रिश्तों का अटूट बंधन
बाबा कितने दिन , महीने बरस बीत गए जब बांधा था तुमने ये अटूट बंधन एक अपरिचित अनजान से और मैं घबराई सी माँ की दी शिक्षाएं और तुम्हारे दिए उपहार बाँध कर ले चली थी उस घर जिसे सब मेरा अपना बताते थे वहां न जाने कितने अटूट बंधनों से बंध गयी मैं कितने रिश्तों के नामों में ढल गयी मैं न जाने कब , ये घर अपना हो गया और वो घर मायका हो गया बाबा न जाने कब खर्च हो गए तुम्हारे दिए उपहार पर माँ की दी हुई थाती आज भी सुरक्षित है मेरे पास जो संभालती है , सहेजती है हर पग पर और बनाए रखती है इस घर को अटूट उम्र की पायदाने चढ़ते हुए न जाने कब मैं आ गयी माँ की जगह और बेटी मेरी जगह जो खड़ी है उस देहरी पर जहाँ से ये घर हो जाएगा मायका और वो अपना घर आज निकालूंगी फिर से वही पोटली जो माँ तुम ने दी थी मुझे विदा के वक्त जानती हूँ नहीं काम आयेंगे उसे भी पिता के दिए उपहार काम आएगी तो बस तुम्हारी दी हुई थाती जो पहुँचती रही है एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक और बनाती रही है रिश्तों के अटूट बंधन नीलम गुप्ता आपको आपको कविता “रिश्तों का अटूट बंधन “ कैसी लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें