कवि और कल्पना

कविता भी क्या चीज़ है! कल्पना की उड़ान कवि को किसी दूसरी ही दुनियाँ मे पंहुचा देती है। एक कवि की दुनियाँ और एक उस व्यक्ति की दुनियाँ! यह इंसान कभी भी एक दुनियाँ से निकल कर दूसरी दुनियाँ मे ऐसे आता जाता रहता है, जैसे कोई एक कमरे से दूसरे कमरे मे जाता हो। मनोविज्ञान की कुछ अधकचरी जानकारी होने से मुझे कभी कभी लगता है कि कंहीं कुछ कवि स्प्लिट पर्सनैलिटी के विकार से तो ग्रसित नहीं होते। ठहरिये, मै उदाहरण देकर समझाती हूँ। हमारे एक भाई समान कवि मित्र हैं ,बहुत ही सुन्दर मर्मस्पर्शी कविता लिखते हैं। शब्दों का ऐसा जाल बुनते हैं कि पढ़ते ही वाह! क्या ख़ूब लिखा है, ज़बान पर आ जाता है। श्रंगार के वियोग पक्ष मे उन्हे महारथ हासिल है। दअरसल वो कभी किसी चौराहे पर किसी से बिछड गये थे, कई दशक पहले, पर कविता भाई साहब अभी तक उनही पर लिख रहें हैं। अरे भई, जिसके साथ आप ख़ुशहाल ज़िन्दगी बिता रहे, जो आपकी पत्नी है, आपके बच्चों की माँ है उस पर क्यो कुछ नहीं लिखते तो वो कहते हैं। – ‘’वो विषय हास्य कवियों का है। हास्य कवियों के पास विषय बहुत कम होते हैं ,हास्य लिखना बहुत कठिन होता है, इसलियें अन्य किसी भी रस मे कोई व्यक्ति पत्नी के विषय मे नहीं लिखेगा , यह प्रस्ताव अखिल भारतीय कवि परिषद सर्वसम्मति से अनुमोदित कर चुकी है।‘’ कवि भाई साहब को कभी ‘वो’ पहेली सी लगती हैं, कभी उनके साथ बिताये पल एक आध्यात्मिक यात्रा से लगते हैं,उनका आना सूर्योदय सा और जाना अमावस की रात जैसा लगता है।ये कवितायें पढकर मुझे लगता है कि ये कोई है भी या नहीं .. कभी थीं ही नही शायद, फिर मन का मनोवैज्ञानिक कहता है कवि महोदय को कहीं हैल्यूसिनेशन तो नहीं होने लगे हैं, क्योंकि कभी कभी इन्हे अपने शानदार सुसज्जित घर के पलस्तर उखड़ते दिखने लगते है, एकान्त का सूनापन महसूस होता है। कभी उनकी भीगी यादों मे डूब जाते हैं। कभी भाई उनके ख़्यालों मे जलप्रलय भी महसूस कर चुके हैं। कभी कभी किसी कविता के मेढ़ मेढे़ रास्तों मे भटकते हुए सवाल करते हैं कि तुम कैसी हो ? अरे, भाई साहब चौराहे पर छोड़ने से पहले उनका फोन नम्बर ले लिया होता! अगर वो हैं तो अच्छी ही होंगी, जब आप ज़िन्दगी मे आगे बढ गये तो वो भी अपने बच्चों की शादी की तैयारी कर रही होगी, अपने पति के साथ शैपिंग कर रही होंगी , यकीन मानिये आपको बिलकुल याद नहीं करती होंगी। कविता लिखने के चक्कर मे आप अब तक उन्हीं के विचारों मे गोते खा रहे हैं। ‘’भाई साहब मै आपके लियें बहुत चिंतित हूँ’’ मैने कहा। “ मेरी प्यारी बहन,कवि की यही तो खूबी है कि वह कल्पना के माध्यम एक ही समय एक से अधिक जीवन जी लेता है । वह एक जीवन से दूसरे जीवन विचरता है जैसे कोई एक कमरे से दूसरे कमरे जाता है और फिर पहले कमरे में लौट आता है ।‘’ मैने कहा ‘’मैने तो सुना था वियोगी होगा पहला कवि आह से निकला होगा गान।‘’ ‘’अरे बहना ये बीते वख्त की बात हैं आजकल जो दिखता है सब असली नहीं होता है बनावटी भी हो सकता है।‘’ ‘ भाई साहब बोले। मैने कहा ‘’क्या कविता भी बनावटी होती है ?’’ ‘’इसे बनावटी नहीं कहते कवि की कल्पना कहते हैं।तुम्हारी तरह नहीं जो सामने दिखा उस पर कविता लिख दी।अभी कछ दिन पहले तुमने तो ‘चींटी’ पर कविता लिखी थी कल को ‘कौकरोच’ पर लिख दोगी। कविता मे थोड़ा रोमांस होना चाहिये।‘’ भाई साहब ने समझाया। ‘’भाई, जीवन मे ही रोमांस नहीं है, कविता मे कैसे लाऊँ, घरवालों ने जिनसे शादी करदी उनके साथ ख़ुश हूँ । कोई चौराहे पर भी नहीं छूटा था।‘’ मैने कहा। ‘’कल्पना करो, नहीं तो लिखती रहो चींटी और मक्खी मच्छर पर कविता’’ भाई साहब ने जवाब दिया। कवि और कल्पना का अटूट साथ है। मैं कविता लिखती हूँ पर कल्पना में शून्य पर अटकी हूँ, इसलियें मैं कवियत्री हूँ ही नहीं, ऋतुओं का वर्णन, चाय, चींटी, किसान, कमल और प्रदूषण जैसे नीरस विषय तो कविता के लियें अनुकूल ही नहीं हैं। केवल यथार्थ से कविता नहीं बनती, उसमें कल्पना की ऊँची उड़ान होना ज़रूरी है, जैसे दाल में नमक होना ज़रूरी है, उसी तरह कविता मे कल्पना होना ज़रूरी है ,इसलिय ख़ुद को मैं कवियत्री मान ही नहीं सकती। कवि वह होता है जो किसी और ही दुनियाँ में विचरता है। अभी कुछ दिन पहले एक कवि मित्र की कविता पढ़ी ये कवि मित्र श्रंगार के मिलन पक्ष के विशेषज्ञ हैं ,उनके शब्द तो याद नहीं हैं पर उसका अर्थ कुछ इस प्रकार था ‘’तुम रोज़ सुबह सुबह सूखे पत्तो के साथ चली आती हो…’ इत्यादि। मैं बड़ी हैरान हुई कि ये कौन हैं, जो भाई साहब के घर रोज़ सुबह सुबह चली आती हैं। सुबह का समय तो सब व्यस्त रहते हैं, घर भी बिखरा सा रहता है। मैंने भाई साहब से कहा कि ‘’कविता तो आपकी अच्छी है पर ये सुबह सुबह कौन आ जाती हैं आपके घर? फोन करके आना चाहिये।‘’ कविवर ने मुझसे कहा कि ‘’आप कविता लिखना छोड़ दीजिये और व्यंग्य लिखना शुरू कर दीजिये।कविता लिखना आपके बस की बात नहीं है आप कल्पना को तो जानती ही नहीं हैं।’’ मैंने ट्यूबलाइट की तरह बात देर से समझी कि ये भाईसाहब की ‘कल्पना’ हैं। किशोरावस्था में तो एसी कल्पनायें लोग करते हैं, पर कविवर तो किशोरावस्था को काफ़ी पीछे छोड़ आये है अब इस उम्र में भी.. बच्चे क्या सोचते होंगे! कवियों में एक और बड़ी अच्छी बात होती है कि वो कल्पना जगत और यथार्थ के बीच का दरवाज़ा हमेशा खुला रखते हैं। कल्पना में प्रेयसी के लम्बे घने बादलों के नीचे बरसात (जब सिर धोकर तौलिये से बाल झटकती हैं) में भीगकर शब्दों को संजो रहे हैं, कविता रूप ले रही है, अचानक आवाज़ आती है ‘’सुनिये शाम को मेंरी बहन आने वाली है ज़रा सब्जी ले आइये एक किलो आलू…….’’ कविवर तुरन्त यथार्थ में आजाते हैं आलू, प्याज, टमाटर, पनीर गोभी… लेने थैला लेकर चल पड़ते हैं। वापिस आकर फिर जु्ल्फों मे उलझ जाते हैं। दरअसल कवि भी … Read more

नाम में क्या रखा है : व्यंग -बीनू भटनागर

नाम की बड़ी महिमा है, नाम पहचान है, ज़िन्दगी भर साथ रहता है। लोग शर्त तक लगा लेते हैं कि ‘’भई, ऐसा न हुआ या वैसा न हुआ तो मेरा नाम बदल देना।‘’ ग़लत कहा था शेक्सपीयर ने कि नाम मे क्या रखा है! नाम बडी अभूतपूर्व चीज़ है! उसके महत्व को नकारा ही नहीं जा सकता। माता पिता ने नाम रखने मे कुछ ग़लती कर दी तो संतान को वो आजीवन भुगतनी पड़ती है। आज कल माता पिता बहुत सचेत हो गये हैं और वो कभी नहीं चाहते कि बच्चे बड़े होकर उनसे कहें ‘’ये क्या नाम रख दिया आपने मेरा!‘’ पुराने ज़माने मे लोग नाम रखने के लियें ज्यादा परिश्रम नहीं करते थे या तो किसी भगवान के नाम पर नाम रख दिया या फिर वही उषा, आशा, पुष्पा, शीला, रमेश, दिनेश, अजय और विजय जैसे प्रचिलित नामो मे से कोई चुन लिया। गाँव के लोग तो मिठाई या बर्तन के नाम पर भी नाम रख देते थे, जैसे रबड़ी देवी, इमरती देवी या कटोरी देवी आदि। दक्षिण भारत से हमारे एक मित्र हैं जिनका नाम जे. महादेवन है। जे. से जनार्दन उनके पिता का नाम था। जब महादेवन जी का पहला पुत्र हुआ तो उन्होंने उसका नाम जनार्दन रख दिया और पुत्र ऐम. जनार्दन हो गये, इस प्रकार उनके कुल का पहला पुत्र या तो एम. जनार्दन या जे. महादेवन ही होगा। दूसरे पुत्र का नाम नाना का होता है। पहली पुत्री का नाम दादी का और दूसरी पुत्री का नानी का नाम ही होता है। यदि इससे अधिक बच्चे होते हैं तभी नया नाम खोजना पड़ता है।कितना अच्छा तरीका है, नाम भी ख़ानदानी हो गया ! दक्षिण भारत मे नाम से पहले वर्णमाला के कई अक्षर भी लगाने की प्रथा है, इन अक्षरों से पिता का नाम, गाँव का नाम, ज़िला तक पता चल जाता है। यहाँ नाम मे पूरा पहचान पत्र छिपा होता है। महाराषट्र और कुछ अन्य प्रदेशों मे महिलाओं के लियें पति या पिता का नाम सरनेम से पहले लगाने का प्रचलन है, पुरुष भी पिता का नाम लगाते हैं, यानि संरक्षक के नाम से पहचान और भी पक्की कर दी जाती है। उत्तर भारत मे पहचान से ज्यादा नये नाम की खोज करने का अभियान महत्वपूर्ण है। नये बच्चे का नाम रखना भी आजकल बड़ी महनत का काम हो गया है। अधिकतर पहली बार बनने वाले माता पिता बच्चे के नाम की खोज जन्म से पहले ही शुरू कर देते हैं। ऐसे अति उत्साहित माता पिता को दो नाम खोजने पड़ते हैं, एक लड़की का और दूसर लड़के का। पहले बच्चे का नाम खोजते खोजते कभी दूसरे बच्चे का नाम भी सूझ जाता है। अतः महनत 2 बेकार नहीं जाती, जो इस दोहरी महनत से बचना चाहते हैं, उन्हे बच्चे के जन्म तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। बच्चे का नाम कुछ नया….. कुछ नहीं, एकदम नया होना चाहिये, जो कभी किसी ने सुना ही न हो। नया नाम रखने की इस धुन मे जो लोग हिन्दी बोलने मे हकलाते हैं या हकलाने का नाटक करते हैं, उनका हिन्दी क्या, संसकृत से भी मोह हो जाता है। हिन्दी संसकृत के अलावा बंगला, गुजराती, मराठी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का अध्ययन करके वहाँ के साहित्य से या पौराणिक गाथाओं से नाम लेने के लियें भी लोग बड़ी माथापच्ची करते हैं। कोई नाम इतने जतन से ढूँढ कर रक्खा जाता है, तो उसके उद्गम और अर्थ की जानकारी माता पिता को होती ही है ,जब कोई उनसे बच्चे का नाम पूँछता है तो वे बड़े गर्व से बताते हैं । वे अपने पूरे ‘नाम अनुसंधान कार्यक्रम’ की जानकरी ऐसे देते हैं मानो सीधे भाषाविज्ञान मे पी. एच. डी. कर के आ रहे हैं।  हमारे एक परिचित युवा दम्पति ने अपनी पहली संतान जो कि पुत्र है उसका नाम रक्खा ‘’स्तव्य ’’ पहली बार मे किसी के समझ मे ही नहीं आया, किसी ने समझा ‘’स्तब्ध’’ किसी ने ‘’तव्य’’। माता पिता ने बताया कि ‘स्तव्य’ का अर्थ ‘विष्णु भगवान’ होता है। हम तो पूरी तरह अभिभूत हो गये उनके ज्ञान पर! ‘विष्णु’ के पर्यायवाची शब्द कभी अपने बच्चों को रटाये अवश्य थे, पर स्तव्य तो याद नहीं आ रहा। हिन्दी मे थोड़ा बहुत लिख लेते है इसका यह मतलब नहीं कि हमने हिन्दी का शब्द कोष कंठस्त किया हुआ है, सोच कर ख़ुद को दिलासा दिया। अब ये ‘स्तव्य’ थोड़े बड़े हुए तो किसी ने पूछा ‘’बेटा तुम्हारा नाम क्या है ?’’ वह तोतली ज़बान मे कहते ‘’तब’’, तब माता पिता को ‘’स्तव्य’’ शब्द के बारे मे अपना ज्ञान बाँचने का एक और अवसर मिल जाता है! इस संदर्भ मे एक और नाम याद आरहा है ‘’हिरल’’ जी हाँ, आपने सही सुना ‘’हिरल’’ यह नाम एक उत्साही मातापिता ने गुजरात से आयात किया है। गुजराती मे इसका क्या अर्थ होता है, उन्होंने बताया तो था, मुझे याद ही नहीं आ रहा। किसी भी भाषा को बोलने वाले दूसरे प्रदेश की भाषा के नाम रख रहे हैं, इससे अच्छा देश की भाषाई एकता का और क्या सबूत होगा! साथ ही साथ आपका एकदम नया नाम खोजने का अभियान भी सफल हो गया। वाह क्या बात है ! एक पंथ दो काज ! सिक्खों को नाम रखने मे एक बड़ी अच्छी सुविधा है , लड़की लड़के के लियें अलग अलग नाम नहीं ढूँढने पड़ते, बेटी के लियें ‘कौर’ लगा दिया, बेटे के लियें ‘सिंह’, बस हो गया अन्तर।   3 कभी कभी एक असुविधा या सुविधा भी कह सकते हैं, हो सकती है , यदि लड़का लड़की एक ही नाम वाले मिल जायें तब ‘’मनदीप सँग मनदीप’’ शादी के निमंत्रण पत्र मे छपवाना पड़ेगा। यह तो अच्छा ही लगेगा, ऐसा संयोग किसी को मुश्किल से ही मिलता होगा। पति-पत्नी अपने ही नाम से एक दूसरे को पुकारेंगे । पुकारने से याद आया कि कभी कभी माता पिता ऐसे नाम रख देते हैं जिसके कारण बच्चों को एक अजीब स्थिति का सामना करना पड़ सकता है, जैसे ‘प्रिया’ नाम अच्छा है पर राह चलते हर व्यक्ति बेटी को प्रिया पुकारे तो क्या अच्छा लगेगा ! ‘हनी’ या ‘स्वीटी’ भी बेटियों के नाम रखने मे यही ख़तरा है। लोग बेटों के नाम ‘सनम’ या ‘साजन’ तक रख देते है … Read more

थोड़ी सी समझदारी से निभाएं जा सकते हैं रिश्ते

मेरा तो मानना है कि हर विवाह ही बेमेल विवाह होता है,क्योंकि कोई भी दो व्यक्ति एक सी सोच, एक सी विचारधारा, एक सी धार्मिक आस्था, एक से रहन सहन, एक से मिज़ाज, रूपरंग मे समकक्ष, आर्थिक स्थिति मे भी समान, शिक्षा मे भी समान हों, मिल पाना लगभग असंभव ही है।जीवन साथी मिलना कपड़े सिलवाने जैसा तो नहीं होता कि अपना नाप दिया, अपना डिज़़ाइन चुना, पसन्द का कपड़ा ख़रीदा और किसी अच्छे दर्ज़ी से सिलवा लिया। साहित्य समाज का दर्पण होता है, बेमेल विवाह किसी न किसी कारण से हमेशा होते रहे हैं, इसीलियें देवदास की पारो का विवाह उसकी मां ने ज़िद और जल्दबाज़ी मे बूढे अमीर आदमी से करवा दिया, क्योंकि देवदास के घर मे उनका अपमान हुआ था। प्रेमचन्द की निर्मला दहेज के अभाव मे बूढ़े से ब्याह दी गई।दोनो नायिकाओं के जीवन की त्रासदी का कारण बेमेल विवाह ही थे।मै इनकी कहानी मे उलझकर विषय से न भटक जाऊं इसलियें वापिस अपने मुद्दे पर आती हूँ। थोड़ी सी समझदारी से निभाएं जा सकते हैं रिश्ते हर विवाह मे सामंजस्य बनाना ज़रूरी होता है,पहले इसकी उम्मीद केवल लड़कियों से की जाती थी कि वो ससुराल के माहौल मे ख़ुद को ढ़ाल लेंगी। यह भी कहा जाता था कि लड़कियों की परवरिश ऐसी होनी चाहिये कि वो पानी की तरह हों, जो रंग मिलादो वैसी ही बन जायें, जिस बर्तन मे रख दो वही आकार ले लें।एक तरह से लड़की की पहचान को ही नकार दिया जाता था, पर अब ऐसा बिलकुल नहीं है , लड़कों को भी विवाह को सफल बनाने के लियें बहुत सामंजस्य बनाना पड़ता है। ये सामंजस्य केवल पति पत्नि के बीच ही नहीं दोनो परिवारों के बीच बनाना भी ज़रूरी है।आदर्श स्थिति तो वह होगी जहाँ पति पत्नि एक दूसरे पर हावी हुए बिना, एक साथ सामंजस्य बनाकर रहें।  ऐसा करने से उनका प्रेम समय और उम्र के साथ बढता है, फिर चाहें वो कितने ही बेमल क्यों न हों! बेमेल विवाह का अर्थ है कि जहाँ पति पत्नि एक दूसरे से बहुत अलग हों। इन अंतरों का आधार लंबाई, मोटा या पतला होना, रंगरूप,शिक्षा,आयु, धार्मिक आस्था,परिवारों की  आर्थिक स्थिति, विचारधारा, शौक,मिज़ाज शहरी या ग्रामीण परवरिश अथवा कुछ और भी हो सकता है।  माता पिता अपने बच्चों का रिश्ता बच्चों के अनुरूप पात्र से ही करना चाहते हैं।बेटी का रिश्ता जिस परिवार मे हो वो उनसे बहतर आर्थिक स्थिति मे हो या कम से कम बराबरी का हो, लड़का लड़की से उम्र मे बड़ा हो, उससे अधिक शिक्षित हो और ज़्यादा कमाता हो। रूपरंग मे लड़का लड़की उन्नीस हो सकता है, पर बहुत कम नहीं होना चाहिये।लड़के के माता पिता को गोरी,सुन्दर सुशील कन्या चाहिये जो आदर्श बहू और पत्नी तो हो ही पर नौकरी पेशा पढ़ी लिखी भी हो।दहेज़ भी एक मुख्य मुद्दा हो सकता है। जब हो आयु में अंतर   माता पिता को अपने बच्चों का जब मन चाहा रिश्ता नहीं मिल पाता, उम्र बढ़ती हुई देखते हैं, तो अक्सर बेमेल विवाह हो जाते हैं। कभी लड़का लड़की से 10-15 वर्ष बड़ा मिल जाता है, कभी लड़की दो चार साल बड़ी हो सकती है, कभी लड़का लम्बा और लड़की छोटी, कभी लड़की बहुत गोरी और लड़का बहुत काला, कभी लड़की बहुत कम पढ़ी, कभी पढ़ी लिखी लड़की और कम पढ़ा व्यवसायी लड़का परिणय सूत्र मे बंध जाते हैं।प्रेम विवाह मे भी बहुत सारे बेमेल लगने वाले जोड़े बंधते हुए देखे जा सकते हैं।ये बेमेल से लगने वाले रिश्ते मे बंधे दम्पति बहुत सफल जीवन बिता सकते हैं, बहुत ख़ुश रह सकते हैं, यदि दोनो तरफ़ से रिश्ते को ईमानदारी से निभाने की इच्छा हो।यदि अहम् रिश्ते के बीच मे आजाये तो जो रिश्ता बेजोड़ और श्रेष्ठ दिखता है, उसे भी निभाना कठिन हो सकता है। बेमेल होने के जो आम आधार  हैं,उनमे आयु मे अंतर बहुत महत्वपूर्ण है। वैवाहिक बंधन मे बंधने के लियें लड़का लड़की से 2-5 साल बड़ा हो, सही माना जाता है, माता पिता ऐसा ही रिश्ता खोजने की कोशिश करते हैं। यदि लड़का लड़की से बहुत साल बड़ा हो या लड़की लड़के से कुछ साल से बड़ी हो तो उसे बेमेल विवाह कह दिया जाता है।उम्र के अंतर की वजह से केवल विवाह असफल नहीं हो सकता। यदि लड़की 20, 21 साल की हो और लड़का 35 के आस पास तो भी वे सफल वैवाहिक जीवन जी सकते हैं।परिपक्व व्यक्ति के साथ पत्नी अधिक सुरक्षित महसूस कर सकती है। पति को भी कम उम्र दिखाने के लियें अपनी वेशभूषा मे बदलाव करना, या हाव भाव मे बदलाव करना ज़रूरी नहीं है।पत्नी को भी व्यवाहार मे अस्वाभाविकता लाने की ज़रूरत नहीं है।आजकल 30 ,32 साल की महिलायें भी अपने सलीके से, अपनी आयु से कम लगती हैं। वैसे भी बढ़ती आयु के साथ उम्र का अंतर कम महसूस होने लगता है। यदि लड़की आयु मे साल दो साल बड़ी हो तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता, परन्तु अंतर यदि ज्यादा हो तो कुछ सावधानियां बरतनी चाहिये, पत्नी को अपने शारीरिक सौंदर्य को बनाये रखने के लियें कुछ महनत करनी चाहिये।पति पर अधिकार जमाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये, उनकी उम्र कम है वो अपरिपक्व हैं, यह नहीं जताना चाहिये। पति को भी पत्नी की बड़ी उम्र का अहसास नहीं करवाना चाहिये। जीवन सहजता के साथ जीना चाहिये। आम तौर पर आयु के बड़े अंतर या तो प्रेम विवाह मे होते हैं या माता पिता किसी मजबूरी मे ऐसा रिश्ता करते हैं।उम्र के बड़े अंतर के बावजूद पति पत्नी आपस मे ताल मेल बिठा कर सुखी जीवन जी सकते हैं। जब हो आर्थिक स्थिति में अंतर  दोनो परिवारों की आर्थिक स्थिति मे बहुत अंतर हो तब भी उसे बेमेल विवाह कहा जा सकता है।आम तौर पर मातापिता आर्थिक रूप से समकक्ष परिवार मे ही रिश्ता ढूंढते है, मगर कभी किसी कारणवश असमान आर्थिक स्थिति के परिवारो मे रिश्ता हो जाये, तो दोनो पक्षों को बड़ी सावधानी बरतनी चाहिये। लड़की का मायका संपन्न हो और ससुराल उतनी संपन्न न हो तो कभी कभी उनके आत्म सम्मान को चोट अंजाने मे पंहुच जाती है, जब मायके वाले बेटी की ज़रूरतों को ध्यान मे रखकर ज़्यादा उपहार भेजने लगते हैं। यदि लड़की के परिवार की आर्थिक स्थिति कमज़ोर हो तो … Read more