जीवित माता -पिता की अनदेखी और मरने के बाद श्राद्ध : चन्द्र प्रभा सूद

                                                          पितर पक्ष यानि श्रादों का पक्ष इन दिनों चल रहा है। आप सभी मित्रों से अनुरोध है कि जो साक्षात जीवित पितर आपके अपने घर में विद्यमान हैं उनके विषय में विचार कीजिए। यदि आपको श्राद्ध करना ही है तो उन जीवितों का कीजिए। श्राद्ध का यही तो अर्थ है न कि अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक अन्न, वस्त्र, आवश्यकता की वस्तुएँ तथा धनराशि दी जाए।         आपके घर में जो माता-पिता आपकी स्वर्ग की सीढ़ी हैं उन्हें वस्त्र दीजिए, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें धन दीजिए, उनके खानपान में कोई भी कमी न रखिए, उनके स्वास्थ्य की ओर सदा ध्यान दीजिए। यदि वे अस्वस्थ हो जाते हैं तब उनका अच्छे डाक्टर से इलाज करवाइए तभी आपका श्राद्ध करना सही मायने में सफल हो सकेगा।            यदि जीवित पितरों की ओर से विमुख होकर मृतकों के विषय में सोचेंगे तो आपका सब किया धरा व्यर्थ हो जाएगा। जो पुण्य आप ऐसा करके कमाना चाहते हैं वह सब पाप में बदल जाएगा और आप अपयश के भागीदार बन जाएँगे। उसका कारण हैं कि आप पितरों के उपयोग में आने वाली जो भी सामग्री उन तथाकथित ब्राह्मणों के माध्यम से मृतकों को भेजना चाहते हैं वह तो उन तक नहीं पहुँचेगी। वे ब्राह्मण तो इसी भौतिक जगत में खा-पीकर उसका उपभोग कर लेंगे।            आज अधिकांश ब्राह्मण नौकरी अथवा अपना व्यवसाय कर रहे हैं। उन्हें ऐसे भोजन की आवश्यकता नहीं है। बहुत से ब्राह्मण आजकल शूगर जैसी बीमारियों से ग्रसित हैं। वे हर भोज्य पदार्थ को नहीं खा सकते बल्कि खाने में परहेज करना पड़ता है, मीठे का तो खासकर। इन दिनों वे इतने व्यस्त रहते हैं कि बुलाने पर कह देते हैं कि थाली घर भिजवा दो।           ऐसे ब्राह्मणों के पीछे फिरते हुए लोग अपने घर में आने के लिए अनावश्यक ही उनकी मिन्नत चिरौरी करते हैं।          परन्तु अपने घर में विद्यमान ब्राह्मण स्वरूप माता-पिता को दो जून का भोजन खिलाने में शायद उनके घर का बजट गड़बड़ा जाता है। इसीलिए उनको असहाय छोड़ देते हैं और स्वयं गुलजर्रे उड़ाते हैं, नित्य पार्टियों में व्यस्त रहते हैं, शापिंग में पैसा उड़ाते हैं। फिर उनके कालकवलित (मरने) होने के पश्चात दुनिया में अपनी नाक ऊँची रखने के लिए लाखों रुपए बरबाद कर देते हैं और उनके नाम के पत्थर लगवाकर महान बनने का यत्न करते हैं। इस बात को हमेशा याद रखिए कि माता-पिता का तिरस्कार कर ऐसे कार्य करने वाले की लोग सिर्फ मुँह पर प्रशंसा करते है और पीठ पीछे निन्दा।            माफ कीजिए मैं कभी ऐसे आडम्बर में विश्वास नहीं करती। मुझे समझ में नहीं आता कि आपने किसके सामने स्वयं को सिद्ध करना है? आपका अंतस तो हमेशा ही धिक्कारता रहेगा। अगर समाज में इस बात का लौहा मनवाना है कि आप बड़े ही आज्ञाकारी हैं, श्रवण कुमार जैसे पुत्र हैं तो उनके जीवित रहते ऐसी व्यवस्था करें कि जीवन काल में उन्हें किसी प्रकार की कोई कमी न रहे। इससे उनका रोम-रोम हमेशा आपको आशीर्वाद देता रहे। उनके मन को  अनजाने में भी जरा-सा कष्ट न हो।          हमारे ऋषि-मुनियों और महान ग्रन्थों ने माता और पिता को देवता माना है। उस परमात्मा को हम मनुष्य इन भौतिक आँखों से देख नहीं सकते परन्तु ईश्वर का रूप माता-पिता हमारी नजरों के सामने रहते हैं। जो बच्चे माता और पिता की पूजा-अर्चना करते हैं अर्थात सेवा-सुश्रुषा करते हैं उनके ऊपर ईश्वर की कृपा सदा बनी रहती है। ऐसे बच्चों का इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं। चन्द्र प्रभा सूद

अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस परिचर्चा : लघु कथाओ की लघुपुस्तिका ” चौथा पड़ाव “

                                                                                                               अटूट बंधन ने अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस पर एक परिचर्चा का आयोजन किया था | इसमें सभी ने बढ़ चढ़ कर अपने विचार रखे | विचार रखने का माध्यम चाहे लेख हो , कविता हो ,कहानी हो ……… इन सभी विचारों के माध्यम से  बुजुर्गों की समस्याओ  को समझने का और समाधानों को तलाशने का सिलसिला प्रारंभ  हुआ | ये आगे भी  जारी रहेगा | इसी परिचर्चा के दौरान प्राप्त लघु कथाओ को हम एक लघु पुस्तिका ” चौथा पड़ाव ” के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं | जिनको पढ़ कर आप भी कुछ देर ठहरकर सोचने को विवश होंगे | यही हमारा उदीश्य है कि बुजुर्गों की समस्याओ को समझा जाए व् समाधान तलाशे जाए | ” चौथा पड़ाव में आप पढेंगे ……….. डॉली अग्रवाल  शशि बंसल  एकता शारदा  शैल अग्रवाल  कुसुम पालीवाल  डिम्पल गौड़ ‘अनन्या ‘ डी डी एम त्रिपाठी  विभा रानी श्रीवास्तव  सरिता जैन की लघु कथाएँ  फेस बुक प्रोफाइल  रोज की तरह आज फिर मोहन ने उन बुज़ुर्ग दंपति को कोने की सीट पर बैठा देखा | रोज वे लोग उसे टैब चलाते हुए देखते थे | कल ही बाबा बोले थे — बेटा हमें लैपटॉप पर कुछ काम कराना है तुम कर दोगे ना | मैंने हां कह दिया था |में उनके पास पंहुचा तो दोनों खुश हो गए |लैपटॉप हाथ में दे कर बोले — बेटा फेसबुक पर एक id बना दो हमारी |सुन चकरा गया , मन ही मन गाली दे डाली – कब्र में पैर अटके है और चले है फेसबुक पर |किस नाम से बनाऊ बाबा ?किसी लड़की के नाम से — क्या ? हे भगवानअच्छा बाबा फ़ोटो किसकी लगाऊ ?किसी सुंदर सी मॉडल की — हद हो गयी |मन में आया लैप टॉप पटक कर उठ जाऊ | पर ना जाने क्यों उनके चेहरे की मासूमियत रोक रही थी मुझे|लेकिन अपने को रोक नहीं पा रहा था |बेटा , मित्रता के लिए अजय मित्तल का नाम ढूढ़ दो ना | शक गहराता जा रहा था आखिर पूछ ही बैठा — बाबा अजय ही क्यों ?बाबा ने जो कहाँ उसके बाद मेरी आँखों में आँशु थे | बेटा हमारा अजय बहुत बड़ी कंपनी में काम करता है हमे साथ नहीं रख सकता क्योकि हम गवाँर और अनपढ़ है | बड़े बड़े लोग उसके पास आते है | हमारे एक 5 साल की पोती और गोद में राजकुमार सा पोता है | बगल में किसी ने बताया की सब अपनी और अपनों की फ़ोटो वहा लगते है | किसी मॉडल की फ़ोटो इसलिए ही लगायी की अजय उसे मित्रता में रख लेगा | और हम उसकी बहु की और पोता पोती की फ़ोटो देख लेंगे | पिछले 2 साल से देखा नहीं है | नोकर के हाथ पैसे भेजता है | नहीं जानता वो की हमारी ख़ुशी उस पैसे में नहीं उसमे है |खुद पर खुद की सोच पर शर्म आ गयी | आँखों से गिरते आँशु से मुझे भी अपनी करनी याद आ गयी | सुबह टूटे माँ के चश्मे पे लड़ाई याद आ गयी | अब कदम बढ़ चले थे एक नया चश्मा लेने की और || डॉली अग्रवाल  2 ………….. वक्ती रिश्ते ———————————- “सुनिये, चार दिन से माँ के घर से न किसी का फोन आया और न किसी ने मेरा फोन उठाया। भैया और पापा के मोबाइल भी स्विच ऑफ हैं। किसी अनहोनी की आशंका से दिल बैठा जा रहा है,” मधु ने भीगे स्वर में पति से कहा तो वह स्नेहिल स्वर में बोले, ” तो हम चल कर देख आते हैं न ! घंटे भर में पहुँच जाएँगे , बल्कि तुम्हें तो अक्सर उनके साथ ही होना चाहिये। ” पति ने कहा। रास्ते भर मधु सोच में गुम रही कि कैसे एकदम व्यवसाय में घाटा हुआ और सबका मनोबल टूट गया। सब तथाकथित अपनों के आगे उन्होंने मदद के लिये हाथ फैलाये पर वे छिटक कर दूर हो गये…और उनकी बेबसी के चर्चे नमक -मसाला लगा कर इधर-उधर करने लगे…..बस वह और उसके सहृदय पति ही उनके साथ खड़े थे , पर उनकी सहायता ऊँट के मुख में जीरे की तरह ही साबित हो रही थी। माँ के घर पहुँच कर मधु ने दरवाजे पर दस्तक देनी चाही तो वह यूँ ही खुल गया…उढ़का हुआ जो था और..और भीतर पहुँच कर उसकी चीख निकल गई…माँ-बाऊजी भैया-भाभी और नन्हीं मुन्नी सब चित्त पड़े थे। पति ने उन सबकी नब्ज़ देखी और कहा,” मधु ! सब खत्म ! “ वह पथराई आँखों से देख रही थी कि अधमरी वो पाँच जानें आज मरण की रस्म भी अदा कर चुकी हैं। ” रिश्तेदारों को फोन तो कर दूँ ,” कहते हुए पति ने मोबाइल निकाला तो वह पागलों की तरह चिल्लाई, ” मैं किसी मतलबी और कमीने रिश्तेदार की छाया तक इन पर नहीं पड़ने दूँगी। पुलिस की कार्यवाही के बाद इनका दाह-संस्कार होगा और मुखाग्नि मैं दूँगी। कोई और कर्मकांड नहीं होगा….मातमपुर्सी भी नहीं और शोक सभा भी नहीं । नहीं चाहिये मुझे कातिल और वक्ती रिश्ते।” ————————————————- शशि बंसल भोपाल । 3 ………. लालची कौन  अब जल्दी किजिये पिताजी बैंक जाने के लिये लेट हो जाओगे.. थोड़े ऊंचे स्वर में रमेश बोला। बेटा, मैं सोच रहा हू इस बार पेंशन की रकम में से कुछ निकालकर ब्राह्मण को भोज करवा लू तुम्हारी मां की पुण्यतिथी आ रही है… कोई जरुरत नही फालतू का खर्चा करने की ये ब्राह्मण व्राह्मण सब लालची होते है आप वो रकम मेरे एकाउंट मे जमा करवाकर मंदिर चले जाना और भगवान को थोड़ा प्रसाद चढाकर सीधे ही मां की आत्मा की शान्ती की प्रार्थना कर लेना कहते हुए रमेश ने एक बीस का नोट अपने पिता के हाथ मेँ थमा दिया। अब अगर बात लालची इंसान की हो रही थी तो यहाँ लालची कौन था ब्राह्मण या उनका बेटा रमेश सोचते सोचते पिताजी बैंक को रवाना हो … Read more

अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस परिचर्चा : जरा सी समझदारी : डॉ भारती वर्मा बौड़ाई

—-डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई–                                                           वृद्धावस्था ! जीवन का महत्वपूर्ण और अंतिम पड़ाव ! जीवन भर के सँजोये मधु-तिक्त अनुभवों का सामंजस्य लिए एक संपूर्ण संसार। हमारे बड़े चाहते हैं कि उनके जीवन की कड़ी धूप में तप कर पाए अनुभवों से उसके अपने कुछ सीख कर उन दुखों से दूर रहें जो उन्हें मिले, वे खुशियाँ और अधिक पाएँ जो उन्हें अपनी कमियों के चलते उतनी नहीं मिल पाई, जितनी मिलनी थीं। अनुभवों का छलकने को आतुर संसार अपनों के सम्मुख अपनेपन से बिखरना चाहता है पर वो अपने, अपने जीवन की, अपनी महत्वाकांक्षाओं को पाने की आपाधापी में, दिन-रात की भागम-भाग के चलते इतना भी समय नहीं निकाल पाते कि दो घड़ी उनके पास बैठ कर दो बात भी कर सकें। मनुष्य को जब जीवन मिलता है तभी से उसकी हर काम के लिए तैयारी आरंभ हो जाती है। पहले अपनी पढाई, नौकरी, विवाह, बच्चे,उन्हें पालने के उपक्रम। फिर उन बच्चों के लिए उसी तरह के उपक्रम….इस तरह हर व्यक्ति अपनी इन सब जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए तैयारी करता है, संघर्ष और श्रम करके अपने कर्तव्यों को पूरा करता है। लेकिन इन सब के बीच उसकी स्वयं अपने लिए तैयारी तो कहीं दृष्टिगोचर होती ही नहीं। क्या यह उचित नहीं है कि व्यक्ति हर कार्य की तरह अपनी वृद्धावस्था के लिए भी तैयारी करे। अपने कर्तव्यों को भली-भाँति निभाते हुए वह कुछ पूँजी अपनी वृद्धावस्था के लिए भी रखे। बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ स्वयं को भी अपने आने वाले शिथिल दिनों के लिए आत्मनिर्भर बनाए। रिटायरमेंट के बाद बहुत से व्यक्ति, जिनमें महिलाएँ और पुरुष दोनों हैं, घर के लोगों के लिए अपनी हर समय की टोका-टाकी करते रहने की प्रवृत्ति के कारण अप्रिय और परेशानी का कारण बनने लगते हैं। युवावस्था में विकसित की गईं रुचियाँ इस उम्र में बहुत लाभदायक सिद्ध होती हैं। रिटायरमेंट के बाद अपनी रुचियों जैसे–पढ़ना-लिखना, संगीत, पेंटिंग, बागबानी आदि को समय देकर उनमें व्यस्त रहे तो एकाकीपन की समस्या आएगी ही नहीं। आजकल तो इतनी स्वयंसेवी संस्थाएँ और संगठन हैं जिनमें व्यक्ति अपनी रुचियों के अनुसार अपनी सेवाएँ देकर समाज के लिए उपयोगी बन सकते हैं साथ ही अपने परिवार को गौरवान्वित करते हुए उनके साथ कदम से कदम मिला कर चल सकते हैं। ये तो मैंने बड़ों के पक्ष पर विचार किया, अब मैं दूसरे पक्ष यानि तथाकथित नई पीढ़ी और परिवार के अन्य सदस्यों की ओर लौटती हूँ तो पाती हूँ की अपनी जिम्मेदारियाँ वे भी निभा तो रहें हैं,पर यदि उनमें कुछ बातों का समावेश कर लें तो समस्या को अपने पैर पसारने का स्थान मिलने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। अपने बड़ों के लिए जो भी करें, उददेश्य तो यही होता है न कि वे प्रसन्न हों। तो उनके स्वभाव, उनकी रुचियों का ध्यान रखते हुए करें तो शायद उन्हें अधिक प्रसन्नता होगी। मैंने कई परिवारों में देखा कि दादा-दादी, नाना-नानी केक खाना पसंद नहीं करते पर परिवार के लोग अपनी पसंद और आधुनिकता के चलते जन्मदिन मनाने के नाम पर जबरदस्ती केक खिलाते हैं और वे मन मार कर खाते हैं। क्या इससे अच्छा यह नहीं कि उन्हें उनकी पसंद की चीज खिलाएँ, उनकी पसंद के अनुरूप उपहार दें, उनकी रूचि-इच्छा के अनुसार उन्हें घुमाने ले जाएँ। यदि हम कर ही रहें हैं तो बड़ों की खुशियों का भी ध्यान रख लें तो क्या अच्छा नहीं होगा? माता-पिता जिस समय में हैं हम भी हर दिन उसी ओर बढ़ रहें हैं। हर व्यक्ति को इस अवस्था में पहुँचना ही है तो क्यों न एक-दूसरे को सँभालते हुए जीवन जिएँ। जो चला जाएगा वो कभी लौट कर आने से रहा। स्मृतियों में इस संतोष के साथ जीवित रखेंगें कि हम जो कर सकते थे हमने किया तो कभी किसी को पछताना नहीं पड़ेगा। बड़े तो बड़े हैं यह सोच कर छोटे ही विनम्र बनें और बड़ों को संभालें।फिर देखिये बड़ों का आशीर्वाद कैसे घर की खुशियों में श्रीवृद्धि करता है। हम सब अपनी जड़ों की और लौटना चाहते हैं, लौट भी रहें हैं, पर अपने स्वभाव और आधुनिकता की झूठी परिभाषा में उलझे स्वयं अपने बीच की दूरियों को बढ़ा रहे हैं। पुरानी और नई पीढ़ी दोनों सामंजस्य रखते हुए बुद्धिमानी से एक-एक कदम आगे बढे तो मुझे पूरा विश्वास है कि वृद्धाश्रम की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी। परिवार चाहे संयुक्त हो या एकल–उनमें दोनों पीढियां एक-दूसरे के अनुभवों से पूर्ण होती हुई अपनी जड़ों को सुरक्षित रखेगी और यही उनके स्वर्णिम दिन होंगें। ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस परिचर्चा : व्यस्त रखना है समाधान : किरण सिंह

                                                                                                                      हमारे बुजुर्ग हमारे धरोहर हैं..! जिन्होंने अपने सुन्दर घर बगिया को अपने खून पसीने से सींच सींच कर उसे सजाया हो इस आशा से कि कुछ दिनों की मुश्किलों के उपरान्त उस बाग में वह सुकून से रह सकेंगे ! परन्तु जब उन्हें ही अपनी सुन्दर सी बगिया के छांव से वंचित कर दिया जाता है तब वह बर्दाश्त नहीं कर पाते .और खीझ से इतने चिड़चिड़े हो जाते हैं कि अपनी झल्लाहट घर के लोगों पर बेवजह ही निकालने लगते हैं जिसके परिणाम स्वरूप घर के लोग उनसे कतराने लगते हैं …! तब बुजुर्ग अपने आप को उपेक्षित महसूस करने लगते हैं ! “उनके अन्दर नकारात्मक विचार पनपने लगता है फिर शुरू हो जाती है बुजुर्गों की समस्या ! परन्तु कुछ बुजुर्ग बहुत ही समझदार होते हैं, वो नई पीढ़ी के जीवन शैली के साथ समझौता कर लेते हैं, उनके क्रिया कलापो में टांग नहीं अड़ाते हैं बल्कि घर के छोटे मोटे कार्यो में उनकी मदद कर उनके साथ दोस्तों की भांति विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, और घर के सभी सदस्यों के हृदय में अपना सर्वोच्च स्थान बना लेते हैं ! उनका जीवन खुशहाल रहता है !बुजुर्गों के समस्याओं का मुख्य कारण- एकल परिवार का होना है ! जहाँ उनके बेटे बेटियाँ बाहर कार्यरत रहते हैं, जिनकी दिनचर्या काफी व्यस्त रहती है ! उनके यहाँ जाने पर बुजुर्ग कुछ अलग थलग से पड़ जाते हैं, क्यों कि बेटा और बहू दोनों कार्यरत रहते हैं, वहां की दिनचर्या उनके अनुकूल नहीं रहता, जिनमें सामंजस्य स्थापित करना उनके लिए कठिन हो जाता है ! इसलिए वो अपने घर और अपने समाज में रहना अधिक पसंद करते हैं ! ऐसी स्थिति में हम किसे दोषी ठहराएं ? कहना मुश्किल है क्योंकि यहां पर परिस्थितियों को ही दोषी ठहराकर हम तसल्ली कर सकते हैं !इन समस्याओं के समाधान के लिए कुछ उपाय किये जा सकते है !अपार्टमेंट निर्माण के दौरान युवा और बच्चों के सुविधाओं का ध्यान रखने के साथ साथ बुजुर्गों के सुविधाओं तथा मनोरंजन का भी खयाल रखना चाहिए जहां बुजुर्गो के लिए अपनी कम्युनिटी हॉल हो जहां वो बैठकर बात चित , भजन कीर्तन, पठन पाठन आदि कर सके साथ ही सरकारी तथा समाजसेवी संस्थानों को भी ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जहां बुजुर्गों के सुरक्षा, सुविधा, एवं मनोरंजन का पूर्ण व्यवस्था हो ! बुजुर्गों के पास अनुभव बहुत रहता है सरकार को ऐसी व्यवस्था बनाना चाहिए जहां उनके अनुभवों का सदुपयोग हो सके जिससे उनकी व्यस्तता बनी रहे !बुजुर्गों को अपने लिए कुछ पैसे बचाकर रखना चाहिए सबकुछ अपनी जिंदगी में ही औलाद के नाम नहीं कर देना चाहिए !जिन्हें अपनी संतान न हो उन्हें किसी भी बच्चे को गोद अवश्य ले लेना चाहिए ! क्यों कि जिनके औलाद नहीं होते उनके सम्पत्ति में हिस्सेदारी लेने तो बहुत से लोग आ जाते हैं परन्तु उनके सेवा सुश्रुसा का कर्तव्य निभाने के लिए बहुत कम लोग ही तैयार होते हैं !हमें यह सर्वथा ध्यान रखना चाहिए कि कल हमे भी इसी अवस्था से गुजरना है तथा हम आज जो अपने बुजुर्गों को देंगे हमारी औलादें हमें वही लौटाएंगी !साथ ही बुजुर्गों को भी अपनी सोंच सकारात्मक रखना चाहिए तथा समझौतावादी होना चाहिए !**********************©Copyright Kiran singh

अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस परिचर्चा :बुजुर्गों की सेवा से मेवा जरूर मिलेगा : किरण सिंह

                                                    तेज भागती हुई जिन्दगी में समय नहीं है किसी के पास..! आज सभी भाग रहे हैं रेस के घोड़े की तरह जिनका मकसद सिर्फ रेस जीतना है चाहे उसके लिए कितनी ही कुर्बानियां देनी पड़े..! पाने की धुन में क्या खोया किसी को खबर नहीं…. हो भी कैसे… कौन समझाए…! टुकड़े टुकड़ों में बिखर गए है परिवार… चलन हो गया है एकल परिवारों का… उसमे भी पति पत्नी दोनों कमाऊ… कहां से समय निकाल पाएंगे वे बुजुर्गों के लिए, उसी का दुष्परिणाम भुगत रहे हैं हमारे बुजुर्ग..!चूंकि हमारे बुजुर्गों ने अपने बच्चों के खुशियों के लिए अपना सर्वस्व ( तन , मन , और धन ) न्यौछावर कर दिया…! बच्चों की परवरिश में कभी नहीं सोचा कि कभी उन्हें अपने ही घर में अकेलेपन और उपेक्षा का सामना करना पड़ेगा…! परन्तु वे दोषी ठहरायएं भी तो किसे उन्होंने स्वयं ही तो स्वयं को लुटा दिया था..अपनो में ! अपने भाग्य को कोसते हुए काट रहे हैं वे एक एक पल..! गुजारिश करते हैं ईश्वर से कि वे ही अपने घर बुला लें पर ईश्वर भी तो मनमौजी ही है.. कहाँ सुनता है वो भी उनकी… भज रहे हैं घर के किसी कोने में राम नाम…!सोंचती हूँ उनके अकेलेपन से कहीं बेहतर होता ओल्डएज होम..! उन्हेंदे खकर डरती हूँ अपने भविष्य से..! सोंचती हूँ बुक करा ही लूँ अपने लिए ओल्डएज होम . अभी तो हाथ पैर चल रहा है..! बच्चे तो सपूत हैं पर बस जाएंगे बिदेश में या देश के किसी कोने में फिर कहाँ फुर्सत मिलेगी उन्हें .! आखिर हमने भी तो यही चाहा था..! बोया बबूल तो आम कहाँ से मिलेगा….?या फिर सोंचती हूँ किसी बेघर को ठौर देकर रख लूँ अपने घर में.. कम से कम सेवा तो करेंगे..! फिर डरती हूँ कि कहीं उन्हें लोभ न घेर ले और …………… डरती भी कैसे नहीं , आए दिन बुजुर्गों की हत्याएं पढ़कर सिहर जाता है मन..!अरे मैं भी कहाँ अपने भविष्य में उलझ गई, क्यों न सकारात्मक विचारधारा अपनाएं बहुत मुश्किल भी नहीं है बुजुर्गों की समस्याओं का समाधान यदि हम थोड़ी सूझ बूझ से काम लें तो ..!घर लेते समय यह ध्यानमें जरूर रखना चाहिए कि हमारे पड़ोसी भी समान उम्र के हों ताकि हमारे बुजुर्गों को उनके माता पिता से भी मिलना जुलना होता रहे और हमारे बुजुर्ग भी आपस में मैत्रीपूर्ण संबंध रखते हुए दुख सुख का आदान प्रदान कर सके..! मंदिरों में भजन कीर्तन होता रहता है उन्हें अवश्य मंदिर में भेजने का प्रबंध करें ..! प्रार्थना और भजन कीर्तन से मन में नई उर्जा का प्रवेश होता है जिससे हमारे बुजुर्ग प्रसन्न रहेंगे, और साथ में हमें भी प्रसन्नता मिलेगी ..! मानते हैं कि समयाभाव है फिर भी कुछ समय में से समय चुराकर बुजुर्गों के साथ बिताएं जिससे आपको तो आत्मसंतोष मिलेगा ही.. बुजुर्गों को भी कितनी प्रसन्नता मिलेगी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है ..! समय समय पर उन्हें उपहार स्वरूप अच्छी अच्छी किताबें भेट करें आपके उपहार को वे अवश्य पढ़ेंगे जिसे पढ़कर उनके अन्दर सकारात्मक विचार पनपेंगे ..! यकीन मानिए बुजुर्गों की सेवा से मेवा जरूर मिलता है जरा करके तो देखिए..! याद रखिए हमारे बच्चे हमें देख रहे हैं., हम जो करेंगे वही संस्कार उन्हें मिलेगा..!********************* किरण सिंह 

अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस परिचर्चा ….बुजुर्ग : बोझ या धरोहर : वंदना गुप्ता

                                                आज  के भागादौड़ी वाले समय में मानवीय संवेदनाओं की चूलें किस हद तक हिल गयी हैं कि बुजुर्ग हमारे लिए हमारी ‘धरोहर हैं या बोझ’ पर सोचने को विवश होना पड़ रहा है जो यही दर्शा रहा है कि कहीं न कहीं कोई न कोई कमी पिछली पीढ़ी के संस्कारों में रह गयी है जो आज की पीढ़ी उन्हें वो मान सम्मान नहीं दे पा रही जिसके वो हकदार हैं . घर में बड़े बुजुर्गों का होना कभी शान का प्रतीक होता था . उनके अनुभव और दूरदर्शिता आने वाली पीढ़ियों में स्वतः ही स्थान्तरित होती जाती थी बिना किसी अनावश्यक प्रयास के क्योंकि वो अपने आचरण से अहसास कराया करते थे . वो कहने में नहीं करने में विश्वास रखते थे तो सुसंस्कार , मर्यादाएं और सफल जीवन के गुर इंसान स्वतः ही सीख जाता था और उन्ही को आगे हस्तांतरित करता जाता था लेकिन आज के आपाधापी के युग में न वो संस्कार रहे न वो मर्यादाएं और न ही वो रिश्तों में ऊष्मा तो कैसे संभव है बुजुर्गों को धरोहर मान लेना ? जिन्होंने रिश्तों के महत्त्व को न जाना न समझा न ही अपने से बड़ों को अपने बुजुर्गों को सहेजते हुए देखा उनसे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो सही आचरण करें और उन्हें वो ही मान सम्मान दें जो पहले लोग दिया करते थे . बुजुर्ग बोझ हैं या धरोहर ये तो हर घर के संस्कार ही निर्धारित करते हैं . जिन्होंने अपने माता पिता को बुजुर्गों की सेवा करते देखा है वो ही आगे अपने जीवन में इस महत्त्व को समझ सकते हैं क्योंकि जब उम्र बढ़ने लगती है तो शक्ति का ह्रास होने लगता है , बुद्धि भी कमजोर होने लगती है , अंग शिथिल पड़ने लगते हैं ऐसे में उन्हें जरूरत होती है एक बच्चे की तरह की देखभाल की और इसके लिए जरूरी है पूरा समय देना लेकिन आज वो संभव नहीं है क्योंकि पति पत्नी दोनों नौकरी कर रहे हैं ऐसे समय में वो अपने बच्चों को ही क्रेच के हवाले करते हैं तो कैसे संभव है बुजुर्गों पर पूरा ध्यान देना . कारण दोनों ही हैं कहीं ज़िन्दगी की आपाधापी तो कहीं संस्कार विहीनता लेकिन इस चक्कर में बुजुर्ग न केवल उपेक्षित हो रहे हैं बल्कि वो बोझ भी महसूस होने लगते हैं और इसका आज की पीढ़ी अंतिम विकल्प यही निकालती है या तो उन्हें वृद्ध आश्रम में छोड़ देती है या उनसे मुँह ही फेर लेती है और अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त रहती है जो कहीं से भी एक स्वस्थ समाज का संकेत नहीं है क्योंकि ज़िन्दगी सिर्फ सीधी सहज सरल सपाट सड़क नहीं इसमें ऊबड़ खाबड़ रास्ते भी हैं जहाँ अनुभवों की दरकार होती है , किसी अपने के ऊष्मीय स्पर्श की आवश्यकता भी होती है , किसी अपने के सिर पर हाथ की अपेक्षा भी होती है और ये तब समझ आती है जब इंसान उन परिस्थितियों से गुजरता है लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है . इसलिए जरूरी है वक्त रहते चेता जाये ताकि उनके अनुभवों और आशीर्वाद से एक सफल जीवन जिया जा सके क्योंकि बोझ मानते हुए वो ये भूल जाता है कि एक दिन वो भी इन्ही परिस्थितियों से गुजरेगा तब क्या होगा यदि बोझ मानने से पहले इतना यदि अपने बारे में ही सोच ले तो कभी उन्हें धरोहर मानने से इनकार नहीं करेगा . वर्ना आज तो बुजुर्ग सिवाय बोझ के कुछ और प्रतीत ही नहीं होते . जो लोग उन्हें बोझ मानते हैं वो नहीं जानते वो क्या खो रहे हैं और जो धरोहर मानते हैं उनके लिए वो वास्तव में एक अमूल्य उपहार से कम नहीं होते क्योंकि बाकि सब ज़िन्दगी में आसानी से मिल जाता है लेकिन बुजुर्गों का निस्वार्थ प्यार, अनुभव और अपनापन किसी बाज़ार से ख़रीदा नहीं जा सकता . वंदना गुप्ता

अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस परिचर्चा : हाउसिंग सोसायटियां है उपाय : संगीता सिंह’ भावना ‘

                                                         भारतीय सभ्यता और संस्कृति की नायाब पहचान ‘संयुक्त परिवार’,जिसमें बुजुर्गों की छत्र- छाया होती थी और उस छत्रछाया के अंदर पनपता था हमारा संस्कार,हमारी पहचान | पर आधुनिकता व प्रगतिशीलता की अंधी दौड़ में हमसे यह स्तम्भ छिनता जा रहा है और हम नवीनीकरण और आधुनिकीकरण की मजबूत डोर में जकड़ते जा रहे है हर माँ -बाप अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं ,यह सोचकर कि एक दिन बेटा कमाने लगेगा तो सारे सपने पूरे हो जायेंगे | कभी-कभी तो यह भी देखा गया है कि आभिभावक अपने एकलौते संतान को उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए अपने कलेजे पर पत्थर रखकर विदेश भेज देते हैं पर वहां जाने के बाद सैलरी पैकेज और लाइफस्टाइल देखकर बच्चे अपना मन बदल लेते हैं और वे वहीँ के होकर रह जाते हैं | भौतिक सुविधाओं की चकाचौंध में बच्चे यह भी भूल जाते हैं कि उनके मातापिता किस हाल में हैं | बच्चे अपनी खुशियों की खातिर माँ के वात्सल्य प्रेम से समझौता कर लेता है तथा बदले में हर महीने अच्छी रकम भेजता है पर क्या पैसे से अपनापन ख़रीदा जाता है ……?? हर माँ बाप का सपना होता है अपने बच्चों की गृहस्थी बसते हुए देखना एवं उनके साथ अपना बाकी का समय बिताना ,पर बच्चे कहकर तो जाते हैं कि लौट आऊंगा या आपसबों को भी बुला लूँगा पर ऐसा होता नहीं है | आज इसी अकेलेपन से बचने के लिए अधिकतर बुजुर्ग दम्पति ओल्ड एज होम को अपना ठिकाना बना ले रहे हैं | उनके पास गाड़ी ,बंगला ,नौकर -चाकर सब हैं, नहीं हैं तो बस उनके अपने जिसकी उन्हें शायद सबसे ज्यादा जरुरत है | गंभीर बात यह है कि इस स्थिति से सबको गुजरना है | यह किसी दूसरे घर की कहानी नहीं , बल्कि घर घर की कहानी है | कोई भी इस ग़लतफ़हमी में नहीं रह सकता कि उसे इस समस्या को नहीं झेलना होगा | वृद्धों की समस्या का एक हल है बहुत से वृद्धों को एक साथ रहने की कोशिश करना | आयु हो जाने के पर लोगों को चाहिए कि वे ऐसे मकानों में शिफ्ट करें जिन में बहुत से वृद्ध रह रहे हों | ये वृद्धाश्रम न हो,ये वृद्धों की हाउसिंग सोसाइटीयां हों जिसमें वृद्ध एकदूसरे की सहायता कर सकें और एकदूसरे को अपने बच्चों से बचा भी सकें, और मिला भी सकें | आज हमारे समाज की इस भयानक रोग से हर माँ-बाप भयभीत है , उसे अपना आनेवाला कल साफ़ दिखाई दे रहा है जिस वजह से उसका वर्तमान भी भयभीत सा गुजर रहा है | जीवन के इस पड़ाव पर वह खुद को टूटा एवं बिखरा हुआ महसूस कर रहा है | जिस उम्र में उसे अपनों के सहारे की जरुरत महसूस होती है ,जब उन्हें बच्चों का साथ संजीवनी सा काम करता है उसी समय वे नितांत अकेले रह जाते हैं | असुरक्षा की भावना उनके अंतर्मन में इस कदर व्याप्त है कि उन्हें अपना जीवन व्यर्थ सा लगने लगा है | आज बुजुर्गों की हालत को देखकर मुझे एक कविता याद आ रही है ………..बदलते दौर के कई मंजर देखे ,मेरी आँखों ने कई समंदर देखे ….सैलाब रोके न रुका है कभी ,मैंने किनारों पर ढहते रेत के कई महल देखे ….वक्त दौड़ रहा हा,भाग रहें हैं सभी ,न बंदिशें बची है ,और न ही कोई चाहतें ….हसरतों और ख्वाहिशों की इस होड़ में ,मैंने झीलों में डूबते कई कँवल देखे ……. संगीता सिंह ‘भावना’

चलो चले जड़ों की ओर ; नागेश्वरी राव

                         वृद्ध अवस्था अपने आप में दुखदायक है|इस स्तर में  आजादी, सम्मान, क्षमता, मानसिक, शारीरिक शक्ति का हनन होने लगता है|,जिन वृद्धों का लक्ष केवल परिवार रहा हो जब कटु सत्य सामने आता है, पैर तले जमीन खिसक –जाती है उन्हें कई कुंठाओं, व्यथाओं का सामना करना पड़ता है। क्योकि बच्चों के समस्याएं, समय की कमी,उनकी आर्थिक परिस्थितियां, समाज की मांग, स्पर्धा आदि उन्हें रिस्ते को संभालने में असफल बना देते हैं| इनके आलावा व्यक्तियों के संस्कार, ममता आदि का भी असर पड़ता है। लेकिन सर्वविदित है कि आधुनिक समय में संयुक्त परिवार की बात दूर, मूल परिवार भी मिट रहा है, पति, पत्नी,बच्चे तीनो को अलग अलग रहना पड़ता है. समय कहाँ कहाँ ले जाता है इंसान को| यह समाज का प्रारूप है. यह सच्चाई है इसे हम नकारा नहीं सकते| इस यथार्थ को लेकर ही वृद्धो के हलातो के सुधारने का प्रयास करना ही है। यह सच है हर दूसरे दिन खबर पढ़ते है कि महत्वाकांक्षी बच्चें (४०%) एवं उनके  अभिभावकों द्वारा संपत्ति को जबरदस्ती हड़पने के लिए माता पिता को पीटा जा रहा है. उन्हें छोटे तहखाने जैसे कमरे में रखा जा रहा है, अस्वस्थ एवं कमजोर माता-पिता से जबरदस्ती काम ले रहे है| भारत सरकार ने अपने वरिष्ठ नागरिकों के लिए विभिन्न रियायतें और सुविधाएं प्रदान करता है| बुजुर्ग माता पिता के कल्याण,रखरखाव, आत्म-सम्मान, शांति और रक्षा के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल के नवीनतम निर्णय के अंतर्गत वरिष्ठ नागरिक अधिनियम, 2007 पारित किया है.साथ ही वरिष्ठ नागरिक या माता-पिता को सामान्य  जीवन बिताने के लिए  बच्चों और रिश्तेदारों पर एक कानूनी जिम्मेदारी सौंपा है। जो, विदेशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों सहित सभी पर लिए लागू होता है। राज्य सरकार हर जिले में वृद्धाश्रम का निर्माण करेगा, पर  वरिष्ठ नागरिकों के संतान, रिश्तेदारों,को पर्याप्त समर्थन प्रदान करने की आवश्यकता है। अंतत: हम कहना चाहते है कि बच्चे, अपने पालन पोषण करने की कृतज्ञता स्वरूप और अपनी कल की चिंता कर, माता पिता की सेवा और सम्मान करे| बुजुर्ग भी अपने सरकार द्वारा प्राप्तः सुविधाओ तथा सुरक्षा के प्रति सजग रहे। जिन बच्चो के पास धन की नही, समय का आभाव है वे अपने माता पिता के लिए बुजुर्ग के आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर बनाये गए अपार्टमेंट और आधुनिक साधनो का उपलब्ध कराये और मानव होने का एहसास करे| समाज–सेवक भी इस ओर प्रयासरत रहने की कृपा करें| नागेश्वरी राव 

चलो चले जड़ो की ओर : अशोक परूथी

                                                                                  माँ देश में बेटे के बिछोड़े में अकेली रोती तो है लेकिन इसका हल क्या है। उसे अपने साथ विदेश भी ले जाओ लेकिन उसका मन वहाँ नही लगता। अपने बेटों या बेटियों के पास भी उसका दिल नही लगता, उसका मन तो बस उसी मिट्टी में बसा रहता है जहां वह पल्ली और बड़ी हुयी होती है …जिसे वह अपना देश और अपना घर कहती है …उससे अपनी सभ्यता, अपनी भाषा, अपनी गालियां, अपना घर, एक एक पाई इकठी कर जुटाई चीज़े से लगाव …अमिट रहता है। अपनी संतान से जुदाई भी उससे सहन नही होती और अपने वतन की मिट्टी में भी वह मिट्टी होकर रह जाना चाहती है। यह कैसी विडम्बना है – एक तरह अपनी संतान का प्यार, मोह, सुख और लगाव और दूसरी और अपने वतन की मिट्टी जो उसे न इधर का छोडती है न उधर का! यह तो था किस्सा उन माता पिता का जिनके बच्चे विदेश रहते है, उनके बच्चे अपनी रोज़ी-रोटी के कारण विदेश तो छोड़ नही सकते और अपने माँ-बाप को भी अपने पास बुला लेते हैं लेकिन माँ-बाप का वहाँ दिल नही लगता ! लेकिन, मुद्दा भारत में रहने वाले बजुर्गों का है । आज सयुंक्त परिवार नही रहे – कारण वित्य (financial) हो सकते हैं या बहू -बेटियों की निजी आज़ादी का मसला हो सकता है या इसे हम पश्चमी सभ्यता का प्रभाव भी कह सकते हैं। यही हाल विदेशियों का भी है उन्हें अपने माँ-बाप तभी याद आते हैं जब उन्हें अपने बच्चो को रखने के लिए ‘माई’ की याद आती है – यह बड़े दुख की बात है !मेरे पिता कहा करते थे- देखो, एक माँ-बाप का जोड़ा अपने पाँच -या छह (संतान) को पालने -पोषने में क्या क्या कुरबानिया देता है, उनकी पढ़ाई , उनके लालन-पालन में अपना सब सुख-आराम और धन सब कुछ वार कर देता है । यही नही उन्हें अच्छी शिक्षा देने के ईलावा अपने सुखी भविष्य की परवाह न करते हुये अपने बचे-खुचे धन को भी उनकी शादियों पर खर्च कर देता है और फिर यह नतीजा – यह सारे स्मारिद्ध बच्चे – जो आज डाक्टर, इंजनीयर, वकील या किसी सफल व्यवसाय में ही क्यूँ न हों – सारे के सारे, सब के सब , मिलकर भी अपने एक माता-पिता का उनकी वृद्धावस्था में दायित्व नही लेते या ले सकते!मेरे बच्चो, मेरे भाईयो अपने माँ-बाप के लिए कुछ न करो एक्सट्रा करो, अगर उनसे दूर भी रहते हो तो थोड़ा समय निकाल कर उन्हे मिल ज़रूर आया करो और अगर यह भी मुमकिन नही तो उन्हें कभी -कभार फोन ही कर उनका हल-चाल पूछ लिया करो , बस इस्सी में माँ-बाप खुश हो जाते हैं – बस इतना तो हम सबका फर्ज़ बंता है ….भगवान हमसबको सतबुद्धि दे और इस दिशा में ठोस कदम उठाने का साहस दे …नही तो कल हम भी बूढ़े होंगे …हमारा भी यही अशर होगा जो आज हमारे जीवन देने वालों का हो रहा है । बदनसीब, हैं वह लोग जिंहे अपने माता-पिता का आशीर्वाद नही मिलता ! ताकि समय निकाल जाने के बाद आपका यह गि”ला न रहे –मामा -पापा , प्लीज़ मुझे एक बार और अपने गले लगा लो!” अशोक परूथी  

अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस पर विशेष : चलो चले जड़ों की ओर : वंदना बाजपेयी

जंगल में रहने वाले  मानव ने जिस दौर में आग जलाना सीखा , पत्थरों  को नुकीला कर हथियार बनाना  सीखा , तभी  शायद उसने परिवार के महत्व को समझा और यह भी समझा कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है जिसे सहज जीवन जीने  के लिए समाज , परिवार अपनों के स्नेह की छाया जरूरत है | कदाचित यही से  परिवार संस्था का जन्म हुआ | तब परिवार  का अर्थ संयुक्त परवार ही हुआ करता था | मातृ देवो भव , पितृ देवो भव् में विश्वास रखने वाले भारतीय जन -मानस ने इस व्यवस्था को लम्बे समय तक जीवित रखा । संयुक्त परिवार में स्नेह और सुरक्षा का मजबूत ताना बाना होता है । यहाँ दादी और नानी की कहानियां होती हैं ,जो हौले से बच्चों में संस्कार के बीज रोप देती है , चाचा बुआ के रूप में बड़े मित्र और साथ खेलने के लिए भाई -बहनों की लम्बी सूची । धीरे -धीरे औध्योगिक करण  के साथ रोटी की तालाश में कुछ को माता -पिता से दूर दूसरे  शहरों /देशों में जाने को विवश कर दिया वही स्वंत्रता की चाह में कुछ उसी शहर में रहते हुए माता पिता से दूर एकल परिवार में रहने लगे । यही वो समय था जब समाज नए तरीके से पुर्नगठित होने लगा ।                                                                   वो माता -पिता जिन्होंने अपना जीवन के सब सुख त्याग कर बच्चों को बड़ा किया थ। उन्ही के बच्चों ने बुढ़ापे में दूसरों पर आश्रित रहने पर विवश कर दिया । बुजुर्ग दम्पत्तियों के लिए अपने स्वास्थ्य के साथ -साथ घर के एकाकीपन से निपटना असाध्य हो गया । सूनी पथराई आँखों में विवशता और प्रतीक्षा के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा । जीते जी और मरने के बाद अंतिम क्रिया के लिए भी उनके हाथ बच्चों की प्रतीक्षा ही आई । दूसरी तरफ एकल परिवारों में बच्चों ने   माता -पिता की दिन भर हर काम में रोक टोक से आज़ादी  महसूस की । उन्हें लगा कि वो बिना किसी दखलंदाजी के  अपना जीवन आराम से जी सकते हैं । जो चाहे पहन सकते हैं ,कर सकते है । इसमें वो अपने माता -पिता के प्रति कठोर और कठोर होते गए ।                                          जब -जब समाज बदलता है उसके परिणाम एक दो जनरेशन के बाद आते हैं । आज़ादी की तलाश में घर से बाहर गए उन्ही बच्चों ने जब अपने बच्चों को संस्कारों के आभाव में  बड़े होते देखा तब उन्हें अपनी गलती का अंदाजा हुआ ।खासकर जहाँ पति -पत्नी दोनों ऐसी नौकरी में उलझे थे जहाँ उनके दिन का बहुत सारा समय घर के बहार बीतता ।  स्नेह के आभाव में आयाओ या क्रेच  द्वारा पाले गए ये बच्चे बड़े घर्रों के होने के बावजूद चोरी -चकारी करते हुए पकडे गए । सारे नियम तोड़ दो की गाडी कहीं रुकी नहीं अपितु दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से आगे बढ़ने लगी । इन्द्राणी मुखर्जी जैसे किस्से इसी की देन है । बबूल पर आम की आशा व्यर्थ साबित हुई ॥                                  आज की नव युवा पीढ़ी एक बार फिर चिंतन -मंथन के मुहाने पर खड़ी  है  । जहाँ उन्हें समझना है कि एकाकीपन मात्र बुजुर्गों की समस्या कह कर टालने का विषय नहीं है ।बुजुर्ग व् उनके द्वारा दिए गए संस्कार  वो नीव हैं जिस पर हमारा भविष्य टिका हुआ है । ये पूरे समाज की समस्या है । ऐसे बहुत से युवा हैं जो  अपने बच्चो की खातिर  वापस संयुक्त परिवारों में लौटना चाहते हैं ,या उन्हें अपने पास बुला कर उसी स्नेह भरे माहौल में रहना चाहते हैं । पर यह वही  पीढ़ी है जो स्वतंत्र वातावरण में पली है । जहाँ एक तरफ इसके दिल में “चलो चले जड़ों की ओर”  की अवधारणा में विश्वास   है । साथ ही माता -पिता के बेवजह हस्तक्षेप के विरुद्ध भी है । वही नए -नए दादी नानी बनी पीढ़ी अपने ही बच्चों को शक की नज़र से देख रही है उन्हें लग रहा है कि कहीं उनके अपने बच्चे अपने स्वार्थ वश तो उन्हें नही बुला रहे हैं । अपने बच्चों के पल जाने के बाद उन्हें वापस लड़- झगड़ कर वापस भेज दें । उनको भय है जब बुढ़ापा अकेले ही काटना है तो क्यों न जब -तक हाथ -पाँव चल रहे हैं अपना जीवन अपने हिसाब से जी लिया जाए । शायद हम सब समय के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहाँ हम यह समझ रहे है कि हमारे बुजुर्गों की सुरक्षा व् हमारे  बच्चों में संस्कार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं  ।  और यह  न सिर्फ बुजुर्गों के लिए , बच्चों के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए हितकर है। पर मंथन का विषय यह है कि जड़ों की ओर लौटने का प्रारूप क्या  हो ? वंदना बाजपेयी