जिनपिंग! हम ढ़ाई मोर्चे पे तैयार है

रंगनाथ द्विवेदी अब पता नहीं 1962 के भारत और चीन के क्या हालात थे?,परिस्थितियाँ क्या थी?।उस समय के हमारे प्रधानमंत्री नेहरु जी से भूल हुई या फिर चीन ने हमारे इस देश और हमारी मित्रता के साथ विश्वासघात किया? एैसे मे तमाम तर्क है कुछ लोग उस समय के तत्कालीक प्रधानमंत्री नेहरु जी पे भी अपने-अपने तरीके से दोषारोपण करते है। ये तो निश्चित है कि उस समय के कुछ तथ्य भी तोड़े-मरोड़े गये उस लड़ाई मे चीन ने हमसे ढ़ेर सारी हमारी जमीने भी हथिया ली, सारी सच्चाईयो का बाद की सरकारो के द्वारा गला भी घोटा गया उसका एक प्रमुख कारण भी रहा काग्रेंस का काफी लम्बे समय तक किया गया शासन! वैसे भी अब आज की तारीख़ में”उस कैंसर ग्रस्त पन्ने को पढ़ने से कुछ भी हासिल होने वाला नही एैसे में उसपे बेजा लेखनी लिखने से अच्छा है कि हम उदीयमान होते हुये सुदृढ़ और मजबूत भारत की उस छप्पन इंच की छाती पे लिखे जो आज की तारीख़ मे मदांध चीन से पीछे न खिसक बल्कि अपनी डिप्लोमेसी से चीन और पाकिस्तान को हर मोरचे पे थोड़ा-थोड़ा कर पीछे ढ़केल रहा है। आज हम पलायित होने की बजाय चीन की आँख के उस सुअर की बाल का जवाब कुटनीतिक तरिके से दे रहे है अर्थात आज उसी के से अंदाज मे हमारी भी आँख बखूबी पुरी चाईनीज़ शैली मे पेच लडाये हुये है। यही चीज चीन की तिलमिलाहट का कारण भी बन रहा है जिसकी एक बानगी हमने उसके द्वारा अभी हाल ही मे डोकलाॅम मे देखी है। उसे हर मोर्चे पे भारत से मिल रहे करारे जवाब का ही ये प्रतिफल है जो वे ये कह रहा कि सिक्किम का डोकलाॅम उसके भू-भाग मे है एैसा उसने अपने एक नक्शे मे भी दर्शाया है,लेकिन हमारी भारतीय फौज लगातार वहाँ अपना सफल दबाव बनाये हुये है,इसी के तहत वहाँ के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया के माध्यम से ये कहाँ जाना कि—“भारत को 1962 के युद्ध से सबक लेना चाहिये और उसे अपनी सेना पंचशील संधि के तहत हटा लेनी चाहिये क्योंकि वे चीन का अपना भू-भाग है ये निरा बकवास और चीन का बिस्तारवादी नीति का बेहुदापन है नही तो सच ये है कि वे भू-भाग भुटान और भारत का अपना भू-भाग है ये भू-भाग सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है”। चीन को शायद अब ये आभास कराने का समय भी आ गया है कि “अब भारत 1962 के नेहरु का भारत नही बल्कि आज का काफी सुदृढ़ और मजबूत भारत है जो उस युग से काफी आगे निकल आया है,इसलिये अब हमे चीन 1962 की तरह डिल न करे”।अब हम उसकी विस्तारवादी नीति को सहे ये संम्भव नही, अभी हमारे सेनाध्यक्ष का भी एक करारा बयान आया था कि “हम और हमारी सेना ढ़ाई मोरचे पे लड़ने को तैयार है”। और शायद हमारे सेनाध्यक्ष के कथन कि झुंझलाहट ही थी की चाईना के डोकलाॅम के आस-पास आये चीनी सैनिको को हमारी भारतीय सेना ने ढ़केल बाहर किया वे चोट चीन के लिये असह्य और काफी पीड़ादायक हो गई,ये हम भारतियो के लिये गर्व का पल था।हमारे रक्षामंत्री अरुण जेटली ने भी चीन के 1962 वाले युद्ध के गीदड़ भभकी के जवाब मे कहाँ कि “अब चीन को भी थोड़ा सा ये समझ जाना चाहिये कि अब हम भी वे 1962 के भारत नही रहे”। सिक्किम के डोकलाॅम मे लगातार हमारी सेना का डटा रहना चीन को नागवार लग रहा,जब वहाँ उसे मुँह की खानी पड़ी तो उसने एक और चाल चली,उसने कुछ लड़ाकू बेड़े,पनडुब्बी जहाज़ आदि को भारतीय समुद्री सीमा के आस-पास भेज भारत को भयाक्रांत या डराने की कोशिश की और उसके इस ताजा-तरीन कोशिश का नीम की तरह का कड़वा फल उसे कल ही खाने या चखने को मिल गया,अर्थात विश्व की दो महान शक्तियो अमेरिका,जापान और भारत ने एक साथ दस दिनो का सामरिक युद्धाभ्यास किया जो कि अब तलक का सबसे तगड़ा तीन देशो का युद्धाभ्यास है,हालाँकि आज की तारीख़ में चीन की विस्तारवादी नीतियो के चलते विश्व के अधिसंख्य देश उससे मन ही मन चिढ़े हुये है। इस युद्धाभ्यास के नाते चीन एक टुच्चे और टभैये देश की तरह ये कह रहा है कि—भुटान का साथ जीस तरह भारत दे रहा है ठीक वैसे ही हम भारत मे कश्मीर घाटी के अलगाववादीयो,आतंकियो की मदत करने के लिये अपनी सेना को भेज सकते है। आजादी के इतने साल बाद चीन को भी ये कल्पना न थी कि भारत एकदिन उस स्थिति तलक अपनी सफल डिप्लोमेसी के द्वारा पहुँच जायेगा कि उसके समकक्ष अपनी आँख दिखा उसकी गीदड़ भभकियो का शेर की गर्जना के साथ या शैली मे जवाब भी दे लेगा। इस सारे बदलाव की जड़ का एकमात्र नायक आज हमारे देश के इतने बड़े लोकतन्त्र के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी को जाता है,जो अरबो की जनसंख्या के इस देश को जब भी किसी देश मे प्रस्तुत करते है तो लगता है कि पहली बार हमारे इतने बड़े मुल्क कि वे छप्पन इंच की छाती बोल रही है जिसपे आज की तारीख़ मे हम सभी भारतवासियो को गर्व है।नरेन्द्र मोदी की सफल कूटनीतियो ने हमे मात्र तीन साल मे ही वहाँ पहुँचा दिया है जहाँ से पुरी दुनिया भारत को गौर से सुन और तक रही है। तीन साल मे ही मोदी जी ने वे करिश्मा कर दिखाया,जो इतने वर्षो या सालो की राजनीति में भारत के बड़े-बडे नेता या प्रधानमंत्री नही कर पाये,उनके उसी अदा और शैली की आज दुनिया दिवानी है”अमेरिका जैसी विश्व शक्ति वाले देश के राष्ट्रपति को भी अपने यहाँ के चुनाव मे मोदी-मोदी कहना पड़ा और उस नाम कि महिमा का सिक्का भी वहाँ चला और ट्रम्प वहाँ के राष्ट्रपति चुनकर आये”। हमने तमाम किस्से और कहानिया बचपन मे सुनी व पढ़ी कि महाराजा विक्रमादित्य के दरबार मे नौ-रत्न थे या फिर अकबर की हुकूमत मे भी नौ-रत्न थे उसके बाद मै तिसरी बार एैज ऐ गवाह अपने समय की एक जिंदा कहानी को जीवित देखने का सुअवसर पा रहा हूं अर्थात मोदी जी की भी सत्ता मे हर विधा के एक से बढ़कर एक रत्न दिख रहे है।उनकी सबसे बड़ी और बेशकिमती अदा है किसी भी हद तलक जा देश हित मे लिये … Read more

रंगनाथ द्विवेदी की कलम से नारी के भाव चित्र

                             कहते हैं नारी मन को समझना देवताओं के बस की बात भी नहीं है | तो फिर पुरुष क्या चीज है | दरसल नारी भावना में जीती है और पुरुष यथार्त में जीते हैं | लेकिन भावना के धरातल पर उतरते ही नारी मन को समझना इतना मुश्किल भी नहीं रह जाता है | ऐसे ही एक युवा कवि है रंगनाथ द्विवेदी | यूँ तो वो हर विषय पर लिखते हैं | पर उनमें  नारी के मनोभावों को बखूबी से उकेरने की क्षमता है | उनकी रचनाएँ कई बार चमत्कृत करती हैं | आज हम रंगनाथ द्विवेदी की कलम से उकेरे गए नारी के भाव चित्र  लाये हैं |                                        प्रेम और श्रृंगार                                      स्त्री प्रेम का ही दूसरा रूप है यह कहना अतिश्योक्ति न होगी | जहाँ प्रेम है वहाँ श्रृंगार तो है ही | चाहें वो तन का हो , मन का या फिर काव्य रस का रंगनाथ जी ने स्त्री के प्रेम को काव्य के माध्यम से उकेरा है  शमीम रहती थी  कभी सामने नीम के——— एक घर था, जिसमें मेंरी शमीम रहती थी। वे महज़——— एक खूबसुरत लड़की नही, मेंरी चाहत थी। बढ़ते-बढ़ते ये मुहल्ला हो गया, फिर काॅलोनी बन गई, हाय!री कंक्रिट——– तेरी खातिर नीम कटा, वे घर ढ़हा——– जिसमें मेरी शमीम रहती थी। अब तो बीमार सा बस, डब-डबाई आँखो से तकने की खातिर, यहाँ आता हूँ! शुकून मिल जाता है इतने से भी, ऐ,रंग———– कि यहाँ कभी, मेरे दिल की हकिम रहती थी! कभी सामने नीम के——– एक घर था, जिसमें मेरी शमीम रहती थी।   पतझड़ की तरह रोई  बहुत खूबसूरत थी मै लेकिन——– रोशनी में तन्हा घर की तरह रोई। कोई ना पढ़ सका कभी मेरा दर्द—— मै लहरो में अपने ही,समंदर की तरह रोई। सब ठहरते गये—————- अपनी अपनी मील के पत्थर तलक, मै पीछे छुटते गये सफर की तरह रोई। लोग सावन में भीग रहे थे, ऐ,रंग—–मै अकेली अभागन थी जो सावन में पतझड़ की तरह रोई।         सखी हे रे बदरवा  तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा, करे छेड़खानी सखी छेड़े बदरवा। सिहर-सिहर जाऊँ शरमाऊँ इत-उत, मोहे पिया की तरह सखी घेरे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। चुम्बन पे चुम्बन की है झड़ी, बुँद-बुँद चुम्बन सखी ले रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। अँखियो को खोलु अँखियो को मुँदू, जैसे मेरी अँखियो में कुछ सखी हे रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। मेरी यौवन का आँचल छत पे गिरा, मेरी रुप का पढ़े मेघदुतम सखी हे रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। पपीहा मुआ  मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ, वे भी तो तड़पे है मेरी तरह, वे पी पी करे और मै पी पी पिया। मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ। वे रोये है आँखो से देखे है बादल, मै रोऊँ तो आँखो से धुलता है काजल, वे विरहा का मारा मै विरहा की मारी, देखो दोनो का तड़पे है पल-पल जिया, मेरी बढ़ाये पपीहा मुँआ। हम दोनो की देखो मोहब्बत है कैसी? वे पीपल पे बैठा मै आँगन में बैठी, की भुल हमने शायद कही पे, या कि भुल हमने जो दिल दे दिया, मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ। चल रे पपीहे हुई शाम अब तो, ना बरसेगा पानी ना आयेंगे ओ, मांगो ना अब और रब से दुआ, मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ।                                उन्होंने मुझको चाँद कहा था  पहले साल का व्रत था मेरा—– उन्होनें मुझको चाँद कहा था। तब से लेकर अब तक मै—– वे करवा चौथ नही भुली। मै शर्म से दुहरी हुई खड़ी थी, फिर नजर उठाकर देखा तो, वे बिलकुल मेरे पास खड़े थे, मैने उनकी पूजा की——- फिर तोड़ा करवे से व्रत! उन्होनें अपने दिल से लगा के—– मुझको अपनी जान कहा था। पहले साल का व्रत था मेरा—– उन्होनें मुझको चाँद कहा था। बनी रहु ताउम्र सुहागिन उनकी मै, यूँही सज-सवर कर देखू उनको मै, फिर शर्मा उठु कर याद वे पल, जब पहली बार पिया ने मुझको—- छत पर अपना चाँद कहा था। पहले साल का व्रत था मेरा—- उन्होनें मुझको चाँद कहा था। चूड़ियाँ ईद कहती है चले आओ———- कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। भर लो बाँहो मे मुझे, क्योंकि बहुत दिन हो गया, किसी से कह नही सकती, कि तुम्हारी हमसे दूरियाँ—- अब ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। सिहर उठती हूं तक के आईना, इसी के सामने तो कहते थे मेरी चाँद मुझको, तेरे न होने पे मै बिल्कुल अकेली हूं , कि चले आओ——– अब बिस्तर की सिलवटे और तन्हाइयां ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। तीन तलाक पर एक रिश्ता जो न जाने कितनी भावनाओं से बंधा था वो महज तीन शब्दों से टूट जाए तो कौन स्त्री न रो पड़ेगी | पुरुष होते हुए भी रंग नाथ जी यह दर्द न देख सके और कह उठे बेजा तलाक न दो  ख्वा़हिशो को खाक न दो! एै मेरे शौहर———– सरिया के नाम पे, मुझे बेजा तलाक न दो। बख्श दो——— कहा जाऊँगी ले मासुम बच्चे, मुझ बेगुनाह को——- इतना भी शाॅक न दो, बेजा तलाक न दो। न उड़ेलो कान में पिघले हुये शीशे, मुझ बांदी को सजा तुम——– इतनी खौफ़नाक न दो, बेजा तलाक न दो। न छिनो छत,न लिबास खुदा के वास्ते रहने दो, मेरी बेगुनाही झुलस जाये——- मुझे वे तेजाब न दो, बेजा तलाक न दो। सी लुंगी लब,रह लुंगी लाशे जिंदा, लाके रहना तुम दु जी निकाहे औरत, मै उफ न करुंगी! बस मेरे बच्चो की खुशीयो को कोई बेजा, इस्लामी हलाक न दो——- बेजा तलाक न दो। तीन मर्तबा तलाक  एक औरत——— किसी सरिया के नाम पे कैसे हो सकती है मजाक। कैसे———– लिख सकता है कोई शौहर, अपनी अँगुलियो से इतनी दुर रहके, मोबाइल के वाट्सप पे——— तीन मर्तबा तिलाक। नही अब … Read more

जी.यस.टी. GST

रंगनाथ द्विवेदी। लाख विरोध करे——— काग्रेंस,यस.पी.(SP),बी.यस.पी.(BSP), लेकिन इस देश के आखिरी शख्स़़ के—– हित मे है जी.यस.टी(GST)। आओ हम सपोर्ट करे, क्योंकि हमी तो खरीदते है——- रोज आटा,चावल,घी, जी.यस.टी.(GST)। बनिये,स्वर्णकार,व्यापार मंडल की बंदी विरोध मजबूरी है, ये फैंसी चोर है, जिसने हमेशा कर चुरा के इस देश, सरकार और आम आदमी की—– गाढ़ी कमाई की क्षति बहुत की, जी.यस.टी.(GST)। आओ हम सब एक स्वर-एक कर, के पक्ष मे ध्वनिमत से कहे, कि स्वागत है तुम्हारा— मेरे देश में जी.यस.टी.(GST)

आईये हम लंठो को पास करते है ( व्यंग्य )

-रंगनाथ द्विवेदी अब इस देश मे वे दिन नही जब हम अन्य विज्ञापनो की भांति ही ये विज्ञापन भी अपने टेलीविजन या अखबारो मे लिखा हुआ देखेंगे कि “आईये हम अपनी शिक्षण संस्था से लंठो को पास करते है”। योग्यता बाधा नही परसेंटेज के हिसाब से सुविधाएँ उपलब्ध,हमारी विशेष उपलब्धि व आकर्षण है कि “हम अपना नाम न लिख पाने वाले छात्र को भी पूरे प्रदेश या राज्य मे टाप करवाते है”। इस तरह के तमाम पीड़ित व कमजोर छात्र मौके का लाभ उठा आज तमाम बड़ी नौकरियो में अपनी सफलता पूर्वक सेवाये दे रहे है। इन लोगो के जीवन कौशल व उपलब्धि की छटा अद्भूत है,कल हमारे ही कुछ सफल तथाकथित छात्रो को ये समाज नकारा और बेकार कहता था,आस-पास के लोग अपने बेटो को इनसे दूर रहने की सलाह देते थे। आज उन्हीं के वे तमाम उज्ज्वल बेटे स्याह से भी ज्यादा स्याह हो गये है”बेरोजगारी ने चेहरे का सारा लालित्य छिन लिया है”। जबकि हमारी संस्थान से निकले छात्र–“हृष्ट-पुष्ट गेहूँ की तरह लाल हो गये है रेमंड की शर्ट,रेडचीफ की सैंडल और कार से उतरती उनकी सुदंर पत्नियाँ एैसे उतरती है कि देखते बनता है”।उन्हीं के गाँव-गिराव के वे मित्र जो कभी इनसे दूर रहने के लिये अपने पिता के फरमानो का अक्षरशः पालन करते थे आज अपने उसी सफल मित्र के इस जीवन शैली को देख आह!भरते है और उनके मन की सड़क पे पीड़ा के बुलडोज़र के गुजर जाने का सा ऐहसास होता है। तमाम कार्यालय,आफिस कुकुरमुत्ते की तरह खुले पड़े है बस लेकिन हमारे कार्य करने का तरिका “फ्राड के श्रेष्ठ नासा के वैज्ञानिक की तरह है”।”यहाँ तमाम तरह की शैक्षणिक खरिदारी की जा सकती है”।हर रेट वय मे सुविधाएँ उपलब्ध है हम अपने ग्राहक की सुविधा का ध्यान रखते है।हमारा ये रैकेट विश्वसनीय व खरा है,हमारे यहाँ तमाम तरह के वर्कर हर जगह जुगाड़ बिठाने मे लगे रहते है अर्थात ये फिल्ड वर्क देखते है।इस फिल्डवर्क करने वालो को साम-दाम-दंड-भेद जैसे भी अपना काम निकलवाने के लिये,किसी भी तरह के हथकंडे अपनाने की सुविधा इन्हें होती है। इस तरह की सुविधाओ से उन नियुक्त करने वाले अधिकारियो व मंत्रियो की सटीक विश्वस्त गोपनीय सुविधा मुहैया करा पैसे के साथ “उनकी पचास साल की उम्र मे हफ्ते-पन्द्रह दिन पे एक खूबसूरत बीस-पच्चीस साल की लड़की उनके आवास या कमरे पे भेज इनके अंग-प्रत्यंग की थिरैपी व मसाज के साथ कामासन कराते है” जिसका परोक्ष लाभ हमारी संस्था पाती है। “इतने सारे कलात्मक पापड़ बेलने के बाद तब हमारी ये संस्था चल व निखर रही है”।बस हमे और हमारी इस संस्था को उस कालजई निर्णय का राष्ट्रीय इंतजार है,जब सरकार हमें बाकायदा इस तरह के विज्ञापन करने का लाइसेंस दे देगी और हम बाईज्जत टेलीविजन या अखबार मे इस तरह हेडिंग के साथ ये विज्ञापन लगा सकेंगे कि………. “आईये ये शैक्षिक संस्था लंठो को पास करती है “ रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)। रिलेटेड पोस्ट  सादे नाल रहोगे ते योग करोगे जय पाखंडी बाबा न उम्र की सीमा हो इंजिनीयर का वीकेंड और खुद्दार छोटू

अपने पापा की गुड़िया

फादर्स डे पर  एक बेटी की अपने पापा की याद को समर्पित कविता। अपने पापा की गुड़िया दो चुटिया बांधे और फ्रॉक पहने, दरवाजे पे-खड़ी रहती थी——— घंटो कभी अपने पापा की गुड़िया। फिर समय खिसकता गया, मै बड़ी होती गई! मेरे ब्याह को जाने लगे वे देखने लड़के, फिर ब्याह हुआ, मै विदा हुई पापा रोये नही, पर मैने उनके अंदर———- के आँसूओ का गीलापन महसूस किया, पीछे छोड़ आई सब कुछ अपने पापा की गुड़िया। सुना था बहुत दिनो तक, पापा तकते रहे वे दरवाज़ा,  शायद ये सोच—————- कि यही खड़ी रहती थी कभी, उनके इंतज़ार में घंटो,  फ्रॉक पहने दो चुटिया बांधे इस पापा की अपने गुड़िया। फिर आखिरी मर्तबा उन्हे बीमारी मे देखा, वे चल बसे! अब यादो में है——————-  कुछ फ्रॉक दो चुटिया और तन्हा खड़ी—————–  दरवाजे के उस तरफ, आँखो में आँसू लिये—————- अपने पापा की गुड़िया।  ### रंगनाथ द्विवेदी, यह भी पढ़ें ……. डर -कहानी रोचिका शर्मा एक दिन पिता के नाम -गडा धन आप पढेंगे ना पापा लघुकथा -याद पापा की आपको  कविता  “    पूरक एक दूजे के “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs, parents

राग झुमर सुन रहा हूँ

रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी मै उसके कान की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं, कंगन,बिछुवे,चुड़ियां संगत कर रही, कोई घराना नही दिल है———– जिससे मै राग चाहत सुन रहा हूं, मै उसके कान की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं। उसका इस कमरे,उस कमरे आना-जाना, एक सुर,लय,ताल का मिलन है उस मिलन से उपजी———– मै राग पायल सुन रहा हूं, मै उसके कानो की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं। कपकंपाते होंठ सुर्खी गाल की, तील जैसे लग रही उसकी सखी, और कर रही छेड़छाड़ भर बदन, उफ!उसकी उम्र के उन्माद का—— मै राग काजल सुन रहा हूं, मै उसकी कान की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं। घन-गरज है,बिजलियाँ है काँधे पे वे श्वेत आँचल लग रहा कि मछलियाँ है, उन मछलियो के प्रेम की——– मै राग बादल सुन रहा हूं, मै उसके कानो की बाली का राग झुमर सुन रहा हूँ रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।

शिवराज सिंह चौहान यानी मंदसौर का जनरल डायर

– रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)। जी हाँ! किसानो का पेट और सीना चाक करती वे पुलिसिया गोली,गुलाम हिन्दुस्तान की उस ब्रिटिश गोली से ज्यादा जघन्य और पाशविक लगी,जब जनरल डायर जैसे शैतान ने अपनी नर्क जैसी जुबान से फायर कहा था। हूबहू वही दृश्य मंदसौर मे दृश्यावलोकित हो रहे थे और साफ दिख रहा था कि हमारे-आजाद हिन्दुस्तान की पुलिस जबरिया एक उस आंदोलन और किसान की माँग को कुचल रही थी जिसका”आधे से अधिक जीवन तो अपने खेत की मेड़ो और उसकी उन दाड़ो पे ही बीत जाता है जिसके मध्य उसकी फसले जवान होती है”। सारे मौसम के दर्द की किताब के यही जीवित पात्र है,जो कारो और ऐसी मे सफर करते आज के नेता अपनी लफ्फाज़ी मात्र से कुछ क्षणो मे, इनकी भावना का ठीक उसी तरह कत्ल या हत्या करते है जैसे कभी—-“मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘पुस की रात’ के हल्कू की तैयार फसल को सारी रात मे चट कर जाते एक छुट्टा पशु ने की” “आज की युग के शिवराज सिंह चौहान भी वही शाहुकार है,जिनकी संवेदना अपने मंदसौर के किसी हल्कू जैसे किसान के साथ नही” देशकाल,समय सब कुछ बदलता गया लेकिन बेचारे किसान का अधमरापन वैसे ही बदस्तूर जारी है। किसान कर्जमाफी वाली वे मोदी जी की जनसभा-अच्छे दिन आयेंगे,ये छप्पन इंच की छाती,भाईयो एवं बहनो का तीन साल मे ये अच्छा दिन मंदसौर के उन गोली खाये किसानो के परिवार पे कैसा बीता है,कैसे यहा के किसानो तक आये है,अच्छे दिन स्पष्ट है। “मंदसौर का हर दृश्य जलियावालाबाग की तरह लग रहा था,किसान भाग रहे थे,एक दुसरे पे गिर-पड़ रहे थे,ज़मीन रक्तसिंचित हो रही थी,इस ज़मीन सिचने वाली कौम का बेरहमी से सरकारी नरसंहार किया जा रहा था,चारो-तरफ हाहाकार के दृश्य थे”। जिसे मै मंदसौर भर लिख मै इस घटना को बौना नही कर सकता,जब तलक किसान को उसकी जायज मांग को न्याय नही मिल जाता तब तलक मै मध्य-प्रदेश जैसे वृहद राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को उस अंग्रेज जनरल डायर से ज्यादा क्रुर और गुनहगार लिखुँगा जिसने हमारे देश के हजारो देशभक्तो के सीने पे गोली चलवाई थी। जिस प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया यानी देश के चौथे सशक्त स्तंभ को इस देश के आखिरी शख्स की आवाज़ कहा और लिखा जाता है उनकी लेखनी गणेश शंकर विद्यार्थी के भावो के हृदय धूल की कण मात्र भी नही अगर होते तो मंदसौर के किसान कि वे छ लाश इस हुकूमते हिंद को पेशोपेश मे ला देती। हमारे इस पुरे देश को अन्न,फल,सब्ज़ी आदि उगाकर हमारे इस पेट की क्षुधा को मिटाने और शांत करने वाले किसान को गोली भी मारी गई तो उसकी पेट पे,इससे बड़ी किसी भी कालखंड या शासन समय की पाशविकता क्या होगी ?। गौर करिये तो किसान पुरे देश मे यत्र,तत्र,सर्वत्र आपको मरता दिखाई देगा “पुरे चार,छ महिने वे अपनी फसल को बेटे या बेटी की तरह पालने के बाद जब वे अपने इसी तैयार फसल को मंडी ले जाता है तो उसके उस तैयार फसल की किमत—-अभी कुछ दिनो पहले बिके उस प्याज़ और टमाटर सी हो जाती है अर्थात एक से देढ़ रुपये किलो इससे बेहुदा मज़ाक आखिर उस किसान के साथ क्या होगा जो कि न श्रम की किमत पा रहा और न ही अपने उस फसल की लागत निकाल पा रहा बल्कि उसकी फसलो के बाजारु दलाल उसी को आठ से दस रुपये मे बेच कुछ ही घंटो मे हजारो कमा रहे,आखिर उस किसान का घर,परिवार उनके बेटे,बेटियो की शिक्षा दिक्षा और शहर के वे पढ़े लिखे महंगे कातिल डाक्टर जिसकी सीढ़ियाँ चढ़ते किसान काँपता है,जीवन का ये भयावहपन ऊपर से कर्ज़ न भर पाने का दर्द इस तरह के हालात का मारा किसान आत्महत्या करने जैसा निर्णय लेता है तो उसकी इस आत्महत्या को मै आत्महत्या नही बल्कि वहाँ की सरकार का कत्ल लिखता हूँ”। कहते थे या सुना है कि ब्रिटानिया हुकूमत का सूर्य कभी अस्त नही होता था और उसका सारा संचालन लंदन से होता था,आज मंदसौर भी उसी ब्रिटानिया शासन की तरह लग रहा है और शिवराज़ सिंह चौहान का निर्णय एक पथराये संवेदनहीन अंग्रेज शासक की तरह का लग रहा,जिसका सारा संचालन लंदन तो नही लेकिन हा हमारे देश के लंदन की हैसियत रखते दिल्ली से हो रहा। किसानो की इस हत्या और आंदोलन के आग की चिंगारी अगर समय रहते न थमी तो ये और उग्र व विकराल होगा!शायद सल्तनते दिल्ली कि वे तख्ते ताउस और मयूर सिंहासन ही उलट जाये जिसपे सगर्व हमारी मतदान की उम्मिदो के प्रधानमंत्री मोदी जी बैठे है। बहुत उम्मीद है इस मुल्क के आवाम का और उससे कही ज्यादा यहाँ की जम्मूरियत को दुनिया तक रही है।मै एक रचनाकार और लेखक होने के नाते सच लिखने और उसे बया करने से डरता नही”क्योंकि कलम की आग और रोशनाई आज भी उतनी ही पाक और पवित्र है जितनी की पहले थी इसके सच लिखने के अक्षरो से अब भी गणेश शंकर विद्यार्थी की साँस आती है” “कलम अगर चाटुकार हो जाये तो वे लेखक व उसके सारे लेख उस दो टके की धंधा करने वाली वेश्या से ज्यादा गलिज और गंदे हो जायेंगे” अकबर इलहाबादी साहब की ये दो लाइन आज भी प्रासंगिक है—– कि जहाँ तोप न तलवार मुकाबिल हो, वहाँ एक छोटा ही सही तुम अखबार निकालो”। आज केवल ये हालात मंदसौर के ही नही अपितु कमोबेश इस देश के हर राज्य के किसानो के साथ है। ये किसान किसी पुलिसिया गोली के हकदार नही क्योंकि—“ये देश अथवा राज्य के इनामिया अपराधी,माफिया,उग्रवादी या नक्सली नही जिनका इतने नग्न और जघन्य तरिके से उन्मूलन किया जाये”। बेशक शिवराज सिंह चौहान को मंदसौर का जनरल डायर जैसा कड़ा शब्द लिख मै किसान की आंतरिक पीड़ा और उसके उस आंदोलन का समर्थन करता हूं,जो सदियो से किसान हर आते-जाते सरकार से माँग रही है।मैने इस सरकार की अच्छाईयो का खुलेकंठ तारीफ और प्रशंसा भी की है। ये लिखते भी मै झिझका नही कि एक लंबे अंतराल और कालखंड के बाद इस अरबो की जनसंख्या के इस देश ने एक सशक्त और दृढ़निश्चई प्रधानमंत्री का चयन या चुनाव किया है!लेकिन इसके इतर मेरी कलम हर उस सरकार को जनरल डायर कहती है जिसके कालखंड या समय मे मेरे देश के किसान … Read more

रंडी—एक वीभत्स और भयावह यथार्थ

“अँधेरी रात मे——- वे शहर की स्ट्रिट लाइट से टेक लगा, अपना आधे से अधिक वक्षस्थल खोले, किसी ग्राहक को रिझाने और लुभाने का प्रयास करती है, किसी रात जब काफी प्रयासो के इतर, कोई ग्राहक आता और रिझता नही दिखता, तो अपनी निदाई आँखो की निद दुर करने को, वे गाढ़ी और सुर्ख लिपस्टिक के उस तरफ, अक्सर बीड़ी पीने से सँवलाये होंठो के बीच, एक बीड़ी दबा————– बड़ी अश्लीलता और निर्लज्जता से वे अपने हाथो को, अपने अधखुले वक्षस्थल मे डाल, चारो तरफ जलाने को दियासलाई टटोलती है, उस टटोलने मे स्त्रियोचित कोई संवेदना नही, बल्कि बेरहमी से दियासलाई निकाल बीड़ी जला—– कुछ तगड़े-तगड़े सुट्टे ले जब अपने नथुनो से धुआँ निकालती है, तो उस धुँये की धुँध उसे अपनी एकलौती जीवन सखी लगती है, कभी-कभी जब एकाध कस की शुरुआत मे ही किसी ग्राहक को आता देखती है, तो उसे रोज अपनी तरह जली बीना बुझाये फेक, कुछ इस तरह झुकती है, कि उसके अधखुले वक्षस्थल थोड़ा और गहरे खुल, ग्राहक को यौन मदांध कर बाबले और उतावले कर देते है, उसकी इस झुकन की कलात्मकता ने ही उसे अब तक, ज्यादा ग्राहक दिये है! वे हर रात अपने ग्राहक को शिशे मे उतार, इस स्ट्रिट लाइट की कुछ दुरी पे बने अपने उस दो कमरे की सिलन की बदबू से रचे बसे कोठरी मे ले जाती है, और उसी कमरे की एक जर्जर तखत पे सो जाती है, कभी इसी तखत पे दुल्हन की तरह सोने आई थी, और इसी तखत पे सोने के लिये, माँ-बाप का घर छोड़———- प्रेमी के साथ भाग आई थी ये शायद उन्हिं की पीड़ा का श्राप है, कि सुहाग तखत पे रंडी बन रह गई। फिर समय के साथ मैने ख़ुदकुशी न की, हाँ उस शरीर और अंग से बदला जरुर लेती हूँ, जिसे अगर कुछ दिन और संभाल लेती तो एक औरत होने का, संम्पुर्ण ऐहसास करती, मै बलात भागी थी उसी बलात भागने ने जीवन नर्क कर दिया। हर रात उसका ग्राहक तृप्त हो जब ये जुमले कहता है कि—– तेरे अर्धखुले वक्षस्थल ब्लाउज मे तो सुंदर थे ही, और आजाद हुये तो और कयामत व सुंदर हो गये, ये सुन उसने हमेशा की तरह अपने ग्राहक को मन ही मन मादरजात गाली दे, फिर अपने उस ब्लाउज को उठा एक रुटीन की तरह, बीना किसी कोमलता के जबरदस्ती इधर-उधर ठुस, और उस ठुसने की रगड़ को, वे राड़ कह खूब हँसती है वे हँसी अपने को और पीड़ित करने की होती है, फिर उसी तखत पे अस्त-ब्यस्त लेट, एक रंडी की तरह पुरा दिन बीता उठती है, नहा धुलकर,गाढ़ी लिपस्टिक लगा चल पड़ती है, एक बीड़ी होठ पे लगाये उसी स्ट्रिट लाइट की तरफ, वैसे ही खड़ी हो फिर किसी ग्राहक को, अपने अधखुले ब्लाउज से रोज की तरह दिखाने अपना, अाधे से अधिक खुला वक्षस्थल।

दो स्तन

ये महज कविता नही वरन रोंगटे खड़े करता एक भयावह यथार्थ है। रंगनाथ द्विवेदी कुछ भिड़ झुरमुट की तरफ देख, अचानक मै भी रुक गया——– और जैसे ही मेरी नज़र उस झुरमुट पे पड़ी, उफ!मेरे रोंगटे खड़े हो गये, एक पैत्तीस साल की औरत का———– विभत्स बलात्कार मेरे सामने था, उसके गुप्तांग जख्मी थे, और उससे भी कही ज्यादा जख्मी थे—– उसके वे दो खुले स्तन। जिसपे पशुता के तमाम निशान थे, नोचने के,खसोटने के,दाँतो के बहुत मौन थे, लेकिन ये मौनता एक पिड़ा की थी, क्या?इसिलिये ईश्वर ने दिया था, इस औरत को———- कि कोई अपनी पशुता से छिन ले,मसल दे इसके दो स्तन। जब पहली मर्तबा इसके बलात्कारी ने भी पिया होगा, अपनी नर्म हाथो से बारी-बारी——- अपनी माँ का दो स्तन! तब इनमे दुध उतरा था, क्यूं ?नहीं दिखा आखिर—– मसलते,कुचलते,नोचते वक़्त, शायद देखता तो कांप जाता, क्योंकि इसकी अपनी माँ के भी थे—– यही दो स्तन। इतना ही नही गर कल्पना करता, तो इसे दिखता———— अपने ही घर मे अपनी बुआ,अपनी चाची और सीने पे दुपट्टा रंखे अपनी बहन के– इसी बलात्कार की गई औरत की तरह, दुपट्टे के उस तरफ भी तो लटके है एै”रंग”—– यही दो स्तन। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर।

मदर्स डे : माँ को समर्पित कुछ भाव पुष्प ~रंगनाथ द्विवेदी

जहाँ एक तरफ माँ का प्यार अनमोल है वही हर संतान अपनी माँ के प्रति भावनाओं का समुद्र सीने में छुपाये रखती है | हमने एक आदत सी बना रखी है ” माँ से कुछ न कहने की ” खासकर पुरुष एक उम्र के बाद ” माँ मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ ” कह ही नहीं पाते | मदर्स डे उन भावनाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर देता है | इसी अवसर का लाभ उठाते हुए रंगनाथ द्विवेदी जी ने माँ के प्रति कुछ भाव पुष्प अर्पित किये हैं | जिनकी सुगंध हर माँ और बच्चे को सुवासित कर देगी | माँ की दुआ आती है मै घंटो बतियाता हूं माँ की कब्र से, मुझे एैसा लगता है कि जैसे——- इस कब्र से भी मेरी माँ की दुआ आती है। नही करती मेरी सरिके हयात भी ये यकिने मोहब्बत, कि इस बेटे से मोहब्बत के लिये, कब्र से बाहर निकल———- मेरे माँ की रुह यहां आती है। जब कभी थकन भरे ये सर मै रखता हू, कुछ पल को आ जाती है नींद, किसी को क्या पता?———– कि मेरी माँ की कब्र से जन्नत की हवा आती है। एै,रंग—-ये महज एक कब्र भर नही मेरी माँ है, जिससे इस बेटे के लिये अब भी दुआ आती है। ठंड मे माँ———– जिस जगह गीला था वहाँ सोयी थी।ठंड-दर-ठंड———तू कितना बडा हो गया बेटे,कि तू हफ्तो नही आता अपनी माँ के पास।देख आज भी गीला है———माँ का वे बीस्तर!बस फर्क है इतना कि पहले तू भीगोता था,अब इसलिये भीगा है रंग———-कि माँ रात भर रोयी थी।ठंड मे माँ—————जिस जगह गीला था वहाँ सोयी थी। माँ पर लघु कवितायें १——-मै घंटो बतियाता हूँ माँ की कब्र से,ऐ,रंग—-ऐसा मुझे लगता है कि!जैसे इस कब्र से भी—————मेरे माँ की दुआ आती है। २————–भूखी माँ सुबह तलक—-भूख से बिलबिलाती बेटी के लिये,लोरी गाती रही।पड़ोसीयो ने कहा बेटी मर गई,ऐ,रंग—-वे इस सबसे बे-खबर!कहके चाँद को रोटी गाती रही। ३———–माँ—————मै आज ढ़ेरो खाता हूँ,पर तेरी चुपड़ी रोटी की भूख रह जाती है।आज सब कुछ है———–स्लिपवेल के गद्दे,एसी कमरे,पर नींद घंटो नही आती है।ऐ,रंग—-यादो मे!माँ की गोद और लोरी रह जाती। ४———–बचपन होता बचपन की चोरियाँ होती,माँ मै चैन से सोता————–इस पत्थर के शहर में,गर तू होती और तेरी लोरीयाँ होती। रंगनाथ दुबे