जनसेवा के क्षेत्र में रोल माॅडल बनीं पुष्पा पाल

प्रस्तुति – प्रदीप कुमार सिंह अम्बेडकर नगर: महिलाओं व बच्चों के हित में कार्य करने के लिए रोल माॅडल के रूप में उभरी हैं अकबरपुर तहसील क्षेत्र के कुटियवा गांव निवासिनी पुष्पा पाल।  पिता के निधन के बाद उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में काम करने की चुनौती न सिर्फ स्वीकार किया वरन उसे अभी तक भली-भांति आगे बढ़ाया भी है। उनके इसी जज्बे व योगदान को देखते हुए राज्य सरकार ने गत वर्ष उन्हें रानी लक्ष्मी बाई पुरस्कार से लखनऊ में सम्मानित भी किया था। बेवाना ब्लाॅक भवन के शिलान्यास मौके पर भी पुष्पा को सम्मानित किया गया था।             यूं तो सामाजिक संस्थाओं का जिक्र आते ही कई तरह के सवाल खड़े होने लगते हैं, लेकिन इन्हीं के बीच कुछ ऐसे लोग व कुछ ऐसी संस्थाएं भी हैं, जिनके द्वारा अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन किया जा रहा है। जिले के सीमावर्ती इलाके बेवाना के कुटियवा गांव में रहने वाले रामवदन पाल ने जन कल्याण के लिए सामाजिक संस्था जन शिक्षण केन्द्र का गठन किया था। वे अपनी मुहिम को अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश में जुटे ही थे कि उनका असामायिक निधन हो गया। संस्था से जुड़े लोग जब हताशा के दौर में थे, तभी रामवदन पाल की बेटी पुष्पा पाल ने बड़ा हौसला दिखाते हुए तय किया कि वे अपने पिता के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए आगे आएंगी। इसके बाद उन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में खुलकर भागीदारी शुरू कर दी।             नतीजा यह रहा कि उन्होंने अपने पिता की राह पर चलते हुए नए ढंग से कार्ययोजना विकसित की, और अकबरपूर, जलालपुर व कटेहरी विकास खंड के कुछ क्षेत्रों में महिलाओं, बच्चों व दिव्यांगों के लिए काम शुरू किया। पुष्पा के सामने शुरूआती दौर में कई कठिनाइयां भी आयीं, लेकिन उन्होंने उनका बखूबी मुकाबला किया। संसाधनों की परवाह किए बगैर वे लगातार गांव-गांव भ्रमण करती रहीं, और महिलाओं समेत सभी ग्रामीणों को जागरूक करने का अभियान तेज कर दिया। मौसम की परवाह किए बगैर वे अभी भी लगातार गांव-गांव पहुंचती हैं, जहां उनके संगठन के लोग पहले से ही ग्रामीणों को एकत्र किए रहते हैं। वहां उन्हें विभिन्न प्रकार से जागरूक किया जाता है। लोगों को पढ़ने लिखने का तौर तरीका मौके पर ही सिखाया जाता है।             उत्तर प्रदेश के राज्यपाल माननीय श्री रामनाईक गत वर्ष जिला मुख्यालय के एक कार्यक्रम में भाग लेने पहुंचे थे, तो वहां उन्होंने इस संगठन व उसके कार्यकर्ताओं का विस्तार से जिक्र किया था। दरअसल राज्यपाल जिले के महत्व को लेकर भाषण दे रहे थे। उसी क्रम में उन्होंने इस संगठन के कार्यों व प्रयासों का जिक्र किया था।   रिलेटेड पोस्ट  नहीं पता था मेरी जिद सुर्ख़ियों में छा जायेगी तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था फीयरलेस वुमन तला रासी -मिनी स्कर्ट पर कोड़े खाने के बाद बनी स्विम वीयर डिजाइनर हम कमजोर नहीं है – रेप विक्टिम से रैम्प पर उतरने का सफ़र काश मेरे मुल्क में भी शांति होती – मुजुन अलमेलहन यूएन कीगुड विल ऐम्बेस्डर   अनूठी है शिखा शाह की कारीगरी

पढ़ाई के लिए छोड़ना पड़ा घर 16 फ्रैक्चर, 8 सर्जरी के बाद भी आईएएस बनीं – उम्मुल खेर, सिविल सेवा आईएएस 2017 में चयनित

     राजस्थान के पाली मारवाड़ में जन्मी उम्मुल की मां बहुत बीमार रहती थीं। पापा उन्हें छोड़कर दिल्ली आ गए। मां ने कुछ दिन तो अकेले संघर्ष किया, पर सेहत ज्यादा बिगड़ी, तो बेटी को पापा के पास दिल्ली भेज दिया। तब उम्मूल पांच साल की थी। दिल्ली आकर पता चला कि पापा ने दूसरी शादी कर ली है। वह अपनी नई बीवी के साथ एक झुग्गी में रहते हैं। नई मां का व्यवहार शुरू से अच्छा नहीं रहा। पापा निजामुद्दीन स्टेशन के पास पटरी पर दुकान लगाते थे। मुश्किल से गुजारा चल पाता था। उम्मुल के आने के बाद खर्च बढ़ गया। यह बात नई मां को बिल्कुल अच्छी नहीं लगी।      पापा ने झुग्गी के करीब एक स्कूल में उनका दाखिला करा दिया। बरसात के दिनों में घर टपकने लगता, तो पूरी रात जागकर गुजारनी पड़ती। आस-पास गंदगी का अंबार होता था। मां की बड़ी याद आती थी। बाद में पता चला मां नहीं रहीं। उम्मुल का पढ़ाई में खूब मन लगता था, पर नई मां चाहती थीं कि वह घर के कामकाज में हाथ बंटाएं। स्कूल से लौटने के बाद वह किताबें लेकर बैठ जातीं। यह बात नई मां को बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। उम्मुल बताती हैं, बस्ती में पढ़ने-लिखने का माहौल न था। बहुत कम बच्चे स्कूल जाते थे। ऐसे में, मेरा किताबों से चिपके रहना अजीब बात थी, इसलिए डाॅट पड़ती थी।      उन दिनों उम्मुल कक्षा सात में पढ़ रही थीं। अचानक पुलिस का अभियान चला और पापा की दुकान हटा दी गई। कमाई का जरिया पूरी तरह बंद हो गया। झुग्गी भी उजाड़ दी गई। परिवार बेघर हो गया। मजबूरी में वे लोग निजामुद्दीन छोड़ त्रिलोकपुरी बस्ती में रहने आ गए। पापा ने छोटा सा कमरा किराये पर ले लिया। उम्मुल परिवार की दिक्कतों को समझ रही थीं। वह बस्ती में रहने वाले छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगीं। एक बच्चे से पचास-साठ रूपये फीस मिलती थी। उम्मुल बताती हैं, दोपहर तीन बजे स्कूल से लौटने के बाद बच्चों को पढ़ाने बैठ जाती थी। रात नौ बजे तक ट्यूशन क्लास चलती थी। इसके बाद रात में खुद की पढ़ाई करती थी।      उनकी कमाई से घर का खर्च चलने लगा। वह घर चलाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही थीं, पर नई मां खुश नहीं थीं। उनकी बेटी के स्कूल जाने पर घोर आपत्ति थी। जैसे ही उन्होंने आठवीं कक्षा पास की, मम्मी ने चेतावनी दे दी कि अब तुम स्कूल जाना बंद कर दो। हम तुम्हारे निकाह की तैयारी कर रहे हैं। पर उम्मुल शादी के लिए बिल्कुल राजी न थीं। वह पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी करना चाहती थीं। सबसे दुखद बात यह थी कि पापा ने भी मम्मी का साथ दिया। जब वह नहीं मानी, तो पापा ने कह दिया कि अगर तुम पढ़ाई नहीं छोड़ोगी, तो तुम्हें वापस राजस्थान भेज देंगे। यह सुनकर उम्मुल घबरा गईं। लगा एक बार गांव वापस गई, तो पढ़ना-लिखना असंभव हो जाएगा। उम्मुल बताती हैं, मेरा परिवार पुराने ख्यालात का था। उन्हें लगता था कि स्कूल जाने वाली लड़कियां बड़ों का सम्मान नहीं करती हैं।      बेटी की पढ़ाई को लेकर परिवार में आए दिन हंगामा होने लगा। उनको राजस्थान भेजने की तैयारी होने लगी। पर अब उम्मुल बागी हो चुकी थीं। उन्होंने परिवार से अलग रहकर पढ़ाई करने का फैसला किया। ट्यूशन से इतनी कमाई होने लगी थी कि उनके जरूरी खर्चे निकल जाते। वह उसी बस्ती में किराये पर घर लेकर रहने लगीं। बेटी इस तरह बागी हो जाएगी, किसी ने नहीं सोचा था। पर उम्मुल को किसी की परवाह नहीं थी। उनका पूरा फोकस अपनी पढ़ाई पर था। बस्ती के कुछ लोग उन पर तंज कसने लगे। देखो, कैसी लड़की है, मां-बाप से अलग रहती है? पढ़ाई में होशियार थी, इसलिए स्कूल से स्काॅलरशिप मिल गई। इस दौरान उम्मुल के पैरों में काफी तकलीफ रहने लगी। डाॅक्टर ने बताया कि उन्हें हड्डियों की गंभीर बीमारी है। उम्मुल बताती हैं, मेरी हड्डियां इतनी कमजोर हैं कि जरा सी चोट लगने पर टूट जाती हैं। कई बार मेरी हड्डियां टूट चुकी हैं। काफी समय व्हील-चेयर पर रहना पड़ा। आॅस्टियो जेनेसिस बीमारी के चलते उसकी हड्डियां बार-बार टूट जाती हैं। 28 की उम्र तक उसे 16 फ्रैक्चर व आठ सर्जरी का सामना करना पड़ा, पर उसने हार नहीं मानी।      तमाम मुश्किलों के बावजूद 10वीं व 12वीं में काॅलेज टाॅप किया। चूंकि बोर्ड में अच्छे अंक मिले थे, इसलिए दिल्ली यूनिवर्सिटी में आसानी से दाखिला मिल गया। उम्मुल ने अप्लाइड साइकोलाॅजी में बीए किया। इसके बाद जेएनयू से इंटरनेशनल रिलेशन्स में एमए। जेएनयू में आने के बाद उन्होंने बस्ती छोड़ दी। उम्मुल बताती हैं, जेएनयू ने मेरी जिंदगी बदल दी। यहां मुझे अच्छे माहौल में रहने का मौका मिला। मेस में बढ़िया खाना मिलने लगा। इस दौरान मैंने दिव्यांग बच्चों के लिए काफी काम किया। सामाजिक कार्यों के दौरान कई बार विदेश जाने का मौका भी मिला। फिर उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी। सपना पूरा हुआ। इस साल पहली ही कोशिश में उनका आईएएस बनने का सपना पूरा हो गया। उम्मूल कहती हैं- नतीजे आने के बाद मैंने पहला फोन मम्मी-पापा को किया। अब मैं उन्हें अपने साथ रखूंगी। मेरी कामयाबी पर उनका पूरा हक है। आईएएस 2017 के नतीजों के बाद उम्मुल हौसले की नई मिसाल बन गई है। आईएएस 2017 के परिणाम में उसने 420वें पायदान पर जगह बनाकर सारे हालात को हरा दिया। वह सब प्रशासनिक अधिकारी बनकर जरूरतमंद और शारीरिक दुर्बलताओं से जूझ रही महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती है। प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी साभार: हिन्दुस्तान संकलन: प्रदीप कुमार सिंह रिलेटेड पोस्ट  नहीं पता था मेरी जिद सुर्ख़ियों में छा जायेगी तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था फीयरलेस वुमन तला रासी -मिनी स्कर्ट पर कोड़े खाने के बाद बनी स्विम वीयर डिजाइनर हम कमजोर नहीं है – रेप विक्टिम से रैम्प पर उतरने का सफ़र काश मेरे मुल्क में भी शांति होती – मुजुन अलमेलहन यूएन कीगुड विल ऐम्बेस्डर   अनूठी है शिखा शाह की कारीगरी

काश, मेरे मुल्क में भी शांति होती- मुजून अलमेलहन, यूएन की गुडविल अंबेसडर

            मुजून सीरिया के शहर डारा में पली-पढ़ीं। पापा स्कूल टीचर थे। उन्होंने अपने चारों बच्चों (दो बेटे और दो बेटियों) की पढ़ाई को सबसे ज्यादा तवज्जो दी। सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक देश में गृह युद्ध छिड़ गया। सरकार और कट्टर इस्लामी ताकतें एक-दूसरे पर हमले करने लगीं। देखते-देखते डारा शहर तबाही के कगार पर पहुंच गया। स्कूल और सरकारी इमारतों पर बम बरसने लगे। तमाम लोग मारे गए। हर पल खौफ में बीत रहा था। हजारों लोग घर छोड़कर चले गए। तब मजबूरन मुजून के परिवार ने सीरिया छोड़कर जाॅर्डन में शरण लेने का फैसला किया। यह वाकया फरवरी, 2013 का है।             मम्मी-पापा ने जरूरी सामान बांधा और चल पड़े जाॅर्डन की ओर। बच्चे भी सदमे में थे। पूरे रास्ते सब शांत रहे। किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा। मन में एक ही बात थी कि किसी तरह सुरक्षित जाॅर्डन पहुंच जाएं। वह आधी रात का वक्त था, जब वे सब जाॅर्डन की सीमा में दाखिल हुए, तो उन्हें जातारी शरणार्थी शिविर में जगह मिली। अचानक जिंदगी बदल गई। शिविर में हजारों लोग पहले से मौजूद थे। खाने-पीने और इलाज लोग सीमित सुविधाओं में गुजारा करना पड़ा। करीब तीन साल जाॅर्डन में गुजारे। इस दौरान कई बार शरणार्थी कैंप बदलने पड़े। वह घोर अनिश्चितता का दौर था। सीरिया में हालात लगातार बदतर होते गए। वापस जाने की उम्मीदें धूमिल पड़ने लगी थीं। मुजून कहती हैं कि जब मुल्क छोड़ा था, तब सोचा था कि कुछ दिनों के बाद हालात सामान्य हो जाएंगे और हम लौट जाएंगे। पर लौटने की उम्मीदें खत्म होती गई।             इस बीच सीरिया छोड़कर जाॅर्डन आने वालों की संख्या बढ़ रही थी। अब शरणार्थियों को रोकने की कवायद शुरू हो गई। एक तरफ मम्मी-पापा भविष्य की आशंकाओं से जूझ रहे थे, तो दूसरी तरफ मुजून शरणार्थी कैंप की बच्चियों की समस्याओं से रूबरू हो रही थी। यहां उनकी मुकाकात ऐसी बच्चियों से हुई, जिनकी पढ़ाई छूट चुकी थी। मां-बाप उनके निकाह की तैयारी कर रहे थे। उन्हें यह बात बड़ी अजीब लगी। उनके पापा तो हमेशा से बेटियों को पढ़ाना चाहते थे। शरणार्थी कैंपों में अस्थायी स्कूल भी चलते थे। मुल्क छोड़ने के बाद भी पापा ने बच्चों की पढ़ाई जारी रखी। वह और उनके भाई-बहन कैंप के अस्थायी स्कूल में पढ़ने लगे। पर वहां कुछ माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल भेजने की बजाय उन्हें घर के कामकाज सिखाते थे। मुझे उन लड़कियों पर बड़ा तरस आता था। मैंने उनके मम्मी-पापा से कहा कि वे उन्हें स्कूल भेेजें। कुछ लोग इस बात पर नाराज भी हो गए। उन्हें लगता था कि बेटियों का पढ़ना-लिखना फिजूल है। पर कुछ लोगों को मेरी बात ठीक भी लगी।             मुजून शरणार्थी कैंपों में घूमकर बच्चियों को स्कूल जाने के लिए प्रेरित करने लगीं। यही नहीं, उन्होंने कई लड़कियों का निकाह भी रूकवा दिया। पापा उनके इस काम से बहुत खुश थे। जल्द ही जाॅर्डन के शरणार्थी शिविरों में उनकी चर्चा होने लगी। उन दिनों दुनिया में पाकिस्तान की सामाजिक कार्यकर्ता मलाला यूसुफजई की खूब चर्चा हो रही थी। तभी खबर आई कि मलाला जाॅर्डन के शरणार्थी शिविर में आने वाली हैं। मुजून बताती हैं कि मलाला हमारे शिविर में आई। उनसे मिलना सपने जैसा था। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम बहुत नेक काम कर रही हो।             इसी बीच मुजून के परिवार को कनाडा और स्वीडन में बसने का प्रस्ताव मिला। पर उनके पिता वहां जाने को राजी नहीं हुए। दरअसल, अपने मुल्क को छोड़कर जाॅर्डन में रहना पहले से ही काफी मुश्किल था। अब एक बार फिर किसी नए मुल्क में जाने का ख्याल काफी डराने वाला था। मन में खौफ था कि पता नहीं, नए मुल्क में किस तरह के हालात हों? खासकर बेटियों को लेकर उनके मन में तमाम आशंकाएं थीं। मुजून स्वभाव से काफी निडर थीं। शरणार्थियों के लिए काम कर रही अंतरराष्ट्रीय संस्था यूनीसेफ के सदस्यों से उनकी मुलाकात हुई। फिर वह यूनीसेफ की टीम के साथ मिलकर बच्चियों की शिक्षा के लिए काम करने लगीं।         दूसरी तरफ, सीरिया में हालात सुधरने की उम्मीद लगभग खत्म होने लगी थी। यह बात भी साफ थी कि अब जाॅर्डन में ज्यादा दिन रहना मुमकिन नहीं है। इसलिए मुजून ब्रिटेन में शरण पाने की संभावनाएं तलाशने लगीं। सितंबर, 2015 में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने बीस हजार सीरियाई शरणार्थियों को शरण देने का एलान किया। मुजून ने पापा से बात की। वह ब्रिटेन जाने को राजी हो गए। उनका परिवार जाॅर्डन से लंदन पहुंचने वाला पहला सीरियाई शरणार्थी परिवार था। लंदन में भी उनकी पढ़ाई जारी रही। मुजून पत्रकार बन शरणार्थियों की कहानिया दुनिया तक पहुंचाना चाहती हैं। हाल में संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें अपना गुडविल अंबेसडर बनाया है। वह सबसे कम उम्र की महिला शरणार्थी हैं, जिन्हें यह जिम्मेदारी मिली है।  मुजून कहती हैं कि मैं चाहती हूं कि पूरी दुनिया में बेटियों को पढ़ने का मौका मिले। किसी लड़की की कम उम्र में शादी नहीं हो। मुजून कहती हैं, मैं चाहती हूं कि बेटियों को पढ़ने का पूरा मौका मिले। किसी लड़की की कम उम्र में शादी नहीं होनी चाहिए। यह सपना जरूर पूरा होगा। प्रस्तुति – मीना त्रिवेदी साभार-  हिन्दुस्तान संकलन – प्रदीप कुमार सिंह   नहीं पता था मेरी जिद सुर्ख़ियों में छा जायेगी तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था फीयरलेस वुमन तला रासी -मिनी स्कर्ट पर कोड़े खाने के बाद बनी स्विम वीयर डिजाइनर हम कमजोर नहीं है – रेप विक्टिम से रैम्प पर उतरने का सफ़र

नहीं पता था मेरी जिद सुर्खियों में छाएगी – प्रियंका भारती, सामाजिक कार्यकर्ता

             प्रियंका तब 14 साल की थीं। यह बात 2007 की है। उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के एक छोटे से गांव की रहने वाली यह बच्ची उन दिनों पांचवी कक्षा में पढ़ रही थी। गांव की बाकी लड़कियों की तरह उसकी भी शादी हो गई। मां और सहेलियों का साथ छूटने के ख्याल से वह खूब रोईं। मां ने समझाया, क्यों चिंता करती हो? अभी तो बस शादी हो रही है, गौना पांच साल बाद होगा। तब तक तुम हमारे साथ ही रहोगी। मन को तसल्ली मिली। शादी के दिन सुंदर साड़ी और गहने मिले पहनने को। बहुत अच्छा लगा प्रियंका को। दो दिन के जश्न के बाद बारात वापस चली गई। प्रियंका खुश थीं कि ससुराल नहीं जाना पड़ा।             शादी के बाद पढ़ाई जारी रही। इस बीच मां उन्हें घर के कामकाज सिखाने लगीं। देखते-देखते पांच साल बीत गए। अब वह बालिग हो चुकी थीं। गौने की तैयारियां शुरू हो गईं। आखिर विदाई की घड़ी आ ही गई। यह बात 2012 की है। एक छोटे समारोह के बाद उनकी विदाई हो गई। ससुराल पहुंचीं, तो अगली ही सुबह एक बड़ी दिक्कत से सामना हुआ। उन्होंने झिझकते हुए सास से पूछा, मां जी, शौचालय जाना है। सास ने कहा, कुछ देर रूको, मैं चलती हूं तुम्हारे साथ। उन्हें अजीब लगा। सास उनके साथ कहां जाने की बात कर रही हैं? थोड़ी देर बाद सास के साथ बहू चल पड़ी खेत की ओर। तब जाकर पता चला कि घर में शौचालय नहीं है। पगडंडियों का रास्ता कठिन था। खेतों में पानी भरा था। पगडंडी पर फिसलन काफी ज्यादा थी। सुर्ख लाल साड़ी में लिपटी नई-नवेली बहू राहगीरों के लिए उत्सुकता का विषय थी।  प्रियंका बताती हैं- मेरे एक हाथ में लोटा था और दूसरे हाथ से मैं घूंघट संभाल रही थी। कई लोग मुझे पलटकर देख रहे थे। मुझे बड़ी शर्म आ रही थी।             पहली सुबह किसी तरह बीती। उस दिन उन्होंने पति और सास से कई बार कहा, घर में शौचालय बनना चाहिए। मगर किसी ने ध्यान नहीं दिया। गांव में शौच के लिए बाहर जाना आम बात थी। ससुराल वालों को शौचालय बनवाने की मांग गैर-जरूरी लगी। इसी तरह दो दिन बीत गए। फिर उन्होंने पति से साफ कह दिया कि उन्हें शौच के लिए घर के बाहर जाना मंजूर नहीं है। प्रियंका बताती हैं, तीसरे दिन मैंने बाहर जाने से मना कर दिया। मेरे पेट में दर्द होने लगा। मैंने तय कर लिया था कि जब तक घर में शौचालय नहीं बनेगा, मैं शोच नहीं जाऊंगी। इस बीच रस्म के मुताबिक उनका भाई ससुराल आया। प्रियंका अपने सामान की पेटी लेकर भाई के सामने खड़ी हो गईं और बोली- मैं भी चलूंगी तुम्हारे साथ। भाई ने खूब समझाया। ससुराल वालों ने कहा कि गांव में सभी महिलाएं बाहर शौच को जाती हैं, फिर तुम्हें इतनी दिक्कत क्यों हैं?             मगर प्रियंका ने एलान कर दिया कि जब तक शौचालय नहीं बनेगा, वह ससुराल नहीं लौटेंगी। उधर मायके वालों को बेटी का यूं इस तरह ससुराल छोड़कर आना अच्छा नहीं लगा। मां ने भी कहा कि यह जिद ठीक नहीं है। सबका एक ही सवाल था, अगर तुम्हारी सास और ननद बाहर शौच के लिए जा सकती हैं, तो तुम क्यों नहीं? पूरे गांव में खबर फैल गई कि प्रियंका ससुराल से भाग आई है। कुछ लोग ने यह अफवाह भी उड़ा दी कि इस लड़की का गांव में किसी से प्रेम-प्रसंग है, इसलिए वह अपने पति को छोड़कर भाग आई है। रिश्तेदार ताने मारने लगे।             मगर प्रियंका जिद पर अड़ी रहीं। इस बीच ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय पर काम करने वाले एक एनजीओ टीम प्रियंका के घर पहुंची। टीम ने उनके कदम की तारीफ करते हुए कहा कि आपने ससुराल छोड़कर बड़ी हिम्मत दिखाई। अगर गांव की हर बहू-बेटी ऐसा फैसला करने लगे, तो हर घर में शौचालय बन जाएगा। उन्होंने घरवालों को भी समझाया कि आपकी बेटी ने ससुराल छोड़कर कोई गलती नहीं की है। उसकी जिद जायज है। एनजीओ ने प्रियंका के ससुरालवालों से संपर्क किया और अपने खर्च पर उनके घर में शौचालय बनावाया। इसके बाद प्रियंका की ससुराल वापसी हुई। इस मौके पर एक बड़ा समारोह हुआ, जिसमें शौचालय का उद्घाटन किया गया।  प्रियंका बताती हैं, मुझे नहीं पता था कि मेरी जिद सुर्खियां बन जाएगी। जब ससुराल लौटी, तो गांव में भोज हुआ। मुझे मंच पर बुलाकर सम्मानित किया गया। ससुराल वाले भी घर में शौचालय बनने से बहुत खुश थे।             इस घटना के कुछ समय बाद एनजीओ ने उन्हें अपना ब्रांड अंबेस्डर बना लिया। उनकी कहानी पर एक विज्ञापन फिल्म भी बनी, जिसमें प्रियंका को अभिनेत्री विद्या बालन के साथ दिखाया गया। विज्ञापन की शूटिंग के लिए प्रियंका मुंबई गईं। इस समय वह स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। पिछले पांच साल से वह गांव-गांव जाकर ग्रामीणों को घर में शौचालय बनवाने और बेटियों को पढ़ाने का संदेश दे रही हैं। वह सिलाई केंद्र भी चलाती हैं, जहां महिलाओं को सिलाई की ट्रेनिंग दी जाती है। इस काम में उनके पति भी सहयोग करते हैं। प्रियंका बताती हैं- अब मेरा एक ही सपना है गांवों में साफ-सफाई रहे, महिलाओं को शौच के लिए बाहर न जाना पड़े और हर बेटी को पढ़ने का मौका मिले। फोटो क्रेडिट – लल्लन टॉप  प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी साभार: हिन्दुस्तान संकलन: प्रदीप कुमार सिंह  

अनूठी है शिखा शाह की कारीगरी

            सेंट्रल पाॅल्यूशन कंट्रोल बोर्ड आॅफ इंडिया के फरवरी 2015 के आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रतिदिन 1.4 लाख टन कचरा उत्पन्न होता है। इस कचरे में बहुत सा हिस्सा बोतलों, गत्ते, डिब्बे, प्लास्टिक का सामान, विभिन्न उद्योगों से निकले कबाड़ का भी होता है। शहरों में इन सबके ढेर के ढेर लगे देखना कोई नई बात नहीं है। यह जानते हुए भी कि इस तरह हर दिन इकट्ठा होता कचरा एक दिन हमारे घर के सामने तक पहुंच जाएगा, हम इसमें बढ़ोतरी करते जाते हैं। पर, बनारस की शिखा शाह की परवरिश और शिक्षा कुछ ऐसी हुई कि उन्हें इस बढ़ती समस्या से अनजान बने रहना मंजूर ना हुआ और उन्होंने एक सार्थक पहल की। स्क्रैपशाला की शुरूआत             इस तरह शुरू हुआ उनका छोटा सा स्टार्टअप, जिसका नाम रखा गया स्क्रैपशाला। शिखा की राय में लगातार बढ़ते कबाड़ से निजात तभी मिलेगी जब हम उसे कम करने की सोचें। कचरे का दोबारा उपयोग करने के तरीके खोजने होंगे उसे रिसाइकल करना होगा। इसके लिए वह अपने स्टार्टअप के जरिए कोशिश में लगी हैं। उनकी यह अनोखी सोच कई लोगों के लिए प्रेरणा बनी है। छोड़ दी कमाऊ नौकरी             पर्यावरण विज्ञान से मास्टर्स करने के बाद शिखा को अपने प्रोजेक्ट्स और नौकरियों की वजह से गांवों की समस्याओं के बारे में करीब से जानने का मौका मिला। आईआईटी, मद्रास में अपनी नौकरी के दौरान वह कई छोटे-बड़े उद्यमियों से मिलीं और स्टार्टअप की चुनौतियों को समझने का मौका मिला। वहां से कुछ अपना और सार्थक करने का विचार आया। वह नौकरी छोड़कर अपने शहर बनारस आ गई और स्क्रैपशाला शुरू करने की योजना बनाई। शिखा बताती हैं कि बचपन से ही उन्होंने अपनी मां को चीजों को रिसाइकल करते देखा था। वह कबाड़ कम से कम निकालने पर जोर देती थीं और कई बार घर के पुराने हो रहे सामान को सजा-धजाकर नया कर देतीं। यह सब शिखा के लिए उनकी स्टार्टअप की प्रेरणा बने और स्क्रैपशाला में अपसाइकलिंग का काम शुरू हुआ। कम नहीं थी चुनौतियां             शिखा बताती हैं, ‘स्क्रैपशाला के काॅन्सेप्ट को लेकर घर में किसी ने तुरंत हां नहीं की थी। शुरूआत में थोड़ी असहमति थी। लेकिन मां मेरे साथ आई और मेरी सहेली भी और एक बार शुरूआत होने पर सभी का सपोर्ट मिला। पुराने सामान और कचरे को नए रूप में लाना भी आसान काम नहीं होता। उसे साफ करना, डिजाइन करना भी एक चुनौती होती है। कचरे को लेकर वैसे भी लोगों में एक पूर्वधारणा होती है। तैयार सामान को लेकर लोगों में पहले डाउट था। फिर जब प्रोडक्ट्स पसंद किए गए, तो अब सबका सहयोग मिल रहा है।’             चुनौतियां और भी थीं, जैसे जगह, कारीगर और मैटीरियल। मां मधु शाह और सहेली कृति सिंह के साथ शिखा ने अपने घर से शुरूआत की। आज उनके पास पूरी टीम है। अपसाइकलिंग यानी पुरानी चीजों को नया रूप देने के लिए चीजें शुरूआत में उनके घर से ही मिलीं। शिखा बताती हैं कि अब पड़ोसियों, दोस्तों और परिचितों… सबको ध्यान रहता है। शिखा कहती हैं, ‘अब तो लोग कूरियर से भी मुझे चीजें भेज देते हैं। दोस्त कोई बेकार सामान फेंकने से पहले पूछ लेते हैं।’ कई लोगों के लिए गढ़ा रोजगार             शिखा की टीम में आज कई लोग हैं। हालांकि वे खुद भी डिजाइन करती हैं, लेकिन उनकी टीम के कारीगर भी अपने तरीके से इसमें योगदान देते हैं। वे बताती हैं, ‘अब हमारी बड़ी टीम है। इसमें आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के भी लोग हैं। उन्हंे यहां एक नियमित आय मिल रही है और सबको अपने ढंग से क्रिएटिव वर्क की पूरी छूट है।’ क्या हैं उत्पाद             आज शिखा की स्क्रैपशाला बनारस ही नहीं, पूरे देश में एक जाना-पहचाना नाम है। यहां पुराने टायर से खूबसूरत फर्नीचर, चाॅकलेट-बिस्किूट के रैपर से बने खूबसूरत बैग्स, शीशे की बोतलों से लैंपशेड्स, प्लास्टिक की बोतलों से गमले, पुरानी केतली का सजावटी रूप और पुराने गत्ते से वाॅल डेकोरेशन के आइटम्स जैसी कई चीजें बनाई जा रही हैं। उनके प्रोडक्ट्स आॅफलाइन और आॅनलाइन उपलब्ध हैं। इसे और आगे ले जाने की योजना है। घर में करें यूं कबाड़ कम             शिखा बताती हैं कि उनके घर में कचरा ना के बराबर निकलता है। इसके लिए वे कुछ टिप्स देती हैं- 1. प्लास्टिक की बोतलों में पानी भरने पर अगर गर्मी हो, तो उसमें हानिकारक तत्व बनते हैं। इसलिए, घर में साॅस, शर्बत बगैरह की शीशे की बोतलें खाली हों तो उन्हें साफ करके पानी भरकर फ्रिज में रखें। 2. घर में टूथब्रश प्लास्टिक के ना लेकर आप लकड़ी के लें। ये मार्केट में उपलब्ध हैं। इससे आपको उन्हें रिसाइकल करने में आसानी होगी। 3. साबुन, शैंपू वगैरह के रीफिल पैक लेंगी, तो बोतलों का कचरा कम निकलेगा। 4. गीले कचरे को कंपोस्ट (खाद) बना दें। 5. कबाड़ को संस्थाओं को दान कर दें। उसे रिसाइकल कैसे करें, इसकी वर्कशाॅप में जाएं। प्रस्तुति: प्रतिभा पाण्डेय साभार: हिन्दुस्तान संकलन – प्रदीप कुमार सिंह

क्रांति ने मुश्किलें दी खेल से मिला प्यार – नादिया कोमानेची की अपनी कहानी

             मेरा जन्म 12 नवंबर, 1961 को रोमानिया के एक छोटे से शहर ओनेस्टी में हुआ था। जल्द ही मेरे माता-पिता अलग रहने लगे। बचपन में मैं बहुत ऊर्जावान और चंचल बच्ची थी, जिसे काबू में रखना आसान नहीं था। इसलिए मेरी मां ने मुझे जिमनास्ट सीखने एक स्थानीय टीम में भेजा। छह वर्ष से ही प्रशिक्षण             जब में कुछ वर्ष की थी, तो मशहूर प्रशिक्षण कारोली ने मुझे तलाशा। दरअसल वह किसी ऐसे जिमनास्ट की तलाश में थे, जिसे वह शुरू से सिखा सकें। शुरू में मुझे बस जिम से परिचय कराया गया। वह जगह मुझे बेहद पसंद आई, क्योंकि वह हाईटेक खेल के मैदान की तरह थी, जहां मैट्स के साथ कई चीजें थीं, जिससे मैं लटक सकती थी। जिम मुझे इतना पसंद था कि मेरी मां अक्सर मुझे धमकाती थी कि अगर तुमने स्कूल में अच्छे ग्रेड नहीं लाए, तो तुम्हारा जिम जाना बंद हो जाएगा। इस तरह वह मुझे पढ़ाई में भी अच्छा करने के लिए प्रेरित करती थीं। चैदह की उम्र में परफेस्ट 10             वर्ष 1970 से मैंने अपने गृहनगर की टीम में प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और रोमानियन नेशनल जीतने वाली सबसे कम उम्र की जिमनास्ट बन गई। 14 वर्ष की उम्र में मैंने मांट्रियल में हुए 1976 के समर ओलंपिक में परफेक्ट 10 स्कोर हासिल किया और तीन गोल्ड मेडल जीते। आधुनिक ओलंपिक के इतिहास में पहली बार किसी को परफेक्ट 10 मिला था। वर्ष 1975 में यूरोपियन चैंपियनशिप और 1976 में अमेरिकन कप भी मैंने जीता। 1980 के ओलंपिक में भी मैंने दो गोल्ड मेडल जीता। अमेरिकी जिमनास्ट से विवाह             क्रांति के कारण रोमानिया में रहना जब मुश्किल होने लगा, तो मैं 1989 में अमेरिका आ गई। उस क्रांति ने राष्ट्रपति निकोलाइ चाउसेस्कु की सरकार की उखाड़ फेंका। 1996 में मैंने अमेरिकी जिमनास्ट बार्ट कोनर से शादी कर ली। बार्ट कोनर से मैं पहली बार 1976 में ही मिली थी, खेल के कारण ही मुझे मेरा प्यार मिला। मैं समझती हूं कि खेल लोगों को करीब लाने का काम करता है। लेकिन हमने शादी बुखारेस्ट में की, जब अपना वतन छोड़ने के बाद पहली बार मैं वहां गई थी। वर्ष 2001 में मुझे अमेरिकी नागरिकता मिल गई। अब मैं और कोनर मिलकर एक एकेडमी चलाते हैं। हमारी एकेडमी में 1,500 बच्चे हैं। शुरूआत  में बच्चों को जिमनास्ट का प्रशिक्षण देना अच्छा है, भले ही बाद में वे चाहे जो करें, बच्चों को जिमनास्ट इसलिए अच्छा लगता है, क्योंकि वे झटका देना चाहते हैं, उड़ना चाहते हैं। रिटायरमेंट के बाद जीवन             1984 मैं रिटायर हो गई और अमेरिका आने से पहले रोमानियाई टीम के कोच के रूप में काम किया। जब मैं जिमनास्ट कर रही थी, तब उपकरण अलग तरह के थे। तब जिमनास्ट करना काफी कठिन था, क्योंकि फ्लोर मैट काफी सख्त होता था। अब फ्लोर मैट में स्प्रिंग होता है। यहां तक कि इन दिनों जिन वाॅल्ड टेबल का उपयोग होता है, वे ज्यादा सुरक्षित, चैडे़ होते हैं और उनमें स्प्रिंग लगे होते हैं, जो जिमनास्ट की बहुत ऊंचाई तक छलांग में मददगार होते हैं।                         हाल में भारत आई रोमानिया की जिमनास्ट नादिया कोमानेची के विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित साभार: अमर उजाला प्रेषक – प्रदीप कुमार सिंह पाल  साक्षात्कार :तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था- आशा खेमका, सीईओ और प्रिंसिपल

साक्षात्कार :तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था- आशा खेमका, सीईओ और प्रिंसिपल

          हौसले बुलंद हों तो इनसान क्या नहीं कर सकता | ऐसी ही एक स्त्री है आशा खेमका जो  सीईओ और प्रिंसिपल’’ के पड़ पर सुशोभित हैं | अनेकों अवार्ड जीत चुकी आशा जी को  हाल में उन्हें ‘एशियन बिजनेस वूमन आॅफ द ईयर’ के अवाॅर्ड से सम्मानित किया गया।आशा जी के छोटी उम्र में विवाह व् तीन बच्चों की माँ बनने  के बाद भी अपने सपनों को मरने नहीं दिया | निरंतर मेहनत से स्वयं को निखारते हुए वो मुकाम हासिल किया जो किसी के लिए भी दुर्लभ है | हालांकि ये इतना आसान नहीं था | जैसा की आशा जी बताती है की जब वो ब्रिटेन में अपने पति के साथ आई थी तब उन्हें अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था | तो कैसे हुआ ये चमत्कार ? पढ़िए आशा जी की कहानी उन्ही की जुबानी | साथ ही आभार व्यक्त करते हैं प्रदीप कुमार सिंह जी का जिन्होंने हर महिला को प्रेरणा देने वाले इस साक्षात्कार को हमारे लिए संकलित किया है |  उन दिनों आशा 13 साल की थीं। पढ़ाई में खूब मन लगता था उनका। लेकिन एक दिन अचानक उनका स्कूल जाना बंद करवा दिया गया। कहा गया, पढ़कर क्या करोगी? अब तुम घर के काम-काज सीखो। शादी के बाद घर ही तो संभालना है तुम्हें। उनका परिवार संपन्न था। पिताजी का बिहार के चंपारण शहर में अपना फलता-फूलता कारोबार था। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। परिवार में सबका मानना था कि महिलाओं को घर संभालने चाहिए और मर्दों को व्यापार। इसीलिए बेटियों को पढ़ने का रिवाज नहीं था। उन्हें बस इतना ही पढ़ाया जाता कि वे किताब पढ़ सकें और खत लिख सकें। 14-15 साल की उम्र में लड़कियों की शादी करा दी जाती थी।             बात 1966 की है। तब आशा 15 साल की थीं। अचानक एक दिन मां ने उन्हें एक सुंदर सी साड़ी थमाते हुए कहा- ‘आज तुम्हें कुछ लोग देखने आ रहे हैं। इस पहनकर तैयार हो जाओ।’ आशा हैरान थीं। कौन आ रहा है घर में ? पूछने पर पता चला कि परिवार ने उनकी शादी का फैसला किया था। वह आगे पढ़ना चाहती थीं, पर किसी ने उनकी बात नहीं सुनी। आशा चुपचाप सज-धजकर ड्राइंग रूप में बैठ गई। लड़के वाले आए, उन्हें पसंद किया और शादी पक्की हो गई। परिवार में सब खुश थे। खासकर मां। उन्होंने चहककर बताया- ‘तेरा होने वाला दूल्हा मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है। कुछ दिनों में वह डाॅक्टर बन जाएगा और तू डाॅक्टरनी।’ मगर आशा बिल्कुल खुश नहीं थीं। ससुराल जाने के ख्याल से खूब रोईं। मां ने समझाया, ‘तेरे ससुराल वाले बहुत अच्छे हैं। सुखी रहेगी तू वहां।’             मां की बात सही साबित हुई। वाकई उन्हें ससुराल में बहुत अच्छा माहौल मिला। पति को पढ़ने का बड़ा शौक था। वह चाहते थे कि उनकी पत्नी भी पढ़ी-लिखी हो। उन्होंने पत्नी को आगे पढ़ाई के लिए प्रेरित किया। इस बीच आशा तीन बच्चों की मां बनीं। आशा बताती हैं- ‘21 साल की उम्र में मैं पहले बच्चे की मां बनी। अगले तीन साल में दो और बच्चे हुए। इस तरह 24 साल में मैं तीन बच्चों की मां बन गई। एक साथ तीन छोटे बच्चों को संभालना मुश्किल था। मगर इस दौरान परिवार के लोगों ने मेरा बहुत साथ दिया।’             वर्ष 1978 में उनके पति को ब्रिटेन के एक बड़े अस्पताल में सर्जन की नौकरी मिल गई। शुरूआत में आशा विदेश जाने के ख्याल से बहुत उत्साहित नहीं थीं। मगर पति के करियर का सवाल था, इसलिए राजी हो गईं। ब्रिटेन में पति बकिंघम अस्पताल में बतौर आॅर्थोपेडिक सर्जन नौकरी करने लगे। अब आशा को अंग्रेजी का बिल्कुल ज्ञान नहीं था। वह अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं समझती थीं। जबकि पति फराटेदार अंग्रेजी में बातें किया करते। जल्द ही आशा को एहसास हुआ कि ब्रिटेन में सबके साथ घुलने-मिलने के लिए अंग्रेजी सीखना जरूरी है।             पति ने उन्हें अंग्रेजी के टीवी शो देखने की सलाह दी। उनके अंदर अंग्रेजी सीखने की लगन बढ़ती गई। फिर उन्होंने दोबारा पढ़ाई शुरू करने की इच्छा जताई। हालांकि मन में हिचक थी कि पता नहीं, ब्रिटेन की पढ़ाई समझ में आएगी या नहीं? 12वीं तो वह पहले की पास कर चुकी थीं। कार्डिफ यूनिवर्सिटी में स्नातक में दाखिला लिया। आत्म-विश्वास बढ़ता गया। ताज्जुब की बात यह थी कि हिंदी मीडियम से पढ़ी होने के बावजूद उन्हें अंग्रेजी माध्यम के कोर्स समझने में कोई खास दिक्कत नहीं आई। परिवार के लोग उनका हौसला देखकर दंग थे। आशा बताती हैं- ‘यह सब आसान नहीं था, पर मेरे पति ने बहुत सहयोग किया। उन्होंने न केवल मेरा उत्साह बढ़ाया, बल्कि हर कदम पर मेरी मदद भी की। उनके बिना मैं यह मुकाम कभी हासिल नहीं कर पाती।’             पढ़ाई पूरी करने के बाद आशा आॅसवेस्ट्री काॅलेज में पढ़ाने लगीं। अपने छात्रों के लिए वह आदर्श टीचर थीं। एक ऐसी टीचर, जो बच्चों को अतिरिक्त समय देकर उनकी मदद करने को हर पल तैयार रहती। वर्ष 2006 में वह वेस्ट नाॅटिघम काॅलेज की प्रिंसिपल बनीं। यह काॅलेज इंग्लैंड के सबसे बड़े काॅलेजों में एक है। उनके नेतृत्व में काॅलेज ने कामयाबी की नई दास्तान लिखी। उनकी मेहनत की वजह से काॅलेज ब्रिटेन के सर्वाधिक प्रतिष्ठित काॅेलेजों में शुमार होने लगा।             वर्ष 2008 में आशा को ‘आॅर्डर आॅफ ब्रिटिश एम्पायर’ से सम्मानित किया गया। 2013 में उन्हें ब्रिटेन के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘डेम कमांडर आॅफ आॅर्डर आॅफ द ब्रिटिश एम्पायर’ से सम्मानित किया गया। आशा इस सम्मान को पाने वाली दूसरी भारतीय महिला हैं। इससे पहले धार की महारानी लक्ष्मी देवी को 1931 में यह सम्मान मिला था। आशा एक चैरिटेबल ट्रस्ट ‘द इंस्पायर एंेड अचीव फाउंडेशन’ भी चलाती हैं। इस फाउंडेशन का मकसद 16 से 24 साल के युवाओं को शिक्षा और रोजगार में मदद करना है।             हाल में उन्हें ‘एशियन बिजनेस वूमन आॅफ द ईयर’ के अवाॅर्ड से सम्मानित किया गया। आशा कहती हैं- ‘मैं बहुत खुश हूं कि ब्रिटेन में मुझे आगे बढ़ने और कुछ कर दिखाने का मौका मिला। मगर मैं अपनी जड़ों को कभी नहीं भूल सकती। मैं बिहार की रहने वाली हूं और मुझे इस बात पर गर्व है।’ प्रस्तुति: … Read more

उत्साह सबसे बड़ी शक्ति और आलस्य सबसे बड़ी कमजोरी है

– प्रदीप कुमार सिंह, शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक (1)        आलस्य से हम सभी परिचित हैं। काम करने का मन न होना, समय यों ही गुजार देना, आवश्यकता से अधिक सोना आदि को हम आलस्य की संज्ञा देते हैं और यह भी जानते हैं कि आलस्य से हमारा बहुत नुकसान होता है। फिर भी आलस्य से पीछा नहीं छूटता, कहीं-न-कहीं जीवन में यह प्रकट हो ही जाता है। आलस्य करते समय हम अपने कार्यों, परेशानियों आदि को भूल जाते हैं और जब समय गुजर जाता है तो आलस्य का रोना रोते हैं, स्वयं को दोष देते हैं, पछताते हैं। सच में आलस्य हमारे जीवन में ऐसे कोने में छिपा होता है, ऐसे छद्म वेश में होता है, जिसे हम पहचान नहीं पाते, ढूँढ़ नहीं पाते, उसे भगा नहीं पाते; जबकि उससे ज्यादा घातक हमारे लिए और कोई वृत्ति नहीं होती। (2)        आलस्य तो मन का एक स्वभाव है। यह दीखता भी हमारे व्यवहार में है, इसे यों ही पकड़ा नहीं जा सकता। आलस्य को हम दूर भगाना चाहते हैं, इससे दूर जाना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि आलस्य हमें क्यों आ रहा है? यदि हम उन कारणों को दूर कर सकें तो संभवतः आलस्य के नकारात्मक प्रभावों से बच सकते हैं। (3)        सबसे पहले यह समझने का प्रयत्न करते हैं कि आलस्य है क्या? आलस्य-थक जाने को, कुछ नया करने से बचने को या फिर चीजों को टालते रहने की प्रवृत्ति को कहते हैं। प्रश्न उठता है कि वे क्या कारण हैं जिनकी वजह से हमें आलस्य आता है। इसके बारे में मशहूर साइकोएनेलिस्ट लारा डी0 मिलर कहती हैं, कि ‘आलस्य की जरूरत से ज्यादा आलोचना की जाती है। आलसी का ठप्पा लगा देने से इस बात को समझने में कतई मदद नहीं मिलती कि कोई व्यक्ति क्यों वह काम नहीं कर रहा, जो वह करना चाहता है या फिर उसे करना चाहिए। हो सकता है कि आलस्य करने के पीछे किसी तरह का डर छिपा हो। कुछ न करना, असफल होने का डर, दूसरों की अपेक्षाएँ, असंतुष्टि, प्रेरणा की कमी व बहसबाजी से बचने की कोशिश में कुछ न करने के लिए ओढ़ा गया लबादा भी यह हो सकता है। अतः आलस्य का समस्या मानने की जगह उसे अन्य समस्याओं के लक्षण के तौर पर समझना चाहिए।’ आलस्य की समस्या व्यक्ति की ओर एक इशारा यह भी है कि व्यक्ति की सोच यह है कि अब परिस्थितियों को बदला नहीं जा सकता। (4)        मनोविज्ञानिकों के अनुसार, व्यक्तित्व केवल गुण और दोषों से मिलकर नहीं बनता। हमारी जरूरत, काम, मकसद और मंजिल भी इससे जुड़े होते हैं। जो है, केवल वह नहीं, जो हम कर रहे हैं, वह भी व्यक्तित्व का हिस्सा है। कुछ व्यंग्यकारों ने भले ही इसकी तारीफ की हो, कई सुविधाजनक वस्तुओं के आविष्कार की प्रेरणा माना हो, इसे धीरता की निशानी और जिंदगी को आसान बनाने की कला समझा हो, पर सच यही है कि आलस्य की वजह को न ढूँढ़ना और लंबे समय तक जरूरी कामों से बचते रहना अपने कैरियर एवं जिंदगी को कष्टप्रद बना सकता है। (5)        एक सीमा तक आलस्य हमें सुकूनदायक लगता है, खुशी देता है, नुकसान नहीं पहुँचाता, लेकिन समय की उस सीमा के बाद लगातार काम करते रहने से बचना हमें खुशी से ज्यादा दरद देने लगता है, मन को बेचैनी व पछतावे से भरने लगता है; क्योंकि काम न करने से काम का ढेर कम नहीं होता, बल्कि बढ़ता है और धीरे-धीरे यह इतना बढ़ जाता है कि यह हमें अपने बारे में, अपने कार्यों और अपने रिश्तों के बारे में अच्छा महसूस करने नहीं देता। एक तरह से हम आलस्य के कारण नकारात्मकता से घिर जाते हैं और नकारात्मक सोचने लगते हैं। (6)        आलस्य दो प्रकार का होता है- पहला वो, जिसमें व्यक्ति मेहनत करके पहले अपना काम पूरा करता है और फिर कुछ समय बिना कुछ किए आलस्य में बिताना चाहता है। इस तरह का आलस्य नुकसान नहीं पहुँचाता, बल्कि लाभ देता है। जब हमारे जरूरी कार्य पूर्ण हो जाते हैं और बचे हुए समय को हम सुकून से जीते हैं, बिना किसी तनाव के अपने कार्यों को करते हैं तो यह हमें एक तरह से जिंदगी का आनंद देता है। (7)        दूसरा आलस्य वह, जिसमें व्यक्ति के अंदर कुछ करने की प्रेरणा ही नहीं होती। ऐसी स्थिति में व्यक्ति कुछ न कर पाने के कारण बेचैन तो रहते हैं, पर उनमें वह उत्साह नहीं होता, जो उनसे कुछ काम करा ले। कई बार व्यक्ति को यह ही पता नहीं होता कि वह क्या करना चाहता है और यह समझ न पाने के कारण भी वह आलस्य करता है। इस तरह लंबे समय तक कुछ न करना, कामों को टालना, रोजमर्रा के कार्यों को मजबूरी मानते हुए करना-यह कुछ और नहीं, बल्कि मन में जन्म ले रही निराशा के संकेत हैं, जिसके कारण व्यक्ति अपना समय कम मेहनतवाली और उबाऊ चीजों में बिताने लगता है। इस तरह के आलस्य से निपटना बेहद जरूरी है। अपने जीवन से आलस्य को दूर भगाने के लिए हमें थोड़ी मेहनत, मशक्कत तो करनी ही पड़ेगी। (8)        ब्रिटिश लेखक और राजनीतिज्ञ बेंजामिन डिजरायली का इस बारे में कहना था कि ‘काम से हमेशा खुशी मिले, यह जरूरी नहीं, पर यह तय है कि खुशी बिना काम किए नहीं मिल सकती।’ इसलिए जिंदगी को बेहोश करने वाले आलस्य के नशे का त्यागकर जिंदगी की असली खुशी की तलाश करनी चाहिए और यह हमें बिना काम किए नहीं मिल सकती। काम करके ही हम जिंदगी का असली सुकून प्राप्त कर सकते हैं। भले ही हम अपने कार्यों में सफल हों या असफल, यह सोचने के बजाय कार्य करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। कार्य करते समय एक साथ कई काम करने के बजाय एक बार में एक या दो कामों को पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए; क्योंकि इससे हमारे कार्य पूर्ण होंगे और अपने कार्यों को पूरा होते हुए देखने से हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ेगा और खुशी भी। (9)        हमें करने को अनगिनत कार्य होते हैं, जिनके कारण हम यह समझ नहीं पाते कि शुरूआत कहाँ से करें? कैसे करें? इसलिए स्वयं में यह आदत डालनी चाहिए कि अपने समझ उपस्थित कार्यों को हम समेटते और … Read more

इंटरनेट के द्वारा वैश्विक स्तर पर सामाजिक परिवर्तन का जज्बा उभरा है

– प्रदीप कुमार सिंह, शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक             आज हम इंटरनेट तथा सैटेलाइट जैसे आधुनिक संचार माध्यमों से लैस हैं। संचार तकनीक ने वैश्विक समाज के गठन में अहम भूमिका अदा की है। हम समझते हैं कि मानव इतिहास में यह एक अहम घटना है। हम एक बेहद दिलचस्प युग में जी रहे हैं। आओ, हम सब मिलकर एक अच्छे मकसद के लिए कदम बढ़ाएं। पिछले कुछ साल से विभिन्न देशों की दर्दनाक घटनाएं इंटरनेट के जरिये दुनिया के सामने आ रही हैं। इनसे एक बात तो तय हो गई कि चाहे हम दुनिया के किसी भी कोने में हों, हम सब एक ही समुदाय का हिस्सा हैं। इंटरनेट ने मानव समुदाय के बीच मौजूद अदृश्य बंधनों को खोल दिया है। दरअसल हम सबके बीच धर्म, नस्ल और राष्ट्र से बढ़कर आगे भी कोई वैश्विक रिश्ता है और वह रिश्ता नैतिक भावना पर आधारित है। यह नैतिक भावना न केवल हमें दूसरों का दर्द समझने, बल्कि उसे दूर करने की भी प्रेरणा देती है। यह भावना हमें प्रेरित करती है कि अगर दुनिया के किसी कोने में अत्याचार और जुल्म हो रहा है, तो हम सब उसके खिलाफ खड़े हों और जरूरतमंदों की मदद करें।             आज हम पलक झपकते दुनिया भर के लोगों तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं। हमारा संवाद बेहद आसान हुआ है। दुनिया भर की जानकारियाँ हमारी पहुँच में हैं। हमें इन संचार माध्यमों का इस्तेमाल मानवीय भलाई के लिए करना होगा। हमारे लिए ऐसे लोगों को बारे में जानना और समझना आसान हुआ है, जिनसे हम कभी नहीं मिले। हमारे पास संवाद के ऐसे माध्यम उपलब्ध हैं, जिनकी मदद से हम घर बैठे दुनिया भर के लोगों की आपस में मानव जाति की भलाई के लिए संगठित कर सकते हैं। हम आपसी सहयोग से अहम मसलों पर संयुक्त प्रयास कर सकते हैं। आज से सौ साल पहले यह मुमकिन नहीं था। संकल्प शक्ति : आदमी सोंच तोले उसका इरादा क्या है             हम एक विलक्षण युग में जी रहे हैं। आज से दो सौ साल पहले की घटना को याद कीजिए, जब ब्रिटेन में गुलामों के व्यापार को लेकर जबर्दस्त विरोध-प्रदर्शन हुए थे। उस आंदोलन को जनता का पूरा समर्थन मिला था, लेकिन ऐसा होने में 24 साल का लंबा वक्त लगा। काश! उस जमाने में उनके पास आज की तरह ही आधुनिक संचार माध्यम होते। लेकिन पिछले एक दर्शक में बहुत कुछ बदला है। वर्ष 2011 में फिलीपींस में करीब दस लाख लोगों ने वहां की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ मोबाइल पर संदेश भेजकर विरोध किया और सरकार को जाना पड़ा। इसी तरह जिम्बाॅब्वे में चुनाव के दौरान वहां की सत्ता के लिए धांधली करना मुश्किल हो गया, क्योंकि जनता के हाथ में मोबाइल फोन था, जिसकी मदद से वे मतदान केंद्रों की तस्वीरें लेकर कहीं भी भेज सकते थे। बर्मा के लोगों ने ब्लाॅगों के जरिये दुनिया को अपने देश के हालात से अवगत कराया। तमाम कोशिशों के बावजूद वहां की सत्ता आंग सान सू की की आवाज को दबा नहीं पाई।             समस्याओं के हल के लिए सिर्फ संस्थाएं बनाने से बात नहीं बनेगी। हमें लोगों के व्यवहार और सोच को बदलना होगा। हमें देशों के बीच जिम्मेदारी और नैतिकता का भाव जगाना होगा। हमें अमीर और गरीब देशों के बीच स्वस्थ साझेदारी विकसित करनी होगी। हमें देखना होगा कि गरीब देशों के कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़े, ताकि उनकी अर्थव्यवस्था सुधर सके, ताकि अफ्रीका जैसे देश हमेशा के लिए अनाज के आयातक बनकर न रह जाएं। कृषि की स्थिति सुधरे, ताकि अफ्रीका भी अनाज का निर्यात कर सके। दुनिया के कई देश मानवाधिकार हनन की त्रासदी से जूझ रहे हैं, हमें इस दिशा में पहल करनी होगी। हम आधुनिक सूचना व संवाद के साधनों से लैस हैं। हमें यह अवसर नहीं खोना चाहिए। हमें एकजुट होकर इन समस्याओं के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। साहसी महिलाएं हर क्षेत्र में बदलाव की मिसाल कायम कर रही हैं             हमारा मानता है कि आधुनिक तकनीक ने हमें वैश्विक रूप से एकजुट होने की ताकत प्रदान की है। यह पहला अवसर है, जब आम लोगों को दुनिया को बदलने की ताकत मिली है। अब चंद शक्तिशाली लोग मनमाने ढंग से अपने देश की नीति तय नहीं कर सकते। नीतितय करते समय उन्हें लोगों की भावनाओं का ध्यान रखना होगा, जो इंटरनेट के जरिये बाकी दुनिया से जुडे़ हैं। समय के साथ समस्याओं का स्वरूप बदला है। दो सौ साल पहले हमारे सामने दासता से छुटकारा पाने का मुद्दा था, 150 साल पहले ब्रिटेन जैसे देश में बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने जैसा मुद्दा छाया था, सौ साल पहले यूरोप के ज्यादातर देशों में राइट टू वोट का मुद्दा गूंज रहा था। पचास साल पहले सामाजिक सुरक्षा व कल्याण का मुद्दा गरम था। पिछले पचास-साठ वर्षों के दौरान हमारा सामना नस्लवाद और लिंगभेद जैसी समस्याओं से हुआ।             आज का मुद्दा अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद तथा शरणार्थियों की बढ़ती संख्या है। साथ ही गुणात्मक शिक्षा एवं सारे विश्व की एक न्यायपूर्ण तथा युद्धरहित विश्व व्यवस्था बनाने का है। संयुक्त राष्ट्र संघ को लोकतांत्रिक विश्व संसद का रूप प्रदान करके यह साकार किया जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने के लिए सभी देशों के सहमति विश्व सरकार, प्रभावशाली विश्व न्यायालय तथा गुणात्मक शिक्षा आज की आवश्यकता है। इन मद्दों पर अभियान वे लोग चला रहे है, जिनके अंदर दुनिया को बदलने का जज्बा है। आओ, हम सब मिलकर एक अच्छे मकसद के लिए कदम बढ़ाएं।

जीवन में दुःख व कष्ट मिलना प्रभु की असीम कृपा है

– प्रदीप कुमार सिंह, शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक 1. प्रभु के इस विश्वस्त सेवक का नाम है- दुःख:-              प्रभु जब किसी को अपना मानते हैं, उसे गहराइयों से प्यार करते हैं तो उसे अपना सबसे भरोसेमंद सेवक प्रदान करते हैं और उसे कहते हैं कि तुम हमेशा मेरे प्रिय के साथ रहो, उसका दामन कभी न छोड़ो। कहीं ऐसा न हो कि हमारा प्रिय भक्त अकेला रहकर संसार की चमक-दमक से भ्रमित हो जाए, ओछे आकर्षण की भूलभुलैयों में भटक जाए अथवा फिर सुख-भोगों की कँटीली झाड़ियों में अटक जाए। प्रभु के इस विश्वस्त सेवक का नाम है- दुःख। सचमुच वह ईश्वर के भक्त के साथ छाया की तरह लगा रहता है।’’ 2. निस्संदेह यह दुःख ही ईश्वरीय अपनत्व की कसौटी है:-             ज्यों ही जीवन में दुःख का आगमन होता है, चेतना ईश्वरोन्मुखी होने लगती है। दुःख का हर पल हृदय की गहराइयों में संसार की यथार्थता, इसकी असारता एवं निस्सारता की अनुभूति कराता है। इन्हीं क्षणों में सत्य की सघन अनुभूति होती है कि मेरे अपने, कितने पराए हैं। जिन सगे-संबंधियों, मित्रों-परिजनों, कुटुंबियों-रिश्तेदारों को हमें अपना कहने और मानने मंे गर्व की अनुभूति होती थी, दुःख के सघन होते ही उनके परायेपन का सच एक के बाद एक उजागर होने लगता है। इन्हीं पलों में ईश्वर की याद विकल करती है, ईश्वरीय प्रेम अंकुरित होता है। प्रभु के प्रति अपनत्व सघन होने लगता है।’’ 3. दुःख तथा कष्ट में मानवीय संवेदना का समुचित विकास होता है:-                ‘‘प्रभु का विश्वस्त सेवक दुःख अपने साथ न रहे तो अंतरात्मा पर कषाय-कल्मष की परतें चढ़ती जाती हैं। अहंकार का विषधर समूची चेतना को ही डस लेता है। आत्मा के प्रकाश के अभाव में प्रवृत्तियों एवं कृत्यों में पाप और अनाचार की बाढ़ आ जाती है। सत् और असत् का विवेक जाता रहता है। जीवन सघन अँधेरे और घने कुहासे से घिर जाता है। इन अँधेरों की मूच्र्छा में वह संसार के छद्म जाल को अपना समझने लगता है और प्रभु के शाश्वत मृदुल प्रेेम को पराया और तब प्रभु अपने प्रिय को उबारने के लिए उसे अपनाने के लिए अपने सबसे भरोसेमंद सेवक दुःख को उसके पास भेजते हैं।’’ 4. दुःखों को प्रभु के अपनत्व की कसौटी समझकर स्वीकार करना चाहिए:-                  ‘‘जिनके लिए दुःख सहना कठिन है, उनके लिए भगवान को अपना बताना भी कठिन है। ईश्वर के साथ संबंध जोड़ने का अर्थ है- जीवन को आदर्शों की जटिल परीक्षाओं में झोंक देना। प्रभु के प्रति अपनी श्रद्धा को हर दिन आग में तपाते हुए उसकी आभा को नित नए ढंग से प्रदीप्त रखना पड़ता है। तभी तो भगवान को अपना बनाने वाले भक्त उनसे अनवरत दुःखों का  वरदान माँगते हैं। कुुुंती, मीरा, राबिया, तुकाराम, नानक, ईसा, बुद्ध, एमर्सन, थोरो आदि दुनिया के हर कोने रहने वाले परमात्मा के भक्तों ने अपने जीवन में आने वाले प्रचंड दुःखों को प्रभु के अपनत्व की कसौटी समझकर स्वीकार किया और हँसते-हँसते सहन किया। प्रभु ने जिनको अपनाया, जिन्होंने प्रभु को अपनाया, उन सबके हृदयों से यही स्वर गूँजे हैं कि ईश्वरभक्ति एवं आदर्शों के लिए कष्ट सहना, यही दो हाथ हैं, जिन्हें जोड़कर भगवत्प्रार्थना का प्रयोजन सही अर्थों में पूरा हो पाता है।’’ 5. हम स्वयं ही अपने मित्र और स्वयं ही अपने शत्रु हैं:-               हमें अपनी सहायता के लिए दूसरों के सामने गिड़गिड़ाना नहीं चाहिए; क्योंकि यथार्थ में किसी मंे भी इतनी शक्ति नहीं है, जो हमारी सहायता कर सके। हमें किसी कष्ट के लिए दूसरों पर दोषारोपण नहीं करना चाहिए; क्योंकि यथार्थ में कोई भी हमें दुःख नहीं पहुँचा सकता। हम स्वयं ही अपने मित्र और स्वयं ही अपने शत्रु है। अपना दृष्टिकोण हम जिस क्षण भी बदल देंगे तो दूसरे ही क्षण यह भय के भूत अंतरिक्ष में तिरोहित हो जाएँगे। हबडे़ से बड़ा दुःख आने पर घबराना नहीं चाहिए वरन् सबसे पहले अपने से कहना चाहिए कि मैं इसे स्वीकार करता हूं। स्वीकार करते ही वह दुःख छोटा हो जायेगा। स्वीकार करने के बाद उसका हल भी आसानी से निकल आता है। में जीवन में इस संकटमोचन मंत्र को अपनाना चाहिए कि तुझे (हमारे अंदर स्थित प्रभु) लगे जो अच्छा, वही मेरी इच्छा।   तेजज्ञान फाउण्डेशन, पुणे द्वारा आयोजित शिविरों का विवरण