हिंजड़ा

वह दैहिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ एक युवक था । उसके मित्रजन उसे इन सम्बन्धों से मिलने वाली स्वार्गिक आनन्द की अनुभूति का अतिशयोक्तिपूर्ण बखान करते। उसका पुरुषसुलभ अहम् जहाँ उसे धिक्कारता, वहीं उसके संस्कार उसे इस ग़लत काम को करने से रोकते थे । इस पर हमेशा उसके अहम् और संस्कारों में युद्ध होता था । एक बार अपने अहम् से प्रेरित हो वह एक कोठे पर जा पहुँचा। वहाँ पर वह अपनी मर्दांनगी सिद्ध करने ही वाला था कि, उसके संस्कारों ने उसे रोक लिया। चँूकि वह संस्कारी था, सो वह वापस आने के लिये उद्यत हो गया, इस पर उस कोठेवाली ने बुरा सा मँुह बनाया, और लगभग थूकने के भाव से बोली-साला हिजड़ा। बाहर निकलने पर उसके मित्रों ने उससे उसका अनुभव पूछा, इस पर उसने सब कुछ सच-सच बता दिया। इस पर उसके मित्रों का भी वही कथन था-साला हिजड़ा। …इतना होने पर भी वह आज संतुष्ट है, और सोचता है कि, वह हिजड़ा ही सही, है तो संस्कारी। आलोक कुमार सातपुते

औकात

दफ्तर से लौटते समय सुरेश बाबू ने स्कूटर धीमी कर के देखा , हाँ  ! ये सोमेश जी ही थे | अब ऐसा क्या हुआ जो ये यहाँ आ गए | ये तो बहुत ख़ुशी या गम में ही पीते थे | चलो पूंछते हैं , साथ तो देना बनता है , सोंचते हुए सुरेश बाबू ने स्कूटर किनारे लगा दी और पहुँच गए सोमेश जी का साथ देने | कुर्सी खिसका कर बैठते ही प्रश्न दागा ,” क्या रे सोमेश अब आज क्या हुआ ? सोमेश ने एक बड़ा सा घूँट गटकते हुए कहा , ” कुछ न पूंछो  ,  ?ये औरतें न हों न दो दुनिया का कोई मर्द शराब खाने की और रुख न करे | तुम्हारी भाभी हैं न, उन्ही को देखो ? अब ऐसा क्या कर दिया भाभी ने , सुरेश जी रहस्य से पर्दा उठाने को बेताब हो गए |  बहुत मुँह खुल गया है | मायके में किसी की शादी पड़ रही है | | भाभी ऐसी साडी पहनेंगी , दीदी ऐसी साडी , मुझे भी चाहिए | जब मैंने असमर्थता जाहिर की तो मुँह बना कर बोली ठीक है तुम्हारी औकात नहीं है खरीदने की तो अब नहीं कहूँगी | बोझ और तुमने सुन लिया ,” सुरेश जी ने आश्चर्य और क्रोध मिश्रित भाव से पूंछा ? सोमेश जी मुँह बनाते हुए बोले ,” सुन कैसे लेता , एक के बदले हज़ार सुनाई | |सारी पुरानी बातें दोहरा दी |जो हमेशा सुनाता रहता था |   बाप के पास था ही क्या , यूँ ही अपनी गंवार बेटी को मेरे पल्लू में बाँध दिया , ढंग का स्कूटर तक नहीं दिया  |देते भी कैसे औकात ही नहीं थी | सुरेश : ओह ! तब तो भाभी जी भी आहत हो कर यहीं कहीं कोई प्याला गुटक रहीं होंगी |  सोमेश : अरे नहीं ! दिन भर ओंधे मुँह पड़ी रोती  रहेगी | फिर रात को मेरी पसंद की मटर – पनीर की सब्जी बनाएगी , शयद वो नीली वाली नाईटी भी पहन लें ( कहते हुए सोमेश जी ने बायीं आँख दबा दी ) क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ? सुरेश : अच्छा ! ऐसा ? सोमेश : और नहीं तो क्या , बाप ने पैसे बचाने  के चक्कर में ज्यादा पढाया नहीं , दहेज़ और पढ़ाई डबल खर्चा जो होता | जो  थोडा बहुत पढ़ा था वो भी बच्चों के पोतड़े बदलते – बदलते उड़ गया | ये औरतें भी न ऐवेई भाव खाती हैं | अब  मुझ से झगड़ कर कहाँ जायेगी | ” औकात ‘ क्या है उसकी ?  वंदना बाजपेयी 

बोझ

इस बार कामिनी के मायके आने पर कोई स्वागत नहीं हुआ | भाभियों ने मामूली दुआ सलाम कर रसोई की राह संभाली | बिट्टू के मनपसंद खाने के बारे में भी नहीं पूंछा | लौकी की सब्जी और तुअर दाल देख कर बिट्टू नाक – भौं बनाती , तब तक माँ की तरेरती आँखे देख चुपचाप वही गटक  लिया | पर बिट्टू हैरान थी की इस बार मामा ने भी कहीं घूमने चलने की बात नहीं कही | न ही दीदी , दीदी कर के उसकी माँ के इर्द – गिर्द घूमें | पर सब से ज्यादा आश्चर्य उसे नाना जी की बात सुन  कर हुआ जो नानी को डांटने के लहजे में कह रहे थे | ज्यादा बिटिया – बिटिया करती रहोगी तो बेटे बहुएं तुम्हारे खिलाफ हो जायेंगे | कामिनी का जो हो सो हो , तुम अपने बुढापे के बारे में सोंचों | अब तो 8 वर्षीय बिट्टू से रहा नहीं गया | सीधे माँ के पास जा कर पूंछने लगी ,”माँ , आखिर इस बार ऐसा क्या हुआ है , कोई हमसे ठीक से बात क्यों नहीं कर रहा है |सब लोग इतना बदल क्यों गए हैं ? कुछ नहीं बेटा , इस बार मैंने हिम्मत कर के वो नीले साव भाभी और माँ को दिखा दिए जो तेरे पापा की बेल्ट से हर रात मेरी पीठ पर उभर आते हैं | बस , सबको भय हो गया की मैं अब कहीं यहीं न रुक जाऊं ” कामिनी ने बैग पैक करते हुए सपाट सा उत्तर दिया | वंदना बाजपेयी 

सेंध

यूँ तो मंदिर में पूरे नवरात्रों में श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है | पर अष्टमी , नवमी  को तो जैसे सैलाब सा उमड़ पड़ता है | हलुए पुडी  का प्रसाद  फिर कन्या भोज | मंदिर के प्रागड़ में ढेर सारी  कन्याएं रंग – बिरंगे कपडे सजी धजी सुबह से ही घूमना शुरू कर देती |इसमें से कई आस – पास के घरों में काम करने वालों की बच्चियाँ  होती | जिन्हें माँ के साथ काम पर जाने के स्थान पर एक दिन देवी बनने  का अवसर मिला था | इसे बचपना कहें या भाग्य के साथ समझौता की वो सब आज  अपने पहनावे और मान – सम्मान पर इतरा  रही थी ये जानते हुए भी की  कल से वही झूठे बर्तनों को रगड़ना है | ” प्रेजेंट ” में जीना कोई इनसे सीखे |                                         खैर !  बरस दर बरस श्रद्धालुओं की भीड़ मंदिर में बढती जा रही थी | और  कन्याओ की भी | हलुआ और पूड़ी तो ये देवियाँ  कितना खा  सकती थी | इसलिए थोडा सा चख कर सब एक जगह इकट्ठा हो जाता | जो शाम को सारी  झुग्गी बस्ती का  महा भोज  बनता | हाँ ! नकदी सब अपनी – अपनी संभाल  कर रखती  | शाम को महा भोज में किस को कितनी नकदी मिली इस पर चर्चा होती | जिसको सबसे ज्यादा मिलती वो अपने को किसी रानी से कम न समझती | नारी मन पर वंदना बाजपेयी की लघुकथाएं                                                                                                 तो आज भी सुबह से ही सजी – धजी कन्याएं मंदिर में इकट्ठी हो गयीं | श्रद्धालु आते और उस भीड़ में से मन पसंद ९ कन्याओं को  छांट  कर भोजन कराते | दक्षिणा देते | मजे की बात सब को छोटी से छोटी कन्या चाहिए | कन्या जितनी छोटी पुन्य उतना ज्यादा | आज  भी कन्याओं की भीड़ में सबसे ज्यादा तवज्जो उन दो कन्याओं को मिल रही  था जो मात्र ३ या चार साल की रही होंगी | दोनों लग भी तो बिकुल देवी सी रही थी | एक लाल घाघरा लाल चुन्नी ओढ़े थी व् दूसरी हरे घाघरे चुन्नी में थी | भरा चेहरा ,बड़ी – बड़ी आँखें और चहेरे पर  मासूमियत बढ़ाती बड़ी सी लाल बिंदी जो उनकी माताओ ने माथे पर लगा दी थी | दोपहर के दो बज रहे थे | दोनों अभी तक १५ बार तक देवी बन दक्षिणा ले चुकी थीं | उधर १० साल की सुरभि को तो किसी ने पूंछा तक नहीं | दो एक साल पहले तक उसकी भी कितनी पूँछ होती थी | अभी इतनी बड़ी तो नहीं हुई है वो | हां ! कद जरा लंबा  हो गया है | बाबा पर गया है | तो उससे क्या ? सुरभि निराश   हो चुकी थी | उसका बटुआ खाली था , और पेट भी | पर सबसे ज्यादा खालीपन उसके मन में था | वो भी एक अन्याय के कारण |जो वो बहुत देर से गुटक रही थी थी | कला                                             तभी   एक पति – पत्नी भीड़ की तरफ आते हुए दिखे | सभी के साथ सुरभि भी उठ खड़ी  हुई | उसे चुने जाने की आशा थी | पर उन्होंने भी सुरभि के स्थान पर उन दोनों बच्चियों को ही चुना | इस बार सुरभि से न रहा गया | और बोल ही पड़ी ,“अंकल जी वो लडकियाँ  नहीं लड़के हैं ” |परन्तु  मंदिर के इतने कोलाहल ,व्रत तोड़ने की जल्दबाजी या फटाफट पुन्य कमाने के लोभ  में किसी  ने सुना ही  नहीं | सुरभि मुँह लटका कर रह गयी |  मंदिर के प्रांगण में देवी की मूर्ति के ठीक सामने इन मासूम देवियों की कमाई पर देवताओं की सेंध लग चुकी थी |  यह भी पढ़ें …. काफी इंसानियत कलयुगी संतान बदचलन आपको    “सेंध “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords-navratri, kanya pujan, women issues

लघुकथा – कला

तुम्हारा क्या … दिन भर घर में रहती हो … कोई काम धंधा तो है नहीं … यहाँ बक बक वहां बक बक … आराम ही आराम है … बस पड़े पड़े समय काटो । एक हम हैं दिन भर गधे की तरह काम करते रहते हैं । ये कहते हुए श्रीनाथ जी ऑफिस के लिए निकल गए  अनन्या आँखों में आंसू लिए खड़ी रही । ज्यादा पढ़ी लिखी वो है नहीं,  घर के कामों के अलावा उसके पास जो भी समय होता कभी टीवी चला लेती कभी किसी को फ़ोन मिला लेती … आखिर समय तो काटना ही था । पर पति पढ़ा लिखा पुरुष है …. ऊंची पदवी , नाम , उसके पास समय का सर्वथा अभाव रहता है । जो थोड़ा बहुत समय मिलता भी है वह आने जाने वाले खा जाते हैं । अनन्या के हिस्से में पति का समय तो नहीं आता पर शिकायत करने पर ताने जरूर आ जाते हैं । समय बदला … अब श्रीनाथ जी रिटायर हैं । न ऑफिस का काम है … न पदवी के कारण दिन भर घर पर लगा रहने वाला लोगों का मजमा । बच्चे दूसरे शहर में रहते हैं । माँ से तो घंटों फ़ोन पर बात करते है पर पिता से बस हाल चाल … क्योंकि एक तो श्रीनाथ जी को फ़ोन पर इतनी बात करने की आदत नहीं है और दूसरे समय अभाव के कारण बच्चों से इतना घनिष्ठ रिश्ता भी नहीं बना । अनन्या व्यस्त है । घर के काम … पड़ोस की औरतों के साथ सत्संग …आदि आदि । पति के लए अब उसके पास समय नहीं है । निराश … ऊबे हुए श्रीनाथ जी एकदिन अनन्या से पूछते है ‘ तुम कैसे इतनी आसानी से समय काट लेती हो ‘। अनन्य मुस्कराकर कहती है ‘ कोई चीज़ व्यर्थ नहीं जाती … आपने बड़ी बड़ी डिग्री हांसिल की जो जीवन भर आपके काम आई । मैंने केवल यही डिग्री हांसिल की जो अब मेरे काम आ रही है ‘। समय समय की बात है । आखिर समय काटना भी एक कला है । वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … चॉकलेट केक आखिरी मुलाकात गैंग रेप यकीन  आपको  कहानी  “लघुकथा – कला  “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

जोरू का गुलाम

राधा आटा गूंधते गूंधते बडबडा रही थी ” पता नहीं क्या ज्योतिष पढ रखी है इस आदमी ने हर बात झट से मान जाता है । उसका भी मन करता है रूठने का , और फिर थोडी नानुकुर के बाद मान जाने का । अभी कल कहा सर में दर्द है तो फौरन से झाडू पौंछा बरतन सब करके बैठ गया सर दबाने आराम पाकर थोड़ा आंखें क्या बंद की लगा पैर दबाने । पता नहीं इस आदमी में स्वाभिमान नाम की कोई चीज है कि नहीं । पिताजी ने न जाने किस लल्लू को पल्लू में बांध दिया । “  तभी आहट हुई तो देखा विनोद बेसिन पर हाथ धो रहे थे । उसने पूछा ” सब्जी नहीं लाये क्या । “विनोद झुंझलाकर बाहर की तरफ जाते हुए बोला ” जोरू का गुलाम समझ रखा है क्या , सामने सडक पर तो मिलती है खुद क्यों नहीं ले आती । ”  राधा को तो मन की मुराद मिल गई पल्लू कमर में खोंसकर अपने डायलाग सोचते सोचते वो विनोद के पीछे लपकी । तभी उसके पैरों से कुछ टकराया और वो धडाम से गिर पडी , देखा तो सब्जियां थैले से बाहर निकल कर किचन में टहल रही थी । उनको पकड पकडकर उसने पुनः थैले में बंद करना शुरु कर दिया और मन ही मन बडबडाने लगी ” इस आदमी पर न पक्का किसी भूत प्रेत का साया है मेरे मन की सब बात जान जाता है आज ही माँ को फोन करके कहती हूं मसान वाले बाबा से भभूति लेकर भिजवा दे । “ उधर से विनोद चिल्लाया ” अरे क्या टूटा । “ गुस्से में ये भी चिल्लाई ” मेरा भ्रम । “ कुमार गौरव हमारा वेब पोर्टल

रूपये की स्वर्ग यात्रा

त्रिपाठी जी  और वर्मा जी मंदिर के बाहर से निकल रहे थे । आज मंदिर में पं केदार नाथ जी का प्रवचन था । प्रवचन से दोनों भाव -विभोर हो कर उसकी मीमांसा कर रहे थे । वर्मा जी बोले  क्या बात कही है “सच में रूपया पैसा धन दौलत सब कुछ यहीं रह जाता है कुछ भी साथ नहीं जाता फिर भी आदमी इन्ही के लिए परेशान रहता है”। त्रिपाठी जी ने हाँ में सर हिलाया ‘ अरे और तो और एक -दो  रूपये के लिए भी उसे इतना क्रोध आ जाता है जैसे स्वर्ग में बैंक खोल रखा है “। गरीबों पर  दया और परोपकार किसी के मन में रह ही नहीं गया है । वर्मा जी ने आगे बात बढाई ‘ रुपया पैसा क्या है , हाथ का मैल है आज हमारा है तो कल किसी और का होगा‘।  दोनों पूरी तल्लीनता से बात करते हुए आगे बढ़ रहे थे , तभी वहां से एक ककड़ी वाला गुजरा ‘ककड़ी ले लो ककड़ी ५ रु की ककड़ी ‘। वर्मा जी बोले ४ रु  में एक ककड़ी लगाओ। ककड़ी वाला बोला  नहीं साहब नहीं इतने में हमारा पूरा नहीं पड़ता है ।   तोल मोल होता रहा पर ककड़ी वाला टस से मस नहीं हुआ । थोड़ी ही देर में तोल मोल ने बहस का रूप ले लिया । वर्मा जी को एक ककड़ी वाले का यह व्यवहार  असहनीय लगा और उन्होंने गुस्से से तमतमा कर ककड़ी वाले का कालर पकड़ लिया और बोले ‘मंदिर के पीछे तो ४ रु में एक ककड़ी बेंचता है और यहाँ लूटता है “साले  ” एक रु क्या स्वर्ग में ले कर जायेगा ‘। ककड़ी वाला कहाँ कम था, वो भी तपाक से बोला  “तो क्या बाबूजी आप १ रु स्वर्ग में ले कर जाओगे “। त्रिपाठी जी निर्विकार भाव से रूपये की स्वर्ग यात्रा का आनंद ले रहे थे । सच है …….. कथनी और करनी मैं बहुत फर्क होता है । वंदना बाजपेयी  कार्यकारी संपादक -अटूट बंधन  facebook page 

लघुकथा – सूकून

कुमार गौरव मौलिक एवं अप्रकाशित एक छुट्टी के दिन कोई पत्रकार कुछ अलग करने के ख्याल से जुगाड़ लगाकर ताजमहल में घुस गया । बहुत अंदर जाने पर उसे एक बेहद खूबसूरत औरत अपने नाखून तराशती हुई मिली । पत्रकार को आश्चर्य हुआ दोनों की नजरें मिली तो उसने पूछा ” कौन से चैनल से हो । ” उसने बिना चेहरे पर कोई भाव लाये कहा ” मैं यहीं रहती हूं । ” लडकी कुछ दिलचस्प लगी सो उसने कैमरा ऑन कर लिया और बात शुरु करी ” कब से रहती हो यहाँ । ” “बहुत पहले ये बनने के कुछ दिनों बाद से ही । ” “अच्छा ये बताओ शाहजहां को तुमने देखा था कैसे थे । ” ” हां बहुत करीब से उनमें वो सारी खूबियां थी की कोई उनको अपना महबूब बना ले । ” ” तुम्हारे हिसाब से ताजमहल क्यूं बनवाया उनकी और भी तो बेगमें थी क्या वो उनसे प्यार नहीं करते थे । ” आह भरी उसने ” हां सबसे प्यार करते थे लेकिन मैं चाहती थी की वो सिर्फ मुझसे प्यार करें इसी जिद में मैंने खाना पीना छोड दिया था और बीमार पड गई । आखिर में उन्होंने वादा किया की वो कुछ ऐसा करेंगे जिससे आने वाली नस्लें यही महसूस करेंगी की वो मुझसे बेपनाह प्यार करते थे । ” पत्रकार अचंभित रह गया ” ओ मॉय गॉड आप मुमताज हैं । ” “हां मैं ही वो बदनसीब हूं जिसकी रूह इस इश्क की कब्रगाह में भटकती रहती है । ” “क्या कोई उपाय नहीं जिससे इस भटकती रूह को सूकून मिले ” बेसाख्ता खिलखिलाई वो ” जब हर मर्द सिर्फ एक औरत का हमेशा के लिए हो जाया करेगा तब हर घर ताज होगा और शायद मेरी रूह को सूकून भी ” कहकर वो एक चल दी । उसकी बात पर सोचते हुए उसने कैमरा उठाया तो देखा कैमरे के लेंस का शटर तो उठाया ही नहीं था ।

बाहें

  माता और पिता दोनों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है | जहाँ माँ धरती है जो जीवन की डोर थाम लेती है वही पिता आकाश जो बाहर आने वाली हर मुसीबत पर एक साया बन के छा जाते हैं | तभी तो नन्हीं बाहें हमेशा सहारे के लिए पिता की बाहें खोजती हैं | पर अगर …   पढ़िए मार्मिक कहानी – बाहें  चालीसवां सावन चल रहा था तृप्ति का, पर ज़िन्दगी चार दिन के सुकून के लिए तरस गयी थी आजकल. एक के बाद एक कहर बरपा हो रहा था तृप्ति की ज़िन्दगी में. दो बच्चों को अकेले पालने की ज़िम्मेवारी छोटी बात होती, फिर भी तृप्ति ने कभी उन्हें पिता की कमी महसूस नहीं होने दी. उनकी हर ज़रुरत को अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस तरह पूरा किया कि अच्छे-भले सब साधनों से संपन्न व् सुखी कहे जाने वाले दम्पत्तियों के बच्चे भी उसके बच्चों – मन्नत और मनस्वी से जलते थे. हर क़दम पर नित-नई परेशानियां आई पर हर परेशानी उसे और भी मज़बूत करती चली गयी. दुनिया की तो रीत है कि सामाजिक दृष्टि से ‘बेचारा’ कहा जाने वाला यदि सर उठा कर स्वाभिमान से यानि बिना दुनिया कि मदद के आगे बढ़ने की जुर्रत करे तो उसे सुहाता नहीं है, और यदि वो कामयाब भी होता नज़र आये तो इस क़दर सबकी नज़रों में खटकता  है कि वही दुनिया जो कुछ समय पहले उसके पहाड़ से दुःख को देखकर सहानुभूति प्रकट करते हुए उस ‘बेचारे’ को हर संभव सहायता का वचन देते नहीं थकती थी, वही दुनिया उसकी राहों में हरदम- हरक़दम पर रोड़ा अटकाने से बाज़ नहीं आती. दुनिया ने अपनी रीत बखूबी निभायी. अभी दो महीने पहले ही मन्नत ने ग्यारहवीं में प्रवेश लिया. तृप्ति को आजकल के प्रतियोगितावादी युग के रिवाज़ के मुताबिक़ उसकी विज्ञान और गणित कि ट्यूशन्स लगानी पड़ी. और क्योंकि मन्नत पढ़ाई में बहुत होशियार थी उसे ऊंचे स्तर कि ट्यूशन्स दिलवाई तृप्ति ने – उस सेंटर में जो शहर से थोड़ा बाहर पड़ता था. नज़दीक ऐसे स्तर का कोई भी सेंटर न था. बेटी को आने जाने में किसी पर आश्रित न रहना पड़े, इसलिए उसे स्कूटी भी लेकर दी. सर्दियों में तो पांच बजे ही सूरज छिप जाता है, अतः जब ६ बजे कि ट्यूशन ख़त्म कर के साढ़े छह बजे घर पहुँचती थी मन्नत तो अन्धेरा हो चुका होता था. छोटे शहर की निवासी बेचारी तृप्ति बेटी के घर पहुंचने तक किसी तरह दिल की धड़कनों को समेटती घडी-घडी दरवाज़े को निहारती रहती और उसके घर आने पर ही चैन की सांस लेती. पर तृप्ति का चैन, मोहल्ले वालों की बेचैनी का कारण था. आखिर बच्ची जवान जो होने लगी थी. सो  देर-सवेर उसके देर से घर आने पर लगी बातें बनने – ‘आज तो पीछे कोई बैठा था…’, ‘आज पूरे दस मिनट देरी से आई…’, ‘हद्द है इसकी माँ की… अरे हम तो सब होते हुए भी कभी न इजाज़त दें बेटी को इत्ती देर से अँधेरे में घर आने की’, ‘बाप नहीं रहता न साथ में तभी…’, ‘अपनी ज़िन्दगी का किया सो किया, इस अच्छी खासी छोरी को बिगड़ैल बनाकर ही छोड़ेगी ये औरत’. ओह… ! चीखें मार मार कर रोने को जी चाहता था तृप्ति का. अभी तक तो उस पर ही अकेले रहने की बाबत ताने दिए जाते थे – ‘जाने क्या क्या करना पड़ता होगा बिचारी को इतनी सुख सुविधाएं जुटाने के लिए, अब एक नौकरी में तो इत्ती ऐश से कोई न रह सके…’, ‘ अरे भाई, इन तलाकशुदा औरतों को ऐश के बगैर नहीं सरता जभी तो अलग होती हैं…’, ‘ कल तो वो … हाँ-हाँ वही ऑफिस वाला, लम्बा सा, पूरा एक घंटे के क़रीब अंदर ही था…’ ‘खैर… हमें क्या, उसकी ज़िन्दगी है – वो जाने…’ आदि. अब उसकी बच्ची को भी निशाना बना लिया इन्होने… हे भगवान! रूह काँप जाती थी तृप्ति की अपनी चार साल की शादीशुदा ज़िन्दगी के बारे में सोच कर. अपने बच्चों के बाप के बारे में तो सोच कर भी ग्लानि हो आती थी उसे. अगर आज वो साथ होता तो शायद अपनी मन्नत पर ही बुरी नज़र… ??? और मंन ही मंन अपने तलाक़शुदा होने पर गर्व होने लगा उसे और अपने मंन को पत्थर सा ठोस व इरादों को पहले से भी कहीं अधिक मज़बूत कर अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के बारे में सोचने लगी. जागती आँखों से कुछ अच्छा होने का सोचा भर था कि मनस्वी की दुर्घटना की खबर ले कर उसके दोस्त आ गए. उसका दोस्त आर्यन अपने पापा की नई मोटर बाइक उनसे बिना इजाज़त चला रहा था और मनस्वी को उसने अपने साथ ले लिया था. कच्ची उम्र में ही पक्की स्पीड का मज़ा ले रहे थे दोनों कि रिक्शा से टक्कर हो गयी. अब दोनों बच्चे अस्पताल में थे. राम राम करते अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि मनस्वी कि दायीं टांग में फ्रैक्चर है. तीन महीने लगेंगे मनस्वी के प्लास्टर को उतरने में. हिम्मत – बहुत हिम्मत से काम ले रही है तृप्ति. नौकरी की जिम्मेवारियां निबाहती है, घर की ज़रूरतों को पूरा करती है, अपनी जवान होती मन्नत को (जो करियर बनाने के लिए सजग है)  प्रेरणा ही नहीं देती, डगमगाने पर संभालती भी है. किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े घायल मनस्वी की सेवा सुश्रुषा से ले कर उसके मनोबल को बढ़ाने तक का सारा ज़िम्मा संभालती है. और सबसे बढ़कर दोनों बच्चों को जब-तब अपनी बाहों में भरकर जो सुरक्षा का भाव वह उनके अंतरमन तक उनमे भर देती है वह अतुलनीय है. किन्तु स्वयं को उस सुरक्षित कर देने वाले भाव से सदा अछूता  ही पाया उसने. उस भाव के लिए स्वयं क्या उसके जीवन में तरसना ही लिखा है? हर तन-मन की टूटन-थकन पर उसका भी मन होता है कि वो स्वयं को किसी आगोश में छिपा कर कुछ देर सिसक ले, कुछ अपना दर्द स्थानांतरित कर दे और कुछ सुकून आत्मसात कर नई शक्ति अर्जित कर फिर कूद पड़े दुनिया के रणक्षेत्र में. बचपन में तो हर छोटी-बड़ी मुसीबत पर पापा अपनी बाहें पसारे सदैव यूं खड़े नज़र आते थे जैसे अल्लादीन का जिन्न अपने आका के याद करते ही ‘हुकुम मेरे आका’ … Read more

अटल रहे सुहाग : सास -बहू और चलनी : लघुकथा : संजय वर्मा

                        करवाचौथ के दिन पत्नी सज धज के पति का इंतजार कर रही  शाम को घर आएंगे तो  छत पर जाकर चलनी में चाँद /पति  का चेहरा देखूँगी । पत्नी ने गेहूँ की कोठी मे से धीरे से चलनी निकाल कर छत पर रख दी थी । चूँकि गांव में पर्दा प्रथा एवं सास-ससुर  से ज्यादातर काम सलाह लेकर ही करना होता है संयुक्त परिवार में सब  का ध्यान भी  होता है । और आँखों में शर्म का  पर्दा भी   होता है { पति को कोई कार्य के लिए बुलाना हो तो पायल ,चूड़ियों की खनक के इशारों  ,या खांस  कर ,या बच्चों के जरिये ही खबर देना होती । पति घर आये तो साहित्यकार के हिसाब से वो पत्नी से मिले तो कविता के रूप में करवा चौथ पे पत्नी को कविता की लाइन सुनाने लगे -“आकाश की आँखों में /रातों का सूरमा /सितारों की गलियों में /गुजरते रहे मेहमां/ मचलते हुए चाँद को/कैसे दिखाए कोई शमा/छुप छुपकर जब/ चाँद हो रहा हो  जवां “। माँ आवाज सुनकर बोली कही टीवी पर कवि सम्मेलन तो नहीं आरहा ,शायद मै टीवी बंद करना भूल गई होंगी । मगर लाइट  तो है नहीं ।फिर  अंदर से आवाज  आई- आ गया बेटा । बेटे ने कहा -हाँ  ,माँ  मै आ गया हूँ  । अचानक बिजली आगई , उधर सास अपने पति का चेहरा  देखने के लिए चलनी ढूंढ रही थी किन्तु चलनी  तो बहु छत पर ले गई थी और वो बात सास ससुर को मालूम न थी । जैसे ही पत्नी ने पति का चेहरा चलनी में देखने के लिए चलनी उठाई  तभी नीचे से  सास की  आवाज आई  -बहु चलनी देखी  क्या?  गेहूँ छानना है । बहू ने जल्दीबाजी  कर पति का और चाँद का चेहरा देखा और कहा  -लाई  माँ ।पति ने फिर कविता की अधूरी लाइन बोली –    “याद रखना बस /इतना न तरसाना /मेरे चाँद तुम खुद /मेरे पास चले आना “इतना कहकर पति भी पत्नी की पीछे -पीछे नीचे आगया । अब सास ससुर को ले कर छत पर चली गई बुजुर्ग होने पर रस्मो रिवाजो को मनाने में शर्म भी आती है कि  लोग बाग   क्या कहेंगे  लेकिन प्रेम उम्र को नहीं देखता । जैसे ही  ससुर का चेहरा चलनी में  देखने के लिए सास ने चलनी  उठाई  नीचे से बहु ने आवाज लगाई-” माजी आपने चलनी देखी  क्या ?” आप गेहूँ मत चलना में चाल  दूंगी । और  चलनी गेहू की कोठी में चुपके से आगई । मगर ऐसा लग रहा था की चाँद ऊपर से सास बहु के पकड़म पाटी के खेल देख कर   हँस रहा था  और मानो जैसे  कह रहा  था कि मेरी भी पत्नी होती तो में भी चलनी में अपनी चांदनी का चेहरा देखता ।  संजय वर्मा “दृष्टि “