पिता…..जुलाहा……रखवाला

पिता … इस शब्द से ही मन में गहरा प्रेम उमड़ता है | पिता एक आसमान है जो हर तकलीफ से संतान  रक्षा करता है इसीलिये तो उसे रखवाला कहा गया है | पिता एक जुलाहा भी है जो समय की ताने -बाने पर संतान का भविष्य बुनता है | पिता के न जाने कितने रूपों को समेटे हुए है कविता … पिता…..जुलाहा……रखवाला खिल गयी है मुस्कुराहट, उसके चेहरे पर आया है नूर निहार,निहार चूमे माथा,लहर खुशी की छाया है सुरूर गर्व से फूल गया है सीना ,बना है वह आज पिता अंश को अपने गोद में लेकर, फूला न समाया , जगजीता सपने नये लगा है संजोने, पाया है सुख स्वर्ग समान तिनका, तिनका जोड़–जोड़, करने लगा नीड निर्माण बीमा, बचत, बैंकों  में खाते, योजना हुई नयी तैयार खेल-खिलोने,घोड़ा-गाड़ी, खुशियाँ मिली उसे अपार सांझ ढले जब काम से आता ,लंबे-लंबे डग भरता ममता, प्यार हृदय में रखता ,जगजाहिर नहीं करता कंधों पर बैठा वो खेलता, कभी घोड़ा वह बन जाता हँसी, ठिठोली , रूठ ,मना कर, असीम सुख वह पाता ढलने लगी है उम्र भी अब तो , अंश भी होने लगाजवां पैरों के छाले नहीं देखता ,लेता चैन नहीं ओसान बच्चों की खुशियों की खातिर, हर तकलीफ़ रहा है झेल जूतों का अपने छेद छुपाता , मोटर गाड़ी का तालमेल अनंत प्यार का सागर है ये ,परिंदे का खुला आसमान अडिग हिमालय खड़ा हो जैसे ,पिघले जैसे बर्फ समान बड़ा अनोखा  है ये जुलाहा , बुन रहा  तागों को जोड़ सूत से नाते बाँध रहा ये , लगा रहा दुनिया से होड़ होने लगी है हालत जर-जर, हिम्मत फिर भी रहा न हार बेटी की शादी, बेटे का काम ,करने लग रहा जुगाड़ दर्द से कंधे लगे हैं झुकने ,रीढ़ भी देने लगी जवाब खुश है रहता अपनी धुन में , देख संतान को कामयाब बेटी अब हो गयी पराई , बेटा भी परदेस गया बाट जोहता रहता हर दिन ,आएगा संदेस नया खाली हाथ अब जेब भी खाली , फिर भी सबसे मतवाला बन गया है धन्ना सेठ , ये जुलाहा, रखवाला                                                          रोचिका शर्मा ,चेन्नई  यह भी पढ़े …. मायके आई हुई बेटियाँ एक दिन पिता के नाम -कवितायें हीं कवितायें अपने पापा की गुडिया पिता की अस्थियाँ आपको “पिता…..जुलाहा……रखवाला  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- Father, Poetry, Poem, Hindi Poem, Emotional Hindi Poem, Father’s Day, Father-Daughter

किस्सा बदचलन औरत का

बदचलन ! इसी नाम से पुकारते थे उसे सब । मेरे पिताजी ने भी तो माँ को बताया था उसके बारे में । माँ ने भी जब से सुना उसके बारे में , उसे फूटी आँख न सुहाती थी वह  । वह थी संध्या, हमारी नयी पड़ोसन जो कि मुंबई से आई थी  । देखने में अत्यंत खूबसूरत , छरहरी काया , गोरा रंग, सुनहरी बाल, मुस्कुराहट तो उसके होठों पर सजी ही रहती । आते-जाते सबसे हेलो, हाई, हाउ आर यू ? बोल ही देती  और अगर दूर से किसी को देखती तो हाथ हिला देती जिसे अँग्रेज़ी में वेव करना कहते हैं । शायद यह तरीका था उसका यह दिखाने का कि हाँ मैंने आप को पहचान लिया । मोहल्ले में सभी  औरतों व मर्दों से बात करती ।  जीन्स पहन कर जब वह जाती मोहल्ले के सभी मर्दों की नज़रें  उस पर टिक ही जातीं । मुझे वह बड़ी अच्छी लगती । लेकिन औरतें ! सब सामने तो उससे अच्छी बोलतीं लेकिन पीठ पीछे लगी रहतीं उसकी चुगली करने ।मेरी माँ भी उसके बारे में कुछ सुन कर आती तो पिताजी को ज़रूर बताती  । माँ कहतीं “ पति तो इसका यहाँ रहता नहीं , लगी रहती है ,नैन मटक्का करने दूसरे मर्दों से “ । मुझे भी हिदायत देतीं, कहतीं ” दूर  रहना उस से , ना जाने क्या पट्टी पढ़ादेगी ?”   भगवान जाने कैसी औरत है ? मैं भी माँ से बराबर विवाद करती। कहती ” माँ अच्छी तो है , क्या बुराई है उस में ? हँसमुख है , सब से बात करती है बस !  माँ कहती जाने दे तू ना समझेगी , मर्दों से कुछ ज़्यादा ही बात करती है । मैं कहती हाँ माँ ” तुम औरतों से बात करे तो व्यवहार और अगर पड़ौसी के नाते मर्दों से बोले तो ” बदचलन ” । माँ मेरे विवाद का जवाब कभी न दे पाती । सो चुप हो जाती, कहती ” जाने दे , तू तेरे काम में मन लगा ।उसकी बातों में व्यर्थ समय मत गँवा ।  मेरी भी नयी -नयी नौकरी थी , काम कुछ एसा था कि अंजान लोगों को फ़ेसबुक पर संदेश देने होते और ई-मेल भी भेजने पड़ते और दूसरों के संदेशों का जवाब भी देना पड़ता । इसी सिलसिले में कई लोग मुझे फ्रेंड्स रिक्वेस्ट भी भेज देते और कई अंजान लोग तरह-तरह के संदेश भी देने लगे । जिनके जवाब देना मुझे अच्छा न लगता । कई लोगों को जवाब दे भी देती किंतु फिर वे अपनी सीमा लाँघने की कोशिश करते । उनसे मुझे कन्नी भी काटनी पड़ती । जिससे वे चिढ़ जाते और ऊट-पटांग मेसेज भी देने लगते ।  इन सब हरकतों से मैं थोड़ा परेशान रहने लगी , सोचा माँ को बताऊं , लेकिन माँ मेरी क्या मदद करेगी ? जाने दो, नहीं बताती हूँ एसा सोचती मैं ।फ़ेसबुक पर होने के कारण कई बार वे संदेश रिश्तेदारों एवं पिताजी के मित्रों ने भी पढ़े । पिताजी को तो किसी से यहाँ तक सुनने को मिला कि उनकी बेटी बड़े ग़लत कार्यों में फँसी है । यह सुनते ही पिताजी तो आग बाबूला हो गये । मुझे सख़्त हिदायत मिल गयी नौकरी छोड़ने एवं फ़ेसबुक बंद करने की । मैंने अपने  पिताजीव माँ को बड़ी मुश्किल से समझाया कि मैंने कुछ ग़लत नहीं किया है , लेकिन लोगों के सोचने का तरीका ही कुछ एसा है ।  पिताजी को बात कुछ समझ में आई । माँ भी समझ गयी कि किस तरह से मुझे झूठा बदनाम किया जा रहा था । माँ व पिताजी शांत हो चुके थे ।  अगली बार जैसे ही माँ ने संध्या के बारे में कुछ बोलना चाहा मैंने उन्हें वहीं टोक दिया । बस करो माँ , और कितना बदनाम करोगी उसे । मोहल्ले की औरतों के साथ तुम भी फालतू की बातें बनाती रहती हो । इस बार माँ चुप हो गयी , कहने लगी ठीक ही कहती हो तुम ,संध्या तो अच्छी ही है व्यवहार एवं रूप-रंग दोनों में ।  फिर मैंने उन्हें समझाया, उसके पति यहाँ रहते नहीं, पड़ौसी होने के नाते सभी औरतों और मर्दों से बात कर लेती है , सभी से एक समान व्यवहार करती है । लेकिन उसके रूप-रंग एवं पहनावे के कारण शायद सभी उसे ग़लत नज़रों से देखते एवं कुछ तो अपनी सीमा लाँघने की कोशिश भी करते , जब वे अपने मकसद में कामयाब नही हो पाते तो उसे बदनाम करते और खाम्ख्वाह ही औरतों ने उसे संग्या दे दी थी बदचलन ! अब माँ का नज़रिया संध्या के लिए बिल्कुल बदल गया था  । वह समझ गयी थी कि अकेली या बेसहारा औरत को तो लोग उस अंगूर की बेल की तरह समझते हैं जिसका कोई भी मालिक नहीं । कोई भी आए, अंगूर तोड़े और खा ले । अगर अंगूर ना खा पाए तो कह दे ” अंगूर खट्टे हैं ” । यही हो रहा था संध्या के साथ । अब माँ ने बीड़ा उठा लिया था मोहल्ले की दूसरी औरतों को समझाने का और संध्या के साथ हिल-मिल कर रहने का ।      रोचिका शर्मा,चेन्नई     डाइरेक्टर,सूपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी      (www.tradingsecret.c यह भी पढ़ें … ब्लू व्हेल का अंतिम टास्क यकीन ढिंगली मोक्ष आपको आपको  कहानी  “ किस्सा बदचलन औरत का  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    keywords: women, characterless women

कैसे रिश्तों में डालें नयी जान

                                              रोज ही शाम को लीला बाई से मिलना होता था , पार्क में आतीं तो अपने परिवार की बात किए बिना न रहतीं ।मैं भी सोचती कि उम्र हो गयी किंतु इनका दिल है कि परिवार में ही बसा है , फिर भी मैं उनका दिल रखने के लिए उनकी बातें सुन लेती , सोचती कि मुझे तो बच्चों को ले पार्क में आना ही है फिर इनकी बात सुन लूँ  तो क्या जाता है | कई बार बोर भी हो जाती उन्हीं बातों को बार-बार सुन , किंतु वह भी तो मुझे अपना समझ बताती हैं, उनका मुख्य विषय  होता उनका पोता । कहतीं “आज फेसबुक पर नये फोटो डाले है बहू ने, प्राइज़ मिला है पोते को , पढ़ाई में प्रथम आया है , कभी कहतीं स्कूल बास्केट बाल टीम में सेलेक्ट हो गया है , और क्यूँ न हो बड़े लाड़-प्यार से पाला है उसे , किंतु अब बेटे का तबादला हो गया है तो मिल नहीं पाती उस से ,, बस छुट्टियों का इंतजार है ,तभी एक दिन इंटेरकौम कर बोलीं , कुछ दिनों के लिए बेटे के घर जा रही हूँ “ मैने वजह पूछी , कहने लगीं “वापिस आ कर बतावुँगी , अभी फ्लाइट का समय हो गया है ” और जब वे दो माह बाद वापिस आईं और शाम को पार्क में मिलते ही मैं पूछ बैठी “आंटी मिल आईं पोते से , और मैं ने उन्हें छेड़ते हुए कहा “आज मेरे ज़मीन पर नहीं हैं कदम ” इतना सुनते ही रो पड़ीं बेचारी कहने लगीं क्या बताऊं ? और जो उन्होंने बताया वाकई दिल को दुखाने वाला था चलिए मैं ही सुनाती हूँ आपको उनकी कहानी  जब स्वार्थ  रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाए  लीला जी अपने इकलौते पोते के प्यार में पागल थी किंतु मजबूरी जब से बेटे का तबादला हो गया था सिर्फ़ गर्मी की छुट्टियों में ही पोते से मिल पाती । जब उसका पोता छुट्टियों में उसके पास आता वह उसकी पसंद के खाने , खिलोनों एवं किताबों का भंडार लगा देती ,नित नये पकवान खिलाती । एसे करते पाँच वर्ष बीत गये और पोता पूरे सोलह वर्षों का हो गया । तभी एक दिन उसके बेटे का फोन आया और बेटा बोला बहू का एक्सीडेंट हो गया है तो माँ तुम आ जाओ घर और अस्पताल दोनों ही संभालने पड़ेंगे । बेचारी ने झट से अपना सूटकेस तैयार किया और रवाना हो गयी अपने बेटे के घर जाने के लिए । मन में बहू के एक्सीडेंट का तो दुख था किंतु अपने पोते से मिलने की  खुशी भी थी । बेटे के घर पहुँचते ही पहले दिन से ही पूरे घर एवं अस्पताल की ज़िम्मेदारी संभाल ली ।  उसके बेटे ने भी कहा माँ पोते के स्कूल व सोने –उठने के टाइम का थोड़ाध्यान रखना, परीक्षा नज़दीक है सो उसे थोड़ा पढ़ने के लिए भी कह देना । लीला जी ने भी अपना समझ पोते के रख-रखाव में कोई कमी न छोड़ी । तभी एक रात पोते के कमरे में दूध का गिलास ले कर गयी और पोते को अपने मित्र से बात करते सुना । पोता कह रहा था  “यार क्या करूँ ये बुड्ढी सारे दिन पहरेदारी करती है ,जब से आई है नाक में नकैल डाल रखी है , न खुद चैन से रहती है न मुझे बैठने देती है ” यह सुन लीला जी  के तो पैरों तले ज़मीन खिसक गयी । चुपचाप दूध का गिलास टेबल पर रख कमरे से बाहर आ गयी । मगर आँसू थे कि थमने का नाम ही न ले रहे थे और कानों  में एक ही शब्द गूँज रहा था बुड्ढी… बुड्ढी…. बुड्ढी मैं सोचती रह गयी कि आख़िर कहाँ कमी रह गयी थी कि बेटे-बहू,लीला बाई सभी तो अपनी जगह सही थे , फिर भी पोते का व्यवहार ऐसा  ? कई दिनों तक जवाब नहीं मिला मुझे , फिर समझ में आया कि  शायद आज के परिवेश में जहाँ नौकरी-पेशा लोग अपने परिवारों से अलग रह रहे है , तो एक पीढ़ी दूसरी तक वे संस्कार पहुँचा ही नहीं पा रही है , सब एक दूसरे के बंधनों से आज़ाद रहना चाहते हैं , शायद एक दूसरे को देख कर चलन ही एसा बन गया है कि हर कोई सिर्फ़ ज़रूरतों को महत्व दे रहा है , रिश्तों को नहीं , बेचारी लीला बाई जिन की जान पोते में बस्ती थी , उनका दिल  सदा के लिए टूट गया । रिश्तों के पौधे को समय पर सींचे  वहीं एक और नयी आंटी थीं अभी कुछ दिन पहले ही नयी दिखाई देने लगी थीं और सभी को बाय-बाय कहती नज़र आईं , सो किसी ने पूछ ही लिया “अरे अभी आई अभी गयी” तो बताने लगीं वे अपनी कहानी लीजिए उन्हीं के मुख से सुन लीजिए ६५ वर्ष की उम्र में मुझे वृद्धाश्रम  भेजने की बात घर में हई तो मेरा दिल दहल उठा । मैं कोसने लगी अपने बेटे व बहू को । मन ही मन सोच रही थी बहू ने पट्टी पढ़ाई होगी बेटे को । वरना मेरा बेटा तो राम सा है ,एसा कभी ना करता । अब तो घर में पानी भी पीने को मन न करता । सोचती एक टुकड़ा न तोड़ूं इस घर में । क्या फायेदा हुआ बेटे को पाल-पोसकर इंजिनियर बनाने का । दूसरा बच्चा भी न किया ,सोचा एक ही को अच्छा कर लूँगी । पर ” हाय री किस्मत ” । अब यह दिन देखने पड़ रहे हैं , अपने बेटे के घर में रहने को भी जगह नहीं । आख़िर माँगती ही क्या हूँ इस से ? दो वक़्त की रोटी ! वह भी नहीं खिला सकता।  क्या फायेदा औलाद पैदा करने का ? बेटा मुझे बार-बारसमझाता, कहता ” सब तुम्हारे भले के लिए ही कर रहा हूँ माँ ”  मैं सोचती सब चिकनी-चुपड़ी बातें ! बार-बार बोलता माँ उधर तुम्हारी सार -संभाल अच्छे से हो जाएगी , हम तो मियाँ-बीबी नौकरी वाले हैं , घर में तुम्हें अकेली कैसे छोड़ दें ? ऊपर से मेरा बार-बार विदेश जाना । तुम्हारी हारी-बीमारी देखने वाला कौन है घर में ? नौकर रख दें , लेकिन आज के नौकरों का भी तो भरोसा नहीं , बड़े-बूढ़ों को अकेले पाकर ना जाने क्या कर डालें ।  मैं कुछ ना बोली । मन में सोचा ” सब बनावटी , दिखावा ” । बस दस दिन बचे थे मुझे जाने में, तभी मेरा १७  वर्षीय पोता छुट्टियों में हॉस्टिल से आया । बेटा-बहू दोनों तो नौकरी पर चले जाते , पोता सारे दिन दोस्तों से फोन पर बात करता  या  कंप्यूटर  पर  खेलता ।  मैं सोचती इससे थोड़ा बात करूँ ,तो कहता ” दादी … Read more

मास्टर जी

द्वारका प्रसाद जी पेशे से सरकारी विद्यालय में मास्टर थे । रायगढ़ नाम के छोटे से गाँव में उनकी पोस्टिंग हो गयी थी । पोस्टिंग हो क्या गयी थी यूँ समझिए कि ले ली थी । उन्होंने स्वयं ही माँग  की थी कि उन्हें उस छोटे से गाँव में तबादला  दे दिया जाए । गाँव में कोई इकके -दुक्के लोग ही थे जिन्हें पढ़े -लिखे लोगों की श्रेणी में रखा जा सकता था । बाकी की गुजर-बसर तो खेती , सुथारी या लुहारी पर ही चल रही थी ।  सभी हैरान थे कि द्वारका प्रसाद जी को इस छोटे से गाँव में क्या दिलचस्पी थी ?  कि वहाँ जा कर बस ही गयेखैर वह तो उनका निजी मामला था ।  गाँव के हर घर में उनकी ख़ासी पहचान थी । सारे गाँव के बच्चे उनके विद्यालय में पढ़ने आते । और अगर कोई न आता तो  मास्टर जी ढूँढ कर उन बच्चों के माता-पिता से बात करते और उन्हें समझाते कि वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें । किंतु गाँव के लोग बहुत ग़रीब थे वे बच्चों को  पढाना तो दूर  की बात अपने बच्चों के लिए दो वक़्त की रोटी भी न जुटा पाते सो अपने बच्चों को कुछ न कुछ काम धंधे में लगा रखा था ।  मास्टर जी ने सरकारी दफ़्तरों में जा-जा कर अफसरों से बात कर विद्यालय में खाने का भी प्रावधान करवा दिया ताकि गाँव के लोग खाने के लालच में अपने बच्चों को विद्यालय में दाखिला तो दिलाएँ । अब गाँव के अधिकतर बच्चे विद्यालय में पढ़ रहे थे ।    शाम के समय मास्टर जी गाँव के बीचों-बीच लगेनीमके पेड़ के गट्टे पर बैठ जाते।और अपने आस-पास गाँव के सारे लोगों को जमा कर लेते । किसी न किसी बहाने बात ही बात में वे उन्हें  पढ़ने के लिए प्रेरित करते ।  लेकिन गाँव के लोग तो पढ़ाई का मतलब समझते ही न थे । उन्हें तो बस हाथ का कुछ काम करके दो वक़्त की रोटी मिल जाए बस इतनी ही चिंता थी । और औरतों की शिक्षा के बारे में तो बात उनके सिर के उपर से ही जाती थी । दो टुक जवाब दे देते मास्टर जी को । कहते ” इन्हें तो बस चूल्हा-चौका करना है , उसमें पढ़ाई का क्या काम ” ? रही बात गाँव की बेटियों की , पढ़-लिख गयी तो पढ़ा-लिखा लड़का भी तो ढूँढना पड़ेगा ?  मास्टर जी बार-बार उन्हें समझाते कहते ” पढ़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती” । दो अक्षर पढ़ लेंगे तो जेब से कुछ जाने वाला नहीं है । किंतु गाँव के लोग आनाकानी कर जाते ।किंतु जब किसी को कोई चिट्ठी लिखनी होती या कोई सरकारी दफ़्तर का कार्य होता तो मदद के लिए मास्टर जी के पास ही आते । मास्टर जी उनको मदद करने के लिए सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाते , उनकी चिट्ठियाँ लिखते व उनके अन्य कार्यों में भी सामर्थ्य अनुसार उनकी मदद करते ।धीरे-धीरे सभी लोगों का मास्टर जी पर विश्वास जमने लगा था । और मास्टर जी की प्रेरणा से प्रेरित हो कर मास्टर जी से थोड़ा- थोड़ा पढ़ना-लिखना सीखने लगे थे । और तो और गाँव की महिलाएँ भी चूल्हा-चौका निपटा कर रोज एक घंटा मास्टर जी से पढ़ने लगी थीं । मास्टर जी उन्हें थोड़ा शब्द ज्ञान देते और थोड़ा अन्य नयी-नयी जानकारियाँ देते । यह सब कार्य मास्टर जी मुफ़्त ही करते ।  समय बीतता गया , मास्टर जी के बच्चे बड़े हो गये और आगे की शिक्षा के लिए शहर चले गये । शहर की चमक-दमक बच्चों को बड़ी भा गयी । वे बार-बार मास्टर जी को गाँव छोड़ शहर आने की ज़िद करने लगे । पर मास्टर जी थे कि टस से मस न होते । सो मास्टर जी की पत्नी भी मास्टर जी को छोड़ अपने बच्चों की सार​–संभाल करने के लिए शहर चली गयीं । मास्टर जी अब कहने को अकेले थे किंतु गाँव अब परिवार मे परिवर्तित हो गया था । ज़्यादा से ज़्यादा समय मास्टर जी गाँव के लोगों के साथ ही बिताते ।  तभी एक दिन मास्टर जी को दिल का दौरा पङ गया । मास्टर जी का पड़ौसी सुखिया उन्हें झट से गाँव के वैद्य के पास ले गया । वैद्य जी उन्हें प्राथमिक उपचार दे कर बोले ” अच्छा होता कि मास्टर जी को शहर ले जाते और बड़े अस्पताल में दिखा देते , नब्ज़ थोड़ी तेज ही चल रही है ।  गाँव के लोगों ने तुरंत ही  उनके पत्नी व बच्चों को सूचित कर शहर ले जाने की तैयारी कर ली । शहर जाते ही उन्हें वहाँ के बड़े अस्पताल में भरती कर दिया गया । गाँव का उनका पड़ौसी सुखिया उनके साथ में था । बड़े अस्पताल में डॉक्टर ने दवाइयों की लंबी लिस्ट और अस्पताल के खर्चे का बिल उनकी पत्नी के हाथ में थमा दिया । इतना पैसा मास्टर जी की पत्नी के पास न था सो लगी अपने भाई व अन्य रिश्तेदारों को फोन करने ,सोचा शायद कहीं से कोई मदद मिल जाए । किंतु आजकल किसको पड़ी है दूसरे की मुसीबत के बारे में सोचने की । सुखिया मास्टर जी व उनकी पत्नी की हालत बखूबी  समझ रहा था । मास्टर जी की पत्नी  स्वयं से ही अकेले में बड़बड़ा रही थी।” समय रहते सोचते तो ये दिन न देखना पड़ता , कभी दो पैसे न बचाए , लुटा दिए गाँव वालों पर ही ”  कभी कोई ऊपर की कमाई न की ” । बच्चे भी बोल रहे थे कितनी बार कहा था शहर आ जाओ किंतु हमारी एक न सुनी । कम से कम यहाँ रहते तो ट्यूशन कर अतिरिक्त कमाई तो करते , फालतू ही गाँव के लोगों के साथ वक़्त जाया  किया । सुखिया अब मास्टर जी की माली हालत से वाकिफ़ हो गया था । उसने झट से गाँव फोन किया और अगले ही दिन गाँव से एक आदमी आया जिसे मास्टर जी ने ही पढ़ाया था और उनके ही विद्यालय में नयी नियुक्ति मिली थी उसे । साथ में वह एक पोटली लाया था और कुछ रुपये भी । वह पोटली उसनेमास्टर जी  की पत्नी को थमा दी … Read more

“परिस्थिति “

रोचिका शर्मा        चेन्नई अपनी बेटी के बी. ए. अंतिम वर्ष में दाखिला लेते ही मैने उसके लिए योग्य वर तलाशना शुरू कर दिया और बेटी को बोला ” थोड़ा घर का काम-काज भी सीखो, सिलाई , कढ़ाई और साथ-साथ में ब्यूटी-पार्लर का कोर्स भी कर लो । लड़का योग्य हो तो उसके परिवार वाले लड़की में भी तो कुछ गुण देखेंगे ना । वैसे तो हम अपने व्यवसाय वाले लेकिन लड़की नौकरी वाला लड़का चाहती थी सो नौकरी वाला लड़का ढूँढना शुरू किया । इधर बेटी ने भी पास के ब्यूटी-पार्लर में कोर्स करना शुरू कर दिया । एक वर्ष में कोर्स  होते-होते बेटी की सगाई एक फ़ौजी अफ़सर से हो गयी । बेटी की तो खुशी का ठिकाना न रहा । एक ही माह  में विवाह  की तिथि पक्की हो गयी । टेंट ,बाजा ,घोड़ी ,हॉल सभी की बुकिंग का काम चालू हुआ । बेटी भी शादी के मेकप के लिए ब्यूटी-पार्लर बुक करने जाने लगी । उसे टोकते हुए मैने कहा ,” पड़ोस का ब्यूटी-पार्लर न बुक करना , कोई दूसरा पार्लर देखो ” । बेटी बोली पड़ोस का अच्छा तो है माँ , और फिर मैने वहाँ से कोर्स किया है , खुशी-खुशी अच्छा मेकअप करेगी । मैने अपनी नाक सिकोडते हुए कहा ” पर है तो विधवा ! न न अपशकुन होता है ” । इतना सुनते ही बेटी तो मानो बिफर गयी ,बोली ” कैसी दाखियानूसी बातें करती हो माँ ?आज के जमाने में ये सब ! ” मैने बेटी की एक ना सुनी और उसे हुक्म दिया दूसरा पार्लर बुक करने को । बेटी भी झमेले में नहीं पड़ना चाहती थी , सो दूसरा पार्लर बुक कर आई । विवाह के दिन लाल जोड़े में मेरी बेटी  लक्ष्मी का स्वरूप लग रही थी ।मेरे तो पैर ज़मीन पर ना थे । विवाह संपन्न हुआ और बेटी विदा हो गयी । एक ही साल में उसने सुंदर बेटी को जन्म दिया ।जब-तब लाल बत्ती की गाड़ी में आती और हम से मिल जाती ।फ़ौजियों की पार्टी-शार्टी, शान-शौकत , मैं भी उसका रुतबा देख फूली ना समाती । कुछ ही दिनों में उसके पति की नियुक्ति पाक- सीमा पर हो गयी ।दामाद के माँ-बाप तो थे नहीं , सो बेटी दिल्ली  में अकेली ही रहती । एक दिन खबर आई कि दामाद बम -ब्लास्ट में मारे गये । मेरे तो मानो पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी । दुख का पहाड़ टूट पड़ा था पूरे परिवार पर ! अंतिम क्रिया कर्म की सब रीतियों के बाद हमने बेटी को अपने ही पास रखने का फ़ैसला किया ।  तभी एक माह बाद पड़ोस की पार्लर वाली आई और बेटी को सांत्वना देते  हुए बोली, ” पहाड़ सी जिंदगी ,कैसे  जियोगी ?, ऊपर से एक बेटी भी ! कोई छोटी-मोटी नौकरी के लिएबाहर जाओगी ,इससे तो ब्यूटी-पार्लर खोल लो । घर की घर में बेटी को भी संभाल सकती हो , औरतों  का ही आना जाना रहताहै , सुरक्षित एवं मनलगाने वाला काम है ।  आज के जमाने में बिना  सहारे की जवान औरत को भी तो लोग ठीक दृष्टि से नहीं देखते हैं । उसकी बात मुझे ठीक लगी । जाते-जाते बोली बहिन पार्लर खोलने में कोई मदद चाहिए तो मैं करूँगी ।उसके जाने पर मैंने  भी बेटी को समझाया कि वह ठीक ही कह रही है । इतना सुनते ही बेटी  बोली लेकिन माँ मैं तो विधवा हूँ,कौन आएगा मेरे पार्लर में ? तुम ही तो कहती थीं कि अपशकुन होता है । आज मुझे अपनी ग़लती का एहसास हो रहा था । मेरीआँखें  भर आईं थीं  । मुझे पश्चाताप हो रहा था अपने किए पर । बहुत शर्मिंदा थी मैं अपनी ओछि सोच पर , अपनी संकीर्ण मानसिकता पर , मैं समझ गयी थी कि कितनी ग़लत थी मैं । जहाँ एक तरफ नारी उत्थान की बातें होती हैं , औरतें हर क्षेत्रमें आगे बढ़ रही हैं वही आज के युग में एसी सोच ! शायद ईश्वर ने इसीलिए एसी परिस्थिति में डाल दिया था मुझे  । वरना मैं अपनी सोच कभी ना बदल पाती ।  उस पार्लर वाली का धन्यवाद करते हुए मैं मन ही मन उसके परिवार के लिए मंगल कामना करने लगी ।                                                    यह भी पढ़ें ………. स्वाभाव जीवन बोझ टिफिन 

कवितायें -रोचिका शर्मा

      अटूट बंधन के दीप महोत्सव ” आओ जलायें साहित्य दीप के अंतर्गत आज पढ़िए रोचिका शर्मा की तीन कवितायें बलात्कार : एक सवाल , बाल श्रम व् आओ नयी एक पौध लगायें |  बलात्कार  ! एक सवाल आज फिर अख़बार था चीखता , हो गया बलात्कार कहीं कोई ओढ़ कर चादर बेहयाई की , अपनी हवस बुझा गया फिर कोई नारेबाज़ी शुरू हो गयी , बैठे संगठन अनशन पे लगे उछालने कीचड़ नेता , विपक्ष दलों के दामन पे कहीं हो रही कानाफूसी , क्यूँ लड़की को दी थी छूट इतनी कर रहे टिप्पणी पहनावे पर, वह पहनती  थी स्कर्ट मिनी सबने अपने मन की गाई , बिन जाने हालात हादसे के नुची देह मीडिया ने दिखाई , न दिखे चिथड़ेउसकी  रूह के घिनौने सवाल अदालत ने पूछे , दिल का दर्द न पूछे कोई थक कर मात-पिता  भी कोसें , तू पैदा इस घर क्यूँ होई क्यूँ लगती न झड़ी इन प्रश्नों की , न उठती उंगली उस वहशी पर क्यूँ अदालत रहे उसे बचाती, झूठे वकीलों की दलीलों पर ये कैसा अँधा क़ानून है , जो पैरवी उसकी करता है आँखों पे पट्टी बाँध के वो, बलात्कार दूसरा करता है क्या एसी कोई पुस्तक है, जो जंगल राज को न माने मानवता का पाठ पढ़ा दे , नारी को इंसान सा जाने फिर कैसे किसी विक्षिप्त मस्तिष्क में , बलात्कार के भाव उठें बहिन-बेटियों पर बुरी नज़र से, रोम-रोम भी काँप उठे ए ! न्याय के रखवालों जागो ,साहित्यकार तुम कलम उठाओ लिख दो क़ानून  किताबें एसी , बलात्कार पर सवाल उठाओ  बाल-श्रम आसमान में टूटा तारा,देख-देख सब ने कुछ माँगा मेरी आस का तारा  टूटा ,ग्रहण  मेरे जीवन में लागा                                                   साया पिता कारहा न सर पे, करे न दया दौलत का समाज रोटी,कपड़ा,मकान को तरसा,बचपन ,उदास गीतों का साज़ एक ग़रीब की दुखियारी माँ,लगी काम बच्चों को छोड़ छूटी पढ़ाई ,रोटी न मिलती,महँगाई बढ़ रही दम तोड़ सुन रुदन छोटी बहना का, रहा गया न मुझसे आज सोचूँ घुट-घुट अँधियारे में ,क्यूँ न करूँ मैं भी कुछ काज निकल पड़ा हूँ खोज में मैं ,हो जाए गर कुछ जुगाड़ रोटी मिले दो वक़्त की मुझको,छोटी का जीवन उद्धार फिरता हूँ मैं मारा-मारा, सड़कों, चौराहों ,दुकानों में आज तड़प रहा हूँ भूख ,प्यास से,हे ईश्वर क्या तू नाराज़ ? भूखे-नंगों का न कोई सहारा, कटे पंख,न चढ़े परवाज़ बाल-मजूरी बहुत बुरी है,फिर भी मुझको प्यारी आज अरमानों का गला घोंट लूँ, बुझती ज्यूँ दीपक से ज्योति जूते पोंछूँ या बोझ उठाऊं ,चिंता सुबहो-शाम सताती आओ मिल जाएँ हम सब,करें जहाँ का नव-निर्माण कोई बच्चा न भूखा जग में,शिक्षा ग़रीब-अमीर समान पढ़ा-लिखा बढ़ाएँ आगे, देश का ऊँचा नाम उठाएँ इक-इक बूँद भर जाए सागर,बाल श्रमिक कानाम मिटाएँ                              चलो इक पौध नयी लगायें                                                 सत्य, अहिंसा के बीज से रोपित सदाचार की धार से सिंचित मानवता की खाद से पोषित प्रेम भाव के पुष्पों से शोभित चलो इक पौध नयी लगाएँ विभिन्न जाति की कलमों का संगम दया-धर्म के संस्कार का बंधन बैर-भाव के काँटों की न चुभन अपने-परायों की शाख का खंडन चलो इक पौध नयी लगाएँ भारत भूमि में जड़ें फैलाती हिमालय तक शाख पहुँचती शांति की छाँव जो देती बापू के स्वपनों की खेती चलो इक पौध नयी लगाएँ स्वदेशी  की फसल लहलहाए ईमानदारी की खुश्बू मह्काये भाईचारेकी कोंपल फूटे अमन-चैन के फल बरसाए चलो इक पौध नयी लगाएँ रोचिका शर्मा                                   

अटल रहे सुहाग : (करवाचौथ स्पेशल ) – रोचिका शर्मा की कवितायें

“एक झलक चंदा की “ ए, बदली तुम न बनो चिलमन हो जाने दो दीदार दिख जाने दो एक झलक उस स्वर्णिम सजीले चाँद की दे दूं मैं अरग और माँग लूँ  संग मेरे प्रिय का यूँ तो हर दिन माँग लेती हूँ साथ उनका जन्म-जन्मान्तर तक किंतु आज की रात है अनूठी की है मैं ने तपस्या लगा मेहंदी ,पहन चूड़ा , कर सौलह सृंगार , हो जाने दो पूरी इसे मत डालो तुम अड़चन हो जाने दो मेरी शाम सिंदूरी , महक जाने दो मेरे मन की कस्तूरी एसा नहीं कि तुम पसंद नहीं मुझे तुम्हारा है अपना विशेष स्थान तुम भी हो उतनी ही प्रिय किंतु बस आज मत लो इम्तहान मेरे धैर्य का सुन लो मेरी अरज क्यूँ कि बिन चंदा के दर्शन के तपस्या है अधूरी न लूँगी अन्न का दाना मुख में जब तक न देखूं उसकी छवि तुम छोड़ दो हठ और ले लो इनाम क्यूँ कि किया है व्रत मेरे सजना ने भी  करवा चौथ का…..    2 …………….               ए  चाँद ए  चाँद , तुम कर लो अपनी गति कुछ मद्धम ठहरो क्षण भर को आसमान में न छुप जाना बादलों की ओट में क्यूँ कि , मेरा चाँद कर रहा है सौलह शृंगार उसके छम-छम पायल का संगीत देता है सुनाई मुझे उसके पद्चापो संग और हाँ तुम कर लो बंद द्वार अपने नयनों की खिड़की के क्यूँ कि उसके स्वर्णिम मुख की आभा  देख कहीं तुम भर न जाओ ईर्ष्या से या लग न जाए तुम्हारी नज़र उसे ले लो राई-नून तुम अपने हाथों में ताकि उँवार सको उसके उपर , बस चन्द लम्हों  की प्रतीक्षा उठ जाने दो घूँघट उसका वह भी रखे है व्रत देनी है उसे भी अरग और करनी है तुम्हारी पूजा एक तुम ही तो हो उसकी आस जब मैं न हूँ आस-पास लेती है तुम्हें निहार और भर लेती है कुछ पल अपनी अंजूरी में आगमन के एहसास के और तकने लगती है राहें मेरी………                    रोचिका शर्मा,चेन्नई डाइरेक्टर,सुपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी

नारी नुचे पंखों वाली तितली

नारी या ” नुचे पंखों वाली तितली “ लगा दिए  मुझ पर प्रतिबंध , झूठी आन,बान और शान के  नोच लिए क्यूँ तितली के पर ,जब भरने लगी उड़ान ये नारी , कितनी आज़ाद ? वर्षों से यह सवाल मेरे जहन में हर पल धड़कानों के साथ चल रहा है  । मैं यह तो न कहूँगी कि वे आज़ाद नहीं । जब हमारा देश अँग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हुआ तो हमारे देश की कई महिलाओं ने भी आज़ादी की लड़ाई में पूरा सहयोग दिया था और जब देश आज़ाद हुआ तो उस आज़ादी की हकदार महिलाएँ भी हैं । तो महिलाएँ एक तरह से आज़ाद तो हैं । लेकिन अब सवाल है भारत में महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक आज़ादी का । अब आज जब बात आ ही गयी है तो चलिए शुरुआत करते हैं हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता को मान्यता  देने वाले ग्रामीण क्षेत्रों  की महिलाओं से। जहाँ तक ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो महिलाओं की स्थिति पशुओं से कम नहीं । जिस तरह पशुओं को काम में ले कर फिर से खूँटे से बाँध दिया जाता है उसी तरह घर व खेत-खलिहानों में या मवेशियों को संभालने की ज़िम्मेदारी महिलाओं की ही है । इतना ही नहीं घर के सभी सदस्यों की सार-संभाल की ज़िम्मेदारी भी महिलाओं पर ही डाल दी जाती है । उसके बदले उसे मिलता कुछ नहीं । घर में एक पहचान भी नहीं । मेरा एसा मानना है किज़िम्मेदारी एवं अधिकार एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं । ग्रामीण इलाक़ों में महिलाओं पर ज़िम्मेदारियाँ तो हैं किंतु अधिकार से वे मोहताज हैं । उसे अपने मौलिक अधिकार मिलना तो दूर की बात है ,उसे तो इसका ज्ञान तक नहीं । क्यूँ, सबसे पहले तो उसे शिक्षा से वंचित रखा जाता है यह कह कर ” चूल्हा चौका ही तो करना है उसमें पढ़ाई का क्या काम ?” उसे सामाजिक रीति-रिवाजों ,प्रथाओं व कुरीतियों की आड़ में सब कुछ मूक रह कर सहन करना पड़ता है । इसलिए मैं यह तो कदापि न कहूँगी किवह आज़ाद है । वहीं दूसरी और शिक्षा के अभाव में या उन पर दबाव के रहते यही ग्रामीण महिलाएँ कभी-कभी एसे काम भी कर बैठती हैं किजो कि वाकई हमारी सभ्यता व संस्कृति को शर्मसार कर दे । जिसे ग्रामीण लोग आज़ादी का प्रतिफल समझते हैं । इसीलिए उन्हें क़ैद रखने में ही समझदारी नज़र आती है । लेकिन यह कोई नहीं समझता कि यह शिक्षा के अभाव में एसा हो रहा है । यद्यपि हमारे संविधान में महिलाओं के लिए कुछ अधिकार संरक्षित हैं किंतु उनका ज्ञान तक उन महिलाओं को नहीं है अपने अधिकारों के लिए लड़ना तो बहुत दूर की बात है ।  वैसे तो सृष्टि के आरंभ से ही नर व नारी एक दूसरे के पूरक रहे हैं । प्राकृतिक संरचना के अनुसार महिलाएँ अपने बच्चों व परिवार के अन्य सदस्यों के लालन-पालन के लिए उपयुक्त थीं और पुरुष परिवार के भरण-पोषण का कार्य  करता था । परिवार की आर्थिक ज़िम्मेदारियाँ पुरुष ने ले रखी थीं । लेकिन वक़्त के साथ महिलाओं के मानवीय गुण पुरुष केआगे फीके पड़ने लगे और महिलाओं की स्थिति पशु समान होने लगी । इसी कारण कई पाश्चात्य व योरोपीय देशों की महिलाओं ने आंदोलन किए एवं “रोटी व गुलाब ” के नारे लगाए । रोटी  उनके मौलिक अधिकारों एवं गुलाब उनकी अच्छी जीवन शैली का प्रतीक थी । उसके बाद कई संस्थाओं ने उनके लिए आगे कदम बढ़ाए और महिलाओं के बारे में सोचा गया । लकिन हमारी ग्रामीण महिलाएँ तो शिक्षा से भी वंचित हैं , उन्हें तो आज़ादी शब्द के सही मायने भी शायद मालूम न हों ।  अब यदि बात करें शहरी महिलाओं की तो उनकी स्थिति ग्रामीण महिलाओं से कुछ अच्छी है । शहरों में लड़कियों को  शिक्षा ,रहन-सहन , के अधिकार तो मिले हैं और पढ़-लिख कर महिलाएँ उँचे मुकाम भी हासिल कर रही हैं , और कई महिलाएँ उँचे औहदों पर कार्यरत भी हैं ,किंतु   उन महिलाओं की संख्या का अनुपात हमारे देश की पूरी महिलाओं की तुलना में बहुत ही कम है ।  जहाँ तक मैं अपने आस-पास के क्षेत्रों में देखती हूँ शहरों में अब माता-पिता अपनी बेटियों को अच्छे संस्थानों में भेज अच्छी शिक्षा ही नहीं अपितु अन्य कक्षाओं जैसे नृत्य , तैराकी, स्केटिंग,घुड़सवारी  आदि में भी भेज कर उनके पूरे विकास की कोशिश करते हैं । उनके लालन-पालन में भी बेटे-बेटी का भेद ख़त्म कर चुके हैं । अपनी बेटियों के गुण व क्षमता अनुसार उन्हें आगे बढ़ने में पूरा सहयोग भी कर रहे हैं ।  यही बेटियाँ पढ़-लिख कर उँचे औहदों पर कार्य भी कर रही हैं किंतु जब बात आती हैं उनके विवाह की तो साधन-संपन्न परिवार तो पहले से ही उनके बाहर जा  कर कार्य करने को मना कर देते हैं और यदि हाँ कर भी दें तो विवाह पश्चात हमारे समाज के नियमों के अनुसार उन्हें अपना घर और कई बार तो शहर भी छोड़ कर पराए घर जाना होता है,नये काम की तलाश करनी होती है । उस पर भी यह निर्भर करता हैं कि वह जिस परिवार में बहू बन कर आई है वे उसे कितना सहयोग करते हैं । कुछ प्रतिशत परिवार ही उन बहुओं को सहयोग करते हैं । यदि सहयोग मिल जाए तो समझिए जिस प्रकार नर्सरी से लाया पौधा अच्छी देख-रेख से पनप जाता है ,उसी प्रकार यह बेटी अपने ससुराल में एवं कार्य में जड़ें मजबूत कर लेती है अन्यथा वह बिन मालिक के पौधे की तरह मुरझा कर सूख जाती है । अपना सब कुछ भूल कर , सामाजिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों और रस्मों की आड़ में कुचल -मसल दी जाती है । और वह मजबूर हो जाती है उन्हीं ग्रामीण महिलाओं की तरह पशुत्व की जिंदगी जीने के लिए । समझो यदि किसी महिला को आज़ादी मिलती भी है अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने के लिए, एवं सहयोग मिलता है बाहर जा कर काम करने में, तो उसकी तनख़्वाह या आय पर भी ससुराल वालों की नज़र रहती है । कुल मिला कर निष्कर्ष यह है कि यदि सामाजिक स्वतंत्रता मिल भी जाए तो आर्थिक स्वतंत्रता छीन ली जाती है … Read more

डर (कहानी -रोचिका शर्मा )

                         रीना एक पढ़ी-लिखी एवं समझदार लड़की थी । जैसे ही उसके रिश्ते  की बातें घर में होने लगीं उसके मन में एक डर घर करने लगा , वह था ससुराल का डर। वह तो अरेंज्ड मॅरेज के नाम से पहले से ही डरती थी । फिर भी कुँवारी तो नहीं रह सकती थी । दुनिया की प्रथा है विवाह ! निभानी तो पड़ेगी । यह सोच उसने अपने पिताजी को बता दिया कैसा लड़का चाहिए । फिर क्या था पिताजी ढूँढने लगे पढ़ा-लिखा एवं खुले विचारों वाला लड़का । बड़ी लाडली थी वह अपने पिता की । एक दिन लड़का व उसके परिवार वाले उसे देखने आए । गोरा रंग, सुन्दर कद-काठी एवं रहन-सहन देख लड़का तो जैसे उस पर मोहित हो गया । और उसी समय रिश्ते के लिए हाँ कर दी । लड़के के माता-पिता ने भी अपने बेटे की हाँ में हाँ मिला दी । फिर क्या था चट मँगनी पट ब्याह । हाँ विवाह में ज़रूर रिश्तेदारों ने अपनी फ़रमाइशों व रीति-रिवाजों की आड़ में काफ़ी परेशान किया । रीना तो स्वयं रीति-रिवाजों और रिश्तेदारों से घिरी हुई थी सो उसे तो भनक भी न लगी कि शादी में कोई मन-मुटाव हो गया है । जब विदाई का समय आया अपने पिता की लाडली रीना ने एक आँसू न बहाया । सोचा उसके पिता को दुख पहुँचेगा और हंसते-हंसते विदा हो गयी । ससुराल के रास्ते में ही उसके पति ने उसे शादी में हुए मन-मुटाव के बारे में बताया । और समझाया कि रिश्तेदार नाराज़ हैं और हो सकता है उसे भला-बुरा कहें ।रीना को अरेंज्ड मॅरेज में जिस बात से डर था वही हुआ । जैसे ही वह ससुराल पहुँची सभी रिश्तेदारों की फौज  ने उसे घेर लिया और फिर ससुराल की रस्में शुरू हो गयीं । बात–बेबात कोई न कोई रिश्तेदार उस पर व्यंग्य करते और शादी की रस्मों को लेकर उस पर ताने मारते । ननद का तो मुँह पूरे समय फूला ही रहता  । अब वह ससुराल में डरी-सहमी ही रहती । सोचती पति न जाने कैसा होगा । फिर भी शायद माँ-पिताजी के दिए संस्कार थे या डर जिनके कारण वह मुँह भी न खोलती । बार-बार उसे अपने पिता की याद आती । कई बार आँखों से आँसू बह निकलते और वह सोचती क्यूँ किया विवाह ? इससे तो वह अपने घर में ही भली थी । एक माह बीत गया, सभी रिश्तेदार अपने–अपने घर जा चुके थे एवं ननद भी ससुराल जा चुकी थी । चुप-चापमूक बन वह मुँह नीचे किए सारा घर का काम करती एवं कभी-कभी अकेले में अपने पिता को याद कर रो लेती । शायद थकान के कारण या इतने काम की आदत न होने के कारण उसकी तबीयत बिगड़ गयी व उसे जुकाम ,बुखार हो गया । पाँच -छह दिन में तो उसकी हालत बहुत खराब हो गयी । डॉक्टर की दवा तो वह ले रही थी किंतु खाँसी थी कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी । सारा दिन एवं रात को वह खों-खों कर खाँसती रहती । तभी एक दिन उसके ससुर जी आए और बोले बेटा यह लो मैं ने अदरक का रस निकाला हैं थोड़ा इसे पी लो तुम्हारी खाँसी ठीक हो जाएगी । जैसे ही रीना ने ऊपर मुँह उठाया उसके ससुर उसे प्यार से देख मुस्कुरा रहे थे । उस प्यार भरी मुस्कुराहट को देखते ही रीना की आँखों में आँसू आ गये । उसे अपने पिता की  ही छवि ससुर जी में नज़र आई ।उसने झुक कर अपने ससुर के पैर छू लिए । ससुर ने उसे बोला बेटी मैं भी तुम्हारे पिता के समान हूँ और बेटियाँ पैर नहीं छूती । मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है । आज से इस घर में मैं ही तुम्हारा पिता हूँ , तुम्हें कोई भी तकलीफ़ हो तो मुझे बताना । रीना की आँखों में आँसू थे। उसे तो एक पिता का घर छोड़ते ही दूसरे घर में पिता मिल गये थे जिसकी उसने सपने में भी कल्पना न की थी । आँख में आँसू फिर भी वह मुस्कुरा रही थी । और वह डर हमेशा के लिए ख़त्म हो गया था ।                         रोचिका शर्मा, चेन्नई डाइरेक्टर,सूपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी                         (www.tradingsecret.com) अटूट बंधन ………..हमारा फेस बुक पेज 

टिफिन

                                            टिफिन बात २० वर्ष पहले की है जब मेरी नई-नई नौकरी लगी थी, पेशे से इंजिनियर होने के कारण नौकरी लगी इंडस्ट्रियल एरिया में , जो कि उस समय शहर से १५ किलोमीटर दूर था वहाँ तक पहुँचने के लिए यातायात का कोई साधन नहीं था सो पिताजी ने एक लुना ले दी थी । सुबह ९ बजे काम पर पहुँचना होता इसलिए ८:३० ही घर से रवाना हो जाती । माँ रोज सवेरे गरमा-गरम नाश्ता खिला एवं टिफिन पॅक करके दे देती थी । कुछ दिन बीत गये, माँ कभी-कभी टिफिन पॅक करने में देर कर देती , मुझे बड़ा ही बुरा लगता । मैं थी समय की बड़ी पाबंद । एक दिन एसे ही गुस्से से मैंने टिफिन पॅक होने का इंतजार न किया एवं काम पर बिना टिफिन ही चली  गयी । मैं तो घर से चली गयी किंतु माँ बड़ी दुखी  हो गयी कि बेटी पूरा दिन भूखी रहेगी। इंडस्ट्रियल एरिया होने के कारण आस-पास में कोई रेस्तराँ या ढाबा भी नहीं था ।मध्यम वर्गीय परिवार से होने के कारण उस समय कोई निजी साधन भी नहीं था।सो माँ टिफिन पॅक कर पैदल-पैदल मेरे फेक्ट्री के लिए रवाना हो गयी । कड़ी धूप में चल कर जब वह मेरी फेक्ट्री पहुँची तो अन्य सहकर्मी सहेलियों ने पूछा आंटी जी क्या बात है आज आप यहाँ ? कहने लगी आज यह टिफिन भूल आई थी सो मैं देने चली आई ।  सभी सहेलियों ने मुझे बड़ा भला-बुरा कहा । माँ तो टिफिन दे कर रवाना हो गयी और फिर पैदल चल कर घर पहुँची । शाम को मैं जब घर पहुँची तो देखती हूँ माँ के पैरों में छाले पड़ चुके थे और वह बहुत थकी दिखाई देती थी फिर भी समय पर मेरे लिए चाय और रात का खाना बना तैयार रखा था । उस समय मेरे लिए यह साधारण सी बात थी , लेकिन आज विवाह को पूरे सोलह वर्ष बीत चुके हैं और मैं स्वयं दो बच्चों की माँ हूँ ,गत१६ वर्षों में ससुराल , मेयेका हर तरफ के रिश्ते निभा रही हूँ और अब मुझे समझ आता है कि माँ से बड़ा कोई रिश्ता नहीं वह माँ ही होती है जो बच्चों  के हर दुख को समझ सकती है, उसकी एक वक़्त की भूख वह बर्दाश्त नहीं कर पाती चाहे  बच्चा ५ माह का हो या २० वर्षों का , माँ तड़प उठती है उसकी भूख देख कर, कभी-कभी मुझे भी देरी हो जाती है स्कूल का टिफिन पॅक करने में , लेकिन आज हमारे पास सारी सुख -सुविधाएँ हैं फिर भी मैं चाहती हूँ बच्चे को टिफिन किसी तरह पहुँचाना।आज मैं पहचानती हूँ उस टिफिन की कीमत ! रोचिका शर्मा , चेन्नई (चित्र गूगल से साभार ) अटूट बंधन ……….. कृपया क्लिक करे