क्लास टेंथ का रिजल्ट और बड़ों की भूमिका

                      क्लास टेंथ का रिजल्ट निकलने के अगले ही दिन कितने निराश बच्चों की आत्महत्या की खबरे आती है |कितने दीपक जिन्हें बहुत रोशिनी देनी थी अचानक से बुझ जाते हैं |  फिर भी हर साल समाज बिलकुल वैसा ही व्यवहार करता है | क्या जरूरी नहीं है कि इन रिजल्ट की तुलना करते हुए बड़ों की भूमिका बदलनी चाहिए | क्लास टेंथ का रिजल्ट में  बड़ों की भूमिका        निकल गया भाई , निकल गया हाई स्कूल का रिजल्ट निकल गया | एक वो जमाना था जब सुबह के ६ बजे हों , दोपहर के १२ या रात के दो ये आवाज़ सुनते ही उन बच्चों की दिल की धडकने बढ़ जाती थी जिन्होंने हाईस्कूल की बोर्ड की परीक्षा दी थी | आनन् -फानन में घर के लड़के रिजल्ट लाने के लिए दौडाए जाते | कांपते हाथों से रिजल्ट वाला अखबार खोला जाता | उस समय रिजल्ट में केवल F, S , और T लिखा होता , जिसका मतलब क्रम से फर्स्ट डिविजन , सेकंड डिविजन और थर्ड डिविजन होता | फेल होने वाले बच्चों के रोल नंबर अखबार  में नहीं छपे होते | असली नंबरों का गजट स्कूल में ही दस -पंद्रह दिन बाद आता | तब तक ६० % की फर्स्ट डिविजन और ८० % की फर्स्ट डिविजन के बच्चे एक सामान  खुश दिखते | जब तक गजट आता , तुम्हारे कितने परसेंटेज हैं पूंछने वालों की संख्या में बहुत कमी आ जाती |  ये वो समय था जब बच्चे रिजल्ट निकलने के बाद अवसाद में नहीं घिरते थे | आत्महत्या नहीं करते थे | ऐसी घटनाएं अगर थीं भी तो एक्का -दुक्का | वो बच्चे जिनके प्रतिश्त  कम आयें है  परन्तु आज के समय में रिजल्ट निकलते ही मार्क्स और % बच्चे के पास आ जाते हैं | डिविजन शब्द अप्रासंगिक हो गया है | अब तो दशमलव के बाद तक परसेंटेज बताने का चलन है | जिन बच्चों के कम नबर आये हैं , निराश है | अचानक से इस सामाजिक अवहेलना को झेलने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होते | जो कल तक माँ का लाडला था , बुआ का प्यारा भतीजा था , चाची का नटखट नंद किशोर था , और मुहल्ले का हीरो था वो अचानक  से असफल करार दे दिया जाता है | दुखी बच्चा माता -पिता की ओर देखता है पर वो भी तो उसे सँभालने की स्थिति में नहीं होते हैं वो असफल पेरेंट्स करार दिए जा चुके होते हैं |  वहीं जिन बच्चों के ८० -८२ % आये हैं उन्हें  लोग बधाई तो देते हैं पर ऐसे जैसे की अहसान कर रहे हों | जैसे दूसरी बेटी होने पर बधाई देते हैं | कोई बात नहीं हो गया अब इसे ही ईश्वर की मर्जी समझों | ऐसे में बच्चों का  अपने परिवार के इस अपमान के लिए खुद को दोषी मानना अस्वाभाविक नहीं है | अधिक प्रतिशत लाने वाले बच्चों में भी है निराशा         ये मामला सिर्फ कम प्रतिशत लाने वाले बच्चों का नहीं है |  निखिल को ही देखिये | अपने स्कूल में हमेशा टॉप करने वाले निखिल के दसवीं की बोर्ड परीक्षा में 92% नंबर आये , उसे कुछ  ज्यादा की उम्मीद थी | इसलिए वो थोडा निराश था | माँ उसे समझा रही थी | तभी पड़ोस की सुलेखा जी आयीं | सुलेखा जी निखिल के नंबर सुनते ही बोली , ” चलो पास हो गया  , ठीक ही  नंबर हैं … बधाई,  पर मेरे भाई के पड़ोस में रहने वाले शर्मा जी  के साढू के बेटे के ९७ % मार्क्स आये हैं |  ऐसे मामलों में बच्चों को उन लोगों के उदाहरण मिलते हैं जिन्हें उदाहरण देने वाला भी बिलकुल नहीं जानता , उसका उद्देश्य बड़ी लकीर खींचना होता है | इस तुलना से निखिल का चेहरा उतर गया |माँ मुह्ल्लादारी निभाते हुए सुलेखा जी के पास बैठी रहीं और निखिल अपने कमरे में रोता रहा | मामला सिर्फ सुलेखा जी का ही नहीं है रिजल्ट निकलने के बाद जिस तरह से बच्चों के ऊपर एक अवांछित तुलना का फंदा कस दिया जाता है उसमें एक मासूम का दम किस तरह घुटता है इसे सोचने की फुर्सत किसी को नहीं नहीं | ये दुर्भाग्य है कि इसका | शिकार कम प्रतिशत पाने वाले बच्चे ही नहीं ऊँचे प्रतिशत पाने वाले बच्चे भी हैं | बहुत से लोग समझते हैं की वो बच्चे जिनके कम प्रतिशत हैं वो अवसाद में होंगे परन्तु बच्चा 90 + % के बावजूद अवसाद में है ऐसा बहुत कम लोग मान पाते हैं | बच्चो को ” The Best नहीं अपना “Best version” बनने के लिए करें प्रेरित   हमीं ने हर बच्चे के आगे “बेस्ट ” होने की लकीर खींच दी है | हर बच्चे को खींच -खींच के उस लकीर के पास लाने की कोशिश की जा रही है | प्राइवेट स्कूलों में हर दिन टेस्ट , रिविजन  घर में दो या तीन ट्यूशन से जूझते नवीं  , दसवीं के बच्चे का बचपन खो गया है | हर बच्चा समाज की राडार पर हैं | बस एक लकीर नहीं पार की तो उनके स्वाभिमान पर आक्रमण होना तय है |  इन लकीरों में बांधते समय हम ये नहीं सोचते कि ये   एक ऐसे लकीर हैं जो किसी न किसी दिन ध्वस्त होनी ही है | हाई स्कूल में बच गए तो १२ th में , तब भी बच गए तो कॉम्पटीशन में या फिर जॉब में | हमने पूरी व्यवस्था इस तरीके की बना रखी है कि कितना भी होनहार बच्चा हो  किसी न किसी मोड़ पर अवसाद में  डूबे जरूर , फिर हम ही चिल्लाते हैं कि बच्चों में धैर्य नहीं है , संवेदनहीनता है | क्या ये जरूरी नहीं है कि बच्चों पर एक अँगुली उठाते समय हम उन तीन अँगुलियों की तरफ देखे जो हमारी तरफ उठ रहीं हैं | हमने बच्चों को अघोषित दौड़ के मैदान में उतार दिया है , उन्हें आगे नहीं सबसे आगे बढ़ना है | क्लास टेंथ के रिजल्ट के बाद क्या हो बड़ों की भूमिका  1)जरूरी है कि  बच्चे के आगे ” बेस्ट … Read more

Students “Adult Content ” addiction से कैसे निकलें

                         इस विषय पर लिखने का मन मैंने तब बनाया जब मेरे पास अमित ( परिवर्तित नाम ) की समस्या आयी | क्लास 6 th तक अमित एक पढने में होशियार , क्लास में फर्स्ट आने वाला , मासूम सा बच्चा था | एक दिन क्लास में दोस्तों ने ऐसा कुछ बताया की जिज्ञासा जगी , पर वो बीज वहीँ पड़ा रह गया | एक दिन किसी म्यूजिक वीडियो को देखते समय एक ऐड क्लिक हो गया और उसके सामने वो संसार खुल गया जो उसके लिए बिलकुल नया था | शुरू की जिज्ञासा धीरे -धीरे आदत बनने लगी | रोज उसकी  किशोर अँगुलियाँ उन साइट्स को क्लिक  कर ही देतीं  जो  “adult content ” था | इसमें कोइ  आश्चर्य नहीं कि घर में किसी को इसका पता नहीं चला ,क्योंकि किसी के आने की आहट  सुनते ही वो पहले से खुली स्टडी मैटीरियल की साईट पर क्लिक कर देता | माता -पिता समझते कि बच्चा पढ़ रहा है , पर अमित पढाई में पिछड़ने लगा | फर्स्ट आने वाला बच्चा  बस पास होने लगा | उसके  अन्दर अपराध बोध भी होता था पर वो किसी शराबी की तरह  हर रोज उसी और दौड़ जाता |  अमित नवीं कक्षा में फेल हो गया | तब जा के अमित को होश आया | उसने डरते हुए अपनी समस्या अपने पिता को बताई | पहले तो उसके पिता के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही , माता -पिता एक दूसरे पर बच्चे पर ध्यान न देंने का आरोप लगाते रहे | अंत में उन्होंने क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट  को दिखाया | अमित इस  adiction से बाहर निकला | उसने अपनी पढाई को फिर से संभाला और अच्छे  नंबरों से पास होने लगा | Students “Adult Content ” addiction से  बाहर कैसे निकलें                                         हर बच्चा जो इस अँधेरी गुफा में घुस जाता है , वो अमित की तरह निकल नहीं पाता और अपनी शिक्षा के बेहतरीन वर्ष  ” adult content” की भेंट चढ़ा सारा जीवन पछताता है | किशोर व् नव युवा उम्र के वो ८ , ९ साल हैं जो उसकी जिंदगी के बाकी ५० सालों का भविष्य तय करते हैं | अक्सर बड़े ऐसी समस्याओं के सामने आने पर बच्चों को रास्ता दिखाने के स्थान पर ” हमारे समय में तो ऐसा नहीं होता था ” कह कर इतिहास पढ़ने लगते हैं | जिसका  कोई भी फायदा नहीं | वो समय दूसरा था | ये आज की समस्या है और इसका सामाधान भी आज ही निकालना  होगा | मनोवैज्ञानिक अतुल भटनागर जी के अनुसार जो बच्चे ” adult content addiction” में फंस गए हैं , वो भी थोड़े से प्रयास से  इससे निकल सकते हैं  और पुन: अपना कैरियर व् भविष्य बना सकते हैं | क्यों होता है “Adult content addiction”                                       ये सच है कि आज के ज़माने में बच्चों को इन्टरनेट से दूर नहीं रखा जा सकता | ये ज्ञान का भण्डार है |  उन्हें मनोरंजन , स्कूल के प्रोजेक्ट व् अन्य जानकारी के लिए इसकी बहुत जरूरत है | वहीँ ये भी सच है कि इन पोर्न  साइट्स पर पहली क्लिक जिज्ञासा में या अनजाने में होती है ,  पर धीरे -धीरे आदत में शुमार हो जाती है | बच्चों को  उसे नशे में बदलने से रोकना ही होगा |  इसके लिए जरूरी है कि ये समझा जाए कि ” Adult content addiction क्यों होता है | दरअसल  विकास के साथ -साथ “human mind ” में बहुत सारे परिवर्तन हुए | जिस तरहसे  हम अपने पोस्ट को अपडेट करते हैं वैसे ही इसान का दिमाग पुराने जीवों के दिमाग का अपडेटिड वर्जन है | वैज्ञानिकों के अनुसार  दिमाग की तीन लेयर हैं , जो पुरानी लेयर से अपडेट होकर बनी हैं …. पहली लेयर रेपटिलीयन काम्प्लेक्स  – यानि रेपटीलिया का दिमाग ( सांप आदि रेंगने वाले जीव )  दूसरी लेयर -पैलियोमैमेलियन काम्प्लेक्स – कुछ निचले स्तर के स्तनधारी जीव का दिमाग तीसरी लेयर -नीओमैमेलियन काम्प्लेक्स  ( ऊँचे  लेवल के मैमल का दिमाग , जैसे मनुष्य का वर्तमान दिमाग जो की पिछली दो लेयर का अपडेटेड वर्जन है | रेपटी लियन ब्रेन वो ब्रेन है जो सेक्सुअली ओरिएंटेड होता है | पैलियोमैमेलियाँ ब्रेन वो ब्रेन है जो क्षणिक सुख को देखता है , वो बहुत दूर तक भविष्य के फायदे , नुक्सान को सोंच नहीं पाता |  नीओ मैमेलियन ब्रेन वो ब्रेन है जो भविष्य की योजनायें बनाता है , भविष्य के बड़े सुखों के लिए छोटे सुखों को त्याग सकता है | यह प्रायोरिटी बेसिस पर काम करता है | इसके लिये परिवार , नौकरी , शिक्षा , कैरियर ज्यादा महत्वपूर्ण है |                                 जब भी कोई porn content सामने आता है तो रेपटीलियन  और नीयो मैमेलियन लेयर एक्टिव हो जाती हैं और पैलियो मैमेलियन ब्रेन से सारा कण्ट्रोल अपने  हाथ में ले लेती हैं | जैसे ही इंस्टेंट प्लेजर का एक राउंड खत्म होता है  पुन : कण्ट्रोल पैलियोमेमिलीयन ब्रेन के हाथ में आ जाता है तब स्टूडेंट  को गिल्ट महसूस होती है उसे लगता है उसने बेकार में अपना समय ख़राब किया | इसके कुछ और भी नुक्सान हैं जैसे स्वाभाव में चिडचिड़ापन आता है , दिमाग फ़ोकस नहीं कर पाता , पढने से ध्यान हट जाता है , और छोटी छोटी बातों  भूलने लगता है |             फिर भी स्टूडेंट कंट्रोल नहीं कर पाता , रोज देखता है और ये उसकी आदत बन जाती है | ये एक नशे की तरह है | परतु जैसे दूसरे नशे छुडाये जाते हैं इसे भी छोड़ा जा सकता है बस थोड़ी सी संकल्प शक्ति  बढ़ानी होगी | students “Adult Content ” addiction ऐसे बाहर निकलें  एडल्ट कंटेंट एडिक्शन से निकलने के लिए स्टूडेंट्स कुछ तरीके इस्तेमाल कर सकते हैं | ये सभी तरीके मनो वैज्ञानिकों द्वारा सुझाए गए बहुत कारगर तरीके हैं … Read more

क्या हम बच्चों में रचनात्मकता विकसित कर रहे हैं ?

अभी कुछ दिन पहले एप्पल के co-founder Wozniak ने भारत के बारे में ट्वीट  किया कि भारत में सफलता का पैमाना ही एक अच्छी नौकरी है | हर भारतीय की कोशिश रहती है कि वो पढाई करे MBA करें और एक अच्छी से नौकरी प्राप्त करे , जिससे हो सके तो वो अच्छा घर या ज्यादा  से ज्यादा मर्सिडीज खरीद सके | उनमें Creativity का आभाव है | तुरंत ही इस बात पर ट्विटर वॉर “ छिड गया जिसमें टॉप इंडियन लोगों ने रिप्लाई किया | इसमें Wozniak ने अपने कथन से आगे बढ़ कर यह भी कह दिया कि इंडिया में इनोवेशन हो ही नहीं सकता | यहाँ तक की इनफ़ोसिस भी एक सीमा से आगे नहीं जा सकती | आनंद महिंद्रा ने इसका उत्तर दिया कि आप अगली बार आइये सुर बदले हुए मिलेंगे | क्या हम बच्चों को रचनात्मक शिक्षा दे रहे हैं ?                                 आनंद महिंद्रा का उत्तर हम भारतीयों के आहत स्वाभिमान पर मलहम तो लगता है | पर क्या सच में सुर बदले हुए मिलेंगे ? क्या हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा दे रहे हैं जहाँ रचनात्मक स्वतंत्रता हो |मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब एक शिक्षिका ने मुझसे कहा कि कला साहित्य में जाने वाले बच्चों में रचनात्मकता होती है गणित और विज्ञान की और जाने वाले बच्चों रचनात्मकता नहीं होती | अफ़सोस की ज्यादातर लोगों की रचनात्मकता की परिभाषा ही हिली हुई है | जब कोई ड्रेस डिजाइनर कोई नयी डिजाइन बनता है तो हम उसे रचनात्मकता मान लेते हैं पर जब कोई मोबाइल में कोई नया एप बनता है तो हम उसको क्रीएटीव नहीं मानते | हम नहीं मानते की वो वो विज्ञानं के क्षेत्र में की गयी रचनात्मकता है | एक कल्पना और उसको साकार रूप में बदलने में किया गया प्रयास | इसी कारण  हम अपने बच्चों को , छोटे पर , जब वो कोई खिलौना तोड़ कर कुछ सीखने का प्रयास कर रहा होता है उसकी पिटाई कर देते हैं | हम वैज्ञानिक रचनात्मकता को सिरे से नकार देते हैं |    स्कूल में एक –एक नंबर के चलते युद्ध में दो –चार नंबर कम लाने पर बच्चों को सरेआम अपमानित तो कर दिया जाता है , पर क्या कभी कुछ अलग हट के उत्तर लिखने वाले बच्चों को सम्मानित किया जाता है | कई स्कूल में तो टीचर का सख्त आदेश होता है कि जो मैंने उत्तर लिखवाया है वही लिखना है , अगर उससे हट कर लिखा तो नंबर कट जायेंगे | तो बच्चों पर दवाब होता है कि वो वही उत्तर लिखे , क्योंकि अगर नंबर कम आये तो उन्हें सरेआम बेइज्जत होना पड़ेगा | चाहते न चाहते हर बच्चा “ याद करने की क्षमता “ की परीक्षा देता है “ समझ दारी की नहीं |  अपनी एक सहेली का उदाहरण याद आ रहा है | बात तब की है जब हम B.SC.part -1 में थे | मेरी केमिस्ट्री की टीचर कुछ पढ़ा रहीं थी | उनके किसी प्रश्न पर मेरी सहेली ने एक डिटेल उत्तर दिया |  टीचर ने उसे  कुछ अलग हट कर सोचने के लिए प्रोत्साहित करने के स्थान पर उससे  कहा , आपको बहुत ज्यादा आता है , मुझसे भी ज्यादा आता है, तो मेरे स्थान पर आ कर दिखाना … वो सहेली आज डिग्री कॉलेज में पढ़ाती है | यकीनन वो उनके स्थान पर आ गयी है , क्योंकि वो भी नए उत्तरों को प्रोत्साहित नहीं करती है |  केवल पुस्तकीय ज्ञान से नहीं होगा बच्चे का सम्पूर्ण विकास     हम अपने बच्चों को याद करने और नंबर लाने में इतना उलझा देते हैं कि १२ th तक बच्चों ने बैंक नहीं देखा , उन्हें बीज बोना , पौधे उगाना नहीं आता , दुकान पर जा कर सामान  खरीदना नहीं आता | इसे बच्चों का सर्वांगीण विकास  नहीं कह सकते | कुछ माता –पिता जो ये सब सिखाते है उन्होंने भी पढाई का प्रेशर कम नहीं किया है | उन्हें लगता है कि बच्चा ये सब सीखने के साथ एक –एक लाइन रटा हुआ उत्तर भी दे , ऐसे में बच्चे खुद को मशीन सा अनुभव करने लगते हैं |जो उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर असर डालता है|  छोटे शहरों में हालत बहुत ख़राब है | अंग्रेजी का भूत वहां लोगों के सर पर सवार है | वो अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों  में पढाना  चाहते हैं , उसके लिए वो मोटी फीस भी दे रहे हैं पर दुर्भाग्य से ज्यादातर टीचर्स को स्वयं ही अंग्रेजी नहीं आती | वो बच्चों को गलत अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं | छोटे शहरों के बच्चे हिंदी को छोटी नज़र से देखने के सामाजिक दवाब के कारण न तो सही हिंदी सीख पा रहे हैं न सहीं अंग्रेजी … यानी हम अभी भी भारत को क्लर्कों का देश बनाने पर तुले हुए हैं | माता -पिता कर रहे हैं बच्चों का क्राफ्ट वर्क   अगर आप का बच्चा स्कूल में पढता है तो आप को पता होगा कि ज्यादतर  बच्चों का क्राफ्ट का वर्क कौन करता है ? ज्यादातर बच्चों का क्राफ्ट का वर्क उनके माता –पिता या बड़े भाई बहन करते हैं | अगर ये न कर सके तो हर शहर में ऐसे दुकाने खुली हैं जो बच्चों के  क्राफ्ट वर्क पैसे ले कर तैयार कर देते हैं | आखिर क्यों ऐसा होता है ? उत्तर साफ है … बच्चों की अनगढ़ कलात्मकता स्कूलों में नहीं चलेगी | नर्सरी के बच्चे से परफेक्ट डिजाइन की उम्मीद है ताकि टीचर और स्कूल की वाहवाही हो , बच्चे की कलात्मक रचनात्मकता शैशव अवस्था में ही दम तोड़ दे तो क्या फर्क  पड़ता है | हम विकास में क्यों पिछड़ रहे हैं ? एक आम अमेरिकन बच्चा अपने कपडे धो लेता हैं , फील्ड वर्क कर लेता है ,मशीन सुधार लेता है , बागवानी कर लेता है | जबकि आम भारतीय बच्चा सिर्फ पढता है | ये सारे काम घर वाले उसके लिए कर देते हैं | कुछ नया घर वाले नहीं सीखने देते , स्कूल वाले  सीखने नहीं देते , फिर बच्चा सीखे  कहाँ से ? धीरे –धीरे उसमें कुछ नया करने की सीखने … Read more

बच्चों के एग्जाम और मम्मी का टेंशन

बच्चों के एग्जाम शुरू हो गए हैं |एग्जाम के दिन यानी सपने ,  पढ़ाई , मेहनत और टेंशन के दिन | मुझे अभी भी याद आता है वो दिन जब मेरे  बेटे का मैथ्स का एग्जाम था |  उसे रात दो बजे तक पढ़ाने के बाद सुबह से उसे स्कूल भेजने की तैयारी में लग गयी थी | मन में उलझन सी थी बार –बार उसके वो सवाल याद आ रहे थे जिन्हें समझने में उसे थोड़ी ज्यादा देर लगी थी | चलते फिरते उसे उनके फार्मूले  याद करवा रही थी |आल दा बेस्ट कह कर बेटे को भेज तो दिया पर मन में खिच –खिच सी होती रही | क्या वो सारे सवाल हल कर पायेगा ? क्या वो अच्छे नंबर ला पायेगा ? न जाने कितने सवाल बार –बार दिमाग को घेर रहे थे | इंजायटी बढती जा रही थी |खैर पेपर हो गया | पर जब –जब बच्चों के एग्जाम होते हैं मेरी ही तरह सब माएं टेंशन से घिर जाती हैं |                     ऐसा ही टेंशन का एक किस्सा शर्मा अंकल सुनाते हैं, “  पिछले दिनों मैं सविता के घर गया। शाम को घूमने और मूड़ फ्रेश करने का समय होता है। इस समय सविता और उनके बच्चों को कमरे में देखकर मुझे बेहद आश्चर्य हुआ। आज भी उस दिन का दृश्य मुझे याद है-बच्चे कमरे में पुस्तक लिये पढ़ने का अभिनय कर रहे थे और सविता बाहर बरामदे में बैठी थी, जैसे चौकीदारी कर रही हो। मुझे यह सब देखकर बड़ा विचित्र लगा था। उस दिन बातें औपचारिक ही हो पायी। मुझे ज्यादा जोर से बोलने पर मना करती हुई कहने लगी ‘जरा धीरे बोलिये, बच्चे पढ़ रहे हैं  अगले महीने से उन लोगों की परीक्षा शुरू होने वाली है।’                        मीता जी का किस्सा  भी इससे अलग नहीं है | मीता   जी कहती हैं –’कि शाम पांच से आठ और सुबह चार से छः का समय पढ़ाने के लिए इसलिये मैंने निर्धारित किया है, क्योंकि रात आठ बजे के बाद बच्चे ऊंघने लगते है  और जल्दी खाना दिया  तो सो जाते हैं । वैसे, सुबह चार बजे पढ़ने से जल्दी याद होता है, फिर छः बजे के बाद मैं घर के दूसरे कार्यो में व्यस्त हो जाती हूं। आखिर क्यों 100 % के टेंशन में पिस रहे हैं बच्चे                           मैं हूँ , सविता हो या मीता  यह समस्या आज हर घर में स्पष्ट देखने को मिलती है।, पढाई और एग्जाम  का प्रेशर  बच्चों पर तो होता ही हैं बच्चों के साथ-साथ मम्मी की भी दिनचर्या बदल जाती है। कहीं आना-जाना नहीं, पिक्चर देखना बंद,टी वी बंद ,  बच्चों के ऊपर सारा दिन निगरानी में ही निकल जाता है, कोई मिलने आये तो औपचारिक बातें करना, ज्यादा जोर से बातें करने से मना करना आदि।कुल मिला कर पूरा तनाव का वातावरण तैयार हो जाता है |  गौर किया जाए तो कहीं न कहीं पापा-मम्मी उनके परीक्षा फल को अपना प्रेस्टिज ईशु बना लेते हैं। फलां के बच्चे हमेशा मेरिट में आते हैं  उनके पापा-मम्मी उनका कितना ध्यान रखते हैं , आदि बातें सोचकर लोग ऐसा करते हैं।  कैसे दूर करें बच्चों के एग्जाम और मम्मी का टेंशन                               परीक्षा के दिनों में अधिकतर माताएं  बच्चों को लेकर इस कदर परेशान होती  हैं, जैसे बच्चे उनके लिये समस्या हो। बच्चे तो पहले से ही एग्जाम टेंशन झेल रहे होते हैं | इस भयग्रस्त वातावरण का बच्चों के स्वास्थ्य , मानसिक स्थिति और पढ़ाई पर बुरा प्रभाव पड़ता है, परीक्षा के दौरान बच्चों और पेरेंट्स पर बेहतर रिजल्ट को लेकर मानसिक दबाव जबरदस्त होता है। ऐसे समय में कई बार बच्चों को कुछ मनोवैज्ञानिक समस्याए हो जाती है। वे ‘एंजाइटी’ के शिकार तक हो जाते है और अवसाद में चले जाते है, जो कि काफी गंभीर है। परीक्षा के इस तनाव से कैसे निपटा जाए, आइए जानते है… बच्चे को लगे वो सब भूल जाएगा   सबसे पहली बात है कि बच्चों कि उम्र के हिसाब से उनके कोर्स डिजाईन होते है। जो बच्चे रोजाना पूरे  साल पढाई करते है, उन्हें इस तरह की  समस्या नहीं आती है। इसके अलावा पढाई के दौरान समय-समय पर माँक टेस्ट  और फीडबेक लेते रहे, उससे भी तनाव कम होता है। रोजाना एक्सरसाइज और ध्यान करने से भी बेस लाइन एंजाइटी (जिसमें नर्वसनेस बहुत जल्दी आ जाती है।) बहुत कम हो जाती है। इसके अलावा बच्चो को रोजाना अच्छी नींद लेना भी जरुरी है। पढाई के दौरान बच्चे अपने को क्रॉस चेक बिलकुल न करे, क्योंकि इस कारण से भी उनके अंदर एंजाइटी बढ़ सकती है। पढ़ते वक्त रटने के बजाय पॉइंट्स और कांसेप्ट क्लियर करें और हर चेप्टर के मुख्य पॉइंट्स को नोट जरुर करते रहे।               परीक्षा के दौरान माँ  को यह चाहिए कि वो बच्चों के खान-पान पर विशेष ध्यान दे। दिमाग को उत्तेजित करने वाले पदार्थ जैसे चाय, कॉफ़ी को बच्चों को ज्यादा न दे। फ़ास्ट फूड्स कि जगह हेल्थी डाइट दें। उनकी नींद का ख्याल रखे। सोशल फंक्शन जैसे शादी वगैरह  में भी उन्हें न  ले जाएं और जितना हो सके पढाई का माहौल  घर में बनाएं। त्यौहार और परीक्षा के बीच बच्चे कैसे बनाएं संतुलन   फाइनल एग्जाम त्यौहार के सीजन में होते हैं , एक तरह से ये  मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने की भी परीक्षा होती है । ऐसे में बच्चो को  चाहिए कि वो त्यौहार के चक्कर में अपने करियर  और पढाई से समझौता  ना करें। पढाई उनका प्राथमिक लक्ष्य है,जिसे लेकर वे हमेशा गंभीर रहे। त्यौहार उनका ध्यान पढाई से हटा सकते है। इसलिए उनपर ध्यान देने के बयाय वो पढाई पर ज्यादा ध्यान दें।             माँ  को चाहिए त्यौहार के सीजन में भी जितना हो सके,घर माहौल  पढाई वाला बनाये रखे, ताकि बच्चों का मन ना भटके। बच्चो का कमरा ऐसी जगह होना चाहिए जहा महमानों कि आवाजाही ना हो, ताकि बच्चे शांति से पढाई के सके। बच्चों के मन से परीक्षा का डर कैसे दूर करें   जब बच्चा स्ट्रेस में खाना -पीना , सोना कम कर दे               स्ट्रेस को दूर करने के लिए सबसे अच्छा तरीका है कि बच्चे पर्याप्त नींद ले। पढाई के बीच  में दो से तीन  घंटे … Read more

बच्चों के मन से परीक्षा का डर कैसे दूर करें

                                    नई दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में परीक्षा के कार्यक्रम के दौरान उपस्थित बच्चों एवं वीडियो काॅन्फ्रेसिंग के द्वारा प्रधानमंत्री द्वारा दिये गये गुरू मंत्र न केवल बच्चों को विभिन्न शैक्षिक प्रतियोगिताओं में सफल बनाने में प्रेरणा का काम करेंगे बल्कि उन्हें अपने सारे जीवन में आने वाली किसी भी परीक्षा को भी सफल बनाने में अत्यन्त ही सहायक होंगे। माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के उपरोक्त विचारों पर आधारित यह  लेख ‘बच्चों के मन से परीक्षा का डर दूर करने के साथ ही उनके सम्पूर्ण जीवन की परीक्षाओं को सफल बनाने में भी अत्यन्त ही सहायक होगा |  बच्चों के मन से परीक्षा का डर कैसे दूर करें   भारत के इतिहास में पहली बार माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बच्चों के मन से परीक्षा का डर दूर करने के लिए देश भर के बच्चों न केवल सम्बोधित किया बल्कि काफी हद तक वे बच्चों के मन से परीक्षा का डर निकालने में सफल भी रहें।आइये उन्हीं अबातों की विस्तृत चर्चा करते हैं  (1) अंक और परीक्षा जीवन का आधार नहीं हैंः- इस अवसर पर माननीय प्रधानमंत्री जी नेे कहा कि वर्तमान में जीने की आदत एकाग्रता के लिए एक रास्ता खोल देती है। उन्होंने बच्चों से कहा कि आप खुद के साथ स्पर्धा कीजिए कि मैं जहां कल था उससे 2 कदम आगे बढ़ा क्या, अगर आपको ऐसा लगता है कि आप आगे बढ़े हैं तो यही आपकी विजय है। इसलिए कभी भी किसी दूसरे के साथ कम्पटीसन नहीं बल्कि खुद के साथ कम्पटीसन कीजिए क्योंकि अंक और परीक्षा जीवन का आधार नहीं हैं। (2) आत्मविश्वास के बिना किसी भी परीक्षा में सफलता हासिल नहीं कि जा सकती बच्चों की मेहनत में कोई कमी नहीं होती है। छात्र के साथ उसके माता-पिता और शिक्षक भी तैयारी करते हैं, लेकिन अगर छात्र में आत्मविश्वास नहीं है तो परीक्षा देना मुश्किल हो जाता है। पेपर जब हाथ में आता है तो छात्र सब पढ़ा-पढ़ाया भूल जाता है। इस तरह आत्मविश्वास के बिना किसी भी परीक्षा में सफलता हासिल नहीं कि जा सकती, इसलिए आत्मविश्वास का होना बेहद जरूरी है। अगर आत्मविश्वास नहीं तो 33 करोड़ देवी-देवता भी कुछ नहीं कर सकते। आखिर क्यों 100 %के टेंशन में पिस रहे हैं बच्चे (3) आत्मविश्वास कैसे हासिल किया जाए आत्मविश्वास कोई जड़ी-बूटी नहीं है, जो खाने से आ जाएगी। ना ही मां द्वारा दी गई कोई दवाई है जो परीक्षा के समय मिल जाए तो काम आ जाएगी। यह तो तभी संभव है जब छात्र खुद को परीक्षा की कसौटी पर कसे। तभी जीत हासिल हो सकती है। आप खुद के साथ प्रतिस्पर्धा कीजिए कि मैं कल जहां था उससे दो कदम आगे बढ़ा क्या? अगर आपको ऐसा लगता है तो यही आपकी विजय है। कभी भी दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा मत कीजिए, खुद के साथ अनु-स्पर्धा कीजिए। (4) किताबों से सिर्फ बुद्धि ही नहीं मन को भी जोड़ेः  एकाग्रता के सवाल पर पीएम ने कहा एकाग्रता के लिए किसी एक्टिविटी की जरूरत नहीं है। आप खुद को जांचिए परखिए। बहुत से लोग कहते हैं कि मुझे याद नहीं रहता है लेकिन यदि आपको कोई बुरा कहता है तो 10 साल बाद भी आपको वह बातें याद रहती है। इसका मतलब है कि आपकी स्मरण शक्ति में कोई कमी नहीं है। जिन चीजों में सिर्फ बुद्धि नहीं आपका मन भी जुड़ जाता है, वह जिंदगी का हिस्सा बन जाती है। वर्तमान में जीने की आदत एकाग्रता के लिए एक रास्ता खोल देती है। (5) यह सोच कर परीक्षा में बैठें कि आप ही अपना भविष्य तय करेंगे: छात्रों को ध्यान देना चाहिए कि कौन सी बातें उनका ध्यान भटका रही हैं। इसके लिए खुद को जांचना और परखना जरूरी है, ताकि उन्हें अपनी कमियों का एहसास हो सके और वे पढ़ाई में ध्यान केंद्रित कर सकें। ‘स्कूल जाते समय यह बात दिमाग से निकाल दीजिए कि कोई आपका एग्जाम ले रहा है। कोई आपको अंक दे रहा है। इस बात को दिमाग में रखिए कि आप खुद का एग्जाम ले रहे हैं। इस भाव के साथ बैठिए की आप ही अपना भविष्य तय करेंगे।  चेतन भगत की स्टूडेंट्स के लिए स्टडी टिप्स (6) आप खुद ऐसा बनें कि दूसरे आपसे प्रतिस्पर्धा करें: युद्ध और खेल के विज्ञान दोनों में एक नियम है कि आप अपने मैदान में खेलिए। जब आप अपने मैदान में खेलते हैं तो आपकी जीत के अवसर बढ़ जाते हैं। दोस्तों के साथ कम्प्टीशन में आपको उतरना ही क्यों है। आपके दोस्त की परवरिश, खेल और रुचि सभी अलग हैं। इसलिए किसी से किसी की तुलना नहीं है। पहले खुद को अपने दायरे में रहकर सोचें। छात्रों और उनके माता-पिता को वर्तमान में जीने की आदत डालनी चाहिए। इससे ही भविष्य में एकाग्रता और सक्सेस के रास्ते खुलेंगे। आप खुद ऐसा बनें कि दूसरे आपसे प्रतिस्पर्धा करें। (7) अभिभावक दूसरे बच्चों से अपने बच्चों की तुलना न करें: भारत का बच्चा जन्मजात राजनेता होता है, क्योंकि ज्वाइंट फैमिली में उसे पता होता है कि उसे कौन सा काम किससे करवाना है। अभिभावकों से कहना चाहूंगा कि वे दूसरे बच्चों से अपने बच्चों की तुलना न करें। आपके बच्चे के अंदर जो सामथ्र्य है, उसी के अनुसार उससे उम्मीद करें। अंक और परीक्षा जीवन का आधार नहीं हैं इसलिए हर वक्त बच्चे के भविष्य और करियर की चिंता करना ठीक नहीं है। एक खुला और तंदरुस्त वातावरण बच्चों को दिया जाना चाहिए। केवल एग्जाम के वक्त ही नहीं बल्कि हमेशा। और आप विश्वास करिये आपका बच्चा अपने आपको केवल स्कूली परीक्षा को ही सर्वोच्च अंकों के साथ ही पास नहीं करेंगा बल्कि अपने आपको सम्पूर्ण जीवन की परीक्षा के लिए भी तैयार कर लेगा। —— डाॅ. जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं  संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ यह भी पढ़ें … बस्तों के बोझ तले दबता बचपन गीली मिटटी के कुभ्कार खराब रिजल्ट आने पर बच्चों को कैसे रखे पॉजिटिव माता – पिता के झगडे और बाल मन  आपको आपको  लेख “ बच्चों के मन से परीक्षा का डर कैसे दूर करें  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट … Read more

बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति

       आज समाचारपत्रों, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं से ही नहीं, बल्कि अड़ोस-पड़ोस, गली, गाँव, मोहल्ला आदि के वातावरण को अनुभव करने से यह पता चलता है कि बच्चों  में हिंसक प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। बच्चों में क्यों बढ़ रही है हिंसक प्रवृत्ति ?           इसके कारणों पर अगर हम विचार करें तो हम पायेंगे बदली हुई तकनीक, उससे प्रभावित अर्थव्यवस्था और अंततः सामाजिक व्यवस्था में हो रहे बदलाव इस प्रवृत्ति के मूल कारण हैं। बदली हुई जीवन शैली, एकल परिवार, बच्चों का अकेलापन, माता-पिता की व्यस्तता, स्कूल की पढ़ाई का बोझ आदि भी सभी के मिले-जुले प्रभाव ने इस समस्या को जन्म दिया है।              तीन दशक पहले इस प्रकार की हिंसा की घटनाएँ विदेशों में सुनने को मिलती थी, पर आज उसी प्रकार की घटनाएँ हमें अपने देश और समाज में देखने- सुनने को मिल रही हैं जो निश्चित ही चिंता का विषय बनता जा रहा है। एकल होते परिवार            इस समस्या के कारणों पर विचार करें तो बदलता सामाजिक परिवेश और लुप्त होते जीवन मूल्य इसके लिए उत्तरदायी हैं। परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है। परिवार का परिवेश बदल गया है। बहुत से परिवार बुज़ुर्गों से अलग रहते हैं। अनेक तो ऐसे भी देखे गए हैं जो एक छत के नीचे रहते हुए भी अपने माता-पिता से अधिक मतलब नहीं रखते हैं। जो समय बच्चों का दादा-दादी के साथ बीतता था वह टेलीविजन और विडियो गेम्स खेलने में बीतता है। बच्चों की दिनचर्या ऐसी बन जाती है कि वे  उसमें थोड़ा सा भी खलल सहन नहीं करते। प्रवृत्ति धीरे-धीरे हिंसक होती जाती है। अधिकांश मध्यवर्गीय शहरी परिवारों में माता-पिता के पास बच्चों के लिए पर्याप्त समय नहीं है। ध्वस्त हुई सामाजिक व्यवस्था             लोकल सोसाइटी, गली और मोहल्लों का बदलता परिवेश बच्चों के व्यक्तित्व को विकृत कर रहा है। आज से कुछ दशक पहले मोहल्ले के सभी बच्चे मोहल्ले के सभी बड़े-बूढ़ों का मन-सम्मान रखते थे। बड़ी उम्र का व्यक्ति चाहे गरीब और अनपढ़ ही क्यों न हो वह बच्चों को कुछ भी अच्छी बात समझाने के लिए स्वतंत्र था, पर आज अहंकार का स्तर इतना ऊँचा हो गया है कि हर व्यक्ति यह सोचने लगा है कि अपने बच्चों को हम स्वयं समझा लेंगे, हमारे बच्चों को कुछ मत कहो। गली-मोहल्ले की ध्वस्त हुई सामाजिक व्यवस्था ने भी बच्चन को उच्शृंखल, अनुशासनहीन, क्रोधी, अहंकारी और हिंसक बना दिया है। कई जगह माता-पिता भी अपने बच्चों की गलत बातों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करते हुए दिखाई देते हैं। इस बदले हुए परिवेश ने भी बच्चों को हिंसक बनाया है। विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों की  भूमिका            बच्चों में हिंसा की प्रवृत्ति पनपाने में विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों भी अहम भूमिका निभाई है। आज शिक्षा का उद्देश्य अधिक से अधिक अंक प्राप्त करना है। इसके लिए स्कूल में पढ़ाई, उसके बाद ट्यूशन, बचा-खुचा समय होमवर्क आदि में बीत जाता है। अगर हम आमतौर पर विद्यालयों का सर्वे करे तो पायेंगे कि विद्यालय एक नीरस स्थान है। विषय, परीक्षा और अधिक अंक…..स्कूल के उद्देश्य यही रह गए हैं। बच्चों में अन्य गुणों के विकास के लिए खेल,सांस्कृतिक गतिविधियाँ नगण्य हैं और अगर हैं भी तो मात्र दिखावे के लिए। अगर हम ध्यान दें तो पायेंगे बहुत से बच्चे कक्षा पाँच से लेकर कक्षा आठ तक अपनी इच्छाएँ और रूचियाँ को पहचानने लगते हैं। उनमें कोई न कोई प्रतिभा होती है।  प्रतिभा कैसी भी हो सकती है मगर शिक्षा व्यवस्था में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि बच्चे की प्रतिभा को पहचान कर उसके विकास के लिए विद्यालय कुछ करें।  हमारे देश में यह भाग्य भरोसे है कि इत्तफाक से कोई अध्यापक अच्छा मिल गया या माता-पिता समझदार निकल गए,बच्चे की प्रतिभा को पहचान गए और उसे उसी में आगे बढ़ने का अवसर दिया। अन्यथा मुझे तो ऐसा लगता है ९९.९९ प्रतिशत बच्चन को एक बनी-बनाई शिक्षा व्यवस्था के साँचे में धकेल दिया जाता है। बच्चे को अच्छा लगे अथवा नहीं,उसकी रुचि है या नहीं…इन बातों पर विचार करने का समय शायद किसी के पास नहीं है। पढ़िए –बस्तों के बोझ तले दबता बचपन  परिणाम सामने है जैसे ही बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम सामने आते हैं आत्महत्याओंके समाचार मिलते हैं। लड़ाई-झगड़ा, मारपीट, गली-गलौज, घरों में माता-पिता से बहस, अध्यापकों का अपमान…ये बातें आम हो गई हैं और इनके लिए बहुत हद तक हमारे विद्यालय ही ज़िम्मेदार हैं।इन्हीं में से कुछ बालक महाविद्यालयों में पहुँचते हैं। घमंड, अहंकार, क्रोध आदि का पारा और ऊपर चढ़ जाता है जिसका भरपूर उपयोग राजनैतिक नेता करते हैं, छात्रसंघ के चुनावों के समय मारपीट, तोड़फोड़ तो एक सामान्य बात है। अर्थव्यवस्था की ख़ामियाँ भी दोषी              बच्चों में हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति के सामाजिक, शैक्षणिक और पारिवारिक पहलू…..ये सब तो बच्चों और युवाओं में हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे ही रहे हैं, अर्थव्यवस्था की ख़ामियाँ भी आग में घी डालने का काम करती हैं। ग़रीबी, कुपोषण, जुआ, शराब, नशा…..ये महानगरों के चारों तरफ़ बसिहुई झुग्गी-झोंपड़ियों में भरपूर मात्रा में पाया जाता है और हिंसक प्रवृत्ति ही नहीं, हिंसक अपराधियों को जन्म देता है। वहाँ के सरकारी स्कूल और आंगनबाड़ियों की हालत और भी ख़राब है। समस्या का समाधान हमारे हाथ में      1) इस समस्या का समाधान हमारे ही हाथों में निहित है। आवश्यकता है उस पर ध्यान देकर करने की। यह ठीक है शहरों में संयुक्त परिवार नहीं हैं, पर समय-समय पर दादा-दादी, नाना-नानी,चाचा-ताऊ, बुआ, मामा आदि के रिश्तों में बच्चों का आना-जाना, उठना-बैठना तो हो ही सकता है। इसका बालकोंके मन पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और उनका एकाकीपन दूर होगा, सामाजिक ताने-बाने की अहमियत को समझने लगेंगे।  2 )गली-मोहल्ले में हमें आपस में मिलना-जुलना और बच्चों के सामूहिक रूप से कुछ कार्यक्रम करवाना तथा नैतिक बातों पर उनसे चर्चा एवं विचार-विमर्श करना, सुधार लाने के लिए एक उपयोगी कार्य हो सकता है।  पढ़िए -किशोर बच्चे बढती जिम्मेदारियां 3)शिक्षा में मूल्याँकन का आधार यह होना चाहिए किसने अपनी किस प्रतिभा का विकास अधिक किया। विद्यालयों में अध्यापकों के द्वारा बच्चों का पढ़ाए जाने का समय कुल स्कूल के समय का … Read more

गीली मिटटी के कुम्भकार

मेरी सहेली रागिनी मेरे घर आई हुई थी. अभी कुछ ही देर हुए होंगे कि मेरी बेटी का फोन आ गया, मैं रागिनी को चाय पीने का इशारा कर बेटी के साथ तन्मयता से बातें करने लगी. हर दिन कि ही तरह बेटी ने अपने दफ्त्तर की बातें, दोस्तों की बातें बताते, घर जा कर क्या पकाएगी इसका मेन्यू और तरीका डिस्कस करते हुए मेरा, अपने पापा, नाना-नानी सहित सबका हाल-चाल लेती हुई फोन को रखा. जैसे ही मैंने फोन रखा कि रागिनी बोल पड़ी,“तुम तो बड़ी लकी हो, तुम्हारी बेटी तुमसे कितनी बातें करती है. मेरे बेटें तो आठ-दस दिनों तक फोन नहीं करते हैं. मैं करती हूँ तो हूँ-हाँ कर संछिप्त सा बतिया कर फोन ऑफ करने उत्सुक हो जाते  हैं. लड़की है ना, इसलिए इतना बातें करती है. मैंने छूटते कहा,“नहीं, ऐसी बात नहीं है. मेरा बेटा भी तो हॉस्टल में रह कर पढ़ रहा है. वह भी अपनी दिन भर की बातें, पढाई-लिखाई के अलावा अपने दोस्तों के विषय में और उसके कैंपस में होने वाली गतिविधियों  की भी जानकारी देता है. सच पूछो तो रागिनी मुझे या मेरे बच्चों को आपस में बातें करने के लिए टॉपिक नहीं तलाशने होते हैं”.                               मैं रागिनी के अकेलेपन और उदासी का कारण समझ रही थी. बच्चे तो उसके भी बाहर चले गए थे पर उसका अपने बच्चों के साथ सम्प्रेषण का स्तर बेहद बुरा था. उसे पता ही नहीं रहता कि उसके बच्चों के जीवन में क्या चल रहा है. बेटें उदास हैं या खुश उसे ये भी नहीं पता चल पता. कई बार तो वह, “बेटा खाना खाया, क्या खाया” से अधिक बातें कर ही नहीं पाती थी.             मैं रागिनी को बरसों से जानती हूँ, तबसे जब हमारे बच्चे छोटें थें. मैं जब भी रागिनी के घर जाती, देखती कि वह या तो किसी से फोन पर बातें कर रही है या कान में इयरफोन लगा अपना काम कर रही है. उसके घर दिन भर टी वी चलता रहता था. बच्चें लगातार घंटों कार्टून चैनल देखते रहते. रागिनी या उसके पति का भी पसंदीदा टाइम पास टी वी देखना ही था. अब जब बच्चों ने बचपन में दिन का अधिकाँश वक़्त माँ-पिता से बातें किये बगैर ही बिताया था तो अचानक से उन्हें सपना तो नहीं आएगा कि माँ-पापा से भी दिल की बातें की जा सकती हैं. माता -पिता हैं गीली मिटटी के कुम्भकार  वाकई ये माता-पिता के लिए एक बड़ी चुनौती है कि वो अपने बच्चों के वक़्त को – उनके बचपन को किस दिशा में खर्च कर रहें हैं.  “बच्चे तो गीली मिटटी की तरह होतें हैं. उस गीली मिटटी को अच्छे आचार-व्यवहार और समझदारी की मद्ध्यम आंच में पका कर ही एक इन्सान बनाया जाता है”. जन्म के पहले-दूसरे महीने से शिशु अपनी माँ की आवाज को पहचानने लगते हैं.  महाभारत में अभिमन्यु तो अपनी माँ के गर्भ से ही चक्रव्यूह  भेदने की कला सीख कर पैदा हुआ था. रिसर्च भी  ये बताते हैं कि बच्चा गर्भ से ही अपने माता-पिता की आवाज को सुनने समझने लगता है. इस लिए बच्चों के सामने हमेशा ही अच्छी- अच्छी बातें करें. अनगढ़ गीली मिटटी के बने बाल मानस को आप जैसे चाहें ढाल लें. इस पर बाल मनो चिकित्सक मौलिक्का शर्मा बताती हैं कि जो माता-पिता अपने बच्चों से शुरुआत से ही खूब बतियातें हैं, हँसतें हैं हंसाते हैं, अपनी रोजमर्रा की छोटी छोटी बातें भी शेयर करते हैं, उन के बच्चों को भी आदत हो जाती है अपने पेरेंट्स से सारी बातें शेयर करने की. और ये सिलसिला बाद की जिन्दगी में भी चलती रहती है. लाख व्यस्तताओं के बीच अन्य दूसरी जरूरी कामों के साथ बच्चे अपने माता-पिता से जरुर बतिया लेंगे. अपने बच्चों को दें क्वालिटी टाइम  संयुक्त परिवारों में बच्चों से बातें करने, उन्हें सुनने वाले कई लोग होते हैं माता पिता से इतर, इसके विपरीत एकल परिवारों में माँ-बाप दोनों अपने अपने काम से थके होने चलते बच्चों को क्वालिटी टाइम ही नहीं देते हैं बातचीत करनी तो दूर की बात है.  होली फॅमिली हॉस्पिटल , बांद्रा, मुंबई के चाइल्ड साइकोलोगिस्ट डॉक्टर अरमान का कहना है कि “अपने बच्चों के बचपन को सकारात्मक दिशा में खर्च करना पेरेंट्स का प्रथम कर्तव्य है”.  अक्सर घरों में बच्चों को टी वी के सामने बिठा दिया जाता है, खाना-पीना खाते हुए वे घंटों कार्टून देखते रहतें हैं. खुद मोबाइल, कंप्यूटर या किसी भी अन्य चीज में व्यस्त हो जातें हैं. इस दिनचर्या में एक बेहद औपचारिक बातों के अलावा पेरेंट्स बच्चों से बातें ही नहीं करतें हैं. बचपन से डालें बातचीत की आदत  बच्चे के सामने बातें करना मानो आईने के समक्ष बोलना. आपके बोलने की लय, स्वर, लहजा, भाषा वे सब सीखते हैं. बातचीत ही वो पल होतें हैं जब आप अपने अनुभव और विचारों से उन्हें अवगत करतें हैं. अपनी सोच उनमें रोपित करतें हैं. जैसा इंसान उसे बनाना चाहतें हैं वैसे भाव उसमे भरतें हैं. आप जब बूढ़े हो जाएँ और तब भी आपके बच्चें आपसे बातें करने को लालायित रहें इसके लिए आपको उसके गोद में रहने से ही शुरुआत करनी होगी. १- छोटे बच्चों को खिलाते पिलाते, मालिश करते, नहलाते यानि जब तक वह जगा रहे उसके साथ कुछ न कुछ बोलतें रहें. ऐसे बच्चे जल्दी बोलना भी शुरू करतें हैं. २- थोड़ा बड़ा होने पर गीत और कहानी सुनाने की आदत डालें. कथा-श्रवण की आदत उसे कुछ ही वर्षों में पठन के लिए उत्प्रेरित करेगी. रंग बिरंगे किताबों से उन्हें लुभाएँ और किताबों से दोस्ती कराने की भरसक कोशिश करें. 3- टीवी चलाने के घंटे और प्रोग्राम तय करें. अनवरत अनर्गल अनगिनत वक़्त तक टी वी आप भी ना देखे ना ही बच्चें को देखने दें. अपने मन को यदि आप थोड़ा साध लेतें हैं तो यकीन मानिये आप स्वअनुशासन का एक बेहतरीन पाठ अपने बच्चों को पढ़ा देंगें. ४- छोटे बच्चों में आप कई अच्छे संस्कार रोपित कर सकतें हैं अपने सम्प्रेषण के जरिये. जैसे देश प्रेम, स्वच्छता. सच बोलना, लड़की को इज्जत देना इत्यादि. आज का आपके द्वारा रोपित बीज रूपेण संस्कार के वट वृक्ष के … Read more

क्या ऐसे ही गढ़ा जायेगा देश का भविष्य?

एक परिवार, समाज और देश का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उनके बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा मिल रही है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के द्वारा सरकार ने देश के 6 से 14 साल तक के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार तो प्रदान कर दिया किन्तु इस अधिकार के अन्तर्गत देष के गाँव-गाँव में रहने वाले प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कैसे मिले? इस ओर कोई ठोस कदम नहीं उठाया। हम सभी जानते हैं कि भारत गाँवों का देश है। यहां की अधिकांश आबादी इन्हीं गाँवों में ही निवास करती है। इन्हीं गाँवों की स्कूली शिक्षा पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था ‘प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन’ द्वारा हाल ही में जारी एनुअल स्टेटस आॅफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर-2016) के अनुसार शिक्षा पर भारी खर्च के बाद भी ग्रामीण भारत के सरकारी स्कूलों (जहां कि निःशुल्क शिक्षा के साथ ही सरकार उन्हें दोपकर का खाना, किताबें, कापियां, छात्रवृत्ति और बैग तक मुफ्त दे रही है।) की स्थिति में अपेक्षित सुधार देखने को नहीं मिला है। देश के 589 ग्रामीण जिलों के 15,630 सरकारी स्कूलों तथा 3 से 16 आयु वर्ग के 562,305 बच्चों पर किये गये सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाशित एन्युअल स्टेट्टस आॅफ़ एजुकेशन रिपोर्ट 2016 बताती है कि देश के सरकारी स्कूलों के कक्षा 3 के 57.5 प्रतिशत बच्चे कक्षा 1 स्तर का पाठ नहीं पढ़ सके, 72.3 प्रतिशत बच्चे दो अंकों वाले घटाव के सवाल को हल नहीं कर सके और 68.00 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी के सामान्य शब्द नहीं पढ़ सके। इसी रिपोर्ट के अनुसार कक्षा 5 के 74.00 प्रतिशत बच्चे साधारण भाग के सवाल हल नहीं कर सके। रिपोर्ट बताती है कि कक्षा 8 के 56.7 प्रतिशत बच्चे 3 अंक का 1 अंक से भाग वाले सवाल को हल नहीं कर सके, 26.9 प्रतिशत बच्चे कक्षा 2 के स्तर का पाठ नहीं पढ़ सके और 54.8 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी के सामान्य वाक्य नहीं पढ़ सके। वास्तव में यह रिपोर्ट ग्रामीण भारत की प्राथमिक शिक्षा पर अत्यन्त ही चिंताजनक और झकझोरने वाली तस्वीर पेश करती है जबकि प्राथमिक शिक्षा ही किसी व्यक्ति के जीवन की वह नींव होती है, जिस पर उसके संपूर्ण जीवन का भविष्य तय होता है। यूनेस्को की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भी भारत में बच्चों को शिक्षा की उपलब्धता आसान हुई है। लेकिन गुणवत्ता का सवाल ज्यों का त्यों बना हुआ है और स्कूल जाने वाले बच्चे भी बुनियादी शिक्षा से वंचित हो रहे हैं।  न्यू एजुकेशन पालिसी का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए पूर्व में बनी कमेटी के अध्यक्ष व पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी टीएसआर सुब्रमण्यम ने भी अपने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया है कि जब से देश में राइट टू एजुकेशन एक्ट 2009 लागू किया गया है तब से शिक्षा की गुणवत्ता में 25 प्रतिशत गिरावट आ गई है। इन सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता पर चिन्ता व्यक्त करते हुए वर्ष 2015 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय को उत्तर प्रदेश सरकार को सरकारी मद से वेतन लेने वाले सभी अधिकारियों एवं अधिकारियों को अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने का आदेश तक पारित करना पड़ा था। इस निर्णय के पीछे एक सीधी धारणा थी कि सत्तासीन वर्ग के बच्चे सरकारी स्कूलों मे पढ़ेंगे तो वहाँ के शैक्षिक स्तर में भी उन्नति होगी। इसके साथ ही सरकारी स्कूलों की शिक्षा के स्तर के संबंध में समय-समय पर मीडिया में दिखाई गई रिपोर्टे देश के सरकारी स्कूलों की बहुत ही भयानक तस्वीर प्रस्तुत करतीं हंै। षिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के साथ ही सरकार को इन बातों पर ध्यान देना चाहिए कि उनके गाँव-गाँव में चलने वाले सरकारी स्कूलों एवं निजी स्कूलों की गुणवत्ता कैसे बढ़े? कैसे सरकारी स्कूलों में बच्चों एवं शिक्षकों की नियमित उपस्थिति सुनिश्चिित की जाये? कैसे इन सरकारी शिक्षकों की जवाबदेही तय की जायें? कैसे इन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को मिलने वाले ज्ञान के स्तर को बढ़ाया जाये? इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को सम्मानजनक रूप से शिक्षा ग्रहण करने के लिए कुर्सी-मेज की व्यवस्था, बिजली, पानी, सफाई एवं शौचालय आदि की व्यवस्था कैसे की जाये? इन दिशाओं में ठोस कदम उठाने की बजाय सरकार ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 को लागू करके देश के केवल 15 प्रतिशत निजी स्कूलों की कक्षा 1 से 8 तक की 25 प्रतिशत सीटों को चंद दुर्बल वर्ग और अलाभित समूह के बच्चों के लिए आरक्षित करके देश के बच्चों के बीच एक भेदभाव की दीवार और भी खड़ी कर दी है।  यह हमारे देश के बच्चों का दुर्भाग्य ही है कि आज हम मंगल ग्रह तक तो पहुंच गये हैं किन्तु आज भी हमारे सरकारी स्कूलों में बच्चे भीषड़ जाड़े और गर्मी के मौसम में टाट पट्टियों पर बैठकर पढ़ने के लिए मजबूर हैं। इन सरकारी स्कूलों के कमरों में पंखे और बल्ब/ट्यूब लाइट तो लगे हैं किन्तु बिजली कनेक्शन के अभाव में यह मात्र शो पीस बनकर रह गये हैं। 28 नवम्बर, 2016 को प्राथमिक और मिडिल स्कूलों की खराब स्थिति पर सुप्रीमकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि ऐसे वातावरण में न तो शिक्षा दी जा सकती है और न ली जा सकती है। कोर्ट ने राज्य सरकार से कहा कि अगर वह स्कूल दुरुस्त नहीं कर सकती तो ये खराब शासन का संकेत है। कोर्ट ने इसके साथ ही राज्य सरकार को चार सप्ताह में इलाहाबाद के स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं जैसे बिजली, पानी, शौचालय और सफाई आदि की कमी दूर करने का आदेश दिया है। ये आदेश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने गैर सरकारी संगठन हरिजन महिला की ओर से दाखिल अवमानना याचिका पर सुनवाई के बाद जारी किये। विश्व बैंक के भारत में क्षेत्रीय निदेशक ओनो रूल का मानना है कि ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की सफलता के लिए भारत को प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर विशेष जोर देना चाहिए। दुनिया का इतिहास गवाह है कि विकसित देशों के विकास में वहां की शिक्षा व्यवस्था ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विकसित देशों में नीतिगत रूप से शिक्षा को शीर्ष प्राथमिकता में रखा गया है, पर हमारे देश में शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। 28 जून 2016 को यूनिसेफ द्वारा 195 देशों में  जारी … Read more

बच्चों के लिए संतुलित शिक्षा की आवश्यकता

बच्चे हमारी सबसे कीमती धरोहर हैं | उनकी शिक्षा केवल पाठ्य पुस्तकों तक सीमित नहीं होनी चाहिए क्योंकि  मनुष्य केवल एक  शरीर नहीं है | वह भौतिक प्राणी होने के साथ – साथ सामाजिक व आध्यात्मिक  प्राणी भी है। इसलिए मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए उसे सर्वश्रेष्ठ भौतिक शिक्षा के साथ ही साथ उसे मानवीय एवं आध्यात्मिक शिक्षा भी देनी चाहिए। यदि हम अपने पूर्वजों की जानकारी रखते हो तो हम पायेंगे कि वे भी रोटी, कपड़ा तथा मकान के लिए कार्य करते थे। लेकिन उस समय समाज में कोई आत्महत्या, रेप तथा लूटपाट नहीं होती थी। इसका प्रमुख कारण था कि प्रारम्भिक काल में शिक्षालयों  में बालक को बाल्यावस्था से भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार की शिक्षा  संतुलित रूप से मिलती थी। उस समय मानव जीवन सुन्दर, सुखी तथा एकता से भरपूर था। आज  बच्चों के लिए संतुलित शिक्षा की आवश्यकता  यदि बालक को केवल विषयों का भौतिक ज्ञान दिया जाये और उसके सामाजिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान में कमी कर दी जायें तो उससे बालक असंतुलित व्यक्ति के रूप में विकसित हो जायेगा। इस प्रकार की शिक्षा में पला-बढ़़ा बालक अपने परिवार एवं समाज को अच्छा बनाने के बजाये उसे और भी अधिक असुरक्षित एवं असभ्य बनाने का कारण बन जाता है। अतः प्राचीन काल के शिक्षालयों  से प्रेरणा लेकर आज के आधुनिक विद्यालयों को भी प्रत्येक बच्चे को बाल्यावस्था से ही सर्वश्रेष्ठ भौतिक शिक्षा के साथ ही साथ उसे सामाजिक तथा आध्यात्मिक अर्थात् संतुलित शिक्षा  देकर उसे ईश्वर का उपहार एवं मानवजाति का गौरव बनाना चाहिए।  शिक्षा का मुख्य उद्देश्य हो बच्चों को अच्छा इंसान बनाना  कालान्तर में  वर्ष 1850 से वर्ष 1950 तक लगभग 100 वर्षो के बीच सारे विष्व में औद्योगिक क्रान्ति हुई। विष्व के सभी देषों के बीच अपना-अपना सामान अधिक से अधिक बेचकर लाभ कमाने की अत्यधिक होड़ बढ़ने लगी। उस दौड़ में षिक्षा एवं षिक्षालय भी डूब गये। षिक्षालय केवल कमाई के योग्य व्यक्ति बनाने के टकसाल बन गये। इसके पूर्व शिक्षालयों की चिन्ता होती थी कि बच्चे कैसे अच्छे इंसान बने? यह बात नालन्दा, तक्षषिला, शान्ति निकेतन, बनारस हिन्दू विष्व विद्यालय में देखी जाती थी। वर्तमान समय में अच्छे रिजल्ट बनाने की होड़ को कम नहीं किया जा सकता। इस हेतु बालक को अपने सभी विषयों का संसार का उत्कृष्ट भौतिक ज्ञान मिलना चाहिए। किन्तु इसके साथ ही साथ उसके चरित्र का निर्माण तथा उसके हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम भी उत्पन्न करना होगा तभी हम प्रत्येक बालक को एक अच्छा इंसान भी बना पायेंगे। यदि हमें धरती पर शैतानी सभ्यता की जगह आध्यात्मिक सभ्यता स्थापित करनी है तो इसके लिए शिक्षा के द्वारा तीन क्षेत्रों को तराशना होगा। पहला क्षेत्र इस युग के अनुरूप ‘शिक्षा’ होनी चाहिए (अर्थात शिक्षा केवल भौतिक नहीं वरन् भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक तीनों की संतुलित शिक्षा), दूसरा क्षेत्र धर्म के मायने साधारणतया समझा जाता है कि मेरा धर्म, तेरा धर्म, उसका धर्म। धर्म के मायने- ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है। तीसरा क्षेत्र सारे विश्व में कानूनविहीनता बढ़ रही है। बच्चों को बचपन से कानून पालक तथा न्यायप्रिय बनने की सीख देनी चाहिए। हम सब संसारवासी कानून को तोड़ने वाले बनते जा रहे हैं। समाज को व्यवस्थित देखना है तो कानून का पालन होना चाहिए। सामाजिक शिक्षा के द्वारा बालक में परिवार तथा समाज के प्रति संवेदनशीलता विकसित की जानी चाहिए। बच्चों को ऊँच-नीच तथा जात-पात के बन्धन से बचाना चाहिये। विद्यालयों में हो बच्चों की शिक्षा का तीन सूत्रीय कार्यक्रम  आध्यात्मिक शिक्षा के अन्तर्गत बालक को पवित्र ग्रन्थों- गीता, कुरान, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस में संकलित परमात्मा की शिक्षाओं का ज्ञान कराना चाहिए तथा परमात्मा की शिक्षाओं पर चलने के लिए प्रेरित करना चाहिए। बच्चों को बताना चाहिए कि सभी अवतार राम, कृष्ण, बुद्ध, ईशु, मोहम्मद, मोजज, अब्राहम, जोरस्टर, महावीर, नानक, बहाउल्लाह एक ही परमात्मा की ओर से आये हैं। परमात्मा का ज्ञान किसी धर्म विशेष के अनुयायियों के लिए नहीं हैं सारी मानव जाति के लिए है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर को अर्पित मनुष्य की ओर से की जाने वाली समस्त सम्भव सेवाओं में से सर्वाधिक महान सेवा है- (अ) बच्चों की शिक्षा, (ब) उनके चरित्र का निर्माण तथा  (स) उनके हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न करना।                                जब बच्चों को इन तीन सूत्रीय कार्यकर्मों पर चल कर शिक्षा दी जायेगी | तो न सिर्फ उनका सर्वंगीड विकास होगा बल्कि हम एक स्वस्थ्य , संतुलित समाज की स्थापना करने के अपने लक्ष्य में भी कामयाब होंगे | – डा0 जगदीष गांधी, षिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ ’’’’’ किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता जिम्मेदार कौन आखिर क्यों 100 %के टेंशन में पिस रहे हैं बच्चे बाल दिवस :समझनी होंगी बच्चों की समस्याएं  माता – पिता के झगडे और बाल मन   आपको  लेख “बच्चों के लिए संतुलित शिक्षा की आवश्यकता “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    keywords:  children issues,  child, children,child education, balanced child education

जाने -अनजाने मत बनिए टॉक्सिक पेरेंट

                        मुझे पता है आप इस लेख के शीर्षक को पढ़ते ही नकार देंगे | पेरेंट्स वो भी टॉक्सिक ? ये तो असंभव है | जो माता –पिता अपने बच्चों से इतना प्यार करते हैं | उनके लिए पैसे कमातें हैं , घर में  सारा समय देखभाल करते हुए बिताते हैं वो भला  टॉक्सिक कैसे हो सकते हैं | आप का सोचना भी गलत नहीं है | पर दुखद सत्य यह है की कई बार माता –पिता न चाहते हुए अपने बच्चों  के टॉक्सिक पेरेंट्स बन जाते हैं | जो न सिर्फ अपने ही हाथों से अपने बच्चों का बचपन छीन लेते हैं अपितु व्यस्क  के रूप में भी उन्हें एक अन्धकार से भरे मार्ग पर धकेल देते हैं | अगर आप भी जाने अनजाने टॉक्सिक पेरेंट्स बन गए हैं तो अभी भी समय है अपने आप को बदल लें ताकि आप की बगिया के फूल आप के बच्चे जीवन भर मुस्कुराते रहे | आप टॉक्सिक पेरेंट हो या न हों पर अपने व्यवहार पर गौर करिए | यहाँ कुछ लक्षण दिए जा रहे हैं | अगर उनमें से कुछ लक्षण आप से मिलते हैं तो निश्चित जानिये की आप  के बच्चे आपके साथ अच्छा महसूस नहीं कर रहे हैं | इतना ही नहीं वो बड़े होकर एक संतुलित व्यस्क भी नहीं बन पायेंगे |  बहुत द्रढ  या टफ पेरेंट                आज्ञाकारी बच्चे किसे अच्छे नहीं लगते | पर उन्हें आज्ञाकारी बनाने की जगह रोबोट मत बनाइये | मेरी ना का मतलब ना है के जुमले को बार –बार इस्तेमाल मत करिए | जीवन एक नदी की तरह है | कई बार यहाँ रास्तों को काटना होता है , कई बार धारा  को मोड़ लेना होता है|  अपने ही नियम चलाने वाले माता –पिता को लगता है उन्हें बच्चों से ज्यादा पता है तो बच्चों को उनकी बात माननी ही चाहिए | पर कई बार इसका उल्टा असर पड़ता है | बच्चों में निर्णय लेने की क्षमता का विकास नहीं होता | वो बात –बात पर दूसरों का मुँह देखते हैं | और जीवन के संग्राम में अनिर्णय की स्तिथि में रह कर असफल होते हैं | जरूरत से ज्यादा आलोचक पेरेंट्स                 ऐसे कोई माता –पिता नहीं होते जो कभी न कभी अपने बच्चे की आलोचना न करते हो | कबीर के दोहे “ भीतर हाथ संभार  दे बाहर  बाहे चोट “ की तर्ज़ पर बच्चों को दुनियादारी सिखाने के लिए यह जरूरी भी है | परन्तु यहाँ बात हो रही है जरूरत से ज्यादा आलोचक .. जैसे तुमसे तो ये काम हो ही नहीं सकता | ये बेड शीट बिछाई है , कवर ऐसे चढाते हैं आदि बात -बात पर कहने वाले माता –पिता यह सोचते हैं की वो बच्चों को ऐसा इसलिए कहते हैं ताकि बड़े होने पर वो कोई गलती न करें |पर उनका यह व्यवहार बच्चे के अन्दर अपने कामों के प्रति एक आंतरिक आलोचक उत्पन्न कर देता है जो बड़ा होने पर उन्हें अशक्त व्यस्क में  बदल देता है |  बच्चों का जरूरत से ज्यादा ध्यान चाहने वाले पेरेंट्स                  कौन माता –पिता नहीं चाहते की बच्चे उनका ध्यान रखे | पर बच्चा हर समय आप में ही लगा रहे ये उसके साथ ज्यादती है |ऐसे पेरेंट्स अक्सर ,”अरे कहाँ अकेले खेल रहे हो , हमारी याद नहीं आ रही , हमारी आँखों के सामने रहते हो तभी तसल्ली मिलती है आदि वाक्यों का प्रयोग करते हैं |  ऐसा अक्सर वो माता –पिता करते हैं जिनके अपने जीवन में कोई कमी होती है | अब वो अपने को बच्चे की नज़रों में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए उसे बिलकुल भी स्पेस नहीं देना चाहते | जिन्होंने फागुन फिल्म देखी  होगी उन्हें उसमें वहीदा रहमान द्वारा  अभिनीत पात्र अवश्य याद आ गया होगा | याद रखिये बच्चा एक स्वतंत्र जीव है उसे अपना पेरासाइट न बनाइये | अगर वो हर समय आप में उलझा रहेगा तो बाहर निकल कर सीखने के अनेकों अवसरों को खो देगा | बच्चों को ताने देने वाले पेरेंट्स                हर बच्चा एक अपने आप में अनमोल है | वो एक विशेष प्रतिभा ले कर आता है | हो सकता है आप ने उसके लिए जो सोचा  है उसमें उसका मन न लगता हो | जैसे नेहा का मन नृत्य में लगता था | टी वी में जैसे ही कोई डांस का प्रोग्राम आता नेहा दौड़ कर आ जाती | स्टेप्स देख-देख कर नाचने का अभ्यास करती | पर उसके माता –पिता की नज़र में यह एक गंदी चीज थी | वो उसे घर में और बाहर वालों के सामने ताना देते ,” पढ़ती लिखती तो है नहीं,  नचनिया बनेगी | नेहा अपमानित महसूस करती | राहुल अच्छी पेंटिंग करता पर माता –पिता ताने देते , ‘पेंटिंग से क्या होता है , रोटी  थोड़ी न मिलेगी , बड़े हो कर रिक्शा चलायोगे |या अपने ही बच्चों  के हाईट वेट को ले कर उपहास उड़ाते है … आओ मोटू आओ , मेरी कल्लो को कौन बयाहेगा , दुनिया के सब बच्चे बढ़ गए पर तुम्हारी तो गाडी आगे खिसक ही नहीं रही है | यह व्यवहार बच्चे  का अपने प्रति  दृष्टिकोण बहुत खराब कर देता है | उसका आत्म विश्वास खो जाता है | अगर कुछ कर सकते हैं तो करें अन्यथा जैसा उसे ईश्वर ने बनाया है उसे पूरे दिल से स्वीकारें |   बड़े हो चुके बच्चों को डराने – धमकाने वाले पेरेंट्स            पुरानी कहावत है जब पिता का जूता बेटे के पैर में आने लगे तो उसे बेटा नहीं दोस्त समझना चाहिए | पर जो पेरेंट्स बच्चों को अपनी संपत्ति समझते हैं वो बड़े पर भी बच्चों को डराना धमकाना जारी रखते है | वो समझतें हैं की बच्चे चुपचाप उनका यह व्यवहार सह लें  तभी यह सिद्ध होगा की वो उनसे प्यार करते हैं | कई बार इस तरह की शारीरिक व् भावनात्मक शोषण के भय से बच्चे उनकी बात मानते भी हैं | पर यह व्यवहार बड़े होने के बाद भी बच्चों का मनोविज्ञान पूरी तरह से नकारात्मक कर देता है | बच्चों को काबू में रखने के लिए उनमें गिल्ट भरने वाले पेरेंट्स                         दुनिया का हर चौथा बच्चा कोई न कोई गिल्ट पाले … Read more