गैंग रेप

सुबह-सुबह ही मंदिर की सीढ़ियों के पास एक लाश पड़ी थी,एक नवयुवती की। छोटा सा शहर था, भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। किसी ने बड़ी बेदर्दी से गले पर छुरी चलाई थी,शीघ्र ही पहचान भी हो गई,सकीना!!! कई मुँह से एक साथ निकला। सकीना के माँ बाप भी आ पहुंचे थे,और छाती पीट-पीट कर रो रहे  थे। तभी भीड़ को चीरते हुए रोहन घुसा,  बदहवास, मुँह पर हवाइयां उड़ रही थी। उसको देखते ही,कुछ मुस्लिम युवकों ने उसका कॉलर पकड़ चीखते हुए कहा, ये साला—-यही था कल रात सकीना के साथ,मैं चश्मदीद गवाह हूँ। मैंने इन दोनों को होटल में जाते हुए देखा था, और ये जबरन उसको खींचता हुआ ले जा रहा था। भीड़ में खुसफुसाहट बढ़ चुकी थी। रोहन पर कुकृत्य के आरोप लग चुके थे। रोहन जितनी बार मुँह खोल कुछ कहने का प्रयास करता व्यर्थ जाता। दबंग भीड़ उसको निरंतर अपने लात घूंसों पर ले चुकी थी। पिटते पिटते रोहन के अंग-प्रत्यंग से खून बह रहा था। तभी दूसरी ओर से हिन्दू सम्प्रदाय की भीड़ का प्रवेश, साथ मे सायरन बजाती पुलिस की गाड़ियां। जल्दी ही रोहन को जीप में डाल अस्पताल ले जाया गया। उसकी हालत नाजुक थी। बार बार आंखें खोलता और कुछ कहने का प्रयास करता और कुछ इशारा भी— पर शाम होते होते उसने दम तोड़ दिया। उसका एक हाथ उसके पैंट की जेब पर था।       डॉ आरिफ ने जब उसका हाथ पैंट की जेब से हटाया तो उन्हें एक कागज दिखा, उस कागज़ को उन्होंने निकाला, पढ़ा। कोर्ट मैरिज के कागज़ात। पीछे से पढ़ रहे एक युवक ने उनके हाथ से कागज छीन उसके टुकड़े टुकड़े किये और हवा में उछाल दिया।     देखते देखते, शहर में मार काट मच चुकी थी।जगह जगह फूंकी जाती गाड़ियां, कत्लेआम, —दो सम्प्रदाय आपस मे भीड़ चुके थे।चारों तरफ लाशों के अंबार। प्रशासन इस साम्प्रदायिक हिंसा को काबू में करने  की भरसक कोशिश कर रहा था, पर बेकाबू हालात सुधरने का नाम नही ले रहे थे। अखबार, टी वी सनसनीखेज रूप देकर यज्ञ में आहुति डालने का काम कर रहे थे।    ऐसे में ही बेरोजगार हिन्दू नवयुवकों की एक टोली, जिसके सीने में प्रतिशोध की अग्नि धधक रही थी,उनको सामने से आती नकाब पहने,दो युवतियां दिखीं। आंखों ही आंखों में इशारा हुआ, और एक गाड़ी स्टार्ट हुई। युवतियों के मुँह पर हाथ रख उनकी चीख को दबा दिया गया। काफी देर शहर में चक्कर काटने के बाद गाड़ी को एक सुनसान अंधेरे स्थान पर रोक दिया गया। युवतियां अभी भी छटपटा रही थीं सो उनके मुंह मे कपड़ा ठूंस हाथ बांध दिए गए। और सिलसिला एक अमानवीय अत्याचार का—- बेहोश पड़ी युवतियों को घायल अवस्था मे एक रेल की पटरी के पास फेंक गाड़ी फरार हो ली। सुबह के अखबारों में उन युवतियों के खुले चेहरे के फोटो छपे ,पहचान के लिए। फौरन थाने में रोती कलपती निकहत बी पहुंची, हाय अलका! सुमन! मेरी बच्चीयों, तुम को सुरक्षित मुस्लिम मोहल्ले से निकाल देने का हमारा ये प्रयास ये रंग लेगा, पता न था।  हाय मेरी बच्चियां, खुदा जहन्नुम नसीब करे ऐसे आताताइयों को। उनका विलाप, करुण क्रंदन, बहते हुए आंसुओं को रोक पाने में समर्थ न था। और उन आताताइयों में से, 2 आतातायी ,उन युवतियों के चचेरे भाई सन्न से बैठे थे—– उनकी समझ मे नही आ रहा था ये हुआ क्या??———–              रश्मि सिन्हा यह भी पढ़ें ………. तुम्हारे बिना काकी का करवाचौथ उसकी मौत यकीन आपको आपको  कहानी  “गैंग रेप  “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords:gang rape, crime, crime against women, victim

अच्छा नहीं लगता

रोज़ ही सामने होता है कुरुक्षेत्र, रोज़ ही मन मे होता है घमासान, रोज़ ही कलम लिख जाती है, कुछ और झूठ, दबाकर सत्य को, होता है कोई अत्याचार का शिकार, अच्छा नही लगता—– रोज ही दबा दिए जाते हैं, गरीब के हक, जो सच होता है,  उठती है, उसी पर उंगली, उसी पर शक, अच्छा नही लगता—- सच पता है पर, सच को नकारना भी है एक कौशल, और इसमें पारंगत हो चुकी हूं मैं, भावुकता पर विजय पा, एक झूठ को जिये जा रही हूँ मैं, किसी फूले गुब्बारे में, पिन नही चुभाती मैं, किसी पिचके हुए को ही, पिचकाती जा रही हूँ मैं अच्छा नही लगता—– जानती हूँ, मैं नही करूंगी, फरियाद ऊपर तक जाएगी, धनशक्ति वहां भी जीत ही जाएगी, सो, अनचाहा किये जा रही हूँ। व्यवस्था में ढलना आसान न था, पर व्यवस्था के विपरीत, और भी कठिन, सो भेड़चाल चले जा रही हूँ मैं अच्छा नही लगता——- देख कर बढ़ती परिवार की जरूरतें, मानवीयता को मार, रिश्तों के मोह से उबर, रोज ही खून किये जा रही हूँ मैं अच्छा नही लगता—– पर जिये जा रही हूँ मैं—        रश्मि सिन्हा

“गतांक से आगे” डिजिटल जवाब

विधि के नाम अभी -अभी एक मैगजीन आई थी, मेलबर्न से प्रकाशित। संपादक प्रसून गुप्ता  , उसके एक अच्छे मित्र, जिनसे उसकी भावनाएं जुड़ने लगी थी।पर विधि हतप्रभ थी, प्रसून की कहानी पढ़कर। प्रसून ने बोला था वो उसे सरप्राइज देगा, पर वो ऐसा सरप्राइज होगा , उसे विश्वास न हो रहा था। अपने और प्रसून के बीच हुई मधुर मीठी बातों, समस्याओं, हंसी मजाक को, प्रसून ने अलग रंग दे, उसमे अश्लील वार्तालाप भी सम्मलित कर दिए थे। सिर्फ विधि का नाम बदल दिया था।”डिजिटल प्रेम” नाम की इस कथा ने, कुछ पलों के लिए विधि के होश उड़ा दिए।   इतना क्रूर ,घिनौना मज़ाक? सिर्फ नाम बदलने से क्या?     उनकी दोस्ती फेसबुक पर अनजानी न थी। क्या मित्रता स्वस्थ नही हुआ करती? क्या सब लोग नाम बदलने से ही समझ न जाएंगे, कि कौन है, इस कहानी की हीरोइन—- आंख में आंसू आते जा रहे थे,और दिमाग विचार शून्य हो चला था। पति जिसे वो छोड़ आई थी, उसको छोड़ने का निर्णय सही होते हुए भी गलत लगने लगा था। कुछ सोचकर विधि ने  चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे मारे सर पर भी पानी—, और गर्म कॉफ़ी बना, लॉन में टहलते हुए पीने लगी । अब दिमाग थोड़ा प्रकृतिस्थ होने लगा था। विचार करने लायक।उसने अपना मोबाइल खोल व्हाट्स एप खोला। गनीमत उसने अपने और प्रसून के वार्तालाप डिलीट नही किये थे। कुछ सोच वो मैगज़ीन उठा,पड़ोस में रहने वाली अपनी सखी के यहां चली। मधु उसे देखते ही बोली, आओ मैं तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही थी।पढ़ ली है, कहानी, तेरी परेशानी भी समझ रही हूँ,पर विधि क्या तुझे नही लगता, तुम एक फालतू की कहानी को बेवजह ही तूल दे रही हो? भावनात्मक लगाव होना कोई अनहोनी बात नही है,पर गलत है तो अंध विश्वास। हर रिश्ते के बीच मर्यादा का एक महीन सा तार होता है, बस उसे बनाये रखो। और रहा तेरी परेशानी का हल—- मधु मुस्कुराई,उसका भी हल देख लेना। फिलहाल तो ये रहे प्रसून गुप्ता के खास रिश्तेदारों और मित्रों की सूची। ऐसा कर इन सब को इस मैगज़ीन की एक एक प्रति भेज, ताकि उन्हें पता चले कि उनका भांजा, भतीजा, बेटा, दोस्त किस तरह के अश्लील साहित्य का सृजन कर रहा है। और भी सुन IPC की धारा 292, 293,294 में इस तरह के साहित्य, CD आदि के खिलाफ,सजा का प्रावधान है। कभी पुराने पति के पास लौटने की मत सोचना। वो तेरा दूसरा गलत कदम होगा। अगले दिन पत्रिका की मेल में सैकड़ों चिट्ठियां पहुंची थी। प्रसून गुप्ता  की उस कहानी की निंदा करते हुए। और प्रसून जोशी का एक प्रकार का सामाजिक बहिष्कार शुरू हो गया था। विधि अपनी छोटी सी बगिया में फूलों को पानी देते हुए उन्मुक्त भाव से मुस्कुरा रही थी।——/               रश्मि सिन्हा यह भी पढ़ें … मास्टर जी ऑटिस्टिक बच्चे की कहानी – लाटा आपको रश्मि सिन्हा जी की कहानी ““गतांक से आगे” डिजिटल जवाब कैसी लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

रधिया अछूत नहीं है

रधिया सुबह उठ, अपने घर मे, गुनगुनाते हुए, चाय का पानी रख चुकी थी।तभी उसकी बहन गायत्री ने उसे टोका, क्या बात है, कहे सुबह-सुबह जोर जोर से गाना गा रही है? कोई चक्कर है क्या? हाँ! है तो, आंख तरेरते हुए रधिया बोली, सबको अपनी तरह समझा है न? और दोनों बहनें खिलखिला कर हँस दी। रधिया, गायत्री, निम्न वर्ग की, साधारण शक्ल सूरत की लड़कियां, सांवली अनाकर्षक,पर हंसी शायद हर चेहरे को खूबसूरत बना देती है। अब उनका घर वैसा निम्न वर्ग भी नही रह गया था,जैसा गरीबों का घर होता है। जबसे रधिया, गायत्री, बड़ी हुई थी, पूनम को मानो दो बाहें मिल गई थी।तीनो ही घरों में खाना बनाने से लेकर झाड़ू, पोछें और बर्तन का काम करती, और कोठी वालों की कृपा से उनको हर वो समान मिल चुका था, जो कोठियों में अनावश्यक होता, मसलन, डबल बेड, पुराना फ्रिज, गैस का चूल्हा, सोफे भी। तीज, त्योहार के अलावा, वर्ष भर मिलने वाले कपड़े,बर्तन और इनाम इकराम अलग से।मौज में ही गुज़र रही थी सबकी ज़िंदगी। पूनम का पति रमेसर चाय का ठेला लगाता था,और रात में देसी दारू पीकर टुन्न पड़ा रहता। गाली गलौज करता पर तीनो को ही उसकी परवाह न थी। अगर वो हाथ पैर चलाता, तो तीनों मिलकर उसकी कुटाई कर देती,और वो पुनः रास्ते पर।     दिन भर तीनों अपने अपने बंगलों में रहती। रधिया का मन,अपने मालिक,जिनको वो अंकल जी कहती थी,वहां खूब लगता। अंकल जी लड़कियों की शिक्षा के पक्षधर थे,सो रधिया को निरंतर पढ़ने को प्रेरित करते रहते। और उन्ही की प्रेरणा के कारण वो हाई स्कूल और इंटर तृतीय श्रेणी में पास कर सकी थी। इस घर मे पहले उसकी मां काम करती थी, तब वो मुश्किल से 3,4 वर्ष की रही होगी। नाक बहाती ,गंदी सी रधिया। पर बड़े होते होते उसे  कोठियों में रहने का सलीका आ चुका था और कल की गंदी सी रधिया, साफ सुथरी रधिया में बदल चुकी थी। अंकल जी का एक ही बेटा था। जो मल्टीनेशनल में काम करता था। रधिया बचपन से ही उसे सुधीर भइया कहती थी। सुधीर की शादी में दौड़ दौड़ कर काम करने वाली रधिया, प्रिया की भी प्रिय बन चुकी थी।अपने सारे काम वो रधिया के सर डाल निश्चिन्त रहती। क्योंकि वो भी एक कार्यरत महिला थी और उसका लौटना भी रात में देर से ही होता।बाद में बच्चा होने के बाद उस बच्चे से भी रधिया को अपने बच्चे की तरह ही प्यार था। उसे  घर मे उसे 15 वर्ष हो चले थे। प्यार उसे इतना मिला था कि अपने घर जाने का मन ही न करता। सुधीर की आंखों के आगे ही बड़ी हुई थी रधिया। सो उसे चिढ़ाने से लेकर उसकी चोटी खींच देने से भी वो परहेज न करता। रधिया भी भइया भइया कहते हुए सुधीर के आगे-पीछे डोलती रहती। आज भी रोज की भांति कार का हॉर्न सुन रधिया बाहर भागी। सुधीर के हाथों ब्रीफ़केस पकड़ वो अंदर चली। उसे पता था अब सुधीर को अदरक, इलायची वाली चाय चाहिए। जब चाय का कप लेकर वो सुधीर के कमरे में पहुंची, तो सुधीर टाई की नॉट ढीली कर के आराम कुर्सी पर पसरा था,और उसके हाथों में था एक ग्लास, जिसमे से वो घूंट घूंट करके पीता जा रहा था। रधिया के लिए ये कोई नया दृश्य न था। बगैर कुछ कहे वो पलटी, और थोड़ी ही देर में दालमोठ और काजू, एक प्लेट में लाकर, सामने की मेज पर रख दिया। भइया, थोड़े पकौड़े बना दूं? हाँ बना दे, कह कर सुधीर पूर्ववत पीता रहा। थोड़ी देर में ही पकौड़ी की प्लेट के साथ पुनः लौटी रधिया, इस बार सुधीर को टोकती हुई बोली,ठीक है भइया, पर ज्यादा मत पिया करो वरना भाभी से शिकायत कर दूंगी। अच्छा??? इस बार सुधीर की आंखों में कौतुक के साथ, होंठों पर मंद स्मित भी था। कर देना शिकायत भाभी से— कहते हुए उसने रधिया को अपनी ओर खींच लिया। दरवाजा बंद हो चुका था और लाइट ऑफ। आश्चर्य! रधिया की तरफ से कोई प्रतिवाद न था। उस दिन के बाद से उसका मन उस कोठी में और लगने लगा था। आखिर “अछूत” से छुए जाने योग्य जो बन गई थी और ये उसके लिए एक अवर्चनीय सुख था। रश्मि सिन्हा  यह भी पढ़ें … लली  वो क्यों बना एकलव्य  टाइम है मम्मी काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता

रश्मि सिन्हा की 5 कवितायें

                                                                        रश्मि सिन्हा जी की कविताओं में वसंत की बहार से ताजगी है तो गर्मी की धूप  सा तीखापन भी |यही बात उनके काव्य संसार को अलहदा बनाती है | आप भी पढ़ें रश्मि सिन्हा जी की 5 कवितायें …                  धोबी घाट  यहां हर आदमी है, पैदायशी धोबी, थोड़ा बड़ा हुआ नही कि धोने लगा, कभी बीच चौराहों पर धो रहा है, कभी बंद कमरों में, वो देखिए, फिल्मकारों ने बनाई फ़िल्म, आलोचकों का समूह धो रहा है, लेखकों ने लिखी कहानी, कविता, लेख, पाठक धो रहा है, “मातहत” को बॉस धो रहा है, गोया कि, सब लगे हैं धुलाई में, वो देखिए सरकारी विभाग का नज़ारा, ऊपर से नीचे तक, धुलाई चल रही है, साल भर की मेहनत को, वार्षिक सी.आर में धो डाला, और ये धुलने वाले लोग, निसंदेह कान में तेल डाले बैठे हैं अपनी ‘बारी’ का इंतज़ार करते, एक दिन तो आएगा ‘गुरु’, ऐसा धोबी पाट देंगे कि, धुल रहे होंगे तुम, और हम मज़े लेंगे। २….अजीब  मेरी नज़र में, हर “लड़का “हो या “लड़की”, अजीब ही होता है, गरीब तो और भी अजीब, मंजूर है उसे कचरा बीनना, गोद मे बच्चा टांग भीख मांगना, पर ईश्वर के दिये दो हाथों का, इस्तेमाल “पेट” भरने को, उसे नही मंजूर, क्योंकि काम करने के लिए, चाहिए “धन”, जो उसके पास नही होता, पर “भीख” मांग धन एकत्र करनेवाला, “दिमाग” होता है। और “अमीर”,वो तो और भी, अजीब होता है। और, और कि लालसा, पहुंचा देती है, “एक के साथ एक फ्री” के द्वार और, गैर जरूरी चीजें खरीदता अमीर, सचमुच इंसान अजीब होता है। ३ ….शापित अहिल्या  क्या तुम सुन रहे हो, में हूँ शापित अहिल्या, और शापित ही रह जाऊंगी, पर किसी की चरण-रज से शाप मुक्त नही कहाऊंगी। मुझे करना है शाप मुक्त, तो कर दो श्रापित उस गौतम ऋषि को, जिसके शक, और श्राप ने, मजबूर किया, शिलाखंड बनने पर, चरण रज से में कभी श्राप मुक्त नही होना चाहूंगी, हाँ , प्रेम से उर लगाओगे उद्गार स्वरूप, नेत्रों में, जल भी ले आओगे, उसी क्षण में होऊँगी श्राप मुक्त, नही चाहिए मुझे, नाखुदा रूप में कोई पांडव, द्यूत क्रीड़ा में मुझे हारते, और न ही किसी राम की कामना मुझे, जो मेरी खातिर, किसी रावण का सर कलम कर जाए, पर अगले ही पल, किसी रजक के कहने पर, मेरा भविष्य, धरती में समाए, में तो हूँ, गार्गी और अपाला, जो बार बार चुनौती बन सामने आऊँगी, और देवकी की वो कन्या संतानः, जो कंस के द्वारा चट्टान पर पटकने पर भी, हवा में उड़ जाऊंगी, और तुम्हे श्रापित कर, तुम्हारा ही संहार करने वाले का, पता तुम्हे बताऊंगी।             ४….और कितनी आज़ादी  आजादी ही आजादी, 1947 से अब तक, पाया ही क्या है हमने,सिर्फ आज़ादी, आज़ादी अपने संविधान की, संविधान में संशोधन इस हद तक, कि तैयार होते एक नए संविधान की आज़ादी, नेता चुनने की आज़ादी, नेता को कुछ भी बोल देने की आज़ादी, आरोप, प्रत्यारोप की आज़ादी, जो अपने जैसे विचार व्यक्त न करे, उसे बेशर्म,दिमागविहीन कह देने की आज़ादी, अधिकारी को कुर्सी से खींच, पिटाई कर देने की आज़ादी, रोज ट्रैफिक रोक, जुलूस की आज़ादी, यूनियनबाजी की आज़ादी, कितनी आज़ादी—-? सूचना के अधिकार के तहत, हर जानकारी की आज़ादी, आज़ादी अपराध की, बलात्कार की— पीने पिलाने की आज़ादी, न्याय पालिका की आज़ादी, उफ! आज़ादी ही आज़ादी— गोया कि, जनता से ठसाठस भरा ये देश, हो गया है एक, बड़ा कड़ाह/पतीला, जिसमे उबाल रहे हैं तेजाब सम, विचार ही विचार, और उबल-उबल कर, व्यक्त होते ही जा रहे हैं, फैल रहा है ये तेजाब, समाज को दूषित करता हुआ, आज़ादी की वार्षिकी मुबारक। ५ ….आतंकवाद  कितनी माँओं की करुण पुकार, कितनी पत्नियों के करुण क्रंदन, छाती को फाड़ कर निकली, कितनी ही बहनों की” हूक” निरंतर करती चीत्कार, ” सुकमा” ,कुपवाड़ा” या किसी भी नक्सली हिंसा का शिकार, मासूम, सिर्फ शक्ति होने के कारण, गंवाता जान,रक्षा के नाम पर,? सैनिक, बलिदानी, शहीद की उपाधि पाता, न्याय को तरसे बार-बार, कहाँ हो हे कृष्ण!! कितने ही विषधर “कालिया” मर्दन को तैयार, हे शिव! किस बात की है प्रतीक्षा? खोलो न, अपना तीसरा नेत्र एक बार, या, क्या ये फरियादें भी, यूं ही जाएंगी बेकार, या, माँ काली, दुर्गा बन, फिर से नारियों को ही, उठाने पड़ेंगे हथियार???

अम्माँ

रश्मि सिन्हा  अम्माँ नही रही। आंसू थे कि रुकने का नाम नही ले रहे थे। स्मृतियां ही स्मृतियां, उसकी अम्माँ, प्यारी अम्माँ ,स्मार्ट अम्माँ। कब बच्चों के साथ अंग्रेजी के छोटे मोटे वाक्य बोलना सीख गई पता ही नही चला। कितने रूप अम्माँ के, क्लब जाती अम्मा, हौज़ी खेलती, पारुल सुन जरा की आवाज़ देती— फिर धीरे-धीरे वृद्ध होती अम्माँ, तब भी काम मे लगी, कभी कभी सर में तेल डालती अम्माँ। बहुत ऊंचा सुनती थी। कभी- कभी बहुत जोर से बोलने पर झल्ला भी जाते हम अम्मा के बच्चे।    पर कभी निश्चिन्त भी, जब कोई ऐसी बात करनी होती जो अम्मा को नही सुननी होती, कभी उसकी आलोचना भी हम बेफिक्र होकर करते, क्योंकि प्यार के साथ साथ कई शिकायतें भी थीं अम्माँ से। पढ़िए – नया नियम उन पर नज़र डालते तो वो  एक बेबस सी मुस्कुराहट, न सुन पाने की छटपटाहट— हम सब भी क्या करते। आज अम्माँ की डायरी लेकर बैठी हूँ। तारीखों के साथ घटनाओं का वर्णन, वो घटनाएं भी, वो बातें भी, जो हम उनके सामने बैठ कर किया करते थे। पढ़िए – लली दिल की धड़कन अचानक ही बढ़ चुकी है। ओह! ओह!!! तो अम्माँ सब सुन सकती थी, ओह! ईश्वर—- जीते जी एक सच जानकर गई थी अम्माँ यह भी पढ़ें ……. इंसानियत अपनी अपनी आस बदचलन कृष्ण की गीता और मैं भूमिका  गुमनाम

नया नियम

 रश्मि सिन्हा  शहर में एक नया कॉलेज खुला था। बाद से बैनर टंगा था ,यहां शिक्षा निशुल्क प्राप्त करें,और वहां छात्र और छात्राओं का एक भारी हुजूम था। तभी एक छात्र की नज़र एक बोर्ड पर पड़ी, जिसपर एडमिशन के नियम व शर्तें लिखयी हुई थीं। जिसमे लिखा था,” केवल उन्ही को प्रवेश,शिक्षा, निशुल्क दी जाएगी जो अपने नाम के साथ,”सर नेम के रूप में,दूसरे धर्म या सम्प्रदाय का नाम लगाएंगे, उदाहरणार्थ, रोहित शुक्ला की जगह रोहित खान या रोहित विक्टर।      यह पढ़ते ही वहां ख़ुसर पुसर शुरू हो गई। ये कैसे संभव है? पागल है क्या कॉलेज खोलने वाला?    तभी पीछे से आवाज़ आई,मैं अपना नाम अफ़ज़ल पाठक लिखा दूंगा।एक और आवाज़ में नीलिमा शुक्ला की जगह नीलिमा वर्गीज़— फिर तो वहां तरह-तरह के नामों को गढ़ने की होड़ लग गई। अचानक एक जगह और भीड़ देख मैं वहां बढ़ा वहां का भी वही आलम। वहां  नौकरी का प्रलोभन था। अजीब सी शर्तें नौकरी उसी शख्स को दी जाएगी जो भगवा वस्त्र तहमत टोपी, दाढ़ी, केश, साफा आदि का विसर्जन कर के एक सभ्य इंसान की तरह पैंट शर्ट पहन कर रहेगा। कुसी के गले मे ताबीज, ओम, या किसी भी प्रकार का ऐसा प्रतीक नही होगा जिससे उस  के किसी वर्ग विशेष के होने का पता चले।    हाँ घरों में वे अपना धर्म मानने को स्वतंत्र होंगे। एक पुरजोर विरोध के बाद, वहां भी कुछ सहमति के आसार नजर आ रहे थे। रोजी रोटी का सवाल था। सरदार अपना केश कर्तन करवाके, और मौलाना अपनी दाढी बनवाने के बाद, एक से नज़र आ रहे थे।    नाम पूछने पर कोई अरविंद खान, तो कोई विक्टर अग्रवाल बात रहे थे। ये सब देखकर मेरे मुँह से हंसी छूट पड़ी। तभी मुझे किसी के द्वारा झकझोरने का अहसास हुआ। मेरी माँ थी। क्या हुआ रोहित? हंस क्यों रहा है?कितनी देर सोएगा? और में इस अजीब से सपने के बारे में सोचते हुए ब्रश करने चल दिया।          रिलेटेड पोस्ट ……….. गलती किसकी स्वाभाव जीवन बोझ टिफिन