नंदिनी

                                                                                         नंदिनी कहने को तो एक गाय थी | पर बड़ी मालकिन के लिए तो वो परिवार का एक सदस्य थी | पशु मूक ही सही  पर कितनी भावनाएं उमड़ती हैं उस घर के प्रति जहाँ उन्हें पाला जाता  है  |प्रेम का ये कैसा अटूट बंधन है जो इंसान व् जानवर को एक एक अनोखी डोर से बाँध देता है |   पढ़िए एक बेहद भावनात्मक कहानी नंदिनी  “अरे लल्लन! जरा इधर आना” रामदयाल ने लगभग चिल्ल्ताते हुए अपने नौकर को आवाज लगायी. “जी भैया आया ! कहिये क्या काम है?” कहते हुए लल्लन ने प्रश्नवाचक निगाहों से मालिक की ओर देखा. “मैंने तुझे कहा था ना, कि नंदिनी अब बूढी हो गई है. ना ही दूध देती है, ना ही किसी और काम की है…इसे कहीं छोड़ आओ.” रामदयाल ने आदेशात्मक स्वर में कहा. “अरे मालिक जाने दो ना जहाँ इतनी गैया हैं, वहाँ ये भी सही. ये बेजुबान कहाँ जाएगी अब?” लल्लन की आँखों में नंदिनी के लिए दयाभाव थे. “हमने क्या सबका ठेका ले रखा है, जब तक दूध देती थी इसको चारापानी खिलाते थे. अब यहाँ कोई धरमखाता तो खोल कर बैठे नहीं हैं, जो मुफ्त में सबको खिलाते रहें.” रामदयाल के स्वर में झुंझलाहट थी.        वहीँ पास खड़ी नंदिनी को मानों सब समझ आ रहा था. उसके भीतर की बेचैनी उसकी आँखों से छलक उठी. अपनी बेबसी और लाचारी पर उसका मन कराह उठा. उसे याद आया, जब वह सत्रह अठारह साल पहले बड़े ही चाव से इस घर में लायी गयी थी. तब वह छः महीने की थी. बड़े मालिक भगवनदयाल और बड़ी मालकिन शांति ने उसका नाम नंदिनी रखा था, उसे घर के सदस्य जैसा स्नेह दिया था और बदले में उसने भी आठ बच्चों को जन्म देकर उनका घर भर दिया था. जिसमे तीन बछड़े और पांच बछिया थीं. सुबह शाम पांच-पांच लीटर दूध देकर उसने उनके स्नेह का ऋण चुकाने की पूरी कोशिश की थी. शांति उसे बहुत भाग्यशाली मानती थीं. उनका कहना था कि, नंदिनी के आने के बाद से उनके घर परिवार में खुशियाँ छा गयी हैं और उनके डेयरी का व्यवसाय भी फल फूल रहा है. वो उनकी चहेती गैया थी. तब ये रामदयाल बारह तेरह वर्ष का एक नन्हा किशोर था, जो नंदिनी के ऊपर चढ़कर उसकी सवारी किया करता था. वह भी रामदयाल को अपने बछड़े जैसा ही प्यार करती थी. लेकिन अब स्थिति अलग है. नन्हा किशोर अब तीस बत्तीस साल का बांका नौजवान है. सालभर पहले बड़े मालिक के चल बसने के बाद बड़ी मालकिन ने बाड़े पर आना लगभग बंद कर दिया है. अतः उन दोनों की मुलाकात भी बहुत कम होती है. बड़ी मालकिन के हाथों का प्यार भरा स्पर्श महसूस हुए एक अरसा हो गया है. सोचते हुए नंदिनी का मन भर आया. और उस पर लल्लन व् मालिक की बातचीत सुनकर वह और दुखी हो गई.           वह यह सोचकर अपने को दिलासा देने लगी कि आजकल के युग में जब इंसानों की कोई कीमत नहीं है, तो वह तो एक पशु है. क्या मालिक उसके दिल के जज्बातों को समझते हैं? वो तो उनके लिए सिर्फ एक जानवर है और वो भी नाकारा.           पुरानी यादों ने नंदिनी को फिर से घेर लिया. उस वक्त बड़े मालिक के यहाँ सिर्फ चार गायें थीं. घर के पास ही उन सबके लिए छोटी सी झोंपड़ी बनी थी जिसमे वो अपने बछड़ों सहित मजे में रहती थीं. उसे वह घटना याद हो आई जब रामदयाल गर्मी के दिनों में बाहर दालान में नीम के पेड़ के नीचे मजे की नींद सो रहा था, कि तभी एक विशालकाय सांप फन फैलाये उस ओर बढ़ चला.           नंदिनी की नजर उस सांप पर पड़ी, तो वह बहुत जोर से रंभाई. जब उसे कोई दिखाई नही दिया तो वह बार-बार रंभाई. तब अन्दर से बड़ी मालकिन की आवाज आई “ आती हूँ नंदिनी ! क्यों हलकान हुई जा रही है ? इधर सांप रामदयाल के पास पहुँचने ही वाला था, कि नंदिनी ने पूरी ताक़त से खूंटा उखाड़ लिया और उस ओर दौड़ पड़ी. तब तक सांप रामदयाल के हाथ के पास फन फैलाए कुंडली मार बैठ चुका था. अपने विषदंतों से वह उसकी नाजुक कलाई पर काटने ही वाला था, कि नंदिनी ने पूरी ताक़त से अपने दोनों सींगों से उसे उछाल कर दूर फेंक दिया. भीतर से बाहर आकर दरवाजे पर खड़ी मालकिन ये नजारा देखते ही बेहोश हो गिर पड़ीं. और बहुत लोग इकठ्ठा हो गए. होश में आकर मालकिन ने सबको ये घटना बतायी. सबने नंदिनी की प्रशंसा की. रामदयाल धन्यवाद स्वरूप नंदिनी के पास जाकर उससे लिपट गया और वो भी स्नेह से उसे चाट-चाटकर दुलारने लगी.            खैर यह तो बहुत पुरानी घटना है, क्या फायदा इसे याद करके. बड़े मालिक के बाद अब तो रामदयाल ही इस डेयरी का मालिक हो गया है. अब हालात भी बहुत बदल गये हैं. ये लल्लन भी रामदयाल के बचपन का साथी है. दोनों साथ ही खेले और पले बढे हैं. पर अब उनका रिश्ता भी नौकर और मालिक के रूप में आमने-सामने है. पर लल्लन के मन में न जाने क्यों नंदिनी के लिए बहुत श्रद्धा है. वह उसके अनुपयोगी हो जाने के बाद भी उसका बहुत ध्यान रखता है. अब नंदिनी ज्यादा फुर्तीली नही रही. उसका शरीर भी थकने लगा है. लेकिन कभी-कभी जब रामदयाल के छोटे-छोटे बच्चे आकर अपने नन्हे-नन्हे हाथों से उसके कान या सींग खींचने लगते हैं, तो उसे बहुत अच्छा लगता है. सोचते-सोचते ही नंदिनी की आँख कब लग गयी, पता ही नहीं चला.             सुबह दस ग्यारह बजे करीब रामदयाल और लल्लन को साथ आया देख नंदिनी का मन शंकित हो उठा.लल्लन की बुझी-बुझी नजरें देख वह और सहम गयी. रामदयाल के वहां से जाने के बाद लल्लन ने उसे बड़े ही प्यार से चारा दिया. मन तो नहीं था, लेकिन जब तक जिंदा है पेट की आग तो बुझानी ही … Read more

बदचलन

लघुकथा  पूनम पाठक इंदौर ( म. प्र. ) सब तरफ चुप्पी छाई थी . कहीं कोई आवाज नहीं थी सिवाय उन लड़कों के भद्दे कमेंट्स की जो उस बेचारी को सुनने पड़ रहे थे . लेकिन किसी की हिम्मत उन लड़कों से भिड़ने की नहीं थी लिहाज़ा सभी मूकदर्शक बन चुपचाप तमाशा देख रहे थे . मैंने भी अपने काम से काम रखने वाली नीति अपनाते हुए मोबाइल पर अपनी निगाहें नीची कर ली थीं , कि तभी तड़ाक की आवाज ने जैसे सभी को जड़वत कर दिया .  नीची निगाहें उठाकर देखा तो अपनी ही कायरता पर शर्मिंदगी हुई ….हाँ ये वही लड़की है जिसे हम कभी अपनी दोस्ती के काबिल नहीं समझते थे . कहाँ हम कॉलेज के टॉपर बच्चों में से एक और कहाँ वो मर्दाना तरीके से रहने वाली मस्त , बेलगाम लड़की . जो सिर्फ कहने मात्र को लड़की थी , वरना लड़कियों वाली कोई बात उसमे नजर नहीं आती थी . उसके दोस्तों में अधिकतर आवारा टाइप के लड़के हुआ करते थे . बिना गालियों के बात करते हमने उसे नहीं देखा . पढाई लिखाई से कोसों दूर पर कॉलेज की नेतागिरी में अव्वल .  सामने तो मारे डर के कभी उसे कुछ कह नहीं पाये , परन्तु पीठ पीछे हम उसे आवारा , बदचलन और बदमाश आदि शब्दों से ही नवाजते थे . उसी बदचलन ने आज भीड़ भरी बस में एक मासूम लड़की के साथ बुरी तरह से छेड़खानी कर रहे लड़कों को ऐसा सबक सिखाया कि हम सभी शरीफों की नजरें नीची हो गयीं . रिलेटेड पोस्ट …  स्वाभाव जीवन बोझ टिफिन 

भलमनसाहत

पूनम पाठक “पलक” इंदौर (म.प्र.) मई की एक दोपहर और लखनऊ की उमस | भारी भीड़ के चलते वह बस में जैसे तैसे चढ़ तो गई परन्तु कहीं जगह न मिलने की वजह से बच्चे को गोदी में लिए चुपचाप एक सीट के सहारे खड़ी हो गयी | अत्यधिक गहमागहमी और गर्मी से बच्चे का बुरा हाल था | वो उसे चुप करने में तल्लीन थी कि, “बहन जी आप यहाँ बैठ जाइये “ कहते हुए पास की सीट से एक व्यक्ति उठकर खड़ा हो गया | “नहीं भाईसाहब आप बैठिये, मैं यहीं ठीक हूँ” विनम्रतापूर्वक निवेदन को अवीकर करते हुए उसने कहा | “अरे आपके पास बच्चा है, आपको खड़े रहने में तकलीफ होगी, बैठ जाइये ना |” उन सज्जन के विशेष आग्रह पर वह सकुचाकर बैठ गई | सच ही तो था बच्चे को लेकर खड़े रहने में उसे वास्तव में बहुत परेशानी हो रही थी | वह बच्चे को पुचकारने लगी और पानी पिलाकर उसे चुप कराया | कुछ ही देर में बच्चा मस्त हो खेलने लगा | अब उसकी निगाहें उस भले व्यक्ति को ढूँढने लगीं, जिसने इस भीड़ भरी बस में अपनी सीट देकर उसकी मदद की थी | दो तीन सीट आगे ही वो भला व्यक्ति खड़ा हो गया था | अचानक उसके हाथ में होती हुई हरकत पर उसकी निगाह गयी | ध्यान से देखा तो पाया कि जिस जगह वो खड़े थे, उससे लगी सीट पर बैठी पन्द्रह-सोलह साल की एक लड़की अपने आप में ही सिमटी जा रही थी | वे महाशय भीड़ का फायदा उठाकर बार बार उसकी बगल में हाथ लगाते और बार बार वो बच्ची कसमसाकर रह जाती | मामला समझते उसे देर ना लगी | उसकी तीखी निगाहों से उन सज्जन की करतूत व् उस बच्ची की बेबसी छुप ना सकी | वह थोड़ी देर के लिए यह भी भूल गयी कि उसकी गोद में छोटा बच्चा है | अपने बच्चे को सँभालते हुए तुरंत उठी और पलक झपकते ही उन सज्जन के पास पहुंचकर एक झन्नाटेदार थप्पड़ उनके गाल पर रसीद किया “वाह भाईसाहब अच्छी भलमनसाहत दिखाई आपने | बहन जी बोलकर अपनी सीट इसीलिए मेरे हवाले की थी कि खुद इस मासूम के साथ छेड़खानी कर सकें | अरे…कुछ तो शर्म कीजिये, आपकी बेटी की उमर की है ये बच्ची, और आप ! छि…धिक्कार है आपकी सज्जनता पर |” कहकर वह उन पर बरस पड़ी | अचानक पड़े इस थप्पड़ से अवाक् रह गये सज्जन के मुंह से कोई बोल न फूटा | लोगों की आक्रोशित नजरों से बचते बचाते अपने गाल को सहलाते हुए वे भीड़ में ही आगे बढ़ गए व् अगला स्टॉप आते ही बस से उतर गये | वात्सल्य से उसने बच्ची के सर पर हाथ फेरा, जो अपनी डबडबाई आँखों से मौन की भाषा में उसे धन्यवाद कह रही थी |