भलमनसाहत

पूनम पाठक “पलक” इंदौर (म.प्र.) मई की एक दोपहर और लखनऊ की उमस | भारी भीड़ के चलते वह बस में जैसे तैसे चढ़ तो गई परन्तु कहीं जगह न मिलने की वजह से बच्चे को गोदी में लिए चुपचाप एक सीट के सहारे खड़ी हो गयी | अत्यधिक गहमागहमी और गर्मी से बच्चे का बुरा हाल था | वो उसे चुप करने में तल्लीन थी कि, “बहन जी आप यहाँ बैठ जाइये “ कहते हुए पास की सीट से एक व्यक्ति उठकर खड़ा हो गया | “नहीं भाईसाहब आप बैठिये, मैं यहीं ठीक हूँ” विनम्रतापूर्वक निवेदन को अवीकर करते हुए उसने कहा | “अरे आपके पास बच्चा है, आपको खड़े रहने में तकलीफ होगी, बैठ जाइये ना |” उन सज्जन के विशेष आग्रह पर वह सकुचाकर बैठ गई | सच ही तो था बच्चे को लेकर खड़े रहने में उसे वास्तव में बहुत परेशानी हो रही थी | वह बच्चे को पुचकारने लगी और पानी पिलाकर उसे चुप कराया | कुछ ही देर में बच्चा मस्त हो खेलने लगा | अब उसकी निगाहें उस भले व्यक्ति को ढूँढने लगीं, जिसने इस भीड़ भरी बस में अपनी सीट देकर उसकी मदद की थी | दो तीन सीट आगे ही वो भला व्यक्ति खड़ा हो गया था | अचानक उसके हाथ में होती हुई हरकत पर उसकी निगाह गयी | ध्यान से देखा तो पाया कि जिस जगह वो खड़े थे, उससे लगी सीट पर बैठी पन्द्रह-सोलह साल की एक लड़की अपने आप में ही सिमटी जा रही थी | वे महाशय भीड़ का फायदा उठाकर बार बार उसकी बगल में हाथ लगाते और बार बार वो बच्ची कसमसाकर रह जाती | मामला समझते उसे देर ना लगी | उसकी तीखी निगाहों से उन सज्जन की करतूत व् उस बच्ची की बेबसी छुप ना सकी | वह थोड़ी देर के लिए यह भी भूल गयी कि उसकी गोद में छोटा बच्चा है | अपने बच्चे को सँभालते हुए तुरंत उठी और पलक झपकते ही उन सज्जन के पास पहुंचकर एक झन्नाटेदार थप्पड़ उनके गाल पर रसीद किया “वाह भाईसाहब अच्छी भलमनसाहत दिखाई आपने | बहन जी बोलकर अपनी सीट इसीलिए मेरे हवाले की थी कि खुद इस मासूम के साथ छेड़खानी कर सकें | अरे…कुछ तो शर्म कीजिये, आपकी बेटी की उमर की है ये बच्ची, और आप ! छि…धिक्कार है आपकी सज्जनता पर |” कहकर वह उन पर बरस पड़ी | अचानक पड़े इस थप्पड़ से अवाक् रह गये सज्जन के मुंह से कोई बोल न फूटा | लोगों की आक्रोशित नजरों से बचते बचाते अपने गाल को सहलाते हुए वे भीड़ में ही आगे बढ़ गए व् अगला स्टॉप आते ही बस से उतर गये | वात्सल्य से उसने बच्ची के सर पर हाथ फेरा, जो अपनी डबडबाई आँखों से मौन की भाषा में उसे धन्यवाद कह रही थी |

आलोक कुमार सातपुते की लघुकथाएं

हिजड़ा  वह दैहिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ एक युवक था । उसके मित्रजन उसे इन सम्बन्धों से मिलने वाली स्वार्गिक आनन्द की अनुभूति का अतिशयोक्तिपूर्ण बखान करते। उसका पुरुषसुलभ अहम् जहाँ उसे धिक्कारता, वहीं उसके संस्कार उसे इस ग़लत काम को करने से रोकते थे । इस पर हमेशा उसके अहम् और संस्कारों में युद्ध होता था । एक बार अपने अहम् से प्रेरित हो वह एक कोठे पर जा पहुँचा। वहाँ पर वह अपनी मर्दांनगी सिद्ध करने ही वाला था कि, उसके संस्कारों ने उसे रोक लिया। चँूकि वह संस्कारी था, सो वह वापस आने के लिये उद्यत हो गया, इस पर उस कोठेवाली ने बुरा सा मँुह बनाया, और लगभग थूकने के भाव से बोली-साला हिजड़ा। बाहर निकलने पर उसके मित्रों ने उससे उसका अनुभव पूछा, इस पर उसने सब कुछ सच-सच बता दिया। इस पर उसके मित्रों का भी वही कथन था-साला हिजड़ा। …इतना होने पर भी वह आज संतुष्ट है, और सोचता है कि, वह हिजड़ा ही सही, है तो संस्कारी। 2वर्गभेद  किसी गांव मेें तीन व्यक्ति ‘अ’, ‘ब’, और ‘स’ रहा करते थे, जो क्रमशः उच्च वर्ग, मध्यमवर्ग, और निम्नवर्ग से थे । तीनों ने ही अलग-अलग शासकीय कर्ज ले रखा था । क़िस्तें न पटने पर  एक बार उस गांव में वसूली अधिकारियों का दौरा हुआ । सबसे पहले वे ‘अ’ के घर पहुंचे। वहां वे मुर्ग़े की टाँगें खींचते और महुए की श़्ाराब पीते हुए कहने लगे-‘दाऊजी, आपसे तो हम पैसे कभी भी ले लंेगे,…पैसे भागे थोडे़ ही जा रहे हंै। वहां से वे ‘स’ के घर पहुंचे, उसकी दयनीय स्थिति देखकर उनकी आंखें डबडर्बा आइं, और वे उससे बिना कुछ कहे ‘ब’ के घर की ओर चल दिये और वहां पहुंचकर उन्होंने उसे हड़काना शुरू कर दिया-क्यों बे ! पैसे देखकर तेरी नीयत ख़राब हो गई…। लाओ साले की ज़मीन, जो कर्ज़ लेते समय बंधक रखी थी, को नीलाम करते हंै । …और नीलामी कि प्रक्रिया शुरू हो गयी ।  3तीन ठग सैकड़ों वर्षांे की ग़्ाुलामी-तप से प्रसन्न हो कर प्रभु ने वरदान-स्वरुप भारत को एक लोकतंात्रिक कुर्सी प्रदान कर दी । चँूकि भारत की काया जीर्ण हो चली थी, इसलिये वह उसे कंधो पर बंाधे धीरे-धीरे चलने लगा, तभी सामने से आते हुए तीन ठगों की नज़रें उस कुरसी पर पड़ी । कुरसी देखकर उनके मँुह में पानी भर आया, और वे उसे हड़पने की युक्ति सोचने लगे । आख़िरकार उनके श़्ाातिर दिमाग़ में एक युक्ति आ ही गई । योजनानुसार तीनों उसी मार्ग पर अलग-अलग छिप गये । उनकी उपस्थिति से बेख़बर भारत अपनी मंद चाल से चलता रहा, तभी पहला ठग सामने आकर उससे कहने लगा-क्यूं भाई ! आप ये सम्प्रदायवाद की बेंच को कहाँ लिये फिर रहे हो ? क्रोधित हो भारत ने कहा अंधे हो क्या ? तुम्हंे ये लोकतांत्रिक कुरसी नज़र नहीं आती । ठग हँसता हुआ चला गया । कुछ आगे जाने पर दूसरा ठग सामने आकर कहने लगा-ये जातिवाद की टेबल को कहाँ लादे फिर रहे हो ? भारत ने बैाखलाकर कहा-अरे भई, ये टेबल नही, कुर्सी है । इस पर दूसरा ठग भी हँसते हुए चला गया । कुछ और आगे बढ़ने पर भारत का सामना तीसरे ठग से हो गया । तीसरा ठग ठहाका लगाकर कहने लगा-अरे यार ये क्षेत्रीयता के डबलबेड के पलंग को कहाँ ढोये जा रहे हो ?  अब भारत का आत्मविश्वास भी डगमगा गया । उसने यह सोचकर कि संप्रदायवाद, जातिवाद, और क्षेत्रीयतावाद से तो उसका अहित ही होगा, उसने कुर्सी को फेंकना चाहा । अब कुर्सी सड़क पर थी, पर भारत के कंधों का बंधन पूरी तरह खुला नहीं था, सो वह कुर्सी भारत के साथ घिसटती जा रही थी । अब बारी-बारी से तीनों ठग कूद-कूद कर उस कुरसी पर बैठने लगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला ज़ारी है ।  4अविश्वास एक घर में तीन व्यक्ति बैठे हुये हंै। पहला उस घर का मालिक, दूसरा उसका एक नज़दीकी मित्र, और तीसरा वो, जो उसके साइड वाले कमरे को किराये से पाने की उम्मीद से उसके नज़दीकी मित्र के साथ आया है। चँूकि उम्मीदवार कंुआरा है, इसलिये मकान-मालिक उसे किरायेदार नहीं बनाना चाह रहा है, पर साथ में नज़दीकी मित्र होने के कारण वह धर्मसंकट में है।  उनके बीच बातचीत का सिलसिला प्रारंभ होता है ।  मकान-मालिक -फ़िलहाल तो मकान किराये पर उठाने का हमारा कोई इरादा नहीं है।  उम्मीदवार -क्यों ?  मकान-मालिक -क्यांेकि उस कमरे की खिड़कियों में पल्ले नहीं लगे हैं, और बिजली का कनेक्शन भी पीछे पोल से है, उसे सामने पोल से लेना है ।  उम्मीदवार -मुझे कोई हर्ज़ नहीं है। मैं चाबी आपके पास ही छोड़ जाया करूँगा, फिर आप चाहे जैसे रिपेयरिंग करवाते रहिये ।  (मकान मालिक सोचने लगता है ये साला ऐसे टलने वाला नहीं,…मुझे कोई दमदार बहाना सोचना चाहिए, तभी उसे कुछ सूझता है।) मकान-मालिक -हमारे यहाँ हमारे भतीजे भी साथ में रहतेे हैं। उनकी पढ़ाई में ख़लल न पड़े, सोचकर भी हम फ़िलहाल मकान किराये से देने के पक्ष में नहीं हेैं।(इस बीच मकान-मालकिन चाय लेकर आती है) उम्मीदवार (चाय पीते-पीते)- भाईसाहब, पढ़ाई के मुआमले में तो मैं और भी संज़ीदा हूँ। मंै खुद सिविल सर्विसेज़ की तैयारी कर रहा हँू। ये तो आपके लिये प्लस-प्वांईट होना चाहिये ।  (मकान मालिक फिर सोचने लगता है, साला है तो दिमाग़ का तेज़ पर जब मिसेज़ चाय लेकर आई थी, तो ऐसे घूर रहा था, मानों कच्चा ही चबा जायेगा…इससे स्पष्ट कहना ही ठीक रहेगा।) मकान-मालिक -यार हम लोग फ़ैेमिली वालों को ही मकान किराये से देने के पक्ष में हैं।  अब उम्मीदवार जाने के लिये निराशापूर्वक उठ खड़ा हो जाता है, क्योंकि उसे मालूम है, उसके चेहरे पर तो उसका चरित्र खुदा हुआ नहीं है, किन्तु जाते-जाते वह कहकर ही जाता है-भाईसाहब, पहले आप मुझे यह बतायें कि आपको मुझ पर भरोसा नहीं है, या अपने आप पर, या फिर अपनी पत्नी पर…। आलोक कुमार सातपुते 

प्रतिशत

घर के सभी लोग तरह तरह से समझा रहे थे पर सलोनी की रुलाई थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। दादी अलग भगवान को कोसे जा रहीं थीं कि मेरी बच्ची ने तो कोई भी कसर नहीं रख छोड़ी थी। माघ पूस की कड़ाके की ठंड में भी बेचारी जल्दी जल्दी तैयार होकर सुबह 6 बजे की कोचिंग जाती फिर वापस आकर कालेज भागती थी। क्या जाता था मुरलीवाले का अगर अंगरेजी में भी उसके नंबर दूसरे विषयों की तरह अच्छे आ जाते तो। क्या कालेज के टीचर, कोचिंगवाले सर जी, घर तो घर पूरे मुहल्ले के लोग सलोनी की मेहनत, लगन देखकर दंग थे। सभी को उम्मीद थी कि अगर वह टाप नहीं कर सकी तो टाप टेन में जरूर आएगी। लेकिन अंगरेजी की बजह से 93 प्रतिशत पर अटक गई थी। सलोनी को यही डर खाये जा रहा था कि अब वह कैसे सब को फेस करेगी। पर सलोनी के पिता जी की चिंता अलग थी, उन्हें डर था कि कहीं उनकी बच्ची को सदमा न लग जाए। अचानक वे मोबाइल लिए सलोनी के पास आए और उसके कान से लगा दिया। हैलो, सलोनी बधाई अच्छे नंबरों से पास होने की, पहचाना। राघव भइया… कहकर फिर सुबकने लगी सलोनी। सलोनी मैं तुम्हारा दर्द समझता हूं, तुमने बहुत मेहनत की है लेकिन यह अंतिम अवसर तो नहीं है। अभी और भी अवसर आएंगे अपने को प्रूव करने के, बस उनकी ओर देखो। मेरे साथ भी तो ऐसा ही हुआ था जब आशा के अनुरूप नंबर नहीं आए थे एम ए में पर नेट परीक्षा में पहले ही अटेंम्प्ट में जेआरएफ निकल गया। यहां दिल्ली आकर देखो कि 99 प्रतिशत लाने वाले भी मायूस हो जाते हैं जब देखते हैं कि कट आफ 100 प्रतिशत गया है। ऐसे में क्या मतलब रह गया प्रतिशत का तुम्ही सोचो। असल बात है तुमने मेहनत किया लगन से पढ़ाई की इसे जारी रक्खो। अजय कुमार

फटी चुन्नी

सीमा जो मात्र 14 साल की रही थी ,बैठ कर सील रही है अपनी इज्जत की चुन्नी को आशुओं की धागा और वेवसी की सुई से । कल ही लौटी है बुआ के घर से ।वहाँजाते वक्त सुरमयी सी कौमार्य को ओढ़ कर गयी थी ।पर आते वक्त सब कुछ बिखर गया था । बड़े मान से बुआ ने बुलाया था प्रसव के दिन नजदीक आ रहे थे ।बुआ फिर से माँ बनने बाली थी ,पहले से वह इक प्यारी सी तीन साल की बिटिया की माँ थी । वहाँ वह हँसती खिलखिलाती बुआ का सारा काम करती ,फूफा जी भी बात – बेबात उसे प्यार करते रहते । सीमा खुश हो जाती पिता तुल्य वात्सल्य से भरा प्यार।पर कभी कभी चौंक जाती पापा तो ऐसे प्यार नहीं करते ।ऐसे नहीं ‘छूते’, । धीरे – धीरे हँसी खोने लगी ,उदासी की परत चढ़ने लगी उसकी मासूमियत पर । बूआ पूछती क्या हुआ मन नहीं लग रहा है देखो फूफा जी कितना मानते हैं जाओ साथ में कहीं घूम के आ जाओ । पर सीमा बूआ को कभी उस ” मरदाना प्यार ‘के बारे में नहीं बता पाई । कभी – कभी सोचती चीख -चीख कर बता दे सब को पर बुआ की गृहस्थी का क्या जो फिर एक और बेटी माँ बन लोगों के ताने झेल रही है । कौन उठाएगा बुआ और उनके दोनों बेटियों का बोझ । माँ तो खूद अनाथ बुआ को देखना नही चाहती । और वह बहुत शिद्द्त से सिलने लगती है अपनी फटी चुन्नी ।

बहू और बेटी

वो बेटी ही थी | और शादी के बाद बहू बन गयी | • सर पर पल्ला रखो ~ अब तुम बेटी नहीं बहू हो • कुछ तो लिहाज करो , पिता सामान ही सही पर ससुर से बात मत करो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • माँ ने सिखाया नहीं , पैताने बैठो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • घर से बाहर अकेली मत निकलो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • अपनी राय मत दो , जो बड़े कहे वही मानो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो उसने खुद को ठोंक – पीट के बहू के सांचे में ढल दिया | अब वो बेटी नहीं बहू थी | समय पलटा , सास – ससुर वृद्ध हुए और अशक्त व् बीमार भी | बिस्तर से लग गए | * बताओ कौन सा ट्रीटमेंट कराया जाए , राय दो ~ तुम बेटी ही तो हो  सास से बिस्तर से उठा नहीं जाता ~ सिरहाना पैताना मत देखो , अपने हाथ से खाना खिला दो ~ तुम बेटी ही तो हो  ससुर सारा दिन अकेले ऊबते हैं ~ बातें किया करो , तुम बेटी ही तो हो  ससुर के कपडे बदलने में संकोच कैसा ~ तुम बेटी ही तो हो | अब उसकी भी उम्र बढ़ चुकी थी | बेटियाँ मुलायम होती है , लोनी मिटटी सी , बहुएं सांचे में ढली , तराश कर बनायी जाती हैं | दुबारा बहू से बेटी में परिवर्तन असहज लगा | त्रुटियाँ रहने लगी | सुना है घर के तानपुरे ने वही पुराना राग छेड़ दिया है ~ कुछ भी कर लो बहुएं कभी बेटियाँ नहीं बन सकती |

माँ की माला

नेहा नाहटा,जैन दिल्ली माला फेरकर जैसी ही प्रेरणा ने आँखे खोली,सामने खड़ी बेटी और पतिदेव ठहाके मारने लगे । मान्या तो पेट पकड़ पकड़ कर हंसी से दोहरी हुयी जा रही थी । प्रेरणा आँखे फाडे अचंभे से उन्हें देखते हुए बोली,”अरे क्या हुआ,ऐसे क्यों हँस् रहे हो तुम दोनों “ पर दोनों की हंसी तो रुकने का नाम ही नही ले रही थी। प्रेरणा ने निखिल का मुँह अपने हाथ से टाइट दबाकर उनकी हंसी रोकते हुए बेटी से पूछा, ” बाबू प्लीज़ बताना ,क्या हुआ ऐसा,जो तुम हँस रहे हो, क्या मेरे चेहरे पर कुछ लगा हुआ है ।” बमुश्किल हंसी रोकते हुए मान्या बोली,”मम्मा आप क्या कर रहे थे “ मैं ,मैं ,नही तो, कुछ भी नही,बस माला ही तो फेर रही थी,प्रेरणा मासूमियत से बोली।” अरे मम्मा , मैं  जब स्कूल के लिए रेड्डी हो रही थी, तब बालकनी में अपने बाल बनाने आई तो मुझे मम्मी,मम्मी,मम्मी…  की आवाज आई ,तो मैं धीरे से आपके पास आकर सुनने लगी, मैंने चुपचाप पापा को इशारे से बुलाया और  तब से दोनों बड़ी मुश्किल से हंसी रोककर बैठे है.. “आप मम्मी,मम्मी की माला फेर रही थी ।”(मतलब नानिमा की माला?) नवकार मंत्र, ॐ भिक्षु की या राम ,कृष्ण ,साईबाबा की माला तो सभी फेरते है… “यह मम्मी कोनसी देवता आ गयी” और जैसे ही प्रेरणा ने निखिल के मुँह पर से हाथ हटाया तो दोनों फिर से ठहाके लगाने लगे… “चल भाग यहां से,स्कूल को देर हो जायेगी,खिसियाते हुए  प्रेरणा चिल्लाई।” पति और बेटी के बस स्टॉप पर जाने के बाद  प्रेरणा सोचने लगी कि राम ,कृष्ण, महावीर या भिक्षु भी तो इंसान ही थे,अपने कर्म से वो भगवान बने ।और आज सब उन्हें पूजते है ।  माँ ने भी तो यह सुन्दर जीवन दिया ,जीवन की हर ख़ुशी दी ,जो माँगा वही मिला,हमारा भविष्य संवारा ….. तो माँ कहीँ भगवान से कम है क्या, उनकी माला तो सबसे पहले फेरनी चाहिए । वो किसी भी देवता से कम नहीं… यादों में माँ  के आते ही प्रेरणा की आँखे अब तक नम हो चुकी थी ।

सतीश राठी की लघुकथाएं

===माँ ===   बच्चा , सुबह विधालय के लिए निकला और पढ़ाई के बाद खेल के पीरियड में ऐसा रमा कि दोपहर के तीन बज गए | माँ डाँटेगी! डरता – डरता घर आया | माँ चौके में बैठी थी , उसके लिए खाना लेकर | देरी पर नाराजगी बताई , पर तुरंत थाली लगाकर भोजन कराया | भूखा बच्चा जब पेट भर भोजन कर तृप्त हो गया तो , माँ ने अपने लिए भी दो रोटी और सब्जी उसी थाली में लगा ली | ‘’ ये क्या माँ  ! तू भूखी थी अब तक ? ‘’ ‘’ तो क्या  ! तेरे पहले ही खा लेती क्या  ? ‘’ तेरी राह तकती तो बैठी थी  | ‘’ अपराध बोध से ग्रस्त बच्चे ने पहली बार जाना कि माँ सबसे आखिर में ही  भोजन करती है |  =======जन्मदिन ====== ‘’ सुनो  ! अपना गोलू आज एक साल का हो गया है  | ‘’ गोलू के मुँह में सूखा स्तन ठूँसते हुए सुगना  ने अपने चौकीदार पति से कहा  | ‘’ तुम्हें कैसे याद रह गया इसका जन्मदिन  ? ‘’ चौकीदार का प्रश्न था  | ‘’ उसी दिन तो साहब की अल्सेशियन कुतिया ने यह पिल्ला जना था  , जिसका जन्मदिन कोठी में धूमधाम से मनाया जा रहा है  | ‘’ – ठंडी साँस लेते हुए सुगना बोली | ======= संवाद ======== छोटी सी बात का बतंगड़ बन गया था | पूरे चार दिनों से दोनों के मध्य  संवाद स्थगित था | पत्नी का यह तल्ख़ ताना उसके मन के बाने को चीर – चीर कर गया था कि  – ‘’ विवाह को वर्ष भर हो गया ,एक साड़ी भी लाकर दी है तुमने  ? ‘’ शब्दों की आँचमें सारा खून छीज गया था | अपमान का पारा सिर चढ़कर तप्त तवे सा हो उठा था  , और वह कड़वे नीम से कटु शब्द बोल गया था कि – ‘’ नई साड़ियाँ पहनने का इतना शौक था तो अपने पिता से कह दिया होता ; किसी साड़ी की दूकान वाले से ही ब्याह कर देते  |’’ तब से दोनों के बीच स्थापित अबोला आज तक जारी था | यों रोज़ उसके सारे कार्य समय समय पर पूर्ण हो जाते थे …शेव की कटोरी से लेकर भोजन की थाली और प्रेसबंद कपड़ों तक | बस सिर्फ प्रेम और मनुहार की वे समस्त बातें अनुपस्थित थी , जिनके बिना दोनों एक पल भी नहीं रह पाते थे | लेकिन आज ! आज जब आफिस से उसे आदेश मिला कि पन्द्रह दिनों के डेपुटेशन पर भोपाल जाना है तो घर आकर वह स्वयं को रोक नहीं पाया रुँधे गले से भीगे शब्द निकल पड़े – ‘’ सुनो सुमि  ! मेरा सूटकेस सहेज देना , पन्द्रह दिनों के लिए भोपाल जाना है  |’’  ‘’ क्या …? भोपाल  ! !   पन्द्रह दिनों के लिए  ! ! ! और इतना बोलकर सुमि के शेष बचे शब्द आँसुओं  में बह पड़े | उनकी आँखों से बहते गर्म अश्रु आपस में ढेर सारी बातें करने लगे | ======== विवादग्रस्त ======== घर के दरवाजे पर आकर एक क्षण के लिए वह ठिठक गया | सुबह भोजन की थाली पर बैठा ही था कि बेबात की बात पर पत्नी से विवाद हो गया था और बिना भोजन किए ही वह आफिस चला गया था | धीमे से उसने दरवाजा बजाया | पत्नी ने आकर दरवाजा खोला और मौन रसोई में चली गई | उसने कपड़े बदले और लुंगी पहिन कर , नल से हाथ – मुँह धोने लगा | पत्नी चुपचाप टावेल रखकर चली गई |  वातावरण की चुप्पी सुबह के तनाव को फिर से गहरा कर रही थी | रसोई में गया तो पत्नी ने भोजन की थाली सजाकर उसकी ओर खिसका दी | उसने देखा की उसकी प्रिय सब्जी फ़्राय गोभी थाली में थी |  प्रश्नवाचक निगाहों से पत्नी की ओर देखकर वह बोला – ‘’ और तुम ? ’’  ‘’ मुझे भूख नहीं हैं  | ’’ – पत्नी ने सिर झुकाकर धीमे से कहा |  ‘’ तो .. मैं भी नहीं खा रहा  |’’ – कहकर वह उठने लगा तो पत्नी ने हाथ पकड़कर बैठा लिया और एक पराठा थाली में अपने लिए भी रख लिया  |  दोनों एक दूसरे की आँखों में झाँककर धीरे से मुस्कुरा दिए | वह सोचने लगा कि विवाद आखिर किस बात पर हुआ था , लेकिन बात उसे याद नहीं आई | ========== खुली किताब ===========  वह सदैव अपनी पत्नी से कहता रहता कि , ‘’ जानेमन  !मेरी जिन्दगी तो एक खुली किताब की तरह है …जो चाहे सो पढ़ ले | ’’ इसी खुली किताब के बहाने कभी वह उसे अपने कॉलेज में किए गए फ्लर्ट के किस्से सुनाता , तो कभी उस जमाने की किसी प्रेमिका का चित्र दिखाकर कहता – ‘’ ये शीला …उस जमाने में जान छिड़कती थी हम पर….हालाँकि अब तो दो बच्चों की अम्मा बन गई होगी  | ‘’   पत्नी सदैव उसकी बातों पर मौन मुस्कुराती रहती  | इस मौन मुस्कुराहट को निरखते हुए एक दिन वह पत्नी से प्रश्न कर ही बैठा — यार सुमि  ! हम तो हमेशा अपनी जिन्दगी की किताब खोलकर तुम्हारे सामने रख देते हैं  , और तुम हो कि बस मौन मुस्कुराती रहती हो | कभी अपनी जिन्दगी की किताब खोलकर हमें भी तो उसके किस्से सुनाओ  | ’’   मौन मुस्कुराती हुई पत्नी एकाएक गम्भीर हो गई , फिर उससे बोली —‘’ मैं तो तुम्हारे जीवन की किताब पढ़ – सुनकर सदैव मुस्कुराती रही हूँ , लेकिन एक बात बताओ ….मेरी  जिन्दगी की किताब में भी यदि ऐसे ही कुछ पन्ने निकल गए तो क्या तुम भी ऐसे ही मुस्कुरा सकोगे   ? ‘’    वह सिर झुकाकर निरुत्तर और मौन रह गया | ========== आटा और जिस्म ===========  दोनों हाथ मशीन में आने से सुजान विकलांग हो गया | नौकरी हाथ से गयी | जो कुछ मुआवजा मिला वह कुछ ही दिनों में पेट की आग को होम हो गया | रमिया बेचारी लोगों के बर्तन माँजकर दोनों का पेट पाल रही थी |   पर … आज  ! आज स्थिति विकट थी | दो दिनों से आटा नहीं था और भूख से बीमार सुजान ने चारपाई पकड़ … Read more

बाल परित्यक्ता

डॉ मधु त्रिवेदी          जुम्मे – जुम्मे उसने बारह बसंत ही देखे थे कि पति ने परस्त्री के प्रेम – जाल में फँस कर उसे त्याग दिया । उसका नाम उमा था अब उसके पास दो साल की बच्ची थी जिसके लालन -पालन का बोझ उसी पर ही था साथ ही सुनने को समाज के ताने भी थे । मर्द को भगवान ने बनाया भी कुछ ऐसा है जो अपने पर काबू नहीं कर पाता और फँस जाता है पर स्त्री मरीचिका में । बंधन का कोई महत्व नहीं । प्रेम भी अंधा होता है लेकिन इतना भी नहीं कि अग्नि को साक्षी मान कर जिस स्त्री के साथ सात फेरे लिए है उस बंधन को भी तोड़ डाले।                        धीरे – धीरे बच्ची बड़ी होती गयी । बच्ची का नाम उज्जवला था साफ वर्ण होने के कारण माँ ने उसको उज्जवला नाम दिया था ‘ जवा;नी की दहलीज पर पैर रखते ही वह और भी सुंदर लगने लगी । लेकिन अपनी इस सुन्दरता की ओर उसका बिलकुल ध्यान न था । यह सुन्दरता उसके लिए अभिशाप बनती जा रही थी । चलते फिरते युवकों की नजरें उस पर आकर सिमट जाती थी ।                   सामान्य लड़कियों से भिन्न उसे गुड्डे गुड़ियों के खेल कदापि नहीं भाते थे । प्रकृति के रमणीय वातावरण में जब उसकी हम उम्र लड़कियाँ लगड़ी टॉग कूद रही होती थी गुटके खेल रही होती थी वह किसी कोने में बैठी अपनी माँ के अतीत को सोच रही होती  थी कि कहीं ऐसी पुनरावृत्ति उसके साथ न हो और  भय से काँप उठती थी ।        मलिन बस्ती में टूटा – फूटा उसका घर था लोगों के घर -घर जाकर चौका बर्दाश्त करना उनकी आय का स्रोत था माँ बच्ची को पुकारते  हाथ बटाँने के लिए कहा करती थी , बेटी कहा करती थी माँ ‘मुझे होमवर्क’ करना है । माँ की स्वीकरोक्ति के बाद बेटी उज्जवता पढ़ने बैठ जाती ।  बच्ची पास के निशुल्क सरकारी विद्यालय में पढ़ने जाया करती थी किताब कापी का खर्च स्कालरशिप से निकल जाता था ।           धीरे – धीरे माँ की आराम तंगी को समझ बेटी ने ट्यूशन पढाने का काम शुरू कर दिया । मेट्रिक की परीक्षा पास करते ही माँ उमा को ब्याह की चिंता सताने लगी । परित्यक्ता होने के कारण बेटी के साथ बाप का नाम दूर चला गया था लोग गलत निगाह से देखते थे ।  इसलिए जब माँ घर से दूर होती तो उज्जवला को अपने साथ ले जाती ।             उमा को भय था कि उसकी बेटी उज्जवला भी अपनी माँ की तरह घर , परिवार एवं समाज से परित्यक्त न हो ।इसलिए हर पल उज्जवला का ध्यान रखती थी क्योंकि पति के छोड़ने के बाद जितना तन्हा और और अकेला महसूस करती थी उसकी कल्पना मात्र से काँप उठती थी । पति के छोड़ने के बाद सास ससुर ने भी घर से निकाल दिया था , अतः दुनियाँ में कोई दूसरा सहारा न था । माँ बाप तो दूध के दाँत टूटने से पहले ही राम प्यारे हो गये थे । उसे खुद अपना सहारा बनने के साथ बेटी का सहारा भी बनना था ।                उज्जवला की सुन्दरता भी किसी अलसाए चाँद से कम न थी पर इस सुन्दरता का पान करने वाले मौका परस्ती भी कम न थे । इसलिये माँ उमा डरती थी कि उसकी बेटी कहीं जमाने की राह में न भटक जाए ।                अपनी यौवनोचित चंचलता को संभालते हुए उसने आत्मनिर्भर बनने की कोशिश की अतः उसने पास के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाने का निर्णय लिया । अब माँ -बेटी के जीवन में न;या मोड़ आ गया था अब उसकी माँ को लोग “मैडम जी की माँ के नाम से पुकारते थे । इस तरह समाज में उसका नया नामकरण हो चुका था । अब उसके रिश्ते भी नये आने लगे थे , लेकिन माँ से जुदा होने के अहसास के साथ उज्जवला को कोई रिश्ता कबूल नहीं था ।                लेकिन माँ उमा का शरीर जर्जर हो चुका था इसलिए उसकी इच्छा थी कि उसकी बेटी शीघ्र ही परिणय सूत्र में बँध जाये लेकिन बेटी जब विवाह की बात चलती तभी “रहने माँ , तुम भी “कहकर इधर -उधर हो जाती ” थी । इसलिए माँ ने एक सुयोग्य वर देखकर उज्जवला का विवाह कर दिया ।बेटी के जाते ही माँ फिर से नितांत अकेली हो गयी थी ।

जीवन

                                      तेरहवीं का पूजन शुरू होने वाला था | पंडित जी आ चुके थे | इतनी भीड़ के बावजूद घर में मृत्यु का सन्नाटा पसरा हुआ था | पंडित जी ने पूजन शुरू करने से पहले लोगों की ओर देखा फिर कहना शुरू किया “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय “ तभी मृतक की पत्नी प्रीती की करुण चीख सुनाई पड़ी ,” बस करिए पंडित जी , मत करिए ये आत्मा परमात्मा और जीवन की बातें | इसका क्या फायदा ? १२ साल के वैवाहिक जीवन अपना एक अंश भी तो नहीं छोड़ गए सुधीर जिसके सहारे मैं जिंदगी काट लेती | अब इस घर में दीवारों पर सर मारने के लिए अकेली मैं ही बची हूँ जिन्दा , और मेरे साथ बचा है सुधीर की मौत का सच | अब कभी आएगी तो मेरी मौत ही आएगी | इस घर में कभी जिंदगी नहीं आ सकती कभी नहीं | प्रीती के दर्द से पंडित जी के साथ – साथ सभी की आँखें नम हो गयी | फिर पंडित जी पाटे से उठ कर बोले ,” ये सच नहीं है बेटी , देखों सुधीर के जाने के बाद भी इस घर में जीवन आया है ,विभिन्न रूपों में , वो उस रोशनदान में गौरैया के घोंसले में अण्डों से चूजे निकल आये हैं | जिनकी ची – ची का शोर पूरे घर में सुनाई दे रहा है | तुम्हारे आँगन के आम के पेड़ पर न जाने कितनी कच्ची अमिया लटक रही है , कभी गिना है तुमने | ये बेल भी कुछ और छएल गयी है |और उस गुलाब को तो देखो कितने काँटों के बीच सर उठा कर हम सब की जीवनदायनी वायु को सुवासित कर रहा है | प्रीती आँखें फाड़ – फाड़ कर देखने लगी | सच में शोक के इन दिनों में भी उसके अपने घर में जीवन कितने रूपों में प्रगट हुआ है | पंडित जी फिर पातटे पर जा कर बैठ गए | उन्होंने फिर से कहना शुरू किया “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय” पर इस बार प्रीती ने कोई प्रतिरोध नहीं किया | सुधीर की यादें तो सदा साथ रहेंगीं पर वो जीवन के समग्र व् सतत रूप को स्वीकार कर चुकी थी | वंदना बाजपेयी

सूखा

इलाके में लगातार तीसरे साल सूखा पडा है अब तो जमींदार के पास भी ब्याज पर देने के लिए रूपये नहीं रहे । जमींदार भी चिंतित है अगर बारिश न हुई तो रकम डूबनी तय है । अंतिम दांव समझकर जमींदार ने हरिद्वार से पंडित बुलवाकर बारिश हेतु हवन करवाया । दान दक्षिणा समेटते हुए पंडित ने टोटका बताया कोई गर्भवती स्त्री अगर नग्न होकर खेत में हल चलाये तो शर्तिया बारिश होगी । मुंशीजी को ऐसी स्त्री की तलाश का जिम्मा सौंपा गया । मुंशीजी ने गांव में घर घर घुमने के बदले सबको एकसाथ पंचायत बुलाकर समस्या और पंडित जी के द्वारा बताया निदान बताया और गुजारिश की सहयोग करने की । अभी पंचायत में खुसुर फुसुर चल ही रही थी की जमींदार साहब की नौकरानी दौड़ी दौड़ी आई ” मालिक नेग पांच सौ से कम न लूंगी आप दादा बनने वाले हैं बहुरानी के पांव भारी है । ” खुशी से फुल गए जमींदार साहब मुंछ पर ताव देकर बोले ” आता हूं पंचायत का काम निबटाकर घर चल हजार दूंगा । ” पंचायत में अचानक सन्नाटा छा गया सब जमींदार साहब को उम्मीद भरी नजरों से देख रहे थे, मानों बारिश उनकी तिजोरी में भरा रूपया हो । जमींदार इस खामोशी भरी नजरों का मतलब समझते ही उखड़ गये ” सब अंधविश्वास है ऐसा कहीं होता है बारिश तो प्रकृति के हाथ में है उस फरेबी पंडित की बात पर अपनी बहू बेटियों का अपमान क्यों करें । ” कुमार गौरव