प्रेम -दीपक

फोटो क्रेडिट -livedharm.com करेगी रोशिनी जगमग , अँधेरे को मिटा देंगे  लाखों जुगनुओं से हम अमावस को हरा देंगे  धरा हो जायेगी स्वर्णिम, करेंगे देवता वंदन  जो जलाकर’मैं’को हम , प्रेम -दीपक बना देंगे | वंदना बाजपेयी  filed under-deepak, deepawali, diwali, love, heaven

दीपोत्सव

दीपावली मानने के तमाम कारणों में एक है राम का अयोध्या में पुनरागमन | कहते हैं दीपावली के दिन प्रभु श्री  राम 14 वर्ष का वनवास काट कर पुन: अयोध्या लौटे थे | इस ख़ुशी में लोगों ने अपने घरों में दीप जला लिए थे | राम सिर्फ एक राजा ही नहीं थे | बल्कि आदर्श पुत्र , एक पत्नीव्रत का निर्वाह करने वाले , स्त्रियों की इज्ज़त  करने वाले भी थे | हम दीपावली प्रभु राम के अयोध्या वापस आने की ख़ुशी में तो मना लेते हैं पर क्या राम को  अपने व्यक्तित्व में उतार पाते हैं |  दीपोत्सव  जगमगाती दीपमालाएँ लगीं भानेराम जैसे बन के दिखलाओ तो हम जानें टूट कर गृह कलह से बिखरे नहीं परिवारपिता के वचनों को निभाओ तो फिर मानेंराम जैसे बन के दिखलाओ तो हम जानें राम सीता के न रह पाए बहुत दिन साथउन सा पत्नी एक व्रत , धारो तो फिर मानेंराम जैसे बन के दिखलाओ तो हम जानें दूसरों की पत्नियाँ हों, बहन, या बेटीअपनी माँ, बहनों सा ही जानो तो फिर मानेंराम जैसे बन के दिखलाओ तो हम जानें गुरूजन, माता-पिता, अपने जो हैं कुल श्रेष्ठउनके चरणों में झुके जो शीश,  फिर मानेंराम जैसे बन के दिखलाओ तो हम जानें जगमगाती दीपमालाएँ लगीं भाने उषा अवस्थी                                        यह भी पढ़ें …. आओ मिलकर दिए जलायें धनतेरस -दीपोत्सव का प्रथम दिन दीपावली पर 11 नए शुभकामना सन्देश लम्बी चटाई के पटाखे की तरह हूँ मित्रों , आपको कविता ‘ दीपोत्सव’ –  कैसी लगी  | पसंद आने पर शेयर करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |  अगर आपको ” अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फ्री ईमेल सबस्क्रिप्शन लें ताकि सभी  नयी प्रकाशित रचनाएँ आपके ईमेल पर सीधे पहुँच सके |  filed under-deepawali, deepotsav, diwali, diye, deepak, Ram

कुम्हार और बदलते व्यापार का समीकरण

दीपावली की बात करते ही मेरे जेहन में बचपन की दीवाली आ जाती है | वो माँ के हाथ के बनाये पकवान , वो रिश्तेदारों का आना -जाना , वो प्रसाद की प्लेटों का एक घर से दूसरे घर में जाना और साथ ही घर आँगन बालकनी में टिम-टिम करते सितारों की तरह अपनी जगमगाहट से  अमावस की काली रात से लोहा लेते मिटटी के दिए | मिटटी के दिए याद आते ही एक हूक  सी उठती है क्योंकि वो अब हमारा घर आँगन रोशन नहीं करते | वो जगह बिजली की झालरों ने ले ली है |  कुम्हारों को समझना होगा बदलते व्यापार का समीकरण  मिटटी के दिए का स्थान बिजली की झालरों द्वारा ले लेने के कारण अक्सर कुम्हारों की बदहाली का वास्ता देते हुए इन्हीं को ज्यादा से ज्यादा खरीदने से सम्बंधित लेख आते रहे हैं ताकि कुम्हारों के जीवन में भी कुछ रोशिनी हो सके | मैं स्वयं भी ऐसी ही एक भावनात्मक परिस्थिति से गुजरी जब मैंने “मंगतलाल की दिवाली “कविता लिखी | कविता को साइट पर पोस्ट करने के बाद आदरणीय नागेश्वरी राव जी का फोन आया | उन्होंने कविता के लिए बहुत बधाई दी साथ ही यह भी कहा आप कि कविता संवेदना के उच्च स्तर पर तो जाती है पर क्या इस संवेदना से वो जमाना वापस आ सकता है बेहतर हो कि हम कुम्हारों के लिए नए रोजगार की बात करें | साहित्य का काम नयी दिशा देना भी है | जब मैंने उनकी बात पर गौर किया तो ये बात मुझे भी सही लगी | मिटटी के दिए हमारी परंपरा का हिस्सा हैं इसलिए पूजन में वह हमेशा रहेंगे | मंदिर में व् लक्ष्मी जी के आगे वही जलाये जायेंगे | शगुन के तौर पर बालकनी में व् कमरों में थोड़े दीपक जलेंगे परन्तु बालकनी में या घर के बाहर जो बिजली की सजावट होने लगी है वो आगे भी जारी ही रहेगी , क्योंकि पहले सभी मिटटी के दिए जलाते थे  इसलिए हर घर में उजास उतना ही रहता था | दूसरे तब घरके बाहर इतना प्रदूषण नहीं रहता था , इस कारण बार -बार बाहर जा कर हम दीयों में तेल भरते रहते थे , और दिए जलते रहते थे | अब थोड़ी शाम गहराते ही इतना प्रदूषण हो जाता है कि बार -बार घर के बाहर निकलने का मन नहीं करता | ऐसे में बिजलीकी झालरें सही लगती हैं | तो मुख्य मुद्दा ये हैं कि हमें कुम्हारों को दिए के स्थान पर कुछ ऐसा बनाने के लिए प्रेरित करना चाहिए जो साल भर बिके  | दीवाली में दिए बनाये अवश्य पर उनकी संख्या कम करें ताकि भारी नुक्सान ना उठाना पड़े | हमेशा से रहा है नए और पुराने के मध्य संघर्ष  अगर आप ध्यान देंगे तो ये समस्या केवल कुम्हारों के साथ नहीं है जब भी कोई नयी उन्नत टेक्नोलोजी की चीज आती है तो पुरानी व् नयी में संघर्ष होता ही है | ऐसी ही एक फिल्म थी नया दौर जिसमें टैक्सी और तांगे  के बीच में संघर्ष हुआ था | फिल्म में दिलीप कुमार तांगे वाला बना था और उसकी जीत दिखाई गयी थी | जो उस समय के लोंगों को वाकई बहुत अच्छी लगी थी , परन्तु हम सब जानते हैं कि तांगे बंद हुए और ऑटो , टैक्सी आदि चलीं |  यही हाल मेट्रो  आने पर ऑटो के कम इस्तेमाल से होने लगा | जहाँ मेट्रो जाती है लोग ऑटो के स्थान पर उसे वरीयता देते हैं , क्योंकि किराया कम है व् सुविधा ज्यादा है | फोन आने पर तार बंद हुआ | मोबाइल आने पर पी .सी .ओ बंद हुए | मुझे याद है राँची  में जब हमारे यहाँ लैंडलाइन फोन नहीं था तब हम घर केवल ये बताने के लिए हम ठीक हैं १५ मिनट पैदल चल कर पी सी ओ जाते थे , फिर लम्बी -लम्बी लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार करते थे | जिन लोगों ने पीसी ओ बूथ लगाए उन सब की दुकाने बंद हुई | मेरा पहला नोकिया फोन जो उस समय मुझे अपनी जरूरत से कहीं ज्यादा लगता था कि तुलना में आज के महंगे स्मार्ट फोन में भी मैं कुछ कमियाँ ढूंढ लेती हूँ | सीखने होंगे  व्यापर के नियम  कहने का तात्पर्य ये है कि जब भी कोई व्यक्ति कुछ बेंच रहा है …. तो उसे व्यापर में होने वाले बदलाव पर ध्यान रखना होगा  और उसी के अनुसार निर्णय लेना होगा | ये नियम हर व्यापारी पर लागू होता है चाहें वो सब्जी बेचनें वाला हो , दिए बेंचने वाला हो या अम्बानी जैसा बड़ा व्यापारी हो | व्यापर बदलते समय की नब्ज को पकड़ने का काम है , अन्यथा नुक्सान तय है | जैसा कि कई लोग उस व्यापर में पैसा लगते हैं जो कुछ समय बाद  खत्म होने वाला होता है , ऐसे में लाभ की उम्मीद कैसे कर सकते हैं | समय को समझना हम सब का काम है , क्योंकि वो हमारे लिए इंतज़ार नहीं करेगा | अगर आप नौकरी में भी हैं तो आने वाले समय में कुछ नौकरियां भी खतरे में है …. 1) ड्राइवर — टेस्ला इलेक्ट्रिक से चलने वाली कारें बाज़ार में उतार चुका है | जैसे -जैसे ये टेक्नोलोजी सस्ती होगी प्रचुर मात्र में अपनाई जायेगी | ऑटो , टैक्सी ड्राइवर की नौकरीयाँ तेजी से घटेंगी | 2)बैक जॉब्स – जैसे -जैसे ऑनलाइन बैंकिंग ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल होने लगी है जिस कारण लोगों का बैंक जाना कम हो रहा है | अत : भविष्य में बैंक क्लर्क के जॉब घटेंगे | 3)प्रिंटिंग प्रेस – आज भले ही हम अपनी किताब छपवाने की चाहते रखते हो पर भविष्य में बुक की जगह इ बुक लेंगीं क्योंकि छोटे होते घरों में इतनी किताबें रखने की जगह नहीं होगी | अभी ही मुझ जैसे पुस्तक प्रेमियों को ये सोचना पड़ता है कि जितनी किताबें मैं खरीदती हूँ उन्हें किसी पुस्तकालय को दे दूँ | दूसरी बात ये भी है जब पुस्तकें फोन पर होंगीं तो आप यात्रा में बिना भार बढाए ले जा सकते हैं | तीसरे किताबें कम छपने से पेपर की बचत होगी … हालांकि एक प्लास्टिक पेपर पर … Read more

मंगतलाल की दिवाली

हम सब वायु , ध्वनि , जल और मिटटी के प्रदूष्ण के बारे में पढ़ते हैं … पर एक और प्रदुषण है जो खतरनाक स्तर तक बढ़ा है , इसे भी हमने ही खतरनाक स्तर तक बढाया है पर हम ही इससे अनभिज्ञ हैं … कैसे ? आइये समझें मंगत्लाल की दिवाली से काव्य कथा -मंगतलाल की दिवाली  देखते ही पहचान लिया उसे मैंने आज के अखबार में दिखाने को दिल्ली का प्रदूष्ण जो  बड़ी-बड़ी लाल –लाल आँखों वाले का छपा है ना फोटू वो तो मंगत लाल है अरे , हमारे इलाके ही में सब्जियां बेंचता है मंगत लाल दो पैसे की आस -खींच लायी है उसको परदेश में सब्जी के मुनाफे में खाता रहा है आधा पेट बाकी जोड़ -जोड़ कर भेज देता है अपने देश उसी से भरता है पेट परिवार का , जुड़ते हैं बेटी की शादी के पैसे और निपटती है ,हारी -बिमारी , तीज -त्यौहार और मेहमान कई बरस से गया नहीं है अपने गाँव , पूछने पर खीसें निपोर कर देता है उत्तर का करें ? जितना किराया -भाडा में खर्च करेंगे उतने में बन जायेगी , टूटी छत या हो जायेगी घर की पुताई या जुड़ जाएगा बिटिया के ब्याह के लिए आखिर सयानी हो रही होगी चार बरस हो गए देखे हुए , मंगतलाल बेचैन दिखा  इस दीवाली पर गाँव जाने को तपेदिक हो गया अम्मा को मुश्किल है  बचना हसरत है बस देख आये एक बार इसीलिए उसने दीवाली से कुछ रोज पहले भाजी छोड़ लगा लिया दिये का ठेला सीजन की चीज बिक ही जायेगी , मुनाफे से जुड़ जाएगा किराए का पैसा और जा पायेगा अपने गाँव  मैंने, हाँ मैंने  देखा था मंगत को ठेला लगाये हुए मैं जानती थी कि उसकी हसरत फिर भी अपनी  बालकनी में बिजली की झालर लगाते हुए मेरे पास था , अकाट्य तर्क एक मेरे ले लेने से भी क्या हो जाएगा , बाकि तो लगायेगे झालर शायद यही सोचा पड़ोस के दुआ जी ने , वर्मा जी ने और सब लोगों ने सबने वही किया जो सब करते हैं , सज गयीं बिजली की झालरे घर -घर , द्वार -द्वार  और बिना बिके  खड़ा रह गया दीपों का ठेला       अखबार में अपनी फोटू से बेखबर आज मंगतलाल  फिर बेंच रहा है साग –भाजी आंखे अभी भी है लाल पूछने पर बताता है भारी  नुक्सान हो गया बीबीजी , बिके नहीं दिए, नहीं जुड़ पाया किराए-भाड़े का पैसा   और कल रात अम्मा भी नहीं रहीं , कह कर ठेला ले कर आगे बढ़ गया मंगत लाल शोक मनाने का समय नहीं है उसके पास उसके चलने से चल रहीं हैं कई जिंदगियाँ  यहाँ से बहुत दूर , उसके गाँव में    मैं वहीं सब्जी का थैला पकडे जड़ हूँ ओह मंगत लाल ….तुम्हारी दोषी हूँ मैं , दुआ जी , शर्मा जी और वो सब जिन्होंने सोचा एक हमारे खरीद लेने से क्या होगा और झूठा है ये अखबार भी जो कह रहा है दिल्ली के वायु प्रदूषण  से लाल हैं तुम्हारी आँखें  हां ये आँखे प्रदूषण  से तो लाल हैं पर ये प्रदूषण सिर्फ हवा का तो नहीं ….   वंदना बाजपेयी      बैसाखियाँ   एक गुस्सैल आदमी   सबंध      रंडी एक वीभत्स भयावाह यथार्थ     आपको    “  मंगतलाल की दीवाली “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |   filed under: , poetry, hindi poetry, kavita, diwali, deepawali

वो कन्नौज की यादगार दीपावली

यूँ तो हर बार दिवाली बहुत खास होती है पर उनमें से कुछ होती हैं जो स्मृतियों के आँगन में किसी खूबसूरत रंगोली की तरह ऐसे सज जाती हैं कि हर दीवाली पर मन एक बार जाकर उन्हें निहार ही लेता है | ऐसी ही दीवालियों में एक थी मेरे बचपन में मनाई गयी कन्नौज की दीपावली | वो कन्नौज की यादगार  दीपावली कन्नौज यूँ तो कानपुर के पास बसा एक छोटा शहर है पर इतिहास में दर्ज है कि वो कभी सत्ता का प्रतीक रहा था | राजा हर्षवर्धन के जमाने में कन्नौज की बहुत शान हुआ करती थी | शायद उस समय लडकियां चाहती थी कि हमारी शादी कन्नौज में ही हो , तभी तो, “कन्नौज –कन्नौज मत करो बिटिया कन्नौज है बड़े मोल “जैसे लोक गीत प्रचलित हुए , जो आज भी विवाह में ढोलक की थाप पर खूब गाये जाते हैं | खैर हमारी दोनों बुआयें  इस मामले में भाग्यशाली रहीं कि वो कन्नौज ही बयाही गयीं | तो अब स्मृति एक्सप्रेस को दौडाते हुए  आते हैं कन्नौज की दीवाली पर … बात तब की है जब मैं कक्षा पाँच में पढ़ती थी | दीपावली पर हमारी बड़ी बुआ , जो की लखनऊ में रहती थीं अपने परिवार के साथ कन्नौज अपने पैतृक घर में दीपावली मनाने जाती थी | उस बार वो जाते समय हमारे घर कुछ दिन के लिए ठहरीं, आगे कन्नौज जाने का विचार था |बड़ी बुआ की बेटियाँ मेरी व् मेरी दीदी की हम उम्र थीं | हम लोगों में बहुत बनती थीं | हम लोग साथ –साथ खेलते , खाते –पीते और लड़ते थे |वो दोनों अक्सर कन्नौज की दीवाली की तारीफ़ किया करती थीं | जैसी दीवाली वहां मनती है कहीं नहीं मनती |फिर वो दोनों जिद करने लगीं कि हम भी वहां चल कर वैसी ही दीपावली मनाएं | हमारा बाल मन जाने को उत्सुक हो गया परन्तु हमें माँ को छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा था | इससे पहले हम बिना माँ के कभी रहे ही नहीं थे , पर बुआ ने लाड –दुलार से हमें राजी कर ही लिया | जैसे ही हमारी कार घर से थोडा आगे बढ़ी मैंने रोना शुरू कर दिया , मम्मी छूटी जा रहीं हैं | दीदी ने समझाया , बुआ ने समझाया फिर जा कर मन शांत हुआ | उस दिन मुझे पहली बार लगा कि लडकियाँ  विदाई में रोती क्यों हैं | खैर हँसते -रोते हम कन्नौज पहुचे | बुआ की बेटी ने बड़े शान से बताया ,” यहाँ तो मेरे बाबा का नाम भी किसी रिक्शेवाले के सामने ले दोगी   तो वो सीधे मेरे घर छोड़ कर आएगा , इतने फेमस हैं हम लोग यहाँ “| मन में सुखद  आश्चर्य हुआ ,ये तो पता था की बुआ बहुत अमीर हैं पर उस समय  लगा किसी राजा के राजमहल में जा रहे हैं, जहाँ दरवाजे पर संतरी खड़े होंगें जो पिपहरी बजा रहे होंगे और फूलों से लदे हाथी हमारे ऊपर पुष्प वर्षा करेंगे | बाल मन की सुखद कल्पना के विपरीत , वहां संतरी तो नहीं पर कारखाने के कई कर्मचारी जरूर खड़े  थे | तभी दादी ( बुआ की सासु माँ )लाठी टेकती आयीं |  दादी ने हम लोगों का बहुत स्वागत व दुलार किया  और हम लोग खेल में मगन हो गए |  क्योंकि मेरी बुआ काफी सम्पन्न परिवार की थीं | उनका इत्र  का कारोबार था | वहां का इत्र  देश के कोने -कोने में जाता था | इसलिए वहाँ की दीपावली हमारे घर की दीपावली से भिन्न थी | पकवान बनाने के लिए कई महराजिन लगीं  हुई थी , बुआ बस इंतजाम देख रहीं थीं | जबकि मैंने अपने घर में यही देखा था कि दीवाली हो या होली, माँ अल सुबह उठ कर जो रसोई में घुसतीं तो देर  शाम तक निकलती ही नहीं थीं | माँ की रसोई में भगवान् का भोग लगाए जाने से पहले हम बच्चे भोग लगा ही देते … और बीच -बीच में जा कर भोग लगाते ही रहते | माँ प्यार में डपट लगा तीं पर वो जानतीं थीं कि बच्चे मानेंगे नहीं , इसलिए भगवान् के नाम पर हर पकवान के पहले पांच पीस निकाल कर अलग रख देंती थी ,ताकि बच्चों को भगवान् से पहले खाने के लिए ज्यादा टोंकना  ना पड़े | परन्तु यहाँ पर स्थिति दूसरी थी | दादी , बुआ दादी और महाराजिनों की उपस्थिति  हम में संकोच भर रही थी, लिहाज़ा हम ने तय कर लिया चलो इस बार भगवान् को पहले खाने देते हैं |  त्यौहार के दिन पूरा घर बिजली  जगमग रोशिनी से नहा गया | आज तो लगभग हर घर में इतनी ही झालरे लगती हैं पर तब वो जमाना किफायत का था | आम लोग हलकी सी झालर लगाते थे, ज्यादातर घरों में दिए ही जलते थे | इतनी लाईट देखकर मैंने सोचा ,” क्या यहाँ लाईट नहीं जाती है |” बाद में पता चला की लाईट तो जाती है पर जनरेटर वो सारा बोझ उठा लेता है | दीपावली वाले दिन हम सब को एक बड़ी डलिया  भर के पटाखे जलाने को मिले | बुआ की बेटी ने कहा, ” इतने पटाखे कभी देखे भी हैं ? ” मैंने डलिया में देखा ,वास्तव में हमारे घर में कुल मिला कर इससे कम पटाखे ही आते थे | एक कारण ये भी था कि मैं और दीदी पटाखे छुडाते नहीं थे , बस भाई लोग थोड़े शगुन के छुड़ाते थे , बहुत शौक उन्हें भी नहीं था | पिताजी हमेशा समझाया करते थे कि ये धन का अपव्यय है और हम सब बिना तर्क  दिए मान लेते | खैर , मैंने  उससे कहा , “मैं पटाखे छुड़ाती ही नहीं |” उसने कहा  इस बार छुडाना फिर देखना अभी तक की सारी दीवाली भूल जाओगी | शाम को हम सब पटाखे ले कर घर के बाहर पहुंचे | उस बार पहली बार मैंने पटाखे छुडाये | या यूँ कहे पहली बार पटाखे छुडाना सीखा | थोड़ी देर डरते हुए पटाखे छुड़ाने के बाद मैं इस कला में पारंगत हो गयी | हाथ में सीको बम लेकर आग लगा कर दूर फेंक देती और बम भड़ाम की आवाज़ के … Read more

दीपावली के बाद अनावश्यक गिफ्ट्स का क्या करें ?

दीपों के त्यौहार दीपावली में गिफ्ट्स लेने – देने की परंपरा है | पर अक्सर त्यौहार के बाद लोग उन गिफ्ट्स को इधर – उधर बाँट कर जैसे एक बहुत बड़े बोझ से हल्का होने का प्रयास करते हैं | क्या आप भी उनमें से एक हैं ? तो ये लेख आपके लिए हैं आइये जाने …  महत्वपूर्ण  सवाल  दीपावली के बाद आप गिफ्ट्स का क्या करते हैं ? हमारे सभी त्योहार घर-आँगन में ख़ुशहाली बिखेरते हुए मनों में जैसे अक्षय ऊर्जा का संचार कर जाते है, जिनकी गूँज कई-कई दिनों तो कानों में मधुर संगीत की तरह बजती हुई सुनाई देती रहती है। कुछ इसी तरह चल रहा था था पिछले वर्ष दीवाली बीतने के बाद। दो-चार दिन बाद मेरी एक अभिन्न मित्र ने मुझे अपनी किटी पार्टी में आने का निमंत्रण दिया….फ़ोन पर बोली कि कितने दिन हो गए हमें मिले हुए….तो तुम्हें आना ही है। इस बहाने तुम हमारी किटी पार्टी भी देख लेना कैसी होती है।तो मैं गयी। वहाँ काफ़ी कुछ देखा और सुना… जिसने मेरे मन में उथल-पुथल सी मचा दी थी। क्या दीपावली के बाद आप का भी मुख्य अजेंडा  गिफ्ट्स निपटाने का होता है ?   क्या बताऊँ भाभी जी! इतनी मिठाई, इतने गिफ़्ट्स इकट्ठे हो गए कि क्या बताऊँ? मिठाई हम इतनी खाते नहीं, गिफ़्ट्स भी ऐसे…जो रखने लायक नहीं…कल सब निबटाये तो आज आराम मिला।       कहाँ निबटा डाले मिसेज़ शर्मा! बताइए ज़रा।हम भी इसी समस्या से जूझ रहे हैं।          निबटाने कहाँ….अपनी कामवाली, माली,डाकिया, धोबी…..इन्हीं को दे-दिवा कर छुट्टी पायी मैंने तो। और हाँ….कुछ भिखारियों को भी दे दिए।       ये अच्छा रास्ता बता दिया आपने तो। हम भी अपने भार से हल्के हो लेंगे जी।        तभी एक कोई मिसेज़ शील बोली….अरे मिसेज़ शर्मा…जिन भिखारियों को आप दे रही थी वे तो आगे जाकर रास्ते में ही वे सब समान छोड़ गए थे… मैंने अपनी आँखों से दहख था।  ये सब वर्णन सुनते हुए मेरे मन में उथल-पुथल सी होने लग गयी थी। कई दिनों तक में इसी विषय पर सोचती रही। क्या जो बातें वे सब किटी पार्टी में बोलने में लगी हुई थीं… वे पूर्णतया सच थी?  सब एक-दूसरे के सामने अपने को ऊँचा दिखाने  के चक्कर में दिखावा करते हुए बढ़-चढ़ कर बोलने में लगी हुई थी। दीपावली के बाद क्या करे  बेजरूरत गिफ्ट्स का ?         अगर सचमुच में हमारे पास देने के लिए चीज़ें इकट्ठी हो गयी हैं और वे हमारे उपयोग की भी नहीं हैं तो उन्हें निबटाने की सोच क्यों? उन्हें देने की और सही जगह देने की सोच क्यों न हो? कामवालियाँ,माली, धोबी कई घरों में काम करते हैं, वहाँ से उन्हें इतना मिलता है कि वे उस मिले हुए को बहुत महत्व भी नहीं देते…. हाँ तुलना ज़रूर कर लेते हैं कि किसने महँगा दिया, किसने सस्ता दिया,किसने कम दिया,किसने ज़्यादा दिया। जब हमें कुछ देना ही है तो क्यों न … उसे दिया दिया जाए जिसे सबसे ज़्यादा ज़रूरत हो, जिसे पाकर सच में उसके चेहरे पर मुस्कराहट आए। इसमें श्रम तो अवश्य होगा पर खोज करके जिसे दिया जाएँ उसकी मुस्कराहट देख कर संतोष अवश्य होगा सही व्यक्ति तक हमारा दिया पहुँच रहा है।            जो दें मन से दें, यह सोच कर दें कि जिसे दे रहे हैं उसे देकर और लेने वाले को लेकर अच्छा लगे। ऐसा न हो कि हम देकर यह सोचें कि चलो निबटा यह काम भी और जिसे दिया वो ले कर यह सोचें कि हे! राम इससे तो यह ना ही देता।          हो ये रहा है कि आज दिखावे के वशीभूत होकर लोग देने का दिखावा तो कर रहे है,पर दिया जाने वाला समान दिए जाने वाले व्यक्ति की रुचि का, मन का नहीं होता….तो वह यूँ ही पड़ा रहता है और निबटाया ही जाता है।           सम्बन्धियों के दिए उपहार तो इधर से उधर घूमते ही रहते हैं। हम जिसे कुछ उपहार दे रहे हैं वह काम में आने वाला हो और अपने बजट के अनुकूल हो …यह ध्यान तो होना ही चाहिए। भावनाएँ जुड़ी न हों तो दिए उपहार का कोई लाभ नहीं है।  दीपावली के अनमोल उपहार जो आप दे सकते हैं ?    त्योहार है….और वो भी अवसर दीवाली का है तो आइए अपनी ज़रूरतों में से थोड़ा सा कम करके उन लोगों के घरों में ख़ुशियों के दीप जलाएँ जिनके घरों के लोग अपने घरों के दरवाज़े पर ख़ुशियों के आने का रास्ता देख रहें हैं। बितायें उनके साथ अपना थोड़ा सा समय, उन वृद्धजनों के बनें अपने…. जिनके अपनों ने छोड़ दिया उन्हें ….. कुछ सुनें उनकी कुछ अपनी सुनायें….जलायें अपनेपन का एक दिया उनके सूने जीवन में… .जलायें ज्ञान का एक दीप उन बच्चों के लिए, जो किसी विवशता के मारे पढ़ाई से दूर हैं… जलाएँ संकल्प का एक दीप कि मृत्यु के बाद आपके नेत्र किसी के जीवन का अंधियारा दूर कर उजाले से प्रकाशित करेंगे संसार।   त्योहार कहते हैं हमें कि जिन संकीर्णताओं की श्रृंखलाओं में अपने को जकड़ लिया है हमने…..उन्हें तोड़ कर अपने मैं से बाहर निकलें, अपनाएँ प्रेम-स्नेह और अपनेपन से सबको। अपने में सबको देखें और सबमें अपने को….. तभी एक- दूसरे के दुःख -सुख को मानवता के धरातल पर हम अनुभव कर सकेंगे और सच्चे बन कर वास्तविक दीप जला सकेंगे।              तो चलें……सर्वप्रथम हम अपने अज्ञान के अंधेरे को दूर करने के लिए एक दीप जलाएँ और उससे फिर दीप से दीप जला कर उजाले से सज़ा दे सारा संसार। तभी होगी वास्तविक दीवाली। डा०भारती वर्मा बौड़ाई मित्रों आपको डॉ . भारती वर्मा बौड़ाई जी का लेख ” दीपावली के बाद आप गिफ्ट्स का क्या करते हैं ?”कैसा लगा ? अपनी राय से हमें अवगत करायें | पसंद आने पर शेयर करे | हमारा  फ्री ई  मेल सबस्क्राइब करायें जिससे  ‘अटूट बंधन “की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपको अपने ई मेल पर मिल   सकें | यह भी पढ़ें …….. उपहार जो मन को छू जाए बनाए रखे भाषा की तहजीब क्या आत्मा पिछले जन्म के घनिष्ठ रिश्तों … Read more

मिट्टी के दिए

दीपावली पर मिट्टी के दिए जलाने की परंपरा है | भले ही आज बिजली की झालरों ने अपनी चकाचौंध से दीपावली की सारी  जगमगाहट अपने नाम कर ली हो | फिर भी अपनी परंपरा और अपने पन से जुड़े रहने का अहसास तो मिटटी के दिए ही देते हैं | आइये पढ़ें …  emotional hindi story-मिट्टी के दिए  मैं मंदिर के पास वाली दुकान में नीचे जमीन पर पड़े मिट्टी के दीयों में से दिए छांट रही थी | एक – एक देखकर  कि कहीं कोई चटका या टूटा तो नहीं है , करीने से अपनी डलिया  में भर रही थी | हाथ तो अपना काम कर रहे थे पर दिमाग में अभी कुछ देर पहले अपनी पड़ोसन श्रीमती जुनेजा के साथ हुआ वार्तालाप चल रहा था | श्रीमती जुनेजा  कह रही थीं  ,” कमाल है , तुम दिए लेने जा रही हो ?क्या जरूरत है मिट्टी  के दिए लाने की , बिजली की झालरों की झिलमिल की रोशिनी के आगे दिए की दुप – दुप कितनी देर की है | परंपरा के नाम पर बेकार में  पैसे फूंको | मैं जानती थी की कुम्हार , उसका रोजगार , बिज़ली की  बर्बादी ये सब उन्हें समझाना व्यर्थ है | इसलिए मैंने धीमें से मुस्कुरा कर कहा ,मैं इसलिए लाऊँगी क्योंकि मुझे दिए पसंद हैं | कई बार जब हम बहुत कुछ कहना चाहते हों और कह न सकें तो वो बातें दिमाग में चलती रहती हैं |किसी टेप रिकार्डर की तरह |  मेरा भी वही हाल था | हाथ दिए छांट रहे थे और दिमाग मिटटी के दीयों के पक्ष में पूरा भाषण तैयार कर रहा था | तभी एक सुरीली सी आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी | भैया , थोड़े से फूल , थोड़े से इलायची  दाने और … और आज जिस गॉड की पूजा होती है उनका कोई कैलेंडर हो तो दे दीजियेगा  मैंने पलट कर देखा , यही कोई 25 -26 साल की लड़की खड़ी थी | आधुनिक लिबास ,करीने से कटे बाल ,  गले में शंखों की माला , कान में बड़े – बड़े शंखाकार इयरिंग्स और मुँह में चुइंगम | मैंने मन ही मन सोंचा ,ये और पूजा … हम कितनी सहजता से किसी के बारे में धारणा बना लेते हैं | मुझको अपनी ओर देखते हुए बोली ,” आंटी , आज किस गॉड की पूजा होती है | शायद धन्वंतरी  देवी की | जिनका आयुर्वेद से कुछ कनेक्शन है | मैंने मुस्कुरा कर कहा ,” धन्वंतरी देवी नहीं , देवता | उन्हें आयुर्वेद का जनक भी कहा जाता है |धनतेरस पर उनकी पूजा होती है | क्योंकि स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन है | मैं बोल तो गयी पर मुझे लगा मैं कुछ ज्यादा ही बोल रही हूँ  | क्या ये बढती हुई उम्र का असर है कि हर किसी को प्रवचन देते चलो | या जैसा की मैंने कहीं पढ़ा था की जब सुपात्र मिल जाए तो ज्ञान अपने आप छलकने लगता है | खैर , वो मुझे कहीं पलट कर कुछ बेतुका  जवाब न दे दे | यह सोंच कर मैंने अपना ध्यान फिर से मिटटी के दिए चेक करने में लगा दिया | मेरी आशा के विपरीत वो मेरे पास आ गयी और ख़ुशी से चिहक कर बोली ,” वाओ ! मिटटी के दिए , मैं भी लूँगी | आंटी आज तो कुछ स्पेशल डिजाइन का दिया जलता है | हाँ , पर तुम्हें इतना कैसे पता  है , मैंने प्रश्न किया | मैंने नेट पर पढ़ा है | मैंने पूजा की पूरी विधि भी पढ़ी है | मैं अपने फ्रेंड्स के साथ पूरे रिचुअल्स मनाऊँगी | बहुत मज़ा आएगा | मेरी उत्सुकता बढ़ी | बातें होने लगीं | बातों  ही बातों में उसने बताया कि मात्र सोलह साल की थी जब डेल्ही कॉलेज ऑफ़ इंजीनीयरिंग में घर छोड़ कर पढाई करने आ गयी थी | फिर यहीं से M .B .A किया | फिर जॉब भी यही लग गया | इंजीनीयरिंग कॉलेज में सेलेक्शन से बरसों पहले ही  जीवन में बस किताबें ही थी |खेलना कूदना और त्योहारों की मस्ती जाने कब की छूट गयी |  सेलेक्शन और फिर जॉब के बाद परिवार , त्यौहार और घर बार सब छूट गया | अभी P .G में रहती है , कई लडकियां हैं | सब ने डिसाइड किया है कि त्यौहार पूरी परंपरा  के अनुसार ही मानायेंगे | इंटरनेट से जानकारी ली और चल दीं  खरीदारी करने | लम्बी सांस भरते हुए उसने आगे कहा ,” आंटी , हम सब … न्यू  जनरेशन जो आत्म निर्भर है , आज़ाद ख्याल है | फिर भी हम परंपरागत तरीके से हर त्यौहार मनाना चाहते हैं | जानती हैं क्यों ? क्योंकि इतना सब होते हुए भी हम सब अकेलेपन का शिकार हैं | इसी बहाने ही सही थोडा सा अपनी जड़ों से जुड़े रहने का अहसास होता है | लगता है अभी भी “इस मैं में कहीं हम बस रहा है |” मेरे अन्दर माँ बस रही हैं , बाबूजी बस रहे हैं और दिल्ली की बड़ी इमारतों के बीच में मेरा छोटा सा क़स्बा बस रहा है | ओ . के . आंटी , मेरा तो हो गया , बाय …कहकर वो चली गयी | मैं भावुक हो गयी | मुझे अभी और दिए लेने हैं …मिटटी के दिए , जो बिजली की झालरों के सामने भले ही दुप -दुप् जलते हों , पर इसमें जो अपनेपन के अहसास की चमक है  उसका मुकाबला ये बिजली की झालरे  कर पाएंगी भला ? वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. उसकी मौत झूठा एक टीस आई स्टिल लव यू पापा

दीपवाली पर कविताओं के 7 दीप

                                                 दीपावली अँधेरे पर रौशनी की विजय का त्यौहार है | ये नन्हे – नन्हे दीपों का ही तो चमत्कार है की काली अमावस की रात टिमटिमाती रोशिनी से जगमग हो जाती है | दीप जलाने की इसी परंपरा को आगे बढाते हुए हमने प्रतीकात्मक रूप से कविताओं के सात दीप जलाए हैं | आखिर अज्ञान के  अँधेरे को  तो ज्ञान के दीप ही दूर करते हैं |  इसमें हमने शामिल किये हैं …उषा अवस्थी , डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई “, डॉ .मधु त्रिवेदी , रंगनाथ द्विवेदी , बीनू भटनागर , संजय वर्मा , रोचिका शर्मा और रामचंद्र आज़ाद के काव्य दीप | आइये आप भी इन नन्हें दीपों के प्रकाश की जगमगाहट का आनंद लें |आशा है ये आप की दीपावली को कुछ और जगमग कर देंगे …. एक दीपक जरा जलाओ तुम   दीपावली की रात अमावस के दिन सैकड़ों दीप जलाए होगें दूर करने को मन का अंधियारा एक दीपक जरा जलाओ  तुम खूबसूरत ,नए चमकते कीमती कपड़े  अपने बच्चों को पिन्हाए होगें  ठ॔ड से कपकंपाते बच्चों को  एक फतुहीं जरा सिलाओ तुम दूर – – – – – गर्म पूड़ी , मिठाई, मेवे खा तुमने त्योहार मनाया होगा भूख से बिलबिलाते बच्चों को एक रोटी जरा खिलाओ तुम दूर – – – – –  नर्म गद्दे ,रजाई ,तकियों पर लेते हो चैन की नीदें हरदम काटते रात जो फुटपाथों पर एक कम्बल उन्हे ओढ़ाओ तुम दूर – – – – –  तुमने हर बार दीवाली की खुशी  सुन्दर रंगीन पटाखों से मनाई होगी जबरन जिनसे कराते काम, नौनिहालों को अक्षर -माला जरा दिलाओ तुम दूर – – – – –  उषा अवस्थी जलें दीप घर में मेरे जलें दीप घर में मेरे पर हो उजाला सर्वत्र एक दीप पितरों के लिए चल रहा आशीष जिनका हर क़दम संग सबके एक दीप माँ-पिता के लिए जन्म देकर बनते प्रेरणा बच्चों की जीवन भर के लिए एक दीप परिचित मित्रों के लिए व्यवहार जिनका बनता नयी सीख जीवन में एक दीप दुश्मनों के लिए जो मेरी कमी से नहीं बन सके मेरे मित्र कभी एक दीप शहीदों के लिए जिन्होंने रखी नींव आज के स्वतंत्र भारत की एक दीप सैनिकों के लिए जो रहते सरहद पर तैनात देश की रक्षा में दिन रात एक दीप किसानों के लिए जो रचते अन्न-संगीत कड़ी मेहनत से एक दीप उन सबके लिए जो जुड़े है किसी न किसी रूप में हम सबसे लेकिन हम हैं अनजान उनसे और इस तरह जलायें इतने दीप रह न पाये अँधेरा भूले से भी कहीं। डा० भारती वर्मा बौड़ाई दीप मिल कर जला दीजिये दीप मिल कर जला दीजिये मात लक्ष्मी बुला दीजिये साल में एक ही बार हो वन्दवारे सजा दीजिये साफ घर द्वार कर लो सभी रोज छिप कर बुला दीजिये अर्चना  आज तेरी  करे कष्ट सारे मिटा दीजिये स्वस्तिकें द्वार अपने रखूँ मात आ कर दुआ दीजिये भोग तेरा लगा मात अब पीर मेरी भगा दीजिये घर पधारे सदा माँ मिरे लाज मेरी बचा दीजिये डॉ मधु त्रिवेदी दिवाली नही आई भरपेट भोजन की थाली नही आई, कुछ एैसे भी घर है———- जहां दिवाली नही आई। रो रही घर में——— तक-तक के दरवाजे को भूखी बेटिया, उन्हे अपनी माँ की बुलाती आवाज़, प्यार भरी थपकी, छोटी बिटिया के खुशीयो की—— वे ताली नही आई! अभी तलक———- लौट कर इस घर की दिवाली नही आई। सुबह के धुधलके में——– दो पुलिसिये चादर में लपेटकर, लाये थे नग्न लाश! बेटिया डर गई, एकटक देखा कि कौन है? फिर माँ कह झिंझोडा——– लेकिन उसकी माँ की खुली आँखो ने तका नही, पहली बार-उसकी माँ के चेहरे पे कोई लाली नही आई। ये बेटिया क्या जाने? कि करोड़ो के पटाखो में दब गई, इनके माँ की सिसकिया! देख लो आज तुम भी मेरी कविता, इसके बदन पे हवस के निशान—– ये आज भी अपने घर खाली नही आई, ये और बात है कि———- इसके घर कोई दिवाली नही आई। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जौनपुर। शायद कुछ एैसे वंचित घर है जहां दिवाली नही आती,फिर भी ईश्वर हर घर को रौशनी दे। दिवाली बहुरंगी रंगोली सजाई, चौबारे पर दिये जलाये, लक्ष्मी पूजन आरती वंदन,  कार्तिक मास अमावस आई। मन मयूर सा नाच उठा जब, साजन घानी चूनर लाये,  घानी चूनर जड़े सितारे, दीप दिवाली के या तारे । खील बताशे पकवान, और मिष्ठान निराले, अपनो के उपहार अनोखे, स्नेह संदेशालेकर आये । फुलझड़ी व अनार चलाये, बंम रौकिट का शोर न करके, फूलों से सजावट करके, दीवाली त्योहार मनाये।  बीनू भटनागर  आओं हमारे घर आओं हमारे घर दीपावली में रोशनी लगतीजेसे घरों ने पहन लिए हो स्वर्णहारलाल- हरी,पीली-नीली रंगोलियालक्ष्मी -कुबेर को दे रही होघर आने का निमंत्रणबच्चे फुलझड़ियों की रौशनी सेकरने लग जाते है मानो उनका अभिवादनऐसा लगता है कि दीवाली परमाँ लक्ष्मी कृपा का भ्रमण करनेनिकली हो संग कुबेरतभी मन ही मन खुश होकरझोपड़ी में जलते दीयों नेएक साथ धीमे से पुकार दीआओं हमारे घर माँ लक्ष्मीहमारी कामना है किझोपड़ी भी स्वर्णहार पहनेऔर रह रहे इंसान बन जाए धन कुबेर संजय वर्मा “दृष्टि “ -धार दिवाली दीप  जलाऊं झिलमिल दिवाली की रौनक सी ,घर में खुशियाँ ले आती संपूर्ण तपस्या  जीवन भर की, बिटिया झलक जब दिखलाती इसके गृह प्रवेश संग तम, कौने-कौने का हट जाता निसदीन वास करे  घर में तो, दुख-दारिद्र भी घट जाता उसके पग से छूटा अलता ,चौखटको पावन कर जाता इंद्रधनुष से रंग बिखराती ,देहरी की रंगोली को सजाता भोली सूरत में इसकी समाहित अन्न,धन और रत्न अनमोल मुस्कानों में फुलझड़ियाँ हैं,  किल्कारी आरती के बोल इसकी महिमा जान न पाए, क्यूँ लक्ष्मी पूजन करते हो गर्भ में जाँच कराते क्यूँ हो, पैदा होने से डरते हो धन तेरस से पग हो माँडते ,द्वार भी रख लेते हो खुला गर्भ द्वार करते निष्कासित, तिरस्कृत लक्ष्मी मन की तुला लक्ष्मी पूजन की विधियों में , बैठी लक्ष्मी की महिमा बड़ी घर में पैदा लक्ष्मी हो जाए , बनेमुँह तयोरियाँ क्यूँचढीं जन-जन को ये शपथ दिलाऊं, कन्या भ्रूण हत्या बंद कराऊँ देवी लक्ष्मी सा मान दिलाऊं, तोमैं दिवाली दीप जलाऊं रोचिका शर्मा , चेन्नई डाइरेक्टर सुपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी दीपावली के दीप दीप ऐसे जलाएं दिवाली में हम,                खुशियों से यह धरा जगमगाने लगे | कोई कोने व अंतरे न बाकी … Read more

दीपोत्सव :स्वास्थ्य ,सामाजिकता ,और पर्यावरण की दृष्टी से महत्वपूर्ण

त्यौहार और उत्सव हमारे जीवन में हर्षोल्लास और सुख लेकर आते हैं ।भारतीय संस्कृति में त्यौहारों का विशेष स्थान है। सभी पर्व या तो पौराणिक पृष्ठभूमि से जुड़े हैं या प्रकृति से! इनका वैज्ञानिक पहलू भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता! पांच त्यौहारों की एक श्रृंखला है दीपोत्सव  दीवाली न सिर्फ एक त्यौहार है बल्कि ये पांच त्यौहारों की एक श्रृंखला है जो कि न सिर्फ पौराणिक कथाओं से जुड़े हैं बल्कि सामाजिक एवं पर्यावरण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं।वास्तव में त्यौहारों का अंतिम अभिप्राय आनन्द और किसी आस्था का संरक्षण ही होता है। पांच दिवसीय इस त्यौहार के लिए हफ़्तों पहले से तैयारियाँ शुरु हो जाती हैं ।साफ-सफाई करते हैं, घर सजाते हैं ।इसका वैज्ञानिक महत्व है।बारिश के बाद सब जगह सीलन होती है फंगस और कीटाणु होते हैं जो कि बीमारियों का कारण बनते हैं ।इसलिए साफ-सफाई करके स्वास्थ्य सुरक्षा की जाती है। इसके बाद घर को सजाते हैं जिससे सुन्दरता के साथ-साथ सकारात्मक ऊर्जा का भी संचरण होता है।फिर आती है ने कपड़ों और ज़ेवर,बरतन की खरीद! सजे संवरे घर में सब कुछ नया-नया हो तो नई उमंग और उत्साह से भर जाते हैं ।सर्दियां भी बस शुरू होने को ही होती हैं तो इस दृष्टि से खान-पान का विशेष ध्यान रखते हुए पकवान बनाए जाते हैं। इतना सब करें और मेहमानों का आना-जाना न हो !!!इसलिये अब एक-दूसरे को बधाई देते हैं, बहन बेटियों को बुलाते हैं और मिलजुल कर त्यौहार मनाते हैं । तो इस तरह दीवाली का ये त्यौहार न केवल पौराणिक मह्त्व का है बल्कि सामाजिक,स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इसके अलावा समाज के लगभग हर वर्ग के लिए महत्व का है। मिट्टी के दीपक, मिठाइयां, ज़ेवर-कपड़े, फल-सब्जी, मोमबत्तियों की और बिजली की रोशनी आतिशबाज़ी आदि बहुत सी चीज़े समाज के विभिन्न वर्गो को रोज़गार के अतिरिक्त अवसर प्रदान करती हैं। अब क्रमवार दीपोत्सव  त्यौहारों की बात करें — 1—धन-तेरस— कार्तिक मास की त्रयोदशी के दिन मनाया जाने वाले इस त्यौहार में आरोग्य के देवता धन्तवरी की आराधना की जाती है।साथ ही नहर बरतन,आभूषण आदि की खरीद भी की जाती है। 2—रूप-चौदस/यम-चतुर्दशी––महिलाएँ अब तक साफ-सफाई और खरीददारी,रसोई में ही व्यस्त रही होती हैं ।तो आज का त्यौहार उनके सजने संवरने का है। साथ ही परिवार की सुरक्षा एवं  खुशहाली के लिए यम के लिए बाहर देहरी पर एक दीपक जलाती हैं ।इस भावना के साथ कि वो बाहर से ही लौट जाएं । 3—दिवाली—तीसरा दिन मुख्य दिवाली का त्यौहार है जिसे न केवल भारत बल्कि दुनियां भर में बसे भारतीय भी मनाते हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी एवं गणपति की पूजा की जाती है।दीपकों से घर-आंगन के साथ-साथ मंदिर और चौराहों जैसी सार्वजनिक जगहों को भी रोशन करते हैं। विभिन्न धर्मों में विविध कारणों से दिवाली मनाते हैं जैसे— १-श्रीराम के चौदह वर्ष के वनवास की समाप्ति पर अयोध्या आगमन की खुशी में२-धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूर्य यज्ञ की समाप्ति की खुशी में३-आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती का निर्वाण दिवस४-जैनियों के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस ये कुछ उदाहरण मात्र हैं । 4—अन्नकूट—चौथे दिन शीत ऋतु से जुड़े विभिन्‍न फल-सब्जियों के खाद्यान्नों से इष्ट देव को भोग लगाकर सामूहिक भोजों का आयोजन किया जाता है और गोवर्धन पूजा भी की जाती है। ५—भाई-दूज—शुक्ला द्वितिया के दिन इस घर में भाई-बहन के प्रेम को सुदृढ़ करता भाई दूज का त्यौहार मनाया जाता है। इस तरह दीवाली का ये पांच-दिवसीय त्यौहार सम्पूर्ण होता है। इस प्रकार से अपने आप में सिद्ध हैं कि  दीपोत्सव स्वास्थ्य सामाजिकता व् पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है |  शिवानी, जयपुर फोटो क्रेडिट –विकिमीडिया ऑर्ग से साभार यह भी पढ़ें …. आओ मिलकर दिए जलायें धनतेरस -दीपोत्सव का प्रथम दिन दीपावली पर 11 नए शुभकामना सन्देश लम्बी चटाई के पटाखे की तरह हूँ मित्रों , शिवानी , जयपुर  जी का आलेख दीपोत्सव – स्वास्थ्य सामाजिकता व् पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण  आपको कैसा लगा  | पसंद आने पर शेयर करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको ” अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फ्री ईमेल सबस्क्रिप्शन लें ताकि सभी नयी प्रकाशित रचनाएँ आपके ईमेल पर सीधे पहुँच सके | 

लम्बी चटाई के पटाखे की तरह हूँ

दिवाली पर एक हास्य-व्यंग्य—- (लम्बी चटाई के पटाखे की तरह हूँ) पति ———– डम्प पड़े पटाखे के घाटे की तरह है, पत्नी—– सात आवाजा पटाखे की तरह है। ससुर——- जल रहे मुंडेर पे मोमबत्ती के धागे की तरह है, सास——– मेकप-पे-मेकप,साड़ी-पे-साड़ी, उफ!इस उम्र मे भी वे———- किसी बम के धमाके की तरह है। शाली——- दिवाली आॅफर से लबरेज लग रही, छब्बीस में बीस की ऐज लग रही, इस माह की सेलरी बचनी मुहाल है, उसका इतना हँस-हँस के बोलना, मुझसे खतरे की निशानी है, क्योंकि इस दिवाली उसकी योजना, जैसे मेरी भरी जेब के पैसो पे—– एक डिजिटल डाके की तरह है, मै भाग नही सकता, इस दिवाली एै “रंग” ससुराल से—– चाहे जैसे दगाये इनकी मरजी, मै दामाद इनकी छत पे फटफटाके फट रहे, इस साल बेमुरौवत——— लंम्बी चटाई के पटाखे की तरह हूँ। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।