गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

    आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….       गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 मुश्किल वक़्त में धैर्य (काज़ीपेट, शोलापुर, सिकंद्राबाद 1972 से 1978)     मुझे लेने ये ओबरा आये और थे ,ग्वालियर  तीन चार दिन रुककर हम काज़ीपेट पहुँच गये थे। इस बीच कोरे गाँव से इनका तबादला काज़ीपेट (आंध्र प्रदेश) हो चुका था, ये सामान सहित वहाँ पहुँच गये थे। काज़ीपेट दरअसल शहर था ही नहीं, रेलवे के महत्व के अलावा,रेलवे के स्टाफ के अलावा, वहाँ कुछ था ही नहीं, पास में वारंगल शहर था। धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जुड़ रहा था। वहाँ कोई सरकारी बड़ा मकान खाली नहीं था तो हमें दो कमरों के दो क्वाटरबराबर बराबरलगे हुए मिल गये जिनको एक कमरे से जोड़ दिया गया था। जगह की कमी नहीं थी पर अजीब  लगता था। एक लाइन में चार कमरे दो आँगन दो रसोई। काज़ीपेट में मुझे और तनु दोनों को चिकन पाक्स निकली थी। जब मुझे चिकन पॉक्स हुई तो इनके एक सहकर्मी मित्र और उनकी पत्नी तनु को अपने घर ले गये फिर भी बचाव नहीं हुआ। मैं वहाँ काफ़ी बीमार हुई। इन्होंने तनु को बहुत संभाला था। सिकंद्राबाद( आंध्र)  जाकर चैक-अप और इलाज हुआ। मैं धीरे धीरे ठीक हो गई। काज़ीपेट हम कुछ महीने ही रहे होंगे वह भी बीमारियों में घिरे रहे, साल भर से पहले ही पदोन्नति पर इनकातबादला शोलापुरहो गया। शोलापुर महाराष्ट्र का चौथा या पाँचवाँ बड़ा शहर हैमुंबई, पुने,  नागपुर और कोल्हापुर के बाद,  उस समय ये दक्षिण मध्य रेलवे में था। मुंबई से सिकंद्राबाद या अन्य दक्षिण के शहरों को जाने वाली लाइन पर शोलापुर शहर स्थित है। यहाँ के बैडकवर बहुत मशहूर हैं और बहुत सी कपड़ा मिलें भी वहाँ थी। ।यहाँ हमें पुराना मगर काफ़ी बड़ा बंगला मिल गया था। हम ख़ुश थे और धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जोड़ रहे थे।   शोलापुर आने के बाद जून 1972 में हमें एक ऐसा झटका लगा जिसको सोचना भी अब नहीं चाहते। हमारी प्यारी बेटी तनु को अकस्मात बुखार आया और दोनों पैरो में पोलियो हो गया। यद्यपि उस समय पोलियो की बूँदें पिलाई जाने लगी थीं पर कुछ ने कहा था कि साल अंदर पिला दो।  काज़ीपेट में सुविधा थी नहीं और शोलापुर आठ महीने की आयु में ये हो ही गया था, जिस समय बच्चा पकड़कर चलना शुरू करता है,यह वही आयु थी। वहाँ रेलवे के अस्पताल में भर्ती रखा फिर मुंबई भी दो तीन बार गये पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। मैं तो विक्षिप्त  सी हो गई थी, परंतु इन्होंने कभी डाँटकर ,कभी समझाकर मुझे इस विकट परिस्थिति  का सामना करने के लिये तैयार किया। धीरे धीरे बदली हुई परिस्थिति  के लिये हम अपने को तैयार कर रहे थे, फिर भी व्याकुलता अपनी चरम सीमा पर थी। कोई कुछ भी कहता हम मान लेते थे। सत्य साईं बाबा के आश्रम पुट्टपर्थी गये,  किसी ने कोई डाक्टर गोवा में बताया, वहाँ भी गये। केरल का आयुर्वेदिक इलाज भी किया। अब तक हम झटके के बाद मजबूत हो चुके थे, इसलिये जहाँ भी इलाज के लिये जाते कोई उम्मीद लेकर नहीं जाते थे। इलाज के बाद कुछ पर्यटन भी हो जाता था। इसको लेकर हमने गोवा और केरल के काफ़ी स्थान देख लिये ।   जब परेशानी में होते है तो हर एक की बात मान लेते हैं। हम पुट्टापर्थी सत्य सांई बाबा के आश्रम में भी गये पर कोई श्रद्धा नहीं उभरी वे एक जादूगर से ज्यादा नहीं लगे। हमारे घर में राधास्वामी सत्संग का माहौल था, मैंने कोशिश की पर मन ज़रा भी नहीं लगा।  लखनऊ के एक वैद्य ने भी कानपुर में पोलियो से ग्रस्त बच्चों के लिये शिविर लगाया था, तब तक भैया भी लखनऊ नहीं आये थे मैं उस शिविर में 15 दिन रही थी। बाद तक भी उन वैद्य का इलाज किया था। मुंबई में एक ज्योतिषी ने त या ट से नाम रखने की सलाह दी थी तो इसका नाम तनुजा रख दिया। जिन चीज़ों पर विश्वास न हो वह भी हम कर लेते हैं किसी करिश्मे की उम्मीद में!   केरल में पालघाट ज़िले  में इनके एक सहयोगी का घर था, उन्होंने वहीं पर आयुर्वेदिक इलाज का प्रबंध करवा दिया था। वहाँ से हम मलमपुज़ाडैम गये जहाँ बहुत खूबसूरत गार्डन था पता नहीं क्यों वह आजकल केरल के पर्यटन स्थलों की सूची में नहीं है। गुरुवयूर  मंदिर देखा। त्रिवेंद्रम में भी इनके सहयोगी मित्र के माता पिता के आतिथ्य में रहे। कन्याकुमारी उस समय बहुत सुंदर था। इतने होटल दुकानें नहीं थे। एक स्थान पर खड़े रहकर महसूस होता था कि एक तरफ बंगाल की खाड़ी है और दूसरी तरफ़ अरब सागर।  एक ही स्थान से सूर्योदय और सूर्यास्त समुद्र में देखने के अनूठा अनुभव था। केरल से हम बंगलौर आये वहाँ स्थानीय भ्रमण करने के बाद मैसूर गये। मैसूर के वृंदावन गार्डन दिन में और रात में देखे और कश्मीर की तरह यहाँ भी ऐसा लगा कि कई फिल्मों के गीतों का छायांकन वहाँ हुआ था।मैसूर का महल भी देखा था।   हम गोवा भी गये थे ट्रेन का अंतिम स्टेशन वास्को था ,पूना से वास्को तो पहुँच  गये परन्तु वास्को से पणजी पहुँचना आसान नहीं था, रास्ते में एक नदी फैरी से पार करनी पड़ती थी, दूसरी ओरजहाँफैरी ने उतारा वह बड़ी सुनसान जगह थी। अंतिम बस पकड़ कर पणजी पहुँचे थे। बस स्टैंड पर टैक्सी औटो मिलने मेंमुश्किल हुई, फिर एक सहयोगी मित्र को फोन किया, तब उन्होंने वहाँ से सर्किट हाउस पहुँचाने के लिये प्रबंध किया, जहाँ हमारे लिये कमरा आरक्षित था। काम हो जाने के … Read more

गुज़रे हुए लम्हे – अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….     अध्याय 5 विवाह के बाद (ग्वालियर, ओबरा, कोरेगाँव दिसम्बर 1969 से 71)   विदाई के बाद ओबरा से बनारस तक टैक्सी से ही जाना था।  बनारस से ट्रेन लेनी थी फिर मानिकपुर और उसके बाद झाँसी पर बदलनी थी।  बारात की कोच पूर्ण रूप से आरक्षित थी जो अलग अलग ट्रेनों में कटकर लगनी थी, पर हम दोनों के लिये अलग प्रथम श्रेणी में आरक्षण था।  यहाँ से हमारी जान पहचान होनी शुरू हुई थी। सबसे पहले तो वह दुल्हन वाली पोशाक बदलकर दूसरे कपड़े पहने, ज़ेवर उतार कर रखे ।ट्रेन कुछ लेट थी, मानिकपुर पर दूसरी ट्रेन छूटने का डर था तो अरुण बहुत तेज़ी से पुल की तरफ चले बिना ये सोचे कि कोई और भी साथ है। कुली भी दौड़ा और मुझे भी दौड़ना पड़ा पर हमने ट्रेन पकड़ ली। बारात की कोच उस ट्रेन में लग नहीं पाई कुछ घंटों बाद किसी दूसरी ट्रेन में लगी थी। हम बारात से 5,6 घंटे पहले ग्वालियर पहुँच गये। मोबाइल क्या उस समय घरों में भी फोन होना बड़ी बात होती थी। स्टेशन मास्टर के कमरे से जाकर अरुण……….. नहीं अब मैं ‘इन्होंने’ कहूँगी क्योंकि उस समय पति का नाम लेने का रिवाज नहीं था न इसकी इजाजत थी !अब ये अब आदत बन चुकी है।वहाँ घर पर भी फोन नहीं था किसी पड़ौसी के यहाँ से संदेश भेजा कि हम पहुँच गये हैं अब क्या करें। कुछ समय में इनकी बहने  वहाँ स्टेशन आ गईं और वहाँ वेटिंग रूम में ही मैं वापिस दुल्हन के जोड़े में तैयार हुई और हम बहनों के साथ चले दिये । जहाँ हम पहुँचे थे वह पड़ौसी का घर था, ये मुझे कुछ देर बाद पता चला। मेरी सास जिन्हें सब चाची जी कहते हैं ,उन्होंने आदेश दिया था कि जब बारात वापिस आ जायेगी तभी बहू प्रवेश करेगी, हमें वहाँ शायद पाँच छ: घंटे तक तो रुकना पड़ा था, तब जाकर गृह प्रवेश हुआ।  हमारे यहाँ कोई पैर से चावल गिराने या रंगीन पानी में पैर रखकर गृह प्रवेश की प्रथा नहीं है, ये प्रथा पता नहीं कहाँ की है जो टीवी धारावाहिकों ने लोकप्रिय बनाई है। चाची जी ने आरती की मुंह मीठा कराया और प्रवेश हो गया।   हम दोनों की जान पहचान तो ट्रेन में ही हो गई थी ,अब दोस्ती की शुरुआत होनी थी, लेकिन उससे पहले बहुत सी रस्में निभानी थीं और परिवार के तौर तरीके समझने थे। वहाँ का वातावरण हमारे घर से बहुत अलग था, चाची जी(सास जी) कुछ मामलों में बहुत अलग थीं। वह घूँघट पल्ला वगैरह पर ध्यान देती थीं, टोकती थीं, तो बड़ी नंद भी कम नहीं थी,  बड़ों के बराबर नहीं बल्कि नीचे पीढ़े  पर बैठना चाहिये यह इशारा बार बार आता था, जो मुझे बहुत बुरा लगता था। कभी इशारा न समझ के मैं साथ में बैठ ही जाती थी। ऐसी परम्परायें हमारे भारतीय परिवारों में होती ही थी, लेकिन और कोई बात परेशानी वाली नहीं थी। हलवा  बनाने क रस्म भी प्रतीकात्मक ही थी, बस हाथ लगवा दिया न हलवा बना न नेग मिला।   पहले तो इन्होंने सोचा था कि ये मुझे अपने साथ छुट्टी खतम होने पर विजयवाड़ा ले जायेंगे परंतु  लम्बी छुट्टी लेते ही विजयवाड़ा से तबादला कोरेगाँव हो गया।  कोरेगाँव सतारा जिले का महाराष्ट्र में एक गाँव था।  छोटी लाइन से बड़ी लाइन का निर्माण चल रहा था, वहाँ एक डेढ़ साल काम चलना था और कोई सुविधा नहीं थी इस लिये मुझे लेकर नहीं जा सकते थे। वैसे भी एक बार ओबरा जाना ही था। आम तौर पर पहली बार ससुराल से लेने छोटे भाई जाते हैं पर मेरा कोई छोटा भाई नहीं था, भैया ही लेने आये।  मैं शायद एक डेढ़ महीने ओबरा  रही थी। कोरेगाँव जाना तो था ही ओबरा या ग्वालियर में बहुत समय तक तो नहीं रह सकती थी। ये ओबरा लेने आये फिर ग्वालियर कुछ दिन रुककर हम कोरेगाँव पहुँच गये।   उन दिनों हनीमून का तो रिवाज था नहीं ,यही हनीमून था।नई लाइन के लिये स्टेशन मास्टर के लिये जो घर बनाया गया था वह फिलहाल हमारा घर था।दो छोटे छोटे कमरे, न बिजली न पानी की व्यवस्था।काम करने के लिये दो तीन आदमी थे । सामने स्टेशन की बिल्डिंग में छोटा सा दफ्तर एक दो क्लर्क एक जीप और ड्राइवर थे। दफ्तर सामने था पर ये लगभग रोज़ ही लाइन का दौरा करने जाते थे । पास में नदी से पानी आता था। कपड़े एक आदमी नदी पर ही धोकर ले आता था।  दो लालटेन थीं, बाद में पैट्रोमैक्स भी आ गई थी, मौसम वहाँ हमेशा सुहावना रहता था इसलिये गर्मी कभी नहीं लगी, पंखे की कमी महसूस नहीं हुई।  बिजली नहीं थी पर फ़ोन था, बिना डायल वाला,जिसमें नम्बर बताने पर सामने वाला जुड़ता था।पानी नदी से आता था पर रसोई गैस थी, जिसका सिलेंडरसतारा से आता था। हमारी गृहस्थी की शुरुआत ख़ूबसूरत सी थी।  ये ज्यादा बात नहीं करते थे, शुरुआत मुझे ही करनी पड़ती थी। कभी सतारा जाकर पिक्चर देख आते थे। कभी कभीपूना जाते तो वहाँ भी कोई पिक्चर देख लेते थे। शाम के समय रमी खेलते या फिर ट्राँजिस्टर पर गाने सुनते थे। उन दिनों बिनाका गीत मालाऔर रेडियो सीलोन से और बी.बी सी. से समाचार सुनते थे।   कोरेगाँव के प्रवास में हमने करीब डेढ़ साल में तीन घर बदले। ज़िंदगी से ज़्यादा  उम्मीद नहीं की थी इसलिये सब अच्छा लग रहा था। एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। इनका स्वभाव शांत सा था,  कुछ ज़्यादा … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

गुजरे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 4 उलझनों में घिरा यौवन व विवाह समारोह (लखनऊ और औबरा 1967 से69)   एम.ए.पास करने के बाद लखनऊ में ललिता और बीबी दोनों नहीं थे। मैं तब लखनऊ में बहुत अकेली हो गई थी।फोन सबके घरों में नहीं होते थे, यह अकेलापन मेरे पहले अवसाद का कारण  बना, जिसे मैं मनोविज्ञान का इतना ज्ञान होने के बाद भी समझ नहीं पाई थी। वैसे इसमें अचंभे वाली कोई बात नहीं है क्योंकि कोई भी मनोवैज्ञानिक अपने या अपने परिवार के बारे में कोई प्रोफैशनल राय नहीं बना सकता।मैं पी. एच. डी. करना चाहती थी परन्तु हमें बताया गयाथा कि वह मिलने में कुछ महीने लग सकते हैं,पर हो अवश्य जायेगा, तब तक विभाग के एक रिसर्च प्रौजैक्ट में रिसर्च असिसटैंट का काम मैं कर सकती हूँ ।मैने उसे स्वीकार लिया।रिसर्च प्रोजैक्ट के लिये मुझे इकट्ठा किये गये डेटा का विश्लेषण करना होता था ।आजकल तो कम्प्यूटर से सब फटाफट हो जाता है, उन दिनों तो हमारे पास कैलकुलेटर भी नहीं होते थे। सारी गणनाये स्वयं करनी पड़ती थी, साँख्यकी(statistics)  का अच्छा ख़ासा ज्ञान था, पर दिन भर यही काम अकेले लायब्रेरी में या किसी साइड रूम में करते रहना आसान नहीं था।हॉस्टल में भी किसी से बात करने का मन नहीं करता था। अपने ही विभाग में भी किसी से बात नहीं की, मुक्ता वहीं थी, उससे भी कभी नहीं मिली । अपने अन्य किसी सहपाठी की भी खोज ख़बर नहीं ली।अब याद करती हूँ तो सहम जाती हूँ, क्योंकि अब मैं अवसाद को अच्छी तरह समझ गई हूँ।उस समय मैं अंदर ही अंदर घुट रही थी,मर रही थी।   मम्मी भी बार बार वापिस आने को कहती रहती थीं, उन्हे मेरा अब लखनऊ में रहना बेकार लग रहा था।मेरा ओबरा जाने का भी कतई मन नहीं था। वहाँ नानी, मम्मी, भैया ,भाभी और उनके तीन बच्चे थे। सुरेन भैया देहरादून ज़िले में कोटी में थे।वहाँ मम्मी साल में एक बार चली जाती थीं।भैया भाभी ने मम्मी और नानी की देखभाल में कोई कमी नहीं रखी फिर भी वैचारिक अंतर तो होते ही हैं, नानी और मम्मी दोनों का बुढ़ापा था, उनमें भी खटपट होती रहती थी।मुझे लग रहा था वहाँ मैं ख़ुश नहीं रह पाऊँगी।अब यह सीखो,वह सीखो, भैया और मम्मी पीछे पड़ेगें…………….. फिर शादी की बातें, लड़की देखना दिखाना, इसके लिये मैं ख़ुद को तैयार नहीं कर पा रही थी। लखनऊ में रहकर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी, असफल महसूस कर ही थी, अपनी क़ाबलियत पर शक कर रही थी, मैं हार रही थी, मैं बहुत दुखी थी, अवसाद ग्रस्त थी। अंत मे मैने हार स्वीकार करली और मैं ओबरा चली गई।   उस ज़माने में जब संचार के साधन बहुत कम थे, लगता था कि जब अपने विभाग में पी. एच. डी. मिलने में कुछ समय लगने की बात हो रही है तो किसी और विश्वविद्यालय में तुरंत तो नहीं मिलेगी।एक विकल्प था कि बैंगलोर से क्लिनिकल सायकौलोजी में पी.जी. डिप्लोमा करूँ पर, इसकी इजाज़त कभी नहीं मिलती, ये भी मैं जानती थी। कोई जानकारी पाना भी कहीं से बहुत मुश्किल होता था, फिर मानसिक तनाव झेलते हुए कुछ सूझ भी नहीं रहा था।मेरी हार घर वालों की जीत थी,मैं पढ़ाई पूरी करके घर आ गई थी।अब मम्मी ने शादी के लियें वर की तलाश शुरू कर दी मेरे पास भी न करने के लिये कोई कारण नहीं था।बस यही सोचा कि अब ज़िंदगी जिस तरफ़ ले जायेगी चल दूँगी! वैसे ओबरा आकर परिवार के बीच भतीजों भतीजी के साथ रहकर अकेलापन कम होने लगा था। ललिता से कभी कभी पत्रों का आदान प्रदान होता रहा, वह जल्दी ही एक बेटे की माँ बन गई थी। रज्जू भैया भी अमरीका में जाकर बसने की तैयारी में लगे थे।   ओबरा में मुझे कॉन्वैंट स्कूल में नौकरी मिल गई थी,वहाँ की सिस्टर ख़ुद प्रस्ताव लेकर आई थी, जबकि मैने बी.ऐड. नहीं किया हुआ था।मुझे पाँचवीं और छटी क्लास को पढ़ाना था।मैंपाँचवीं की कक्षा अध्यापिका बना दी गईथी।पाँचवीं में मेरा भतीजा भी पढ़ता था।ओबरा में केवल उ.प्र. के बिजली विभाग के लोग थे, वहाँ कुछ और था ही नहीं, इसलिये बच्चे भी जान पहचान के थे, जो स्कूल के बाद मुझे भुआ ही कहते थे। मेरा भतीजा बहुत ज़हीन था, प्रथम आता था,  मुझे लगता था कि कहीं कोई पक्षपात न समझे, कोई बच्चा उसके आस पास भी नहीं था।यह सेक्रेड हार्ट कान्वेंट पाँचवीं तक ही था, मेरे आने के बाद उन्होनेसिर्फ एक लड़की के साथ छटी कक्षा शुरू की थी।   इसके अलावा वहाँ सहशिक्षा का सरकारी इंटर कॉलिज था जो उ.प्र. के बिजली विभाग के प्रबंधन में चल रहा था।यहाँ माध्यम हिन्दी था और इस छोटी सी जगह के विद्यालय ने एक वर्ष उ.प्र. बोर्ड का टॉपर दिया। यहाँ के छात्र अच्छे से अच्छे इजीनियरिंग कॉलिज और मैडिकल कॉलिजों में बिना किसी कोचिंग के प्रवेश पाते रहे थे।   यहाँ पर मेरी एक सहेली बनी साधना भार्गव, जिसकी शादी तय हो चुकी थी। वह पढ़ाई ख़त्म करके ओबरा में अपने माता पिता के साथ रह रही थी, बस इंतज़ार था कि कब उसका मंगेतर अमरीका से आये और वह शादी करके वहाँ जाये। वह शादी के सपने देखने में व्यस्त थी। उसके अपने कोई सपने थे ही नहीं। मैं शादी के लिये तैयार थी, पर उसे लेकर मेरे कोई सपने नहीं थे। मैं कुछ करना चाहती थी, पर लक्ष्य सुनिश्चित नहीं था, पी.एच.डी करने का सपना टूट सा चुका था। शायद मुझमें धैर्य की कमी थी और कोई मार्गदर्शक भी नहीं था।   यहाँ एक संगीत के शिक्षक श्री रवींद्र पाँडे भी थे, जो बनारस से … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 बेफिक्र किशोरावस्था (लखनऊ.1963-67)   1963 में मैनपूरी के गवर्नमैंट गर्ल्स इंटर कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद फिर सवाल उठा कि अब बी.ए. कहाँ से करवाया जाये। उस समय अच्छा घर वर मिलने के लिये बी.ए. होना काफ़ी था। मैनपुरी में डिग्री कॉलिज था ही  नहीं तो तय किया गया कि लखनऊ के किसी कॉलिज में मेरादाख़िला करवा दिया जाये। उस समय बीबी लखनऊ आ चुकी थी परन्तु उनके ससुर का निधन होने के कारण ससुराल का सारा परिवार उनके पास था, अत: छात्रावास में ही रहने का निश्चय हुआ। उन दिनों दाख़िला मिलना कोई समस्या नहीं थी, जहाँ चाहें वहाँ मिल जाता था, जो विषय लेना चाहें मिल जाते थे। लखनऊ विश्वविद्यालय में भूगोल केवल एक दो कॉलिज में था। मेरी इच्छा थी कि मैं भूगोल लेकर आई. टी. कॉलिज में पढूँ, परन्तु मम्मी को किसी ने बता दिया था कि वहाँ का वातावरण बहुत स्वछंद है , छात्रावास की लड़कियाँ इधर उधर घूमती रहती हैं। मम्मी के दिमाग़ में कोई बात बैठ जाती थी तो फिर वो किसी की नहीं सुनती थीं। बस बी.ए .करना है विषय कुछ भी ले लो,तो मुझे महिला विद्यालय में दाख़िल करवा दिया गया।यहाँ पर मम्मी और मेरे पिताजी की अलग सोच का अंदाज़ होता है।पिताजी ने बीबी को11,12 साल पहले उत्तर प्रदेश के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में भेजा था जबकि मम्मी के लिये सिर्फ बी.ए. हो जाना काफ़ी था। वैसे भी मैं उनकी नज़र में उदण्ड और स्वछंद थी इसलिये मुझ पर बंदिशें ज्यादा थी। अकेली होने की वजह से वो ज़माने से डरती थीं। उनके अनुभवों ने उन्हे हर एक को शक के दायरेमें रखना सिखा दिया था।   महिला विद्यालय लखनऊ के अमीनाबाद में स्थित था, अभी भी है।जिन्होने लखनऊ नहीं देखा उन्हे बतादूँ कि अमीनाबाद दिल्ली के चाँदनी चौक या चावड़ी बाज़ार की तरह का पुराना बाज़ार है। महिला कॉलिज एक बहुत बड़ा कॉलेज/स्कूल है, अब पता नहीं…. पर उस समय यहाँ के.जी. से लेकर बी.ए. बीएड. किया जा सकता था । स्कूल की हर कक्षा के आठ दस सैक्शन थे। बी.ए. का एक बैच चार सौ पाँच सौ लड़कियों का होता था। सीटों की सीमा कहीं नहीं थी जो आ जाये जगह अपने आप बन जाती थी। पढ़ाई बहुत कम ख़र्च में बहुत अच्छी थी। तीन  छात्रावास थे एक इंटरमीडिएट तक की छात्राओं के लिये और बाकी डिग्री कॉलेज  की छात्राओं के लिये थे। अमीनाबाद जैसे बाज़ार में सड़क पर केवल गेट दिखता था, शायद अभी भी कोई बदलाव नहीं हुआ होगा। दुकानों के बीच, कोई अंदाज़ नहीं लगा सकता कि उसके भीतर इतना बड़ा कैंपस है, ये छात्रावास नहीं ये लड़कियों की जेल थी। यहाँ से कदम बाहर निकालने के लिये स्थानीय अभिभावक  की इजाज़त लेनी होती थी, बीच बाज़ार में होते हुए भी अपनी ज़रूरत की चीज़ लेने भी बाहर नहीं जा सकते थे। ज़रूरत का सामान छात्रावास की नौकरानी ही लाकर देती थी।कमरों में एक बल्ब की रौशनी के अलावा कोई सुविधा नहीं थी गर्मियों में पंखा भी किराये का मँगाते थे, वहाँ बिजली डी.सी. हुआ करती थी , डी सी बिजली के कारणपंखे भी धीरे धीरे चलते थे।गर्मियों में बरामदों में सोते थे। नीचे के फ्लोर वाली लड़कियाँ तो लॉन में अपनी चारपाई डाल लेती थीं। सर्दियों में नहाने का पानी मैस से लेने के लिये लाइन लगती थी, रोज तो  नहीं नहा पाते थे।मैस का खाना ठीक ठाक था। आठ लड़कियों पर एक नौकरानी होती थी जो उनके बर्तन धोती संभालती थी, कमरों में झाड़ू पोंछा करती थी और लड़कियों की ज़रूरत का सामान बाज़ार से लाकर देती थी। शाम की चाय के साथ कभी समोसे, कचौरी या पकौडी मिलती थीं, तो रात के खाने की छुट्टी हो जाती थी।   बी.ए. के सभी इम्तिहान यूनिवर्सिटी कैंपस में होते थे। एक दिन पहले ही जिनके इम्तिहान होते थे उनकी सूची बन जाती थी और मेट्रन सबको उनके परीक्षा भवन पर छोडकर वहीं कहीं इंतज़ार करती थी और रिक्शों में ही वापिस लेकर आती थी।यानी लड़कियों  को अपनी मर्ज़ी से हिलने की भी इजाज़त नहीं थी, सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम थे। हमें ये बाते उस वक़्त परेशान नहीं करती थी बल्कि सुरक्षित होने का अहसास होता था। हमें मिलने की इजाज़त केवल उन ही  लोगों से थी जिनके नाम और हस्ताक्षर घरवालों ने दे रखे हों।बीमार होने पर मेट्रन ही डॉक्टर के पास ले जा सकती थी।सिनेमा जाना होता था तो पहले सूची तैयार होती थी, यदि बीस नाम आगये तो मेट्रन के साथ रिक्शों में काफिला चलता था। पहुँचने पर देखा जाता था कि क़ैदी पूरे हैं कि नहीं , वापसी में भी गिनकर लाया जाता था।इस तरह एक दो बार मूवी देखने के बाद कभी कैदियों की तरह जाने का मन ही नहीं किया।   मैनपुरी से ही मेरे स्कूल की एक सहेली उषा कुशवाहा ने भी महिला कॉलिज में दाख़िला लिया था और छात्रावास में भी थी। मैनपुरी में हमारी काफ़ी दोस्ती भी थी। यहाँ बी. ए. में हमने बिलकुल अलग विषय लिये थे, धीरे धीरे मेरी और उसकी अलग अलग सहेलियाँ  बनने लगी और उसके साथ समय बहुत कम बीतने लगा।यहाँ मेरी दो ख़ास सहेलियाँ थीं ललिता कपूर और उमा अग्रवाल। ललिता के साथ दो विषय मिलते थे और उमा के साथ बस एक। दोनों ही छात्रवासीय थी।दिवसीय छात्राओं से दोस्ती करने का मौक़ा कम मिलता था हम दिन रात साथ रहने वाले ही बहुत थे।ललिता कपूर से अब तक संपर्क बना हुआ है पर उमा  से बी ए करने के बाद ही संपर्क कम होता चला गया, उसने संस्कृत मे ऐम ए किया था।उस समय पत्रों … Read more

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय एक

शैशव व कुछ घबराया सा बचपन

  हम सब का जीवन एक कहानी है पर हम पढ़ना दूसरे की चाहते हैं | कोई लेखक भी अपनी कहानियों में अपने आस -पास की घटनाओं को संजोता है | कोई लेखक कितनी भी कहानियाँ लिखे उसमें उसके जीवन की छाया या दृष्टिकोण रहता है ही है| आत्मकथा उनको परदे में ना कह  कर खुल कर कहने की बात है | आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | इस आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |     अध्याय 1 शैशव व कुछ घबराया सा बचपन (बुलंदशहर1947-56)   1947  सितम्बर  का महीना अफरा तफरी का माहौल, स्वतंत्रता मिलने  की ख़ुशी और विभाजन की त्रासदी, उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा शहर………… बुलंदशहर ,वहाँ श्री त्रिलोकीनाथ भटनागर का परिवार  जहाँ से ये कहानी शुरू हुई। श्री त्रिलोकी नाथ के बहुत से रिश्तेदार पाकिस्तान की तरफ रहते थे,  जिन्होंने आकर उनके यहाँ शरण ली थी।  करीब पन्द्रह बीस लोग तो अवश्य वहाँ आये हुए थे ,उनकी हर तरह से देख भाल की ज़िम्मेदारी त्रिलोकीनाथ जी और उनकी पत्नी की थी। त्रिलोकी नाथ जी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से इंजीनियर थे, और बिजली  वितरण  की एक कंपनी में उच्चाधिकारी थे।ज़िलाधिकारियों से उनकी अच्छी जान पहचान,उठना बैठना था। संपन्न परिवार था,रिश्तेदार उनके यहाँ चाहें जितने समय तक रह सकते थे। काम करने के लिये भी नौकरों चाकरों  की कमी  नहीं थी। त्रिलोकी नाथ जी की तीन संतानें थी सबसे बड़े रवींद्रनाथ उस समय 16 वर्ष के थे, बेटी कुसुम 13 साल की और छोटे बेटे सुरेंद्र नाथ 11 साल के थे। 11साल बाद उनकी पत्नी फिर गर्भवती थीं, इस समय बहुत बड़ा घर भी मेहमानों से भरा हुआ था इसलिये वे अधिक आराम भी नहीं कर पाती थीं। 14  सितम्बर की रात में शील भटनागर जी ने एक बेटी को जन्म दिया। जी हाँ, आपने सही समझा,  ये मैं ही हूँ, जिसने बटवारे और आज़ादी मिलने के बाद दुनिया में कदम रखा। श्री त्रिलोकीनाथ और श्रीमती शील भटनागर की सबसे छोटी संतान।   अब मैं अपनी कहानी अपनी ज़ुबानी कहूँगी। मेरे दादा दादी का घर अंबाला में था , परंतु वे मेरे जन्म से बहुत पहले परलोक सिधार गये थे, दादा जी वकील थे अंबाला में बहुत अच्छी प्रैक्टिस थी, वहाँ के धनी लोगों में से एक थे ,उनकेएक बेटीऔर तीन बेटे थे । मेरे पिताजी सबसेछोटेऔर सबसेकाबिलथे । छोटे ताऊ जी भी वकील थे ,अच्छा कमाते थे ,पर कुछ बुरी आदतों की वजह से कभी सुख चैन से अपनी गृहस्थी सही तरीके से नहीं संभाल पायेथे। भुआ जल्दी ही गुज़र गईं थीं,बड़े ताऊ जी को भी मैंने नहीं देखा था,हाँ दोनों ताई जी की याद हैं।   माँ को मैं मम्मी ही कहती थी,  वे दो बहने थीं, बड़ी बहन की युवावस्था में ही मृत्यु हो गई थी इसलिये हमें हमेशा यही लगा कि वे अपने माता पिता की इकलौती संतान थीं। नानाजी बुलंदशहर के पास ही एक कस्बे सिकंद्राबाद में रहते थे। वे एक स्कूल में अध्यापक थे, छात्रावास के वार्डन भी थे। आसपास पास के गाँव  से बच्चे आकर छात्रावास में रहते थे ।गाँवों के बच्चों के लिये छोटे कस्बों के मामूली स्कूलों में भी  उन दिनों छात्रावास की व्यवस्था होती  थी। नानाजी के छात्रावास में एक लड़का चोखे  लाल काम करता था, ये आगे जाकर हमारे परिवार का अहम हिस्सा बना , इस वजह से इनका यहाँ जिक्र किया है। मेरे नानाजी बहुत संपन्न नहीं थे, पर कोई कमी भी नहीं थी,वे हमेशा किराये के घर में रहे , अपनी छोटी सी तनख़्वाह से खेती के लिये ज़मीनें और फलों के बाग़ ख़रीदते रहते थे । यह उनके निवेश का तरीका था। यह जमीनें वे खेती करने के लिये किसानों को ठेके पर दे देते थे, जिससे फसल का कुछ हिस्सा और कुछ अतिरिक्त सालाना आमदनी हो जाती थी। नानी के घर में हमेशा ताजी खेत की सब्जियाँ और मौसम के फल होते थे,  अनाज भी सब उनके  अपने खेतों का ही होता था।  सेवानिवृत्त होने के बाद तो नाना जी का पूरा ध्यान खेती पर ही रहा, अच्छी आमदनी होती तो और खेती की ज़मीन ख़रीद ले लेते थे,पर कभी मकान बनाने पर विचार नहीं किया।यह किराये का मकान ही सदा उनका घर रहा यहाँ का माहौल भी कुछ विचित्र सा था जिसकी चर्चा फिलहाल स्थगित करती हूँ, आगे आने वाले पन्नों में जरूर करूँगी।   जिस घर में मेरा जन्म हुआ था ,पहले नौ वर्ष उसी घर में बीते, कुछ याद है, कुछ तस्वीरें हैं , कुछ सुनी हुई बातें हैं। वह बहुत बड़ी दो मंज़िला कोठी थी, जिसको पिताजी की कंपनी ने किराये पर लिया हुआ था, उसके एक हिस्से में उनका दफ्तर था। मेरे जन्म से 14,15 साल पहले से मेरा परिवार उसी कोठी में रहता था। मुझे बताया गया था कि मेरे बड़े भाई जिनका मैं जिक्र कर चुकी हूँ उनको छोड़कर मेरी बहन और दूसरे भाई भी उसी कोठी में पैदा हुए थे। मेरे पिताजी का अंग्रेजों के साथ उठना बैठना था इसलिये हमारे परिवार में थोड़ी अंग्रेज़ियत थी,जैसे डाइनिंग टेबुल पर खाना खाना, अलग ड्राइंग रूम होना। बाकी सामान याद नहीं पर वह डाइनिंग टेबल बहुत बड़ी और भारी थी। मेरे कज़िन ने बतायाथा कि वह डाइनिंग टेबुल सिकंद्राबाद के एक बढ़ई मंगत ने बनाई थी। 30 के दशक के पूर्वार्द्धमें मम्मी  के दहेज़ में आई थी। वह डाइनिंग टेबुल बिना किस्सी मरम्मत के मेरे इन ही कज़िन के घर मे अभी भी उपयोग में है। बस उसमें उन्होंने टॉप पर लाल रंग का माइका लगवा लिया है।संभवतः बाकी फर्नीचर भी वहीं का बना हुआ था।   पिता जी की कंपनी ने उन्हें दो तीन नौकर और एक रसोइया घरेलू काम के लिये दे रखेथे। रसोइये की जगह मेरे नाना जी ने अपने छात्रावास से चोखे लाल को भेज दिया था। वह खाना बनाने काम बहुत अच्छी तरह से सीख चुके थे। हमारे घर … Read more

गुज़रे हुए लम्हे – परिचय

गुज़रे हुए लम्हे

हम सब का जीवन एक कहानी है पर हम पढ़ना दूसरे की चाहते हैं | कोई लेखक भी अपनी कहानियों में अपने आस -पास की घटनाओं को संजोता है | कोई लेखक कितनी भी कहानियाँ लिखे उसमें उसके जीवन की छाया या दृष्टिकोण रहता है ही है| आत्मकथा उनको परदे में ना कह  कर खुल कर कहने की बात है | आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | इस आत्मकथात्मक उपन्यास “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |   गुज़रे हुए लम्हे – परिचय   समर्पण     गुज़रे हुए लम्हे मैं, मेरे स्वर्गीय माता-पिता श्री त्रिलोकी नाथभटनागरऔरश्रीमती शील भटनागरकी स्मृतियों को समर्पित करती हूँ, जिनकी वजह से मैं हूँ और येगुज़रे हुए लम्हे है |   विषय-क्रम क  आत्मकथा की परिधि में (दोहे) ख स्वानुभूति ग आत्मकथा लिखते लिखते(कविता) अध्याय -विषय          समय                      शहरपृष्ठ                                                                           1शैशव व कुछ घबराया        1947-56बुलंदशहर सा बचपन 2 ख़ुश सा बचपन             1956-1963    हरिद्वार, अलीगढ़ और मैनपुरी 3 बेफिक्र किशोरावस्था        1963-67लखनऊ 4 उलझनों में घिरा यौवन       1967- 69             लखनऊ ओबरा उ.प्र. व विवाह समारोह 5 विवाह के बाद              1969-72ग्वालियर, कोरेगाँव, काज़ीपेट 6 मुश्किल वक़्त मे धैर्य       1972- 78शोलापुर, सिकंद्राबाद 7महानगरीय जीवन         1978 –82 , दिल्ली का आरंभ 8 बच्चे बड़े हो रहे थे        1982 -91 , दिल्ली 9ग्वालियर छोड़ना            1991-96 ,दिल्ली 10 लेखन की शुरुआत         1896-2000, दिल्ली 11अमरीका यात्रा और सेवानिवृति2001 से06 दिल्ली 12 साहित्यिक गतिविधियाँ   2006- अब तक ,दिल्ली 13 कभी ख़ुशी कभी ग़म       2006- अब तक ,दिल्ली 14यात्रा वृत्त2011अब तक       केरल दार्जिलिंग गैंगटाक उत्तराखंड,ग्वालियर उपसंहार   संस्मरण तालिका शीर्षक पृष्ठ संख्या 1आरयूरैड्डी? 2 चित्रकला 3 अपूर्व का पहला सप्ताह स्कूल में 4 अगले 6 महीने में स्कूल मे 5 एकाग्रता 6 कार का पहिया निकलने वाला है 7चॉकलेट 8 रक्षाबंधन पर निबंध 9 मैं और मेरा बेटा 10 नाम गुम जायेगा 11आइने 12आत्मव्यथा(अँश) 13 नाम में क्या रखा है(अंश) 14 किताब तो छप गई मगर 15 शुगरफ्री         आत्मकथा की परिधि में आत्मकथा की परिधि में, सच्चे सब अहसास, झूठा सच्चा काल्पनिक, नहीं लिखा इतिहास।1। आत्मकथ्य लिखते हुए, कभी छू दिये घाव मरहमपट्टी हो रही, शब्दों से सहलाव।2। आत्मकथ्य की सिलवटें, कुछ उलझे से तार, गाँठें सुलझाती गई, शब्द-भाव विस्तार।3। संस्मरण जुड़ते गये, आत्मकथा के संग, समय- सिंधु मे उठ रहीं, देख अमित तरंग!4। आज बुनू कल उधेड़ूँ, अपना ही इतिहास, कलमबद्ध हो रहे हैं, जीवन के अहसास।5। शब्दों की बेचैनियाँ, भीतर हैं तूफ़ान, लिखना चाहूँ कुछ मगर, कलम खड़ी हैरान।6। समय सरित की धार में, उतरी जब हर बार, कभी अमोलक पल मिले, मिले न वही उधार।7। आत्मकथ्य की पुस्तिका, कितने ही किरदार, यात्रा सत्तर वर्ष की, स्मृतियाँ ही आधार।8। गगरी जीवन वृत्त की, डालूँ पल दिन रैन, आत्मकथा पूरी करूँ, शब्द शब्द बेचैन!9। सागर गहरा वक़्त का, उतरी हूँ बहु बार, चुन के मोती लाउँगी, आत्मकथा विस्तार।10। खलिहानों में समय के, यादों के भंडार, धीरे धीरे बह रहे, काग़ज पर उद्गार।11। यादों की मरुभूमि में, खिलते कैक्टस-फूल, फूल संग काँटे घने, उड़ती है बस धूल।12। आत्मकथ्य की डोरियाँ, उलझे जब विश्वास, सुलझाया कुछ इस तरह, दी न बिखरने आस।13। आत्मकथा के सिंधु में, नदियाँ ही किरदार, संगम भी बनते गये, सूखी भी मझधार।14 । सच्चे मोती पिर रहे आत्मकथा के तार, मुतियन की माला पहन, दूँ ख़ुद को उपहार।15। क़लम हाथ में आ गई,आँखों में कोई याद, कानों में अब गूँजते, बीते पल के नाद ।16। यादों की ये पोटली,बाँधी अनुभव डोर, कभी दर्द दे जाय है, मन हो कभी विभोर।17। उलझी सी थीं डोरियाँ, सुलझाये सब तार, शब्दों में पिरते गये, यादों के अम्बार।18। याद पुरानी आ गईं, जब भी मन के द्वार, संस्मरण रचती रही, यादों के विस्तार।19। बीते वक़्त की दास्तां, नहीं रेत पर नाम, हवा समय की उड़ा दे, ये ऐसा न कलाम।20। यादें जुड़ जुड़ कर बनी,आत्मकथा की डोर, सिरा आख़िरी बुन रही,पल पल रही निचोर।21।         स्वानुभूति कभी मैने ही किसी और संदर्भ में लिखा था ‘गुज़रे हुए लम्हों का कोई मोल नहीं है,जो बीत गया उसे बीत जाने दो’ सही है, भूतकाल में जीने का कोई अर्थ नहीं है, यदि वो आपके पुराने घावों को ताज़ा करे। गुज़रे हुए लम्होंको याद करके एक एक पल दोबारा जीना,उन्हे लिखना सुकून पहुँचा रहा है, तो उसे लिखना अच्छा है।डायरी लिखना तो मनोचिकित्सा का अंग है ।मेरे लेखन का तो आरंभ ही यहीं से हुआथा।डायरी लिखते लिखतेकवितायें लेख, कहानियाँ,संस्मरण, यात्रा संस्मरण, साहित्यिक निबंध, व्यंग्य और रिपोतार्ज  लिखती रही, प्रकाशित होते रहे। गुरुवरस्व. प्राण शर्मा जी का मार्गदर्शन भी मिलता रहा। आत्मकथा और डायरी लेखन में कथा वही होती है, पर लिखने का अंदाज़ अलग होता है।आत्मकथा में भी सच्चाई ही होती है और डायरी में भी सच्चाई ही होती है। यदि पूरी सच्चाई नहीं हो तो वो आत्मकथा पर आधारित उपन्यास होता है, आत्मकथा नहीं, जैसे चेतन भगत का ‘’द टूस्टेट्स। ‘’ आत्मकथा लिखने में मेरी यही कोशिश रहेगी कि मेरे आस पास के किसी व्यक्ति को कोई भावनात्मक ठेस न पहुँचे क्योंकि किसी एक घटना को देखने का नज़रिया दो लोगों का एक सा नहीं होता है।यदि किसी प्रियजन की भावना अंजाने में ज़रा भी आहत होती है, तो उसके लिये मैं पहले ही क्षमा माँग लेती हूँ। आम तौर पर जानी मानी हस्तियाँ आत्मकथा लिखती हैं या लिखवाती हैं, क्योंकि उनकी ज़िन्दगी में झाँकने की लोगों में दिलचस्पी होती है। एक आम इंसान की ज़िंदगी मे भी संधर्ष, चुनौतियाँ, रिश्ते उनको निभाने की ज़िम्मेदारी होती है।यदि प्रस्तुतीकरण अच्छा हो तो कोई भी आत्मकथा रोचक हो सकतीहै। आत्मकथा व्यक्ति के जीवन मे घटी घटनाओं का ब्योरा ही नहीं होता, उसमें विचार होते हैं, संधर्ष होते है, किरदार होते है, रिश्ते होते है, अच्छे बुरे दिन होते है।उपन्यास की तरह उत्कर्ष और अंत नहीं होता, पर उत्सुकता जीवंत रहती है, ख़ासकर लिखने वाला यदि कोई आम … Read more

ग्वालियर : एक यात्रा अपनेपन की तलाश में

जिस शहर में क़रीब 50 साल पहले नव वधु के रूप में आई थी  उसी शहर में हम कुछ दिन पहले,परिवार ही नहीं कुटुम्ब के साथ पर्यटक की तरह गये थे। मैं ग्वालियर का जिक्र कर रही हूँ। मेरे पति उनके भाई बहन इसी शहर में पले बढ़े हैं। मेरी बेटी का जन्म स्थान भी ग्वालियर ही है। 1992 तक यहाँ हमारा मकान था, जो बेच दिया था अब उस जगहकपड़ों का होल सेल स्टोर बन चुका है,पर वो गलियाँ सड़कें बदलने के बाद भी बहुत सी यादें ताज़ा कर गई। पुराने पड़ौसी और यहाँ तक कि घर मे काम करने वाली सहायिकाओं की अगली पीढ़ी भी मिली।छोटे शहरों की ये संस्कृति हम दिल्ली वालों के लिये अनमोल है। ग्वालियर यात्रा संस्मरण जब यहाँ घर था तब कभी पर्यटन के लिये नहीं निकले या ये कहें कि उस समय पर्यटन का रिवाज ही नहीं था। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने शहर की जगहों के नाम इतने सुने होते हैं कि लगता है यहाँ पर्यटन के लायक कुछ है ही नहीं!तीसरी बात कि पिछले तीस दशकों में यातायात और पर्यटन की सुविधाओं काबहुत विकास हुआ है जो पहले नहीं था। हमारे वृहद परिवार से तीन परिवारों ने पर्यटन पर, तथा पुरानी यादें ताज़ा करने के लिये ग्वालियर जाने का कार्यक्रम बनाया, चौथा परिवार रायपुर से वहाँ पहुँचा हुआ था। एक परिवार की तीन पीढ़ियाँ और बाकी परिवारों की दो पीढ़ियों का कुटुंब(15 व्यक्ति) अपने शहर पहुँचकर काफ़ी नॉस्टैलजिक महसूस कर रहे थे। हम दिल्ली से ट्रेन से गये थे, शताब्दी से साढ़े तीन घंटे का सफ़र मालूम ही नहीं पड़ा। आजकल होटल, टैक्सी सब इंटरनैट पर ही बुक हो जाते हैं तो यात्रा करना सुविधाजनक हो गया है परन्तु हर जगह भीड़ बढ़ने से कुछ असुविधाये भी होती हैं। होटल में कुछ देर विश्राम करने के बाद हम जयविलास  महल देखने गये। जयविलास महल शहर के बीच ही स्थित है।ये उन्नीसवीं सदी में सिंधिया परिवार द्वारा बनवाया गया था और आज तक इस महल का एक हिस्सा उनके वंशजों का निजी निवास स्थान है। महल के बाकी हिस्से को संग्रहालय बना कर जनता के लिये खोल दिया गया है।मुख्य सड़क से महल के द्वार तक पहुँचने के मार्ग के दोनों ओर सुन्दर रूप से तराशा हुआ बग़ीचा है जिसमें खिली बोगनवेलिया की पुष्पित लतायें मन मोह लेती हैं।महल के बीच के उद्यान भी सुंदर हैं। संग्राहलय की भूतल और पहली मंजिल पर सिंधिया राज घराने के वैभव के दर्शन होते हैं। भाँति भाँति की पालकियाँ और रथ राजघराने के यातायात के साधन मौजूद थे।साथ ही कई बग्घियों के बीच एक छोटी सी तिपहिया कार भी थी। महल में राजघराने के पूर्वजों के चित्रों को उनके पूरे परिचय के साथ दिखाया गया है। राजघराने में अनेकों सोफ़ासैट और डाइनिंग टेबल देखकर  मुझे उत्सुकता हो रही थी कि एक समय में वहाँ कितने लोग रहते होंगे !नीचे बैठकर खाने का प्रबंध भी था। किसी विशेष अवसर पर दावत के लिये बड़े बड़े डाइनिंग हॉल भी देखे जहाँ एक ही मेज़ पर मेरे अनुमान से सौ ड़ेढ़ सौ लोग बैठकर भोजन कर सकते हैं।यहाँ की सबसे बडी विशेषता मेज़ पर बिछी रेल की पटरियाँ है।इन रेल की पटरियों पर एक छोटी सी रेलगाड़ी खाद्य सामग्री लेकर चक्कर काटती थी। ये रेलगाड़ी एक काँच के बक्से में वहाँ रखी है। एक वीडियो वहाँ चलता रहता है जिसमें ये ट्रेन चलती हुई दिखाई गई है। एक दरबार हाल में विश्व प्रसिद्ध शैंडेलियर का जोड़ा है, जिनका वज़न साढ़ तीन तीन टन है और एक एक में ढ़ाई सौ चिराग जलाये जा सकते हैं।संभवतः यह विश्व का सबसे बड़ा शैंडेलियर है। इस दरबार हाल की दीवारों पर लाल और सुनहरी सुंदर कारीगरी की गई है। दरवाज़ो पर भारी भारी लाल सुनहरी पर्दे शोभायमान हैं।जय विलास महल सुंदर व साफ़ सुथरा संग्रहालय है, यह योरोप की विभिन्न वास्तुकला शलियों में निर्मित महल है। यहाँ पर्यटकों के लिये लॉकर के अलावा कोई  विशेष सुविधा नहीं है।तीन मंजिल के संग्रहालय में व्हीलचेयर किराये पर उपलब्ध हैं परंतु न कहीं रैम्प बनाये गये हैं न लिफ्ट है जिससे बुज़ुर्गों और दिव्यांगों को असुविधा होती है। जन–सुविधाओं का अभाव है। पर्यटकों के लिये प्राँगण में एक कैफ़िटेरिया की कमी भी महसूस हुई। यदि हर चीज़ को बहुत ध्यान से देखा जाये तो यहाँ पूरा दिन बिताया जा सकता है। हमारे साथ बुज़ुर्ग और बच्चे भी थे तो क़रीब तीन घंटे का समय लगा और कुछ हिस्सा देखने से रह भी गया।यहाँ घूमकर सब थक चुके थे, सफ़र की भी थकान थी और भूख भी लगी थी। दोपहर का भोजन करने के बाद हम महाराज बाड़ा या जिसे सिर्फ़ बाड़ा कहा जाता है,  वहाँ गये। यह स्थान शहर के बीच में है, जहाँ पहले भी  जब यहाँ घर था हम कई बार जाते रहे थे। यह ख़रीदारी का मुख्य केंद्र लगता था। घर के पीछे की गलियों से होते हुए यहाँ पैदल पहुँच जाते थे। अब यह बहुत बदला हुआ लगा। पहले दुकानों के अलावा कहीं ध्यान नहीं जाता था। अब बाड़े पर पक्की दुकाने नहीं है पर पटरी बाज़ार जम के लगा हुआ  है।अब चारों तरफ़ की इमारतें और बीच का उद्यान ध्यान खींचते है। उद्यान के बीच में सिंधिया वंश के किसी राजा की मूर्ति भी है।  बाड़े पर रीगल टॉकीज़ में कभी बहुत फिल्में देखी थी पर फिल्मी पोस्टरों के पीछे छिपी इमारत की सुंदर वास्तुकला कभी दिखी ही नहीं थी। विक्टोरिया मार्केट कुछ समय पहले जल गया था जिस पर काम चल रहा हैं। पोस्ट ऑफ़िस की इमारत और टाउनहॉल ब्रिटिश समय की योरोपीय शैली की सुंदर इमारतें हैं। बाजार अब इन इमारतों के पीछे की गलियों और सड़केों में सिमट गये हैं।बाड़े से पटरी बाज़ार को भी हटा दिया जाना चाहिये क्योंकि ट्रैफ़िक बहुत है।पास में ही सिंधिया परिवार की कुलदेवी का मंदिर है। हमें बताया गया कि महल से दशहरे पर तथा परिवार में किसी विवाह के बाद यहाँ सिंधिया परिवार अपने पूरे राजसी ठाठ बाट मे जलूस लेकर कुलदेवी के मंदिर तक आता था और पूरे रास्ते में प्रजा इस जलूस को देखती थी। इस मंदिर का रखरखाव तो अब बहुत ख़राब हो गया है।पार्किग भी यहीं पर है। इस जगह को गोरखी कहते हैं यहाँ के स्कूल मे मेरे पति और देवर की प्राथमिक पाठशाला थी। बहनों का स्कूल भी पास में था। यहाँ जिस स्थान पर पार्किंग है वहाँ ये लोग क्रिकेट खेला करते … Read more

पुलवामा हमला – शर्मनाक है सोशल मीडिया का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार

पुलवामा हमले से हर भारतीय आहत हुआ है लेकिन पुलवामा  हमले , एयर स्ट्राइक और पाकिस्तान के कब्जे में लिए गए हमारे वीर विंग कमांडर अभिनंदन का वापस देश लौटना …ये सब ऐसी घटनाएं  थी , जिन्होंने हर भारतीय  की बेचैनी को बढ़ा दिया था | ऐसे समय में जब पूरे देश कोएक जुट होकर एक स्वर में बोलना चाहिए था , तब सोशल मीडिया पर दो पक्ष उभर आये जो देश के साथ नहीं अपनी -अपनी पार्टी के हितों के साथ खड़े थे | भाषा शालीनता की सीमा पार कर अभद्रता और जूतम -पैजार पर उतर आई | किसी भी देश के प्रबुद्ध नागरिकों से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती , ऐसे समय में सोशल मीडिया के इस  गैरजिम्मेदाराना व्यवहार को  नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता | प्रस्तुत  है इसी मुद्दे पर वरिष्ठ लेखिका बीनू भटनागर जी का लेख … पुलवामा हमला – शर्मनाक है सोशल मीडिया का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार  फरवरी का महीना बड़े उतार चढ़ाव वाला रहा। दुख, त्रासदी,आक्रोश दोषारोपण के साथ देश में देश भक्ति और संवेदनशीलता की पर अजीब सी बहस चल रही थी। जो एकता दिखनी चाहिये थी वह नहीं दिखी। जब हम अपने परिवार के भीतर किसी बात को लेकर लड़ रहे होते है, परिवार के मुखिया से भी बहस कर लेते हैं पर बाहर से आकर कोई बुला भरा कहे तो पूरा परिवार आपसी मतभेद भुला कर एक हो जाता है। भारत में ऐसा नहीं हुआ यहाँ मोदी भक्त भक्ति करते रहे और विरोधी विरोध करते रहे यहाँ तक कि उन्होंने सारे मुसीबत की जड़ ही प्रधानमंत्री को बता दिया। इस घटनाक्रम को ही राजनीतिक साज़िश करार कर दिया गया ,इससे देश की छवि को ही नुकसान पहुँचा। आखिर जनता ने ही बीजेपी को और मोदी जी को सत्ता सौंपी थी। यदि आप उनसे असंतुष्ट हैं तो हमारा संविधान आपको अपनी बात कहने की इजाजत देताहै, लेकिन जब बाहरी शक्तियाँ देश के लिये ख़तरा हों तो सबको देश की सरकार के साथ होना चाहिये था।  14 फरवरी कोजब पुलवामा में सी. आर.पीएफ़ की बस पर हमले में जवान शहीद हुए तो टीवी पर वही कॉग्रेस बीजेपी की तनातनी चल रही थी। कुछ समय बाद ये तनातनी ख़त्म हो गई विपक्ष संयत हो गया मगर सोशल मीडिया अति सक्रिय हो उठा।जब पुलवामाकी ख़बर आई तो मोदी जी कहीं शूटिंग कर रहे थे, कोई वीडियो बन रहा था इसबात को बहुत उछाला गया और कहा गया कि मोदी संवेदनहीन व्यक्ति हैं। उनकी तरफ़ से ख़बर आई थी कि प्रधान मंत्री को सूचना देने में देर हो गई इस पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ। इस घटना का समाचार देर से मिला या नहीं इस बात पर बहस करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि हर स्थिति से निपटने के सबके तरीक़े अलग होते हैं। कोई दुख में डूब कर अवसाद ग्रस्त हो जाता है कोई शांत रहकर सब काम यथावत करता है वहThe show must go on में विश्वास रखता है। यही मोदी जी कर रहे थे। अपनी पद और गरिमा के अनुकूल निर्णय ले रहे थे और पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमों में बिना परिवर्तन किये चुनावी रैलियाँ कर रहे थे। व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि ये चुनावी रैलियाँ उन्हेरद्ध कर देनी चाहिये थीं , इसलिये नहीं कि ऐसा करना ग़लत था बल्कि इसलिये क्योंकि जनता उन्हें संवेदन हीन समझ रही थी, उनकी छवि को नुकसान हो रहा था। चुनाव में भी इन रैलियों की वजह से कोई फ़ायदा नहीं मिलने वाला था, कुछ नुकसान ही हुआ होगा। वहाँ जब 40 जवान शहीद हुए तो चुनावी भाषण का असर उलटा ही होना था। पढ़िए –बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू सोशल मीडिया पर एक बहस सी हो रही थी कि पुलवामा की आतंकवादी घटना के बाद कौन कितना दुखी है! किसका दुख सच्चा है किसकी दुख दिखावा है! ऐसा लिखते समय कहीं कहीं लोगों का राजनीतिक झुकाव और किसी कौम या व्यक्ति के प्रति दुराग्रह भी नज़र आ रहा था। भाषा की अभद्रता सहनशीलता की सीमा लाँघ रही थी,हर एक अपने को देश प्रेमी साबित करने में लगा था। हर एक की दुख सहने की सीमा और उसे अभिव्यक्ति करने के तरीक़े अलग हो सकते है, दुख को कैसे सहें उसके तरीके अलग हो सकते हैं। आपका तरीका आपके लिये सही है पर दूसरा वह तरीका नहीं अपना रहा तो इसका ये अर्थ नहीं है कि वो दुखी नहीं है या उसका दुख नक़ली है। कोई कवि कह रहा था कि उससे कविता नहीं सूझ रही, पता नहीं लोग दुख में कैसे काव्य रच रहे  हैं।सही है कभी कभी कविता नहीं लिखी जाती…. शब्द ही रूठ जाते हैं पर हो सकता है दूसरे किसी कवि की भावनाओं को शब्द मिल गये हों और अभिव्यक्त करके वो हल्का महसूस कर रहा हो।किसी मित्र ने लिखा कि ऐसी आतंकवादी घटना की निंदा और विरोध में जो अपनी वाल पर कुछ भी नहीं लिख रहा वह देश विरोधी है। चुप्पी देशविरोधी कैसे हो गई। कोई हँस रहा है, जन्मदिन दिन मना रहा है, शादी में शिरकत कर रहा है, रैस्टोरैंट में खाना खा रहा है या सिनेमा देख रहा है तो उसका दुख नकली है! ऐसे विचार प्रकट किये जा रहे है! मतलब आप चाहते क्या थे कि सारा देश अवसाद ग्रस्त हो जाये या आक्रोश में देश की संपत्ति को नुकसान पहुँचाये या यातायात रोके, बंध करवाये! नारे लगाये और सड़कों पर आ जाये।दुख था तो कुछ पीड़ित परिवारों की मदद कर देते, अपनी डी. पी. काली करते या  मोमबत्ती जलाते पर अपने दुख की तुलना दूसरे के दुख से तो न करते ।यदि कोई किसी देशद्रोही गतिविधि में संलग्न नहीं था तो उसे किसी को ये बताने की ज़रूरत नहीं थी कि वह कितना दुखी हैं और उनका दुख असली है या दिखावा! कुछ लोग फ़िज़ूल की अटकलें लगाने से बाज़ नहीं आ रहे थे। ये माना कि सुरक्षा में कहीं न कहीं चूक हुई थी पर ये कहना कि ऐसा जानबूझ कर राजनीतिक लाभ के लिये करवाया गया है सरासर ग़लत था। विपक्ष के पक्षधर बिना किसी प्रमाण के इस प्रकार की बातें फैला रहे थे। कोई सवाल करें तो कहा कि संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। अटकलें … Read more

समकालीन साहित्य :कुछ विसंगतियाँ

क्या आज जो साहित्य लिखा जा रहा है वो सत्य के पक्ष में है या कुछ पूर्व धारणाओं को निरुपित करने के असंभव प्रयास में लगा हुआ है | क्या यही कारण तो नहीं कि पाठक साहित्य से दूर हो रहा है | जानिये सुप्रसिद्ध लेखिका बीनू भटनागर जी प्रभावशाली विचार समकालीन साहित्य :कुछ विसंगतियाँ समकालीन साहित्यकारों के कुछ प्रिय विषय हैं,,जिन्हे बार बार लिखकर उन्हे सार्वभौमिक सत्य की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है।सार्वभौमिक सत्य वह होते हैं जो हर काल में, हर स्थान पर खरे उतर सकते हों एक ही बात को बार बार कहा जाय तो वह सार्वभौमक सत्य लग सकती है, हो नहीं सकती ।कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर जिन पर लिख लिख कर वो न थके हों पर कुछ पाठक पढ़ पढ़ कर ऊब चुके हैं, जैसे पूर्व में सब कुछ अच्छा है पश्चिम सब बुरा, पूर्व के गुणगा गा गा करकर साहित्यकारों ने  अपनी बात को सार्वभौमिक सत्य बना देने का पूरा प्रयास किया है।हर सभ्यता का मूल्यांकन हम नहीं कर सकते हैं। सभ्यताओं में मिश्रण भी होना स्वाभाविक है, कोई पूछे कि क्या  देवदासी प्रथा, वेश्या वृत्ति ,दहेज़ प्रथा महिलाओं पर  अत्याचार उनका शोषण पश्चिम की देन है!पश्चिम से हमने विज्ञान और तकनीक ली है, वहाँ से थोड़ा स्वच्छ रहने का भी ज्ञान ले लेते। सड़क पर थूकना, दीवार से सटकर पुरुषों का……., पालतू कुत्तों के लियें सार्वजनिक स्थानों को शौचालय बना देना तो कम से कम पश्चिम की देन नहीं है।जब तक हम अपने मुंह   मियाँ मिट्ठू बनना और कमियों को स्वीकारना नहीं  सीखेंगे ,अतीत में जीते रहेंगे तब तक सामाजिक स्तर पर कोई सुधार नहीं कर सकेंगे।हमारे साहित्यकारों को पश्चिमी पहनावे पर ऐतराज़ है, ये सारी बुराइयों की जड़ है। पश्चिमी पहनावा अब वैश्विक पहनावा बन चुका है, क्योंकि वह अवसर के अनुकूल होता है।पुरुषों ने तो न जाने कब से पैंट शर्ट सूट पहनना शुरू कर दिया क्योंकि वह सुविधाजनक है पर औरतों ने जब बदलाव किया तो संसकृति आड़े आ गई।हमेशा साड़ी मे सजी मांथे पर बड़ी सी बिंदी लगाये महिला बहुत सुदृढ़ चरित्र की होगी और यदि पश्चिमी पहनावा पहनती है तो वह दंबग किस्म की हो सकती है……कमसे कम वह एक आम गृहणी नहीं होगी।आप किसी व्यक्ति के पहनावे मात्र से उसके पूरे व्यक्तित्व का आकलन कर सकते है। एक बहू को समाज पश्चिमी वेशभूषा में स्वीकार कर ले पर साहित्यकार ऐसी बहू को कभी  अच्छी या सामान्य बहू नहीं दिखायेंगे। अच्छा बुरा होना नज़रिये की बात हो सकती है इसलिये मैने सामान्य कहा। भारत में जितना बुज़ुर्गों का सम्मान होता है कहीं नहीं होता पर हमारे साहित्यकार बुजुर्गों को लेकर इतने संवेंदनशील कि पूरी जवान पीढ़ी को अपराधबोध से ग्रस्त कराना चाहते हैं। किसी जवान का विदेश जाना अपराध ही की तरह पेश किया जाता रहा है। यदि जवान कहीं मौज मस्ती करें तो भी अपराध बोध से ग्रस्त रहें क्योंकि साहित्यकार के अनुसार उस चरित्र को माता पिता की सेवा करनी चाहिये थी, या उन्हे तीर्थ पर ले जाना चाहियेथा।  अपने लिये कुछ करना भारत में स्वार्थी होने के बराबर ही माना जाता है। बहू तो कभी अच्छी हो ही नहीं सकती  ये सब इस तरह से पेश करते हैं जैसे ये सार्वजनिक सत्य हों।जबकि एक हजार परिवारों में कंहीं कोई एक होगा जिसने अपने बुजुर्गों को संरक्षण ना दिया हो ,पर समाचार जिस तरह नकारात्मक ही होते हैं, साहित्यकार की कहानी भी वहीं से नकारात्मक कथानक चुनती है।ख़ुश युवा पीढ़ी साहित्यकारों को पसन्द नहीं, वो इसलिये ख़ुश हैं कि क्योंकि वो कर्तव्यों को भूल चुके हैं, परम्परा को भुला चुके हैं पर ये सार्वभौमिक सत्य नहीं है।  जिस समय माता पता की उम्र८० के आस पास होगी तो उनकी संतान की आयु भी पचास के लगभग होगी इस समय वह इंसान घर दफ्तर और परिवार की इतनी जिम्मेदारियों में घिरा होगा कि वह माता पिता को पर्याप्त समय नहीं दे पायेगा। अब हमारे साहित्यकार माता पिता के अहसान गिनायेंगे कि तुम्हे उन्होने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया वगैरह….. अब उनका वक़्त है……….।हर बेटे या बेटी को अपने माता पिता की सुख सुविधा चिकित्सा के साधन जुटाने चाहिये ,अपनी समर्थ्य के अनुसार चाहें माता पिता के पास पैसा हो या न हो।बुजुर्गों को भी पहले से ही बढ़ती उम्र के लिये ख़ुद को तैयार करना चाहिये।  वह अपने बुढ़ापे में अकेलेपन से कैसे निपटेंगे क्योंकि बच्चों को और जवान होते हुए पोते पोती को उनके पास बैठने की फुर्सत नहीं होगी। यह सच्चाई यदि बुज़ुर्ग स्वीकार लें तो उन्हे किसी से कोई शिकायत नहीं होगी। मैने जीवन में इसके विपरीत घटनायें भी देखी हैं, ऐसे पिता देखे हैं जो अपने सपने बच्चों पर थोपते है, जैसे पिता गायक नहीं बन सके तो वो अपनी पूरी शक्ति बेटे को गायक बनाने में लगा देंगे, यदि बेटे के अभिरुचि है तब तो ठीक है अन्यथा पिता का सपना पूरा करने के लिये न वो गायक बन पायेगा न कुछ और।बस जो वो चाहते वह बच्चे को बनाकर छोड़ेगें, बच्चे की रुचि उसमे है या नहीं, ये जानना ज़रूरी नहीं है, बच्चे के दिमाग़ मे बचपन से कूट कूट कर भर दिया जायेगा कि तुझे ये बनना है, तो बनना है। अच्छा होने और आदर्शों की दुहाई देने में फर्क होता है। संबध सफेद या काले नहीं होते हैं ग्रे ही होते एक तरफ़ बेचारगी दूसरी तरफ आदर्श का ढ़ोग लिखना चाहे जितना अच्छा लगे पर पाठक की कोरी संवेदना जगाता है जिसका कोई  सकारात्मक असर नहीं होता।ऐसी बहुएं भी जो व्यस्त होने के बावजूद सास ससुर की देखभाल करती हैं पर अगर सास ससुर की उम्मीदें आसमान छूने लगें तो  बहू के क़दम पीछे हटेंगे , स्वाभाविक है।रिश्तों में कोई सार्वभौमिक सत्य नहीं होता । माता कुमाता हो सकती है।परिवार के मान की रक्षा के नाम पर अपने बच्चों को मारने वाले माता पिता की बातें तो आये दिन अख़बारों में आती हैं।हमारी कहानियां और उपन्यास केवल संबधों को एक तरफ़ा सार्वभौमिक सत्य की तरह स्थापित करने में लगे हैं।लीक से हटकर कुछ पढ़ने को मिलता ही नहीं है।शराबी पिता जिसने परिवार को दुख ही दुख दिये, फिरभी वृद्धावस्था में उनका समुचित ध्यान रखा गया, ऐसे कथानक जीवन में दिखते हैं साहित्य में नहीं।  प्रेम भी एक ऐसा ही विषय है जिसे कवि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं पर जो प्रेम साहित्य मे या सिनेमा में दिखाया जाता है वह आम आदमी की ज़िन्दगी … Read more

कुछ रचनाएँ बीनू भटनागर जी के काव्य संग्रह ” मैं सागर में एक बूँद सही” से

बीनू भटनागर  जी  की कवितायें  भावनाओं का सतत प्रवाह है |  किसी नदी की भांति यह अपना  आकार स्वयं  गढ़  लेती हैं |बीनू जी यथार्थ  को यथार्थ की तरह रखती हैं वह उसे अनावश्यक बिम्बों का जामा नहीं पहनाती | इसीलिए पाठक किसी मानसिक  द्वंद से गुज़रे बिना  उन कविताओं से सीधे जुड़  जाता है | कहीं कहीं कविताओं  में लयात्मकता भी दृष्टिगोचर होती है | जो कविताओं को और अधिक प्रभावशाली बना देती है | बीनू जी का यह प्रथम काव्य संग्रह  है | जो उनकी शब्दों और भावों पर पकड़  के कारण  अनुपम बन गया है |इसमें उन्होंने दर्शन और आध्यात्म,पीड़ा,प्रकृति और प्रदूषण, पर्यटन,ऋतुचक्र,हास्य और व्यंग्य,समाचारों की प्रतिक्रिया आदि अनेकों विषयों को अपनी सजग लेखनी से कलमबद्ध किया है | कुछ रचनाएँ उनके काव्य संग्रह ” मैं सागर में एक बूँद सही ” से  कुछ रचनाएँ बीनू भटनागर जी के काव्य संग्रह  ” मैं सागर में एक बूँद सही”  से  मै सपनो मे नहीं जीती         मै सपनो मे नहीं जीती         सपने मुझमे जीते हैं।            मेरी कविता भी,         कल्पना मे नहीं जीती,            ये वो नदी है जो,         यथार्थ मे ही बहती है।          कल्पना का आँचल,         यथार्थ ने पकड़ा हो,          तभी कविता मेरी,           आकार लेती है।         निराशा और आशा से,          बनती है कहानी भी,           कहानी मे भले ही,          संघर्ष और दुख हों,           हौसले नहीं टूटेंगे,           घरौंदे नहीं छूटेंगे,         उम्मीद से बंधे होंगे,           किरदार सब मेरे।         जब मै लेख लिखूँगी,         जीवन को दिशा दूँगी,       मिथ्या और अंधविश्वास से,         निरंतर लड़ूगी मै,     सामाजिक, धार्मिक कुरीतियों का,        विरोध करती रहूँगी मै। कोशिश कुछ अनचाहा सा, कुछ अनसोचा सा, कुछ अनदेखा सा, कुछ अप्रिय सा, जब घट जाता है, तो मन कहता है नहीं… ये नहीं हो सकता, दर्द और टीस का कोहरा, छा जाता है सब ओर। पर नियति है… स्वीकारना तो होगा थोड़ा मुश्किल है, पर करना तो होगा.. ये स्वीकारना ही एक ऐलान है, उस अनचाहे से लड़ने का, अपनी शक्ति समेटने का, फिर विजयी होने की संभावना के साथ जीना, पल पल हर पल, विजय मिले या आधी अधूरी ही मिले, पर कोशिश पूरी है,नहीं आधी अधूरी है। वो चला आयेगा                                   मन से पुकारो,   वो चला आयेगा।  राह मे कोई   मिल जायेगा,  जब वो उजाले  मे ले जायेगा,  तब सब साफ़  नज़र आयेगा।  पहचानो,    भगवान नज़र आयेगा,  क्योंकि,  वह नीचे आता है   कभी  ,नहीं  ज़रिया बनाकर  भेजता है,  इन्सान को ही।  वो होगा इन्सान ही,  कुछ समय के लियें,  तुम्हारे ही लियें,  थोड़ा ऊपर उठ जायेगा।  वो मित्र, शिक्षक, चिकित्सक,  या कोई और भी हो सकता है।  तुमसे तुम्हारी,  पहचान वो करायेगा,  मन की खिड़कयाँ खोलो,  धूल की पर्त को धोलो,  वो  सहारा देगा,,,  पर सहारा नहीं बनेगा,  तुम्हे  राह दिखाकर,  भीड़ मे खो जयेगा। दीवाली  बहुरंगी रंगोली सजाई, चौबारे पर दिये जलाये, लक्ष्मी पूजन आरती वंदन,  कार्तिक मास अमावस आई। मन मयूर सा नाच उठा जब, साजन घानी चूनर लाये,  घानी चूनर जड़े सितारे, दीप दिवाली के या तारे । खील बताशे पकवान, और मिष्ठान निराले, अपनो के उपहार अनोखे, स्नेह संदेशालेकर आये । फुलझड़ी व अनार चलाये, बंम रौकिट का शोर न करके, फूलों से सजावट करके, दीवाली त्योहार मनाये।  नदिया हिम से जन्मी, पर्वत ने पाली, इक नदिया। साथ लिये फिरती वो, बचपन की सहेलियाँ, घाटीघाटीझरनेझरने, करतीवोअठखेलियां। बचपन बीताआई जवानी, मैदानों मे पंहुची, कितनी ज़िम्मेदारियां, फ़सल सींची, प्यास बुझाई, हुई प्रदूषित उसकी काया। धीरेधीरे ढली जवानी, मंद पड़ीअंगड़ाइयाँ। शाँत हुई,नहीं रुकी फिर भी, धीरेधीरे बहती गई, सागर से मिलकर , बढ गईं गहराइयां। मानव जीवन की भी कुछ, ऐसी ही हैं कहानियाँ। यह भी पढ़ें ……… श्वेता मिश्र की पांच कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ नए साल पर पांच कवितायें – साल बदला है हम भी बदलें आपको “कविता -बदनाम औरतेँ  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |