विवाहेतर रिश्तों में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों ?

                                दो व्यस्क लोग जब मिल कर एक गुनाह करते हैं तो सजा सिर्फ एक को क्यों ? ये प्रश्न उठता तो हमेशा से रहा है परन्तु  इस सामजिक प्रश्न  की न्यायलय में कोई सुनवाई नहीं थी | ये सच है की विवाह  एक ” अटूट बंधन ” है | जिसमें पति – पत्नी दोनों एक दूसरे के प्रति वफादार रहने की कसम खाते हैं | फिर भी जब किसी भी कारण से ये कसमें टूटती हैं तो उसकी आंच चार जिंदगियों को लपेटे में ले लेती है | और जिंदगी भर जलाती है |दुर्भाग्य है की एक तरफ तो हम स्त्री पुरुष समानता की बात कर रहे हैं वही  हमारा कानून ऐसे मामलों में सिर्फ पुरुषों को दोषी मानता है | और कानूनन  दंड का अधिकारी भी |  अक्सर ऐसे मामलों में महिला शोषित की श्रेणी में आ जाती है | जिसे बरगलाया या फुसलाया गया  | हालांकि इस बात पर उस महिला का पति उससे तलाक ले सकता है पर कानून दंड का कोई प्रावधान नहीं हैं | क्या आज जब महिलाएं पढ़ी -लिखी व् खुद फैसले ले सकती हैं तो क्या व्यस्क रिश्तों में दोनों को मिलने वाले दंड में बराबरी नहीं होनी चाहिए ? विवाहेतर रिश्तों की कहानी     दिव्या और सुमीत अपने बच्चों के साथ  दिल्ली में रह रहे थे | दिव्या और सुमीत के बीच में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे ये कहा जा सके की ये खुशहाल परिवार नहीं है | तभी ताज़ा हवा के झोंके की तरह समीर उनके घर के पास वाले घर में अपनी पत्नी आशा व् बेटी निधि के साथ किराए पर रहने आया | दोनों परिवारों में पारिवारिक मित्रता हुई | जैसा की हमेशा होता है की पड़ोसी के यहाँ कुछ अच्छा बनाया भेज दिया , एक दूसरे की अनुपस्थिति में उनके बच्चों के आने पर उसका ध्यान रख लिया , और मुहल्ले की अन्य  कार्यक्रमों में साथ – साथ गए | पर यहाँ दोस्ती का कुछ अलग ही रंग में रंग रही थी |                                     दिव्या जो बहुत अच्छा खाना बनाती थी और सुमीत को खाने का बिलकुल शौक नहीं था | ऐसा नहीं है की सुमीत को अच्छा खाना भाता नहीं था | पर पेट की बीमारियों के कारण वो सादा खाना ही पसंद करते थे | दिव्या जब भी कुछ बनाती तो तारीफ़ की आशा करती | पर सुमीत कोई भी तली – भुनी चीज सिर्फ एक – दो चम्मच ले कर यह कहना नहीं भूलते ज्यादा तला भुना न बनाया करो | मुझे हजम नहीं होता और बच्चों को भी इससे कोई फायदा नहीं होगा | दिव्या मन मसोस कर रह जाती | ऐसे ही एक दिन दिव्या ने कुछ बनाया और सुमीत ने सही से रीएक्ट नहीं किया | दिव्या दुखी बैठी थी की समीर आशा व् निधि के साथ उनके घर आये |दिव्या ने वही खाना टेबले पर लगा दिया | समीर जो खाने के बहुत शौक़ीन थे | अपने आप को रोक नहीं पाए | और तारीफ़ कर – कर के खाते रहे | दिव्या की जैसे बरसों की मुराद पूरी हो गयी |                            अब तो आये दिन दिव्या कुछ न कुछ अच्छा बना कर भेजती | समीर तारीफों के पुल बाँध देते | हालांकि आशा भी बदले में दिव्या के घर कुछ भेजती पर  वो खाना पकाने में इतनी कुशल नहीं थी | उसका मन किताबों में लगता था | उसका समीर का इस तरह दिव्या के खाने की तारीफ करना खलता तो था पर वो यही सोंच कर चुप रहती की चलो कोई बात नहीं समीर की इच्छा तो पूरी हो रही है | फिर उसे दिव्या से कोई शिकायत भी नहीं थी |  खाने का ये आकर्षण सिर्फ खाने तक सीमित नहीं रहा | समीर की तारीफे बढती जा रही थीं | एक दिन वो किसी जरूरी कागज़ात को देने दिव्या के घर गया | दिव्या गाज़र का हलवा बना रही थी | उसने समीर से हलवा खा कर जाने की जिद की | समीर भी वही बैठ गया |  बच्चे खेल रहे थे | थोड़ी देर बाद बच्चे बाहर पार्क में खेलने चले गए  | दिव्या  हलवा ले कर आई | पिंक साड़ी में वो बहुत आकर्षक लग रही थी | समीर हलवा खाते हुए एक – टक  दिव्या को देख रहा था | दिव्या समीर का देखने का अंदाज समझ रही थी मुस्कुरा कर बोली हलवा कैसे बना | समीर ने दिव्या की आँखों में डूब कर कहा ,” जी करता है बनाने वाले के हाथ चूम  लूँ | दिव्या ने हाथ आगे बढ़ा दिये … तो फिर देर कैसी ? फिर क्या था … मर्यादा , संस्कार और सामाजिक नियम की दीवारें गिरने  में देर नहीं लगी | दोनों की शादियों के अटूट बंधन ढीले पड़ने लगे |  ये सिलसिला तब तक चला जब तक आशा और सुमीत को पता नहीं चला | जब उन्हें पता चला तो जैसे तूफान सा आ गया | आशा व् सुमीत अपने को ठगा सा महसूस कर रहे थे | विवाहेतर रिश्तों में क्या कहता है न्याय                         कानून के अनुसार दो विवाहित लोगों के बीच विवाहेतर रिश्ते  जो आपसी सहमति  से बने हैं रेप की श्रेणी में नहीं आते हैं |परन्तु उनमें दोनों अपराधी  या गिल्टी माना जाता है | offence of adultery को समझने के लिए हमें कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर , 73 के सेक्शन 198(2) को समझना पड़ेगा | कोई भी कोर्ट इस प्रकार के रिश्तों को तब तक दंडात्मक नहीं मानेगी जब तक वो लोग जो इससे प्रभावित हैं इसकी शिकायत न करें | ( इंडियन पीनल कोड – 45ऑफ़ 1860) किसी भी विवाहेतर रिश्ते में स्त्री पुरुष जिनकी सहमति  से रिश्ता बना है दोनों अपराधी है हालांकि इसमें दंड का प्रावधान तब तक नहीं है जब तक उस महिला का पति ( उदाहरण  में सुमीत ) दूसरे … Read more

बिगड़ते रिश्तों को संभालता है पॉज बटन

                                              हम सब चाहते है की हमारे रिश्ते अच्छे चले और इसके लिए हम प्रयास भी करते हैं | बड़ी मेहनत से रिश्तों के पौधे को सींचते हैं | खाद पानी देते हैं |  दिल से जुड़े हर रिश्ते में हमारा बहुत बड़ा इन्वेस्टमेंट होता है … इमोशनल इन्वेस्टमेंट | जाहिर है नकद रकम के साथ ब्याज  वसूलने की इच्छा हम सबकी होती है | सच है कि बदले में हमें बहुत कुछ मिलता भी है | पर हमेशा ऐसा होता नहीं की दो लोगों का रिश्ता एक सा रहे | यूँ तो हर रिश्ता इन ऊँचाइयों,  गहराइयों से गुज़रता है  पर  साथ बना रहता है | पर कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जहाँ दूरी  इस कदर बढ़ जाती है की रिश्ता टूट जाता है | रिश्ता भले ही टूट जाए पर एक घाव दिल में हमेशा बना रहता है | पर अगर मैं कहूँ की हम हर रिश्ते को टूटने से आसानी से बचा सकते हैं तो ?  गुंजन और सौम्या  के बिगड़ते रिश्तों की कहानी                                               गुंजन और सौम्या गहरी मित्र थी | वो साथ – साथ काम भी करती थीं |उन्होंने एक बुक शॉप खोली | शॉप पर बैठने की जिम्मेदारी गुंजन की व् प्रचार – प्रसार की सौम्या की थी | सब कुछ ठीक चल रहा था | उनमें छोटी सी  गलतफहमी हो गयी | जिसको सुलझाने के साथं पर दोनों ने एक दूसरे पर आरोप -प्रत्यारोप लगाने  शुरू कर दिए | दोनों अपने को सही सिद्ध करने की कोशिश करती | बात संभलने की जगह बिगड़ जाती | तनाव इस कदर बढा कि न सिर्फ दोनों का साझा काम बंद हो गया बल्कि  दोनों की  दोस्ती टूट गयी | इतनी की बरसों हो गए उन्होंने एक दूसरे का मुंह भी नहीं देखा |                                                    ये सिर्फ गुंजन या सौम्या  का किस्सा नहीं है | न जाने कितने रिश्ते यूँ ही गलतफहमी के शिकार हो कर टूट जाते हैं | अगर उस समय उनको संभालने की जितनी भी कोशिश की जाए बात बिगडती ही जाती है | सवाल ये उठता है की फिर गलतफहमी को दूर कैसे किया जाए ? पॉज  बटन से मंजुश्री व् गर्वित ने कैसे संभाला अपना रिश्ता                                                     गर्वित और मंजुश्री पति – पत्नी है |यूँ तो पति – पत्नी के बीच विवादों का अंत नहीं है | फिर भी सुबह के झगडे शाम को या दो चार दिन बाद एक हो ही जाते हैं | पर इस बार मामला थोडा सीरियस था | कई दिनों से बातचीत बंद थी | सुलह की हर कोशिश नाकाम हो रही थी | लगता था बात तलाक तक चली जायेगी | तभी मंजुश्री ने एक महीने के लिए मायके जाने का प्रोग्राम बना लिया | शर्त ये थी की दोनों आपस में फोन पर भी बात नहीं करेंगे | शुरू – शुरू में दोनों को अपनी आज़ादी बहुत अच्छी लगी | धीरे – धीरे जिन्दगी में एक दूसरे का महत्व  समझ में आने लगा | फिर आकलन होने लगा उन परिस्थितियों का जो एक दूसरे के बिना भोगनी पड़ती | अंत तक आलम ये हुआ की दोनों एक दूसरे की कमी शिद्दत से महसूस करने लगे | एक महीने बाद दोनों ने आपस में बात कर साथ रहने की स्वीकृति दे दी | मंजुश्री का मायके जाना वो पॉज बटन था | जिससे दोनों के रिश्ते फिर से हरे भरे हो गए | हालांकि पति – पत्नी के तलक के  मामले में आद्लते भी ६ महीने अलग रहने का जो आदेश देती हैं वो एक तरह से पॉज बटन ही है | जिसमें अनेकों शादियाँ टूटने से बच जाती हैं | पर पति – पत्नी के अतिरिक्त हमारे अन्य कीमती रिश्ते भी होते हैं जहाँ अलगाव अदालतों द्वारा नहीं होता है | ऐसे में रिश्तों को टूटने से बचाने के लिए ये पॉज बटन हमें खुद ही दबाना पड़ता है | क्या है ये पॉज बटन                                             कभी लैपटॉप पर मनपसंद फिल्म  देखते समय कोई आ जाए तो आप क्या करते हैं | पॉज बटन दबा देते हैं | बस फिर क्या  मेहमान के जाने के बाद वहीं से पिक्चर शुरू | कोई सीन मिस नहीं होता | टी. वी , कम्प्यूटर के रिमोट की तरह आपकी जिंदगी का रिमोट भी आपके हाथ में है | जिन्दगी में भी जब व्यवधान बढ़ जाए तो अगर आप पॉज बटन दबा देंगे  तो जिंदगी फिर से वहीं से शुरू होगी | जहाँ छोड़ी थी | बिना किसी कडवाहट के साथ | ये पॉज बटन है ” टाइम गैप ” …. यानि रोज – रोज लड़ने झगड़ने के स्थान पर रिश्तों को थोडा समय देना | कम से कम इतना समय कि एक दूसरे की जरूरत महसूस हो | इस पॉज बटन के दबाने के बाद अगर आप का रिश्ता वापस लौट आता है तो आप की जिन्दगी फिर से वहीं से शुरू हो जायेगी | साथ ही आप – दोनों के पास आरोप – प्रत्यारोप की नकारात्मक यादें नहीं होंगी | जो आपको बार – बार अतीत में नहीं घसीटेंगी |अगर आप का रिश्ता वापस नहीं आया तो आप आगे उस में ” इमोशनल इन्वेस्टमेंट करने से बच जायेंगे | कैसे दबाये पॉज बटन                            पॉज बटन दबाने के लिए आप को और उस व्यक्ति को जिससे आप का गहरा लगाव है पर पिछले कुछ महीनों से बार – बार गलतफहमी पैदा हो रही है समझदारी से काम लेना पड़ेगा | यहाँ मैं … Read more

रिश्ते और आध्यात्म – जुड़ाव क्यों बन जाता है उलझन

                                   नीता , मीरा , मुक्ता  व् श्रेया सब एक सहेलियां एक ग्रुप में रहती थी | जब निधि ने कॉलेज ज्वाइन किया |वो भी उन्हीं के ग्रुप में शामिल हो गयी | निधि बहुत जीजिविषा से भरपूर लड़की थी | जल्द ही वो सबसे घुल मिल गयी | कभी बैडमिन्टन खेलती कभी , डांस कभी पढाई तो कभी बागवानी तो कभी गायन या सिलाई  | ऐसा क्या था जो वो न करती हो | या दूसरों से बेहतर न करती हो | ग्रुप की सभी लडकियां उसे बेहद पसंद करती | सब उसके साथ ज्यादा समय बिताना चाहती | पर कहीं न कहीं ये बात मीरा को बुरी लगती क्योंकि वो निधि पर अपना एकाधिकार समझने लगी थी | निधि से सबसे पहले दोस्ती भी तो उसी की हुई थी | फिर डांस , पढाई व् बागवानी में वो उसके साथ ही होती | इस्सिलिये जब निधि दूसरी लड़कियों के साथ होती तो उसे जलन या इर्ष्या होती | ये बात ग्रुप  अन्य लडकियां व् निधि भी धीरे – धीरे समझने लगी | इस कारण वो मीरा से काटने लगी | क्योंकि वो सबसे बराबर की दोस्ती रखना चाहती थी | पर मीरा ऐसा होने नहीं देना चाहती थी | धीरे – धीरे अच्छी सहेलियों का वो ग्रुप उलझन भरे रिश्तों में बदल गया | सहेलियों का वो ग्रुप हो या एक परिवार की बहुएं , या ऑफिस के सहकर्मी ये जुड़ाव क्यों उलझाव में बदल जाता है | जुड़ाव क्यों बन जाता है उलझन  हम सब के जीवन में ये समस्या कभी न कभी आती है | किसी रिश्ते से जुड़ाव उलझन बन जाता है | इसके कारण को समझने के लिए रिश्तों की गहराई का बारीकी से विश्लेष्ण करना होगा | हर व्यक्ति में बहुत सारे गुण होते हैं | या यूँ कहे की हर व्यक्ति दिन भर में अनेक क्रियाओं को करता है | उस क्रिया के अनुरूप वो उसमें रूचि रखने वाले को चुनता है | ताकि उस काम को करने में मजा आये | जैसे किसी खास मित्र के साथ मूवी देखने में , किसी के साथ पढाई करने में , किसी के साथ नृत्य या सिलाई करने में मज़ा आता है | हम उन क्रियाओं के सहयोगी के रूप में अनेक लोगों से दोस्ती करते हैं व् उनका साथ चाहते हैं | दिक्कत तब आती है जब कोई एक व्यक्ति  हमारा हर समय साथ चाहे या हम किसी एक व्यक्ति का हर समय साथ चाहें | ये अत्यधिक जुड़ाव की आकांक्षा रखना ही रिश्तों में उलझन का कारण हैं | पसंद और अत्यधिक जुड़ाव में अंतर हैं  जब आप किसी के साथ इस हद तक जुड़ाव चाहते हैं की वो सिर्फ आपका ही हो तो उलझन स्वाभाविक है |आप स्वयं ये बोझ नहीं धो पायेंगे | जरा सोच कर देखिये अगर आप ग्लू या गोंद के बने हों | ये गोंद ऐसी हो की जिस चीज को आप पसंद करें वो आपसे चिपक जाए | अब जब आप घर से बाहर निकलेंगे | आपको  सामने बैठी चिड़िया अच्छी लगी वो आपसे चिपक गयी | फूल या पत्ती अच्छी लगी  वो आपसे चिपक गयी | सब्जी अच्छी लगी वो आपसे चिपक गयी | वृद्ध महिला अच्छी लगी वो आपसे चिपक गयी | पेड़ अच्छा लगा वो भी आपसे चिपक गया | आधे घंटे के अन्दर आपसे इतनी चीजे चिपक जायेंगी कि आपका सांस लेना भी दूभर हो जाएगा | चलना तो दूर की बात हैं | अत्यधिक जुड़ाव या एकाधिकार चाहना किसी के गले पड़ना या यूँ चिपक जाने के सामान ही है | जहाँ रिश्तों में घुटन होगी प्रेम नहीं | जुड़ाव केवल इंसानों से नहीं चीजों से भी होता है             जुड़ाव की अधिकता केवल इंसानों से नहीं चीजों से भी होती है |मान लीजिये आप किसी पार्क में आज पहली बार गए हैं | आप एक बेंच पर बैठते हैं |  संयोग से कल भी उसी बेंच पर बैठते हैं | तीसरे दिन से आप पार्क में उसी बेंच को ढूंढेगे |चाहे पार्क की साड़ी बेंचे खालीही क्यों न पड़ी हों | बेड के उसी सिरे पर लेटने से नींद आएगी | डाईनिंग टेबल की वही कुर्सी मुफीद लगेगी | कभी सोंचा है ऐसा क्यों है की इन बेजान चीजों से भी हमें लगाव हो जाता है | इसका कारण है हमारी यादाश्त जो चीजों को वैसे ही करने या होने में विश्वास करती है | तभी तो आँखे बंद हों पर घर का कोई सदस्य कमरे में आये तो पता चल जाता है की  कौन आया था | ये सब यादाश्त के कारण होता है |जन हम किसी के साथ किसी क्रिया में समानता या सामान रूप से उत्साहित होने के कारण ज्यादा समय बाँटने लगते हैं तो यादाश्त उस समय को  अपने जरूरी हिस्से के सामान लेने लगती है | फिर उसे किसी से शेयर करना उसे नहीं पसंद आता है | यही उलझन का कारण है | चीजों से जुड़ाव एक तरफा होता है इसलिए उलझन नहीं होती                                                  जब आप किसी चेज से प्यार करते हैं या जुड़ाव महसूस करते हैं तो आप जानते हैं की ये केवल आप की तरफ से हैं | आप उसे बाँध नहीं सकते हैं | जैसे आप किसी पेड़ को रोज गले लगाइए | आप जुड़ाव महसूस करेंगे पर पेड़ आप को बंधेगा नहीं | न ही आप अपने ऊपर  किसी प्रकार का बंधन अनुभव करेंगे | जिस कारण उलझन या तकलीफ होने की सम्भावना नहीं है | ईश्वर या गुरु के प्रति जुड़ाव भी ऐसा ही है | जहाँ एक तरफ़ा जुड़ाव है | बंधन कोई नहीं अपेक्षा  कोई नहीं | तो फिर उलझन भी कोई नहीं | कैसे आध्यात्म  दूर करता है उलझन                                              जैसा की मैंने पहले ग्लू का उदाहरण दिया था | … Read more

टूटते रिश्ते – वजह अवास्तविक उम्मीदें तो नहीं

 शादियों का मौसम है | खुशियों का माहौल है | नए जोड़े बन रहे हैं | कितने अरमानों से दो लोग एक दूसरे के जीवन में प्रवेश करते हैं | मांग के साथ तुम्हारा मैंने माग लिया सनसार की धुन पर थिरकता है रिश्ता | फिर क्या होता है की कुछ ही दिनों में आपस में चिक- चिक शुरू होजाती है |सपनों का राजकुमार / राजकुमारी शैतान का भाई/बहन  नज़र आने लगता है | एक की पसंद के रंग दूसरे की आँखों में चुभने लगते हैं और एक की पसंद का खाना दूसरे के हलक के नीचे ही नहीं उतरता  और शादी टूटने की नौबत आ जाती है | हालांकि ये हर घर का किस्सा नहीं है | फिर भी अब इसका प्रतिशत बढ़ रहा है | संभल कर -अवास्तविक उम्मीदों से न टूटे रिश्ते की डोर  मेरी घनिष्ठ मित्र रीता की बेटी निधि और रोहन की शादी हुए अभी एक साल भी नहीं हुआ है  की उनके रिश्ते के टूटने की खबर आने लगी | पिछले साल उनकी शादी को याद करती  हूँ तो कितनी ही अच्छी स्मृतियाँ ताज़ा हो जाती हैं | रीता ने शादी के खर्च में जैसे खजाने के द्वार खोल दिए हों | और क्यों न खोलती एक ही तो बेटी है उसकी |फिर उनकी खुशियों की गारंटी भी उसके पास थी | निधि और रोहन पिछले कई सालों से एक दूसरे को जानते थे | उन्होंने ने ही विवाह का फैसला किया था | परिवार वालों ने तो बस मोहर लगायी थी |उस दिन दोनों की ख़ुशी छिप नहीं रही थी |  दोनों ही एक दूसरे को पा कर बहुत खुश थे | यह ख़ुशी विवाह समारोह में परिलक्षित हो रही थी |  निधि और रोहन दोनों ही अच्छे परिवारों से हैं | कोई  ऐसा दोष भी दोनों में दृष्टि गत नहीं  था | हम सब को इस विवाह के सफल होने की उम्मीद थी | शुरू –शुरू में उनकी खुशियों की खबर आती रहती थी | फिर अचानक से ऐसा क्या हो गया जो दोनों एक –दूसरे से अलग होना चाहते हैं  | मैंने दोनों से अलग –अलग बात करने का निश्चय किया | ताकि इस टूटते हुए रिश्ते को संभाला  जा सके | पर दोनों से बात करके मेरे आश्चर्य की सीमा न रही | एक खूबसूरत रिश्ता छोटी –छोटी बातों पर टूटने की कगार पर था | ज्यादातर रिश्ते टूटने में दोनों परिवारों के बीच कुछ कटुता होती है | पर यहाँ मामला केवल उन दोनों के बीच का था | ये केवल निधि और रोहन का ही मामला नहीं है | ऐसा पहले भी होता आया है , जब दोनों में से एक या दोनों एक –दूसरे से ऐसी उम्मीदें पाल लेते हैं | जिनका पूरा होना मुश्किल है | हालांकि पहले ये  प्रतिशत बहुत कम था | एक बात यह भी है  की पहले संयुक्त परिवारों के दवाब के कारण रिश्ता वेंटिलेटर पर चलता रहता था | दो लोग साथ  जरूर रहते थे पर पास  नहीं |  पर अब पति – पत्नी के अकेले रहने , तलाक   के समाज द्वारा मान्य  होने व् दोनों के आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के कारण इन  अवास्तविक उम्मीदों पर रिश्ते टूटने लगे हैं | जाने कैसे अवास्तविक उम्मीदों से टूटती है रिश्ते की डोर               समस्या को समस्या कह देना किसी समस्या का अंत नहीं है | उसका समाधान खोजना आवश्यक है | जहाँ तक मैं समझती  हूँ की  जिस तरह फिल्मों और टी .वी में “ परफेक्ट रिश्ते को  दिखाया जाता है | उसे देखकर युवा मन अपने जीवन साथी  के लिए आदर्श कल्पनाएँ पाल लेते हैं | जो हकीकत के धरातल पर पूरी होती नहीं दिखती तो मन असंतोष से भर जाता है | पहले आपसी खटपट होती है जो रिश्ते की डोर को कमजोर करती है फिर एक –दूसरे से अलग होकर कोई दूसरा परफेक्ट साथी ढूँढने की चाह उत्पन्न होती है | दुखद है जब दो लोग एक दूसरे का हाथ थाम कर जीवन सफ़र में आगे बढ़ते हैं तो महज इन छोटी – छोटी अवास्तविक उम्मीदों से रिश्ता टूट जाए | भले  ही रिश्ते स्वर्ग में बनते हो पर निभाए धरती पर जाते हैं | और उनको ख़ूबसूरती से निभाना एक कला है | आज मैं यहाँ उन अवास्तविक अपेक्षाओं  पर चर्चा करूँगी  जिनकी वजह से रिश्ते टूट जाते हैं या कमजोर पड़  जाते हैं | वो सदैव  रोमांटिक  ही रहेंगे –                  कोई भी रिश्ता एक दूसरे के प्रति प्रेम  के साथ ही शुरू होता है | एक दूसरे को पसंद करना ही किसी रिश्ते की बुनियाद होती है | जाहिर है शुरू –शुरू में इसका इज़हार भी बहुत होता है | एक दूसरे ने क्या कपडे पहने हैं | कैसा दिख रहा है | कैसे बोल रहा है | इस बात पर साधारणतया ध्यान  भी बहुत जाता है | परन्तु जैसे  –जैसे रिश्ता पुराना पड़ता जाता है | जीवन की और जरूरते  प्राथमिकताओं में आ जाती हैं | इसका अर्थ यह नहीं है की प्रेम कम हुआ है बल्कि अर्थ यह है की अगला व्यक्ति जिम्मेदार है | जो प्रेम के साथ अपनी जिम्मेदारियों को भी निभाना चाहता है | अगर आप अपने साथी से कुछ खास बातें ही एक्स्पेक्ट करते रहेंगे  तो  आपको भी दुःख होगा व् यह साथी को भी उलझन होगी की की उसे हर समय आप को खुश करने के लिए कुछ खास काम करने होंगे | ऐसी स्थिति में वो काम प्रेम नहीं ड्यूटी बन जायेंगे जिससे उनका सारा आनंद  ही खत्म हो जाएगा | बेहतर यही है की रोमांस को केवल बाँहों में बाहें डाल कर फिल्म  देखने , कैंडल लाईट डिनर  करने या महंगे गिफ्ट खरीद कर देने तक ही सीमित नहीं कर दिया जाए | जरूरी है रोमांटिक तरीकों के अलावा छिपे हुए प्रेम को पहचाना जाए जो एक दूसरे का ख्याल रखने , चिंता फिकर करने या हर परिस्तिथि में साथ खड़े होने से आता है | जैसे जैसे कपल प्रेम के  इन छिपे हुए तरीकों को समझना शुरू कर देंगे वैसे वैसे रिश्ता प्रगाढ़ होता जाएगा | वो हमेशा सही ही बात बोलेंगे –            जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे ,                  … Read more

क्या आप भी दूसरों की पर्सनालिटी पर टैग लगाते हैं ?

 रुकिए … रुकिए, आप इसे क्यों पढेंगें | आप की तो आदत है फ़िल्मी , मसाला या गॉसिप पढने की | किसी शोध परक आलेख को भला आप क्यों पढेंगे ? आप सोंच रहे होंगे बिना जाने – पहचाने ये कैसा इलज़ाम है | … घबराइये नहीं , ये तो एक उदाहरण था “पर्सनालिटी टैग” का जिसके बारे में मैं आज विस्तार से बात करने वाली हूँ | अगर आपको लगता है की जाने अनजाने  आप भी ऐसे ही दूसरों की पर्सनालिटी पर टैग लगाते रहते  हैं तो इस लेख को जरा ध्यान से पढ़िए |  हम सब की आदत होती है की किसी की एक , दो बात पसंद नहीं आई तो उसकी पूरी पर्सनालिटी पर ही टैग लगा देते हैं | बॉस ने कुछ कह दिया … अरे वो तो है  ही खडूस , टीचर की  क्लास में पढ़ाते समय दो – तीन  बार जुबान फिसल गयी | हमने टैग लगा दिया उन्हें तो इंग्लिश/हिंदी  बोलना ही नहीं आता | कौन , वही देसाई मैम जिनको इंग्लिश/हिंदी  नहीं आती | भाई पिछले दो साल से रक्षा बंधन पर नहीं आ पाया … टैग लगा दिया वो बेपरवाह है | उसे रिश्तों की फ़िक्र नहीं | ऐसे आये दिन हम हर किसी पर कोई न कोई टैग लगाते रहते हैं | दाग अच्छे हैं पर पर्सनालिटी पर टैग नहीं  आज इस विषय पर बात करते समय जो सबसे अच्छा उदहारण मेरे जेहन में आ रहा है वो है एक विज्ञापन का | जी हाँ ! बहुत समय पहले एक वाशिंग पाउडर का ऐड देखा था | उसमें एक ऑफिस में काम करने वाली लड़की बहुत मेहनती थी | क्योंकि वो ऑफिस का सारा काम टाइम से पहले ही पूरा कर देती थी | लिहाज़ा  वह बॉस की फेवरिट भी थी | जहाँ बॉस सबको छुट्टी देने में आना-कानी करता उसको झट से छुट्टी दे देता | ऑफिस के लोगों को उसकी मेहनत नहीं दिखती | दिखती तो बस बॉस द्वारा की गयी उसकी प्रशंसा व् जब तब दी गयी छुट्टियां | अब लोगों ने उसके ऊपर टैग लगा दिया , बॉस की चमची , जरूर बॉस से कुछ चक्कर चल रहा है , चरित्रहीन | एक दिन वो लड़की ऑफिस नहीं आई | बॉस ने ऑफिस की एक जरूरी फ़ाइल उस के घर तक दे आने व् उससे एक फ़ाइल लाने का काम दूसरी लड़की को दे दिया | दूसरी लड़की बॉस को तो मना  नहीं कर सकी पर सारे रास्ते यही सोंचती रही की बॉस की चमची ने तो मुझे भी अपना नौकर बना दिया | अब मुझे उसके घर फ़ाइल पहुँचाने , लाने जाना पड़ेगा | इन सब ख्यालों के बीच  वो उसके घर पहुंची और कॉल बेल दबाई | थोड़ी देर बीत गयी कोई गेट खोलने नहीं आया | उसने फिर बेल दबाई | फिर भी कोई नहीं आया | अब तो उसे बहुत गुस्सा आने लगा | वाह बॉस की चमची सो रहीं होंगी और मैं नौकर बनी घंटियाँ बजा रही हूँ | गुस्से में उसने दरवाज़ा भडभडाया | दरवाज़ा केवल लुढका था इसलिए खुल गया | वो लड़की बडबडाते हुए अंदर  गयी | सामने के कमरे में  एक औरत व्हील चेयर में बैठी थी | उसने धीमी आवाज़ में कहा ,” आओ बेटी , मैं कह रही थी की दरवाज़ा खुला है पर शायद मेरी आवाज़ तुम तक नहीं पहुंची | मेरी बेटी बता गयी थी की तुम फ़ाइल देने आओगी | ये वाली फ़ाइल लेती जाना | बहुत मेहनत करती है मेरी बेटी | ऑफिस का काम , घर का काम , ऊपर से मेरी बिमारी में डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक की भाग –दौड़ |पर उसकी मेहनत के कारण ही उसके बॉस जब जरूरत पड़ती है उसे छुट्टी दे देते हैं | अब आज ही सुबह चक्कर आ गया | ब्लड टेस्ट करवाया |रिपोर्ट डॉक्टर को दिखाने गयी है | इसलिए तुम्हें आना पड़ा | जो लड़की फ़ाइल देने आई थी | जो उसे अभी तक बॉस की चमची कह कर बुलाये जा रही थी बहुत  लज्जित महसूस करने लगी | अरे , बेचारी इतनी तकलीफ में रह कर भी ऑफिस में हम सब से ज्यादा काम करती है | हम सब तो घर में हुक्म चलाते हैं | उसे तो बीमार आपहिज  माँ की सेवा करनी पड़ती है | अपनी उहापोह में वो लौटने लगी |तभी उसे उस लड़की की माँ का स्वर सुनाई दिया ,” बेटा दरवाज़ा बंद करती जाना | और हां , एक बात और हो सकता है यहाँ आने से पहले तुम भी औरों की तरह मेरी बेटी को गलत समझती होगी | उसे तरह – तरह के नाम देती होगी | पर यहाँ आने के बाद सारी  परिस्थिति देख कर तुम्हारी राय बदली होगी | इसलिए आगे से किसी की  पर टैग लगाने से पहले सोंचना | क्योंकि दाग मिट सकते हैं पर टैग नहीं    कहने को यह एक विज्ञापन था | पर इस विज्ञापन को बनाने वाले ने मानव मन की कमी को व्यापकता से समझा था | की हम अक्सर हर किसी पर टैग लगाते फिरते हैं | ये जाने बिना की पर्सनालिटी पर लगे टैग आसानी से नहीं मिटते | पर्सनालिटी टैग  हमारी प्रतिभा को सीमित कर देते हैं आपको याद होगा की अमिताभ बच्चन ने फिल्म अग्निपथ में अपनी आवाज़ बदली थी | जिस कारण लोगों ने फिल्म को अस्वीकार कर दिया | गोविंदा को सीरियस रोल में लोगों ने अस्वीकार कर दिया | राखी सावंत को आइटम नंबर के अतिरिक्त कोई किसी रूपमें देखना ही नहीं चाहता | एक कलाकार, कलाकार होता है | पर वो अपने ही किसी करेक्टर में इस कदर कैद हो जाता है | की उसके विकास के सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं | यह हर कला के साथ होता है | चाहे साहित्यकार हो , चित्रकार या कोई अन्य कला | साहित्य से संबंध  रखने के कारण मैंने अक्सर देखा है की एक साहित्यकार को आम बातों पर बोलने से लोग खफा हो जाते हैं |क्योंकि वो उसे उसी परिधि में देखना चाहते हैं | स्त्री विमर्श की लेखिकाएं के अन्य विषयों पर लिखे गए लेख पढ़े जाने का आंकड़ा कम है | … Read more

रिश्तों में मिठास घोलते फैमिली फंक्शन

भतीजी की दूसरी वर्षगांठ पर अपने मायके बलिया जाने की तैयारी करते हुए पिछले वर्ष के स्मृति वन में खग मन विचरण रहा है ! पिछले वर्ष तीन दिनों के अंदर तीन जगह (  बलिया, जबलपुर, तथा हल्द्वानी ) आने का न्योता मिला था ! तीनों में किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता था! 21नवम्बर को बलिया  ( मायके ) में भतीजी का पहला जन्मदिन, 23, 24 नवम्बर जबलपुर में चचेरे देवर के बेटे का विवाह और तिलक, और 24, 25 नवम्बर को मेरे फुफेरे भाई के बेटे ( भतीजे ) का तिलक और विवाह !  काफी माथापच्ची तथा परिजनों के सुझावों के बाद हम निर्णय ले पाये कि कहाँ कैसे जाना है!  बलिया तो मात्र तीन चार घंटे का रास्ता है इसलिए वहाँ निजी वाहन से ही हम 21 नवम्बर के सुबह ही चलकर पहुंच गये ! चुकीं भतीजी का पहला जन्मदिन था तो बहुत से लोगों को आमन्त्रित किया गया था! सभी रिश्तेदार तो आये ही थे गाँव से गोतिया के चाचा चाची भी आये थे! उन लोगों से मिलकर काफी अच्छा लग रहा था क्योंकि कभी कोई चाची अपने पास बुला कर बात करतीं तो कभी कोई , ऐसा लग रहा था मानो मैं पुनः बचपन में लौट आई हूँ!  एक चाची तो बहुत प्रेम से अपने पास बुला कर कहने लगीं.. ऐ रीना अब बेटा के बियाह कर ! मैंने कहा हाँ चाची करूंगी अभी बेटा शादी के लिए तैयार नहीं है तो सोची कि कुछ टाइम दे ही दूँ! तो चाची समझाते हुए कहने लगीं रीना तू पागल हऊ, कवनो लइका लइकी अपने से बियाह करे के कहेला?  अब तू क द पतोहिया तोहरा संगे रही नू ( तुम बुद्धू हो, कोई लड़का लड़की खुद शादी करने को कहता है क्या..? शादी कर दोगी तो बहु तुम्हारे साथ रहेगी न..?)  चाची की ये बात सुनकर तो मुझे हँसी भी आने लगी कि जब बेटा ही बाहर रहता है तो  बहु कैसे मेरे साथ रह सकती है, लेकिन उनकी बातों को मैं हाँ में हाँ मिलाकर सुन रही थी और मजे ले रही थी !  खैर यात्रा का पहला पड़ाव जन्मदिन बहुत ही अच्छी तरह से सम्पन्न हुआ और मैं अपने साथ सुखद स्मृतियाँ लिये 22 नवम्बर को सुबह – सुबह ही पटना के लिए चल दी!  फिर 22 नवम्बर रात के ग्यारह बजे से दूसरी यात्रा जबलपुर के लिए ट्रेन से रवाना हुए हम और 23 नवम्बर को सुबह के करीब एक बजे पहुंचे!  तिलक शाम सात बजे से था ! बात ससुराल की थी इसलिए हम पाँच बजे ही तैयार वैयार होकर पहुंच गये विवाह स्थल पर ! वहाँ पहुंचते ही बड़े, बुजुर्गों तथा बच्चों के द्वारा स्नेह और अपनापन से जो स्वागत सत्कार हुआ उसका वर्णन शब्दों में कर पाना थोड़ा कठिन लग रहा है बस इतना ही कह सकती हूँ कि वहाँ मायके से भी अधिक अच्छा लग रहा था!  जैसे ही घर के अंदर पहुंच कर ड्राइंग रूम में सभी बड़ों को प्रणाम करके सोफे पर बैठी आशिर्वाद की झड़ी लग गई थी जिसे समेटने के लिए आँचल छोटा पड़ रहा था!  अभी चाय खत्म भी नहीं हुआ था कि एक चचिया सास आकर ए दुलहिन तबियत ठीक बा नू.. मैंने कहा हाँ…. तो बोलीं तनी ओठग्ह रह ( थोड़ा लेट लो ) मैने कहा नहीं नहीं बिल्कुल ठीक हूँ और मन में सोच रही थी कि ठीक न भी होती तो क्या तैयार होकर लेटने जाती.. अन्दर अन्दर थोड़ी हँसी भी आ रही थी..! तभी फिर से पाँच मिनट बाद आकर उसी बात की पुनरावृत्ति.. ए दुलहिन तनी ओठग्ह रह.. और फिर मैं मना करती रही…. यह ओठग्ह रह वाला पुनरावृति तो मैं जब तक थी हर पाँच दस मिनट बाद होता रहता था..यह कहकर कि तोहार ससुर कहले बाड़े कि किरन के तबियत ठीक ना रहेला तनी देखत रहिह (  किरण की तबीयत ठीक नहीं रहती है थोड़ा देखते रहना ) बस इतना ही तक नहीं  उस कार्यक्रम में मैं जहाँ जहाँ जाती वो चचिया सास जी बिल्कुल साये की तरह मेरे साथ होती थीं! और हर थोड़े अंतराल के बाद ओठग्ह रह और पानी चाय के लिए पूछने का क्रम चलता रहता था !  तिलक के बाद घर के देवी देवताओं की पूजा, हल्दी मटकोड़ आदि लेकर रात बारह बजे तक कार्यक्रम चला !  फिर हम सुबह जनेऊ में सम्मिलित होकर उन लोगों से बारात में सम्मिलित न हो पाने की विवशता बताकर क्षमा माँगते हुए  एयरपोर्ट के लिए निकल तो गये क्यों कि हल्द्वानी जाने के लिए दिल्ली पहुंचकर ही ट्रेन पकड़ना था लेकिन मन यहीं रह गया था! रास्ते भर वहाँ का अपनापन और प्रेम की बातें करके आनन्दित होते रहे हम!  हल्द्वानी भी पहुंचे!इतनी व्यस्ता और मना करने के बाद भी फुफेरे भैया हमें खुद स्टेशन से लेने आये थे ! यहाँ तो और भी इसलिए अच्छा लग रहा था कि बहुत से रिश्तेदारों से तीस बत्तीस वर्ष बाद मिल रही थी मैं इसलिए बात खत्म ही नहीं हो पा रही थी, सबसे बड़ी बात कि इतने अंतराल के बाद भी अपनापन और स्नेह में कोई कमी नहीं आई थी बल्कि और भी ज्यादा बढ़ गई थी!  मैं जब पहुंची थी तो मटकोड़ का कार्यक्रम चल रहा था!मैं जाकर भाभी का जब पैर छुई तो व्यस्त तो थीं ही बस यूँ ही खुश रहो बोल दीं! लेकिन जब ध्यान से देखीं तो बोलीं अरे रीना और आकर मुझसे लिपट गईं ! इसके अलावा भी बहुत कुछ है बताने को फिर कभी लिखूंगी !  सच में खून अपनी तरफ़ खींचता ही है चाहे कितनी ही दूरी क्यों न हो!  इतना जरूर कहूंगी कि अपने फैमिली फंक्शन को मिस नहीं करनी चाहिए ! किरण सिंह  फोटो क्रेडिट –विकिपीडिया यह भी पढ़ें ……… कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार गुरु कीजे जान कर हे ईश्वर क्या वो तुम थे 13 फरवरी 2006 आपको आपको  लेख “रिश्तों में मिठास घोलते  फैमिली फंक्शन “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

आखिर क्यों 100 % के टेंशन में पिस रहे है बच्चे

अक्सर ही स्त्रियों की  समस्याओं को लेकर परिचर्चा होती रहती है , आये दिन स्त्री विमर्श देखने सुनने तथा पढ़ने को मिल जाता है लेकिन बच्चे जाने अनजाने ही सही अपने अभिभावकों द्वारा सताये जाते हैं इस तरफ़ कम ही लोगों को ध्यान जा पाता है! प्रायः सभी के दिमाग में यह बात बैठा हुआ है कि माता – पिता तो बच्चों के सबसे शुभचिंतक होते हैं इसलिए वे जो भी करते हैं अपने बच्चों की भलाई के लिए ही करते हैं इसलिए इस गम्भीर समस्या पर गम्भीरता से न तो समाज चिंतन करता है और न ही सामाजिक संगठन ! कहाँ से आ रहा है 100 % के टेंशन  अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए माता पिता अपने बच्चों की आँखों में अपने सपने पालने को विवश कर देते हैं परिणामस्वरूप बच्चों का बालमन अपनी सहज प्रवृत्तियाँ खोता जा रहा है क्योंकि उन्हें भी तो टार्गेट पूरा करना होता है अपने अभिभावकों के सपनों का!क्लास में फर्स्ट आना है, 100%मार्क्स आना चाहिए, 100%अटेंडेंस का अवार्ड मिलना चाहिए, उसके बाद एक्स्ट्रा एक्टिविटीज अलग से मानों बच्चे ” बच्चे नहीं कम्प्यूटर हो गये हों!  जब मैं स्वयं 100% फेर में पड़ी  मैं आज भी खुद अपने बेटे के साथ की गई ज्यादती को याद करके बहुत दुखी हो जाती हूँ ! मेरा छोटा बेटा कुमार आर्षी आनंद दूसरी कक्षा में पढ़ता था खेल खेल में उसका हाथ फ्रैक्चर कर गया था , संयोग से उस दिन शनिवार था तो अगले दिन रविवार को भी छुट्टी मिल गई! बेटा हाथ में प्लास्टर चढ़ाये डेढ़ महीने तक लगातार स्कूल गया! वैसे स्कूल के स्टूडेंट्स और बच्चों का बहुत सपोर्ट मिलता था! तब मैं इतना ही कर पाई थी कि बेटे को स्कूल बस से न भेजकर खुद गाड़ी से ले आने ले जाने का काम करती थी ! स्कूल के बच्चों की सहयोगात्मक भावना से मैं अभिभूत थी क्योंकि तब बेटे के बैग उठाने को लेकर बच्चों में आपसी कम्पटीशन होता था! एक दिन तो जब मैं बेटे को स्कूल से लाने गई तो एक मासूम सी बच्ची मुझसे आकर बोली आंटी आंटी देखिये मैं आर्षी का बैग लाना चाहती थी लेकिन शाम्भवी मुझे नहीं उठाने दी रोज खुद ही उठाती है! मैं तब भाव विह्वल हो गई थी और उस बच्ची को प्यार से गले लगाते हुए समझाई थी! एनुअल फंक्शन हुआ, मेरे बेटे ने क्लास में 98. 9%नम्बर लाकर क्लास में सेकेंड रैंक और 100%अटेंडेंस का अवार्ड भी प्राप्त किया! तब मेरे आँखों से आँसू छलक पड़े थे और गर्व तो हुआ ही था! लेकिन आज मुझे वह सब महज एक बेवकूफी लगता है जो मैंने अन्जाने में ही सही की थी! आज सोचती हूँ ऐसे में मुझे बच्चे को स्कूल नहीं भेजना चाहिए था! बच्चे की 100%अटेंडेंस और  माँ का टेंशन  मुझसे भी अधिक तो मेरी एक पड़ोसन सहेली बच्चों के पढ़ाई को लेकर बहुत गम्भीर रहती थीं उनका बेटा हमेशा ही क्लास में फर्स्ट करता था और हमेशा ही उसे 100%अटेंडेंस का अवार्ड मिलता था! एक दिन किसी कारण वश रोड जाम हो गया था तो वे बच्चों को रास्ते से ही वापिस लेकर आ गयीं! अचानक वो दोपहर में मेरे घर काफी परेशान हालत में आयीं! पहले तो उन्हें देखकर मैं डर गयी क्यों कि उनके आँखों से आँसू भी निकल रहा था फिर मैं उन्हें बैठाकर उनकी बातै इत्मिनान से सुना  तो पता चला कि उस दिन स्कूल खुला था और वे इस बात को लेकर रो – रो कर कह रहीं थीं कि बताइये जी हम बच्चे को बुखार में भी स्कूल भेजते थे बताइये जब रोड पर पथराव हो रहा था तो आज स्कूल नहीं न खोलना चाहिए था! उनका रोना और परेशान होना देखकर मेरा छोटा बेटा तो उन्हें समझा ही रहा था साथ में बड़ा बेटा भी समझाते हुए कहा आंटी आप इतनी छोटी सी बात के लिए क्यों परेशान हैं ” 100%अटेंडेंस का सर्टिफिकेट ही चाहिए न तो मैं आपको कम्प्यूटर से निकालकर अभी दे देता हूँ ! उनकी परेशानी देखकर मैं स्कूल में फोन करके भी गुस्साई कि जब रोड जाम था तो आज स्कूल क्यों खुला रहा, तो स्कूल वालों ने बताया कि कुछ बच्चे पथराव से पहले ही स्कूल आ चूके थे इसलिए स्कूल खुला रहा लेकिन आज का अटेंडेंस काउंट नहीं होगा , यह सुनकर मेरी सहेली के जान में जान आई!                                      कहने का मतलब है कि हमें बच्चों के एजुकेशन को लेकर गम्भीर होना चाहिए पर इतना भी नहीं! अति सर्वत्र वर्जयते! दुनिया जहान के सभी बच्चे फले , फूले, खुश रहें, अपने लक्ष्य को प्राप्त करें, उनके सपने साकार हों यही शुभकामना है | ©किरण सिंह  यह भी पढ़ें …  क्या सभी टीचर्स को चाइल्ड साइकोलोजी की समझ है ख़राब रिजल्ट आने पर बच्चों कोकैसे रखे पॉजिटिव बाल दिवस :समझनी होंगी बच्चों की समस्याएं माता – पिता के झगडे और बाल मन आपको आपको  लेख “ आखिर क्यों 100 % के टेंशन में  पिस रहे है बच्चे  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    keywords: parents, children issues, exam, tension , 100%expectation 

माता-पिता के झगडे और बच्चे

नन्ही श्रेया अपने बिल्डिंग में नीचे के फ्लोर में रहने वाले श्रीवास्तव जी के घर जाती है और उनका हाथ पकड़ कर कहती है “अंकल मेरे घर में चलो , लाइट जला दो ,पंखा चला दो ,गर्मी लग रही है | श्रीवास्तव जी श्रेया को समझाते हुए कहते हैं “बेटे मम्मी को कहो वो चला देंगी ,जाओ घर जाओ | नहीं अंकल मम्मी नहीं चलाएंगी | पापा –मम्मी में बिजली के बिल को लेकर झगडा चल रहा है | पापा मम्मी को डांट  रहे हैं और मम्मी कह रही हैं ,ठीक है अब पंखा नहीं चलाऊँगी ,कभी नहीं चलाऊँगी ,मम्मी रो रही हैं | आप चलो न अंकल ,प्लीज चलो ,मुझे गर्मी लग रही है | पंखा चला दो न चल के ,प्लीज अंकल |      पी टी एम में निधि कक्षा अध्यापिका के डांटने पर फफक –फफक कर रो पड़ी | मैंम मेरे घर से कोई नहीं आएगा | न् पापा  न मम्मी | पापा तो ऑफिस गए हैं और मम्मी की तबियत खराब है ,कल पापा ने मारा था | हाथ पैर में चोट लग गयी है | मैं रोज –रोज के झगड़ों की वजह से पढ़ नहीं पाती मैम |        ५ साल के  अतुल का पिछले ६ महीने से ईलाज करने वाले डॉ देसाई उसके न बोल पाने की वजह कोई शारीरिक न पाते हुए उसे मनोवैज्ञानिक को दिखाने की सलाह देते हैं | मनोवैज्ञानिक एक लम्बी परिचर्चा  के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अतुल के न बोल पाने की वजह उसके माता –पिता में होने वाले अतिशय झगडे हैं | दोनों खुद चिल्लाते हैं और एक दूसरे को चुप रहने की ताकीद देते हैं | अतुल अपनी बाल बुद्धि से चुप रहने  को ही सही समझता है और बोलने की प्रक्रिया में आगे बढ़ने से इनकार कर देता है | बच्चो पर असर डालते हैं माता -पिता के झगडे              जैसा की उदाहरणों से स्पष्ट है जब पति –पत्नी लड़ते हैं तो उसका बहुत ही प्रतिकूल असर बच्चों पर पड़ता है | लड़ते समय उन्हें ये भी ख़याल नहीं रहता कि आस –पास कौन है | वे बच्चों के सामने निसंकोच एक दूसरे के चाल –चरित्र पर लांछन  लगाते हैं| एक दूसरे के माता –पिता व् परिवार वालों को बुरा –भला कहते हैं | भले ही उनका मकसद लड़ाई जीत कर अपना ईगो सैटिसफेकशन हो |पर उन्हें इस बात का ख्याल ही नहीं रहता कि जो मासूम बच्चे जो उन्हें अपना आदर्श मानकर हर चीज उन्हीं से सीखते हैं उन पर कितना विपरीत असर पड़ेगा | कई बार रोज  –रोज के झगड़ों को देखकर बच्चे दब्बू बन जाते हैं तो कई बार उनमें विद्रोह ही भावना  आ जाती है | किशोरबच्चो में अपराधिक मानसिकता पनपने का एक कारण यह भी हो सकता है | अक्सर  माता –पिता तो लड़ –झगड़कर सुलह कर लेते हैं पर जो नकारात्मक असर बच्चों पर पड़  जाता है उसको बाद में ठीक करना बहुत मुश्किल हो जाता है | माता-पिता के झगडे और बच्चे: मनोवैज्ञानिकों की राय     प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक सुशील जोशी कहते हैं कि “ पति –पति में  झगडा होना अस्वाभाविक नहीं है | कहा भी गया है जहाँ चार बर्तन होंगे वहां खट्केंगे  ही | दो भिन्न परिवेश में पले  लोगों में अलग राय होना आम बात है | इससे बच्चों को फर्क नहीं पड़ता , फर्क पड़ता है बात रखने के तरीके  से | आये दिन जोर जोर से चीख चिल्ला कर करे गए झगडे बच्चों पर बहुत ही विपरीत असर डालते हैं | यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अगर झगड़ों के बाद माता –पिता में अच्छे रिश्ते दिखाई देते हैं तो बच्चे भी झगड़ों  को नजर अंदाज कर  देते हैं | उन्हें लगता है की उनके माता –पिता में प्रेम तो है  | परन्तु अगर बच्चों को लगता है कि माता-पिता में प्रेम नहीं  है व् साथ रहते हुए भी उनमें दुश्मन हैं  तो बच्चे सहम जाते हैं | उन्हें भय उत्पन्न हो जाता है कि कहीं वो लड़ -झगड़ कर अलग न हो जाएँ और उन्हें वो प्यार मिलना बंद न हो जाए  अपने माता – पिता से मिल रहा है |   वैज्ञानिकों की माने  तो इस मानसिक भय के शारीरिक लक्षण अक्सर बच्चों में प्रकट होने लगते हैं जैसे दिल की धड़कन बढ़ जाना, पेटमें दर्द होना, बेहोशी आना , व् विकास दर में कमी आदि।एक प्रचलित विचारधारा तो यह भी है कि अधिक गंभीरकिस्म की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं मूल रूप में मनोवैज्ञानिक आधार लिये हुये होती हैं।  मनोवैज्ञानिक डॉ. ऐनी बैनिग के अनुसार बच्चों के लिए सबसे खराब वो झगडा होता है जहाँ उनको को ऐसा लगने लगता है की चाहे अनचाहे वो दोषी है | ऐसा तब होता है जब माता – पिता में से एक दबंग व् दूसरा दब्बू प्रकृति का होता है | बच्चे को बार – बार यह अहसास होता है की माता या पिता उसकी वजह से इस ख़राब बंधन में जकड़े हुए हैं |  वैज्ञानिक विश्लेषण से पता चलता है कि हमारे शरीर में  सिम्पैथीटिक व् पैरासिम्पैथीटिक नर्वस सिस्टम होता  है | किसी भावी विपत्ति के समय यही सिस्टम हमारे खून में  एड्रीनेलीन नामक ग्लैंड से एड्रीनेलिन हरमों निकाल कर शरीर को खतरे के लिए तैयार करता है | जिससे दिलकी धड़कन बढ़ जाती है , पाचन क्रिया , एनेर्जी रिलीज सब बढ़ जाती है | खतरे के लिए तो ये एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है पर जब रोज – रोज के झगड़ों से बच्चे भावनात्मक खतरा महसूस करते हैं तो यह प्रक्रिया उन्हें नुक्सान पहुंचाती है व् शारीरिक व् मानसिक विकास को कम करती है |  माता-पिता झगड़ते समय बच्चो के विषय में सोंचे             विवाह भले ही जीवन भर का रिश्ता है पर इसमें अप और डाउन होना बिलकुल स्वाभाविक है | विवाहित जोड़ों का आपस में झगड़ना कोई असमान्य प्रक्रिया नहीं है | असमान्य यह है की वो झगडा करते समय अपने बच्चों को भूल जाते हैं | उस समय उनका धयान पूरी तरह से तर्क –वितर्क करने और एक दूसरे को नीचा दिखाने में होता है |जब भी आप अपने पति या पत्नी से झगडा करने को तत्पर हो यह हमेशा धयान रखे कि आप के बच्चे यह ड्रामा देख रहे हैं | जो उन्हें भानात्मक रूप से कमजोर बना रहा है | इसका मतलब यह नहीं है की आप माता –पिता हैं तो आप को झगडा करने का  या अपनी बात रखने का अधिकार नहीं है | पर आप को … Read more

चलो मेरी गुइंयाँ – रिश्ता सहेलियों का

चलो मेरी गुइंया  चलो लाल फीता बांध  और सफेद घेर वाली फ्रॉक पहन कर  फिर से चलें  उसी मेले में  जहाँ जाते थे बचपन में  जहाँ खाते थे कंपट की खट्टी – मीठी गोलियां  जहाँ उतरती थी परियाँ  धरती पर  और हम सपनों के झूलों में बैठ  करते थे आसमान से बातें  सुनो ,  चुपके से आना  मत बताना किसी से  डांटेंगी अम्माँ , बाबूजी  फिर भी वो  कंपट , वो परियां , वो सपनों के झूले  संभव हैं  आज भी  गर तुम साथ हो तो … चलो मेरी गुइंयाँ-खास शब्द की मिठास  गुइंया बहुत ही प्यारा शब्द है | यह उस रिश्ते की मिठास को बताता है जो बचपन की दो सहेलियों का होता है | अब जरा समय को पीछे लेजाते हुए याद करिए अपने बचपन के कुछ खूबसूरत पल | वो कागज़ की नाव को बरसात के पानी में तैराना , वो मिटटी के बर्तनों में खाना बनाना ,वो गुड़ियाँ की शादी पर तैयार होना , और गुड़ियां की विदाई पर फूट –फूट कर रोना , स्कूल का  पाठ याद करना, एग्जाम में उत्तर न आने पर ईधर उधर ताक  –झांक करना ,पिता की डांट से बचने के लिए मिल कर झूठे बहाने बनाना | इन सब यादों में एक शख्स सदा आपके साथ होता है और वो है आपकी गुइंया यानि आपके बचपन की सहेली |   अगर आपके पास जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली सहेली  है तो जिंदगी आसान हो जाती है और न हो, तो सफर तय करना और मुश्किलों का हल अकेले ढूंढना  बहुत मुश्किल हो जाता है ।  ये सच है की लड़कियों की शादी  के बाद मायका व् बचपन  की सहेलियां अक्सर पीछे छूट जाती हैं | सब अलग – अलग अपने – अपने ससुराल में रम जाती हैं |उतना मिलना नहीं हो पाता |फिर भी जब मिलते हैं तो ऐसा लगता है कि जैसे बचपन से मिल लिया हो | समय कितना भी आगे बढ़ जाए कोई दूरी नज़र ही नहीं आती | क्योंकि ये दोस्ती उस समय की होती है जब कोई परदे नहीं थे | ऐसी ही एक सहेली मुझे याद आती है जो २० साल बाद मुझे मिली | हम अचानक एक रेलवे स्टेशन पर मिले | फिर जो गप्पे लगी तो लगा ही नहीं हमारे बीच २० साल का फासला है | ये जानने  के बाद हम अब एक ही शहर में हैं | हमने फिर से उस रिश्ते को सहेज लिया |  लेकिन कुछ ऐसे भी खुश किस्मत लोग होते हैं जिनकी सहेलियों का साथ कभी छूटता ही नहीं | दोनों उसी शहर में रहती हैं | जहाँ दोनों एक दूसरे के हर सुख – दुखमें साथ देती हैं | अगर आप की भी कोई सहेली अब तक आप के साथ है | तो आप खुशकिस्मत हैं |कई बार खून के रिश्ते भी उतना साथ नाहीं देते जितना सहेलियां देती हैं | राधा और मीता ऐसी ही सहेलियां थी | बचपन से ४० की उम्र तक साथ – साथ | पर फिर उसके बाद उनकी दोस्ती में ऐसी दरार आई की वो खाई में ही बदल गयी | दरसल रिश्ता सहेलियों का या कोई और उसे सींचने की जरूरत होती है | आज मैं उन्हीं नुस्खों की बात कर रही हूँ जिन्हें अपना कर आप अपनी सहेली के साथ वैसा ही बचपन जैसा प्यार भरा रिश्ता बनाए रह सकती हैं |     खास सहेली को ख़ास  होने का कराये अहसास                 अक्सर हम सोंचते हैं की जो हमारी खास सहेली है वो तो हैं ही | बाकी सब से ही वैसा ही रिश्ता बनाने की कोशिश करें | क्योंकि दोस्त जितने  ज्यादा हो उतना ही अच्छा | बस यही हमसे चूक हो जाती है | कहा गया है जो सबका दोस्त होता है वो किसी का दोस्त नहीं होता | बात सुनने में विचित्र लग सकती है पर है सही | पक्की सहेली का अर्थ है की आप उससे कोई राज न रखे , न वो आपसे कोई राज़ रखे | ऐसा व्यक्ति कोई एक या दो ही हो सकते हैं | जिनके ज्यादा दोस्त घनिष्ठ  होते हैं  वो दूसरों का राज रख नहीं पाते | जिस कारण उन्हें कोई दिल की बात बताता भी नहीं |कई बार आपकी खास सहेली को लगता है किआप उसके साथ जितना लगाव रखते हैं उतना ही सबके साथ रखते हैं तो वो खुद आपसे दूर हो जायेगी | याद रखिये घनिष्ठ रिश्ते खास होने का अहसास दिलाने पर ही टिकते हैं | सहेली के रिश्ते में बराबरी कैसी                      सहेली का रिश्ता पूरी जिंदगी बरक़रार रखने के लिए जरूरी है की बराबरी नहीं मिलानी चाहिए |नहीं तो उस रिश्ते में से बचपन की मिठास चली जायेगी |  मैं उसके घर दो बार हो आई अब वोपहले आएगी तभी मैं जाउंगी | या मैंने उसे खाना खिलाया उसने केवल चाय नाश्ता करा कर भेज दिया | अब ये तुलना करनी शुरू कर दी तो बहुत मुश्कल हो जायेगी |हो सकता है आप की सहेली की परिस्थितियां कहीं आने – जाने के अनुकूल न हों या आप एकल परिवार में हों वो संयुक्त परिवार में | ऐसे में वो सबकी अनुमति ले कर ही घर से निकल पाएगी | अब अगर आप बराबरी मिलायेंगी तो रिश्ता चलना मुश्किल है | आप के पास समय है , आप मिलना चाहती हैं तो बेधड़क जाइए | किसने रोका है | खाने की बात पर भी सोंच लीजिये | हर किसी को खाना बनाने का शौक नहीं होता | उसे जो शौक है वो चीज या काम वो आपके लिए जरूर करेगी | इस बात को चाहे तो आजमा कर देख लीजिये | सहेली की भावनाओं का करिए सम्मान                      सहेलियों का रिश्ता खून का रिश्ता नहीं होता | वो परस्पर प्यार और सम्मान पर ही टिका होता है | इसलिए जरूरी है की भावनाओं का सम्मान करें | अगर उसके जीवन में कोई दुःख चल रहा है तो उसकी इच्छा से ही उस विषय में बात करें | कई बार आप फटाफट उस बारेमें बात करना चाह रही होंगी | पर उसे उस बारे में बात करने में संकोच हो रहा होगा | या वो थोडा हीलिंग टाइम चाहती होगी … Read more

किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता :जिम्मेदार कौन ?

किशोरावस्था यानि उम्र का वो पड़ाव जिसमें उम्र बचपन व् युवास्था के बीच थोडा सा विश्राम लेती है | या यूँ कहें  न बचपन की मासूमियत है न बड़ों की सी समझ और ऊपर से ढेर सारे शरीरिक व् मानसिक और हार्मोनल परिवर्तनों का दवाब | शुरू से ही किशोरावाथा “ हैंडल विथ केयर “की उम्र मानी जाती रही है | और यथासंभव परिवार व् समाज इसका प्रयास भी करता रहा है | और किशोर अपनी इस उम्र की तमाम परेशानियों से उलझते सुलझते हँसी – ख़ुशी  युवावस्था में पहुँच ही जाते हैं | पर  निर्भया रेप कांड के बाद मासूम प्रद्युम्न की हत्या की जांच की जो खबरे आ रही हैं | वो चौकाने वाली हैं | अगर अपराधी मानसिकता की बात करें तो किशोर बच्चे अब बच्चे नहीं रहे | चोरी , बालात्कार और हत्या जिसे संगीन अपराधों को अंजाम देने वाले ये किशोर किसी खूंखार अपराधी से कम नहीं है | आखिर बच्चों में इतनी अपराधिक प्रवत्ति क्यों पनप रही है | हम हर बार पढाई का प्रेशर कह कर  समस्या के मूल को नज़रअंदाज नहीं कर सकते | बच्चों में सहनशक्ति की कमी होती जा रही है और गुस्सा बढ़ता जा रहा है व् अपराधिक प्रवत्तियां जन्म ले रही हैं |हमें कारण तलाशने होंगे | किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता: संयुक्त परिवारों का विघटन  है जिम्मेदार *नौकरी की तलाश में पिछली पीढ़ी अपना गाँव ,शहर छोड़ कर दूसरे शहरों में बस गयी | संयुक्त परिवार टूट गए | साथ ही छूट गया दादी नानी का प्यार भरा अहसास और सुरक्षा का भाव | क्रेच में पले  हुए बच्चे जो स्वयं प्यार के लिए तरसते हैं उन में मानवता के लिए प्यार की भावना  आना मुश्किल है | *दादी नानी की कहानियों की जगह हिंसात्मक वीडियो गेम जहाँ गोली चलाना , मार डालना खेल का हिस्सा है | उसे खेलते हुए बच्चों में अपराधिक मानसिकता की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है | उन्हें मरना या मारना कोई बड़ी बात नहीं लगती | आंकड़ों की बात की जाए तो किशोर आत्महत्या भी बढ़ रही है | जरा सी बात में अपनी जिंदगी भी  समाप्त कर देने में वो परहेज नहीं करते |कई उदहारण तो ऐसे आये कि माँ ने जरा सा डांट दिया या कुछ कह दिया तो बच्चे ने आत्महत्या कर ली | या फिर माँ ने टी .वी देखने को मन किया तो बच्चे ने माँ की हत्या कर दी | दोनों ही स्थितियों में मरने मारने की कोई प्री प्लानिंग नहीं थी | कहीं न कहीं ये हिंसात्मक खेल बच्चों में हिंसा की और प्रेरित कर रहे हैं | बहुत पहले काल ऑफ़ ड्यूटी वीडियो गेम देख कर एक नवयुवा ने कई बच्चों की हत्या कर दी थी | आजकल इसका ताज़ा उदहारण “ब्लू व्हेल “ गेम है | दुखद है की इसे  खेल कर बच्चे न सिर्फ अपने शरीर में चाकू से गोद कर व्हेल बना रहे हैं बल्कि जीवन भी समाप्त कर रहे हैं |   एकल  परिवारों में जहाँ हर बात में बच्चों की राय ली जाती है |कुछ हद तक यह बच्चों को निर्णय लेना सिखाने व् परिवार में उनकी राय को अहमियत देने के लिए जरूरी है | पर अति हर जह बुरी होती है | कौन सा सोफे लेना है , बच्चों से पूँछो , चादर का रंग बच्चो से पूँछ कर , घर का नक्शा बच्चों से पूँछ कर | जब सब कुछ बच्चों से पूँछ कर हो रहा है तो बच्चे अपने को  बड़ों के बराबर समझने लगते हैं | लिहाज़ा उनसे कही गयी हर बात उन्हें अपना अपमान लगती है |उन्हें राय लेने नहीं देने की आदत पड़  चुकी होतीहै | जब उन्हें कह जाता है की बेटा गुस्सा न करों , अच्छे से पढाई करो या दोस्तों से झगडा न करों तो वो सुनने वाले नहीं हैं | बल्कि १० तर्क दे कर माता – पिता को ही चुप करा  देंगे |  किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता : पढाई का प्रेशर है जिम्मेदार * आज बच्चे के हर दोष के लिए पढाई का प्रेशर कह कर उसे दोष मुक्त कर दिया जाता है | बच्चों पर पढाई का प्रेशर हमी ने डाला है | खासकर छोटे बच्चों में | जहाँ हम इसी तुलना में लगे रहते हैं की किसके बच्चे ने A फॉर एप्पल के आलावा A फॉर ant पहले सीख लिया | हमने इसे नाक का प्रश्न बनाया है |आज छोटे बच्चों की माएं स्वयं सुपर मॉम और अपने बच्चे को सुपर चाइल्ड बनाने की जुगत में लगी रहती हैं |इस कारण वो स्वयं भी तनाव में रहती हैं व् बच्चों पर भी तनाव डालती हैं | ये तनाव बच्चों की सांसों में इस कदर घुल मिल जाता है की उनके जीवन का एक हिस्सा बन जाता है |जब तक परिवार को बात समझ में आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | अब तक तनाव रिफ्लेक्स एक्शन में स्थापित हो गया होता है | जिसे वहां से निकाल पाना  असंभव है |  पढ़िए -बदलता बचपन * रही बात किशोर बच्चों की तो किशोर बच्चों में पढाई का प्रेशर हमेशा से रहा है | यही वो उम्र होती है जब प्रतियोगी परीक्षाएं दे कर करियर चुना जाता है |असफलताएं पहले भी होती थी | पर अब असफलताएं सहन नहीं होती | न बच्चों को न माँ – बाप को |इसीलिए इस प्रेशर का  मीडिया हाइप बना कर हम ही अपने बच्चों के सामने प्रेशर , प्रेशर , प्रेशर का मंत्र  जप कर कहीं न कहीं उनके दिमाग में यह बात बिठा दी जाती है की उनके साथ कुछ गलत हो रहा है |इस कारण किशोर बच्चे अक्सर बौखलाए से रहते हैं | क्रोध उनको अपराध की ओर प्रेरित करता है | उनको माँ – बाप ,समाज दुश्मन से नज़र आते हैं |          इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिन घरों में किशोर बच्चे है उनके माता – पिता उनके इस अतिशय क्रोध से डरे रहते हैं | बच्चों के माता – पिता यह कहते है की हम तो उससे बात भी नहीं कर पाते पता नहीं कब नाराज़ हो जाए | कहीं न कहीं ये … Read more