरा भी है पर यहाँ पर बात हो रही है बिगुल वाद्य यंत्र की | आपने पुलिस बैंड में बिगुल जरूर सुना होगा , जोश उत्पन्न  करने वाले इस वाद्य यंत्र को बजने की खास तकनिकी होती है | इस कहानी की माध्यम से आदरणीय दीपक शर्मा जी भी पाठकों के ह्रदय में अपनी लेखनी  के जादू का  बिगुल बजा रहीं हैं | दीपक शर्मा जी के लेखन की ख़ास बात है कि कहानी छोटी हो या बड़ी , वो उसको लिखने से पहले विषय का ख़ासा अध्यन  करती हैं | उनकी ये बात उन्हें आम लेखन से अलग करती है | आइये पढ़ें पाखी में प्रकाशित उनकी कहानी ……….. बिगुल  “तुम्हें घोर अभ्यास करना होगा”, बाबा ने कहा, “वह कोई स्कूली बच्चों का कार्यक्रम नहीं जो तुम्हारी फप्फुप फप्फुप को वे संगीत मान लेंगे…” जनवरी के उन दिनों बाबा का इलाज चल रहा था और गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या पर आयोजित किए जा रहे पुलिस समारोह के अंतर्गत मेरे बिगुल-वादन को सम्मिलित किया गया था बाबा के अनुमोदन पर।      “मैं सब कर लूँगी, आप चिंता न करें…” मैंने कहा।      उनके सामने बिगुल बजाना मुझे अब अच्छा नहीं लगता।      वे खूब टोकते भी और नए सिरे से अपने अनुदेश दोहराते भी;      “बिगुल वाली बांह को छाती से दूर रखो, तभी तुम्हारे फेफड़े तुम्हारे मुँह में बराबर हवा पहुँचा सकेंगे…”      “अपने होंठ बिगुल की सीध में रखो और उन्हें आपस में भिनकने मत दो…” इत्यादि…इत्यादि।      “कैसे न करूँ चिंता?” बाबा खीझ गए, “जाओ और बिगुल इधर मेरे पास लेकर आओ। देखूँ, उसमें, लुबरिकेन्ट की ज़रुरत तो नहीं…”       बिगुल का ट्युनिंग स्लाइड चिकनाने के लिए बाबा उसे अकसर लुबरिकेन्ट से लगाया करते।       “लाती हूँ…” बिगुल से बाबा का संबंध यदि एक झटके के साथ शुरू हुआ था तो उससे विच्छेद भी झटके के संग हुआ। पहला झटका उनकी पुलिस की पेट्रोल ड्यूटी ने उन्हें उनके पैंतीसवे वर्ष में दिया था जब उसके अंतर्गत अपनी दाहिनी टांग पर लगी चोट के परिणाम-स्वरूप वे पुलिस लाइन्स में ‘ब्यूगल कौलज़’ देने की ड्यूटी पाए थे और उनके लिए बिगुल सीखना अनिवार्य हो गया था।      दूसरा झटका उन्हें तब लगा था जब उसके चौथे ही वर्ष उसी घायल टांग की एक गहरी शिरा में जम रहे खून का एक थक्का वहाँ से छूटकर उनके फेफड़ों की एक नाड़ी में आन ठहरा था, जिस कारण बिगुल में जा रही उनकी फूँक तिड़ी-बिड़ी हो बाहर निकलने लगी थी।      सधी हुई उनकी उस पें-पों की भांति नहीं,जिसकी प्रबलता एवं मन्दता पुलिस लाइन्स के पुलिसियों की दैनिक परेड की स्थिति एवं कालावधि निश्चित करती रही थी, और जिसके, तद्नुसार वे आगे बढ़ते, दाएँ मुड़ते, पूरा घूमते और फिर छितर जाया करते।     यह ज़रूर था कि इन चार वर्षों में हम माँ-बेटी भी बाबा के बिगुल के संग उतना ही जुड़ चुकी थीं जितना वे स्वयं।     बल्कि उनसे भी ज़्यादा कारण बेशक अलग थे।       माँ के लिए वह उन बुरे दिनों में बाबा को उस प्रभामंडल में खिसकाने का माध्यम बन गया था जिसके प्रकाश में बाबा उसे किसी सेनापति से कम न दिखाई देते जबकि मेरे लिए वह एक ऐसी महाशक्ति का ध्योतक बन चुका था जिसके बूते पर अपने उस चौदहवें वर्ष तक पहुँचते-पहुँचते मैं कई संगीत प्रतियोगिताएँ जीत चुकी थी और कई और भी जीतने की मंशा रखती थी।     बाबा से बिगुल को उसके मन्द स्वर, फंडामेंटल से उसे अपर पार्शलज़, निर्धारित स्वरान्तराल के प्रबल से प्रबलतम स्वर पकड़ने में मुझे सिध्दि प्राप्त हो चुकी थी।      बल्कि यही नहीं उनसे बिगुल सीखते समय मैं उस पर नयी धुनें भी निकालने लगी थी। उसकी यंत्ररचना की सीमाओं के बावजूद। यहाँ यह बताती चलूँ कि बिगुल में किसी अन्य कपाट की अनुपस्थिति में सुर बदलने वाली कोई जुगत नहीं रहती हैं और उस पर केवल एक ही हारमोनिक सीरीज़ बजायी जा सकती है। जिस पर उसके सुर की फेंक का विस्तार करने वाली शंक्वाकार नली छोटी होती है और घंटी कम फैली हुई। ऐसे में सारा कमाल मुँह को बटोरकर उसके अन्दर हवा छोड़ने में है सही अनुपात में। जुबान से एक ‘सटौपर’ का काम लेते हुए।जो बिगुल के मुहाने पर जमे होंठों में बाहर की हवा के प्रवेश को रोके रखे और होंठ अपनी सिकोड़ को घटा-बढ़ा कर हवा में अपेक्षित स्फुरण पैदा कर सकें।     “बाहर आकर बाबा को संभालो”, अन्दर वाले कमरे में, बिगुल के पास माँ दिखाई दीं तो मैं झीखी, “वे मुझे फिर से बिगुल बजाने को कह रहे हैं और मुझसे उनकी हांका-हांकी और ठिनक-ठुनक अब और झेली नहीं जाती।     “अपने उस्ताद के बारे में ऐसे बोलती है?” बिना किसी चेतावनी के माँ ने ज़ोरदार एक तमाचा मेरे मुँह पर दे मारा, “जिनके फेफड़े उन्हें जवाब दे रहे है?”      “मतलब?” तमाचे की पीड़ा मैं भूल गयी।     “उनकी साँस अब समान रूप से चल नहीं पा रही और वे किसी भी दिन…”      माँ रोने लगीं।      “फिर हम क्या करेंगे? कहाँ जाएँगे?” बाबा के बिना अपने जीवन की कल्पना करना मेरे लिए असंभव रहा।     माँ ने मुझे अपने अंक में भर लिया और मेरे आँसू पोंछकर बोली “हम घबराएँगे नहीं। हौसला रखेंगे। हिम्मत रखेंगे। ताकत रखेंगे। उनमें ताकत भरेंगे। उनके ये मुश्किल दिन अच्छे से कटवाएँगे…”      “उन्हें मालूम है?” मुझे कंपकपी छिड़ गयी।       “नहीं। और उन्हें मालूम होना भी नहीं चाहिए…”       “बिट्टो,” आँगन से बाबा चिल्लाए, “लुबरिकेन्ट नहीं मिल रहा तो छोड़ो उसे। बिगुल ही लेती आओ…”      “पहुँच रही है”, माँ प्रकृतिस्थ हो चली।       कहना न होगा उस पुलिस समारोह में बिगुल को उसके पाँचों सुरों-बास, काउन्टरबास, बैरीटोन, औल्टो एवं सौपरैनो के धीमे, तीव्र, मन्द, मध्यम एवं प्रबल स्वरग्राम बांधने में मैं पूर्णतया सफल रही और जैसे-जैसे उनके विभिन्न संस्पन्दन एवं अनुनाद हवा में लहराते गए, तालियों की गड़गड़ाहट के संग-संग पहिएदार अपनी कुर्सी पर बैठे बाबा का अपनी मूंछों पर ताव भी बढ़ता चला गया।      मेरे बिगुल-वादन के एकदम बाद समारोह की अध्यक्षता कर रहे हमारे कस्बापुर के पुलिस अधीक्षक मंच पर चले आये : “पुत्री के रूप में हमारे सरनदास को एक अमोल … Read more

ताई की बुनाई

  सृजन से स्त्री का गहरा संबंध है | वो जीवंत  संसार को रचती है | उस का सृजन हर क्षेत्र में दीखता है चाहें वो रिश्ते हो , रसोई हो  , गृह सज्जा या फिर फंदे-फंदे  ऊन को पिरो कर बुनी गयी स्नेह की गर्माहट | लेकिन ये सारी  रचनाशीलता उसकी दूसरों को समर्पित हैं , अपने लिए तो चुटकी भर ख्वाब भी नहीं बन पाती | समाज को खटकता है | ताई ने ये जुर्रत करी, और परिणाम में …. ये विषय है वरिष्ठ लेखिका आदरणीय दीपक शर्मा जी की लोकप्रिय कहानी “ताई की बुनाई ” का | आइये पढ़ें शब्दों के फंदों  से बुनी इस बेहद मार्मिक कथा को … कहानी –ताई की बुनाई गेंद का पहला टप्पा मेरी कक्षा अध्यापिका ने खिलाया था|   उस दिन मेरा जन्मदिन रहा| तेरहवां|   कक्षा के बच्चों को मिठाई बांटने की आज्ञा लेने मैं अपनी अध्यापिका के पास गया तो वे पूछ बैठीं, “तुम्हारा स्वेटर किसने बुना है? बहुत बढ़िया नमूना है?”   “मेरी माँ ने,”रिश्ते में वे मेरी ताई लगती थीं लेकिन कई वर्षों तक मैं उन्हें अपनी माँ मानता रहा था, “घर में सभी लोग उनके बुने स्वेटर पहनते हैं|” “अच्छा!” मेरी कक्षा अध्यापिका ने अपनी मांग प्रस्तुत की, “क्या तुम नमूने के लिए मुझे अपना स्वेटर ला दोगे? कल या परसों या फिर अगले सप्ताह?” “वे अपने लिए कभी नहीं बुनतीं,” मैंने सच उगल दिया|   “आज घर जाते ही पिता से कहना उनके स्वेटर के लिए उन्हें ऊन लाकर दें…..” “अब अपने लिए एक स्वेटर बुनना, अम्मा,” शाम को जब ताऊजी घर लौटे तो मैंने चर्चा छेड़ दी, “तुम्हारे पास एक भी स्वेटर नहीं…..” अपने ताऊजी से सीधी बात कहने की मुझमें शुरू से ही हिम्मत न रही| “देखिए,” ताई ने हंस कर ताऊजी की ओर देखा, “क्या कह रहा है?” “हाँ, अम्मा,” मैं ताई से लिपट लिया| वे मुझे प्रिय थीं| बहुत प्रिय| “देखिए,” ताऊजी की स्वीकृति के लिए ताई उतावली हो उठीं, “इसे देखिए|”   “अच्छा, बुन लो| इतनी बची हुई तमाम ऊनें तुम्हारे पास आलमारी मेंधरी हैं| तुम्हारा स्वेटर आराम से बन जाएगा…..” ताई का चेहरा कुछ म्लान पड़ा किन्तु उन्होंने जल्दी ही अपने आपको संभाल लिया, “देखती हूँ…..” अगले दिन जब मैं स्कूल से लौटा तो ताई पालथी मारे ऊन का बाज़ार लगाए बैठी थीं| मुझे देख कर पहले दिनों की तरह मेरे हाथ धुलाने के लिए वे उठीं नहीं….. भांति-भांति के रंगों की और तरह-तरह की बनावट की अपनी उन ऊनों को अलग-अलग करने में लगी रहीं| “खाना,” मैं चिल्लाया| “चाची से कह, वह तुझे संजू और मंजू के साथ खाना परोस दे,” ताई अपनी जगह से हिलीं नहीं, “इधर ये ऊनें कहीं उलझ गयीं तो मेरे लिए एक नयी मुसीबत खड़ी हो जाएगी| तेरे बाबूजी के आने से पहले-पहले मैं इन्हें समेट लेना चाहती हूँ…..” उन दिनों हमसब साथ रहते थे, दादा-दादी, ताऊ-ताई, मंझली बुआ, छोटी बुआ, मेरे माता-पिता जिन्हें आज भी मैं ‘चाची’ और‘चाचा’ के सम्बोधन से पुकारता हूँ और मुझसे बड़े उनके दो बेटे, संजू और मंजू….. मुझसे पहले के अपने दाम्पत्य जीवन के पूरे ग्यारह वर्ष ताऊजी और ताई ने निःसन्तान काटे थे| दोपहर में रोज लम्बी नींद लेने वाली ताई उस दिन दोपहर में भी अपनी ऊनें छाँटने में लगी रहीं| “आज दोपहर में आप सोयींनहीं?” अपनी झपकी पूरी करने पर मैंने पूछा| “सोच रही हूँ अपना स्वेटर चितकबरा रखूँ या एक तरह की गठन वाली ऊनों को किसी एक गहरे रंग में रंग लूं?”   “चितकबरा रखो, चितकबरा,” रंगों का प्रस्तार और सम्मिश्रण मुझे बचपन से ही आकर्षित करता रहा है| अचरज नहीं, जो आज मैं चित्रकला में शोध कर रहा हूँ| शाम को ताऊजी को घर लौटने पर ताई को आवाज देनी पड़ी, “कहाँ हो?” ताई का नाम ताऊजी के मुख से मैंने एक बार न सुना|   यह ज़रूर सुना है सन् सत्तावन में जब ताई ब्याह कर इस घर में आयी थीं तो उनका नाम सुनकर ताऊजी ने नाक सिकोड़ा था, “वीरां वाली?” अपना नाम ताई को अपनी नानी से मिला था| सन् चालीस में| दामाद की निराशा दूर करने के लिए उन्होंने तसल्ली में कहा था, “यह वीरां वाली है| इसके पीछे वीरों की फ़ौज आ रही है…..” पंजाबी भाषा में भाई को वीर कहा जाता है और सचमुच ही ताई की पीठ पर एक के बाद एक कर उनके घर में उनके चार भाई आए| “मैं तुम्हें चन्द्रमुखी कह कर पुकारूँगा,” वैजयन्तीमाला की चन्द्रमुखी ताऊजी के लिए उन दिनों जगत की सर्वाधिक मोहक स्त्री रही होगी| अपने दाम्पत्य के किस पड़ाव पर आकर ताऊजी ने ताई को चन्द्रमुखी कहना छोड़ा था, मैं न जानता रहा| पढ़ें क्वाटर नंबर 23 “कहाँ हो?” ताऊजी दूसरी बार चिल्लाए| उन दिनों हमारे घर में घर की स्त्रियाँ ही भाग-दौड़ का काम किया करतीं| पति के नहाने, खाने, सोनेऔर ओढ़ने की पूरी-पूरी ज़िम्मेदारी पत्नी की ही रहती| “आ रही हूँ,” ताई झेंप गयीं| ताई को दूसरी आवाज देने की नौबत कम ही आती थी| अपने हिस्से के बरामदेमें ताऊजी की आहट मिलते ही हाथ में ताऊजीकी खड़ाऊंलेकर ताई उन्हें अकसर चिक के पास मिला करतीं, किन्तु उस दिन आहट लेने में ताई असफल रही थीं| “क्या कर रही थीं?” ताऊजी गरजे| “आज क्या लाए हैं?” ताऊजी को खड़ाऊ पहना कर ताई ने उनके हाथ से उनका झोला थाम लिया| ताऊजी को फल बहुत पसन्द रहे| अपने शाम के नाश्ते के लिए वे लगभग रोज ही बाज़ार से ताजा फल लाया करते| “एक अमरुद और एक सेब है,” ताऊजी कुछ नरम पड़ गए, “जाओ| इनकासलाद बना लाओ|” आगामी कई दिन ताई ने उधेड़बुन में काटे| अक्षरशः| रंगों और फंदों के साथ वे अभी प्रयोग कर रही थीं| कभी पहली पांत में कोई प्राथमिक रंगभरतीं तो दूसरी कतार में उस रंग के द्वितीय और तृतीय घालमेल तुरप देतीं, किन्तु यदि अगले किसी फेरे में परिणाम उन्हें न भाता तो पूरा बाना उधेड़ने लगतीं| फंदों के रूपविधान के संग भी उनका व्यवहार बहुत कड़ा रहा| पहली प्रक्रिया में यदि उन्होंने फंदों का कोई विशेष अनुक्रम रखा होता और अगले किसी चक्कर में फंदों का वह तांता उन्हें सन्तोषजनक न लगता तो वे तुरन्त सारे फंदे उतार कर नए सिरे से ताना गूंथने लगतीं| इस परीक्षण-प्रणाली से अन्ततोगत्वा … Read more

छल-बल

दूसरी औरत ये एक ऐसा भय है जो आम तौर पर पत्नियों में पाया जाता है | पति का मूड कुछ दिन उखड़ा -उखड़ा रहता है कि पत्नी की शक की सुई दूसरी औरत पर घूम जाती हैं, ” कहीं मेरे पति के जीवन में कोई दूसरी औरत तो नहीं | इतनी नज़र रखने , छानबीन तहकीकात करने के बावजूद कुछ पति पत्नी से दूर दूसरी औरत को मेनेज कर ही लेते हैं| जाहिर है इसके लिए कुछ तो छल-बल अपनाते ही होंगे , जिससे पत्नी का भावुक हृदय पिघल जाता होगा, कुछ ऐसा ही छल -बल कर रहे हैं आज की कहानी के नायक यानि बिट्टो के बाबूजी या ये केवल उनकी पत्नी की गलतफहमी ही है  | क्या है ? आइये जानते हैं दीपक शर्मा जी की कहानी छल -बल से | यहाँ एक ख़ास बात बताना चाहूंगी … आप पहली बार कहानी को पढेंगे आनंद लेंगे , लेकिन जब उसका तंज समझेंगे तो दोबारा पढेंगे   कहानी –छल-बल  आज से साठ साल पहले उस सन् १९५८ के उन दिनों बिट्टो की अम्मा की गर्भावस्था का नवमा महीना चल रहा था| एक दिन बिट्टो के स्कूल जाते समय उसके हाथ में उसके बाबूजी की चाभी रखकर बोलीं,  “ऊपरवाले खाने में एक ख़ाकी लिफ़ाफ़ा रखा है, वह मुझे लादे|” बिट्टो वह ख़ाकी लिफ़ाफ़ा तत्काल उठा लायी| अम्माने उसमें से कुछ रुपए निकाले और साथ में एक चवन्नी| चवन्नी बिट्टो को देकर बोलीं, “यह तेरे स्कूल के नाश्ते के लिए है| तबीयत ढीली होने की वजह से आज मुझसे कुछ बनाते बन नहीं रहा|” लिफ़ाफ़ा आलमारी में रखते समय उसी खाने में रखी उसके बाबूजी की डायरी उसकी नज़र से गुज़री| अपनी डायरी कायम रखनेमें बिट्टो के बाबूजी शुरू ही से बहुत पक्के थे| वह इंजन ड्राइवर थे| रेल कर्मचारियों की भाषा में मोटरमैन| उनकी ड्यूटी उन्हें दो-दो, तीन-तीन दिन तक घर सेअलग रखा करती किन्तु घर लौटने पर फ़ुरसत पाते ही वह अपनी आलमारी का ताला खोलते औरअपनी डायरी के साथ बैठ जाते| बिट्टो के पूछने पर कहते : इसमें मैं अपनी तनख्वाह का हिसाब रखता हूँ| घर का ख़र्च दर्ज करता हूँ और अपनी ड्यूटी के समय और स्थान का रिकॉर्ड रखता हूँ| “देखूँ,” जिज्ञासावश बिट्टो ने वह डायरी झपट ली और उसे पलटनेपर एक अनजाना शब्द उसे कई बार दिखाई दे गया| अपनी तीसरी जमात तक पहुँचते-पहुँचते उन दिनों बिट्टो अंगरेज़ी के अक्षर पहचानने लगी थी और उस अनजाने शब्द को उसने अपने स्कूल की रफ़ कॉपी पर उतार लिया और डायरी वापस धर दी| स्कूल पहुँचने पर उस शब्द का मतलब बिट्टो की अंगरेज़ी अध्यापक ने बताया : सैनेटोरियम| तपेदिक के रोगियों का आरोग्य-आश्रय जिसे विशेष रूप से किसी पहाड़ी स्थल पर बनाया जाता है ताकि रोगी के फेफड़े स्वस्थ, खुली हवा में साँस भर सकें| बिट्टो घर लौटी तो उसने अम्मा से पूछा- “हमारे परिवार में तपेदिक किसे है?” “मैं नहीं जानती,” अम्मा ने सिर हिलाया| “तुम्हें बताना होगा, अम्मा| वरना मैं खाना छोड़ दूँगी| भूखी रहूँगी,” बिट्टो ने ज़िद पकड़ ली| अम्मा की वह लाडली तो थी ही और अपनी बात मनवाने के लिए वह यही अचूक नुस्खा काम में लाया करती थी| उसे भूख के हवाले करना अम्मा के लिए असम्भव था| और वह बोल दी, “जहाँ तक मैं जानती हूँ तेरे बाबूजी की एक रिश्तेदारिन थी जिसे तपेदिक हुआ था| मगर उसे मरे हुए तो साल बीत गए…..” “फिर तपेदिक के अस्पताल में बाबूजी अभी भी तीस रुपए किसे भेजते हैं?” बिट्टो ने पूछा| “तूने कैसे जाना?” अम्मा का रंग पीला पड़ने लगा| “आलमारी की चाभी दो| अभी तुम्हें बाबूजी की डायरी के पन्ने दिखलाती हूँ…..” बिट्टो बोली| अम्मा अंगरेज़ी नहीं जानती थी, लेकिन लिखी हुई रकम की पहचान रखती थी| डायरी देखते देखते अम्मा मूर्च्छित हो गयीं| घबराकर बिट्टो ने पड़ोसिन को बुलाया, “मौसी…..” जिस रेलवे कॉलोनी में उस मोटरमैन का परिवार रहता था वहाँ आस-पड़ोस एक दूसरे के सुख-दुख बाँटने में पीछे नहीं रहता था| ज़रुरत पड़ने पर भोजन भी साझा कर लिया जाता| पड़ोसिन तत्काल दौड़ी आयी| और अगले ही पल उस ने अम्मा को पलंग पर लिटा कर बिट्टो को दाई बुलाने भेज दिया| दाई ने आते ही बिट्टो को कमरे से बाहर रहने को बोला| अनमनी बिट्टो बाहर आन बैठी| लेकिन जल्दी ही अम्मा की तेज़ कराहटों के बीच जैसे ही एक नन्हे बच्चे के रोने की आवाज़ आ शामिल हुई, बिट्टो को बताया गया- अब तू अकेली नहीं रही| भाई वाली है| रातबाबूजी लौटे तो फूले नहीं समाए| बिट्टो को हलवाई के पास भेज कर स्वयं आँगन में नहाने चले गए : लड़के को साफ़ हाथों से पकडूँगा, सुथरे कपड़ों में….. पचासके उस दशक में रेलगाड़ियाँ डीज़ल या बिजली की जगह भाप से चलती थीं, भाप छोड़ती हुई| ‘पर्फिंग बिलीज़’ इसीलिए उन्हें कहा जाता| मोटरमैन को उस समय कोयलों की भट्टी में कोयला स्वयं बेलचे से डालना पड़ता था| ऐसे में इंजन छोड़ते समय बाबूजी के कपड़े और हाथ गंधैले और दगैल हो जाया करते| मोटरमैन ही क्यों, दूसरे रेल कर्मचारियों के पास भी आज जैसी सुविधाएँ नहीं थीं| एयरब्रेक्स की जगह ब्रेकमैन थे जो रेल के डिब्बों पर चढ़-चढ़ कर- उनकेआर-पार- हाथ से ब्रेक सेट करते| डिब्बा की कपलिंग तक हाथ से की जाती, ऑटोमेटिक कपलर से नहीं| जैसे ही बाबूजी नहा चुके वह लपक कर नन्हे को अपनी गोदी में उठा लिए और बिट्टोसे बोले, “देख तेरा बन्धु कैसे मुस्करा रहा है….. हमारा नन्हा….. हमारा नन्हा…..” नवजात बच्चे को बिट्टो पहली बार देख रही थी| उसका सिर उसके बाक़ी शरीर के अनुपात में खूब बड़ा था| आँखें मूँदी थीं| लेकिन अन्दर छिपे उसके नेत्र गोलक अपने अपने कोटर में तेज़ी से चल फिर रहे थे| और वह मुस्करा रहा था| “सच बाबूजी,” बिट्टो ने ताली बजायी, “और देखिए, इतना छोटा मुँह और इतनी बड़ी मुस्कान…..” “इसी मुस्कान ही को तो जल्दी रही जो इसे हमारे पास बीस दिन पहले लिवा लायी…..” बाबूजी हँसे और अम्मा की बगल में बैठ लिए| अम्माने सारा दिन वहीं गुज़ारा था और अब भी वहीं लेटी थीं| बाबूजीके वहाँ बैठते ही अम्मा ने अपना मुँह दीवार की तरफ़ फेर लिया| “नन्हे,” बाबूजीअपनी तरंग में बहते रहे, “कल मुझे दो काम करने हैं| तेरे आने की ख़ुशी में सुनार से … Read more

सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर

वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर उनकी अन्य कहानियों की तरह अपने नाम को अर्थ देती है | दीपक शर्मा जी बेहतरीन  कहानियाँ ही नहीं लिखती वो उनके नामों पर भी बहुत मेहनत करती हैं | सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर भी एक ऐसी ही कहानी हुई जहाँ साड़ियों की मैचिंग के साथ -साथ दो बहनों के जीवन साथी की मैचिंग की भी कोशिश उनके पिता द्वरा की जाती है | बहुत कसी हुई ये कहानी जहाँ एक ओर अपनी बेटी के लिए अच्छा वर खोजने की पिता की कसक दिखाती है वहीँ बड़ी बहन का अपनी छोटी बहन को लायक  बनाने का संकल्प प्रदर्शित करती है | इस तरह से कहानी बहुत ही मुलायमियत से  पाठकों के मन में सपनों के लिए परम्पराओं से संघर्ष करती स्त्री की कोशिशों की गहरी चोट करती है |  सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर कस्बापुरके कपड़ा बाज़ार का ‘सिस्टर्ज़ मैचिग सेन्टर’ बाबूजी का है| सन्तान के नाम पर बाबूजी के पास हमीं दो बहनें हैं : जीजी और मैं| जीजी मुझ से पाँच साल बड़ीहैं और मुझे उन्हीं ने बड़ा किया है| हमारी माँ मेरेजन्मके साथ ही स्वर्ग सिधार ली थीं| हमारे मैचिन्ग सेन्टर व बाबूजी को भी जीजी ही सँभालती हैं| बाबूजी की एक आँख की ज्योति तो उनके पैंतीसवें साल ही में उन से विदा ले ली थी| क्रोनिक ओपन-एंगल ग्लोकोमा के चलते| और बाबूजी अभी चालीस पार भी न किए थे कि उनकेबढ़ रहे अंधेपन के कारण उस कताई के कारखाने सेउनकी छंटनी कर दी गयी थी जिस के ब्रेकर पर बाबूजीपूनी की कार्डिंग व कोम्बिंग से धागा बनाने का काम करते रहे थे| पिछले बाइस वर्षों से| ऐसे में सीमित अपनी पूँजी दाँव पर लगा कर बाबूजी ने जो दुकान जा खोली तो जीजी ही आगे बढ़ीं| पढ़ाई छोड़ कर| दुकानबीच बाज़ार में पड़ती है और घर हमारा गली में है| बाबूजीको घर से बाज़ार तक पहुँचाना जीजी के ज़िम्मे है| छड़ी थामकर बाबूजी जीजी के साथ साथ चलते हैं| जहाँ उन्हें ज़रुरत महसूस होती है जीजी उनकी छड़ी पकड़ लेती हैं या फिर उनका हाथ| दुकान भी जीजी ही खोलती हैं| फ़र्श पर झाड़ू व वाइपर खुद ही फेरती हैंव मेज़ तथा कपड़ों के थानों पर झाड़न भी| जब तक बाबूजी बाहर चहलकदमी करते करते पास-पड़ोस केदुकानदारोंकी चहल-पहल व बत-रस का आनन्द ले लेते हैं| स्कूल से मैं सीधी वहीं जा निकलती हूँ| जीजी का तैयार किया गया टिफ़िन मेरे पहुँचने पर ही खोला जाता है| जीजी पहले बाबूजी को परोसती हैं, फिर मुझे| हमारे साथ नहीं खातीं| नहीं चाहतीं कोई ग्राहक आए और दुकान का कोई कपड़ा-लत्ता बिकने से वंचित रह जाए| बल्कि इधर तो कुछ माह से हमारी गाहकतायी पच्चीस-तीस प्रतिशत तक बढ़ आयी है| जब से फैन्सी साड़ी स्टोर में एक नया सेल्ज़मैन आ जुड़ा है| बेशक हम दोनों की दुकानें कुल जमा चार गज़ की दूरीपर एक ही सड़क का पता रखती रही हैं, लेकिनयह मानी हुई बात है कि किशोर नाम के इस सेल्ज़मैन के आने से पहले हमारे बीचकोईहेल-मेल न रहा था| पिछले पूरे सभीतीन सालों में| मगर अब फैन्सी साड़ी स्टोर की ग्राहिकाएँ वहाँसेहमारेमैचिन्ग सेन्टरही का रुख लेती हैं| कभी अकेली तो कभी किशोर की संगति में| अकेली हों तो भी आते ही अपनी साड़ी हमें दिखाती हैं औरविशेष कपड़े की मांग हमारे सामने रखती हैं: “शिफ़ॉन की इस साड़ी के साथ मुझे साटन का या क्रेप ही का पेटीकोट लेना हैऔर ब्लाउज़ भीडैकरोन या कोडेल का…..” किशोर साथ में होता है तो सविस्तार कपड़े के बारे में लम्बे व्यौरे भी दे बैठता है, “देखिए सिस्टर, इसऔरगैन्ज़ा के साथ तो आप डाएनेल का पेटीकोट और पोलिस्टर का ब्लाउज़ या फिर प्लेन वीवटेबी का पेटीकोट और ट्विलका ब्लाउज़ लीजिए, जिस के ताने की भरनी में एक सूत है और बाने की भरनी में दो सूत…..” हम बहनें अकसर हँसती हैं, कस्बापुर निवासिनियों कोयह अहसास दिलाने में ज़रूर किशोर ही का हाथ है कि साड़ी की शोभा उसके रंग और डिज़ाइन से मेल खाते सहायक कपड़े पहनने से दुगुना-चौगुना प्रभाव ग्रहण कर लेती है| जभी साड़ीवाली कई स्त्रियों के बटुओं की अच्छी खासी रकम हमारे हाथों में पहुँचनेलगी है| काउन्टर पर बैठे बाबूजी को रकम पकड़ाते समय मैं तो कई बार पूछ भी लेती हूँ, “फैन्सी वाला यह सेल्ज़मैन क्या सब सही सही बोलता है या फिर भोली भाली उन ग्राहिकाओं को बहका लिवा लाता है?” जवाब में बाबूजी मुस्करा दिया करते हैं, “नहीं जानकार तो वह है| बताया करता है यहाँ आने से पहले वह एक ड्राइक्लीनिंग की दुकान पर ब्लीचिंग का काम करता था औरलगभग सभी तरह के कपड़ों के ट्रेडमार्क और ब्रैन्ड पहचान लेता है…..” कपड़े की पहचान तो बाबूजी को भी खूब है| दुकान के लिए सारा कपड़ा वही खरीदते हैं| हाथ में लेते हैं और जान जाते हैं, ‘यह मर्सिराइज़्ड कॉटन है| इसे कास्टिक सोडा सेट्रीट किया गयाहै| इसका रंग फेड होने वाला नहीं…..” या फिर, ‘यह रेयौन है| असली रेशम नहीं| इसमें सिन्थेटिकमिला है, नायलोन या टेरिलीन…..’ या फिर, ‘यह एक्रीलीन बड़ी जल्दी सिकुड़ जाता है या फिर ताने से पसर जाता है…..’ “क्यों किशोरीलाल?” बाबूजी किशोर को इसी सम्बोधन से पुकारते हैं, “तुम यहाँ बैठना चाहोगे? हमारे साथ?” उस दिन किशोर ने अपने फैन्सी साड़ी स्टोर से दहेज़ स्वरुप खरीदी गयी एक ग्राहिका कीसात साड़ियों के पेटीकोट और ब्लाउज़ एक साथ हमारे मैचिन्ग सेन्टर से बिकवाए हैं और बाबूजी खूब प्रसन्न एवं उत्साहित हैं| “किस नाते?” जीजीदुकान के अन्तिम सिरे पर स्टॉक रजिस्टर की कॉस्ट प्राइस और लिस्ट प्राइस में उलझे होने के बावजूद बोल उठी हैं, “हमारीहैसियत अभी नौकर रखने की नहीं…..” “तुम अपना काम देखो,” बाबूजी ने जीजी कोडाँट दियाहै, “हमआपसमेंबातकर रहे हैं…..” थान समेट रहे मेरे हाथ भी रुक गए हैं| जीजी के स्वर की कठोरता मुझे भीअप्रिय लगी है| “किशोरीलाल,” जीजी से दूरी हासिल करने हेतु बाबूजी किशोर को मेरे पास खिसकालाए हैं, “उषा की बात का बुरा न मानना| वह शील-संकोच कुछ जानती ही नहीं| माँ इनकी इन बच्चियों की जल्दी ही गुज़र गयी रही…..” “जीजी मुझ से भी बहुत कड़वा बोल जाती हैं,” किशोर को मैं ढाँढस बँधाना चाहती हूँ| उसका बातूनीपन तो मुझे बेहद पसन्द है ही, साथ ही उसकी तीव्र बुद्धि व भद्र सौजन्य भी मुझे लुभाता है| … Read more

मिरगी

मनुष्य केवल एक शरीर ही नहीं मन भी है |  आपने कई किस्से सुने होंगे जब बुरी तरह बीमार शरीर भी मन की मजबूती के कारण असाध्य बीमारी से लड़ कर बाहर आ गया, वहीँ घायल मन ने स्वस्थ शरीर में बीमारी के ऐसे लक्षण पैदा कर दिए कि डॉक्टर भी समझने में भूल कर जाए | वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी मिरगी एक मनोशारीरिक समस्या को झेलती बच्ची की कहानी है | अपनी हर कहानी की तरह दीपक शर्मा जी ने इस कहानी को भी तथ्यों की काफी पड़ताल के बाद लिखा है | वहीँ एक मासूम बच्ची के मन में उतरते हुए उनकी लेखनी  पाठक को थोड़ी देर को स्थिर कर देती है | आप भी पढ़ें … कहानी -मिरगी  उस निजी अस्पताल के न्यूरोलॉजी विभाग का चार्ज लेनेके कुछ ही दिनों बाद कुन्ती का केस मेरे पास आया था| “यहपर्ची यहीं के एक वार्ड बॉय की भतीजी की है, मैम|” उस दिन की ओपीडी पर मेरे संग बैठे मेरे जूनियर ने एक नयी पर्ची मेरे सामने रखते हुए कहा| “कैसा केसहै?” मैंनेपूछा| “वार्डबॉय मिरगी बता रहा है| लड़की साथ लेकरआया है…..” “ठीकहै| बुलवाओउसे…..” वार्ड बॉय ने अस्पताल की वर्दी के साथ अपने नाम का बिल्ला पहन रखा था: अवधेशप्रसादऔर पर्ची कुन्ती का नाम लिए थी| “कुन्ती?” मैंने लड़की को निहारा| वह बहुत दुबली थी| एकदम सींकिया| “क्या उम्र है?” “चौदह”, उसने मरियल आवाज में जवाब दिया| “कहीं पढ़ती हो?” मैंने पूछा| “पहले पढ़ती थी, जब माँ थी, अब नहीं पढ़ती|” उसने चाचा को उलाहना भरी निगाह से देखा| “माँ नहीं है?” मैंने अवधेश प्रसाद से पूछा| “नहीं, डॉ. साहिबा| उसे भी मिरगी रही| उसी में एक दौरे के दौरान उसकी साँस जो थमी तो, फिर लौटकर नहीं आयी…..” “और कुन्ती के पिता? ” “पत्नी के गुजरने के बाद फिर वह सधुवा लिए| अब कोई पता-ठिकाना नहीं रखते| कुन्ती की देखभाल अब हमारे ही जिम्मे है…..” “कब से?” “चार-पांच माह तो हो ही गए हैं…..” “तुम्हें अपनी माँ याद है?” मैं कुन्ती की ओर मुड़ ली| “हाँ…..” उसने सिरहिलाया| “उन पर जब मिरगी हमला बोलती थी तो वह क्या करती थीं?” कुन्ती एकदम हरकत में आ गयी मानो बंद पड़े किसी खिलौने में चाबी भर दी गयी हो| तत्क्षण वह जमीन पर जा लेटी| होंठ चटकाए, हाथ-पैर पसारे, सिकोड़े, फिर पसारे और इस बार पसारते समय अपनी पीठ भी मोड़ ली, फिरपहले छाती की माँसपेशियाँ सिकोड़ीं और एक तेज कंपकंपी के साथ अपने हाथ-पैर दोबारा सिकोड़ लिए, बारी-बारी से उन्हें फिर से पसारा, फिर से सिकोड़ा| बीच-बीच में कभी अपनी साँस भी रोकी और छोड़ी कभी अपनी ज़ुबान भी नोक से काटी तो कभी दाएं-बाएं से भी| कुन्तीके मन-मस्तिष्क ने अपनी माँ की स्मृति के जिस संचयन को थाम रखा था उसकामुख्यांश अवश्य ही उस माँ की यही मिरगी रही होगी, जभी तो ‘टॉनिक-क्लौनिक-सीजियर’ के सभी चरण वह इतनी प्रामाणिकता के साथ दोहरा रही थी! “तुम कुछ भी भूली नहीं?” मैंने कहा| “नहीं”, वह तत्काल उठ खड़ी हुई और अपने पुराने दुबके-सिकुड़े रूप में लौट आयी| “और तुम्हारी माँ भी इसी तरह दौरे से एकदम बाहर आ जाया करती थीं?” मैंने उसकी माँ की मिरगी की गहराई नापनी चाही क्योंकि मिरगी के किसी भी गम्भीर रोगी को सामान्य होने मेंदस से तीस मिनट लगते ही लगते हैं| उत्तर देने की बजाय वह रोने लगी| “उसका तो पता नहीं, डॉक्टर साहिबा, मगर कुन्ती जरूर जोर से बुलाने पर या झकझोरने पर उठकर बैठ जाती है|” अवधेश प्रसाद ने कहा| “इस पर्ची पर मैं एक टेस्ट लिख रही हूँ, यह करवा लाओ|” कुन्तीकी पर्ची पर मैंने ई.ई.जी….. लिखते हुए अवधेश प्रसाद से कहा| “नहीं, मुझेकोई टेस्ट नहीं करवाना है| टेस्ट से मुझे डर लगता है|” कुन्ती काँपने लगी| “तुम डरो नहीं|” मैंने उसे ढांढस बंधाया, “यह ई.ई.जी. टेस्ट बहुत आसान टेस्ट है, ई.ई.जी. उस इलेक्ट्रो-इनसे-फैलोग्राम को कहते हैं जिसके द्वारा इलेक्ट्रो-एन-से-फैलोग्राफ नाम के एक यंत्र से दिमाग की नस कोशिकाओं द्वारा एक दूसरे को भेजी जा रही तरंगें रिकॉर्ड की जाती हैं| अगर हमें यह तरंगें बढ़ी हुई मिलेंगी तो हम तुम्हें दवा देंगे और तुम ठीक हो जाओगी, अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर सकोगी…..” “नहीं|” वह अड़ गयी और जमीन पर दोबारा जा लेटी| अपनी माँसपेशियों में दोबारा ऐंठन और फड़क लाती हुई| “बहुत जिद्दी लड़की है, डॉक्टर साहिबा|” अवधेश प्रसाद ने कहा, “हमीं जानते हैं इसने हम सभी को कितना परेशान कररखा है…..” “आप सभी कौन?” मुझे अवधेश प्रसाद के साथ सहानुभूति हुई| “घर पर पूरा परिवार है| पत्नी है, दो बेटे हैं, तीन बेटियाँ हैं| सभी का भार मेरे ही कंधों पर है…..”“आप घबराओ नहीं| अपने वार्ड में अपनी ड्यूटी पर जाओ और कुन्ती को मेरे सुपुर्द कर जाओ| इसके टेस्ट्स का जिम्मा मैं लेती हूँ|” कुन्ती का केस मुझे दिलचस्प लगा था और उसे मैं अपनी नयी किताब में रखना चाहती थी| “आप बहुत दयालू हैं, डॉक्टर साहिबा|” अवधेश प्रसाद ने अपने हाथ जोड़ दिये| “तुम निश्चिन्त रहो| जरूरत पड़ी तो मैं इसे अपने वार्ड में दाखिल भी करवा दूँगी|” मैंने उसे दिलासादिया और अपने जूनियर डॉक्टर के हाथ में कुन्ती की पर्ची थमा दी| कुन्ती का ई.ई.जी. एकदम सामान्य रहा जबकि मिरगी के रोगियों के दिमाग की नस-कोशिकाओं की तरंगों में अतिवृद्धि आ जाने ही के कारण उनकी माँसपेशियाँ ऐंठकरउसे भटकाने लगती हैं और रोगी अपने शरीर पर अपना अधिकार खो बैठता है| ई.ई.जी. के बाद हमने उसकी एम.आर.आईऔर कैट स्कैन से लेकर सी.एस.एफ, सेरिब्रल स्पाइनल फ्लुइड और ब्लड टेस्ट तक करवा डाले किन्तु सभी रिपोर्टें एक ही परिणाम सामने लायीं-कुन्ती का दिमाग सही चल रहा था| कहीं कोई खराबी नहीं थी| मगर कहीं कोई गुप्त छाया थी जरूर जो कुन्ती को अवधेश प्रसाद एवं उसके परिवार की बोझिल दुनिया से निकल भागने हेतु मिरगी के इस स्वांग को रचने-रचाने का रास्ता दिखाए थी| उस छाया तक पहुँचना था मुझे| “तुम्हारी माँ क्या तुम्हारे सामने मरी थीं?” अवसर मिलते ही मैंने कुन्ती को अस्पताल के अपने निजी कक्ष में बुलवा भेजा| “हाँ|” वह रुआँसी हो चली| “तुम्हारे पिता भी वहीं थे?” “हाँ|” “मिरगी का दौरा उन्हें अचानक पड़ा?” मैं जानती थी मिरगी के चिरकालिक रोगीको अकसर दौरे का पूर्वाभास हो जाया करता है, जिसे हम डॉक्टर लोग‘औरा’ कहा करते हैं| हालाँकि … Read more

नीली गिटार

स्त्री अपने अनेक संबोधनों से पहले स्त्री है तभी तो शारीरिक रूप से अस्वस्थ , विकलांग , या शारीरिक रूप से बाधित स्त्री के प्रति भी पुरुष की उसकी सहायता के लिए उमड़ती संवेदना भी , उसके पास आते ही उसे सिर्फ स्त्री रूप में देख पाती है | आखिर ये क्यों है ? वौलेस स्टीवेंज़ की कविता नीली गिटार भी तो एक ऐसी ही रहस्यमयी कविता है जहाँ नीली गिटार के पास आते ही चीजें वैसी नहीं रह जाती जैसे वो दिखतीं हैं | एक कविता को पसंद करने वाली नायिका स्वयं नीली गिटार बन गयी | कैसे ?  नीली गिटार मामा के नाम पर प्रत्येक स्वतंत्रता दिवस पर शहर में एक विशेष समारोह का आयोजन किया जाता है| उनके चित्र पर फूलमालाएँ चढ़ाई जाती हैं| उनकी जीवनी व जीवन-चर्या के अनेक प्रसंग सांझेकिए जाते हैं| मित्रों-परिचितों द्वारा| मेरे द्वारा| बात की जाती है स्वतंत्रता संग्राम में रही उनकी भागीदारी की….. सन् १९४२ के ‘करो या मरो’ आन्दोलन के अन्तर्गत कैसे उन्होंने अपने तीन साथियों के संग अपने गाँव की पुलिस चौकी पर भारतीय तिरंगा फहराया था और दो साल जेल काटी थी….. बात की जाती है, सफल रही उनकी पुलिस सेवाकी….. जिसमें सन् १९४७ के एकदम बाद उन्हें एक प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी होने के नाते बिना कोई परीक्षा दिए भारत सरकार ने डिप्टी पुलिस निरीक्षक के पद पर उन्हें भरती कर लिया था….. उनकेचौबीसवें ही साल में….. बात की जाती है, उनके ब्रह्मचर्य-व्रत के पालन की, जो व्रत उन्होंने सन् १९४८ में भूमिविहीन रहे स्कूल अध्यापक अपने पिता कीअकाल मृत्यु पर लिया था| अनाथ रह गए अपने चार भाई-बहनोंके भरण-पोषण हेतु| साधनविहीन रहे अपने ताऊ-चाचाकी सहायता हेतु….. बात की जाती है उनके चरित्र बल की, उनके आत्म-निग्रह की, उनकेसूत्र-वाक्यों की, उनकेसाहसिक कार्यों की, उनके ऊँचे आदर्शों की….. मगर एक बात नहीं छेड़ी जाती….. यह बात गुप्त रखी जाती है….. अनछुई….. अपनी तहें अपने में समेटे….. वह बात कजली की है| कजली, वहाँ पहले से विराजमान थी जब माँ मुझे मामा के पास छोड़ने गयी थीं| सन् १९७० में| गाँव के स्कूल में मेरी नवमी जमात पूरी होते ही| “यह आकाशबेल कहाँ से टपकी?” माँ ने मामा से रोष जताया था| “इसके पिता मेरे मित्र थे|” मामा बोले थे, विधुर थे| लड़की का इलाज करवाते-करवाते-करवाते कंगाल हो चुके थे| खुद भी बीमार थे| जान लिए थे वह बचेंगे नहीं| लड़की को लेकर चिंतित थे| तभी मैंने कहा, लड़की मैं रख लूँगा…..” “मगरअपने कमरे ही में क्यों?” हम माँ-बेटे ने कजली को मामा के कमरे के दूसरे एकल पलंग पर ही बिछे पाया था| “क्योंकि उसे हर समय चौकसी की जरूरत है, उसकी माँसपेशियाँ पल-पल कमजोर पड़ती जा रही हैं| क्या मालूम कहाँ की कौन सी माँसपेशी कब अपनी हरकत खो बैठे? दिल की? फेफड़े की? चेहरे की? हाथ की? पैर की? दिन में तो अर्दली उसे देखे रहते हैं मगर रात में उसे देखने वाला कोई नहीं…..” “ऐसी नाजुक हालत है तो उसे सरकारी अस्पताल में क्यों नहीं छोड़ आते? वहाँ देखने को तमाम डॉक्टर रहेंगे, नर्सेंरहेंगी…..” “क्यों छोड़ आऊँ वहाँ?” मामा बिफरे थे, “कैसे छोड़ आऊँ वहाँ? जब मैंने उसके मर रहे बाप से वादा किया है, अब वह मेरी देखभाल में रहेगी? तो?” “मगर वह एक लड़की है| उसे तुम्हारे कमरे में यों नहीं लेटना-सोना चाहिए|” माँ ने कहा था| “मेरे लिए वह लड़की नहीं है| केवल एक जीव है| समझ लो वह हमारे ताऊजी की कोई बीमार गाय है| जिसे देखभाल की, इलाज की, चारा-पानी की जरूरत है…..” यहाँ यह बताता चलूँ कि उन दिनों मामा के गाँव में उनके ताऊजी उधर बीमार गऊओं को अपने दालान में हाँक लाते रहे थे, उनका इलाज भी करवाया करते और उन्हें चारा-पानी भी देते-दिलवाते| माँ फिर चुप कर गयी थीं| शायद डर भी गयी थीं| मामा कहीं नाराज हो गए तो उनके साथ मुझे भी हमारे गाँव विदा कर देंगे| मेरी पढ़ाई पूरी नहीं करवाएँगे| परिवार में हम सभी मामा से भय तो खाते ही थे| मौके-बेमौके उनके तेवर भी बदलते-बिगड़ते रहते| किसी को महत्व देने पर आते तो उसे आकाश पर जा बिठलाते| मगर मिजाज खराब होता तो उसी की मिट्टी पलीद कर देते| मौजी इतने कि मन में मौज होती तो मुट्ठी भर सोना भी दे सकते, वरना मुट्ठी बाँधने पर आते तो लाख कहने-समझाने पर भी मुट्ठी ढीली न करते| कजली को मैं माँ के जाने के बाद मिला| वह भी मामा ही के आदेश पर, “लड़की को साढ़े दस पर फलों का रस पिलाना है और साढ़े बारह पर सब्जियों का सूप| खाना वह मेरे आने पर खाएगी| मेरे साथ…..” उस समय साढ़े दस बजने में पूरे पैंतालीस मिनट बाकी थे किन्तु मैंने उसी समय अर्दली से रस निकालने की प्रक्रिया की जानकारी ले ली| मामा के घर में उस समय बिजली की मिक्सी तो थी नहीं| प्लास्टिक का एक उपकरण था, जिस पर छीली हुई मौसमी के टुकड़े बारी बारी से रखकर भींचे और परे जाते थे और रस निकल आता था| एक मौसमी का रस मुझे जब कम लगा तो गिलास भरने के लिए मैं तीन मौसमी काम में लाया| अर्दली की आनाकानी के बावजूद| हालाँकि रस बनाने में मैंने उसकी सहायता किंचित भी न ली थी| “मामा कह गए थे आपको यह रस पिलाना है|” कजली के पलंग के पास जाकर मैंने गिलास उसकी तरफ बढ़ाया| “तुमने तैयार किया है?” वह मुस्कुरायी, “इतना ज्यादा?” “जी”, मैं लजा गया| “तुम्हारी माँ क्या मेरी ओर देखने को भी मना कर गयी हैं?” वहहँसी| मैं घबरा उठा| क्या उसने सुन लिया था जो मेरी माँ जाते समय मुझे फिर कह गयी थी- “उसलड़की के पास फटकना भी मत| क्या मालूम कब उसकी साँस टूट जाए और आफत तुम पर आन पड़े?” “मेरी आँखें और कान बहुत तेज हैं| आँखेंएक नजर में सामने वाले के दिल का पूरा नजारा ले सकती हैं और कान दूर से भी किसी की कनफुसकी की कानाबाती पकड़ सकते हैं|” “जी|” मैं झेंप गया| “गिलास अभी मेज पर रख दो| तुम्हें पहले मुझे बिठाना होगा|” “जी…..” जैसे ही मैंने अपनी बाहों में उसे समेटा उसने अपना सिर मेरी छाती पर ला टिकाया और बोली, “सिरहाने की तरफ दो तकिए लगाओ मेरी टेंक के वास्ते…..” जब तक मैंने तकिए जमाए उसके … Read more

टोहा टोही

टोहा -टोही , जैसा की नाम से ही विदित हो रहा है थोड़ी सी रहस्यमय कहानी है | दीपक शर्मा जी एक उपेक्षित पत्नी के दर्द व् उसके द्वारा पति की जासूसी की जासूसी करने की इच्छा के सामान्य कथानक के साथ कहानी शुरू करती हैं परन्तु जैसे -जैसे कहानी आगे बढती है उसका कथानक विस्तृत होता जाता है व् जासूसी कहानियों  की तरह ये एक रहस्यात्मक रूप ले लेती है और अंत पाठक को  चौंका देता है | आप भी पढ़िए … दीपक शर्मा की कहानी -टोहा -टोही ड्राइवर नया था और रास्ता भूल रहा था| मैंने कोई आपत्ति न की| एक अज़नबी गोल, ऊँची इमारत के पोर्च में पहुँचकर उसने अपनी एंबेसेडर कार खड़ी कर दी और मेरे सम्मान में अपनी सीट छोड़ कर बाहर निकल लिया| पाँच सितारा किसी होटल केदरबान की मुद्रा में एक सन्तरी आगे बढ़ा और उसने मेरी दिशा का एंबेसेडर दरवाजा खोला| मैं एंबेसेडर से नीचे उतर ली| ऊँची इमारत के शीशेदार गोल दरवाज़े से बाहर तैनात दूसरे संतरी ने मुझे सलाम ठोंका और सरकते उस गोल दरवाज़े का एक खुला अंश मेरी ओर ला घुमाया| ‘आपका बटुआ, मैडम?’ ड्राइवर लपकता हुआ मेरे पास आ पहुँचा| ‘इसे गाड़ी में रहने दो,” मैंने अपने कंधे उचकाए और मुस्करा पड़ी| स्कूल में हमें शिष्टाचार सिखाते हुए किस टीचर ने लड़कियों की भरी जमात में कहा था, ‘अ लेड शुड ऑलवेज़ बी सीन कैरअँगअ पर्स’ (एक भद्र महिला को अपने बटुए के साथ दिखायी देना चाहिए)? चालीस बरस पूर्व? बयालीस बरस पूर्व? जब मैं दसवीं जमात में थी? या आठवीं में? मैंने गोल दरवाजा पार किया| सामने लॉबी थी| उसके बाएँ कोने में एक काउंटर था और इधर-उधर सोफ़े बिछे थे| कुछ सोफ़ों पर हाथ पैर पसारे कुछ लोग बैठे थे| मैं यहाँ क्या कर रही थी? तभी एक पहचानी सुगन्ध मुझ तक तैर ली| मेरे पति यहीं कहीं रहे क्या? सुगन्ध की दिशा में मैंने अपनी नज़र दौड़ायी| बेशक वही थे| यहीं थे| ऊर्जस्वी एवं तन्मय| मुझ से कम-अज़-कम बीस साल छोटी एक नवयुवती के साथ| मेरी उम्र के तिरपन वर्षों ने मुझे खूब पहना ओढ़ा था किन्तु मेरे पति अपने पचास वर्षोंसे कम उम्र के लगते| इधर दो-तीन वर्षों से उनके कपड़ों की अलमारी में रेशमी रुमालों और नेकटाइयों की संख्या में निरन्तर और असीम वृद्धि हुईरही| बेशक अपनी उम्र से कम लगने का वह एक निमित्त कारण ही था, समवायी नहीं| मैं लॉबी के काउण्टर की ओर चल दी| वहाँ लगभग तीस वर्ष की एक युवती तीन टेलिफोनों के बीच खड़ी थी| सफ़ेद सूती ब्लाउज़ के साथ उसने बनावटी जार्जेट की काली साड़ी पहन रखी थी| किस ने कभी बताया रहा मुझे सफ़ेद और काले रंग को एक साथ जोड़ने से पैशाचिक शक्तियाँ हमारी ओर आकर्षित होकर हमारे गिर्द फड़फड़ाने लगती हैं? इशारे से हम उन्हेंअपने बराबर भी ला सकते हैं? उन्हें अपने अन्दर उतार सकते हैं? बिखेर सकते हैं? छितरा सकते हैं? ‘कहिए मैम,’ युवती मेरी ओर देखकर मुस्कुरायी| ‘उधर उन अधेड़ सज्जन के साथ लाल कपड़ों वाली जो नवयुवती बैठी हँस-बतिया रही है वह कौन है?’ मैंने पूछा| ‘सॉरी,’ काउन्टर वाली युवती ने तत्काल एक टेलिफोन का चोंगा हाथ में उठाया और यन्त्र पर कुछ अंक घुमाने लगी, ‘जासूसी  में हम किसी की सहायता करने में अक्षम रहते हैं’ ‘बदतमीज़ी दिखाने में नहीं?’ मैं भड़क ली| ‘आप कौनहैं, मैम?’ काउन्टरवाली युवती चौकस होली| ‘एक उपेक्षित पत्नी’, मैंने कहा| मार्कट्  वेन ने कहाँ लिखा था  ‘वेन इन डाउट, टेल द ट्रुथ’ (‘जब आशंका हो तो सच बोल दो’)? ‘मैं आपका परिचय जानना चाहती थी,’ काउन्टर वाली युवती फिर से टेलिफोन यन्त्र पर अंक घुमाने लगी, “आप परिचय नहीं देना चाहती तो न दीजिए| यकीन मानिए अजनबियों में हमारी दिलचस्पी शून्य के बराबर रहती है|” ‘आप फिर बदतमीज़ी दिखा रही हैं,’ मैं चिल्ला उठी ‘मैं आपसे बात कर रही हूँ| आप से कुछ पूछ रही हूँ और आप हैं कि टेलिफोन से खेल रही हैं|’ मेरे पति भी अकसर ऐसा किया करते| जैसे ही मैं उन के पास अपनी कोई बात कहने को जाती वे तत्काल किसी टेलिफोन वार्ता में स्वयं को व्यस्त कर लेते| बल्कि इधर अपने मोबाइल के संग वे कुछ ज्यादा ही ‘एंगेज्ड’ रहने लगे थे| फोनपर बात न हो रही होती तो एस. एम. एस. देने में स्वयं को उलझा लिया करते| और तो और, अपने मोबाइल फोन की पहरेदारी ऐसी चौकसी से करते कि मुझे अपने वैवाहिक जीवन के शुरूआती साल याद हो आते जब मेरी खबरदारी और निगरानी रखने के अतिरिक्त उन्हें किसी भी दूसरे काम में तनिक रूचि न रहा करती| भारतीय प्रशासनिक सेवा में हम दोनों एक साथ दाखिल हुए थे| सन् सतहत्तर में| और अठहत्तर तक आते-आते हम शादी रचा चुके थे| भिन्न जाति समुदायों से सम्बन्ध रखने के बावजूद| ‘बदतमीज़ी तो आप दिखा रही हैं,’ काउन्टर वाली युवती की आवाज भी तेज हो ली, ‘मैं केवल अपना काम कर रही हूँ|’ ‘मैं कुछ कर सकता हूँ, क्या मैम?’ तभी एक अजनबी नवयुवक मेरे समीप चला आया| उसकी कमीज सफ़ेद सूती रही, अच्छी और तीखी कलफ़ लिए| बखूबी करीज़दार| ‘मुझे उस नवयुवती की बाबत जानकारी चाहिए,’ मैं विपरीत दिशा में घूम ली| काउन्टर वाली युवती से बात करते समय अपने पति के सोफे की तरफ़ मेरी पीठ हो ली थी| ‘किस नवयुवती की बाबत जानकारी चाहिए, मैम?’ मेरे पति वाला सोफ़ा अब खाली था| मैं पुनः काउन्टर की ओर अभिमुख हुई, ‘उधर उस किनारे वाले सोफ़े पर मेरे पति लाल कपड़ों वाली एक नवयुवती के साथ बैठे थे| वे दोनों कहाँ गए? कब गए?’ ‘कौन दोनों?’ काउन्टर वाली युवती ठठायी| ‘मैंने वे दोनों आपको हँसते-बतियाते हुए दिखलाए थे,’ मैंने कहा, “एक अधेड़ और एक नवयुवती” ‘सॉरी,’ काउन्टर वाली युवती ने मुझसे अपनी आँखें चुरा ली, ‘मैं कुछ नहीं जानती…..’ ‘झूठ मत बोलो,’ गुस्से में मैं काँप उठी, ‘उन्हें उधर एक साथ बैठे देख कर ही तो मैं तुम्हारे पास आयी थी|’ ‘सॉरी,’ काउन्टर वाली ने अपने दांत निपोरे, ‘मेरे पास निपटाने को बहुत काम बाकी हैं| मैं आपकी तरह खाली नहीं हूँ| मेरा समय कीमती है| व्यर्थ गँवा नहीं सकती|’ ‘आप मुझे बतलाइए, मैम,’ अजनबी नवयुवक ने एक मंदहास्य के साथ स्वयं को प्रस्तुत किया, ‘मैं ज़रूर आपकी सहायता करना चाहूँगा|’ ‘मेरे पति की … Read more

होड़

आज बाल दिवस है | फूल से मासूम बच्चे , जो कल देश का भविष्य बनेंगे | ना जाने कितने सपने हैं इनकी आँखों में , वो सपने जो अमीर -गरीब नहीं देखते , बड़ा -छोटा नहीं देखते दुनिया की असलियत से बेखबर होड़ लगाने लगते हैं उनके सपनों से जिनके पास ताकत है , रुतबा है , पैसा है इनके सपनों को दबा देने की | क्या हम सब नहीं जानते कि कितने प्रतिभाशाली बच्चों की प्रतिभा उन्हीं के सरपरस्तों ने नेस्तनाबूत करने की कोशिश की | हम एकलव्य की मार्मिक कहानी पढ़ते हैं पर सीखते नहीं …और नए एकलव्य तैयार होते जाते हैं | आज बाल दिवस पर हम लाये हैं सुप्रसिद्ध लेखिका दीपक शर्मा जी की दिल को झकझोर देने वाली ऐसी ही कहानी …. होड़ किशोर का दुर्भाव और अपना अभाव बार-बार मेरे सामने आ खड़ा होता है| मेरा उससे ज़्यादा पॉइंट हासिल करना क्यों गलत था? किशोर क्यों सोचता था मैं अपने को मनफ़ी कर दूँ? घटा लूँ? उससे कमतर रहने की चेष्टा करूँ? क्योंकि धोबी मेरे बप्पा मामूली चिल्हड़ के लिए बेगानों के कपड़े इस्तरी किया करते हैं? क्योंकि मेहरिन मेरी माँ मामूली रुपल्ली के पीछे बेगानों के फ़र्श और बरतन चमकाया करती हैं? क्या हम एक ही मानव जाति के बन्दे नहीं? एक ही पृथ्वी के बाशिन्दे? मुकाबला शुरू किया मेरे कौतुहल ने! “सिटियस,’ ‘औलटियस,’ ‘फौर्टियस’ शाम पाँच बजे प्रिंसीपल बाबू अपने बेटे, किशोर को  कसरत कराया करते थे| जिस कमरे में किशोर कसरत करता था उसकी एक खिड़की हमारे क्वार्टर की तरफ़ खुलती थी| स्पोर्ट्स कॉलेजके प्रिंसीपल बाबू के बंगले के पिछवाड़े बने पाँच क्वार्टरों में से एक में हम रहते थे- बप्पा, माँ और मैं| बप्पा कपड़े की प्रेस चलाते थे, माँ बंगले में काम करती थी और मुझे स्कूल में पढ़ाया जा रहा था| सातवीं जमात तक पहुँचते पहुँचते मैं उन तीनों लातिनी शब्दों के अर्थ जान चुका था, जिन्हें ओलम्पिक खेलों में लोग एक मोटो, एक आदर्श-वाक्य की तरह मानते और बोलते रहे हैं : ‘सिटियस’ माने‘और तेज़’, ‘औलटियस’ माने‘और ऊँचा’, ‘फौर्टियस’ माने‘और ज़ोरदार’| “धोबीका लड़का इधर देख रहा है,” तीन माह पूर्व किशोर ने मुझे अपने कमरे की खिड़की के बाहर से अन्दर झाँकते हुए पकड़ लिया था| “इधर आओ,” प्रिंसीपल साहब ने मुझे खिड़की से अन्दर बुलाया था| “प्रणाम सर जी…..” मैंने उन्हें सलाम ठोंका था| “यह क्या है?” किशोरअपनी कसरत एक मेज़ जैसे ढाँचे पर करता था जिसकी दोनों टाँगें फ़र्श से चिपकी रहतीं और जिसके ऊपरी तल पर दो फ़िक्स हत्थे खड़े रहते| ढाँचे पर किशोर हाथ के बल सवार होता और एक हत्थे पर दोनों हाथ टिका कर अपना धड़ और दोनों पैर हवा ले जाता और फिर अपने पैर जोड़कर गोल छल्ले बनाता हुआ घूमता| कभी दायीं दिशा में| तो कभी बाँयी दिशा में| फिर एक हाथ छोड़ते समय पैरों की कैंची बनाता और दूसरे हत्थे पर पुनः दोनों हाथ जा टिकाता और दोनों पैर फिर से जोड़ता और गोलाई में चक्कर काटने लगता : दायीं दिशा में| बाँयी दिशा में| “यह कसरत वाली मेज़ है, सर जी,” मैंने कहा| “यह पौमेल हॉर्स है, ईडियट,” किशोर हँसा| “तुम इसकी सवारी करोगे?” प्रिंसीपल साहब ने मुझ से पूछा| “जी, सर जी,” मैं तत्काल राज़ी हो गया| ढाँचे की ऊँचाई बप्पा की प्रेस की मेज़ से बहुत ज़्यादा थी और उसकी चौड़ाई बहुत कम| यहाँ यह बता दूँ, किशोर की कसरत मैं अकसर मौका पाते ही अपने बप्पा की मेज़ पर दोहराने का प्रयास करता रहा था| शुरू में बेशक वह बहुत मुश्किल रहा था| लेकिन धीरे धीरे हाथों के बल मैं इकहरा चक्कर तो काट ही ले जाता| हाँ, किशोर की तरह दोहरा चक्कर काटते समय मिले हुए मेरे पैरों का जोड़ ज़रूर टूट-टूट जाता| उछल कर मैंने उस पौमेल हॉर्स की ऊँचाई फलांग ली और बाँए हत्थे पर अपने हाथ जा टिकाए| उस हत्थे की टेक मुझे क्या मिली मेरे पैर और धड़ पंखों की मानिन्द हल्के हो कर बाँयी दिशा में घूम लिए, दायीं दिशा में घूम लिए मानो उस हत्थे में कोई लहर थी जो हवा में मुझे यों लहराती चली गयी| “तुम्हारे शरीर में अच्छी लचक है,” प्रिंसीपल बाबू गम्भीर हो चले, “लेकिन तुम्हारे पैर अभी अनाड़ी हैं| सही दिशा नहीं जानते| सही नियम नहीं जानते| सही लय नहीं जानते| अभी उन्हें बहुत सीखना बाकी है…..” “मैं आपसे सीख लूँगा, सर जी,” मैं प्रिंसीपल बाबू के चरणों पर गिर गया, “मुझे यह कसरत बहुत अच्छी लगती है, सर जी…..” मैं सीखने लगा| झूलना-डोलना| उठना-गिरना| हाथ की टेक| हत्थों की टेक| हवा की टेक| पैर की टेक| धड़ की टेक| नयी छलाँगें| नयी कलाबाज़ियाँ| नयी युक्तियाँ| उनके नए-नए नाम : स्विंगिंग, टम्बलिंग, हैंड प्लेसमेंट्स, बॉडी प्लेसमेंट्स….. सब से मैंने अपनी पहचान बढ़ा ली….. “अगले सप्ताह हमारे कस्बापुर में एक जिमनैस्टिक्स प्रतियोगिता आयोजित हो रही है,” जभी एक दिन प्रिंसीपलबाबू ने किशोर को व मुझे सूचना दी, “लखनऊ उन्हें एक ही पामेलहॉर्स जिमनेस्ट भेजना है और मैं चाहता हूँ किशोर ही उसमें चुना जाए| चिरंजी को इसलि ए साथ ले जाना चाहता हूँ ताकि पामेलहॉर्स प्रतियोगिता में प्रतिभागी की गिनती भी पूरी हो जाए और यह किशोर को विजय दिलाने के लिएअपने तीन पूरे नहींले…..” “जी, सरजी,” मेरा जी खट्टा हुआ मगर मैं अपने जी की हालत छिपा ले गया| “तुम्हारे मांगे बिना मैंने तुम्हारे लिए किशोर की पुरानी जिमनैस्टिक पोशाक तैयार करवायी है,” प्रिंसीपल बाबू ने मुझे ललचाना चाहा| “जी, सर जी,” मुझ से उत्साह दिखाए न बना| उसी शाम जब मुझे पोशाक के लिए बंगले के अन्दर बुलाया गया तो बहुत कोशिश के बावजूद मेरे माप के मोज़े व स्लीपर्ज़ न मिल सके| “नंगे पैर जाने में कोई हर्ज नहीं,” प्रिंसीपल बाबू ने कहा| “नहीं, सर जी” मैंनेसिर झुका लिया| “एकलव्य की कहानी जानते हो?” किशोर हँस कर पिता की ओर देखने लगा| “एकलव्य?” मेरा दिल धक्क से बैठ गया| एक नया डर, एक नयी फ़िकर मेरे मन में आन बैठी, “प्रिंसीपल बाबू ने गुरु-दक्षिणा में मेरी उँगली मुझ से छीन ली तो?” प्रतियोगिता के दिन जैसे ही मेरे पैर और मेरा धड़ ज़मीन से छूट कर हवा में लहराया, मेरा शरीर एक दूसरी आज्ञाकारिता के हवाले हो गया| सभी चेहरे धुँधले पड़ गए| सभी निर्देश, सभी आग्रह पीछे … Read more