सिया राम ( राम के आगे सीता )

प्रभु राम की पत्नी माता सीता को भक्त श्रद्धा के पूजते हैं | माता सीता एक आदर्श पुत्री , पत्नी , माँ व् नारी थीं | अभी तक माता सीता के बारे में ज्यादातर जो भी लिखा गया उसमें एक आदर्श पत्नी का रूप ही हावी रहा |   जिस कारण उनके तमाम गुण सामने नहीं आ पाए |  माता सीता एक कुशल यौध भी थीं | परन्तु माता सीता का योद्धा रूप कभी सामने नहीं आया | जरा सोचिये जिस शिवजी के धनुष को रावण हिला भी नहीं पाया उसे सीता माँ यूँहीं खेल खेल में उठा लेती है | इतनी शक्तिशाली सीता इतनी लाचार नहीं थी की रावण उनका आसानी से अपहरण कर लेता |  जरूर इस सुनियोजित योजना ( कूटनीति ) में श्री राम आश्वस्त थे की विपरीत परिस्तिथियों में वह स्वयं रावण का वध करने में सक्षम हैं | माता सीता ने स्वयं ही लव – कुश को शस्त्र चलाने की शिक्षा दी | और इतना पारंगत कर दिया की वो श्री राम की सेना को अकेले ही परास्त कर सके | कानपुर में बिठुर में बने वाल्मीकि आश्रम में इस बात के साक्ष्य हैं |  त्याग और प्रेम की देवी सीता जो अपने पति के कहने पर अग्नि परीक्षा देना भी स्वीकार करती हैं वहीँ वो इतनी स्वाभिमानी भी हैं की पूरी प्रजा के सामने रोने गिडगिड़ाने के स्थान पर अपने प्राण त्याग देने का निर्णय लेती है | वास्तव में सीता माता के चरित्र में इतनी योग्यताएं हैं की प्रभु राम के आगे उनका नाम लिखने मात्र चलन नहीं उन गुणों का आदर है |  बरसों पहले मैथिलीशरण गुप्त जी ने इतिहास के दो उपेक्षित किरदारों – उर्मिला व् यशोधरा के साथ न्याय किया था | उम्मीद है की माता सीता के भी तमाम गुणों के साथ कभी न्याय होगा और ” सिया राम ” ( राम के आगे सीता ) अपनी सार्थकता के साथ सिद्ध होगा |  वंदना बाजपेयी 

अक्षय तृतीया – जब मिलता है दान -पुन्य का अक्षय फल

      वैशाख माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया अक्षय तृ‍तीया कहा जाता है. उस हिसाब से आज अक्षय तृतीय मनाई जा रही है |हिन्दुओं में  अक्षय तृतीया को एक पावन पर्व माना जाता है | भारतीय संस्कृति में इसका बड़ा महत्व है. माना जाता है कि अक्षय तृतीया के दिन ही पीतांबरा, नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम के अवतार हुए हैं, इसीलिए इस दिन इनकी जयंती मनाई जाती है.शास्त्रों के अनुसार अक्षय तृतीया के दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है. अक्षय यानी जो जिसका कभी क्षय न हो या जो कभी नष्ट न हो. वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, किंतु वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है. भारतीय काल गणना के सि‍द्धांत से अक्षय तृतीया के दिन त्रेता युग की शुरुआत हुई. इसीलिए इस तिथि को सर्वसिद्ध तिथि के रूप में मान्यता मिली हुई है. पद्म पुराण के अनुसार, अक्षय तृतीया के दोपहर का समय सबसे शुभ माना जाता है। इसी दिन महाभारत युद्ध की समाप्ति तथा द्वापर युग प्रारम्भ हुआ था। इसी तिथि से हिन्दू तीर्थ स्थल बद्रीनाथ के दरवाजे खोले जाते हैं। वृन्दावन के बांके बिहारी मंदिर में चरण दर्शन, अक्षय तृतीया  के दिन ही किए जाते हैं। ब्रह्मा पुत्र अक्षय कुमार का जन्म भी इसी दिन हुआ था। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार अगर महिलाएं अक्षय तृतीया पर वस्त्र, श्रृंगार का सामान या आभूषण आदि मां लक्ष्मी पर अर्पण करने के बाद पहनती हैं तो उन्हें माता लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है. कदाचित इसी कारण इस दिन सोना खरीदने की परंपरा है. मान्यता है कि इस दिन सोना खरीदने से समृद्धि आती है. अक्षय तृतीया पर्व के दिन स्नान, होम, जप, दान आदि का अनंत फल मिलता है,कहा जाता है कि अक्षय तृतीया के दिन दान जरूर करना चाहिए. भले ही आपके पास अधिक धन न हो, तो भी अपनी क्षमता के अनुसार दान करें. मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन दान करने से दान करने वाले व्यक्ति का आने वाला समय अच्छा होता है और उसके  दुख दूर होते हैं. अक्षय तृतीय की कथा   भविष्य पुराण के अनुसार, शाकल नगर में धर्मदास नामक वैश्य रहता था। धर्मदास, स्वभाव से बहुत ही आध्यात्मिक था, जो देवताओं व ब्राह्मणों का पूजन किया करता था। एक दिन धर्मदास ने अक्षय तृतीया के बारे में सुना कि ‘वैशाख शुक्ल की तृतीया तिथि को देवताओं का पूजन व ब्राह्मणों को दिया हुआ दान अक्षय हो जाता है।’ यह सुनकर वैश्य ने अक्षय तृतीया के दिन गंगा स्नान कर, अपने पितरों का तर्पण किया। स्नान के बाद घर जाकर देवी- देवताओं का विधि- विधान से पूजन कर, ब्राह्मणों को अन्न, सत्तू, दही, चना, गेहूं, गुड़, ईख, खांड आदि का श्रद्धा- भाव से दान किया। धर्मदास की पत्नी, उसे बार- बार मना करती लेकिन धर्मदास अक्षय तृतीया को दान जरूर करता था। कुछ समय बाद धर्मदास की मृत्यु हो गई। कुछ समय पश्चात उसका पुनर्जन्म द्वारका की कुशावती नगर के राजा के रूप में हुआ। कहा जाता है कि अपने पूर्व जन्म में किए गए दान के प्रभाव से ही धर्मदास को राजयोग मिला। अक्षय तृतीया से जुड़ी कई कथाएं लोगों के बीच प्रचलित हैं। अक्षय तृतीया में धन प्राप्ति के लिए क्या करें  1. अक्षय तृतीया के दिन पूरे घर की साफ-सफाई करनी चाहिए। घर के रख-रखाव में वास्तु के अनुसार बदलाव किया जाना चाहिए। 2. अक्षय तृतीया के दिन मां लक्ष्मी को गुलाब का फूल अर्पित करना चाहिए। इसके साथ ही मां लक्ष्मी की पूजा करते समय गुलाबी रंग के कपड़े पहनने चाहिए। 3. नौकरी व व्यापार में तरक्की पाने के लिए इस दिन घर के मुख्य द्वार पर भगवान गणेश की प्रतिमा को लगाना चाहिए। कहते हैं कि ऐसा करने से आर्थिक समस्याओं से मुक्ति मिलती है। 4. अक्षय तृतीया के दिन मां पार्वती व भगवान शिव का पूजन करने से वैवाहिक जीवन में मधुरता आती है। पति-पत्नी के बीच प्रेम बढ़ता है। 5.अक्षय तृतीया के दिन मां लक्ष्मी व भगवान विष्णु की पूजा अलग-अलग नहीं करनी चाहिए। मां लक्ष्मी व भगवान विष्णु पति-पत्नी हैं। इस दिन दान करना भी बेहद शुभ माना जाता है। 6. अक्षय तृतीया के दिन 11 कौड़ियों को लाल कपड़े में बांधकर पूजा स्थल पर रखना चाहिए। कहते हैं कि ऐसा करने मां लक्ष्मी का घर में वास होता है। 7. अक्षय तृतीया के दिन पूजा स्थल पर चांदी के लक्ष्मी की चरण पादुका रखनी चाहिए और इसकी नियमित पूजा करनी चाहिए। कहते हैं कि जहां पर मां लक्ष्मी के चरण पड़ते हैं वहां धन का अभाव नहीं रहता है। प्रस्तुतकर्ता – अटूट बंधन   

मृत्यु संसार से अपने ‘असली वतन’ जाने की वापिसी यात्रा है!

(जब जन्म शुभ है तो मृत्यु अशुभ कैसे हो सकती है?) – डा0 जगदीश गांधी, संस्थापक-प्रबन्धक,  सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) जीवन-मृत्यु के पीछे परमपिता परमात्मा का महान उद्देश्य छिपा है:- इस सत्य को जानना चाहिए कि शरीर से अलग होने पर भी आत्मा तब तक प्रगति करती जायेगी जब तक वह परमात्मा से एक ऐसी अवस्था में मिलन को प्राप्त नहीं कर लेती जिसे सदियों की क्रान्तियाँ और दुनिया के परिवर्तन भी बदल नहीं सकते। यह तब तक अमर रहेगी जब तक प्रभु का साम्राज्य, उसकी सार्वभौमिकता और उसकी शक्ति है। यह प्रभु के चिह्नों और गुणों को प्रकट और उसकी प्रेममयी कृपा और आशीषों का संवहन करेगी। बहाई धर्म के संस्थापक बहाउल्लाह कहते हंै कि हमें यह जानना चाहिए कि प्रत्येक श्रवणेंद्रीय, अगर सदैव पवित्र और निर्दोष बनी रही हो तो अवश्य ही प्रत्येक दिशा से उच्चरित होने वाले इन पवित्र शब्दों को हर समय सुनेगी। सत्य ही, हम ईश्वर के हैं और उसके पास ही वापस हो जायेंगे। मनुष्य की शारीरिक मृत्यु के रहस्यों और उसकी असली वतन अर्थात दिव्य लोक की अनन्त यात्रा को प्रकट नहीं किया गया है। माता के गर्भ में बच्चे के शरीर में परमात्मा के अंश के रूप में आत्मा प्रवेश करती है। जिसे लोग मृत्यु कहते हैं, वह देह का अन्त है। शरीर मिट्टी से बना है वह मृत्यु के पश्चात मिट्टी में मिल जाता है। परमात्मा से उनके अंश के रूप में आत्मा संसार में मानव शरीर में आयी थी मृत्यु के पश्चात आत्मा शरीर से निकलकर अपने असली वतन (दिव्य लोक) वापिस लौट जाती है। मृत्यु संसार से अपने ‘असली वतन’ जाने की वापिसी यात्रा है! (2) प्रभु कृपा की लघुता तथा विशालता पर विचार नहीं करना चाहिए:- मृत्यु प्रत्येक दृढ़ अनुयायी को वह प्याला अर्पित करती है जो वस्तुतः जीवन है। यह आनन्द की वर्षा करती है और प्रसन्नता की संवाहिका है। यह अनन्त जीवन का उपहार देती है। जिन्होंने मनुष्य के भौतिक जीवन का आनन्द उठाया है, जो आनन्द एक सत्य प्रभु को पहचानने में निहित है, उनका मृत्यु के बाद का जीवन ऐसा होता है, जिसका वर्णन करने में हम असमर्थ है। यह ज्ञान केवल सर्वलोकों के स्वामी प्रभु के पास ही है। इस युग में व्यक्ति का संपूर्ण कर्तव्य यह है कि उस पर प्रभु द्वारा बरसायी जाने वाली अनन्त कृपा के अमृत जल का भरपूर पान करें। किसी को भी उस कृपाजल की विशालता या लघुता पर विचार नहीं करना चाहिए। उस कृपाजल का भाग किसी की हथेली भर हो सकता है, किसी को एक प्याले भर मिल सकता है और किसी को असीम जलराशि की प्राप्ति हो सकती है। (3) जो कोई भी प्रभु आज्ञा को पहचानने में असफल रहा है, वह प्रभु से दूर होने का दुःख उठायेगा:- मनुष्य को उत्पन्न करने के पीछे का उद्देश्य उसे इस योग्य बनाने का है और सदा रहेगा कि वह अपने सृष्टा को जान सके और उसका सान्निध्य प्राप्त कर सके। इस सर्वोत्तम तथा परम उद्देश्य की पुष्टि सभी धर्मिक ग्रंथों गीता, त्रिपटक, बाइबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस में अवतारों कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह इत्यादि ने की है। जिस किसी ने भी उस दिव्य मार्गदर्शन के दिवा स्त्रोत को पहचाना है और उसके पावन दरबार में पदार्पण किया हैं, वह प्रभु के निकट आया है, उसने प्रभु के अस्तित्व को पहचाना है। वह अस्तित्व जो सच्चा स्वर्ग है और स्वर्ग के उच्चतम प्रसाद उसके प्रतीक मात्र है। ऐसा व्यक्ति उस स्थान को प्राप्त करता है जो बस, केवल दो पग दूर है। जो कोई भी उसे पहचानने में असफल रहा है, वह प्रभु से दूर होने का दुःख उठायेगा। ऐसी दूरी असत्य-लोक और शन्ूय में विचरण करने के बराबर है। बाहरी तौर पर वह व्यक्ति चाहे सांसारिक सुखों के सिंहासन पर ही क्यों न विराजमान हो, किन्तु दिव्य सिंहासन के दर्शन से वह सदैव वंचित रहेगा। (4) संसार में रहते हुए अगले दिव्य लोक की क्षमतायें विकसित करें:- मानव जीवन के आरम्भ में मनुष्य गर्भाशय के संसार में भ्रूण की अवस्था में था। वहाँ उसने मानव-अस्तित्व की वास्तविकता के लिये क्षमता और संपन्नता प्राप्त की। इस संसार के लिये आवश्यक शक्तियाँ और साधन शिशु को उसकी उस सीमित अवस्था में दिये गये थे। इस संसार में उसे आँखों की जरूरत थी उसने उसे इस संसार में पाया। उसे कानों की जरूरत थी, उसे उसने वहाँ तैयार पाया, जो उसके नये अस्तित्व की तैयारी थी। जिन शक्तियों की आवश्यकता उसे इस दुनिया के लिये थी, उन्हें गर्भाशय की अवस्था में दे दिया गया। अतः इस संसार लोक में उसे अगले जीवन की तैयारी अवश्य ही करनी चाहिये। प्रभु के साम्राज्य में उसे जिसकी जरूरत पडे़गी, उसे यहाँ अवश्य ही प्राप्त कर लेना चाहिये। जैसे उसने गर्भावस्था में ही इस दुनियाँ के अस्तित्व के लिये सभी शक्तियाँ अर्जित कर ली उसी तरह दिव्य अस्तित्व के लिये जिन अपरिहार्य शक्तियों की आवश्यकता है, उन्हें अवश्य इस संसार में प्राप्त कर लेना चाहिये। (5) जो प्रभु का आज्ञापालक है तो वह प्रभु के प्रकाश को प्रतिबिम्बित करेगा:- आत्मा की प्रकृति के सम्बन्ध में हमें यह जानना चाहिए कि यह ईश्वर का एक चिह्न है, यह वह दिव्य रत्न है जिसकी वास्तविकता को समझ पाने में ज्ञानीजन भी असमर्थ रहे हंै और जिसका रहस्य किसी भी मस्तिष्क की समझ से परे है, चाहे वह कितना भी तीक्ष्ण क्यों न हो। प्रभु की श्रेष्ठता की घोषणा करने में सभी सृजित वस्तुओं में वह प्रथम है, उसकी ज्योति को पहचानने में प्रथम है, उसके सत्य को मानने में प्रथम है और उसके समक्ष नतमस्तक होने में प्रथम है। यदि वह प्रभु का आज्ञापालक है तो वह उसके प्रकाश को प्रतिबिम्बित करेगा और अन्ततः उसी में समाहित हो जायेगा। यदि प्रभु से तादात्म्य स्थापित करने में असमर्थ रहता है तो यह स्वार्थ और वासना का शिकार बनेगा और अन्त में उन्हीं की गहराईयों में डूब कर रह जायेगा। (6) दिव्य लोक की ओर ऊँची उड़ान भरने के लिए गुणों को विकसित करना चाहिए:- बहाउल्लाह कहते हैं तुम उस पक्षी के समान हो जो अपने दृढ़ आनंददायक विश्वास और पंखों की शक्ति के सहारे दूर गगन के विस्तार में विचरण करता होता है और तब तक नीचे नहीं आता … Read more

वाणी की देवी वीणापाणी और उनके श्री विगृह का मूक सन्देश

लेखक:- पंकज प्रखर वसंत को ऋतुराज राज कहा जाता है पश्चिन का भूगोल हमारे देश में तीन ऋतुएं बताता है जबकि भारत के प्राचीन ग्रंथों में छ: ऋतुओं का वर्णन मिलता है उन सभी ऋतुओं में वसंत को ऋतुराज कहा जाता है भगवानश्री कृष्ण नेगीता में कहा है की प्रथ्वी  पर जो भी दृव्य पदार्थ पाए जाते है उन में मै जल,हूँ ,वृक्षों में पीपल हूँ और आगे चलकर वो कहते है की ऋतुओं में “अहम कुसुमाकर” यानी की ऋतुओं में मै वसंत ऋतु हूँ | वसंत ऋतु के आते ही पृकृति में सृजन होने लगता है समूची पृकृति नव पल्लवों से पल्लवित हो उठती है | जिसे देखकर लोगों का मन नव उमंग और उत्साह से भर जाता है | इस ऋतु को पर्व की तरह इस लिए भी मनाया जाता है क्योंकि इस दिन स्वर और विद्या की देवी माँ वागेश्वरी अर्थात माँ सरस्वती का जन्म भी हुआ था कहानी कुछ इस प्रकार है की ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि  का निर्माण किया तो उन्हें कुछ आनंद की अनुभूति नही हो रही थीक्योंकि चारो और एकदम शांति और सन्नाटा फैला हुआ था अत उनके मन में आया की क्यों न  इस पृकृति को सुंदर शब्द भाषाएँ और ध्वनियाँ प्रदान की जाए अत: उन्होंने संकल्प लेकर जैसे ही प्रथ्वी पर छोड़ा तो वृक्षों के झुरमुट से एक सुंदर स्त्री प्रकट हुई जो कमल के पुष्प पर बैठीथी राजहंस जिसकी शोभा बड़ा रहा था जिसके दोनोंहाथों में वीणा थी तथा अन्य दो हाथों में माला और वेदपुस्तिका थी| ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई।उसके प्रकट होते ही पृकृति की स्तब्धता और सन्नाटा क्षण भर में समाप्त हो गया और पृकृति उसके सुरों से गुंजायमान हो गयी | आज उसी देवी की कृपा के फल स्वरूप हमारे पास वाणी है शब्द है अनेकों भाषाएँ है | उसी देवी को हम बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पुकारते है| ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। अगर उस देवी के स्वरुप को ध्यान से देखा जाए तो उनका सुंदर विगृह हमे जीवनको श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने की प्रेरणा देता है माँ सरस्वती के चार हाथ और उसमे धारण की हुई वस्तुएं मूक रूप से हमे प्रेरणा देती है उनकीचार भुजाएं प्रेरणा देते है की हम स्वच्छता ,स्वाध्याय, सादगी और श्रेष्ठता को अपने जीवन में धारण करें | सबसे पहली चीज़ स्वछता तन से और मन से स्वच्छ रहना मन का सम्बन्ध शरीर से है यदि शरीर ही स्वच्छ नही होगा तो आप का मन भी ठीकनही लगता यदि शरीर अस्वच्छ होगा तो विचार भी वैसे ही आयेंगे इसलिऐ ये हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है की वो तन से और मन से स्वच्छ रहे | दूसरीभुजा दूसरी प्रेरणा और वो है स्वाध्याय ,स्वाध्याय का अर्थ है नियमित अध्ययन ,अध्ययन किसका न केवल अपने पाठ्क्रम से सम्बन्धित बल्कि और भी दूसरी श्रेष्ठ पुस्तकों का चलिए ये भी मान लिया की आजलक पुस्कें पढने का चलन कम हो गया है तो आप यदि नेट चला रहे है तो आपको नेट पर भी अनेकों पुस्तकें उपलब्ध हो जायेंगी जो आपका मनोरंजन भी करेंगी और नये विचारों से भी अवगत करायेंगी तो स्वाध्याय विद्यार्थी का एक विशेष गुणहै जो विद्यार्थी इसे जितना विकसित करता है वो उतना ही ज्ञानवान और श्रेष्ठ बनता चला जाता है | तीसरी भुजा का सन्देश है सेवा ,सेवा किसकी हमारे आस पास जो दुखी परेशान लोग है या जिनकी हमारे द्वारा किसी प्रकार की सहायता होसकती है उसे करने के लिए तैयार रहनाअब इसका मतलब ये बिलकुल नही है की परीक्षाएं चल रहीहै और आप उसे कॉपी करवा रहे है मै ऐसा बिलकुल नही कह रहा हूँ क्यौंकी ये कोई सेवा नही है ये तो धोखा है अपने साथ भी और अपने मित्र के साथ भी तो करना क्या है आपके जो भी मित्र है उनकी पढाई मेंसहायता करना ये भी एक सेवा है और एक और सीधी-साधी बात बता दूँ यदि आप अपने माता पिता का समान करते  है अपने गुरुजनों की बात मानते है किसी को वाणी से दुःख नही पहुंचाते है तो निश्चित रूप से मानकरचलिए की आप बहुत बड़ी सेवाकररहे है क्योंकि बच्चो आज हम मोबाइल में और इन्टरनेट में इतने बिजी हो गये है की हमारे पास माता पिता के पास बैठने का समय नही है आप तो बस इतना करलो की आप पूरे दिन में केवल एक घंटा केवल अपने माता पिता के लिए निकालेंगे अगर आपने येकरलिया तो मानकरचलिए आप से न केवल माता-पिता प्रसन्न होंगे बल्कि ईश्वर भी खुश हो जायेंगे क्योंकि इस धरती पर माता पिता ही ईश्वर का प्रतिनिधित्व करते है | चौथी भुजा प्रतिनिधित्व करती है सादगी बच्चों आज का वर्तमान समय ऐसा है जहां हर व्यक्ति अंधाधुंध फैशन परस्ती MORDENISATION की और दौड़ लगाने में लगा है आप पर क्या अच्छा लगेगा आपकी संकृति ,आपका परिवार और आप जिस माहोल में रहते है वहां के लिए किस प्रकार की वेशभूषा और कपडे उपयुक्त है ये विचार किये बिना हम भद्दे और फूहड़ कपडे पहनकर अपनाप को मॉडर्न सिद्ध करनी में लगे हुए है येबहुतबढ़ी भ्रान्ति है की ऐसा करनेसे आप का समाज में नाम होगा या आप बहुत अच्छे लगेंगे  ऐसा बिलकुल भी नही है | क्योंकि मॉडर्न होने का मतलब कपड़ों से बिलकुल भी नही है मॉडर्न होने का मतलब आपकी मॉडर्न सोच से है आपके विचारो से है विवेकानंद बिलकुल भी मॉडर्न नही थे वो जब शिकागो धर्म सम्मेलन में गये तो वहां लोगो ने उनकी साधारण सी वेशभूषाकामजाक बनाया लेकिन जब उन्होंने उस सभा में बोलना शुरू किया तो भारत के ऐसे श्रेष्ठ विचारों से दुनिया को अवगत कराया की आज 154 वर्ष बाद भी वो उस धर्म सभा में याद किये जाते है और आज भी उनका चित्र उस धर्म सभा के मंच पर लगा हुआ है तोविचार आधुनिक होने चाहिए और वेशभूषा शालीन और सभ्य क्योंकि सुन्दरता सादगी में है | माँ सरस्वती के एक … Read more

एक महानसती थी “पद्मिनी”

लेखक:-पंकज प्रखर एक सती जिसने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया उसकी मृत्यु के सैकड़ोंवर्ष बाद उसके विषय में अनर्गल बात करना उसकी अस्मिता को तार-तार करना कहां तक उचित है | ये समय वास्तव में संस्कृति के ह्रास का समय है कुछ मुर्ख इतिहास को झूठलाने का प्रयत्न करने में लगे हुए है अब देखिये एक सर फिरे का कहना है अलाउद्दीन और सती पद्मिनी में प्रेम सम्बन्ध थे जिनका कोई भी प्रमाण इतिहास की किसी पुस्तक में नही मिलता| लेकिन इस विषय पर अब तक हमारे सेंसर बोर्ड का कोई भी पक्ष नही रखा गया है वास्तव में ये सोचनीय है |रानी पद्मिनी का इतिहास में कुछ इस प्रकार वर्णन आता है की “पद्मिनी अद्भुत सौन्दर्य की साम्राज्ञीथी और उसका विवाह राणा रतनसिंह से हुआ था एक बार राणा रतन सिंह ने अपने दरबार से एक संगीतज्ञ को उसके अनैतिक व्यवहार के कारण अपमानित कर राजसभा से निकाल दिया | वो संगीतज्ञ अलाउद्दीन खिलजी के पास गया और उसने पद्मिनी के रूप सौन्दर्य का कामुक वर्णन किया | जिसे सुनकर अलाउद्दीन खिलजी प्रभावित हुआ और उसने रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की ठान ली | इस उद्देश्य से वो राणा रतन सिंह के यहाँ अतिथि बन कर गया राणा रतन सिंह ने उसका सत्कार कियालेकिनअलाउद्दीन ने जब रतनसिंह की महारानी पद्मिनी से मिलने की इच्छा प्रकट की तो रत्न सिंह ने साफ़ मना कर दिया क्योंकि ये उनके वंश परम्परा के अनुकूल नही था | लेकिनउस धूर्त ने जब युद्ध करने की बात कही तो अपने राज्य और अपनी सेना की रक्षा के लिए रतनसिंह ने पद्मिनी को सीधा न दिखाते हुए उसके प्रतिबिंब को दिखाने के लिए राज़ी हो गया जब ये बात पद्मिनी को मालूम पड़ी तो पद्मिनी बहूत नाराज़ हुईलेकिनजब रतनसिंह ने इस बात को मानने का कारण देश और सेना की रक्षा बताया तो उसने उनका आगृह मानलिया | 100 महावीर योद्धाओं और अन्य कई दास दासियों ओरपने पति राणा रत्न सिंह  के सामने पद्मिनी ने अपना प्रतिबिम्ब एक दर्पण में अलाउद्दीन खिलजी को दिखाया जिसे देख कर उस दुष्ट के मन में उसे प्राप्त करने की इच्छा और प्रबल हो गयीलेकिनये अलाउद्दीन खिलजी के लिए भी इतना सम्भव नही था |रतन सिंह ने अलाउद्दीन के नापाक इरादों को भांप लिया था | उसने अलाउद्दीन के साथ भीषण युद्ध किया राणा रतन सिंह की आक्रमणनीति इतनी सुदृणथी की अल्लौद्दीन छ: महीने तक किले के बाहर ही खड़ा रहालेकिनकिले को भेद नही सका अंत में जब किले के अंदर पानी और भोजन की सामग्री ख़त्म होने लगी तो मजबूरन किले के दरवाजे खोलने पडे राजपूत सेना नेकेसरिया बाना पहनकर युद्ध कियालेकिनअलाउद्दीन खिलजी ने रतन सिंह को बंदी बना लिया और चित्तौड़गढ़ संदेसा भेजा की यदि मुझे रानी पद्मिनी दे दी जाए तो में रतनसिंह को जीवित छोड़ दूंगा जब पद्मिनी को ये पता चला तो उन्होने एक योजना बनाकर अलाउद्दीन खिलजी के इस सन्देश के प्रतिउत्तर स्वरुप स्वीकृति दे दीलेकिनसाथ ये भी कह भिजवाया की उनके साथ उनकी प्रमुख दासियों का एक जत्था भी आएगा अलाउद्दीनइसके लिए तैयार हो गया | पद्मिनी की योजना ये थी की उनके साथ दासियों के भेस में चित्तौड़गढ़ के सूरमा और श्रेष्ठ सैनिक जायेंगे ऐसा ही हुआ जैसी ही अल्लुद्दीन के शिविर में डोलियाँ पहुंची उसमे बैठे सैनिकों ने अल्लौद्दीन खिलजी की सेना पर धावा बोल दिया उसकी सेना को बड़ी मात्र में क्षति हुई और राणा रतनसिंह को छुड़ालिया गया | इसका बदला लेने के लिए अलाउद्दीन ने पुन: आकरमण किया |जिसमे राजपूत योद्धाओं में भीषण युद्ध किया और देश की रक्षा के लिए अपने प्राण आहूत कर दिए उधर जब रानी पद्मिनी को मालुम पढ़ा की राजपूत योद्धाओं के साथ राणा रतन सिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए है तो उन्होंने अन्य राजपूत रानियों के साथ एक अग्नि कुंद में प्रवेश करजोहर(आत्म हत्या ) कर अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु प्राण दे दिए लेकिनजीते जी अपनी अस्मिता पर अल्लौद्दीन का साया तक भी नही पडने दिया |” ये इतिहास में उद्दृत हैलेकिनआज के तथा कथित लोग अपने जरा से लाभ के लिए इस महान ऐतिहासिक घटना को मनमाना रूप देने पर आमादा है |इसके लिए सरकार को और हमारे सेंसर बोर्ड को उचित कदम उठाने चाहिए और सिनेमा क्षेत्र से जुडे लोगों को जो भी ऐतिहासिक फिल्मी बनाना चाहते है उनके लिए ये अनिवार्यकरदेना चाहिए की वो इतिहास से जुडे उस व्यक्ति विशेष के बारे में विश्वसनीय दस्तावेजों का अध्ययन करे और फिर उन्हे लोगों के सामने प्रस्तुत करें क्यौंकी इतिहास से जुडे किसी भी घटना या व्यक्ति के विषय में मन माना कहना या गड़ना उचित नही है इसका समाज और राष्ट्र पर नकारात्मक प्रभाव जाता है और देश की ख्याति धूमिल होती है |

पति -पत्नी के बीच सात्विक प्रेम को बढाता है तीज

विवाह की बस एक गाँठ दो अनजान – अपरिचित लोगोंको एक बंधन में बांध देती है जिसमें तन ही नहीं मन और आत्मा भी बंध  जाते हैं | जिससे ये प्रेम जिस्मानी नहीं रूहानी हो जाता है | वैसे भी कहते हैं जोड़े आसमान में बनाये जाते हैं | हमारे देश में तो पति पत्नी का रिश्ता जन्म – जन्मान्तर का माना जाता है |जिसके साथ जिन्दगी के हर छोटे से छोटे सुख – दुःख , अच्छे  – बुरे सब पल  बिताने हैं वो कोई अपरिचित तो नहीं हो सकता | उन दोनों को मिलाने में कोई न कोई दैवीय धागे जरूर काम करते हैं | | पति -पत्नी  बीच मनाये जाने वाले ये सारे व्रत त्यौहार उसी  सात्विक प्रेम को याद दिला कर  , प्रेम की रूहानी अनुभूति को तरोताजा कर देते हैं |ऐसा ही एक त्यौहार है तीज |                                               तीज का व्रत मुख्यत : बिहार और उत्तर प्रदेश में किया जाता है | इस दिन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं व् शिव , पार्वती और गणेश का पूजन करती हैं | पौराणिक मान्यता के अनुसार  शिव को पाने के लिए कुमारी पार्वती ने वर्षों तक कठोर तपस्या की | तब जा कर शिव जी प्रसन्न हुए और उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया |तीज को हरतालिका तीज भी कहते हैं क्योंकि पार्वती जी की सखियों ने उनका तपस्या करते हुए ही अपहरण कर लिया था | हरत  मतलब हरण व् आलिका मतलब सहेली | अर्थाथ सहेलियों द्वारा अपहरण करना हरतालिका कहलाया | मुख्यत : यह व्रत कुमारी कन्याओं द्वरा अच्छा सुयोग्य पति पाने के लिए किया जाता है | विवाहित  स्त्रियाँ इसे अपने पति की दीर्घायु की कामना के साथ करती हैं  | पूजन के लिए बालू की शिव पार्वती , गणेश , रिद्धि – सिद्धि व् पार्वती जी की सहेली की प्रतिमायें बनायीं जाती हैं | बाद में इनका बेल पात्र , आम के पत्ते , केवडा आदि से पूजन किया जाता है व् आरती की जाती हैं |रात में भजन कीर्तन आदि का बहुत महत्व है |  महिलाएं इस दिन निर्जला व्रत करती हैं व् अगले दिन पूजन करके व्रत खोलती हैं |                                           ये सच है की आज यह मांग उठी है है की अकेले पत्नी ही व्रत क्यों करे , पति को भी व्रत करना चाहिए | अगर पति ऐसा चाहते हैं तो वो भी व्रत कर सकते हैं | इन  व्रत त्योहारों को केवल परम्परा की दृष्टि से ही नहीं देखना चाहिए | नहीं तो सारे व्रत त्यौहार बस लकीर के फ़कीर हो कर रह जायेंगे | जैसे प्राण के बिना शरीर |अगर केवल लकीर ही पीटनी है तो पत्नी भी व्रत न करने के लिए स्वतंत्र है | पर पति भी व्रत करे इसे  मांग के रूप में नहीं माँगा जा सकता | क्योंकि प्रेम में कोई बराबरी नहीं होती | प्रेम अभिव्यक्ति में भी नहीं | प्रेम है तो छलकेगा , तरीका वही हो यह जरूरी नहीं | बराबरी व्यापार है  है और प्रेम व्यापर से परे  | जब कोई स्त्री अपने पति के लिए व्रत करती है | उसकी मंगलकामना और दीर्घायु के लिए व्रत करती है तो उसे भी एक आनंद की  प्राप्ति होती  है  | ये आनद होता है ” प्रेम का आनंद , समर्पण के भाव का आनंद, रिश्तों की गाँठ और मजबूत होने का आनंद  | जिसे तर्क द्वारा  सिद्ध नहीं किया जा सकता , केवल इसका अनुभव किया जा सकता है |जरूरत है तो हर छोटे बड़े अवसर पर रिश्ते की गाँठ को और मजबूत करने की | पति पत्नी के रिश्ते के आत्मिक और आध्यात्मिक महत्व को समझने की और जन्म – जन्मान्तर के साथ को सुखद और प्रेमपूर्ण बनाने की | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …………. देवशयनी एकादशी – जब श्रीहरी विष्णु होंगे योगनिद्रा में लीन क्यों ख़ास है ईद का चाँद उसकी निशानी वो भोला भाला राम नाम एक सम्पूर्ण मंत्र

क्षमा पर्व पर विशेष : “उत्तम क्षमा, सबको क्षमा, सबसे क्षमा”

क्या आपने कभी सोचा है की हँसते -बोलते ,खाते -पीते भी हमें महसूस होता है टनो बोझ अपने सर पर। एक विचित्र सी पीड़ा जूझते  रहते हैं हम… हर वक्त हर जगह। एक अजीब सी बैचैनी। ………… किसी अपने के दुर्व्यवहार की ,या कभी किसी अपने गलत निर्णय की टीभ  हमें सदा घेरे रहती है। प्रश्न उठता है आखिर कया है  इससे निकलने का उपाय ?कड़वाहट भूलने के लिए सबसे जरूरी है क्षमा करना  करना। कभी -कभी हम किसी बात को पकडे हुए न सिर्फ रिश्तों का मजा खो देते हैं बल्कि अंदर ही अंदर स्वयं भी किसी आग में जलते रहते हैं। क्षमा पर्व                              स्वेताम्बर जैन समाज में पर्युषण पर्व के तहत संवत्सरी पर्व मनाया जाता है। इस अवसर पर सभी मंदिरों एवं उपाश्रयों में प्रतिक्रमण के पश्चात उपस्थित श्रावक एक-दूसरे से ‘मिच्छामि दुक्कड़म’ कहकर क्षमायाचना करते है। मुनि-संतों का कहना है कि क्षमा आत्मा को निर्मल बनाती है।व्यक्ति जीवन में मैत्री और प्रेम का निरंतर विकास कर जीवन को उन्नत बना सकता है। मनुष्य द्वारा अनेक भूलें की जाती हैं। पारस्परिक कलह एवं कटुता वर्ष भर में होती है। संवत्सरी महापर्व पर अन्तःकरण से क्षमा याचना कर आत्मा को निर्मल बनाया जा सकता है।जीवनयापन के दौरान आपसी कलह से यह जीवन नरक बन जाता है  भारत की संस्कृति में क्षमा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। संत-ज्ञानीजन कभी झगड़ते नहीं हैं और कभी मत को लेकर विवाद हो भी जाता है तो वे एक-दूसरे के प्रति शत्रुता नहीं रखते हैं। आम आदमी और साधु-संतों के बीच यही फर्क होता है। मानव अपने अहं के चलते एक-दूसरे से क्षमा न मांगते हुए अपने अहं में डूबे रहते है। और यही वजह है कि वर्ष भर में ऐसा दिन भ‍ी आता है, जब मानव अपनी सारे भूलों, अपने अहंकार को छोड़कर क्षमा मांग सकता है और दूसरों को भी क्षमा कर सकता है।  अभी देर नहीं हुई है                                      क्षमा पर्व हमें सहनशीलता से रहने की प्रेरणा देता है। अपने मन में क्रोध को पैदा न होने देना और अगर हो भी जाए तो अपने विवेक से, नम्रता से उसे विफल कर देना। अपने भीतर आने वाले क्रोध के कारण को ढूँढकर, क्रोध से होने वाले अनर्थों के बारे में सोचना और अपने क्रोध को क्षमारूपी अमृत पिलाकर अपने आपको और दूसरों को भी क्षमा की नजरों से देखना। अपने से जाने-अनजाने में हुई गलतियों के लिए खुद को क्षमा करना और दूसरे के प्रति भी इसी भाव को रखना इस पर्व का महत्व है।क्षमा पर्व मनाते समय अपने मन में छोटे-बड़े का भेदभाव न रखते हुए सभी से क्षमा माँगना इस पर्व का उद्देश्य है। हम सब यह क्यों भूल जाते हैं कि हम इंसान हैं और इंसानों से गलतियाँ हो जाना स्वाभाविक है। ये गलतियाँ या तो हमसे हमारी परिस्थितियाँ करवाती हैं या अज्ञानतावश हो जाती हैं। तो ऐसी गलतियों पर न हमें दूसरों को सजा देने का हक है, न स्वयं को। यदि आपको संतुष्टि के लिए कुछ देना है तो दीजिए ‘क्षमा’।क्षमा करने से आप दोहरा लाभ लेते हैं। एक तो सामने वाले को आत्मग्लानि भाव से मुक्त करते हैं व दूसरा दिलों की दूरियों को दूर कर सहज वातावरण का निर्माण करके उसके दिल में फिर से अपने लिए एक अच्छी जगह बना लेते हैं।तो आइए अभी भी देर नहीं हुई है। इस क्षमावणी पर्व से खुद को और औरों को भी रोशनी का नया संकल्प पाठ गढ़ते हुए क्षमा पर्व का असली आनंद उठाए और खुद भी जीए और दूसरों को भी जीने दे के संकल्प पर चलते हुए क्षमापर्व का लाभ उठाएँ। क्षमा आत्मा का गुण   हमारी आत्मा का मूल गुण क्षमा है। जिसके जीवन में क्षमा आ जाती है उसका जीवन सार्थक हो जाता है। क्षमा भाव के बारे में भगवान महावीर कहते हैं कि – ‘क्षमा वीरस्य भूषणं।’ – अर्थात् क्षमा वीरों का आभूषण होता है। अत: आप भी इस क्षमा पर्व सभी को अपने दिल से माफी देकर भगवान महावीर के रास्ते पर चलें।क्षमा मांगने के बाद जहाँ एक और मन अपराध बोध से निकल जाता है वहीँ  क्षमा करने के बाद मन नकारात्मक  विचारों से मुक्त हो जाता है | दोनों ही स्तिथियों में क्षमा से हमें लाभ होता है | तो आइये आप भी इस पर्व में शामिल होकर क्षमा दान देकर और क्षमा मांग कर अपने मन को स्व्क्छ व् निर्मल कर लीजिये | सरिता जैन  दिल्ली  “उत्तम क्षमा, सबको क्षमा, सबसे क्षमा” अटूट बंधन

जन्माष्टमी पर विशेष :जय कन्हैया लाल की

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष /shrikrishn janmashtami par vishesh  झांकी  जय कन्हैया लाल की  1 …………..जब -जब धरती पर धर्म की हानि होती है ,ईश्वर अवतार लेते हैं तभी तो भक्त गा उठते हैं …………… कभी राम बन के कभी श्याम बन के चले आना प्रभुजी चले आना                                          कभी कृष्ण रूप में आना                                              राधा साथ ले के                                            बंशी हाथ ले के                                                        चले आना प्रभुजी चले आना २ …………………द्वापर युग में भादों मास की अष्टमी के दिन श्रीकृष्ण का जन्म कारावास में हुआ | जब जन्मे कृष्ण भगवान् जेल दरम्यान वो मुरली वाले खुल गए  जेल के ताले ………………… ३ ……………….. अपने मामा कंस द्वारा हत्या कर दिए जाने के भय से पिता वासुदेव उन्हें टोकरी में रख कर यशोदा और नंद बाबा के घर छोड़ आये | रास्ते में जमुना नदी उफान -उफान कर बाल कृष्ण के पाँव छूने को लालायित हो उठी  एक बार मोहे पाँव छूँ अन  दो मिटे मन की उदासी  लोग कहें मैं नीर भरी हूँ  मैं अंतर घट प्यासी  ४……….. माता यशोदा ने बाल कृष्ण को अपने आँचल की छाँव में बिठा ममता से सराबोर कर दिया  हे ! रे !कन्हैया  किसको कहेगा तू मैया  इक ने तुझको जन्म दिया है  एक ने तुझको पाला  एक ने तुझको दी हैं रे आँखें  एक ने दिया उजाला  ५……….. पर नन्हे कृष्ण को भाता था तो बस शरारत करना और माखन चुराना और उस पर भी ………. एक तो चोरी ऊपर से सीना जोरी  मैया ….. जरा बताओ न मैं ज्यादा प्यारा हूँ या माखन ? फोटो क्रेडिट –patrika.com ६ …………. एक और काम प्रिय था …. वो था बांसुरी बजाना  जमुना की लहरे  बंशी वट  की छैंया  किसका नहीं है कहो कृष्ण कन्हैया  सांवरे की बंशी को तो बजने से काम  राधा का भी श्याम  वो तो मीरा का श्याम   ७ …………. पर शरारत करते तो माँ के हाथों से पिटाई तो होती ही थी चोरी माखन की दें छोड़ कन्हैया मैं समझे रही तोय                                         बड़ो नाम है नंद बाबा को                                             हँसी हमारी होय ७ ………….. पर कृष्ण कहाँ मानने वाले थे ,जानते थे …. माँ कितनी देर नाराज रहेंगी ,आखिरकार तो गोद  में बिठा ही लेंगी  ढूंढें री अँखियाँ तोहे चहुँ ओर  जाने कहाँ छिप गया नंद किशोर  बड़ा नटखट है रे कृष्ण कन्हैया  का करे यशोदा मैया ……….. ८ ………… गोपिकाओ के सर कृष्ण की बांसुरी और प्रेम का नशा चढ़ा रहता | श्याम रंग रंगी मोरी चूनरी काहे समझत न तू  बावरी …………. यह प्रेम कृष्ण के द्वारिका में बस जाने के बाद भी कहाँ कम हुआ | तभी तो गोपिकाएं कह उठती हैं ……………   लरिकार्इ को प्रेम कहौ अलि कैसे करिकै छूटत? कहा कहौं ब्रजनाथ-चरित अब अन्तरगति यों लूटत।। चंचल चाल मनोहर चितवनि, वह मुसुकानि मंदधुनि गावत। नटवर भेस नन्द नन्दन को, यह विनोद गृह बन में आवत। चरन कमल की सपथ करति हौं यह संदेस मोहि विष सम लागत। सूरदास मोहि निमिष न बिसरत मोहन मूरति सोवत जागत।। ९ ……….. कृष्ण के मन में बसती  थी बस राधा………..                                                 प्रेम भी कोई ऐसा -वैसा नहीं ,राधा रानी कह उठती हैं ………..                                                आदि मैं न होती राधे कृष्ण की रकार पे                                                तो मेरी जान राधे कृष्ण आधे कृष्ण रहते और भक्त भी तो समझदार हैं की तभी तो गाते हैं …………. राधे -राधे रटो  चले आयेंगे बिहारी ………. १० ……………. कुरुक्षेत्र  में कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से समस्त संसार को गीता का ज्ञान दिया  और साथ हे अपने ईश्वर होने का प्रमाण भी ………………………. साफ़ -साफ़ कह दिया  अभ्युत्थायदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।           अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।7।। धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्र्स्पनार्थाय सम्भवामि युगे युगेश्रीमद्भगवद्गीता, अध्य ११ ………. कृष्ण का विराट रूप देख अर्जुन को उनके ईश्वर होने पर यकीन हो गया अब लगे घबराने “अरे जिन्हें मित्र समझते थे वो तो ईश्वर निकले ………. फिर क्या क्षमा मांग ली सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति । अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ।।41।। १२ ………… जब जब आततायी बढ़ेंगे श्री कृष्ण शोषित  मनुष्यों की रक्षा  के लिए भगवान् स्वयं  अवतार लेंगे जय श्री कृष्ण………. गोविन्द तुम्हीं गोपाल तुम्ही घनश्याम यशोदा नंदन हो हे नाथ कहीं योगेश्वर हो हे नाथ कहीं मन मोहन हो ब्रज के नंद लाला राधा के सांवरिया सभी दुःख दूर हुई जब तेरा नाम लिया  अटूट बंधन

सभी महिला मित्रों को तीज की हार्दिक शुभकामनाएं

:सभी महिला मित्रों को तीज की हार्दिक शुभकामनाएं ********************************************************* सावन की तीज आई घनघोर घटा छाई मेघन झड़ी लगाईं ,परिपूर्ण मंदिनी झूलन चलो हिंडोलने वृषभानु नंदिनी कल   17 अगस्त को सावन की तीज है |आस्था, उमंग, सौंदर्य और प्रेम का यह उत्सव हमारे सर्वप्रिय पौराणिक युगल शिव-पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।  दो महत्वपूर्ण तथ्य इस त्योहार को महत्ता प्रदान करते हैं। पहला शिव-पार्वती से जुड़ी कथा और दूसरा जब तपती गर्मी से रिमझिम फुहारें राहत देती हैं और चारों ओर हरियाली छा जाती है। यदि तीज के दिन बारिश हो रही है तब यह दिन और भी विशेष हो जाता है। जैसे मानसून आने पर मोर नृत्य कर खुशी प्रदर्शित करते हैं, उसी प्रकार महिलाएँ भी बारिश में झूले झूलती हैं, नृत्य करती हैं और खुशियाँ मनाती हैं। तीज के बारे में हिन्दू कथा है कि सावन में कई सौ सालों बाद शिव से पार्वती का पुनर्मिलन हुआ था। पार्वतीजी के 108वें जन्म में शिवजी उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न हुए और पार्वतीजी की अपार भक्ति को जानकर उन्हें अपनी पत्नी की तरह स्वीकार किया।आकर्षक तरीके से सभी माँ पार्वती की प्रतिमा मध्य में रख आसपास महिलाएँ इकट्ठा होकर देवी पार्वती की पूजा करती हैं। विभिन्न गीत गाए जाते हैं।तीज के मुख्य रंग गुलाबी, लाल और हरा है। तीज पर हाथ-पैरों में मेहँदी भी जरूर लगाई जाती है।हरे रंग की चूड़ियों का तीज में विशेष महत्व हैं |  भारतीय नारी के जीवन में चूड़ियों का बहुत ही महत्व है| भारतीय नारियाँ रंग-बिरंगी चमकीली चूड़ियाँ कलात्मक एवं सुरुचिपूर्ण ढंग से पहनकर अपनी कोमल कलाइयों का शृंगार करती हैं। यह शृंगार शताब्दियों से कुमारियों एवं नारियों को रुचिकर प्रतीत होता है, साथ ही स्वजन-परिजन भी हर्षित होते हैं। हाथ की चार चूड़ियाँ उनके अहिवात को सुरक्षित रखने के लिए ही पर्याप्त हैं।आज तीज के दिन पुरानी डायरी पलटते हुए बहुत पहले चूड़ियों पर लिखी गयी कविता नज़र आई | जिसे आप सब के सम्मुख पेश कर रही हूँ क्या -क्या न् सितम  हम पे ये ढाती हैं चूड़ियाँ जब भी कभी कलाई में आती हैं चूड़ियाँ चुभती हैं कलाई में जब खुद से झगड़कर तब और सुर्ख लाल नजर आती हैं चूड़ियाँ हों नीली -पीली या फिर लाल गुलाबी हर रंग में दिल को लुभाती हैं चूड़ियाँ कितना भी चले हम अपने पाँव दबाकर आने की खबर पहले ही दे आती हैं चूड़ियाँ जासूस हैं साजन  की मेरे  जानते हैं  हम फिर भी न जाने  दिल को क्यों भाती  हैं चूड़ियाँ वंदना बाजपेयी

सावन के पहले सोमवार पर :उसकी निशानी वो भोला – भाला

  मंदिर एक प्राचीन शिव समाधि में आसीन शिव और शिवत्व जीव और ब्रम्हत्व शांत निर्मल निर्विकार उर्जा और शक्ति के भंडार दो नेत्र  कोमल, दया के सिन्धु श्रृष्टि   सृजन के प्रतीक बिंदु तीसरा नेत्र कठोर विकराल मृत्यु संहार साक्षात काल डमरू की अनहद नाद ओमकार का शब्दिक वाद शांत, योग, समाधि में आसीन ब्रम्ह स्वं ब्रम्ह में विलीन नीलकंठ, सोमेश्वर, ओम्कारेश्वर डमरू पाणी, त्रिशूलधारी, बाघम्बराय मन पुष्प अर्पित कर भजूँ ओम नमः शिवाय। सावन के पहले सोमवार पर :उसकी निशानी वो भोला – भाला ( हर – हर ~ बम बम )      सत्यम शिवम् सुन्दरम ……… जो सत्य है ,वही कल्याणप्रद है ,वही सुन्दर  है ………. ये तीन शब्द झूठ फरेब छल के जाल में फंसे मनुष्य को सही दिशा दिखाते हैं | इसको अगर पलट कर कहे तो असत्य कभी भी कल्याण कारी नहीं हो सकता ,जो कल्याणप्रद नहीं है उसकी सुन्दरता क्षणिक है | यही भारतीय संस्कृति की अवधारणा भी है | शिव ,दो अक्षरों का छोटा सा नाम परन्तु असीम शक्ति असीम कल्याण  समेटे हुए | क्या है शिव नाम का रहस्य  लोक पावन शिव नाम को बार – बार  जपने को कहा जाता है | कुछ तो ख़ास है इस नाम में | वस्तुतः इसके पीछे धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक अवधारणा भी है | शिव नाम अपने आप में एक मन्त्र है ….जो पूरी तरह से ध्वनि के सिद्धांतों  पर आधारित है| इसके पीछे एक गहन शोध है |  शिव में ‘शि’ ध्वनि का अर्थ मूल रूप से शक्ति या ऊर्जा होता है। लेकिन यदि आप सिर्फ “शि” का बहुत अधिक जाप करेंगे, तो वह आपको असंतुलित कर देगा । दिशाहीन ऊर्जा का कोई लाभ नहीं है, वह विनाश का प्रतीक है |  इसलिए इस मंत्र को मंद करने और संतुलन बनाए रखने के लिए उसमें “व” जोड़ा गया। “व” “वाम” से लिया गया है, जिसका अर्थ है प्रवीणता।‘शि-व’ मंत्र में एक अंश उसे ऊर्जा देता है और दूसरा उसे संतुलित करता  है।इसलिए जब हम ‘शिव’ कहते हैं, तो हम ऊर्जा को एक खास तरीके से, एक खास दिशा में ले जाने की बात करते हैं। जो अपने आप में कल्याण कारी है | शिव सिखाते हैं संतुलन  उर्जा हो या जीवन या रिश्ते   जो संतुलन कर ले गया वही श्रेष्ठ है वही विजेता है |  देवादिदेव शिव सदा  दो विपरीत परिस्तिथियों में संतुलन साधना सिखाते हैं | अर्द्ध नारीश्वर के रूप में वह स्त्री और पुरुष के मध्य संतुलन साधना सिखाते हैं | काम देव को भस्म करते हैं और परिवार भी बसाते हैं | महाज्ञानी  हैं पर बिलकुल भोले -भाले | शरीर पर भस्म लपेट कर दैहिक सौन्दर्य को नकारते हैं वही सौन्दर्य के प्रतीक चंद्रमा को शीश पर धारण करते हैं | धतुरा , मदार ,हलाहल दुनियाँ भर का विष पी के आनंद  से डमरू बजाते हैं | ये संतुलन ही शिवत्व है | शिव तो हैं भोले बाबा                                     शिव के अनेक नाम प्रचलित हैं पर जो नाम सबसे उपर्युक्त है वो है भोले बाबा | जरा  सी बात पर प्रसन्न हो जाते हैं | वरदान दे देते हैं | वरदान देते समय सोचते नहीं कि देवता ,दानव ,मानव किसको दे रहे हैं | तभी तो भस्मासुर को वरदान देकर स्वयं भी संकट में पड  जाते हैं |  उन के भोलेपन  पर एक और कथा प्रचलित है |   एक पौराणिक कथा के अनुसार एक भील डाकू परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटा करता था। सावन महीने में एक दिन डाकू जंगल में राहगीरों को लूटने के इरादे से गया। एक पूरा दिन-रात बीत जाने के बाद भी कोई शिकार नहीं मिलने से डाकू काफी परेशान हो गया।इस दौरान डाकू जिस पेड़ पर छुपकर बैठा था, वह बेल का पेड़ था और परेशान डाकू पेड़ से पत्तों को तोड़कर नीचे फेंक रहा था। डाकू के सामने अचानक महादेव प्रकट हुए और वरदान माँगने को कहा। अचानक हुई शिव कृपा जानने पर डाकू को पता चला कि जहाँ वह बेलपत्र फेंक रहा था उसके नीचे शिवलिंग स्थापित है। इसके बाद से बेलपत्र का महत्व और बढ़ गया।ऐसे हैं भोले बाबा |  क्यों चढाते हैं भोले बाबा को बेलपत्र                                                               वैसे  हम लोग भी बेल पत्र शिव को चढाते है | ये सोचते हैं कि ये शिव को प्रिय हैं पर इसका वास्तविक महत्त्व नहीं जानते | दरसल बेलपत्र में शिव की गूंज को आत्मसात कर लेने की सबसे अधिक क्षमता होती है। शिवाले में हर समय शिव नाम की गूँज होती रहती है | अगर आप उसे शिवलिंग पर रखकर फिर ग्रहण कर लेते हैं, तो उसमें लंबे समय तक उस प्रभाव या गूंज को कायम रखने की क्षमता होती है। वह गूंज आपके साथ रहती है | सावन का पहला सोमवार ~ आस्था  सब पर भारी  उर्जा और पूर्ण चेतना  दृष्टि से अलग कर के देखूँ तो आज सावन के पहले  सोमवार ,में मंदिरों में भीड़ लगी है | लोग जल  , दूध ,बेलपत्र , धतूरा  आदि अपने इष्टदेव पर अर्पित करके उसे प्रसन्न करने के लिए घंटो कतार में लगे हुए है | ॐ नम : शिवाय ,हर हर ,बम बम की गूँज से पूरा वातावरण गुंजायमान है | बहुत ही शांत आध्यात्मिक वातावरण है | भक्ति प्रेम की अंतिम सोपान है | शिव अराधना  में डूबे लोग क्षण भर को ही सही उस परम उर्जा के श्रोत से एकीकार  हो जाते हैं |यही तो है आस्था का सुख  | जो सब कुछ त्याग कर बैठा है वो ही सबको सब कुछ देता है | शिव को सावन इतना प्रिय क्यों है                                                   वैसे तो शिव की पूजा सदैव कल्याण प्रद है परन्तु सावन में शिव पूजन का विशेष महत्व है हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि जब सनत कुमारों ने महादेव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने … Read more