भगवान् ने दंड क्यों नहीं दिया

बहुत समय पहले की बात है भारत के दक्षिण में उस समय राजा चंद्रसेन का राज्य था | यूँ तो राजा चंद्रसेन शैव था पर उसके राज्य में शैव व् वैष्णव दोनों सम्प्रदाय के लोग रहते थे | राजा भी सभी का समान रूप से सम्मान करता था | फिर भी उसके राज्य में शैव और वैष्णव सम्प्रदाय में बहुत झगडे हुआ करते थे | दोनों एक दूसरे की सम्पत्ति व् पूजा स्थलों को नुकसान  पहुँचाया करते थे | राजा इसे रोकने का हर संभव प्रयास करता | लोगों को समझाता पर अन्तत : कोई परिणाम न निकलता | ऐसे लोग बहुधा भीड़ में छुपे रहते जो दूसरों को बरगलाते थे | इस कारण उनको पकड़ना मुश्किल हो जाता | इससे राजा को बहुत दुःख लगता | ईश्वर  का घर भक्त के ह्रदय में है  अक्सर राजा इसी बारे में सोंचता रहता | उसे ये भी लगता की भगवान् उन लोगों को स्वयं दंड क्यों नहीं देता | भगवान् को तो सब पता है वो उन्हें आसानी से दंड दे सकता है | फिर मौन क्यों साध लेता है | इस तरह से मंदिरों को टूटते हुए कैसे देख सकता है | एक दिन राजा यही सोंचते – सोंचते सो गया | उसने स्वप्न में देखा की भगवान् आये हैं | उसने भगवान् को प्रणाम कर उनका स्वागत सत्कार किया व् उनसे यही प्रश्न पूंछा |  राजा के प्रश्न पर भगवान् मुस्कुराते हुए बोले समय आने पर मैं इसका उत्तर दूंगा | यह कहा कर वो अंतर्ध्यान हो गए |  राजा भी अपने राज्य के कामों में लग गया | एक दिन वो अपने दो बेटों के साथ समुद्र के किनारे घूमने गया | उसके बच्चे रेत का घरौदा बनाने में लग गए |दोनों अलग – अलग घरौदा बना रहे थे | दोनों ही घरौंदे  बहुत सुन्दर थे | राजा , रानी के साथ अपने बेटों के घरौंदे देख कर बहुत खुश हो रहा था | तभी अचानक दोनों बच्चों में विवाद छिड  गया की उनका घरौदा दूसरे से बेहतर है | बच्चे अपनी – अपनी बात सिद्ध करने की कोशिश करते रहे | थोड़ी देर में उनमें हाथ पाई हो गयी |  गुस्से  में उन दोनों ने एक दूसरे के घरौंदे तोड़ डाले | व् राजा – रानी के पास आकर बैठ गए | राजा – रानी ने दोनों को  प्यार किया की अरे घरौदे तो रेत के थे | टूट गए तो क्या हुआ | बच्चे खुश हो कर फिर से खेलने लगे |  उसी रात राजा के स्वप्न में भगवान् आये | उन्होंने राजा से कहा ,” राजन , तुमने अपने बच्चों को दंड क्यों नहीं दिया जब उन्होंने एक – दूसरे के घरौंदे तोड़े |  राजा बोला ,” प्रभु आप तो सर्वग्य हैं आप को तो पता है वो बच्चे हैं उनमें समझ नहीं है | वो महल बना रहे थे | जबकि उनका असली महल तो यहाँ है | उनकी इस नादानी का आनद लिया जाता है | इस पर उन्हें दंड थोड़ी ही दिया जाता है |  भगवान् ने मुस्कुरा कर कहा ,” बिलकुल सही, यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है | जो एक – दूसरे के  मंदिर तोड़ रहे थे | भक्त और भगवान का तो अटूट बंधन होता है |वो  नादान हैं उन्हें नहीं पता की मेरा घर मंदिर नहीं भक्तों का ह्रदय हैं | अब तुम ही बताओ मैं उनकी नादानी पर मुस्कुराऊं या उन्हें दंड दूं |  राजा को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया |  दोस्तों , इस प्रेरक कथा में हमारी आज की समस्याओं का भी हल छुपा हुआ है |हम आज भी धर्म के नाम पर लड़ रहे हैं | इसके पीछे इश्वर के प्रति प्रेम नहीं मेरा ईश्वर तेरे ईश्वर से महांन  है का भाव छिपा हुआ है | क्योंकि अगर हमारा  ईश्वर महान है तो उसे मानने  वाले हम अपने आप दूसरे से श्रेष्ठ हो गए | यह केवल अहंकार का तुष्टिकरण है | ये जानते समझते हुए भी कभी – कभी ईश्वर के भक्त आहत होते रहते हैं कि ईश्वर ये सब विद्ध्वंश देखता है फिर भी  उन्हें दंड क्यों नहीं देता | यह कहानी हमारे इसी प्रश्न को शांत करती है | ईश्वर जानते हैं वो नादान हैं | क्योंकि ईश्वर का घर तो भक्तों के ह्रदय में है |  इसीलिए  जो सही में ईश्वर  के भक्त हैं वो इस सत्य को समझते हुए सभी धर्मों का आदर करते हैं |  बाबू लाल  यह भी पढ़ें ……. प्रेरक कथा – दूसरी गलती सजा किसको प्रेरणा बाल मनोविज्ञानं पर  आधारित पांच लघु कथाएँ आपको आपको  कहानी  “भगवान् ने दंड क्यों नहीं दिया “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

प्रेरक कथा – दूसरी गलती

स्वर्ग – नरक भले ही कल्पना हो | पर इन कल्पनाओं के माध्यम से हमें जीवन का मार्ग बताने की शिक्षा दी जातीं हैं | जैसे की इस प्रेरक कथा में स्वर्ग – नरक के माध्यम से जीवन में असफलता व् दुःख झेलने की वजह बताने की चेष्टा की गयी है | Hindi motivational story – swarg ka darvaaja एक व्यक्ति मरने के बाद ऊपर पहुंचा | उसने देखा वहां दो दरवाजे हैं | उसमें निश्चित तौर पर एक दरवाजा स्वर्ग का व् एक नरक का था | हालांकि किसी पर कुछ लिखा नहीं था | अब हर व्यक्ति की तरह वो व्यक्ति भी स्वर्ग ही जाना चाहता था | तो उसने ध्यान से दोनों दरवाजों को देखा | एक दरवाजे सेबहुत  सारे लोग अन्दर जा रहे थे | जबकि दूसरे से एक्का – दुक्का  लोग ही अन्दर जा रहे थे | व्यक्ति ने सोंचा की जिसमें ज्यादा लोग अन्दर जा रहे हैं वही स्वर्ग का दरवाजा होगा | वो भी उसी दिशा में आगे बढ़ने लगा | तभी यमदूत वहां आया | और बोला ,’ अरे , अरे ये तो नरक का दरवाजा है | स्वर्ग का तो वो है | लेकिन आप इस तरफ बढ़ चले हैं तो आप को नरक में ही जाना होगा | वह आदमी घबराया उसने दूत से कहा ,” मैं तो भीड़ देख कर ऊधर चल दिया था | क्या मैं वापस स्वर्ग में नहीं जा सकता | कोई तो उपाय  होगा | यमदूत बोला ,” वैसे तो मुश्किल है पर क्योंकि आपने पुन्य किये हैं इसलिए मैं आपको यह बही खाते की किताब दे रहा हूँ | आप इसमें से अपनी एक गलती दूर कर सकते हैं | मतलब मिटा सकते हैं | पर यह मौका आपको सिर्फ एक बार ही मिलेगा | जब उस आदमी के हाथ बही – खाते की किताब आई तो वो उलट – पलट कर देखने लगा | उसने देखा की उसके पड़ोसी के पुन्य तो उससे कई गुना ज्यादा हैं | अब तो पक्का उसे स्वर्ग मिलेगा | और ज्यादा दिन को मिलेगा | यह सोंच कर उसे बहुत ईर्ष्या होने लगी की उसका पड़ोसी बहुत ज्यादा दिनों तक स्वर्ग भोगेगा | उसने थोड़ी देर तक सोंच – विचार करने के बाद अपने पड़ोसी द्वारा किया गया एक बड़ा सा पुन्य मिटा दिया |वो चैन की सांस ले कर अगला पन्ना पलटने ही वाला था तभी यमदूत ने आकर उसके हाथ से किताब ले ली | और उसे नरक की तरफ ले जाने लगा | आदमी रोने चिल्लाने लगा अरे अभी तो मैं अपनी गलती ठीक ही नहीं कर पाया | आप मुझे नरक क्यों भेज रहे हैं | यमदूत मुस्कुराया और बोला ,” मैंने आपसे पहले ही कहा था की आप के पास बस एक मौका है | वो मौका आपने अपने पड़ोसी के पुन्य मिटाने में गँवा दिया | इस तरह से आपने थोड़ी ही देर में दो  गलतियां कर दी | एकतो जब आप पहले जब आप स्वर्ग जा सकते थे तब आपने भीड़ का अनुसरण किया | दूसरी बार जब आप कोमौका मिला तो अपनी गलती सुधारने के स्थान पर आपने पड़ोसी का पुन्य मिटाने का काम किया | जबकि आप का पड़ोसी तो अभी और दिन धरती पर रहने वाला है वो और पुन्य कर लेगा पर आप का तो आखिरी मौका चला गया | अब उस आदमी के पास नरक भोगने के आलावा कोई रास्ता नहीं था |उसने स्वयं स्वर्ग का दरवाजे से जाने का मौका गंवाया था | दोस्तों ये प्रेरक कथा हमें जीवन की शिक्षा देती है | मरने के बाद क्या होता है किसने देखा है पर जीते जी असफलता का कारण यही  दो गलतियाँ ही तो होती हैं | एक भीड़ को फॉलो करना | अपनी  पैशन को जानने समझने के स्थान पर हम भीड़ को फॉलो करते हैं| सब इंजीनियर बन रहे हैं या डॉक्टर बन रहे हैं तो हमें भी बनना है | सब टीचर बन रहे हैं तो हमें भी बनना है | भले ही हमारा मन गायक बनने  का हो |  तो ऐसी में न काम में मन लगता है न सफलता मिलती है जिस कारण जीवन नरक सामान लगने लगता है | जिसे अनचाहे ही भोगते हैं | व् दूसरी गलती ये होती है की हम अपने काम से ज्यादा इस बात की चिंता करते हैं की दूसरे हमसे नीचे कैसे हो या हम कोई चीज न पा सके तो न पा सके पर हमारा पड़ोसी उसे बिलकुल न पा सके | धन , नाम , पावर सब में हम अपने आस –पास वालों को अपने से कम देखना चाहते हैं |  इस ईर्ष्या के कारण हम खुद ही असफलता के द्वार खोलते हैं | क्योंकि हमारा फोकस काम पर न हो कर  बेकार की बातों पर होता है | जो हमें अन्तत : असफलता की और ले जाती है और हमारा स्वर्ग सा जीवन नरक में बदल देती हैं | इस प्रकार हम खुद ही ये दो गलतियाँ  कर के अपने स्वर्ग का दरवाज़ा बंद कर नरक का द्वार खोल देते हैं |यदि आप जीवन में सफलता पाना चाहते हैं तो ये दो गलतियां न करें | भीड़ को फॉलो करने के स्थान पर अपने दिल की आवाज़ सुने |व् दुसरे का काम बिगाड़ने के स्थान पर अपने काम  पर ध्यान दें | फिर देखिएगा ये जीवन कैसे स्वर्ग सा सुखद हो जाता हैं |  नीलम गुप्ता  दिल्ली  परिस्थिति सम्मान राम रहीम भीम और अखबार अनफ्रेंड आपको आपको  कहानी  “प्रेरक कथा – दूसरी गलती “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

सजा किसको

saja kisko motivational story in hindi सुधीर  ११ वीं का छात्र है । अपना सामान बेतरतीब से रखना वो अपना धर्म समझता है । माँ को कितनी मुश्किल होती होगी इस सब को संभालने में उसे कोई मतलब नहीं । रोज सुबह उसका चिल्लाना … मेरा रुमाल कहाँ है , मोजा कहाँ है , वगैरह वगैरह बदस्तूर जारी रहता । माँ आटे से सने हाथ लिए दौड़ -दौड़ कर उसका सामान जुटाती । माँ उसको रोज समझाती ‘ बेटा अपना सामान सही जगह पर रखा करो … मुझे बहुत परेशानी होती है ‘। पर सुधीर उल्टा माँ पर ही इल्जाम लगा देता ” तुम जो करीने से सब रखती हो उससे ही सब बिगड़ जाता है ‘। आज माँ दूसरे  ही मूड में थी … उन्होंने सुधीर को अल्टीमेटम दे दिया … अगर  आज  अपना कमरा ठीक नहीं किया तो मैं तुम्हें स्कूल नहीं जाने दूँगी, ये तुम्हारी सजा है ।  आज वाद -विवाद प्रतियोगिता में सुधीर प्रतिभागी था । सो गुस्से में तमतमाते हुए उसने कमरा तो ठीक कर दिया पर बडबडाता रहा …  ये माँ है या तानाशाह इसकी मर्ज़ी से ही घर चले । अगर इनका हुक्म ना बजाओ तो सजा । what a rubbish ! गुस्से के कारण ना तो सुधीर  ने नाश्ता किया और ना ही लंच बॉक्स बैग में रखा । माँ पीछे से पुकारती ही रही । स्कूल जाते ही दोस्तों ने कैंटीन में उसे गरमागरम समोसे खिला दिए । गुस्सा शांत हो गया । प्रतियोगिता आरम्भ हुई … और उसमें सुधीर विजयी हुआ । देर तक कार्यक्रम चला । सब प्रतियोगियों को स्कूल की तरफ से खाना खिलाया गया । शाम को जब सुधीर घर आया, घर कुछ बेतरतीब सा दिखा । किचन में पानी पीने  गया । पर ये क्या एक भी गिलास धुला  हुआ नहीं है … और तो और पानी की बाल्टी भी नहीं भरी है । किचन से बाहर निकला तो पास वाले कमरे से डॉक्टर की माँ से बात करने की आवाज़ आ रही थी । ‘ जब आपको पता है कि इन्सुलिन लेने के बाद अगर कुछ ना खाओ तो डायबिटीज का मरीज़ कोमा में भी जा सकता है तब आपने ऐसा क्यों किया । ये तो अच्छा हुआ की आपकी पड़ोसन आपसे मिलने आ गयीं वर्ना आप तो बड़ी मुश्किल में पड जातीं  ‘। माँ टूटी आवाज़ में बोलीं ‘ क्या करूं  डॉक्टर साहब … आज बेटा  गुस्से में भूखा ही चला गया था, जब भी खाना ले कर बैठती बेटे का चेहरा याद आ जाता … खाना अंदर धंसा ही नहीं ‘। दरवाज़े पर खड़ा सुधीर सोंच रहा था … सजा माँ ने उसे दी …. या उसने माँ को ।                   बच्चों , हम सब की माँ सारा दिन हमारे लिए मेहनत  करती हैं | उनकी सारी  दुआएं बच्चों के लिए ही होतीहैं | ऐसे में अगर आप की माँ आप को कुछ डांट  दे तो ये उसका प्यार ही है | इस प्यार को समझने के लिए दिल की जरूरत है न की दिमाग की जो सजा पर अटक जाता है | अन्तत : ये समझना मुश्किल हो जाता है की सजा किसको मिली है वंदना बाजपेयी  जह भी पढ़ें … झूठ की समझ सम्मान बाल मनोविज्ञान पर आधारित पांच लघुकथाएं अनफ्रेंड आपको आपको  कहानी  “सजा  किसको “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें   

प्रेरक कथा – जैसा खाए अन्न वैसा हो मन

हमारे धर्म ग्रंथों में बहुत सारी प्रेरक कथाएँ सम्मलित हैं | जो आहिस्ता से किसी बड़ी शिक्षा को हमें समझा देती हैं | ऐसी ही एक प्रेरक कथा मैं आप के सामने प्रतुत करने जा रही हूँ | कथा महाभारत के समय की है | जैसा  की सब को पता है की महाभारत के युद्ध में धर्म और अधर्म के बीच लड़ाई हुई थी | बहुत रक्तपात हुआ | अंत में धर्म यानी पांडवों की विजय व् अधर्म यानी कौरवों की हार हुई | इसी युद्ध में इच्छा मृत्यु प्राप्त भीष्म पितामह अर्जुन के हाथों मृत प्राय होकर शर शैया पर गिर पड़े | उन्होंने अपने किसी पिछले जन्म के कर्म का चक्र पूरा करने के लिए स्वयं ऐसी मृत्यु चुनी थी | युद्ध समाप्ति के बाद भी सूरज के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते हुए वो उसी शर शैया  पर ही लेटे रहे | एक दिन का प्रसंग है कि पांचों भाई और द्रौपदी उनसे मिलने गए | सब उनके चारो तरफ बैठे गए और पितामह उन्हें धर्म का उपदेश दे रहे थे।  सभी श्रद्धापूर्वक उनके उपदेशों को सुन रहे थे कि अचानक द्रौपदी खिलखिलाकर कर हंस पड़ी।  दौपदी तो प्रिय बहु थी |पितामह उसकी इस हरकत से बहुत आहत हो गए और उपदेश देना बंद कर दिया।  पांचों पांडवों  भी द्रौपदी के इस व्य्वहार से आश्चर्यचकित थे।  सभी बिलकुल  शांत हो गए।  कुछ क्षणोपरांत पितामह बोले ,  ” पुत्री, तुम एक सभ्रांत कुल की बहु हो , क्या मैं तुम्हारी इस हंसी का कारण जान सकता हूँ ?” द्रौपदी बोली-” पितामह, आज आप हमे अन्याय के विरुद्ध लड़ने का और धर्म का उपदेश दे रहे हैं , लेकिन जब भरी सभा में मेरे कपडे उतार कर मुझे अपमानित करने का प्रयास किया जा रहा था | तब तो आप भी सबके साथ मौन ही थे |आखिर तब आपके ये उपदेश , ये धर्म कहाँ चला गया था ? यह सुन पितामह की आँखों से आंसू  आ गए।  कातर स्वर में उन्होंने कहा  , “बेटी तुम तो जानती हो कि मैं उस समय दुर्योधन का अन्न खा रहा था।  वह अन्न प्रजा को दुखी कर एकत्र किया गया था , ऐसी अन्न को खाने से मेरे संस्कार दूषित हो गए थे | तब मैं अन्याय का विरोध न कर सका | अब जब की उस अन्न से बना मेरा लहू बह चुका है | तब मुझे फिर से संस्कार बोध हो गया है | मुझे धर्म समझ आ रहा है |  सच में जो जैसा अन्न खाता है उसका मन वैसा ही होता है |                                     मित्रों आज भी ये शिक्षा बदली नहीं है | इसी लिए कहते हैं धन कमाओ पर धर्म न गंवाओं | क्योंकि अगर धन सही तरीके से कमाया गया है | तभी उस घर में अच्छे संस्कार आते हैं | अच्छे संस्कार अच्छे भाग्य में परिवर्तित होते हैं | जो धन लूटपाट , घूसखोरी व् दूसरों का हक़ मार कर कमाया जाता है | वहां बीमारी , कष्ट , चोट – चपेट में धन व्यर्थ चला जाता है | उस घर के बच्चे कुसंस्कारी निकलते हैं जो धन को व्यर्थ की ऐशो – आराम में गंवा देते हैं |  इसलिए नेक कामों से व् नेक लोगों के हाथ बनया भोजन करे व् सात्विक और धर्म के मार्ग पर चलें | दीप्ति दुबे  फोटो क्रेडिट –वेब दुनिया यह भी पढ़ें  ब्लू व्हेल का अंतिम टास्क यकीन ढिंगली मोक्ष आपको आपको  कहानी  “ प्रेरक कथा – जैसा खाए अन्न वैसा हो मन “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |   

सफलता का बाग़

दोस्तों हम सब सफल होना चाहते हैं | इसके लिए शुरुआत भी बड़े जोर – शोर से करते हैं | पर सिर्फ शुरुआत की मेहनत  ही काफी नहीं है | सफलता के लिए लगातार परिश्रम के साथ धैर्य भी जरूरी है | नहीं  तो इन बंदरों की तरह हमें भी पछताना पड़ेगा | कैसे …… motivationl story in hindi  safalta ka baag एक आम के बाग़ के पास में बहुत सारे बन्दर रहा करते थे | वो जब तब झुण्ड बना कर बाग़ में पहुँच जाते थे और आम तोड़ कर खाने का प्रयास करते थे | पर बाग़ का  रखवाला उन्हें पत्थर मार – मार कर खदेड़ देता | नतीजे में आम तो उन्हें बहुत कम मिलते पत्थर ज्यादा मिलते | वो बेचारे ललचाते ही रह जाते |  बंदरों का मुखिया इस बात से बहुत परेशान था उसे रोज – रोज का अपमान अच्छा नहीं लगता | लिहाजा उसने सभी बंदरों की एक सभा बुलाई और कहा ,” हमारे बन्दर आम की जगह रोज पत्थर खा रहे हैं | ये तो बहुत शर्म की बात है | अब हम रोज – रोज यह अपमान नहीं सहेंगे | हम अपना एक अलग बाग़ लागयेंगे | | देखो तो नदी के किनारे की जमीन खाली भी पड़ी है | जब हमारा बाग़ होगा | तो हम जब चाहें , जितने चाहें आम खा सकते हैं | कोई हमें न रोक पायेगा न अपमानित कर पायेगा |  सब को मुखिया की बात बहुत अच्छी लगी | वाह अपना बाग़ | इस कल्पना से ही वो खुश हो गए | उन्होंने मुखिया से पूँछा ,” हम अपना बाग़ लगायेंगे कैसे ?”मुखिया ने कहा ,”अरे ये तो बहुत आसान है | ये जो आम् खाकर  उस गुठली को हम फेंक देते हैं | उसे जमीन में बो देना है | पानी देना है | फिर देखना कैसे आम की फसल लहलहाएगी | मैंने सब देखा है पर उससे पहले हमें जमीन को समतल करना होगा |  सारे बन्दर पूरा तरीका जान कर खुश हो गए | उन्होंने  बाग़ के लिए खाली पड़ी जमीन को समतल कर दिया | फिर उसमें गुठलियाँ बो दी | वो बहुत खुश थे की अब उनका अपना बाग़ होगा | पर ये क्या अभी १५ मिनट भी नहीं बीते होंगे की उन्होंने सारी  गुठलियाँ ये कहते हुए निकाली की देखे हमारे पेड़ कितने बड़े हुए | फिर उसके बाद पुन: बो दी | पूरे दिन भर में ये काम उन्होंने दसियों बार किया | और हर बार निराश हो कर कहते कि लो अभी तो कुछ  हुआ ही नहीं |  आम के बाग़ का रखवाला जो अपने बेटे के साथ  सुबह से उनके क्रिया कालाप देख रहा था | वो भी शुरू – शुरू में बंदरों के सुधर जाने का आनंद ले रहा था | पर जब उसने उन्हें बार – बार गुठली निकालते देखा तो उससे रहा न गया और अपने बेटे से बोला ,” बेटा देखा तुमने सफलता केवल परिश्रम से ही नहीं मिलती | उसके लिए धैर्य  की भी जरूरत होती है | बंदरों ने परिश्रम किया पर उनमें धैर्य  नहीं था | इसलिए उनका बाग़ कभी नहीं बनेगा |  ये बात सिर्फ बंदरों पर नहीं हम सब पर लागू होती है | सफलता के लिए धैर्य की बहुत जरूरत होती है | कई लोग बहुत जोर – शोर से काम शुरू तो करते हैं पर बाद मे थोड़े ही दिन में उकता जाते हैं और बीच में छोड़ देते हैं | जिससे सफलता मिलना संदिग्ध हो जाता है | सफलता का मूल मन्त्र केवल मेहनत नहीं लगातार  मेहनत के साथ धैर्य भी है | तभी सफलता का बाग़ तैयार होता है |  सरिता जैन  यह भी पढ़ें … विश्वास ओटिसटिक बच्चे की कहानी लाटा एक टीस सफलता का हीरा    आपको आपको  प्रेरक कथा “सफलता का बाग़  “ कैसा लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                                         

विश्वास

                                                                                      ईश्वर है की नहीं इस बात पर भिन्न भिन्न मत हो सकते हैं | और मत के अनुसार फल भी अलग – अलग होते हैं |   जो लोग ईश्वर पर ही नहीं किसी भी चीज पर अटूट विश्वास करते हैं  | उनके काम अवश्य पूरे होते हैं | आधुनिक विज्ञानं इसे subconscious mind  की चमत्कारी शक्ति के रूप में परिभाषित करती है |हमारा विश्वास हमारे आगे परिस्तिथियों का सृजन करता है | अविश्वास के कारण जीवन के हर क्षेत्र में नुक्सान उठाना पड़ता है और कभी – कभी खुद जीवन से भी | ऐसी ही एक कहानी है विशाल मल्होत्रा की |  hindi motivational story on faith विशाल मल्होत्रा को पहाड़ पर चढने का बहुत शौक था |बर्फ से ढके ऊँचे  – ऊँचे पर्वत उसे बहुत लुभाते थे |   यूँ तो विशाल दिल्ली में रहता था | पर उसने पर्वतारोहण का प्रशिक्षण लिया था | अक्सर वो हिमालय की वादियों में अपने दल के साथ गर्मी की छुट्टियों में हिमालय पर फतह करने जाता था | इस दल के अटूट विश्वास  और उत्साह के कारण हिमालय भी कितनी बार दयालु हो कर उनके लिए रास्ते बना देता था | विशाल का कांफिडेंस बढ़ता जा रहा था | इस बार अपने घरेलू कार्यक्रमों में व्यस्त होने के कारण मई के पर्वतारोहण  शिविर में अपने दोस्तों के साथ नहीं  जा सका था | दिसंबर  में एक दूसरा दल जाने वाला था | विशाल ने उनके साथ जाने की हामी भर दी | हालांकि दोस्तों ने समझाया था कि वो ज्यादा प्रशिक्षित दल है | वो जा सकता है | पर तुम्हारा अभी सर्दी के दिनों में पहाड़ों पर चढ़ने का प्रशिक्षण इतना नहीं हुआ है | पहाड़ों पर दिसंबर में बर्फ गिरने लगती है | मौसम खराब होने के कारण चढ़ना मुश्किल होता है | पर विशाल ने उनकी एक न सुनी | उसने कह मैंने उतना नहीं सीखा है तो क्या मैं कोशिश तो कर सकता हूँ | हम सब साथ में रहेंगे तो डर कैसा ? नियत समय पर विशाल अपने दल के साथ पर्वत पर चढ़ाई करने चला गया |एक दिन जोर का बर्फीला तूफान आया | सारा दल तितिर- बितिर हो गया | शाम घनी हो चली थी | अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था | विशाल पागलों की तरह अपने साथियों को ढूंढ रहा था | अचानक से एक तेज हवा का झोंका आया | विशाल अपना संतुलन नहीं बनाये रख सका | वो अपने रस्सी के सहारे हवा में झूल गया | अब सुबह तक कुछ नहीं हो सकता था | मृत्यु निश्चित थी | विशाल जोर जोर से ईश्वर को रक्षा के लिए पुकारने लगा | तभी आसमान से आवाज़ आई | मैं तुम्हारी अवश्य रक्षा करूँगा | पहले तुम बताओ तुम मुझ पर कितना विश्वास करते हो | विशाल लगभग रोते हुए बोला ,” हे ईश्वर मुझे बचा लो | मैं आप पर पूरा विश्वास करता हूँ | आसमान से फिर आवाज़ आई ,” क्या तुम सच कह रहे हो ?” हाँ मैं बिलकुल सच कह रहा हूँ ,कृपया मुझे बचा लो , विशाल ने लगभग गिडगिडाते हुए कहा | आसमान से फिर आवाज़ आई ,” ठीक है तो तुम अपनी रस्सी काट दो |” विशाल का हाथ अपनी रस्सी पर गया नीचे खाई की गहराई सोंच कर उसे अजीब सी सिहरन हुई |  उसने आसमान की और देखा फिर रस्सी को छुआ … सुबह जब पर्वतारोही बचाव दल हेलीकाप्टर से कल के तूफ़ान में फँसे  हुए लोगों को निकालने आया तो उन्हें रस्सी से झूलता हुआ विशाल का शव मिला जो रात की सर्दी बर्दाश्त नहीं कर पाया था और बुरी तरह अकड  गया था | दल ने देखा की विशाल जमीन से सिर्फ १० फुट ऊपर था | अगर वो रस्सी काट देता तो उसकी जान बच जाती | दोस्तों , अगर विशाल ने आकाशवाणी की बात मान कर अपनी रस्सी काट दी होती तो उसकी जान बच सकती थी | बात सिर्फ ईश्वर पर विश्वास या अविश्वास की नहीं है | हमें जिस जिस चीज पर जैसा – जैसा विश्वास होता है वही परिणाम हमारे जीवन में आते हैं | जिनको विश्वास होता  है की वो जीवन में कुछ कर सकते हैं वो कर सकते हैं | जिनको विश्वास होता है नहीं कर सकते वो नहीं कर पाते हैं | कई लोगों ने विश्वास के दम पर असाध्य रोग भी ठीक किये हैं और अनेकों लोग अविश्वास के कारण छोटे छोटे रोगों में बहुत तकलीफ पाते है व् परेशान  रहते हैं | दरसल अटूट विश्वास ईश्वर पर हो , खुद पर , डॉक्टर पर या किसी अन्य पर | यह हमारी आत्म शक्ति को बढ़ा देता है | हमारी आत्म शक्ति कोई भी चमत्कार कर सकती है | नीलम गुप्ता आपको  motivational story “विश्वास ” कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

मास्टर जी

द्वारका प्रसाद जी पेशे से सरकारी विद्यालय में मास्टर थे । रायगढ़ नाम के छोटे से गाँव में उनकी पोस्टिंग हो गयी थी । पोस्टिंग हो क्या गयी थी यूँ समझिए कि ले ली थी । उन्होंने स्वयं ही माँग  की थी कि उन्हें उस छोटे से गाँव में तबादला  दे दिया जाए । गाँव में कोई इकके -दुक्के लोग ही थे जिन्हें पढ़े -लिखे लोगों की श्रेणी में रखा जा सकता था । बाकी की गुजर-बसर तो खेती , सुथारी या लुहारी पर ही चल रही थी ।  सभी हैरान थे कि द्वारका प्रसाद जी को इस छोटे से गाँव में क्या दिलचस्पी थी ?  कि वहाँ जा कर बस ही गयेखैर वह तो उनका निजी मामला था ।  गाँव के हर घर में उनकी ख़ासी पहचान थी । सारे गाँव के बच्चे उनके विद्यालय में पढ़ने आते । और अगर कोई न आता तो  मास्टर जी ढूँढ कर उन बच्चों के माता-पिता से बात करते और उन्हें समझाते कि वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें । किंतु गाँव के लोग बहुत ग़रीब थे वे बच्चों को  पढाना तो दूर  की बात अपने बच्चों के लिए दो वक़्त की रोटी भी न जुटा पाते सो अपने बच्चों को कुछ न कुछ काम धंधे में लगा रखा था ।  मास्टर जी ने सरकारी दफ़्तरों में जा-जा कर अफसरों से बात कर विद्यालय में खाने का भी प्रावधान करवा दिया ताकि गाँव के लोग खाने के लालच में अपने बच्चों को विद्यालय में दाखिला तो दिलाएँ । अब गाँव के अधिकतर बच्चे विद्यालय में पढ़ रहे थे ।    शाम के समय मास्टर जी गाँव के बीचों-बीच लगेनीमके पेड़ के गट्टे पर बैठ जाते।और अपने आस-पास गाँव के सारे लोगों को जमा कर लेते । किसी न किसी बहाने बात ही बात में वे उन्हें  पढ़ने के लिए प्रेरित करते ।  लेकिन गाँव के लोग तो पढ़ाई का मतलब समझते ही न थे । उन्हें तो बस हाथ का कुछ काम करके दो वक़्त की रोटी मिल जाए बस इतनी ही चिंता थी । और औरतों की शिक्षा के बारे में तो बात उनके सिर के उपर से ही जाती थी । दो टुक जवाब दे देते मास्टर जी को । कहते ” इन्हें तो बस चूल्हा-चौका करना है , उसमें पढ़ाई का क्या काम ” ? रही बात गाँव की बेटियों की , पढ़-लिख गयी तो पढ़ा-लिखा लड़का भी तो ढूँढना पड़ेगा ?  मास्टर जी बार-बार उन्हें समझाते कहते ” पढ़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती” । दो अक्षर पढ़ लेंगे तो जेब से कुछ जाने वाला नहीं है । किंतु गाँव के लोग आनाकानी कर जाते ।किंतु जब किसी को कोई चिट्ठी लिखनी होती या कोई सरकारी दफ़्तर का कार्य होता तो मदद के लिए मास्टर जी के पास ही आते । मास्टर जी उनको मदद करने के लिए सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाते , उनकी चिट्ठियाँ लिखते व उनके अन्य कार्यों में भी सामर्थ्य अनुसार उनकी मदद करते ।धीरे-धीरे सभी लोगों का मास्टर जी पर विश्वास जमने लगा था । और मास्टर जी की प्रेरणा से प्रेरित हो कर मास्टर जी से थोड़ा- थोड़ा पढ़ना-लिखना सीखने लगे थे । और तो और गाँव की महिलाएँ भी चूल्हा-चौका निपटा कर रोज एक घंटा मास्टर जी से पढ़ने लगी थीं । मास्टर जी उन्हें थोड़ा शब्द ज्ञान देते और थोड़ा अन्य नयी-नयी जानकारियाँ देते । यह सब कार्य मास्टर जी मुफ़्त ही करते ।  समय बीतता गया , मास्टर जी के बच्चे बड़े हो गये और आगे की शिक्षा के लिए शहर चले गये । शहर की चमक-दमक बच्चों को बड़ी भा गयी । वे बार-बार मास्टर जी को गाँव छोड़ शहर आने की ज़िद करने लगे । पर मास्टर जी थे कि टस से मस न होते । सो मास्टर जी की पत्नी भी मास्टर जी को छोड़ अपने बच्चों की सार​–संभाल करने के लिए शहर चली गयीं । मास्टर जी अब कहने को अकेले थे किंतु गाँव अब परिवार मे परिवर्तित हो गया था । ज़्यादा से ज़्यादा समय मास्टर जी गाँव के लोगों के साथ ही बिताते ।  तभी एक दिन मास्टर जी को दिल का दौरा पङ गया । मास्टर जी का पड़ौसी सुखिया उन्हें झट से गाँव के वैद्य के पास ले गया । वैद्य जी उन्हें प्राथमिक उपचार दे कर बोले ” अच्छा होता कि मास्टर जी को शहर ले जाते और बड़े अस्पताल में दिखा देते , नब्ज़ थोड़ी तेज ही चल रही है ।  गाँव के लोगों ने तुरंत ही  उनके पत्नी व बच्चों को सूचित कर शहर ले जाने की तैयारी कर ली । शहर जाते ही उन्हें वहाँ के बड़े अस्पताल में भरती कर दिया गया । गाँव का उनका पड़ौसी सुखिया उनके साथ में था । बड़े अस्पताल में डॉक्टर ने दवाइयों की लंबी लिस्ट और अस्पताल के खर्चे का बिल उनकी पत्नी के हाथ में थमा दिया । इतना पैसा मास्टर जी की पत्नी के पास न था सो लगी अपने भाई व अन्य रिश्तेदारों को फोन करने ,सोचा शायद कहीं से कोई मदद मिल जाए । किंतु आजकल किसको पड़ी है दूसरे की मुसीबत के बारे में सोचने की । सुखिया मास्टर जी व उनकी पत्नी की हालत बखूबी  समझ रहा था । मास्टर जी की पत्नी  स्वयं से ही अकेले में बड़बड़ा रही थी।” समय रहते सोचते तो ये दिन न देखना पड़ता , कभी दो पैसे न बचाए , लुटा दिए गाँव वालों पर ही ”  कभी कोई ऊपर की कमाई न की ” । बच्चे भी बोल रहे थे कितनी बार कहा था शहर आ जाओ किंतु हमारी एक न सुनी । कम से कम यहाँ रहते तो ट्यूशन कर अतिरिक्त कमाई तो करते , फालतू ही गाँव के लोगों के साथ वक़्त जाया  किया । सुखिया अब मास्टर जी की माली हालत से वाकिफ़ हो गया था । उसने झट से गाँव फोन किया और अगले ही दिन गाँव से एक आदमी आया जिसे मास्टर जी ने ही पढ़ाया था और उनके ही विद्यालय में नयी नियुक्ति मिली थी उसे । साथ में वह एक पोटली लाया था और कुछ रुपये भी । वह पोटली उसनेमास्टर जी  की पत्नी को थमा दी … Read more

शब्दों के घाव

क्या शब्दों के भी घाव हो सकते हैं ? जी हाँ , दोस्तों पर इस बात से अनजान  हम दिन भर बोलते रहते हैं … बक बक , बक  बक | पर क्या हम इस बात पर ध्यान देते हैं की जो भी हम बोल रहे हैं उनसे किसी के दिल में घाव हो रहे हैं | मतलब उसका दिल दुःख रहा है | कहा जाता है की सुनने वाला उन श्ब्दों के दर्द को जिंदगी भर ढोता रहता है | जब की कहने वाला उन्हें कब का भूल गया होता है | तो आज  हम एक ऐसी ही कहानी ले कर आये हैं | जो हमें शब्दों को सोंच समझ कर बोलने की शिक्षा देती है … प्रेरक कहानी शब्दों के घाव  एक लड़का था मोहन , उसके पिता जी का भेड़ों का एक बाड़ा था | उसमें कई लोग काम करते थे | पर मोहन को गुस्सा बहुत आता था | वह बात – बेबात पर सबको बुरा – भला कह देता | लोगों को बुरा तो लगता पर वो मालिक का बेटा समझ कर सुनी अनसुनी कर देते |मोहन के पिता जानते थे की बाड़े में काम करने वाले उसकी वजह से सुनी अनसुनी कर देते हैं पर मोहन की बातों का बोझ उनके दिल पर रहता होगा |  वो मोहन को कई बार समझाते ,” बेटा तुम गुस्सा न किया करो | सबसे प्यार से बोला करो | पर मोहन के कानों पर जूं तक  न रेंगती | आखिरकार मोहन के पिता ने मोहन को सुधारने का एक तरीका निकाल ही लिया |  एक दिन वो मोहन को बाड़े पर ले गए | वहां एक दीवार दिखा कर बोले ,” मोहन बेटा मैं जानता हूँ गुस्से पर कंट्रोल करना तुम्हारे लिए मुश्किल है | मैंने तुमको कई बार कहा की गुस्सा न करो तब भी तुम गुस्सा रोक नहीं पाए | हालांकि मैं जानता हूँ की तुमने प्रयास जरूर किया होगा | इसलिए मैंने तुम्हारा गुस्सा दूर करने का एक खेल बनाया है | जिससे तुम्हारा गुस्सा भी दूर होगा और एक खेल भी हो जाएगा | आखिरकार तुम भी तो गुस्सा दूर करना ही चाह्ते होगे |  मोहन पिता की तरफ देखने लगा | उसको भी जानने की बड़ी उत्सुकता हो रही थी की आखिरकार पिताजी ने क्या खेल बनाया है |  मोहन के पिता कुछ रुक कर बोले ,” मोहन ये लो कीलों का डिब्बा और हथौड़ा | अब जब भी तुम्हें गुस्सा आये | इस पर एक कील ठोंक देना | मोहन ने हां में सर हिलाया | उसने सोंचा इसमें क्या कठिनाई हैं | कील ही तो ठोंकनी है | ठोंक देंगे | पर धीरे धीरे मोहन का उत्साह जाता रहा | अब खाना खा रहे हो तो खाना छोड़ के कील ठोंकने जाओ , खेल रहे हो तो खेल छोड़ के कील ठोंकने जाओ | उफ़ ! ये तो बहुत बड़ी सजा है |  पर इस खेल या सजा जो भी हो उससे  धीरे – धीरे मोहन अपने गुस्से पर कंट्रोल करने लगा ताकि उसे कील न ठोंकनी पड़े | पर गुस्से पर कंट्रोल इतना आसान तो था नहीं | लिहाजा कील ठोंकने का काम चलता रहा |  धीरे – धीरे कर के पूरी दीवाल भर गयी | उसने ख़ुशी ख़ुशी अपने पिता को दिखया कि देखिये पिताजी ये तो पूरी दीवाल भर गयी है | अब मैंने गुस्सा करना भी कम कर दिया है | पिताजी ने दीवाल देख कर कहा ,” हां ये तो भर गयी | पर अभी तुम्हारा गुस्सा पूरी तरह से कंट्रोल में नहीं आया है | तो ऐसा करो जिस दिन पूरा दिन तुम्हें गुस्सा न आये एक कील उखाड़ देना | मोहन ने पिता की बात मान ली | उसे लगा ये तो आसान है , क्योंकि उसे गुस्सा कम जो आने लगा था |  मोहन रोज गुस्से पर कंट्रोल करता और दूसरे दिन सुबह एक कील निकाल देता | धीरे – धीरे सारी  कीलें निकल गयीं | वो ख़ुशी ख़ुशी अपने पिता को बताने गया | उसके पिता ने खुश हो कर कहा ,” ये तो तुमने अच्छा किया की सारी कीलें निकाल दी| चलो तुम्हारे साथ चल कर देखते हैं की बाड़े की उस दीवाल का कील निकलने के बाद क्या नया रूप रंग है | मोहन पिता के साथ चल पड़ा | पर दीवाल का हाल देखकर वो सकते में आ गया | जहाँ – जहाँ से कीले निकाली थीं वहां – वहां उन्होंने छेद बना दिए थे | च च च … करते हुए मोहन के पिता ने कहा उफ़ इस दीवाल में कितने छेद हो गए | पर ये तो निर्जीव दीवाल थी | जब तुम किसी इंसान पर गुस्सा करते होगे | तो भी उसके दिल में ऐसे ही घाव हो जाते होंगे | जो कभी भरते नहीं हैं | ओह बेटे तुमने तो न जाने कितने लोगों को अनजाने ही अनगिनत घाव दे दिए |  पिता की बात सुनकर मोहन रोने लगा | उसने पिता से कहा ,” पिताजी मुझे बिलकुल पता नहीं था की शब्दों से भी घाव हो जाते हैं | मैंने अनजाने ही सबको घाव दिए | अब मैं अपने शब्दों का बहुत ध्यान रखूँगा | और गुस्सा नहीं करूँगा |  मोहन के पिता ने उसे गले से लगा कर कहा ,” अब मेरा बेटा समझदार हो गया है | वो अपने शब्दों का सोंच – समझ कर इस्तेमाल करेगा व् उनसे किसी को घाव नहीं देगा |  अर्चना बाजपेयी  रायपुर ,छतीसगढ़  ————————————————————————————————————————- मित्रों प्रेरक कहानी शब्दों के घाव आपको कैसी लगी | हमें जरूर बताये | पसंद आने पर शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज  लाइक करें | अगर आप को “अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब करें | जिससे हम सीधे  लेटेस्ट  पोस्ट  आपके ई मेल पर भेज सकें | यह भी पढ़ें … अधूरापन अभिशाप नहीं प्रेरणा है 13 फरवरी 2006 इमोशनल ट्रिगर्स – क्यों चुभ जाती है इत्ती सी बात असफलता से सीखें

कहानी -कडवाहट

कई बार जिंदगी की कडवाहट इतनी अधिक होती है कि इंसान अपना संतुलन भी खो बैठता है और गलत निर्णय लेने से भी अपने आपको नही रोक पाता है l मेरे ही स्कूल की एक अध्यापिका ने अपने पति की प्रताडनाओं से तंग आकर अपना अंत कर लिया था इस खबर ने मुझे आज अन्दर तक झकझोर कर रख दिया था l  बहुत ही सौम्य सुन्दर सुशील और बुद्धिमान थी रुचिका लेकिन उसकी नियति उसे कहाँ ले कर गयी, सोच कर मेरी पलकें गीली होती जा रही थीं उसके चेहरे में अपना ही चेहरा नज़र आने लगा था l कैसे सह गयी वो सब, मैं आज अपने अंतर्मन खुद से ही सवाल किये जा रही थी l सवाल जबाब में एक फिल्म की भांति सब आँखों के सामने चलने लगा था l  प्यार सहयोग सम्मान जैसे शब्द के मायने तो मैं ब्याह के बाद ही भूल गयी थी l जान पायी थी तो बस पति की मार तिरस्कार दुत्कार और अपमान l अभी मेरी पढाई ख़तम भी नही हुयी थी कि घर वालों के लिए मेरी शादी की उम्र निकली जा रही थी l अठारह की उम्र तक मेरी सारी चचेरी बहने ब्याह दी गयी थी l शहर के सबसे नामी और प्रतिष्ठित परिवार से होने के कारण बराबरी का रिश्ता न मिल पाना भी एक समस्या सा बना हुआ था l पिता जी को उनके मित्र ने एक रिश्ता बताया लड़का सरकारी अस्पताल में फिजिशियन था जो सताईस बरस का था और मैं उन्नीस बरस की l मेरी शादी आनन फानन तय कर दी गयी l  मेरी बीएससी के फाइनल एग्जाम भी शादी के बाद हो जायेंगे कहकर मुझे मेरी आगे की पढाई न रोकने का आश्वासन दे दिए गए और अगले ही महीने मेरी शादी भी कर दी गयी सारे रस्मो रिवाजों के बाद मैं ससुराल भी आ गयीl ससुराल में हफ्ते भर रहने के बाद एग्जाम के लिए वापस मायके आ गयी l एग्जाम और चचेरे भाई की शादी में तीन महीने गुज़र गये l घर में माँ पिताजी और दो भाई थे l एक दिन अचानक ही मेरी तबियत बिगड़ गयी और फॅमिली डॉक्टर को दिखाने पर मुझे मेरे माँ बनने की खबर मिली l इस खबर ने मुझे एक अजीब सी ख़ुशी तो दी लेकिन मुझे मेरे सपने धुंधले होते नज़र आने लगे lइस खबर को सुनते ही मेरे पति ख़ुशी से फुले नही समाये और मुझसे मिलने आ गये फिर अपने साथ ले आये l सरकारी आवास में मैं मेरे पति और एक दो नौकर थे l मेरे पति को अस्पताल से वक़्त कम ही मिलता था इसलिए मेरे साथ के लिए मेरी सास साथ रहने आ गयी l वक़्त बीतता गया अब तक मैं दो बेटों की माँ बन चुकी थी और किसी तरह एमएससी पूरी भी कर ली l दो छोटे बच्चों को सँभालने का दायित्व बताकर आगे पीएचडी करने का ख्वाब मुझसे छीन गया था l  मै घर और बच्चों को सँभालने में लग गयी थी l इसी बीच हमारा स्थानंतरण दुसरे जिले में हो गया और हम नई जगह आ गये lमेरे पति देर रात जब हॉस्पिटल से लौटते तो डिनर के बाद थोड़ी शराब पीते थे और मुझसे भी साथ देने को कहते और मेरे मना कर देने पर मुस्कुराकर कहते,’तुम पियोगी तो तुम्हारा धर्म भ्रष्ट हो जाएगा’ है न l मेरे पति की बांतों से या व्यवहार से मुझे मुझसे असंतुष्ट होने का संशय मात्र भी अंदेशा अब तक नही था l  नई जगह पर आने के कुछ ही दिनों बाद मेरे पति के व्यवहार में मेरे प्रति बदलाव आने लगे ,मैंने इसका कारण यहाँ की अत्यधिक व्यस्तता ही समझ स्वयं को दिलासे देना ही उचित समझा और कुछ ही दिनों बाद उनका व्यवहार मेरे प्रति एकदम ख़राब हो गया lकिसी बात पर असंतुष्ट होने पर गरम चाय, खाना, पेपरवेट, पानी, शराब जैसी चीजों का मेरे ऊपर फेंक देना अब उनकी आदत में शामिल हो चुका था l अक्सर वजह-वेवजह उनके हाथ मुझ पर उठने लगे थे मैं कारण जानने का जब भी प्रयास करती दो चार थप्पड़ खाती और खामोश हो जाती lएक रात मैं सारे काम ख़तम करके अपने बच्चों को सुला ही रही थी कि कॉलबेल बजी बाहर जाकर देखा तो मेरे पति शराब में बुत मुझे हज़ार गलियां दिए जा रहे थे l आगे बढ़कर मैं उन्हें संभाल कर बेड तक ले आई उनके जूते निकाले और नशा उतरने के लिए कॉफ़ी भी ले आयीl सुबह पुरे होशो-हवास में उन्होंने मुझे मायके चले जाने को कहा l मैं अकारण बच्चों के एक्जाम के बीच मायके जाने को उचित नही समझ पा रही थी और वैसे भी 7-8 वर्ष की शादी में चचेरे भाईबहनों के विवाह के अलावा कभी गयी ही नही थी, फिर कैसे आज….??और मैंने न ही जाने का निर्णय सुरक्षित कर लिया था l अब तक मेरा उनसे मार खाना तिरस्कार सहना मेरी नियति बन चुकी थी और मुझे अब घर के नौकरों के सामने  बेवजह अपने पीटे जाने पर शर्म भी नही आती थी और रोज रात शराब पीने के बाद घर में हंगामे का होना आम बात हो चुकी थी l दोनों बेटे सहमे से रहने लगे थे l एक रात मैं अपने पति का इन्तजार करते करते बच्चों के पास ही सो गयी और ये सोचा कि किसी कारण बस मेरे पति हॉस्पिटल में ही रुक गए होंगे जैसा की किसी जरुरी कारण से करते भी थे,और सुबह जब अपने कमरे में पहुची तो देखा मेरे पति हॉस्पिटल की ही एक नर्स के साथ हम-बिस्तर हैं मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन ही सरक गयी मेरे जिस्म के एक एक घाव मुझ पर मेरी समझ पर तंज़ कसते हुए नज़र आ रहे थे और बीते सालों के हर सवाल का जबाब भी मेरे प्रत्यक्ष ही थे l मैं झट बाहर आ गयी और खुद को सँभालते हुए बच्चों को तैयार कर स्कूल को भेज दिया l बिना किसी शर्म झिझक या किसी भी गलती के एहसास से कोंसों दूर दोनों ब्रेकफास्ट की टेबल पर बैठ कर मुझे किसी नौकर की भांति आदेश दिए जा रहे थे मैं भी किसी स्वामिभक्त नौकर की भांति सेवा में थी lटेबल से उठते ही मेरे पति ने मुझसे … Read more

देखा जो एक सपना

फैशन डिज़ायनर रूपा का अपने बुटिक मे आते ही काम मे व्यस्त हो जाना, अपने स्टाफ को काम समझाना,ये उनका डेली का रूटीन था |  ” मिस डिसूजा , मिस रूबी का आर्डर रेडी हुआ की नहीं ? डिसूजा कुछ जवाब देती, उससे पहले ही रमेंद्र से पूछ बैठी ” आस्था मेंम ,की ड्रेस के लिए कल जो डिजायन आपको दिया था ,वो ड्रेस रेडी हुई की नहीं ? अरे ! जल्दी -जल्दी सबके आर्डर तैयार करो ! दीपावली का त्यौहार है सबको समय पर अपना आर्डर चाहिए होता है |पर आज रूपा का मन कहीं और है वो ऑफिस मे आराम कुर्सी मे बैठ गयी | त्यौहारी सीजन के चलते सांस् लेने भर की भी फुर्सत नहीं है | थकान सी हो रही थी | उठकर ऑफिस की खिड़की खोली तो हल्की सुनहरी धूप  ऑफिस मे प्रवेश कर गयी |      दिसंबर माह मे धूप सुहानी तो लगती ही है | धूप मे बैठना रूपा को बचपन से ही अच्छा लगता था |             रूपा धूप का आनंद लेने लगी | दिमाग को एकांत मिलते ही मन गुजरे वक्त की खटी -मीठी यादो मे गोते लगाने लगा | ‘इकलौती संतान थी ,पापा मुझे डॉ. बनाना चाहते थे वो खुद भी डॉ. थे | वो अपना क्लिनिक मुझे सौप कर खुद लोगो की फ्री सेवा करना चाहते थे | मेरी रूचि फैशन डिजायनर बनने मे थी | अपना खुद का बुटिक खोलना चाहती थी | मम्मी हमेशा मेरा ही साथ देती थी | पापा को समझाती ‘आप क्यों अपनी मर्जी बच्ची पर थोप रहे हो ,उसे जो करना है करने दो ? पापा को मम्मी की बातो से कोई फर्क नहीं पड़ता था वो अपनी जिद पर अड़े थे और मै अपनी ….             आखिर मेरा सीनियर का रिजल्ट आने के बाद मम्मी ने पापा को समझा-बुझा कर मेरा एडमिशन फैशन डिजाइनर के कोर्स के लिए करवा दिया था | मै बहुत खुश थी | अभी मेरा डिप्लोमा पूरा हुए एक माह ही बीता था कि पापा -मुम्मी ने मेरा रिश्ता एक इंजिनियर लड़के निलेश से पक्का कर दिया था | बहुत कोशिश की ,अभी शादी ना हो ,मै पहले अपना बुटिक खोलना चाहती थी | पापा ने मेरी एक न सुनी और कुछ समय बाद शादी हो गयी | मेरी इच्छा मेरे मन के किसी कोने मे दब कर रह गयी |            ससुराल मे पति निलेश के पापा- मम्मी एक बहन और दादी थे | नई बहू से ससुराल में सबको बहुत सी अपेक्षाए होती है यहाँ भी थी |सब की इच्छा पूरा करने मे अपना सपना याद ही नही रहा | निलेश की जॉब अभी लगी ही थी, तो वो मुझे बहुत कम समय दे पाते थे |अक्सर टूर पर जाना होता था | समय अपनी गति से चलता रहा | एक साल बीत गया | आखिर आज निलेश के जन्मदिन के अवसर पर अपनी बात कहने का मौका मिला ” मुझे बुटिक खोलना है प्लीज मेरी मदद कीजिये न आप , मैंने बहुत ही प्यार से कहा |,           अरे ! इसमें प्लीज बोलने की क्या जरुरत है ?”          ” तुममें योग्यता है ,काम करना चाहती हो, मै कल ही लोकेशन देख कर बताता हूँ |” तम्हारा साथ देना मेरा फर्ज है ,मै आज बहुत खुश थी | पर जैसे ही सासू माँ को पता चला, उन्होंने तुरंत आदेश दे दिया ” पहले हम घर मे अपने पोते -पोती को देखना चाहते है बुटिक बाद मे खोलना |, माजी का आदेश था तो निलेश भी चुप रह गया | मै एक बार फिर मन मसोस कर रह गयी |             दिन ,महीने ,साल निकलते रहे ,इसी दौरान मै एक बेटी और एक बेटे की माँ बन गयी थी | अब तो मेरा एक ही काम रह गया था बच्चो ,निलेश और ससुराल वालो की सेवा करना | इन सब के बीच मेरी कला अपना दम तोड़ रही थी | कभी नहीं सोचा था कि मेरी पढाई और मेरे हुनर का ये हाल होगा | निराशा मेरे अन्दर घर कर  गयी |              समय बीतता रहा अब मेरी बेटी नीता कॉलेज जाने लगी और बेटा निर्भय भी अगले साल कॉलेज  जाने लगेगा | अगले सप्ताह नीता के कॉलेज मे वार्षिक उत्सव होने वाला था नीता ने फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता मे भाग लिया था| उसने टेलर से जो ड्रेस बनवाई वो उसे बिलकुल भी पसंद नहीं आयी | नीता उदास हो गयी | आज फिर किसी अन्य टेलर के पास गयी | बेटी की उदासी मुझसे देखी नहीं गयी | तभी मुझे अपनी कला का ख्याल आया मैंने आज अपनी कला का उपयोग करके बड़े ही मनोयोग से बेटी के लिए ड्रेस तैयार करेगी  | आवश्यक काम का बोलकर रूपा बाजार गयी ,वहां से सभी जरूरी सामान जो  ड्रेस बनाने के लिए चाहिए थे लेकर आयी और बड़े मनोयोग से अपनी बिटिया के लिए फैंसी ड्रेस तैयार कर ली | मन बहुत  खुश था आज रूपा का ,क्यों न हो बरसों बाद मन का कुछ किया था |              शाम को जब नीता उदास चेहरा लेकर घर वापस आयी | ”कुछ काम नहीं बना क्या ? मैंने पूछा | नहीं माँ , तभी उसके हाथ मे वो ड्रेस रखी मैंने | नीता ख़ुशी से उछल पड़ी ”वाह माँ , आपने कहाँ से बनवाई ड्रेस ?,             बहुत अच्छी है मुझे ऐसी ही ड्रेस चाहिए थी |, तभी मेरी सासू माँ ने उसे कहा ‘तेरी माँ रूपा ने ही बनाई है | आज हमे अपनी गलती का एह्सास हो रहा है | ‘ किस गलती का दादी !, नीता ने कहा | रूपा बहू इतनी टेलेंटेड है, पर हमने इसे घर के कामो मे लगा कर रखा,  इसकी कला का कभी सम्मान नहीं किया |, सासू माँ ने कहा |              तो नीता बोली ” अब भी मम्मी अपना बुटिक खोल सकती है, अब तो हम भी अपना काम खुद कर सकते  है … Read more