रम्भा

आदरणीय दीपक शर्मा जी कथा बिम्बों को किसी उपमा के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए जब कहानी बुनती हैं तो पाठक चमत्कृत हो जाता हैं | रम्भा एक ऐसी ही कहानी है जिसकी नायिका रम्भा देवलोक की अप्सरा भले ही ना हो पर अपने साथी को छोड़ कर जाने की उसकी कुछ स्वनिर्मित शर्तें हैं ….जिनके टूटते ही वो लौट जाने में एक पल की भी देर नहीं करती , यहाँ तक की पूछने का अवसर भी नहीं देती …आइये पढ़ें  कहानी -रम्भा  सोने से पहले मैं रम्भा का मोबाइल ज़रूर मिलाता हूँ| दस और ग्यारह के बीच| ‘सब्सक्राइबर नाट अवेलेबल’ सुनने के वास्ते| लेकिन उस दिन वह उपलब्ध रही- “इस वक़्त कैसे फ़ोन किया, सर?” “रेणु ने अभी फ़ोन पर बताया, कविता की शादी तय हो गयी है,” अपनी ख़ुशी को तत्काल काबू कर लेने में मुझे पल दो पल लग गए| रेणु मेरी बहन है और कविता उसकी बेटी| रम्भाको मेरे पास रेणु ही लाई थी- “भाई, यह तुम्हारा सारा काम देखेगी| फ़ोन, ई-मेल और डाक…..!” “हरीश पाठक से?” रम्भा हँसने लगी| “तुम्हें कैसे मालूम?” “उनके दफ़्तर में सभी जानते थे,” रम्भा ने कुछ महीने कविता की निगरानी में क्लर्की की थी| रम्भाहमेशा ही कोई न कोई नौकरी पकड़े रखती थी, कभी किसी प्राइवेट दफ़्तर में रिसेप्शनिस्ट की तो कभी किसी नए खुले स्कूल में अध्यापिका की तो कभी किसी बड़ी दूकान में सेल्सगर्ल की| रेणु को रम्भा कविता की मार्फत मिली थी| “तुमने मुझे कभी बताया नहीं?” मैंने बातचीत जारी रखनी चाही| रम्भा की आवाज़ मुझे मरहम लगाया करती| “कैसे बताती, सर? बताती तो वह चुगली नहीं हो जाती क्या?” “ओह!” मैं अंदर तक गुदगुदा गया| उसकी दुनिया बड़ी संकीर्ण थी| उसे मेरी दुनिया का ज्ञान केवल सतही स्तर पर रहा| “अच्छा, बताओ,” मैंने पूछा- “कविता की शादी पर मेरे साथ चलोगी?” मेरी पत्नी मेरे परिवार में मेरी बहनों के बच्चों की शादी में नहीं जाती थी- ‘यही क्या कम है जो आपकी तीन-तीन बहनों का आपकी बगल में बैठकर कन्यादान कर चुकी हूँ?’ कुल जमा तीस वर्ष की उम्र में पिता को खो देने के बाद अपने परिवार में मुझे‘मुखिया’ की भूमिका तो निभानी ही पड़ती थी| “क्यों नहीं चलूँगी, सर?” रम्भा उत्साहित हुई- “कविता जीजी का मुझ पर बहुत अहसान है| उन्हीं के कारण ही तो आपसे भेंट हुई…..|” “तुम्हारे परिवार वाले तो हल्ला नहीं करेंगे?” मैंने पूछा| वह विवाहिता थी| सात साल पहले उसके हेडक्लर्क पिता ने उसका विवाह अपने ही दफ़्तर में नए आए एक क्लर्क से कर दिया था और अब छह साल की उम्र की उसकी एक बेटी भी थी| तिस पर उसके सास-ससुर भी उसके साथ ही रहते थे|“बिलकुल नहीं, सर! वे जानते हैं आपकी नौकरी मुझे शहर के बाहर भी ले जा सकती है…..” “और तुम भी यही समझती हो, मेरे साथ कविता की शादी में जाना तुम्हारी नौकरी का हिस्सा है?” मैंने उसे टटोला! “नहीं, सर! मैं जानती हूँ, सर! मैं समझती हूँ, सर! आप मुझ पर कृपा रखते हैं|” मेरे डॉक्टर ने मुझे सख्त मना कर रखा था, रम्भा को कभी यह मालूम न होने पाए, उसके संसर्ग में रहने के कारण मेरी दवा की ख़ुराक पचास एम. जी. (मिलीग्राम) से पाँच एम. जी. तक आ पहुँची थी| वह नहीं जानती थी, कृपा करने वाली वह थी, मैं नहीं| “अच्छा बताओ, इस समय तुम क्या कर रही हो?” “मैं कपड़े धो रही हूँ, सर!” “इस सर्दी की रात में?” “इस समय पानी का प्रेशर अच्छा रहता है, सर, और मेरी सास तो रोज़ ही इस समय कपड़े धोती हैं| आज उनकी तबीयत अच्छी नहीं थी, सो मैं धो रही हूँ|” “तुम्हारे पति कहाँ हैं?” “वे सो रहे हैं, सर| दफ़्तर में आज ओवर टाइम लगाया था| सो खाना खाते ही सोगए…..!” शुरू में रम्भा का पति उसे मेरी फैक्टरी में छोड़ते समय लगभग रोज़ ही मुझे सलाम करने मेरे कमरे में आ धमकता था| फिर जल्दी ही मैंने रम्भा से कह डाला था- ‘अपने पति को बता दो, बिना मेरे दरबान की अनुमति लिए उसका मेरे कमरे में आना मेरे कर्मचारियों को ग़लत सिगनल दे सकता है…..!’ वह यों भी मुझे खासा नापसंद था| शोचनीय सीमा तक निम्नवर्गीय और चापलूस| वैसे तो रम्भा का दिखाव-बनाव भी निम्नवर्गीय था- अटपटे, छापेदार सलवार सूट, टेढ़ी-मेढ़ी पट्टियों वाली सस्ती सैंडिल और मनके जड़ा कैनवस का बटुआ| मेरी पत्नी अकसर कहा करती थी-स्त्री की कीमत उसकी एकसेसरीज़(उपसाधन) परिभाषित करती हैं, और उनमें भी उसका बटुआ और जूता| “तुम कब सोओगी?” मैंने पूछा| लेकिन उसका उत्तर सुनने से पहले मेरे कमरे का दरवाज़ा खुल गया| सामने बेटी खड़ी थी| “मालूम है?” वह चिल्लाई- “उधर ममा किस हाल में हैं?” “क्या हुआ?” मैंने अपना मोबाइल ऑफ़ कर दिया और उसे मेज पर रखकर बगल वाले कमरे की ओर लपक लिया| रात में मेरी पत्नी दूसरे कमरे में सोया करती और बेटी तीसरे में| नौकर की संभावित शैतानी के भय से रात में हम तीनों ही के कमरों के दरवाजे अपने-अपने ऑटोमेटिक ताले के अंतर्गत अंदर से बंद रहा करते| लेकिन हमारे पास एक-दूसरे के कमरे की चाभी ज़रूर रहा करती| जिस किसी को दूसरे के पास जाना रहता, बिना दरवाजा खटखटाए ताले में चाभी लगा दी जाती और कमरे में प्रवेश हो जाता| पत्नी के कमरे का दरवाजा पूरा खुला था और वह अपने बिस्तर पर निश्चल पड़ी थी| “क्या हुआ?” मैं उसके पास जा खड़ा हुआ| उत्तर में उसने अपनी आँखें छलका दीं| यह उसकी पुरानी आदत थी| जब भी मुझे खूब बुरा-भला बोलती, उसके कुछ ही घंटे बाद अपनेआप को रुग्णावस्थामें ले जाया करती| उस दिन शाम को उसने मुझसे खूब झगड़ा किया था| बेटी के साथ मिलकर| मेरी दूसरी बहन इंदु की टिकान को लेकर| इधर कुछ वर्षों से जब भी मेरी बहनें या उनके परिवारों के सदस्य मेरे शहर आया करते, मैं उन्हें अपने घर लानेकी बजाय अपने क्लब के गेस्ट हाउस में ठहरा दिया करता| “आज इंदु जीजी को बाज़ार में देखा!” पत्नी गुस्से से लाल-पीली हुई जा रही थी- “तुम्हारे ड्राइवर के साथ|” हम पति-पत्नी के पास ही नहीं, हमारी बेटी के पास भी अपनी निजी मोटरकार रही| बेशक उसकी वह मोटरकार मेरी ही ख़रीदी हुई थी-उसके दहेज़ के एक अंश के रूप में| हमारी इकलौती संतान … Read more

ढलवाँ लोहा

आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं सशक्त कथाकार दीपक शर्मा जी की कहानी “ढलवाँ लोहा “| ये कहानी 2006 में हंस में प्रकाशित हुई थी | दीपक शर्मा जी की कहानियों  बुनावट इस तरह की होती है कि आगे क्या होगा का एक रहस्य बना रहता है | यह कहानी भी विज्ञान को आधार बना कर लिखी गयी है | लोहे के धातुकर्म (metallurgy) में ढलवां लोहा बनाने की वैज्ञानिक क्रिया से मानव स्वाभाव की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया के मध्य साम्यता स्थापित करती ये कहानी विज्ञान, मनोविज्ञान और साहित्यिक सौन्दर्य का बेहतरीन नमूना है | आइये पढ़ते हैं … ढलवाँ लोहा  “लोहा पिघल नहीं रहा,” मेरे मोबाइल पर ससुरजी सुनाई देते हैं, “स्टील गढ़ा नहीं जा रहा…..” कस्बापुर में उनका ढलाईघर है : कस्बापुर स्टील्ज़| “कामरेड क्या कहता है?” मैं पूछता हूँ| ढलाईघर का मैल्टर, सोहनलाल, कम्युनिस्ट पार्टी का कार्ड-होल्डर तो नहीं है लेकिन सभी उसे इसी नाम से पुकारते हैं| ससुरजी की शह पर: ‘लेबर को यही भ्रम रहना चाहिए, वह उनके बाड़े में है और उनके हित सोहनलाल ही की निगरानी में हैं….. जबकि है वह हमारे बाड़े में…..’ “उसके घर में कोई मौत हो गयी है| परसों| वह तभी से घर से ग़ायब है…..” “परसों?” मैं व्याकुल हो उठता हूँ लेकिन नहीं पूछता, ‘कहीं मंजुबाला की तो नहीं?’ मैं नहीं चाहता ससुरजी जानें सोहनलाल की बहन, मंजुबाला, पर मैं रीझा रहा हूँ| पूरी तरह| “हाँ, परसों! इधर तुम लोगों को विदाई देकर मैं बँगले पर लौटता हूँ कि कल्लू चिल्लाने लगता है, कामरेड के घर पर गमी हो गयी…..” हम कस्बापुर लौट आते हैं| मेरी साँस उखड़ रही है| विवाह ही के दिन ससुरजी ने वीणा को और मुझे इधर नैनीताल भेज दिया था| पाँच दिन के प्रमोद काल के अन्तर्गत| यह हमारी दूसरी सुबह है| “पापा,” वीणा मेरे हाथ से मोबाइल छीन लेती है, “यू कांट स्नैच आर फ़न| (आप हमारा आमोद-प्रमोद नहीं छीन सकते) हेमन्त का ब्याह आपने मुझसे किया या अपने कस्बापुर स्टील्ज़ से?” उच्च वर्ग की बेटियाँ अपने पिता से इतनी खुलकर बात करती हैं क्या? बेशक मेरे पिता जीवित नहीं हैं और मेरी बहनों में से कोई विवाहित भी नहीं लेकिन मैं जानता हूँ, उन पाँचों में से एक भी मेरे पिता के संग ऐसी धृष्टता प्रयोग में न ला पातीं| “पापा आपसे बात करेंगे,” वीणा मेरे हाथ में मेरा मोबाइल लौटा देती है; उसके चेहरे की हँसी उड़ रही है| “चले आओ,” ससुरजी कह रहे हैं, “चौबीसघंटे से ऊपर हो चला है| काम आगे बढ़ नहीं रहा|” “हम लौट रहे हैं,” मुझे सोहनलाल से मिलना है| जल्दी बहुत जल्दी| “मैं राह देख रहा हूँ,” ससुरजी अपना मोबाइल काट लेते हैं| “तुमसामान बाँधो, वीणा,” मैं कहता हूँ, “मैं रिसेप्शन से टैक्सी बुलवा रहा हूँ…..” सामान के नाम पर वीणा तीन-तीन दुकान लाई रही : सिंगार की, पोशाक की, ज़ेवर की| “यह कामरेड कौन है?” टैक्सी में बैठते ही वीणा पूछती है| “मैल्टर है,” सोहनलाल का नाम मैं वीणा से छिपा लेना चाहता हूँ, “मैल्ट तैयार करवाने की ज़िम्मेदारी उसी की है…..” “उसका नाम क्या है?” “सोहनलाल,” मुझेबताना पड़ रहा है| “उसी के घर पर आप शादी से पहले किराएदार रहे?” “हाँ….. पूरे आठ महीने…..” पिछले साल जब मैंने इस ढलाईघर में काम शुरू किया था तो सोहनलाल से मैंने बहुत सहायता ली थी| कस्बापुर मेरे लिए अजनबी था और मेरे स्त्रोत थे सीमित| आधी तनख्वाह मुझे बचानी-ही-बचानी थी, अपनी माँ और बहनों के लिए| साथ ही उसी साल मैंआई. ए. एस. की परीक्षा में बैठ रहा था| बेहतर अनुभवके साथ| बेहतर तैयारी के साथ| उससे पिछले साल अपनी इंजीनियरिंग ख़त्म करते हुए भी मैं इस परीक्षा में बैठ चुका था लेकिन उस बार अपने पिता के गले के कैंसर के कारण मेरी तैयारीपूरी न हो सकी थी और फिर मेरे पिता की मृत्यु भी मेरे परीक्षा-दिनों ही में हुई थी| ऐसे में सोहनलाल ने मुझे अपने मकान का ऊपरी कमरा दे दिया था| बहुत कम किराए पर| यही नहीं, मेरे कपड़ों की धुलाई और प्रेस से लेकर मेरी किताबों की झाड़पोंछ भी मंजुबाला ने अपने हाथ मेंले ली थी| मेरे आभार जताने पर, बेशक, वह हँस दिया करती, “आपकी किताबों से मैं अपनी आँखें सेंकती हूँ| क्या मालूम दो साल बाद मैं इन्हें अपने लिए माँग लूँ?” “उसके परिवार में और कितने जन थे?” “सिर्फ़ दो और| एक, उसकी गर्भवती पत्नी और दूसरी, उसकी कॉलेजिएट बहन…..” “कैसी थी बहन?” “बहुत उत्साही और महत्वाकांक्षी…..” “आपके लिए?” मेरे अतीत को वीणा तोड़ खोलना चाहती है| “नहीं, अपने लिए,” अपने अतीत में उसकी सेंध मुझे स्वीकार नहीं, “अपने जीवन को वह एक नयी नींव देना चाहती थी, एक ऊँची टेक…..” “आपको ज़मीन पर?” मेरी कोहनी वीणा अपनी बाँह की कोहनी के भीतरी भाग पर ला टिकाती है, “आपके आकाश में?” “नहीं,” मैं मुकर जाता हूँ| “अच्छा, उसके पैर कैसे थे?” वीणा मुझे याद दिलाना चाहती है उसके पैर उसकी अतिरिक्त राशि हैं| यह सच है वीणा जैसे मादक पैर मैंने पहले कभी न देखे रहे : चिक्कण एड़ियाँ, सुडौल अँगूठे और उँगलियाँ, बने-ठने नाखून, संगमरमरी टखने| “मैंने कभी ध्यान ही न दिया था,” मैं कहता हूँ| वीणा को नहीं बताना चाहता मंजुबाला के पैर उपेक्षित रहे| अनियन्त्रित| ढिठाई की हद तक| नाखून उसके कुचकुचे रहा करते और एड़ियाँ विरूपित| “क्यों? चेहरा क्या इतना सुन्दर था कि उससे नज़र ही न हटती थी!….. तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती, तेरे पैर हम क्या देखें?” वीणा को अपनी बातचीत में नये-पुराने फ़िल्मी गानों के शब्द सम्मिलित करने का खूब शौक है| “चेहरे पर भी मेरा ध्यान कभी न गया था,” वीणा से मैं छिपा लेना चाहता हूँ, मंजुबाला का चेहरा मेरे ध्यान में अब भी रचा-बसा है : उत्तुंग उसकी गालों की आँच, उज्ज्वल उसकी ठुड्डी की आभा, बादामीउसकी आँखों की चमक, टमाटरी उसके होठों का विहार, निरंकुशउसके माथे के तेवर….. सब कुछ| यहाँ तक कि उसके मुँहासे भी| “पुअर थिंग (बेचारी)” घिरी हुई मेरी बाँह को वीणा हल्के से ऊपर उछाल देती है| “वीणा के लिए तुम्हें हमारी लांसर ऊँचे पुल पर मिलेगी,” ससुरजी का यह आठवाँ मोबाइल कॉल है- इस बीच हर आधे घंटे में वे पूछते रहे हैं “कहाँ हो?” ‘कब तक पहुँचोगे?’ “ड्राइवरके साथ वीणा बँगले पर चली जाएगी और तुम इसी … Read more

हकदारी

एक स्त्री पर हक़ जताते अपने ही लोग उसे कभी अपनी इच्छा से जीने का हक़ नहीं देते | अजीब विडंबना है कि इस हकदारी के कफ़न के भीतर जिन्दा दफ़न होने को अभिशप्त होती हैं औरतें …. कहानी -हकदारी  “उषा अभी लौटी नहीं है”- मेरे घर पहुँचते ही अम्मा ने मुझे रिपोर्ट दी|   “मैं सेंटर जाता हूँ|” मैं फिक्र में पड़ गया|   दोपहर बारह से शाम छह बजे तक का समय उषा एक कढ़ाई सेंटर पर बिताया करती| अपने रोजगार के तहत| शहर के बाहर बनी हमारी इस एल.आई.जी. कॉलोनी के हमारे सरकारी क्वार्टर से कोई बीस मिनट केपैदल रास्ते के अंदर|   “देख ही आ|” अम्मा ने हामी भरी, “सात बजने को हैं…..”   “उषा के मायके से यहाँ फोन आया था|” कढ़ाई सेंटर की मालकिन ‘मी’ मुझे देखते ही मेरे पास चली आई|   उस सेंटर की लेबर सभी स्त्रियाँ अपनी मालकिन को‘मी’ ही बुलाया करतीं| टेलीफोन पर अपने नाम की जगह हर बार उसे जब लेबर ने ‘मी’ जवाब देते हुए सुना तो बेचारी अनपढ़ यही सोच बैठीं कि उसका नाम ही ‘मी’ है| उषा के बताने पर मैंने‘मी’ का खुलासा खोला भी| तब भी आपस में वे उसे‘मी ही कहा करतीं|   “कौन बोल रहा था?” मैंने पूछा|   “उसकी बहन शशि, बता रही थी, उनकी माँ की हालत बहुत ख़राब है…..”   “कितने बजे आया यह फोन?”   “यही कोई तीन, साढ़े तीन बजे के बीच…..”मैं घर लौट आया| “पन्नालाल कुछ ज्यादा ही अलगरजी दिखा रहा है|” अम्मा ने डंका पीटा और लड़ाई का फरमान जारी कर दिया, “पाजी ने हमें कुछ बताने की कोई जरूरत ही नहीं समझी? और जब हम पूछेंगे तो बेहया बोल देगा कि कढ़ाई सेंटर से खबर ले ली होती…..”   “देखो तो|” मुझे शक हुआ| “उषा यहाँ से कुछ ले तो नहीं गई?”   चार महीने के आर-पार फैली हमारी गृहस्थी की पटरी सही बैठनी बाकी रही, उषाही की वजह से| बीच-बीच में वह पर निकाल लिया करती| परी समझती रही अपने को| उषा की कीमती साड़ियाँ और सोने की बालियाँ अम्मा के ताले में बंद रहा करतीं| सभी को वहाँ ज्यों की त्यों मौजूद देखकर हमें तसल्ली मिली| “तारादेई जरूर ज्यादा बीमार रही होगी|” मैंने कहा| उषा की माँ का नाम तारादेई था और बाप का पन्नालाल| “तो क्या उसे फूँककर ही आएगी?” अम्मा हँसने लगी|   अगली सुबह दफ्तर जाते समय मेरी साइकिल अपने आप ही उषा के मायके घर की तरफ मुड़ ली| कढ़ाई वाली गली| पन्नालाल का वहाँ अपना पुश्तैनी मकान था| तारादेई से पहले उसकी माँ कढ़ाई का काम करती रही थी और अब तारादेई और उसकी बेटियाँ उसी की साख के बूते पर खूब काम पातीं उर अच्छे टाइम पर निपटा भी दिया करतीं| इसी पुराने अभ्यास के कारण उषा की कढ़ाई इधर हमारे एरिया-भर में भी मशहूर रही| कढ़ाई सेंटर की मालकिन तो खैर उस पर लट्टू ही रहा करती|   “इधर सब लोग कैसे हैं?” पन्नालाल के घर के बगल ही में एक हलवाई की दुकान थी| हलवाई पन्नालाल को बहुत मानता था और मेरी खूब खातिर करता| मुझे देखते ही एक दोना उठाता और कभी ताजा बना गुलाबजामुन उसमें मेरे लिए परोस देता तो कभी लड्डू की गरम बूँदी|   “आओ बेटा!” उस समय वह गरम जलेबी निकाल रहा था| हाथ का काम रोककर उसने उसी पल कड़ाही की जलेबी एक दोने में भर दीं, “इन्हें पहले चखो तो…..”   “कल उषा यहाँ आई थी?” जलेबी मैंने पकड़ ली|   “तारादेई अस्पताल में दाखिल है|” हलवाई ने कहा, “उसकी हालत बहुत नाजुक है| सभीबच्चियाँ वहीं गई हैं…..” उषा के परिवार में भी मेरे परिवार की तरह एक ही पुरुषजन था-पन्नालाल| बाकी वे पाँच बहनें ही बहनें थीं| शादी भी अभी तक सिर्फ उषा ही की हुई थी|   “सिविल में?” मैंने पूछा|   “वहीं ही| सरकरी जो ठहरा…..” उस दिन दफ़्तर में अपना पूरा समय मैंने ऊहापोह में काटा| अस्पताल जाऊँ? न जाऊँ? अम्मा क्या बोलेगी? क्या सोचेगी? मुझे बताए बगैर ससुराल वालों से मिलने लगा? मेरी सलाह बगैर उधर हलवाई के पास चला गया? जलेबी भी खाली?   कढ़ाई वाली गली मेंमेरे आने-जानेको लेकर अम्मा बहुत चौकस रहा करती| उषा के परिवार में से मेरी किस-किससे बात हुई? वहाँ मुझे क्या-क्या खिलाया-पिलाया गया? क्या-क्या समझाया-बुझाया गया?     सिविल जाना फिर मैं टाल ही गया|     शाम घर पहुँचा तो अम्मा फिर पिछौहे वैर-भाव पर सवार हो ली, “समधियाने की ढिठाई अब आसमान छू रही है| अभी तक कोई खबर नहीं भेजी…..”   “ढिठाई है तो,”…..मैंने झट हाँ में हाँ मिला दी|   हलवाई की खबर न खोली|   अम्मा के सवालों की बौछार के लिए मैं तैयार न था|   “दिलअपना मजबूत रखना अब| इतनी ढिलाई देनी ठीक नहीं| तारा देई बीमार है तो ऐसी कौन-सी आफत है? उषा के अलावा उधर उसे देखने वालियाँ चार और हैं| उषा को क्या सबसे ज्यादा देखना-भालना आता है? पन्नालाल के पास मानो फुरसत नहीं तो उषा को यहाँ आकर हमें पूछना-बतलाना जरूरी नहीं रहा क्या?”   तीसरा दिनभी गुजर गया| बिना कोई खबर पाए|   फिर चौथा दिन गुजरा| फिर पाँचवाँ| फिर छठा|   पास-पड़ोस से उषा को पूछने कई स्त्रियाँ आईं| सभी की कढ़ाई उषा की सलाह से आगे बढ़ा करती| “उषा कहीं दिखाई नहीं दे रही?” अम्मा से सभी ने पूछा, “रूठकर चली गई क्या? हुनर वाली तो है ही| इधर काम छोड़ेगी तो उधर पकड़ लेगी…..”     “काम तो उधर उसने पकड़ ही लिया है|” अम्मा के पास हर सवाल का जवाब रहा करता| “उसकीमाँको कढ़ाई का कोई बड़ा ऑर्डर मिला था और अपनी इस गुलाम को उसने बुलवा भेजा| हमें कौन परवाह है? हमारी बला से! उनकी गुलामी उसे भाती है तो भायी रहे…..”   सातवें रोज पन्नालाल मेरे दफ्तर चला आया|   मन में मेरे मलाल तो मनों रहा, लेकिन खुलेआम उसकी बेलिहाजी मुझसे हो न पाई और लोगों को दिखाने-भर के लिए मैंने उसके पाँव छू लिए| हमारेदफ्तरमें कई लोग उसे जानते थे, हालाँकि उसका दफ्तर हमारे दफ्तर से पंद्रह-सोलह किलोमीटर की दूरी पर तो ही था| हम चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी जिस यूनियन के बूते बोनस और तरक्की पाते रहे, उस यूनियन का वह लगातार तीन साल … Read more

बाजा-बजन्तर

अगर आप संगीत के शौक़ीन हैं तो आप के यहाँ भी बाजा बजता ही होगा | कई बार ये शौक आपको वोल्यूम के बटन को प्लस पर दबाने को विवश भी कर देता होगा जिससे आपके साथ -साथ आपके पडोसी भी  आपके उन पसंदीदा गानों का लुत्फ़ ले सकें और अगर वो उनके पसंदीदा  गाने न हो तो  उन्हें भुगत सकें | जो भी हो किसी के घर से आने वाली संगीत की ये स्वरलहरियाँ उसके संगीत प्रेमी होने का ऐलान तो कर ही देती हैं | पर क्या आप जानते हैं कि कई बार बजते हुए बाजे की मनभावन धुनों के पीछे कुछ अलग ही कारण छुपे  होते हैं …. क्या आप सुनना चाहेंगे ? बाजा-बजन्तर बाजा अब बजा कि बजा दोपहर में| नयी किराएदारिन को देखते ही मैं और छुटकू उछंग लेते हैं| वह किसी स्कूल में काम करती है और सुबह उसके घर छोड़ते ही बाजा बंद हो जाता है और इस समय दोपहर में उसके घर में घुसते ही बाजा शुरू| छुट्टी वाले दिन तो, खैर, वह दिन भर बजता ही रहता है| गली के इस आखिरी छोर पर बनी हमारी झोपड़ी की बगल में खड़ी हमारी यह गुमटी इन लोगों के घर के ऐन सामने पड़ती है| जभी जब इनका बाजा हवा में अपनी उमड़-घुमड़ उछालता है तो हम दोनों भी उसके साथ-साथ बजने लगते हैं; कभी ऊँचे तो कभी धीमे, कभी ठुमकते हुए तो कभी ठिठकते हुए| अम्मा जो धमकाती रहती है, “चौभड़ फोड़ दूँगी जो फिर ऐसे उलटे सीधे बखान ज़ुबान पर लाए| घरमें दांत कुरेदने, को तिनका नाहीं और चले गल गांजने…..” “आप बाजा नहीं सुनते?” नए किराएदार से पूछ चुके हैं हम| हमारीगुमटीपर सिगरेट लेने वह रोज़ ही आता है| “बाजा? हमारा सवाल उसे ज़रूर अटपटा लगे रहा? ‘क्यों? कैसे?” “घर में आपका बाजा जभी बजता है जब आपकी बबुआइन घर में होती है, वरना नाहीं…..” “हाँ…..आं…..हाँ…..आं| बाजा वही बजाती है| वही सुनती है…..” “आप कहीं काम पर नहीं जाते?” हमयह भी पूछ चुकेहैं| इन लोग को इधर आए महीना होने को आए रहा लेकिन इस बाबू को गली छोड़ते हुए हम ने एक्को बार नाहीं देखा है| “मैं घर से काम करता हूँ…..” “कम्प्यूटर है का?” “जिन चार दफ्तरों में अम्मा झाड़ू पोंछा करती है सभी में दिन भर कम्प्यूटर चला करते हैं| यूँ तो इन लोग के आने पर अम्मा भी इनके घर काम पकड़ने गयी रही लेकिन इस बाबू ने उसे बाहर ही से टरका दिया रहाकाम हमारे यहाँ कोई नहीं| इधर दो ही जन रहते हैं|” “हाँ…..आं…..हाँ…..आं….. कम्प्यूटर है, कम्प्यूटर है| लेकिन एक बात तुम बताओ, तुम मुझे हमेशा बैठी ही क्यों मिलती हो?” “बचपनमें इसके दोनों पैर एक मोटर गाड़ी के नीचे कुचले गए थे, मेरी जगह छुटकू जवाब दिए रहा|” “बचपन में?” “झप से वह हसे रहा, ‘तो बचपन पार हो गया? क्या उम्र होगी इस की? ज़्यादा से ज़्यादा दस? या फिर उस से भी कम?” “अम्मा कहती हैं मैं, तेरह की हूँ और छुटकू बारह का…..” “मालूम है? झड़ाझड़ उसकीहँसी बिखरती गयी रही, मैं जब ग्यारह साल का था तो मेरा भी एक पैर कुचल गया रहा| लेकिन हाथ है कि दोनों सलामत हैं| और सच पूछो तो पैर केमुकाबले हमारे हाथ बड़ी नेमत हैं| हमारे ज़्यादा काम आते हैं| पानी पीना हो हाथ उलीच लो, बन गया कटोरा| चीज़ कोई भारी पकड़नी हो, उंगलियाँ सभी साथ, गूंथ लो, बन गयी टोकरी…..” “मगर आप लंगड़ाते तो हो नहीं?” पूछे ही रही मैं भी| “हाँ…..आं…..हाँ…..आं…..लंगड़ाता मैं इसलिए नहीं क्योंकि मेरा नकली पैर मेरे असली पैर से भी ज़्यादा मजबूत है| और मालूम? तुम भी चाहो तो अपने लिए पैर बनवा सकती हो| कई अस्पताल ऐसे हैं, जहाँ खैरात में पैर बनाए जाते हैं…..” “सच क्या?” मेरी आँखों में एक नया सपना जागा रहा| अपनी पूरी ज़िन्दगी में बीड़ी-सिगरेट और ज़रदा-मसाला बेचती हुई नहीं ही काटना चाहती| यों भी अपने पैरों से अपनी ज़मीन मापना चाहती हूँ| घुटनों के बल घिरनी खाती हुई नहीं| सच, बिल्कुल सच| एकदम सच, वह फिर हंसे रहा, और मालूम? मेरा तो एक गुर्दा भी मांगे का है, दिल में मेरे पेसमेकर नाम की मशीन टिक्-टिक् करती है और मेरे मुँह के तीन दांत सोने के हैं…..” “दिखाइए,” “छुटकूउनके रहा, ‘हम ने सोना कहीं देखा नाहीं…..” “सोने वाले दांत अन्दर के दांत हैं, दिखाने मुश्किल हैं…..” “नकली पैर के लिए कहाँ जाना होगा?” अपने घुटनों पर नए जोड़ बैठाने को मेरी उतावली मुझे सनसनाएं रही| “पता लगाना पड़ेगा| मेरा नकली पैर पुराना है| तीस साल पुराना…..” “दो पैकिट सिगरेट चाहिए,” अपनी बबुआइन के स्कूल के समय वह आया है, लेकिन उधार….. उसके हाथ में एक छोटा बक्सा है| “बाहर जा रहे हैं?” छुटकू पूछता है| “हाँ, मैं बच्चों के पास जा रहा हूँ|” “वे आप के साथ नहीं रहते?” “नहीं| उधरकस्बापुर में उन के नाना नानी का घर है| वहीं पढ़ते हैं| वहीं रहते हैं…..” “ऊँची जमात में पढ़ते हैं?” “हाँ| बड़ा बारहवीं में है और छोटा सातवीं में| इधर कैसे पढ़ते? इधर तो हम दो जन उन की माँ की नौकरी की ख़ातिर आए हैं| सरकारी नौकरी है| सरकार कहीं भी फेंक दे| चाहे तो वीरमार्ग पर और चाहे तो, ऐसे उजाड़ में” “उजाड़ तो यह है ही” मैं कहती हूँ, “वरना म्युनिसिपैलटी हमें उखाड़ न देती? यह गुमटी भी और यह झोपड़ी भी|” “सड़क पार वह एक स्कूल है और इधर सभी दफ्तर ही दफ्तर,” वह सिर हिलाता है| “उधार चुकाएँगे कब?” छुटकू दो पैकेट सिगरेट हाथ में थमा देता है| “परसों शाम तक,” वह ठहाका लगाता है, “इधर इन दो डिबिया में कितनी सिगरेट है? बीस| लेकिन मेरे लिए बीस से ऊपर है| मालूम है? एक दिन में मैं छः सिगरेट खरीद पीता हूँ और सातवीं अपनी कर बनायी हुई| छः सिगरेटों के बचे हुए टर्रों को जोड़कर|” “उधरकस्बापुर में नकली पैर वाला अस्पताल है|” पैर का लोभ मेरे अन्दर लगातार जुगाली करता है| अम्मा की शह पर, “जयपुर नाम का पैर मिलता है| ताक में हूँ जैसे ही कोई तरकीब भिड़ेगी, तेरे घाव पुरेंगे| ज़रूर पुरेंगे|” “कस्बापुर में? नाहीं….. नाहीं….. कस्बापुर कौन बड़ी जगह है?” “आज बाजा नहीं बज रहा?” छुटकू धीर खो रहा है| बबुआइन को अपने स्कूल से लौटते हुए हम देखे तो … Read more

प्रेत-छाया

कहते हैं यदि किसी की अकाल मृत्यु हो , हत्या हो , या अस्वाभाविक मृत्यु हो उसकी आत्मा भटकती है | प्रेत-छाया… जैसा की नाम से विदित है ये कहानी किसी परलौकिक जगत के बारे में बात करती है | वैसे छोटी सी इस  कहानी का कैनवास बहुत विशाल है , वो भूत , वर्तमान और भविष्य तीनों फलक  समेटे हुए है | कहानी का लिखने का अंदाज ऐसा है कि पाठक ठहर कर पढने को को विवश होता है | दार्शनिकता के साथ आगे बढती हुई कहानी अंत तक आते -आते एक कोहरे में तब्दील हो जातीं है और पाठक देर तक उसमें विचरता रहता है | आइये पढ़ें दीपक शर्मा जी की बेहतरीन कहानी … प्रेत-छाया ‘माई आइज मेक पिक्चर्स वेन दे आर शट,’ (मेरी आँखें चित्र बनाती हैं जब वे बंद होती हैं) कोलरिज ने एक जगह कहा था| वे चित्र किस काल के रहे होंगे? विगत व्यतीत के? सामने रखे वर्तमान के? आगामी अनागत के? अथवा वे मात्र इंद्रजाल रहे? बिना किसी वास्तविक आधार के? बिना अस्तित्व के? जो केवल कल्पना के आह्वान पर प्रकट हुए रहे? या फिर वे स्वप्न थे जिनके बिंब-प्रतिबिंब चित्त में अंकित किसी देखी-अनदेखी ने सचित्र किए? योगानुसार चित्त की पाँच अवस्थाएँ हैं : क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध| मैं नहीं जानता, मेरा चित्त आजकल कौन-सी अवस्था से गुजर रहा है, किंतु निस्संदेह सत्तासी वर्ष की अपनी इस आयु में जिंदगी मेरे साथ पाँव घसीटकर चल रही है….. यथा समय विराम चिन्ह भी लगाएगी, मैं जानता हूँ….. मेरा घूँट, मेरा कश, मेरा निवाला, मेरा श्वास बीच में रोक देगी और पारलौकिक उस विभ्रंश घाटी में मुझे ले विचरेगी जहाँ समय का हिसाब नहीं रखा जाता….. किन्हीं भी लकीरों में पड़े बिंदु अपनी-अपनी जगह छोड़कर एक ही दायरे में आगे-पीछे घूम सकते हैं, घूम लेते हैं….. ‘उस दिन यह मुँडेर न थी, क्या वह हवा की सीटी थी? या जाई के रेशमी गरारे की सनसनाहट? आज सत्तर साल बाद भी यह बुझौअल लाख बुझाने पर भी अपना हल मुझसे दूर ही रखे है….. मेरे चित्त में कई-कई कुंडल बनाए बैठी है….. ‘गोकुलनाथ,’ उन्नीस सौ अट्ठाईस की उस दोपहर मेरे पिताने मुझे पुकारा है….. तीसरी मंजिल के अपने आंगन से, जिसकी छत के बीचों बीच पाँच गुना पाँच वर्ग फीट की कतली में , लोहे के लम्बे सींखचे समाविष्ट हैं, इस युगात से हमें भिन्न मंजिलों पर होते हुए भी एक -दूसरे से बात करने की सुविधा बनी रहती है ….  ‘जी बाबूजी,’ इधर अपने चेचक के कारण मेरा डेरा चौथी मंजिल की सीढ़ियों की छत के भुज-विस्तार के अंतर्गत बनी बरसाती में है, जिसकी एक खिड़की इस चौमंजिली इमारतकी छत के सीखचों से दो फुट की दूरी पर खुलती है| खिड़की से तीसरी मंजिल के आँगन में खड़े व्यक्ति से वार्तालाप स्पष्ट और सहज किया जा सकता है….. ‘आज कैसी तबीयत है?’ ‘दुरुस्त है|’ ‘बुखार है?’ ‘नहीं मालूम| वैद्य जी ही रोज दोपहर में मेरी नाड़ी देखकर तय करते हैं, मुझे बुखार है या नहीं|’ ‘वैद्य जी आज नहीं आ पाएँगे| बाहर खलबली है| सड़क पर जुलूस आ रहा है|’ इतिहासकार जानते हैं, सन् उन्नीस सौ उन्नीस के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट द्वारा स्थापित भारतीय संविधान की कार्यप्रणाली पर रिपोर्ट तैयार करने हेतु स्टेनले बाल्डविन की कंजरवेटिव ब्रिटिश सरकार ने नवंबर उन्नीस सौ सत्ताईस में एक दल का संगठनकिया था, जिसका नाम था- साइमन कमीशन| इसमें सात सदस्य नामित किए गए थे : चार कंजरवेटिव पार्टी के, दो लेबर पार्टी के और एक लिबरल पार्टी का|  अध्यक्ष रखे गए थे दो : सर जॉन साइमन और क्लीमेंट एटली, जो बाद में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी रहे| इस कमीशन को भारत का दौरा करने के बाद ही अपनी रिपोर्ट देनी थी किंतु जब यह दल हमारे देश में आया तो कांग्रेस पार्टी समेत कई राजनीतिक पार्टियों ने इसका जमकर विरोध किया था| सभी को आपत्ति थी कि इस कमीशन में एक भी भारतीय क्यों नहीं रखा गया था? फलस्वरूप जहाँ-जहाँ यह दल अपनी रिपोर्ट के लिए सामग्री एकत्रित करने जाता वहाँ-वहाँ काली झंडियों के साथ नारे लगाए जाते- ‘गोबैक साइमन, गो बैक…..’   उस दिन वह दल हमारे कस्बापुर में आया है….. ‘जी, बाबूजी…..’ ‘कितना भी, कैसा भी शोर क्यों न हो, मुँडेर पर मत जाना| भीड़ को तितर-बितर करने के वास्ते पुलिस हथगोले फेंक सकती है, गैस छोड़ सकती है, गोली चला सकती है…..’ ‘जी, बाबूजी…..’ ‘वैद्य जी ने तुम्हारे लिए एक पुड़िया भेजी है, खिलावन के हाथ| तुम्हारे पास भेज रहा हूँ| पानी के घोल में इसे पी जाना…..’ उन दिनों खाना भी मुझे इसी खिलावन के हाथ यहीं चौथी मंजिल पर भेजा जाता था| अपने चेचक के कारण पहली मंजिल वाला मेरा कमरा मुझसे छूट गया था| मेरे पिता कपड़े के थोक व्यापारी थे और भू-तल वाली मंजिल के अगले आधे हिस्से में अपनी दुकान खोले थे और पिछले आधे हिस्से में अपना गोदाम रखे थे| पहली मंजिल पर मेरे दादा के और मेरे कमरे के अलावा बैठक थी और मंदिर था|  दूसरी मंजिल पर रसोई और मेहमान कमरे| तीसरी मंजिल पर मेरी सौतेली माँ अपनी पाँच बेटियों के साथ अड्डा जमाए थीं| छूत के डर से उन्हीं ने मेरा कमरा मुझसे छुड़वा रखा था| खाना मुझे खिलावन की निगरानी में खिलाया जाता| शुरू में मैंने खिलावन से कहा भी कि वह खाना रखकर चला जाए, मैं थोड़ी देर में खा लूँगा, लेकिन खिलावन ने सिर हिला दिया, ‘हमें ऐसा हुक्म नहीं| बहूजी कहती हैं, आपके खाने के समय हमें आपके पास खड़े रहना है|’ हाँ, कितना मैं खाता या न खाता, इससे उसे कुछ लेना-देना न रहता| जैसे ही मैं उसकी ओर अपनी थाली बढ़ाता, हाथ बढ़ाकर वह थाली लेता और वापस चला जाता| पुड़िया लेकर मैं अभी बिस्तर पर लेटने ही जा रहा हूँ कि नीचे सड़क से एक हुल्लड़ मुझ तक पहुँचा है….. अपने पिता का कहा बेकहा मानकर मैं मुँडेर की ओर लपक लेता हूँ….. ‘गो बैक साइमन, गो बैक,’ ढेरों नारे हवा में गूँज रहे हैं….. जभी सड़क की दिशा से एक मेघ-गर्जन ऊपर मेरी मुँडेर पर धुँधुआता है….. अंधाधुंध मेरे गिर्द फिरकता है….. मेरी आँखों के वार पार नीर जमा करने लगता है….. मेरी चेचक के ग्यारहवें दिन के पोले उभार टीस … Read more

हम्मिंग बर्ड्ज़

दीदी की मृत्यु के पश्चात् माँ ने उनकी चिड़ियों को उनकी ससुराल से लाने का आदेश दिया | बरसों से दीदी उन्हें पाल रहीं थीं | वो पिताजी की नशानी थी और अब दीदी की भी ……कहाँ गयीं वो हम्मिंग बर्ड्स  कहानी -हम्मिंग बर्ड्ज़  “आजकी भी सुन लीजिए,” मेरे दफ्तर से लौटते ही पत्नी ने मुझे घेर लिया, “माँजी ने आज एक नया फरमान जारी किया है, जीजी की चिड़ियाँ हमें यहाँ लौटा लानी चाहिए|” बहन की मृत्यु पंद्रह दिन पहले हुई थी| उधर अपने पति के घर पर| जिससे उसने पाँच महीने पहले कचहरी में जाकर अपनी मर्ज़ी की शादी रचाई थी| मेरे खिलाफ जाकर| “माँ की ऊलजलूल फरमाइशें मेरे सामने मत दोहराया करो,” मैं झल्लाया, “कितनी बार मैंने तुम्हें बताया है, मेरा मूड बिगड़ जाता है|” “यह अच्छी रही|” पत्नी मुकाबले पर उतर आई, “दिन-भर वह कोहराम मचाएँ, मेरा जी हलकान करें और आपके आने पर आपके साथ मैं अपना जी हलका भी न करूँ?” “ठीक है,” मेरी झल्लाहट बढ़ ली, “अभी पूछता हूँ माँ से|” माँअपनेकमरेमें रामायण पढ़ रही थीं| “तुम्हारी तसल्ली कैसे होगी, माँ?” मैं बरस लिया, “तुमने कहा, काठ-कफ़न मायके का होता है, सो काठ-कफ़न हमने कर दिया, फिर रसम-किरिया पर जो भी देना-पावना तुमने बताया, सो वह भी हमने निपटा दिया| अब उन चिड़ियों का यह टंटाल कैसा?” “तुम्हीं बताओ,” बहन की मृत्यु के बाद से माँ अपने ढक्कन के नीचे नहीं रह पातीं, “वे चिड़ियाँ वहाँ मर गईंतो प्रभा की आत्मा को कष्ट न होगा?” “तो तुम चाहती हो, वर्षा अब विश्शूकी परवरिश छोड़ दे और उन चिड़ियों के दाने-दुनके पर जुट जाए?” “चिड़ियाँ मैं रखूँगी, वर्षा नहीं|” “तुम?” मैं चिल्लाया, “मगर कैसे?” दो साल पहले माँ पर फालिज़ का हमला हुआ था और उनके शरीर का बायाँ भाग काम से जाता रहा था|” “रख लूँगी|” माँ रोने लगीं| “माँजी से आप बहस मत कीजिए|” पत्नी ने पैंतरा बदल लिया| उसे डर था, माँके प्रति मेरी खीझ कहीं सहानुभूति का रूप न धर ले| “आइए,” वह बोली, “उधर विश्शू के पास आकर टी.वी. देखिए| जब तक मैं आपका चाय-नाश्ता तैयार करती हूँ|” रात मुझे बहन नज़र आई| एक ऊँची इमारत में बहन मेरे साथ विचर रही है…..| एकाएक एक दरवाज़े के आगे बहन ठिठक जाती है…..| “चलो,” मैं उसकी बाँह खींचता हूँ…..|” “अँधेरा देखोगे?” वह पूछती है, “घुप्प अँधेरा…..?” बचपन के उसी खिलंदड़े अंदाज़ में जब वह अपनी जादुई ड्राइंग बुक के कोरे पन्नों पर पानी से भरा पेंटिंग ब्रश फेरने से पहले पूछती, “जादू देखोगे?” और पानी फेरते ही वे कोरे पन्ने अपने अंदर छिपी रंग-बिरंगी तस्वीरें ज़ाहिर करने लगते…..| “नहीं, मैं डर जाता हूँ, “चलो…..” उजाले में खुलने वाले एक दरवाज़े की ओर हम बढ़ लेते हैं….. दरवाज़े के पार जमघट जमा है….. सहसा बहन पलटने लगती है….. “क्या हुआ?” मैं उसका पीछा करता हूँ….. “उधर सतीश मुझे ढूँढ रहा है|” वह कहती है….. “कौन सतीश?” मैं पूछता हूँ….. मुझे याद नहीं, सतीश उसके पति का नाम है….. बहन चुप लगा जाती है….. घूमकर मैं उस उजले दरवाज़े पर नज़र दौड़ाता हूँ….. दरवाज़े के पार का जमघट अब अस्तव्यस्त फैला नहीं रहा….. कुर्सियों की संघबद्ध कतारों में जा सजा है….. कुर्सियाँ मेरी पहचान में आ रही हैं….. ये वही कुर्सियाँ हैं, जिन्हें बहन की रसम-किरिया के दिन सतीश ने अपने मेहमानों के लिए कुल एक घंटे के लिए किराए पर लिया था….. मैं फिर बहनकी तरफ मुड़ता हूँ….. लेकिन वह अब वहाँ नहीं है….. मैं पिछले दरवाज़े की तरफ लपकता हूँ….. दरवाज़े के पार अँधेरा है….. घुप्प अँधेरा….. झन्न से मेरी नींद खुल गई| मैंने घड़ी देखी| घड़ी में साढ़े तीन बजे थे| बिस्तर पर वर्षा और विश्शू गहरी नींद में सो रहे थे| पानी पीने के लिए मैं बिस्तर से उठ खड़ा हुआ| पानी पी लेने के बाद मैं बाहर गेट वाले दालान में आ गया| सड़क की रोशनी दालान के गमलों को उनकी छायाओं के साथ अलग-अलग वियुक्ति देकर उन्हें पैना रही थी| नमालूम मेरी उम्र तब कितनी रही होगी, लेकिन निश्चित रूप से आठ बरस से छोटी ही, क्योंकि बाबूजी की मृत्यु पर मैं केवल आठ का रहा, जबकि बहन अपने पंद्रहवें वर्ष में दाखिलहो चुकी थी….. और उस रात हम भाई-बहन बाबूजी की देख-रेख में लुका-छिपी खेल रहे थे और ढूँढने की अपनी बारी आने पर बहन जब मुझे घर के अंदर कहीं नहीं दिखाई दी थी, तो मैं रोने लगा था| गला फाड़-फाड़कर| मेरा रोना बहन से बर्दाश्त नहीं हुआ था और वह फ़ौरन मेरे पास चली आई थी| “तुम कहाँ छिपी थीं?” मैंने पूछा था| “दालान के अँधेरे में|” वह हँसी थी| “तुम्हें डर नहीं लगा?” मैंने पूछा था| “अँधेरे से कैसा डरना?” जवाब बाबूजी ने दिया था, “अँधेरा तो हमारा विश्वसनीय बंधु है| वह हमें पूरी ओट देता है|” दालान की दीवार पर अपने हाथ टिकाकर मैं रो पड़ा| तभी माँने अपने कमरे की बत्ती जलाई| “कुछ चाहिए, माँ?” मैं अपने कमरे में दाखिल हुआ| “हाँ,” माँ रोने लगीं, “मालूम नहीं यह मेरा वहम है या मेरा भरम, लेकिन प्रभा मुझे जब भी नज़र आती है, अपनी चिड़ियों को ढूँढती हुई नज़र आती है…..| चिड़ियों का शौक बहन ने बाबूजी से लिया था और उनकी मृत्यु के उन्नीस साल बाद भी उनके इस शौक को ज़िंदा रखा था| “जीजी तुम्हें दिखाई देती हैं, माँ?” मैं माँ के पास बैठ लिया| “हाँ, बहुत बार| अभी-अभी फिर दिखाई दी थी…..|” “मुझे भी| अभी ही| बस, माँ, आप अब सुबह हो लेने दें, फिर मैं सतीश के घर जाऊँगा और जीजी की चिड़ियाँ यहाँ लिवा लाऊँगा…..|” माँ के कमरे से उस रात फिर मैं दोबारा सोने अपने कमरे में लौटा नहीं| बैठक में आकर सुबह का इंतज़ार करने लगा| और वर्षा के जगने से पहले ही उस नए दिन के चेहरे और पहनावे के साथ तैयार भी हो लिया| ठीक सात बजे सतीश अपने घर से गोल्फ खेलने के लिए निकल पड़ता है और मैं उसे सात से पहले पकड़ लेना चाहता था…..| “साहब घर पर है न?” पौने सात के करीब मैंने सतीश के घर की घंटी जा बजाई| सितंबर का महीना होने के नाते सुबह सुरमई थी| “जी हाँ, हैं|” दरवाज़े पर आए नौकर ने बताया| “कौन है?” सतीश वहीं बरामदे में अपने जूते … Read more

टाऊनहाल

दो वर्ष पहले की मेरी जनहित याचिका पर प्रदेश के उच्च न्यायालय ने आज अपना निर्णय सुना दिया है : हमारे कस्बापुर की नगरपालिका को प्रदेश के पर्यटन विभाग के साथ किए गए अपने उस समझौते को रद्द करना होगा जिस के अंतर्गत हमारे टाऊनहाल को एक ‘हेरिटेज होटल’ में बदल दिया जाना था। मुझ से पूछा जा रहा है कि अठहत्तर वर्ष की अपनी इस पक्की उम्र के बावजूद नगरपालिका जैसी बड़ी संस्था को चुनौती देने की हिम्मत मैंने कैसे जुटा ली। और इस प्रश्न के उत्तर में मैं वह प्रसंग दोहरा देता हूँ जब मेरे पिता ने इसी टाऊनहाल को बचाने हेतु अपने प्राण हथेली पर रख दिए थे। सन् १९४२ की अगस्त क्रान्ति के समय। सभी जानते हैं द्वितीय महायुद्ध में काँग्रेस से पूर्ण सहयोग प्राप्त करने हेतु मार्च १९४२ में ब्रिटिश सरकार के स्टैफ़र्ड क्रिप्स की अगुवाई में आए शिष्टमंडल के प्रस्ताव के विरोध में ८ अगस्त १९४२ के दिन काँग्रेस कमेटी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की जब घोषणा की थी और अगले ही दिन जब पुणे में गांधीजी को हिरासत में ले लिया था। तो गांधी जी के समर्थन में देश भर की सड़कें ‘भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ के नारों से गूंजने लगी थी। बल्कि कहीं-कहीं तो समुत्साह में बह कर लोग बाग सरकारी इमारतों को आग के हवाले करने लगे थे। बिजली की तारें काटने लगे थे, परिवहन एवं संचार के साधन ध्वस्त करने लगे थे। देश के अन्य शहरों के सदृश हमारे कस्बापुर निवासी भी काँग्रेस के झंडे ले कर सड़कों पर उतर लिए थे। कुछ उपद्रवी तो कुछ सभ्य। कुछ का गन्तव्य स्थान यदि कलेक्ट्रेट रहा करता तो बहुधा का हमारा यह टाऊनहाल। कारण, यह ब्रिटिश आधिपत्य का ज्यादा बड़ा प्रतीक था। एक तो उन दिनों इस का नाम ही विक्टोरिया मेमोरियल हाल था, दूसरे उसके अग्रभाग के ठीक बीचोबीच रानी विक्टोरिया की एक विशाल मूर्ति स्थापित थी। सैण्डस्टोन, बलुआ पत्थर, में घड़ी, जिस के दोनों हाथ एक बटूए पर टिके थे। वास्तव में इस टाऊनहाल के गठन की योजना इंग्लैण्ड की तत्कालीन रानी विक्टोरिया के डायमंड जुबली वाले वर्ष १८९७ में बनी थी। जब उस के राज्याभिषेक के ६० वर्ष पूरे हुए थे। और १९११ में जब एक यह पूरा बन कर तैयार हुआ था तो विक्टोरिया की मृत्यु हो चुकी थी। सन् १९०१ में। अत: बना विक्टोरिया मेमोरियल हाल। उस दिन उस जुलूस में सब से पहले रानी विक्टोरिया की इसी मूर्ति पर हमला बोला था उस के बटुए पर ढेलेबाज़ी शुरू करते हुए। टाऊनहाल के अपने दफ़्तर में बैठे मेयर ने तत्काल उस जुलूस को वहाँ से हटाने के लिए अपने साथ तैनात पुलिस रक्षादल को उस के प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज का आदेश दे डाला था। परिणाम विपरीत रहा था। जुलुसियों के हाथ के ढेले मूर्ति छोड़ सीधे टाऊनहाल की खिड़कियों पर लक्षित किये जाने लगे थे। मेरे पिता उन दिनों टाऊनहाल ही में काम करते थे। वहाँ के पुस्तकालय में। उस की दूसरी मंज़िल पर। जिस की एक बालकनी टाऊनहाल के मुख्य द्वार के ऐन ऊपर बनी हुई थी। बेकाबू हो रही भीड़ के विकट इरादे देख कर वे उसी बालकनी पर आन खड़े हुए थे। यदृच्छया ढेले फेंक रही क्रुध्द एवं उत्तेजित भीड़ को संबोधित करने। टाऊनहाल के पब्लिक ऐड्रस, पी. ए., सिस्टम की सुविधा का लाभ उठाते हुए। वह सिस्टम लोक भाषण एवं राजकीय अभिनंदन तथा जनहित घोषणाएं करने हेतु उपयोग में लाया जाता था। यहाँ यह बताता चलूँ कि हमारे इस टाऊनहाल में उस समय न केवल नगर-विषयक काम काज के दफ्तर थे मगर नगर के मतदान एवं महत्त्वपूर्ण परीक्षाएं भी वहीँ निष्पन्न की जाती थी। आपदा एवं विपत्ति तथा टीके-एवं स्वास्थ्य संबंधी घोषणाएं भी वहीँ से जारी होती थी। विश्वयुद्ध में हताहत एवं मृत व्यक्तियों की सूचियाँ भी। और ये घोषणाएं अकसर मेरे पिता द्वारा की जाती थी। स्वर संगति में पारंगत वे प्रभावोत्पादक एवं भावपूर्ण आवाज के स्वामी थे। जिस का प्रयोग करना वे बखूबी जानते थे। “मैं आपका एक भाई बोल रहा हूँ”, बिना किसी पूर्वाज्ञा अथक पूर्व सूचना के प्रतिकूल उस वातावरण में अकस्मात जब उनकी आवाज गूंजी थी तो सभी अप्रतिम हो उन्हें सुनने लगे थे, पुलिसियों और जुलुसियों के हाथ एक साथ रुक लिए थे। “आप ही की तरह गांधीजी का भक्त मैं भी हूँ। जिन का रास्ता अहिंसा का है, अराजकता का नहीं, सविनय अवज्ञा, सहयोग का है, आक्रामक, कार्यकलाप का नहीं। हमें ‘चौरीचारा’ यहाँ दोहराना नहीं चाहिए। याद रखना चाहिए ५ फरवरी, १९२२ को जब यहाँ के पुलिस थाने पर हमारे भाईयों ने हिंसा दिखायी थी तो हमारे बापू को ५ दिन का उपवास रखना पड़ा था। क्या आप चाहते हैं बापू को उपवास पर फिर जाना पड़े? जब कि आज वे अधिक वृध्द हैं। शारीरिक रूप से भी अधिक क्षीण। और फिर यह भी सोचिए, मेरे भाईयों और बहनों, यह टाऊनहाल एक लोक-निकाय है, हमारे लोक-जीवन की जनोपयोगी सेवाओं का केन्द्र। यह हमारा है। इस के ये गोल गुम्बद, ये चमकीले कलश ये मेहराबदार छतरियां, ये घंटाघर और इस की ये चारों घड़ियाँ हमारी हैं। यह सब हमारा है। हम इन्हें क्यों तोड़े-फोड़े? क्यों हानि पहुँचाएँ? यह अंगरेज़ों का नहीं। उन्हें तो भारत छोड़ना ही है। आज नहीं, तो कल, कल नहीं तो परसों…” जभी मेरे पिता के हाथ के माइक्रोफोन का संबंध पी. ए. सिस्टम से टूट गया। किंतु वे तनिक न घबराए। यह जानते हुए भी कि ब्रिटिश सरकार अब उन्हें सेवामुक्त कर देगी। शान्त एवं धीर भाव से उन्होंने अपने हाथ का माइक्रो फोन बालकनी के जंगले पर टिकाया और हाथ ऊपर उठा कर चिल्लाएं। ‘महात्मा गाँधी की जय।’ पुलिसियों ने भी अपनी लाठियां समेटीं और विघटित हो रही भीड़ को टाऊनहाल छोड़ते हुए देखने लगे। मेरे पिता मुस्कुराए थे। मानो उन्हें कोई खज़ाना मिल गया हो। उनका टाऊनहाल अक्षुण्ण था और बचा रहा था वह संग्रहालय, जिस में शहर के ऐतिहासिक स्मारकों एवं विशिष्ट व्यक्तियों के चित्र एवं विवरण धरे थे। बची रही थीं, पुस्तकालय की दुर्लभ वे पुस्तकें जिन में संसार भर की विद्वत्ता जमा थी। और जिनका रस वे पिछले पन्द्रह वर्षों से लगातार लेते रहे थे। दीपक शर्मा  atootbandhann.com पर दीपक शर्मा जी की कहानियाँ पढने के लिए यहाँ क्लिक करें यह भी पढ़ें … … Read more

अरक्षित

अक्सर जब हम शोषित स्त्रियों की बात करते हैं तो हमारे जेहन में उन स्त्रियों का अक्स उभरता है जो गरीब है या माध्यम वर्ग से संबंध रखती है |पर क्या उच्च वर्ग की औरतें प्रताड़ित नहीं की जा रही है | ये अलग बात है कि उनका दर्द उनके पति की शान की चमक में चुंधियाई  आँखों को दिखता नहीं है | बड़े घरों की दास्ताने बाहर नहीं आती  | ऐसी  ही एक दास्ताँ  के मखमली पर्दे उतरती कहानी …. कहानी -अरक्षित  उनका घर इन-बिन वैसा ही रहा जैसा मैंने कल्पना में उकेर रखा था| स्थायी, स्वागत-मुद्रा के साथ घनी, विपुल वनस्पति; ऊँची, लाल दीवारों व पर्देदार खुली खिड़कियाँ लिए वह बँगला पूरी सड़क को सुशोभित कर रहा था| “साहब घर पर नहीं है,” अभी हम पहले फाटक पर ही थे, किएक साथ चार संतरियों ने अपनी बंदूकें अपने कंधों पर तान लीं| “हम तुम्हारे साहब से नहीं, तुम्हारी मेमसाहब से मिलने आए हैं,” मैंअपनी पत्नी की ओट में खड़ा हो गया, “हम उनके रिश्तेदार हैं|” “क्या रिश्ता बताएँगे, हुजूर?” सभी संतरियों ने तत्काल अपनी बंदूकें अपने कंधों से नीचे उतार लीं और हमें सलाम ठोंक दिया| “मेम साहिब की बहन हैं,” मैंने पत्नी की ओर इंगित किया| “हुजूर,” एक संतरी ने हमारे लिए फाटक खोला तो दूसरे ने आगे बढ़कर मेरे हाथ का सूटकेस अपने हाथ में ले लिया| “आइए,” तीसरे संतरी ने हमें दूसरे फाटक की ओर निर्दिष्ट किया| “कौन है?” दूसरे फाटक का संतरी अतिरिक्त रुखा व रोबदार रहा| “मेम साहिब की बहन हैं,” सामान उठाए हमारे साथ चल रहेसंतरी ने कहा| “ये सही नहीं कह रहीं,” दोसरे फाटक के संतरी ने सिर हिलाया, “मेम साहिब की एक ही बहन हैं और उनसे हमारा खूब परिचय है….. वे खुद गाड़ी चला कर आती हैं, गहनोंऔर खुशबुओं से लक-दक रहती हैं, ऐसे नहीं…..” मेरी पत्नी का चेहरा-मोहरा अति सामान्य है तथा वह अपने परिधान व केश-भूषा की ओर अक्षम्य लापरवाही भी दिखाती है| उसे देखकर कोई नहीं जान सकता वह एक नौकरीशुदा कॉलेज लेक्चरर है| “आप यह नाम अंदर अपनी मेम साहिब को दिखा आएँ| फिर हमसे कुछ बोलना,” अपना नाम मुझे अपनी रेल टिकट पर लिखना पड़ा| दूसरा कोई फ़ालतू कागज उस समय मेरे पास न रहा| वे हमें एक रेल-यात्रा के दौरान मिली थीं| एयर-कंडीशण्ड स्लीपर के कोच में पर्दे के उस तरफ जो चार सीटें रहीं, उनमें दो हमारी थीं और एक उनकी| “आप शायद ऊपर की सीट पर जायेंगी?” , मोहक व् प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली महिलाओं पर भड़कना मेरी पत्नी अपना परम कर्तव्य मान कर चलती है, “नीचे की दोनों सीटें हमारी हैं| “   उस दिन हमारी गाड़ी बहुत लेट हो गयी थी और हमारे स्टेशन पर शाम के सात बजे पहुँचने के बजाय रात के दस बजे पहुँची | दो दिन बाद पत्नी के भये की शादी थी और हमनें अपनी सीटें बहुत पहले बुक करवा रखीं थीं | “मैं अपना खाना खत्म कर लूँ ?” उनके चेहरे पर एक भी शिकन न पड़ीं थी और वो पूरे चाव व् इत्मीनान के साथ अपने मुँह में नियंत्रणीय निवाले भेजती रहीं  “जरूर, जरूर,” मैंने तपाक के साथ कहा था| एक ओर जहाँ सावकाश वर्ग के पुरुष मुझे गहरे कोप में भर देते हैं, वहीं सावकाश वर्ग की स्त्रियाँ मुझे शुरू से ही तरंगित करती रही हैं| बचपन से ही मैंने अपने आस-पास की स्त्रियों को ‘बहुत जल्दी में’ पाया है| ‘फुरसत’ से उन सबका परिचय बहुत कम रहा है| बचपन में माँ और बहनों को जब देखा, “जल्दी में’ ही देखा| मेरी पत्नी की जल्दी तो अकसर उतावली और हड़बड़ी में बदल जाती है| “आप बहुत कृपालु हैं,” वे हँसने लगी थीं| “आपकी खातिर नहीं, अपनी खातिर,” मैंने चुटकी ली थी, “हमनेअभी खाना नहीं खाया है| भूखे पेट बिस्तर बिछाने से बच गए|” “आप अपना टिफिन दिखाइए,” वे एक बच्ची की मानिंद मचल ली थीं, “देखूँ, क्या-क्या छीना जा सकता है?” उनके टिफिन के महक रहे पनीर के उन बड़े टुकड़ों में से जब कुछ टुकड़ों की मेरी पत्नी कीऔर  मेरी प्लेट में आ जाने की संभावना उत्पन्न हुई तो खीझ रही पत्नी की खीझ तुरन्त भाग ली| पूरी यात्रा की अवधि में मैंने पाया अपनी बात कहने का उनके पास अपना ही एक विशेष परिमाण व मापदंड रहा| अपने श्रोता के अनुरूप वे एक मर्यादित सीमा के भीतर नियमित, आयोजित व सुव्यवस्थित बोल ही मुख से उचारती रहीं| उनके शब्द देववाणी सदृश वेदवाक्य न भी रहे, फिर भी उनके मुख से जो भी सुनने को मिला, सहज में ही, उन शब्दों ने सुनिश्चित रूप से एक असाधारण सोद्देश्यता तथा अलंकरण अवश्य ही धारण कर लिया| “यह मेरे पति का कार्ड है,” जब हम लोग अपने स्टेशन पर उतरे थे तो उन्होंने हमें अपने न्यौते के साथ एक उत्साही मुस्कान दी थी, “मुझे मिलने जरूर आइएगा…..” “अचरज, सुखद अचरज!” उत्कण्ठित व सदय मुद्राके साथ हमारे सामने प्रकट होने में उन्होंने अधिक समय न लिया| “आप यहाँ बैठिए,” उन्होंने हमारे लिए अपना बड़ा हॉल खुलवाया, “मैं अभी चाय का प्रबंध देखकर आती हूँ|” “मैंचाय नहीं पीता,” पनीर के वे टुकड़े मैं अभी तक न भूला था, “कॉफ़ी मिलेगी क्या?” “क्यों नहीं?” वे गर्मजोशी के साथ मुस्कुराईं, “अभी हाजिर हुई जाती है|” पत्नी की दिशा में देख कर मैं हँसने लगा| उधर घर पर जब भी कोई मेहमान आता है, पत्नी उसे खिलाने-पिलाने के मामले में कभी भी पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं कर पाती है| “इन्होंने हमें देखकर मुँह नहीं बनाया|” मैंने जान-बूझ कर पत्नी को छेड़ा| “मुँह क्यों बनाएँगी?” पत्नी ने गोल बात की, “चीजें बनाने और चीजें लाने के लिए जिसके एक इशारे पर बीसियों अर्दली हाजिर हो जाते हैं, वे अपने आदर-सत्कार में क्यों टाल-मटोल करेंगी?” “यह केक मैंने कल खुद बनाया था,” एक सुसज्जित ट्रॉली के साथ वे जल्दी ही लौटआईं| ट्रॉली के निचले खाने में तीन नेपकिन लगी प्लेटें व चटनियाँ रहीं तथा ऊपर वाले खाने में केक और नमकीन की तश्तरियाँ| “लीजिए,” उन्होंने केक के दो बड़े खंड हमारी प्लेटों में परोस दिए, “कल हमारे बड़े बेटे का सोलहवाँ जन्मदिन रहा| बेटा तो, खैर, होस्टल में था, मगरइस केक के बल पर उसका जन्मदिन हमारे यहाँ भी मना लिया…..” “केक बहुत बढ़िया है,” मैंने कहा, “मुँह में जाते … Read more

क्वार्टर नम्बर तेइस

माँ और तीनों बहनों की हँसी अशोक ने बाहर से ही सुन ली| हमेशा की तरह इस बार भी हँसी उसे अचरज तथा रोष से भर गयी| रेल गाड़ियों के धुएं और धमाके के हर दूसरे पल पर डोल रहे इस क्वार्टर नंबर तेइस में रह कर भी भला कोई हँस सकता था? पैसे के बढ़ रहे दख़ल के कारण हर दूसरे कदम पर पैसे की तंगी से लाचार रहने के बावजूद कैसे हँस लेती थीं बहनें और माँ? रेलवे  पार्सल बुक कराने के लिए जिस खिड़की पर लोग अशोक से पर्ची बनवाने आते वहां उसे बीस साल की इस उम्र में दिन-भर ड्यूटी बजाना नरक में साँस लेने से किसी तरह भी कम न लगता| तेज़ बदबू और उससे भी तेज़ शोर उसे हरदम परेशान किए रहता| अशोक का बस चलता तो वह अपनी ज़िन्दगी किसी पुस्तकालय की नौकरी में बिताता जहाँ काम चाहे जितना भी रहता, मगर आसपास शान्ति तो बनी ही रहती या फिर वह किसी ऐसे स्टेशन की टिकट-खिड़की का भार संभालता जो पहाड़ों पर किसी वीराने में बसा रहता और जहाँ दिन में केवल एक ही गाड़ी आती और अधिकांश समय सन्नाटा छाया रहता| मगर इन्टरमीडिएट पास करवाते ही रेलवे में गार्ड पिता ने अशोक से बिना पूछे उसे इस खिड़की पर बैठाने का पक्का इन्तज़ाम कर दिया था| जो क्वार्टर पिता के नाम से इस प्रमुख रेलवे स्टेशन के बाजू में परिवार को मिला था, वह अब पिता के रिटायर होने से पहले ही अशोक के नाम लगवाना जरूरी हो गया था| क्वार्टर नम्बर तेइस पिता ने अपनी पूरी ज़िन्दगी परिवार के नाम पर गुज़ारी थी और वह सोचते थे उनके एकमात्र पुत्र अशोक की ज़िन्दगी भी अब परिवार के नाम ही थी| पुत्र की ज़िन्दगी परउनका पूरा अधिकार था और वे जैसा चाहें पुत्र की ज़िन्दगी अपने तरीके से जरूर बरत सकते थे| रिटायर होने के तुरन्त बाद वे खुद ६ नम्बर प्लेटफार्म पर चाय का ठेला लगाने लगे थे| अशोक कई बार ६ नम्बर प्लेटफार्म पर पिता की ओर लपक कर पहुँचना चाहता, उनका हाथ बँटाना चाहता, उनकी झुकी कमर का दर्द अपनी कमर में बटोर लेना चाहता| मोतियाबिन्द से धुँधला रही उनकी आँखों में अपनी नेत्र-ज्योति प्रज्ज्वलित करना चाहता| उनके घुटनों की ऐंठन अपने घुटनों में समेट लेना चाहता पर हर बार एक तेज़ रुलाई उसे जकड़ लेती और वह भारी कदमों से अपनी खिड़की पर आबैठता| वहां की सड़ांध उसके नथुनों में फिर ज़हर भरने लगती वहां की भीड़ उसके दिलो-दिमाग पर फिर हथौड़े चलाती और उसकी रुलाई उससे दूर छिटक लेती, रह जाती सिर्फ़ ढेर सी झल्लाहट, घबराहट और हड़बड़ी| पर्ची काटते समय उसे हर बार लगता उसने किसी से पैसे कम लिए हैं या उसने किसी पार्सल पर गलत मोहर लगा दी है| दिन में बीसियों ही रसीदें काटता फिर भी हिसाब बार-बार जोड़ता| दसेक लोगों से तो रोज़ झांव-झांव भी हो जाती और फिर भी मोहर हर बार ठीक-ठाक ही लगती, गड़बड़ाती नहीं| “बाबूजी क्या अभी तक लौटे नहीं?” शाम को अशोक जब भी घर लौटता पहले पिता को घर में टटोलता| अगर कहीं वे घर पर न रहते तो अजीब सी छटपटाहट महसूस करता| पहले भी जब-जब पिता ड्यूटी पर शहर से बाहर रहते अशोक रेलवे स्टेशन पर रोज़ अख़बार देखने जाता| कहीं कोई रेल-दुर्घटना तो नहीं हो गयी, कहीं ऐसा तो नहीं कि अबकी बार के गए पिता वापस ही न लौट पाएँ, पर हर बार पिता लौट आते रहे- पहले से कहीं ज्यादा थके-चुके| रेलगाड़ी में लगातार बैठे रहने की वजह से पिता अकसर उसे डोलते से दिखाई देते| वह उन्हें बढ़कर सहारा देना चाहता, उन्हें स्थावर अवस्था में देखना चाहता, इन रेलगाड़ियों की गति और ध्वनि से उन्हें बहुत दूर किसी सन्नाटे में ले जाना चाहता, पर फिर वह कुछ भी तो न कर पाता| केवल देर तक चुपचाप पिता के दाएँ-बाएँ बना रहता और पसीने तथा रेल के कोयले की जिस मिली-जुली गन्ध में पिता लिपटे रहते वह उस गन्ध को अपने नथुनों में भर कर एक अजीब सा उद्वेलन अपने भीतर घुमड़ने देता “बाज़ार सब्ज़ी लेने गए हैं, अभी आ जाएँगे,” अशोक का स्वागत बड़ी बहन हमेशा अनूठे ठाठ से करती| जैसे ही अशोक घर में दाखिल होता, बड़ी बहन सब काम छोड़ कर लम्बे डग भरती हुई हमेशा उसके निकट आन खड़ी होती| मुँह से तो तभी बोलती जब अशोक उससे कुछ पूछता पर अपनी आँखों की चमक और होठों के स्मित से उस पर अपना लाड़ उड़ेलना कभी न भूलती| “आज मैंने हलवा बनाया था” माँ एक बड़ी तश्तरी उठा लायी| पैसे कितने भी कम क्यों न रहते माँ हर त्यौहार, हर तीज व्रत को उत्सव मना कर ही मानतीं| “आज कौन त्यौहार रहा?” ‘हलवा अशोक को बहुत पसन्द था और वह जानता था माँ और बहनों ने इसे केवल चखा ही होगा और फिर दो तश्तरियों में तकसीम कर दिया होगा- छोटी तश्तरी पिता के लिए रखी होगी और बड़ी उसकेलिए| “आज जीजी को नौकरी मिली है,” मंझली और छोटी एक साथ चिल्लायी| दोनों अक्सर एक साथ ही बात बोलतीं, एक ही बात पर हँसतीं, एक ही बात पर रोतीं| “कहाँ?” अशोक आगे बढ़ कर बैठ लिया| हथेली पर टिकायी तश्तरी उसने अपनी गोद में रख ली| हर नयी अथवा बदली परिस्थिति उसे बुरी तरह से उत्तेजित अथवा आन्दोलित कर डालती| “यहीं अपने ही रेलवे स्टेशन पर,” मंझली बहुत खुश थी| “एक नम्बर प्लेटफार्म पर, जहाँ घोषणाएँ की जाती हैं,” छोटी ने उत्साह से जोड़ा| “वहाँअनाउन्सर की जगह तीन महीने के लिए खाली थी सो वह जगह मुझे मिल गयी,” बड़ी बहन हँसने लगी| “बी. ए. मैं तुम्हारी फर्स्ट डिवीज़न आयी है” अशोक की बेचैनी बढ़ी ही, घटी नहीं, “तुम्हें अब बी. एड. करना चाहिए| पढ़ाने की नौकरी रेलवे की शोर-गुल वाली नौकरी से कहीं बेहतर रहेगी|” “तुम्हारे भीतर पढ़ाई के लिए जो ललक है वह मुझ में नहीं” बड़ी बहन ने अपना हाथ अशोक के कंधे पर धर दिया, “जिसे तुम हल्ला-गुल्ला कहते हो, मुझे तो वहां रौनक दिखाई देती है| फिर मेरी कुर्सी तो अलग-थलग रहेगी, स्टेशन मास्टर के दफ्तर के ऐन सामने| वहां तो हरदम पुलिस की ड्यूटी भीलगी रहती है|” “जीजी की तनख्वाह आप से ज़्यादा रहेगी” छोटी ने कहा| “जीजी कहती हैं … Read more

चम्पा का मोबाइल

आज हर आम और खास के हाथ में मोबाइल जरूर होता है , परन्तु चंपा के मोबाइल में कुछ तो खास है जो पहले तो जिज्ञासा उत्पन्न करता है फिर संवेदना के दूसरे आयाम तक ले जाता है | आइये पढ़े आदरणीया दीपक शर्मा जी की  भावना प्रधान कहानी  कहानी –चम्पा का मोबाइल “एवज़ी ले आयी हूँ, आंटी जी,” चम्पा को हमारे घर पर हमारी काम वाली, कमला, लायी थी |गर्भावस्था के अपने उस चरण पर कमला के लिए झाड़ू-पोंछा सम्भालना मुश्किल हो रहा था| चम्पा का चेहरा मेक-अप से एकदम खाली था और अनचाही हताशा व व्यग्रता लिए था| उस की उम्र उन्नीस और बीस के बीच थी और काया एकदम दुबली-पतली| मैं हतोत्साहित हुई| सत्तर वर्ष की अपनी इस उम्र में मुझे फ़ुरतीली, मेहनती व उत्साही काम वाली की ज़रुरत थी न कि ऐसी मरियल व बुझी हुई लड़की की! “तुम्हारा काम सम्भाल लेगी?” मैं ने अपनी शंका प्रकट की| “बिल्कुल, आंटी जी| खूब सम्भालेगी| आप परेशान न हों| सब निपटा लेगी| बड़ी होशियार है यह| सास-ससुर ने इसे घर नहीं पकड़ने दिए तो इस ने अपनी ही कोठरी में मुर्गियों और अंडों का धन्धा शुरू कर दिया| बताती है, उधर इस की माँ भी मुर्गियाँ पाले भी थी और अन्डे बेचती थी| उन्हें देखना-जोखना, खिलावना-सेना…..” “मगर तुम जानती हो, इधर तो काम दूसरा है और ज़्यादा भी है, मैं ने दोबारा आश्वस्त होना चाहा, “झाड़-बुहार व प्रचारने-पोंछने के काम मैं किस मुस्तैदी और सफ़ाई से चाहती हूँ, यह भी तुम जानती ही हो…..” “जी, आंटी जी, आप परेशान न हों| यह सब लार लेगी…..” “परिवार को भी जानती हो?” “जानेंगी कैसे नहीं, आंटी जी? पुराना पड़ोस है| पूरे परिवार को जाने समझे हैं| ससुर रिक्शा चलाता है| सास हमारी तरह तमामघरों में अपने काम पकड़े हैं| बड़ी तीन ननदें ब्याही हैं| उधर ससुराल में रह-गुज़र करती हैं और छोटी दो ननदें स्कूल में पढ़ रही हैं| एक तो हमारी ही बड़ी बिटिया के साथ चौथी में पढ़ती है…..” “और पति?” मैं अधीर हो उठी| पति का काम-धन्धा तो बल्कि उसे पहले बताना चाहिए था| “बेचारा मूढ़ है| मंदबुद्धि| वह घर पर ही रहता है| कुछ नहीं जानता-समझता| बचपन ही से ऐसा है| बाहर काम क्या पकड़ेगा? है भी इकल्ला उनपांच बहनों में…..” “तुम घरेलू काम किए हो?” इस बार मैं ने अपना प्रश्न चम्पा की दिशा में सीधा दाग दिया| “जी, उधर मायके में माँ के लगे कामों में उस का हाथ बँटाया करती थी…..” “आज मैं इसे सब दिखला-समझा दूँगी, आंटीजी| आप परेशान न  हों…..” अगले दिन चम्पा अकेली आयी| उस समय मैं और मेरे पति अपने एक मित्र-दम्पत्ति के साथ हॉल में बैठे थे| “आजतुम आँगन से सफ़ाई शुरू करो,” मैं ने उसे दूसरी दिशा में भेज दिया| कुछ समय बाद जब मैं उसे देखने गयी तो वह मुझे आँगन में बैठी मिली| एक हाथ में उस ने झाड़ू थाम रखा था और दूसरे में मोबाइल| और बोले जा रही थी| तेज़ गति से मगर मन्द स्वर में| फुसफुसाहटों में| उस की खुसुर-पुसुर की मुझ तक केवल मरमराहट ही पहुँची| शब्द नहीं| मगर उस का भाव पकड़ने में मुझे समय न लगा| उस मरमराहट में मनस्पात भी था और रौद्र भी| विघ्न डालना मैं ने ठीक नहीं समझा और चुपचाप हॉल में लौट ली| आगामी दिनों में भी मैं ने पाया जिस किसी कमरे या घर के कोने में वह एकान्त पाती वह अपना एक हाथ अपने मोबाइल के हवाले कर देती| और बारी बारी से उसे अपने कान और होठों के साथ जा जोड़ती| अपना स्वर चढ़ाती-गिराती हुई| कान पर कम| होठों पर ज़्यादा| “तुम इतनी बात किस से करती हो?” एक दिन मुझ से रहा न गया और मैं उस से पूछ ही बैठी| “अपनी माँ से…..” “पिता से नहीं? मैं ने सदाशयता दिखलायी| उस का काम बहुत अच्छा था और अब मैं उसे पसंद करने लगी थी| कमला से भी ज़्यादा| कमला अपना ध्यान जहाँ फ़र्श व कुर्सियों-मेज़ों पर केन्द्रित रखती थी, चम्पा दरवाज़ों व खिड़कियों के साथ साथ उन में लगे शीशों को भी खूब चमका दिया करती| रोज़-ब-रोज़| शायद वह ज़्यादा से ज़्यादा समय अपने उस घर-बार से दूर भी बिताना चाहती थी| “नहीं,” वह रोआँसी हो चली| “क्यों?” मैं मुस्कुरायी, “पिता से क्यों नहीं?” “नहींकरती…..” “वह क्या करते हैं?” “वह अपाहिज हैं| भाड़े पर टैम्पो चलाते थे| एक टक्कर में ऐसी चोट खाए कि टांग कटवानी पड़ी| अब अपनी गुमटी ही में छोटे मोटे सामान की दुकान लगा लिए हैं…..” “तुम्हारी शादी इस मन्दबुद्धि से क्यों की?” “कहीं और करते तो साधन चाहिए होते| इधर खरचा कुछ नहीं पड़ा…..” “यह मोबाइल किस से लिया?” “माँ का है…..” “मुझे इस का नम्बर आज देती जाना| कभी ज़रुरत पड़े तो तुम्हें इधर बुला सकती हूँ…..” घरेलू नौकर पास न होने के कारण जब कभी हमारे घर पर अतिथि बिना बताए आ जाया करते हैं तो मैं अपनी काम वाली ही को अपनी सहायता के लिए बुला लिया करती हूँ| चाय-नाश्तातैयार करने-करवाने के लिए| “इसमोबाइल की रिंग, खराब है| बजेगी नहीं| आप लगाएंगी तो मैं जान नहीं पाऊँगी…..” मैंने फिर ज़िद नहीं की| नहींकहा, कम-से -कम मेरा नम्बर तो तुम्हारी स्क्रीन पर आ ही जाएगा| वैसे भी कमला को तो मेरे पास लौटना ही था| मुझे उसकी ऐसी ख़ास ज़रुरत भी नहीं रहनी थी| अपनी सेवा-काल का बाकी समय भी चम्पा ने अपनी उसी प्रक्रिया में बिताया| एकान्त पाते ही वह अपने मोबाइल के संग अपनी खड़खड़ाहट शुरू कर देती- कभी बाहर वाले नल के पास, कभी आँगन में, कभी दरवाज़े के पीछे, कभी सीढ़ियों पर| अविरल वह बोलती जाती मानो कोई कमेन्टरी दे रही हो| मुझ से बात करने में उसे तनिक दिलचस्पी न थी| मैं कुछ भी पूछती, वह अपने उत्तर हमेशा संक्षिप्त से संक्षिप्त रखा करती| चाय-नाश्ते को भी मना कर देती| उसे बस एक ही लोभ रहता : अपने मोबाइल पर लौटने का| वह उसका आखिरी दिन था| उसका हिसाब चुकता करते समय मैं ने उसे अपना एक दूसरा मोबाइल देना चाहा, “यह तुम्हारे लिए है…..” मोबाइल अच्छी हालत में था| अभी तीन महीने पहले तक मैं उसे अपने प्रयोग में लाती रही थी| जब मेरे बेटे ने मेरे हाथ में एक स्मार्टफ़ोन ला थमाया था, तुम्हारे … Read more