एक टीस

दीपावली की रात थी । पूरा शहर चाईनीज़ झालरों की रोशनी से जगमगा रहा था, पर जग्गी कुम्हार के छप्पर में जीरो वाट का बल्ब टिम टिमा कर उजाला फैलाने की नाकाम कोशिश कर रहा था।  रात के नौं बज चुके थे। अब और ग्राहक आने की उम्मीद न बची तो, जग्गी की घरवाली रज्जो अपन बचे हुए दीयों को समेट कर बोरे में भरने लगी। ” बिक लिये जितने बिकने हे ” इस बार तो ऐसा लगै है , चौथाई बी ना बिके ” । दियों को समेटती जा रही थी और धीरे धीरे बड़बडा़ रही थी। ” आग लगै इन बिदेसी झाल्लरों को, जब सै ये देस मैं बिकने लगी हैं, सहर तो जगमगा दिया, पर म्हारे घर मैं तौ अन्धेरा कर दिया इन्होंनै,! म्हारा तो धन्धा ही चौपट हो गया! साल भर मे येयी तो दिन हे, जब दो पैसे कमा लेवै हे, अब वे भी गये। अब तौ कोई दीये खरीदता ही नहीं, बस नेग के लियों खरीदैं हैं पांच सात दीये। और तौ और, लुगाइयां भी इतनी सुघड़ हो गीं हैं कि होई, करवा चौथ पै बी इस्टील के लोटे रक्खन लगीं, जैसै दस रुपे के करवे खरीदने मैं लुट जात्ती होंये”, बजार में तौ दो सौ रुपे की चाट पकोडी़ एक मिनट में गड़प करके भाव भी ना पूच्छैं । सारी तिजौरी उन दस रुपों में ही भर लेंगी जैसै “।  तभी पीछे से उसका छः साल क बेटा कन्नू दौड़ता हुआ आया और मां पल्ला खींचने लगा “माँ माँ! देख!! बाहर कितनी रोसनी हो री है! सारा चमचम हो रा है, । पर…. हमारे घर मैं तो अन्धेरा क्यूँ हो रा है, फिर कुछ सोच कर कहने लगा ” माँ हमारे पास तो इतने दीये हैं… सब से ज्यादा.. तूभी जला ना! माँ !! भौत सारे दीवे”!!  बेटे को मचलते देख मां का दिल रोने लगा, ” कैसे बताऊं उसे कि बेटा , दीये तो बहुत हैं पर!!! उनमें डालने को तेल कहां से लाऊं।  सुनीता त्यागी मेरठ। यह भी पढ़ें ……… उसकी मौत झूठा सफलता का हीरा पापा ये वाला लो

लक्ष्मी की विजय

दीपावली पर धन की देवी लक्ष्मी जी की पूजा का विधान है | पर एक लक्ष्मी हमारे घरों में भी होती है जिसे हम गृह लक्ष्मी कहते हैं | अब अगर पृथ्वी पर गृह लक्ष्मियाँ अपनी समस्याओं के समाधान के लिए  पुकारेंगी   तो एक स्त्री होने माता लक्ष्मी को तो आना ही पड़ेगा | अब जब गृह लक्ष्मियाँ की माता लक्ष्मी से बात होगी तो माता लक्ष्मी यहाँ की दशा तो सुधारेंगें ही  स्वर्ग में कुछ आमूल चूल बदलाव भी करेंगी  | आखिर हम एक दूसरे से सीखते जो हैं | तो क्या होंगे ये बदलाव पढ़िए नागेश्वरी राव जी की खूबसूरत कहानी  लक्ष्मी की विजय  विष्णु जी पुकार  ने लगे, लच्छु देखो, तुम्हारा सैलफोन बज रहा है, कोई तुम्हारा भक्त पुकार रहा होगा, “अजी, आप हमारे सैलफोन के पीछे क्यों पड़े है, जब आप स्काइप पर अपने भक्तों से बात करते हैं तो मैंने कुछ कहा है क्या! ” नहीं बाबा, मैंने यों ही मजाक किया, इतने में ही बुरा मान गई! नही! नहीं! श्रीमान,  मैंने केवल आपकी  ही बोली बोलने की प्रयास किया  है. फिर बोली, नाथ, मेरे हाथ भारी हो रहे हैं जरा मानव लोक से चिकित्सक को खबर कीजियेगा! मैं भी उन्हें बुलाने की बात सोच रहा था, मेरे पगों में भी रक्तचाप में गिरावट आ गयी| तभी फिर से बिपर बज उठी, लक्ष्मी जी ने फ़ोन उठाई, किसी महिला की कोमल आवाज बोल उठी ” मैडम आपसे कुछ सलाह लेनी है, क्योकि सर्वत्र आपका ही बोलबाला है साथ ही आप अनुभवी और उच्च आसन पर विराजमान हैं, हमारे महिला-मंडल आपसे भेंट के लिए समय निर्धारित कर कुछ मसलों पर चर्चा करना चाहती है, कृपया आप मिलने की अनुमति देकर नियोजित समय बतायेगीं ?  लक्ष्मी   अवश्य, हम भी जाने, भूलोक में स्त्रियाँ किन-किन समस्याओं से जूझते हैं, उनका जीवन शैली और सोच कैसी है? फिर उन्होंने अपने घडी में देखकर , कही कि कल सुबह दस बजे आ जाइये , इस पर महिला  अध्यक्ष ने अत्यंत हर्ष के साथ धन्यवाद कहकर फोन रख दी. लक्ष्मी की प्रसन्नता से दमकती चेहरे को देखकर विष्णु जी बोले क्या बात है! चेहरा कमल सा खिला हुआ है, तो लक्ष्मी जी ने इठलाती हुई कही कि क्यों न प्रसन्न होऊं, कई वर्षो से, नही! नही! कई युगों के बाद आज मुझे किसी ने वरदान के लिए नही अनुभवी नारी के रूप में मुझे पहचानकर निमंत्रित किये है. दूसरे दिन महिलाओं के अध्यक्षा दीपा अपने अन्य सखियो के साथ बुके लेकर लक्ष्मी जी के सामने उपस्थित हुई| वे लक्ष्मी जी को आभूषण रहित, सादे कुर्ता पायजामा में देखकर अचम्मित हो गए.  उनके विस्मय-बोधक चिन्ह अंकित चेहरे को ताड कर लक्ष्मी जी मंद मुस्कराटों को बिखेरती हुई कही” बाह आभरणो की आवश्यकता तबतक होती जबतक किसीकी व्यक्तित्व के अस्मिता की पहचान नही होती है। बात को बढ़ाती हुई बोली– बोलिए आपको किस बात का गम है? भूमण्डल में स्त्रियाँ सभी क्षेत्रों में पुरुषों के बराबर कर चुकी है. दीपा ने कही है कि आपने सही फ़रमाई, लेकिन आप हमारे द्वारा अविष्कृत यंत्र में बैठकर मॉनिटर में दखेंगे तो हमारे समस्याओ की पूर्ण जानकारी हो जाएगी। लक्ष्मी जी यंत्र में प्रविष्ट होते ही यंत्र अविष्कारक लता ने मॉनिटर पर एक एक  परिवार का चित्र प्रस्तुत करते हुए कहती गई “ये हैं सुरेश अपने प्रोफेसर पत्नी को मंत्री के पास टिकट पाने के लिए भेजते है|उनका कहना है कि जब वेद पुराणो में राजा अपने शान या स्वार्थ सिद्धि के लिए अपनी पत्नी को दूसरे राजाओ के पास भेजते थे तो धन और पद के लिए अपनी इच्छा से हम अपनी पत्नी को क्यों नही भेज सकते ? दूसरा समाजसेवक दीनदयाल जी ये खुद कुछ कमाते नही., पर अपने पत्नी अंजू((U.D.C) को विभिन्न नूतन अन्वेषित गलियों से विभूषित कर, धन समर्पित करने के लिए बाध्य करते है, जिसे वे अधिकारियों,गुंडों, व्यभिचार में लुटाते है. तीसरी, शारदा जिनका मुँह ही नहीं कान, आँखे  भी कैंची की तरह चल कर अपने और दूसरे के परिवार को बर्बाद करती है| उन्हें अपने गहने, साड़ियों, पार्टियो और डिंग आंककर  नाक में दम करने के सिवा कुछ सूझता नही. चौथा दिनेश अध्यापक है, जो चाहते है, कि पत्नी नौकरी करे, परिवार के सदस्यों की सेवा चौबीसों घंटे करे और पाठशाला में किसीसे भी बात न करे. शक से पीड़ित होकर पत्नी के हर व्यवहार में मीन- मेख  निकाल कर न खुद खुश रह पाते है न पत्नी को,  ऊपर से अपने को ज्ञानी, दयालु, विशाल एवं निर्लिप्त कहते है.  इस प्रकार वह मॉनिटर पर वह अभिनेताओं,डॉक्टर, कलाकारों, सरकारी-गैर सरकारी कर्मचारियों आदि विभिन्न वर्गो के पारिवारिक,व्यक्तिगत, समाजिक,धार्मिक आदि के रूपों को दर्शाती गयी| लक्ष्मी जी इस विस्तृत व्याख्यान से स्तब्ध रह गयी फिर विभिन्न युगों के आचार व्यवहार अपने स्वर्ग के लोगो के विचारो और आचरणों की तुलना में डूब गयी| थोड़ी देर में ही उनके आँखों में चमक आ गयी जैसे राशन  की दुकान की के लम्बे कतार में खड़े व्यक्ति को चावल,गेहूं, चीनी,मिटटी के तेल आदि सबकुछ मिल गया हो. लक्ष्मी जी मुस्कराटों को बिखेरती हुई कहती है कि संसार में सबकुछ हैं जिसे इंसान अपने मेहनत,विवेक,सयंम द्वारा पा सकता है. पर ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ और अहंकार के कारण यथार्थ का सही अवगाहन के आभाव में वह दुखी और पीड़ित है. समय का, स्थान का, लिंगो का, विचारो का, भावो का सही समीकरण नहीं हो पाया है  विचारो में विकृतियां का आना स्वाभाविक है| मैं विष्णु लोक जाकर   भगवान् विष्णु से  इस बारे में चर्चा करुँगी | वे इन सबसे रूबरू  होंगे,शायद वे स्त्री की शक्ति देखना चाहते हैं | वे देखना चाहते हैं कि आप अपने दुनिया को कितना जानते है, सचेत हैं, कितना योगदान दे सकते है ? अच्छा , अब मैं चलती हूँ कहकर लक्ष्मी आगे बड़ी तो दीपा और अन्य महिलाएँ आग्रह करने लगी, उनका आतिथ्य स्वीकार करे, जो आपके व्यंजनों से काफी भिन्न है, जैसे पिज़ा ,बर्गर, डोसा, बेलपूरी,रसमलाई,गुलाबजामुन आदि आपकी जीभ  को खुश कर देंगे| लक्ष्मी जी, प्यारभरा आमंत्रण स्वीकार किया  और भोज्य पदार्थो का आनंद उठाकर अपने पति के पास जाकर बोली है कि भूलोक के स्त्रियों की समझदारी और उनकी चेतनशीलता को देख कर, मेरी बुद्धि भी तेज  हो गई| अभी तक स्वर्ग की जनता सुरापान, कोमलांगियों के सतही सौंदर्यपान करने में ही तल्लीन  है, उनके शरीर,मन, आत्मा चैतन्यशून्य हो गयी है |  हमे भी स्वर्ग के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन लाना होगा| सभी को अपनी अपनी योग्यता के अनुसार काम करना होगा तदनुसार परिश्रमिक और सुविधाएँ उपलब्ध होना चाहिए| एक दूसरे के साथ सौहृदतापूर्वक व्यवहार करना पड़ेगा, नियम का उल्लंघन करने वालो को वेतन में कटौती या शारीरिक दंड देनी चाहिए| जिससे न आपके न हमारे या अन्य सदस्योँ के अंगो में शीतलता आयेगी न भूलोक से चिकित्सकों को बुलाना पड़ेगा| विष्णु जी मुस्कराते हुए कहे : डार्लिंग मैंने भी अपने साधनो द्वारा सारे खबरें प्राप्त कर ली है टीवी और कंप्यूटर द्वारा घोषणा करवा दी है की  कि … Read more

“ना तुम जानो ना हम”

‘हैलो मौम…, कैसे हो आप…’ ‘अरे श्रद्धा..! तुम कब आई. कोई खबर भी नही. अचानक से कैसे…?’ ‘मौम, मेरे एग्ज़ाम ख़त्म हो गये तो सोचा क्यूँ ना घर आ कर आपको सर्प्राइज़ दूं. क्यूँ? कैसा रहा सर्प्राइज़…?’ ‘बहुत बढ़िया बेटा..’ और वातावरण में हँसी की गूँज. ‘आज सब तुम्हारी पसंद का बनेगा. राजमा, जीरा राइस और…’ ‘और… बूँदी का रायता…’ फिर हँसी के ठहाके… ‘मौम, आज नानू के घर जाने का मन है..’ ‘तो हम अपने बेटी के मन की हर बात पूरी करेंगे.. और…’ ‘नानू के घर चलेंगे…’ दोनो चहकते हुए बोल उठीं… अभी दोनो माँ बेटी ने खाना शुरू ही किया था कि, फोन की घंटी बजी. ‘हेलो…, जी कौन..?’ ‘मेरा नाम गिरीश है. मैं सिविल अस्पताल से बोल रहा हूँ. सड़क दुर्घटना में एक व्यक्ति को गंभीर चोटें आई हैं और उनकी जेब से मुझे आपका नंबर मिला इसलिए आपको फोन मिला दिया. क्या आप उन्हें जानती हैं.’ ‘क्या नाम है उनका…?’ ‘जी, राकेश..’ ‘क्या..?’ ‘अगर आप उन्हें जानती हैं तो कृपया आप सिविल अस्पताल में जल्दी आ जाइए.’ ‘जी नही. मैं इस नाम के किसी भी व्यक्ति को नही जानती.’ और अर्चना ने फोन रख दिया.. ‘किसका फोन था माँ?’ ‘कुछ नही बेटा. रौंग नंबर था.’ अगली सुबह अर्चना घर से ये कह कर निकली कि, ज़रूरी काम से शहर से बाहर जा रही हूँ. शाम तक लौटूँगी. सुबह के ग्यारह बज रहे हैं. अर्चना अस्पताल में दाखिल हुई… ‘सुनिए, मेरा नाम अर्चना है कल राकेश नाम के एक व्यक्ति को यहाँ दाखिल करवाया गया था. वो कहाँ पर हैं.’ अर्चना ने वहाँ की रिसेप्षनिस्ट से पूछा. ‘आप उनकी क्या लगती हैं?’ ‘मैं… मैं पत्नी हूँ उनकी..’ ‘उनका कल शाम को ही देहांत हो गया. कोई भी रिश्तेदार ना आने पर अस्पताल की ओर से उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया.’ अर्चना तो रो भी नही सकती थी. राकेश से उसका रिश्ता कब का बिखर चुका था. आज से बीस बरस पहले के पन्नों में दोनो ने एक दूसरे के साथ रहने की कस्में खाई थी. राकेश अर्चना से बहुत स्नेह करता था. घरवालों की सहमति से ही दोनो ने शादी भी की. शादी के कुछ महीनों बाद ही राकेश को किसी काम से दिल्ली जाना पड़ा और फिर उसने दिल्ली में ही नौकरी भी कर ली. वो दिल्ली से वापिस नही लौटा. घरवालों के फोन गये पर कोई भी जवाब नही मिल पाया. फिर अर्चना ने दिल्ली जाने का फैंसला किया. राकेश के पते के बारे में तो वो कुछ जानती नही थी. उसकी कंपनी के बारे में वो जितना जानती थी उसी के सहारे राकेश तक पहुँचने में सफल रही. राकेश के दफ़्तर पहुँचने पर उसे पता चलता है कि वो आज दफ़्तर नही आया. उसके घर का पता मालूम किया और अर्चना वहाँ पहुँच गयी. अर्चना ने फ्लैट की घंटी बजाई…दरवाजा खुला… ‘जी कहिए, किससे मिलना है आपको..?’ ‘क्या राकेश यहीं रहते हैं..?’ ‘जी हाँ..आप कौन?’ ‘मेरा नाम…’ अर्चना अभी अपने सच को कहने ही वाली थी कि.. इससे पहले ही सब मौन हो गया… ‘तुम… तुम यहाँ कैसे…??’ ‘तुम इसे जानते हो राकेश..? कौन है ये..?’ ‘उल्टे फेरे लेते हुए अर्चना वहाँ से चली आई..’ घर में किसी को कोई खबर नही कि राकेश कहाँ है, अर्चना कहाँ है. अर्चना के माता–पिता उसे ले कर बहुत चिंतित थे. उसके भाई को दिल्ली भेजा गया.. और यहाँ आ कर उसे सारी सच्चाई का पता चला. लेकिन, अर्चना का कुछ भी पता ना चल पाया.. हताश, वो लौट गया. अर्चना ने अपने जीवन को समाप्त करने का निर्णय ले लिया. तीन महीने की गर्भवती वो अब कहाँ जाती. उसके पास कोई विकल्प नही था. ससुराल जाना नही चाहती थी और अपने मायके में क्या मुँह ले कर जाए. क्योंकि पसंद तो अर्चना की ही थी. कदम उसे कहाँ ले जा रहे थे वो भी नही जानती थी. सड़क को पार करते समय उसके मन में एक भयावह विचार आया कि क्यूँ ना वो अगली सड़क को पार करे ही ना. हाँ यही ठीक रहेगा.. गाड़ी की ज़बरदस्त ब्रेक लगी… ‘अरे भाई ध्यान से.. अभी कुछ अनहोनी हो जाती तो लेने के देने पड़ जाते..’ अर्चना कुछ ना बोली. गाड़ी का दरवाज़ा खुला और 40-45 वर्ष का एक व्यक्ति. सफेद कुर्ता–पायजामा और पैरों में कोलपुरी जूती पहने हुए बाहर निकला. ‘क्या बात है बेटा. कहीं जाना है क्या..? रास्ता भूल गई हो क्या.. ? मैं कुछ मदद कर दूं…?’ अर्चना सुन्न खड़ी. मुँह से एक भी शब्द नही फूट रहा था. ‘देखो बेटा कुछ तो बताओ.. कौन हो तुम? और कहाँ जाना है तुम्हे?’ ‘कहाँ… जाना है… मुझे….?हां…नही… पता नही … कहाँ… जाना.. है.. मुझे…’ शब्दों को ढूंढ कर संजोने का असफल प्रयास करती हुई संजना फिर सन्नाटे की गोद में जा बैठी | ऐसे कई सन्नाटे होते हैं जो व्यक्ति के जीवन के साथ जुड़े होते हैं और कई बार उनमें से निकलना मुश्किल हो जाता है | दिल बहुत नाजुक होता है | इसे जितना भ्रम में रखो उतनी ही इसकी उम्र बढ़ जाती है | भ्रम टूटा तो यह भी टूट जाता है | परन्तु हम हमेशा भ्रम में नहीं रह सकते सच्चाई से परिचय होना बहुत जरूरी है |   ‘लगता है कोई ठिकाना नही है इसके पास.. कपूर साहिब ने एक अनुमान लगाया.. पर अपने साथ चलने के लिए भी कैसे कहूँ… क्यूँ भरोसा करेगी वो मुझपर.. मैं तो अंजान हूँ इसके लिए…’ कपूर साहिब ने अपने बेटी को फोन मिलाया और उसे वहाँ आने के लिए कहा… कपूर साहिब ने अर्चना को सहारा देते हुए उठाया और अपनी बेटी पूर्वी का इंतज़ार करने लगे.. ‘पापा क्या बात है..आपने अचानक मुझे यहाँ क्यूँ बुलाया है.. और ये… ये कौन हैं…’ ‘सब बताता हूँ बेटा… इधर तो आओ..’ ‘मेरी गाड़ी के साथ टकरा गयी ये..’ ‘क्या ? कहीं चोट तो नही आई ना इसे…’ ‘नही.. मुझे लगता है इसके साथ कुछ अनहोनी हुई है… जिससे ये परेशान है.. मैने तुम्हे यहाँ इसलिए बुलाया है कि तुम इसे घर ले जाओ और मैं पुलिस स्टेशन जा कर आता हूँ…’ ‘ठीक है पापा.. आप निश्चिंत रहो… मैं इसे घर ले जाती हूँ…’ पूर्वी, अर्चना को घर ले आई… कुछहीसमयमेंकपूरसाहबभीघरपहुँचे… ‘देखो बेटा इसे … Read more

उसकी मौत

आजएक बार फिर हम सब दोस्त सोहन के घर एकत्रित हुये थे – मयपान के लिये नहीं अपितु उसकी शव-यात्रा में शामिल होकर उससे अंतिम विदा लेने के लिये! उसके घर के बाहर गली में शोक सभा के लिये लगाये गयेशामियाने के नीचे एक तरफ गली-मोहल्ले व रिश्ते की औरतें ‘स्यापा‘ कररही थीं और दूसरी तरफ कुछ शोकग्रस्त मर्द बैठे थे जिनमें से कुछ तोबिल्कुल ख़ामोश थे तो कुछ आपस में वार्तालाप कर रहे थे। हम चारों दोस्तभी अपने सिर झुकाये इस शोक सभा में शामिल थे! सहसा, सभा में मौजूद एक सज्जन ने मौत का कारण जानतेहुये भी अपने पास बैठे दूसरे सज्जन से औपचारिकतावश अपनी सहानुभूतिदर्शाते हुये वार्तालाप शुरू किया, “वाकई ही बड़ा ज़ुल्म हुआ है भाईसाहिब, इस परिवार के साथ… बेचारे के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, बड़ाशायद लड़का है और दूसरा बच्चा लड़की है, सोहन की उम्र भी कोई ख़ास नहींथी, यही कोई बत्तीस-पैंतीस साल मुश्किल से …पिछले हफ्ते ही मैं ख़ुदअपने सैक्टर की मार्किट में उनसे मिला हूँ, शाम का ‘टाइम‘ था … कोनेमें सब्जी वाले की दुकान के साथ वाली पान-सिगरेट की दुकान पर खड़े थे, शायद पान तैयार होने की इंतज़ार में थे… पान खाने का उन्हें बड़ा शौकथा …मैं ज़रा जल्दी में था, उनसे कोई ज़्यादा गल-बात तो नहीं कर पाया, पर मुझे क्या पता था कि यह मेरी अंतिम मुलाक़ात होगी… क्या भरोसा हैज़िंदगी का? है कोई, भला …?” अविश्वास की मुद्रा में अपना सिर हिलाते हुए उन्होंने कहा। उनके प्रत्युतर में वार्तालाप में उनके साथ लिप्त सज्जन जो रिश्ते में शायद सोहन के काफी नज़दीकी थे, आखिर फफक ही पड़े, “यही सुना है, कल रात अपने दोस्तों के साथ खाने-पीने के बाद अपने घरस्कूटर पर रवाना हुये हैं कि उस रिक्शे वाले चौंक पर, एक ‘थ्री-व्हीलर‘ वाले के साथ टकराकर सिर के भार सड़क पे गिरे हैं कि बस वहीं पर दम तोड़दिया …!” “हेल्मेट नहीं था डाला हुआ सोहन लाल जी ने …?” “ओह जी, यह सब बातें हैं …हेल्मेट भी डाला हुआ था, पर सड़क पर गिरने के बाद हेल्मेट किधर का किधर जा गिरा, सर जाके उधरकंक्रीट से टकराया…बस जी…. बुरी घड़ी आई हुई थी…होनी को कौन टालसकता है…?” पढ़िए – साडे नाल रहोगे तो योगा करोगे वार्तालाप को सुनकर हमें लगा जैसे हम चारों दोस्त हीअपने दोस्त की मौत के ज़िम्मेवार हैं और लोग हमें ही कोस रहे हैंक्योंकि घटना की शाम हर रोज़ की तरह हम सभी दोस्त मिलकर जशन मना रहे थे।उस दिन सोहन ने कुछ ज़्यादा ही पी ली थी और फिर वह नशे की हालत में घरजाने का हठ करने लगा था। उसकी हालत को देखकर हम सभी दोस्तों ने उसेस्कूटर चला कर घर न जाने का आग्रह भी किया था, लेकिन वह हमारी बात कबमाना था। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था, इससे पूर्व भी तो हममें से कोई न कोई नशे की हालत में घर जाता रहा था। ख़ुशक़िस्मती से हममें से किसी के साथ कोई बुरी घटना नहीं घटी थी। हमारे बीच ऐसी पार्टियाँ अक्सर होती रहती थीं, कभी सोहन के घर, कभी मोहन के घर, कभी मेरे यहाँ तो कभी हम किसी क्लब में जा धमकते थे। अब तो हम सब को मय की लत ऐसी लगी थी कि पीने के लिये हमें कोई बहाना भी नहीं चाहिए होता था, बस ऑफिस में ही तयहो जाता था कि कब और कहाँ शाम को मिल रहे हैं। ऑफिस में एक-दूसरे केसाथ काम करने के इलावा हम चारों-पाँचों दोस्त लगभग एक उम्र के भी थे।ताश खेलने बैठते तो घर-वर सब भूल जाते। पढ़िए –एक लेखक की दास्तान लेकिन सोहन की अचानक मौत हम सबके लिये एक बहुत बड़ासदमा थी। इस हादसे से सबक लेकर या फिर इसके डर से कुछ दिन तो हममें सेकिसी ने भी पीने का नाम नहीं लिया लेकिन पीने की यह लत अगर किसी को अगरएक बार लग जाये तो मय पीने वाले इन्सानों को अंत में बिना पिये कबछोड़ती है! हमारी यह लत “मैं कम्बल तो छोड़ता हूँ मगर कम्बल मुझे नहींछोड़ता” कहावत जैसी कटु सच थी! सोहन को छोडकर आज सभी दोस्त एक बार फिर पीने के लिये मोहन के घर एकत्रित हुए थे। सब कुछ वही था, मय की बोतल, पुराने दोस्तऔर खाने का सामान जो हमारे सामने ‘टेबल‘ पर रखा था। अगर किसी चीज़ की कमी थी तो वह थी – हमारे दोस्त सोहन की! सोहन की अनुपस्थिति हम सबको बार-बार झँझोड़ रही थी, उसकी मौत रह-रहकर हमारी आत्मा को कचोट रही थी।आज फिर हमने पीने की कोशिश की मगर लाख यत्न करने के बाद भी पी न सकेथे। कहतेहैं – सुबह का भूलाअगर शाम को घर लौटआये तो उसे भूला नहीं कहते,हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही थी।क्या ग़लत हैऔर क्या ठीक है, संगत में रहकर हम शायद यह भूले हुये थे और भटक भी गए थे, लेकिन उसकी मौत ने हमारीआँखें खोलदी थीं! अशोक परूथी “मतवाला” पढ़िए अशोक परूथी की दो प्रकाशित पुस्तकों की समीक्षा  काहे करो विलाप (व्यंग संग्रह ) अंतर – कहानी संग्रह

स्वाद का ज्ञान

Motivational story in hindi – swad ka gyan                          दोस्तों , हमारी माताओ और बहनों की आधी से अधिक  जिन्दगी रसोई में निकल जाती है | दिन का बड़ा हिस्सा वो रसोई में व्यंजन तैयार करने में लगा देती हैं | यहाँ उनकी सृजनात्मकता देखने को मिलती है | पर अपनी इस रचना धर्मिता में वो अपने स्वाद का ध्यान नहीं रखती | उनका पूरा ध्यान इस बात पर होता है की उनके द्वारा बनाए गए खाने से घर के सदस्य संतुष्ट हो जाएँ | ख़ास कर अपने पति और बच्चों की पसंद का खाना तैयार करते समय उनके मन में गज़ब का उत्साह और संतुष्टि होती है | अपने इस अवैतनिक काम के लिए वो बस दो शब्द स्नेह भरे सुनना चाहती हैं | तभी तो आपने भी महसूस किया होगा | बड़े मन से बनाए गए खाने को आपको परोसने के बाद एक निश्छल सा प्रश्न उनकी  तरफ से आता है ,” खाना कैसा बना है ? खाने वाले की स्वीकृति की मोहर उनका दिन बना देती है | पर क्या हम ऐसा कर पाते हैं ? आज एक ऐसी ही कहानी एक पंडित और पंडिताइन जी की है | पंडित जी अपनी पत्नी के साथ रहते थे | संतान कोई थी नहीं | घर में बस दो लोग |सुबह भोजन करने के बाद पंडित जी अपना पोथी पत्रा ले कर बाहर निकल जाते | देर शाम को घर आते | फिर खाना खा कर सो जाते | ये उनका दैनिक नियम था | अब पंडिताइन जी दन भर अकेली रहती | पति का स्नेह व् साथ पाने के लिए वो बहुत मेहनत से रसोई तैयार करती | धनिया का एक एक पत्ता तोडती , मसाले हाथ से सिल बटने पर पीसती , देर तक भूनती | इस तरह बड़ी मेहनत से सुस्वादु व्यंजन तैयार करती | फिर तैयार हो कर पति का इंतज़ार करती | पुलक कर खाना परोसने के बाद वो ये प्रश्न पूँछना नहीं भूलती की खाना कैसा बना है | उन्हें किसी मीठे से ऊत्तर का इंतज़ार रहता | पर उनका इंतज़ार पूरा होने का नाम नहीं ले रहा था | पंडित जी सर झुकाए झुकाए खाना खा लेते | पूंछने पर भी कोई उत्तर नहीं देते | पंडिताइन जी निराश हो जाती उन्हें लगता शायद खाना पंडित जी की रूचि के अनुसार नहीं बना है | जब वही खाना वह अडोस – पड़ोस में किसी को खिलाती तो सब बहुत प्रशंसा करते | फिर भी पंडिताइन जी को अपने पति से प्रशंसा सुननी थी | इसलिए वो संतुष्ट नहीं होती | वो अगले दिन और बेहतर बनाने का प्रयास करती | पर वही  ढ़ाक के तीन पात | पंडित जी को कुछ नहीं कहना था तो नहीं कहना था | दिन बीतते गए और पंडिताइन जी की निराशा भी बढती गयी | सारे प्रयास विफल जा रहे थे | एक दिन उन्होंने कुछ अलग करने का निश्चय किया | अगले दिन उन्होंने दाल चावल के कंकण नहीं बीने , वैसे ही बना दिए | सब्जियां ठीक से धोयी नहीं | हरी सब्जियां थी पकने के बाद किसकिसाने  लगी | रोटी भी कच्ची – पक्की सेंक दी | नियत समय पर पंडित जी खाना खाने बैठे | पंडिताइन जी ने खाना परोस दिया | पंडित जी ने जैसे ही पहला कौर मुंह में रखा | तो थू – थू कर के उलट दिया | गुस्से में पंडिताइन से बोले ,” ये भी कोई खाना है , इससे बेस्वाद तो कुछ हो ही नहीं सकता | ऊपर से इतना किसकिसा रहा है की मेरा पूरा मुंह धूल  से भर गया | पंडिताइन जी तो इसी अवसर की प्रतीक्षा  में थी | तपाक से बोली ,” अरे आप को तो स्वाद का ज्ञान हैं | रोज इतना रुच विध के आपके लिए खाना बनाती | पूँछती  भी की खाना कैसा बना है | बरसों – बरस बीत गए पर आपने कोई जवाब ही नहीं दिया | तब मुझे लगा की शायद आपको स्वाद का ज्ञान ही नहीं है | मैं बेकार ही इतनी मेहनत करती हूँ | मैं जो बनाउंगी , जैसा भी बनाउंगी आप चुप – चाप खा लेगे | अब पंडित जी का चेहरा देखने लायक था |उन्हें अपनी गलती का अहसास भी हो गया  | दोस्तों , हम सब की जीभ में टेस्ट बड्स यानी की स्वाद की ग्रंथियां होती हैं | जो हमें भोजन के स्वाद के बारे में बताती हैं | फिर भी कितने लोग हैं जो खुलकर तारीफ़ करते हैं |ये झूठा अहंकार किस बात का ?  ये हमारे ही घर की महिलाएं हैं जो इतनी मेहनत से भोजन तैयार करती हैं | क्या हमारा फर्ज नहीं बनता की खाना पसंद आने पर खुलकर प्रशंसा करें व् उन्हें इस के लिए धन्यवाद करें | उम्मीद है की आपभी अब इस बात का ध्यान रखेंगे , खाना खाते समय दो मीठे बोल भी बोलेंगे खाली खाने का स्वाद ही नहीं लेंगे | वर्ना किसी दिन आपको भी कंकण पत्थर से भरी दाल खाने को मिल सकती है | तैयार रहिये | हमारी ये प्रेरक कथा “ स्वाद का ज्ञान “ आप को कैसी लगी | पसंद आने पर इसे शेयर जरूर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपके पास भी कोई कहानी लेख , आदि है तो हमें editor.atootbandhann@gmail.comपर भेजें | पसंद आने पर उसे यहाँ प्रकशित किया जाएगा | सुबोध मिश्रा  यह भी पढ़ें …  पापा ये वाला लो सफलता का हीरा टाइम है मम्मी आग 

पापा , ये वाला लो

                                     दोस्तों , कहा गया है की बच्चे मन के सच्चे होते हैं |ऐसी ही एक छोटे बच्चे की कहानी मैं आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ | जो बचपन की मिठास से भरी है |  चार साल का छोटा सा बच्चा राजू अपने पापा -मम्मी व् दादी बाबा के साथ रहता था |राजू सब का लाडला था | कभी कभी उसके पापा  कहते की  राजू के साथ थोड़ी सी कड़ाई से पेश आना चाहिए | ज्यादा लाड – प्यार की वजह से वो जिद्दी होता जा रहा है |  पर कोई उनकी बात सुनता ही नहीं था | तो पापा ने खुद ही राजू को सुधारने की ठान ली |  एक बार राजू को उसकी दादी ने दो सेब दिए | राजू उन सेबों को खाने से स्थान पर खेलने लगा | खेलते – खेलते वहीँ बिस्तर के पास रख दिए और दूसरे खिलौनों से खेलने लगा | तभी राजू के पापा आये |  उन्होंने राजू के पास सेब देख कर उसे बांटना सिखाने के लिए कहा ,” राजू तुम्हारे पास तो दो सेब हैं | एक सेब मुझे दे दो |  राजू को खिलौनों  में व्यस्त देखकर पापा ने फिर कहा ,” राजू , एक सेब मुझे दे दो | नन्हें राजू ने सुना ही नहीं | वो तो अपने खेल में ही मस्त रहा | अब पापा को थोडा गुस्सा आ गया | वो जोर से बोले ,” राजू तुम्हारे पास दो सेब हैं | कायदे से तुम्हें इन्हें बांटना चाहिए | बांटना तो दूर तुम मुझे मांगने पर भी एक भी नहीं दे रहे हो |ऊपर से मेरी बात भी नहीं सुन रहे हो | ये बहुत गलत बात है | चलो ठीक है | तुम नहीं दे रहे हो तो मैं खुद ही ले लेता हूँ | पापा सेब लेने आगे बढ़ने लगे |  अब राजू का ध्यान पापा की बात पर गया | उसने झट से दोनों सेब उठा लिए और बोला एक  मिनट पापा | कहते हुए उसने एक सेब  की एक बाईट ली | पापा ने दूसरे सेब की तरफ हाथ बढ़ाया | तभी राजू ने दूसरे सेब की भी एक बाईट ले ली |  अब तो पापा को नाराज़गी महसूस हुई की राजू इतना छोटा होने के बाद स्वार्थी हो गया है | अपनी चीजे किसी से शेयर ही नहीं करना चाहता | पापा उसे डाँटने ही वाले थे | तभी राजू का मीठा सा स्वर गूंजा … “ये वाला लो पापा , ये ज्यादा मीठा है “                              पापा का गुस्सा एक मिनट में छू मंतर हो गया | उनकी आँखे नम हो गयीं और उन्होंने राजू को गले से लगा लिया | और बोले ,” i love you बेटा | दोस्तों , राजू कितना प्यारा बच्चा था | वह अपने पापा को best देना चाहता था | पर पापा उसकी feelings नहीं समझ पाए | एक सेकंड के लिए ही धोखा खा गए | वो तो बच्चा था जल्द ही confusion दूर हो गया | पर कई बार टीन एज आने के बाद पेरेंट्स व् बच्चों में ये कान्फुजन दूर नहीं हो पाता | जहाँ एक तरफ पेरेंट्स को लगता है की बच्चे उन पर ध्यान नहीं देते | उनसे कुछ शेयर नहीं करते | पर कई बार बच्चे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वो अपने पेरेंट्स को बेस्ट देना चाहते हैं | इस कारण तनाव में चले  जाते हैं | जरूरत है दोनों इस पर खुल कर बात करें | व् पहले से ही धारणा बना लेने के स्थान पर  सही समय पर प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करें | सुबोध मिश्रा  यह भी पढ़ें ….  महात्मा गाँधी जी के 5 प्रेरक प्रसंग सफलता का हीरा बोनसाई खीर  में कंकण  बाल मनोविज्ञान पर ये कहानी आप को कैसी लगी | अगर आप को यह कहानी पसंद आई हो तो इसे शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | 

सफलता का हीरा

पुराने जमाने में राज़ दरबारों में तरह – तरह की प्रतियोगिताएं हुआ करती थी | इससे लोगों केज्ञान का विकास तो होता ही था |उनको एक शिक्षा भी मिलती थी | वो शिक्षाएं आज भी हमारे काम आ रही हैं | तो आज भी आपसे एक ऐसी ही कहानी शेयर कर रहा हूँ |  तो कहानी यह है की एक राजा था | उसके राज्य में बहुत सारे विद्वान लोग थे | अक्सर उनके दरबार में दूसरे राज्यों के लोग आते व् दोनों के बीच विद्वता  की परीक्षा होती | ज्यादातर उसी के राज्य के लोग जीतते | इसलिए राजा को गर्व तो रहता ही | उसके राज्य की ख्याति भी दूर – दूर तक फ़ैल रही थी |  एक बार उसके दरबार में एक हीरों का व्यापारी आया | उसने राजा को दो हीरे दिए और कहा ,” इनमें से एक असली है और एक नकली | आप ऐसा करिए की इसे अपने पूरे राज्य में घुमाइए |  अगर कोई बता देगा की कौन सा नकली है तो यह हीरा उसका |  और अगर नहीं बता पाता  है तो आप उस हीरे के मूल्य से दोगुना धन मुझे दीजिये | हीरे तो देखने में वाकई  एक जैसे थे | राजा असमंजस में पड़  गया | राज्य में ढिंढोरा पिटवा  दिया गया , “ आइये –आइये और असली हीरा पहचान कर उसे घर  ले जाइए |  भीड़ लग गयी लोग आते गए हीरा देखते गए पर  पहचानने में असफल रहे | तभी एक अँधा व्यक्ति आया | उसने दोनों हीरे अपने हाथ में लिए और एक को वापस करते हुए बोला , “ ये है असली हीरा , जो मेरे हाथ में है वो तो निरा कांच है |  हीरे का व्यापारी असमंजस  में पड़ गया ,” वाकई उसने सही पहचाना था , पर कैसे ? उसे तो दिखाई ही नहीं देता | अँधा व्यक्ति मुस्कुराया , हमें छू कर पता चला सरकार | इस धूप  में जो गर्म हो गया वो कांच जो ठंडा ही रहा वो हीरा | अब राजा ने व्यापारी से पूंछा क्या आप का भी यही तरीका था | व्यापारी ने कहा , “ नहीं महाराज , कह कर उसने दोनों टुकड़े जमीन पर पटक दिए | कांच बिखर गया | पर हीरा  जैसे का तैसा ही रहा |  राजा बहुत खुश हुआ | उसने शर्त के मुताबिक़  उस अंधे व्यक्ति को हीरा दे दिया व् व्यापारी को सम्मान के साथ उसके राज्य  भेज दिया  |                           दोस्तों इस छोटी सी कहानी से हमें बहुत बड़ी सीख मिलती है | जिसे हम अपनी जिंदगी में इस्तेमाल कर सकते हैं | दरसल हीरा सफलता है | जैसा ही सभी जानते हैं की सफल होने के मार्ग में बार – बार असफल होना पड़ता है | जो लोग आज सफल है न और जो असफल हैं उनमें बस इतना अंतर है की सफल लोगों ने असफल होने के बाद भी प्रयास करना नहीं छोड़ा |  उन्होंने अपनी कमियाँ ढूंढी उन्हें दूर किया और उस काम को अलग तरीके से करा शुरू किया |  पर करना इतना आसन भी नहीं है उसके लिए पोजिटिव  एटीट्युड रखना पड़ता है | असफलताएं या तो व्यक्ति को तोड़ देती हैं या व्यक्ति अपना ध्यान व् शक्ति  काम पर लगाने के स्थान पर गुस्से और झुन्झुलाने में लगा देता हैं | जिससे तापमान इतना बढ़ा जाता है की व्यक्ति रोगी हो जाता है | दोनों ही परिस्तिथियों में सफलता का हीरा नहीं मिलता |इसलिए अगर सफलता चाहिए तो अपने को सकारात्मक या पॉजिटिव रखना होगा | तभी सफलता का असली हीरा मिलेगा |  दीपक मित्तल  दोस्तों , तो ये थी कहानी “सफलता का हीरा “आपको ये कहानी कैसे लगी ? अगर आपको ये कहानी पसंद आई हो तो इसे शेयर जरूर करें व् रोज ऐसी कहानियाँ पाने के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें |  यह भी पढ़ें ………. बोनसाई राम , रहीम , भीम और अखबार जमीन में गड़ें हैं शैतान का सौदा

बोनसाई

   चित्राधर – प्रसिद्ध पादप वैज्ञानिक, आसमान छूती प्रसिद्धि; आत्मविश्वास से भरपूर। कितने ही पुरस्कारों से नवाज़ी गई हस्ती। सुगंध की भाँति फैलती, महकती कीर्ति ; बोनसाई बनाने में महारत हासिल, किंतु आज कितनी मुरझाई हुई!  उनके अपने कोख जाए बच्चे की लम्बाई, अपनी कक्षा के बच्चों से काफी कम थी। शुरू में तो उन्होंने ध्यान नहीं दिया, किन्तु इधर साल दो साल से वह बहुत उद्विग्न रहने लगीं थीं। एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे चिकित्सकों के चक्कर लगा- लगाकर वह थक गईं थीं। प्रारम्भ में तो चिकित्सकों ने काफी हौसला दिया था और वे टौनिक तथा दवाइयाँ देते रहे थे, किन्तु अब कह दिया था कि बच्चे में जन्मजात त्रुटि है। एक सीमा से अधिक, इसकी लम्बाई नहीं बढ़ाई जा सकती। वह बौना है। यह सुनकर उनका कलेजा टूक टूक हो गया था।   अवसाद से पीड़ित, आँसुओं से बोझिल पलकें उन्होंने उठाईं तो देखा कि बरगद, नीम, पाकड़, नींबू, नारंगी आदि पौधे उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हुए हैं। वे उन्हें व्यंग से निहार रहे थे।  बरगद कह रहा था, “क्यों, हमें बोनसाई बनाने का बहुत शौक है न तुम्हें, अब तुम्हारा बेटा बोनसाई बन गया है तो क्यों आँसू बहा रही हो? तुमने हमारी जड़ों को क्रूरता से बार बार काट-छाँटकर हमें बौना रहने पर मजबूर कर दिया है। हमारे विशाल आकार को खिलौना बनाकर अपने घर में सजा लिया है। अब जब अपने ऊपर आन पड़ी है तो टसुए बहा रही हो। “ सारे पौधे निरादर से हंस पड़े थे,” हमारी कद- काठी का तुमने ही तो सत्यानाश किया है। लोगों को हरी-भरी छाया और फल देने से तो तुमने ही वंचित कर दिया है हमें।“ उसी समय दरवाजे की घंटी बजने से उनकी आँख खुल गई। उनकी सांसें जोर- जोर से चल रही थीं और वे पसीने से तर थीं। उन्होंने अपने उभरे हुए पेट पर हाथ फेरते हुए, खुद को संयत किया। वे बुदबुदाईं,’  नहीं मैं तुम्हें बौना नहीं देख सकती!’  बाहर आकर उन्होंने देखा कि कुछ ग्राहक उनसे तैयार बोनसाई लेने को आए हुए हैं। उन्होंने ग्राहकों से कहा, “माफ कीजिएगा, मैंने बोनसाई बनाना छोड़ दिया है।“ उन लोगों के जाने के पश्चात उन्होंने बड़ी ही नरमियत से बरगद और नीम के पौधों को मिट्टी से अलग किया और उन्हें स्कूल के किनारे की चौड़ी कच्ची जमीन पर रोपने का आदेश देकर माली के हाथ में खुरपी पकड़ा दी। लेखिका परिचय- नाम- उषा अवस्थी शिक्षा- एम ए मनोविज्ञान  सम्प्रति- 1- समिति सदस्य ‘अभिव्यक्ति’ साहित्यिक संस्था, लखनऊ 2- सदस्य ‘भारतीय लेखिका परिषद’, लखनऊ प्रकाशित रचनाएँ- ‘अभिव्यक्ति’ के कथा संग्रहों, भारतीय लेखिका परिषद’ की पत्रिका ‘अपूर्वा’, दैनिक पत्रों ‘दैनिक जागरण’ व ‘राष्ट्रबोध’, साप्ताहिक पत्र ‘विश्वविधायक’ एवं विविध पत्रिकाओं यथा ‘भावना संदेश’, ‘नामान्तर’ आदि में रचनाएँ प्रकाशित विशेष-1- आकाशवाणी लखनऊ द्वारा समय समय पर कविताओं का प्रसारण 2- राष्ट्रीय पुस्तक मेले के कवियत्री सम्मेलन की अध्यक्षता 3- कुछ वर्षों का शैक्षणिक अनुभव 4- संगीत प्रभाकर एवं संगीत विशारद ————————————————–

राम , रहीम , भीम और अखबार

सरिता  जैन ये कहानी है तीन मित्रों की |  उनमें से एक था मुस्लिम , एक , सवर्ण और एक दलित |नाम थे रहमान , राम और भीम  | तीनों एक दूसरे के सुख – दुःख के साथी |  रोज शाम को उनकी बैठक होती रहती थी | बातें भी बहुत होती | जैसा की पुरुषों में होता है अक्सर राजनैतिक चर्चाएं होने लगती हैं | यूँ तो तीनों कहने को बात कर रहे होते |पर कहीं न कहीं उनके मन में अपनी जाति और धर्म की भावना छिपी रहती  | इस कारण जब भी कोई खबर सामचारपत्रों में आती सबका उसको देखने का एंगल अलग अलग होता | इस कारण कभी कभी हल्की बहस भी हो जाती | पढ़िए – कामलो सो लाडलो एक बार एक अखबार के एक छोटे कॉलम में खबर छपी किसी पुरानी इमारत के टूटने की | उसमें से कुछ पपु राने मंदिरों की मूर्तियों के अवशेष निकले | खबर छोटे कॉलम में थी पर हिन्दू मुस्लिम दोस्तों के मध्य बड़ा विषय बन गया | काम अतीत में हुआ था , जिसकी जानकारी सभी को थी , पर लड़ाई आज करना जरूरी थी | बमुश्किल भीम ने बात खत्म कराई | उसने कहा जो अतीत में हो गया हो गया | अब तो हम सब ऐसे अन्यायों का विरोध कर सकते हैं | फिर क्यों अतीत पर झगडें | पर मामला रफा दफा हुआ नहीं | रहीम ने भी आरोप लगाना शुरू कर दिया |असहिष्णुता  का आरोप  | आज हमें बोले का हक़ नहीं है | चारों और असहिष्णुता का बोलबाला है | ऐसे में कैसे हम अपने मन की आवाज़ कहें | राम ने तुरंत बात काटी | क्यों आप फेसबुक ट्विटर , इन्स्टा , सभाओं सब जगह बोल रहे हैं | फिर भय कैसा ?बोलते तो आप शुरू से रहे हैं बस सुनना  नहीं चाहते हैं  | हम सब एक देश के नागरिक हैं | आप को ही विशेष दर्जा क्यों ? रहीम को बात नागवार गुजरी | न रहीम अतीत के गर्व में झूमने न राम भी अतीत भूलने को तैयार था | लिहाज़ा दोस्ती टूट गयी | रहीम उठ कर चला गया |  अब राम और भीम ने बात करना शुरू किया | फिर अखबार की खबर का जिक्र था |  बहस एक किताब पर थी | जिसमें माँ दुर्गा को गाली दी गयी थी | स्त्री की अस्मिता के लिए लड़ने वाली माँ दुर्गा को XX तक कह दिया गया था | अब बारी राम के गुस्से में आने की थी | उसने माँ दुर्गा को अंट शंट  बोलने वाले को तार्किक तरीके से गलत सिद्ध करने की कोशिश की | पढ़िए – मनोबल न खोएं अब बारी भीम की उबलने की थी | वही जो अभी तक राम को अतीत भूलने की सलाह दे रहा था | अब अतीत से किस्से ढूंढ – ढूंढ कर लाने लगा | राम ने कहा अब तो अतीत जैसा माहौल नहीं है | तुम लोगों को आरक्षण भी मिला है | और खबरों में तरजीह भी | दलित की बेटी के साथ अत्याचार तो खबर बनता है , जिस खबर में दलित या मुस्लिम इस्तेमाल नहीं होता वो सब सवर्ण की बेटियाँ होती हैं फिर खबर क्यों नहीं बनती की सवर्ण की बेटी के साथ अत्याचार | ये सब जानते हो फिर ये मुद्दा क्यों ? पर भीम मानने को तैयार नहीं था | वो आज के आज बदला लेना चाहता था | उनसे जो अब उसे खुले दिल से स्वीकार करना चाहते थे | लिहाजा दोस्ती टूट गयी |भीम चला गया |  दोस्तों तीन दोस्त जो एक दूसरे के सुख दुःख के साथी थे | जो एक अच्छे भविष्य को गढ़ सकते थे  | अतीत पर लड़ पड़े | और अलग हो गए | क्या आज हमारे देश में यही नहीं हो रहा | हम सब अखबार पढ़ते हैं | तर्क गढ़ते हैं | तर्कों में जीतते हैं तर्कों में हारते हैं | पर सुझाव के बारे में कोई नहीं सोंचता | अतीत  जिसे न सुधारा जा सकता है न संवारा जा सकता है | कुछ किया जा सकता तो सिर्फ वर्तमान में | जहाँ जरूरी है समझ सिर्फ इस बात की , कि अब हमें प्यार से रहना है | ताकि देश का भविष्य सुन्दर हो | काश ये बात राम , रहीम और अखबार तीनों को समझ आ जाए |  यह भी पढ़ें … लक्ष्मी की कृपा यह भी गुज़र जाएगा  वो भी नहीं था  यकीन 

लक्ष्मी की कृपा

लक्ष्मी की कृपा  किरण सिंह बहुत दिनों बाद मेरे सामने वाला फ्लैट किराए पर लगा…! सभी फ्लैट वासियों के साथ साथ मुझे भी खुशी और उत्सुकता हुई कि चलो घर के सामने कोई दिखेगा तो सही …. भले ही पड़ोसी अच्छा हो या बुरा……! मन ही मन सोंच रही थी कि ज्यादा घुलूंगी मिलूंगी नहीं.. क्यों कि बच्चों की पढ़ाई , अपना काम सब बाधित होता है ज्यादा सामाजिक होने पर… और फिर पता नहीं कैसे होंगे वे लोग….मिलने को तो कई लोग मिल जाते हैं यहाँ….. घुल मिल भी जाते हैं…. दोस्ती की दुहाई देकर दुख सुख भी बांटते हैं…….मुंह पर तो प्रशंसा के पुल बांधते हैं और पीठ पीछे चुगली करने से भी नहीं चूकते…इसलिए मैंने मन ही मन सोंच लिया कि पहले मैं उनके रंग ढंग देखकर ही घुलूंगी मिलूंगी…! करीब शाम चार बजे आए मेरे पडोसी मिस्टर एंड मिसेज सिन्हा जी..! मेरे ड्राइंग रूम की खिड़की से सामने वाले फ्लैट में आने जाने वालों की आहट मिल जाती थी फिर भी मैं अपने स्वभाव के विपरीत बैठी खटर पटर की आवाज सुन रही थी….. सोंची नहीं निकलूंगी बाहर पर आदत से मजबूर मेरे कदम बढ़ ही गए नए पड़ोसी के दरवाजे तक चाय पकौड़ी के साथ…..! देखी पड़ोसन बिल्कुल ही साधारण सी साड़ी में लिपटी हुई… माथे पर बड़ी सी बिंदी… भारी भरकम शरीर…… कुछ थकी हुई सी….. चाय पकौड़ी को देखकर शायद बहुत ही राहत मिली उन्हें…… चेहरे पर मुस्कान खिल गई और पति पत्नी दोनों ही शुक्रिया अदा करने से नहीं चूके….! मैंने भी कह दिया मैंने कुछ भी तो नहीं किया और रात के भोजन के लिए आमंत्रित कर आई…! उनसे मिलने के बाद काफी खुशी मिली मुझे….. मन में सोंचने लगी इतने बड़े पद पर रहने के बाद भी ज़रा सा भी दंभ नहीं है और पहली ही नजर में वे अच्छे लगने लगे .! पढ़िए – रिश्तों पर खूबसूरत कहानी यकीन रात्रि में वे सपरिवार हमारे घर आए…… बच्चे तो घर में प्रवेश करते ही प्रसन्नता से उछल पड़े….. कोई मेरे ड्राइंग में सजे हुए एक्वेरियम की मछलियों को देखने लगा तो कोई दीवार में लगे पेंटिंग्स का….!थोड़ा बहुत दबी जुबान में मिस्टर सिन्हा भी प्रशंसा कर ही दिए…… पर मिसेज सिन्हा बिल्कुल धीर – गम्भीर, चुपचाप मूरत बनी बैठी थी…..! खाने-पीने के साथ-साथ बातें भी हुई….. और बहुत देर बाद मिसेज सिन्हा का मौन ब्रत टूटा…कहने लगी देखिए जी हमलोग सादा जीवन जीना पसंद करते हैं….. दिखावा में विश्वास नहीं करते….. और हमारा परिवार थोड़े में ही सन्तुष्ट है….और फिर अपनी कहानी सुनाने लगीं…! एक रिश्तेदार ( ममेरी देवर ) के यहाँ मैं कुछ दिनों के लिए गई थी…. देवरानी ( पम्मी ) सुन्दर – सुन्दर महंगे कपड़े पहनी थी… पर दूसरे ही दिन बिल्कुल साधरण कपड़े पहनने लगी… मैंने कहा कल तुम बहुत सुंदर लग रही थी आज क्यों इतनी सिम्पल………तब वह कहने लगी भाभी आपकी सादगी देखकर मुझे शर्म महसूस होने लगी इसलिए…… कि आप इतनी सम्पन्न और फिर भी इतनी सादगी ………….! इतना सुनने के बाद तो मेरे मन में उनके लिए और भी अधिक सम्मान उत्पन्न हो गया…! हम पड़ोसी में प्रगाढ़ता बढ़ने लगी….सिनेमा…. बाजार… या कहीं भी साथ साथ निकलते थे… अपना दुख सुख एक-दूसरे से बांटने लगे….! तब ब्रैंडेड कपड़े सभी नहीं पहनते थे…. किन्तु हमारे बच्चे तब भी ब्रैंडेड कपड़े , जूते आदि पहनते थे…! एकदिन मिस्टर सिन्हा ने मेरे पति से कहा कि इतने महंगे-महंगे कपड़े अभी से पहनाएंगे तो बच्चों में खुद कमाने की जिज्ञासा ही नहीं रहेगी….! तब स्कूल के परीक्षाओं में उनके बच्चों का नम्बर अधिक आता था… पतिदेव ने आकर मुझे सुनाई तो मुझे भी उनकी बातें अच्छी और सच्ची लगी….! यही बात मैंने अपने बेटे ऋषि से कही….. तो उसने कहा कि आप चिंता मत करिए….. यदि हम आज ऐसे रह रहे हैं तो कल और भी बेहतर तरीके से रहने के लिए और भी मेहनत करेंगे… और फिर कहा कि दुनिया में हर इन्सान अपने से ऊपर वाले इन्सान को गाली देता है पर रहना चाहता है उन्हीं की तरह…. यह सब वे ईर्ष्या वश कह रहे हैं…. आप लोगों की बातें क्यों सुनती हैं….! मैने अपने बेटे से कोई बहस नहीं करना चाहती थी इसलिए चुप रहना ही उचित समझा…! पर उस समय मिस्टर सिन्हा की बातें मुझे कुछ हद तक सही लग रही थीं… पर करती भी क्या……. बच्चों की आदतें तो मैंने ही खराब की थी…! पढ़िए – फेसबुक : क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं धीरे-धीरे समय बीतता गया….. हम दोनों के परिवारों के बीच प्रगाढ़ता बढ़ने लगी…! मिस्टर सिन्हा के ऊपर लक्ष्मी की कृपा भी बरसने लगी…! कुछ ही महीनों में उन्होंने सामने वाला फ्लैट खरीद भी लिया… घर के इन्टिरियर में बिल्कुल मेरे घर की काॅपी की गई थी…! बच्चों के महंगे ब्रैंडेड कपड़ों की तो पूछिए ही मत…! और मिसेज सिन्हा के वार्डरोब में तो महंगी साड़ियाँ देखते ही बनती थीं…मिस्टर सिन्हा के क्या कहने…. उनकी तो अतृप्त ईच्छा मानो अब जाकर पूरी हुई हो…. पचास वर्ष की आयु में किशोरों के तरह कपड़े पहन मानो किशोर ही बन गए हों…! मुझे अपने बेटे की कही हुई एक एक बात सही लगने लगी…… और मैं मन ही मन सोंचने लगी कि यह तो लक्ष्मी जी की कृपा है…! यह भी पढ़ें ………. टाइम है मम्मी काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता अस्पताल में वैलेंटाइन डे दोषी कौन  परिचय … साहित्य , संगीत और कला की तरफ बचपन से ही रुझान रहा है ! याद है वो क्षण जब मेरे पिता ने मुझे डायरी दिया.था ! तब मैं कलम से कितनी ही बार लिख लिख कर काटती.. फिर लिखती फिर……… ! जब पहली बार मेरे स्कूल के पत्रिका में मेरी कविता छपी उस समय मुझे जो खुशी मिली थी उसका वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकती  ….! घर परिवार बच्चों की परवरिश और पढाई लिखाई मेरी पहली प्रार्थमिकता रही ! किन्तु मेरी आत्मा जब जब सामाजिक कुरीतियाँ , भ्रष्टाचार , दबे और कुचले लोगों के साथ अत्याचार देखती तो मुझे बार बार पुकारती रहती थी  कि सिर्फ घर परिवार तक ही तुम्हारा दायित्व सीमित नहीं है …….समाज के लिए भी कुछ करो …..निकलो घर की … Read more