अटल रहे सुहाग : चौथी कड़ी : कहानी—” सरप्राइज “

रिया,,,, ओ,,, रिया,,,,,, बेटा सारा सामान रख लिया न पूजा का, बेटा सब इकट्ठा करो एक जगह ,,,,, थाली में, ,, तुमको जाना है न ,, पार्क में पूजा के वास्ते, ,,,। हाँ , माँ मैने सब कुछ रख लिया, ,, माँ, आप कितनी अच्छी हो,,, सारी चीजों का ध्यान रखती हो,,,,,, ये कहते-कहते रिया माँ से लिपट गई थी । अनुराधा जो रिया की सास थीं, ,, वाकई में सास हो तो अनुराधा जैसी, ,,,,,,,।कितना ध्यान रखती थी रिया का,,,, क्योंकि बेटा सिद्धार्थ बाहर नेवी में जाॅव करता था, और नेवी वाले हर करवाचौथ पर पास में ही हो , ये संभव नहीं था ।अनुराधा इस व्रत की भावना को बहुत अच्छी तरह पहचानती थी,,,, इसी कारण, उसका उसका व्यवहार भी रिया के लिए पूर्ण समर्पित था ,,,।रिया उसकी बहू ही नहीं, ,,, एक बेटी, सहेली और हर सुख दुःख की साथी थी ,,,,। आज दो दिनों से उसकी तैयारी करवा रहीं थी अनुराधा, ,।अच्छे से अच्छे मेहंदी वाले से मेहंदी लगवाना तो उनका सबसे बडा शौक था ,,,,,, आज भी रिया की मेहंदी देख कर बडी खुश थीं, ,,, और उसकी मेहंदी को देखते-देखते , जाने कौन सी दुनिया में खो गई थी, ,,,। रा,,,,,जेश को मेरे हाथों में मेहंदी कितनी पसंद थी ,,,,, वो तीज , त्यौहार बिना मेहंदी के ,,, मेरे हाथों को देख ही नहीं सकते थे और फिर “करवाचौथ”,,,,,,,उस पर तो उनका विषेश आग्रह होता था मेहंदी वाले से,,,,,,,,। खूब अच्छी तरह याद है कि एक करवाचौथ पर , मेहंदी नहीं लगवा पाई थी ,तो किस तरह सारा घर आसमान पर उठा लिया था इन्होनें, ,,,। अम्मा, ,,, अम्मा, अनु के हाथों में मेहंदी क्यूँ नहीं लगी,,,, क्या , काम में इतनी भी फुर्सत नहीं मिली, ,,,,। अम्मा तो जानों करेला खा कर बैठीं थीं, ,,, अरे,,,, मैं क्या जानूं क्यों न लगी,,,, अम्मा ने जवाब दिया ,,,,,, तो ,,,,, तुम्हें लेकर जाना चाहिए था अम्मा, ,,,। बस राजेश का इतना कहना था कि बिफर गईं,,,,,,,,,,अरे एक साल नहीं लगेगी तो कोई आफत नहीं आ जायेगी ,,,,,।इतनी,, परवाह थी,,,,, तो ले जाता, आया क्यों नहीं नौकरी के बीच में छुट्टी लेकर, ,,,। राजेश को अम्मा से ऐसे जवाब की उम्मीद न थी,,,।कि जिसकी बहू, उसी के बेटे की सलामती के लिए व्रत और श्रंगार कर रही है और अम्मा, ,,,,,, ऐसे कैसे बोल सकती हैं।आज राजेश को समझ आ चुका था , अनु के चुप रहने का राज, ,,,,,,। तभी और उसी दिन राजेश ने सोच लिया था कि अनु को लेकर, ,,, वो ट्रांसफर पर चला जायेगा ,,,। सिद्धार्थ की भी पढाई पूरी होने जा रही थी, सिद्धार्थ भी 24 साल का हो गया था और राजेश उसके लिए लडकी अपनी पसंद की लाना चाहते थे, ,,, क्योंकि सिद्धार्थ मुझे ब्यूटी क्वीन जो कहता रहता था । अम्मा गुज़र चुकी थीं , राजेश ने सिद्धार्थ की शादी में किसी चीज की कमी न रहने दी थी कितना उत्साह था इनको,,,,,, कि घर में रौनक छा जायेगी, ,,,। रिया हमारे घर की बहू बन कर आ चुकी थी, और हमारी लाइफ बहुत अच्छी तरह से चल रही थी , कितना स्नेह था राजेश को रिया से, बेटी की तरह हर इच्छा का ख्याल रखते थे, ,,,। एक दिन सिद्धार्थ ने बताया कि उसका नेवी में सिलेक्शन हो गया है, तो किस कदर सारे घर में शोर मचा था, ,,, अनु का तो रो -रो कर बुरा हाल था, लेकिन रिया की तरफ देख कर अपनी भावनाओं को दबा दिया था उसने,,,,, क्योंकि रिया नहीं जा सकती थी उसके साथ सिद्धार्थ नौकरी पर चला गया था, शिप पर ।  अब रिया, राजेश और ,,, मैं ही तो रह गये थे , रिया तो जैसे हमारे आँखों का तारा बन गई थी,,,। अचानक एक दिन ऐसा आया कि राजेश की तबियत इतनी बिगड गई, कि डॉ. तक ने जवाब दे दिया, ,,,,और इनको भी जाना पडा । विधि के विधान को टालना किसी के बस की नहीं है अगर होती, तो अनु कभी न जाने देती राजेश को दूसरी दुनिया में, ,,,,,,,,। सारी जिन्दगी अम्मा के एक ही आशीर्वाद के लिए तरसती रही थी , जब भी पैर छूआ ,,,,ठीक है, ,, खुश रहो,, बस । अनु औरौ को देखा करती थी, बडी-बूढी औरतें ,,,,,,, सदा सुहागिन रहो, अटल रहे सुहाग तेरा ,,, जाने कितने आशीष थे ,,,, उनके पास । माँ, ,,, माँ, क्या सोच रही हैं, , देखो, मेरी मेहंदी कितनी लाल रंग लाई है, ,,।रिया की आवाज जैसे ही अनुराधा के कानों में पडी, तो चौंकते हुए ही कहा था उन्होंने, ,,,, ओहहो,,,,, रिया,,, ये तो बहुत ही लाल रंग आया है तेरी मेहंदी का, ,,,,, और उसने रिया के हाथों को चूमते हुए कहा था ,,,, जा,, जाकर तैयार हो जा ,,,,। आज अनु बहुत खुश थी , क्योंकि एक राज,,,,, उसने छुपा रखा था अपने सीने में, ,,, और वो था ,,, कि आज उसके जिगर का टुकडा, लाडला बेटा सिद्धार्थ जो आ रहा था, ,,,,।उसकी और सिद्धार्थ की बातें जो हो चुकी थीं , कि रिया को बताना नहीं है माँ, ,,,, ” सरप्राइज” दुंगा, ,। शाम हो चुकी थी और रिया दुल्हन की तरह सजी हुई थी , उसने पूजा की और पूजा करके उठी ही थी कि, अचानक घंटी बजी, ,, रिया ने सोचा माँ खोल देंगी, ,,, लेकिन अनुराधा थी कि, ,, अपने को व्यस्त शो करने में लगीं थीं कि दरवाजा रिया ही खोले,,,,,नारी के अंतर्मन को अनुराधा पूरी तरह समझती थी ,,,,। रिया उठी, उसने जैसे ही डोर खोला ,,,,,, वो देखते ही रह गई, ,,,,, सामने सिद्धार्थ खडा था, हाथ में फूलों का खूबसूरत बुके को लेकर ,, हैप्पी, , करवाचौथ डार्लिंग, ,,,,,,, ।  रिया थी कि उसको अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं आ रहा था और उसके होठों से ,,,, कोई शब्द ही नही निकल रहे थे, ,,, वो सिद्धार्थ की जगह ,,,,माँ से लिपट गई थी जा कर,,,,,,। सिद्धार्थ भी ,,,, माँ से आ कर गले लग गया था । छत पर रिया ने चाँद को अर्ध्य दिया, चलनी की ओट से सिद्धार्थ को देखा, ,,,,और दोनों माँ का आशीर्वाद लेने, ,,,,, नीचे उनके चरणों में झुके,,,,,, तो अनुराधा के होठों पर … Read more

अटल रहे सुहाग : ( लघुकथा -व्रत ) शशि बंसल

” मीनू ! जल्दी से अपने पापा की थाली लगा दो,” घर में कदम धरते ही आदेशात्मक स्वर में कहा मृणाल ने। ” पर मां ! मैंने तो खाना बनाया ही नहीं। भैया पिज्ज़ा ले आए थे,” मीनू ने सहज स्वर में कहा तो मृणाल भड़क उठी ,” एक दिन खाना न बना सकी तुम? हद है कामचोरी की।” ” आपने ही तो कहा था माँ कि लौटने में १२ या१ बज जायेंगे रात के ,इसलिए…..” ” यही तो समस्या है कि तुम सिर्फ सोचती हो ,करती कुछ नहीं।रिश्ता पक्का कर आए हैं तुम्हारा।चार दिन बाद वो लोग ‘रोका’ करने आ रहे हैं। जाओ अब सो जाओ। मैं तुम्हारे पापा के लिए कुछ पका दूँ,”थके स्वर में कहा मृणाल ने। रसोई का काम निपटा कर मृणाल मीनू के कमरे में ही चली आई और उसके पास ही लेट गई। मीनू ने मां की और करवट लेते हुए नर्मी से कहा,” माँ ! आपका गुस्सा देख कर तो मैंने सोचा था कि बात इस बार भी नहीं बनी पर माँ जब रिश्ता पक्का हो ही गया है तो आप इतना क्रोध क्यों कर रही हैं ?” मृणाल उठ कर उसके सिरहाने आ बैठी और उसके घुंघराले बालों में अपनी उंगलियों की कंघी फेरते हुए भीगे स्वर में बोली, ” बिट्टो तू मेरी बेटी भी है और इकलौती सहेली भी।तुझे न बताऊँगी तो किसे बताऊँगी…. रिश्ता तय होने के बाद तेरे पापा ने तो वहाँ खाना खा लिया पर मैं ठहरी परंपरावादी सो मैंने नहीं खाया। फिर १० घंटे के सफर में मैं खाने को माँगती रही और तेरे पापा चीज़ों के दाम पूछते रहे लेकिन एक बार भी जेब में हाथ नहीं डाला क्योंकि उन्हें मेरी भूख सस्ती और हर चीज़ महँगी लगी… यह जानते हुए भी कि १२बजे के बाद मेरा करवाचौथ का व्रत शुरु हो जायेगा। सो बेटा ! भूख ऐसी राक्षसी चीज़ है जिसके शांत हुए बिना हर खुशी बेमानी है। अब तू ही बता मेरा गुस्सा बेमानी था क्या ? अब कल चाँद देख कर ही कुछ खाऊँगी मैं तो और वह जिसके लिए व्रत रखा है,खा-पी कर चैन से सो रहा है, “एक लंबी ठंडी साँस ले कर सूने स्वर में कहा मृणाल ने। शशि बंसल भोपाल ।

अटल रहे सुहाग : एक प्यार ऐसा भी

बस अब इन दिनो मे और जमकर मेहनत करनी है ये सोचता हुआ रामू अपना साईकिल रिक्शा खींचे  जा रहा था।पिछले 8-10हफ्तो से वो ज्यादा समय तक सवारी ले लेकर और पैसे कमाना चाह रहा था।अपनी धुन मे वो पिछले कितने समय से लगा हुआ था। ले भाई !तेरे पैसे ये कहते हुए सवारी वाले ने उसे पैसे दिये।आज के कमाऐ  हुए पैसो  मे से कुछ रुपये अपने मित्र कन्हैया को देते हुआ बोला और कितने इकट्ठे करने होंगे? कन्हैया बोला यार कम से कम 1200-1300 रुपये तो होने चाहिये।अभी तो 950ही एकत्रित हुऐ है।और अब करवाचौथ को बचे भी दो दिन है।ठीक है कोई नही इन दो दिनो मे और ज्यादा मेहनत करुंगा कहकर रामू घर को चल पङा। शादी को 10साल हो गये थे पर रामू ने अपनी पत्नी को कभी कोई तोहफा नही दिया था।इस बार वो कुछ देना चाहता था अपनी पत्नी को तोहफे मे।उसे देर हो जाती थी तो उसकी पत्नी राह देखती देखती दरवाजे पर ही सो जाती थी।आसपास कही लोकल  फोन भी न था जहां वो फोन करके बोल भी देता कि देरी हो जायेगी।कुछ दूर बनियें की दुकान थी जहा मुहल्ले के सभी लोगो के फोन आते जाते थे पर शाम पङे वहां गली का कुछ बदमाश लङके डेरा जमा के बैठ जाते थे और लङकियो और औरतो से बतमिजी किया करते थे।इसलिये रामू ने शाम के बाद उसे वहाँ जाने के लिये मना किया हुआ था। आज फिर देर कर दी ! अपनी बीवी की आवाज सुन रामू का ध्यान भंग हुआ।हां, अभी त्यौहारो का दिन है ना तो सवारियां थोङी ज्यादा मिल जाती है। हाथ मूहं धोकर जैसे ही रामू खाना खाने बेठा उसकी बीवी बोली दो दिन बाद करवा चौथ है आप तब तो जल्दी आ जाना घर.. मेरा व्रत होगा।हम्म् कहकर रामू मन ही मन मुस्कराने लगा। दो दिन की कङी मेहनत करने के बाद अब रामू के पास अलग से 1400 रूपये इकट्ठे  हो गये थे।उसने 1200 का अपनी बीवी के लिये मोबाईल लिया और और उपरी खर्चा करके डिब्बे को छुपाते हुये घर पहुचा और भगवान के मन्दिर के पीछे  रख दिया। सुबह देर तक रामू के न उठने पर बीवी ने आवाज लगाई..आज काम पर नही जाना क्या? नही आज मन नही है  कहकर वह झूठमूठ सोने का नाटक करने लगा।तभी पङोसन इट्ठलाते हुऐ आई देख लता मेरे ये मेरे लिये साङी लाये है।तुम्हे क्या मिला या इस बार भी भैया यू ही रखे।लता मुस्कराते हुऐ रामू की तरफ देख बोली मेरा सुहाग ही मेरा तोहफा है।तभी घर मे फोन की घंटी बजी लता यहां वहां देखने लगी आवाज तो यही से आ रही है जाकर देखा तो भगवान की मूर्ति के पिछे एक पैकेट पङा था उत्सुकतावश उसे देखा तो अंदर एक डिब्बे मे से फोन की घंटी बज रही थी और जब उठाया तो दुसरी तरफ से रामू का दोस्त बोला पाय लागू भौजाई।लता को समझते देर नही लगी कि उसका पति देर रात तक मेहनत क्यूं करता था।बस एकटक रामू की तरफ देखते हुऐ खुशी के आंसू बहाये जा रही थी।इस बार की करवा चौथ कुछ खास बन गई उसकी। एकता शारदा 

अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस परिचर्चा : लघु कथाओ की लघुपुस्तिका ” चौथा पड़ाव “

                                                                                                               अटूट बंधन ने अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस पर एक परिचर्चा का आयोजन किया था | इसमें सभी ने बढ़ चढ़ कर अपने विचार रखे | विचार रखने का माध्यम चाहे लेख हो , कविता हो ,कहानी हो ……… इन सभी विचारों के माध्यम से  बुजुर्गों की समस्याओ  को समझने का और समाधानों को तलाशने का सिलसिला प्रारंभ  हुआ | ये आगे भी  जारी रहेगा | इसी परिचर्चा के दौरान प्राप्त लघु कथाओ को हम एक लघु पुस्तिका ” चौथा पड़ाव ” के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं | जिनको पढ़ कर आप भी कुछ देर ठहरकर सोचने को विवश होंगे | यही हमारा उदीश्य है कि बुजुर्गों की समस्याओ को समझा जाए व् समाधान तलाशे जाए | ” चौथा पड़ाव में आप पढेंगे ……….. डॉली अग्रवाल  शशि बंसल  एकता शारदा  शैल अग्रवाल  कुसुम पालीवाल  डिम्पल गौड़ ‘अनन्या ‘ डी डी एम त्रिपाठी  विभा रानी श्रीवास्तव  सरिता जैन की लघु कथाएँ  फेस बुक प्रोफाइल  रोज की तरह आज फिर मोहन ने उन बुज़ुर्ग दंपति को कोने की सीट पर बैठा देखा | रोज वे लोग उसे टैब चलाते हुए देखते थे | कल ही बाबा बोले थे — बेटा हमें लैपटॉप पर कुछ काम कराना है तुम कर दोगे ना | मैंने हां कह दिया था |में उनके पास पंहुचा तो दोनों खुश हो गए |लैपटॉप हाथ में दे कर बोले — बेटा फेसबुक पर एक id बना दो हमारी |सुन चकरा गया , मन ही मन गाली दे डाली – कब्र में पैर अटके है और चले है फेसबुक पर |किस नाम से बनाऊ बाबा ?किसी लड़की के नाम से — क्या ? हे भगवानअच्छा बाबा फ़ोटो किसकी लगाऊ ?किसी सुंदर सी मॉडल की — हद हो गयी |मन में आया लैप टॉप पटक कर उठ जाऊ | पर ना जाने क्यों उनके चेहरे की मासूमियत रोक रही थी मुझे|लेकिन अपने को रोक नहीं पा रहा था |बेटा , मित्रता के लिए अजय मित्तल का नाम ढूढ़ दो ना | शक गहराता जा रहा था आखिर पूछ ही बैठा — बाबा अजय ही क्यों ?बाबा ने जो कहाँ उसके बाद मेरी आँखों में आँशु थे | बेटा हमारा अजय बहुत बड़ी कंपनी में काम करता है हमे साथ नहीं रख सकता क्योकि हम गवाँर और अनपढ़ है | बड़े बड़े लोग उसके पास आते है | हमारे एक 5 साल की पोती और गोद में राजकुमार सा पोता है | बगल में किसी ने बताया की सब अपनी और अपनों की फ़ोटो वहा लगते है | किसी मॉडल की फ़ोटो इसलिए ही लगायी की अजय उसे मित्रता में रख लेगा | और हम उसकी बहु की और पोता पोती की फ़ोटो देख लेंगे | पिछले 2 साल से देखा नहीं है | नोकर के हाथ पैसे भेजता है | नहीं जानता वो की हमारी ख़ुशी उस पैसे में नहीं उसमे है |खुद पर खुद की सोच पर शर्म आ गयी | आँखों से गिरते आँशु से मुझे भी अपनी करनी याद आ गयी | सुबह टूटे माँ के चश्मे पे लड़ाई याद आ गयी | अब कदम बढ़ चले थे एक नया चश्मा लेने की और || डॉली अग्रवाल  2 ………….. वक्ती रिश्ते ———————————- “सुनिये, चार दिन से माँ के घर से न किसी का फोन आया और न किसी ने मेरा फोन उठाया। भैया और पापा के मोबाइल भी स्विच ऑफ हैं। किसी अनहोनी की आशंका से दिल बैठा जा रहा है,” मधु ने भीगे स्वर में पति से कहा तो वह स्नेहिल स्वर में बोले, ” तो हम चल कर देख आते हैं न ! घंटे भर में पहुँच जाएँगे , बल्कि तुम्हें तो अक्सर उनके साथ ही होना चाहिये। ” पति ने कहा। रास्ते भर मधु सोच में गुम रही कि कैसे एकदम व्यवसाय में घाटा हुआ और सबका मनोबल टूट गया। सब तथाकथित अपनों के आगे उन्होंने मदद के लिये हाथ फैलाये पर वे छिटक कर दूर हो गये…और उनकी बेबसी के चर्चे नमक -मसाला लगा कर इधर-उधर करने लगे…..बस वह और उसके सहृदय पति ही उनके साथ खड़े थे , पर उनकी सहायता ऊँट के मुख में जीरे की तरह ही साबित हो रही थी। माँ के घर पहुँच कर मधु ने दरवाजे पर दस्तक देनी चाही तो वह यूँ ही खुल गया…उढ़का हुआ जो था और..और भीतर पहुँच कर उसकी चीख निकल गई…माँ-बाऊजी भैया-भाभी और नन्हीं मुन्नी सब चित्त पड़े थे। पति ने उन सबकी नब्ज़ देखी और कहा,” मधु ! सब खत्म ! “ वह पथराई आँखों से देख रही थी कि अधमरी वो पाँच जानें आज मरण की रस्म भी अदा कर चुकी हैं। ” रिश्तेदारों को फोन तो कर दूँ ,” कहते हुए पति ने मोबाइल निकाला तो वह पागलों की तरह चिल्लाई, ” मैं किसी मतलबी और कमीने रिश्तेदार की छाया तक इन पर नहीं पड़ने दूँगी। पुलिस की कार्यवाही के बाद इनका दाह-संस्कार होगा और मुखाग्नि मैं दूँगी। कोई और कर्मकांड नहीं होगा….मातमपुर्सी भी नहीं और शोक सभा भी नहीं । नहीं चाहिये मुझे कातिल और वक्ती रिश्ते।” ————————————————- शशि बंसल भोपाल । 3 ………. लालची कौन  अब जल्दी किजिये पिताजी बैंक जाने के लिये लेट हो जाओगे.. थोड़े ऊंचे स्वर में रमेश बोला। बेटा, मैं सोच रहा हू इस बार पेंशन की रकम में से कुछ निकालकर ब्राह्मण को भोज करवा लू तुम्हारी मां की पुण्यतिथी आ रही है… कोई जरुरत नही फालतू का खर्चा करने की ये ब्राह्मण व्राह्मण सब लालची होते है आप वो रकम मेरे एकाउंट मे जमा करवाकर मंदिर चले जाना और भगवान को थोड़ा प्रसाद चढाकर सीधे ही मां की आत्मा की शान्ती की प्रार्थना कर लेना कहते हुए रमेश ने एक बीस का नोट अपने पिता के हाथ मेँ थमा दिया। अब अगर बात लालची इंसान की हो रही थी तो यहाँ लालची कौन था ब्राह्मण या उनका बेटा रमेश सोचते सोचते पिताजी बैंक को रवाना हो … Read more

लघु कथा— ” बुढापा “-कुसुम पालीवाल

                  अरे…दीदी…..तंग करके रखा हुआ है न तो चैन से रहते हैं….. न तो चैन से रहने लायक छोडा है …..सारे समय की चिकचिक ने नाक में दम कर रखा है. …..।    अरे ….किसने  की तेरी नाक में दम …..किसकी आफत आई …..मैने हंस कर .. उत्सुकता पूर्वक पूछा…। अरे …दीदी ..आप भी…..वही…..ऐ-204 वाले जैन साहब के घर …। क्या हुआ ….जैन साहब के घर ?? मैने फिर पूछा. …..। जैन भाभी हैं न…….उनकी सास …बाप रे बाप…..और तो और …अभी तो बुढऊ…भी हैं दीदी , पूरे …नौ और चार के हो गये हैं , तब भी ……बै…..ठै……..    अरे रानी …तू कैसी बात कर रही है …..जिसका सम्मान करना चाहिए इस उम्र में …तू उसी के लिए  …अपशब्द बोल रही है ।अरे …ये तो बुढापा है ……. क्या तुझे नहीं आयेगा  …? तू क्या ऐसे ही जवान बनी रहेगी क्या. ……?? मैने गुस्से से ..रानी से कहा ।      रानी हमारे घर की नौकरानी थी , पुरानी थी इसलिए सिर पर चढी रहती थी काम अच्छा करती थी साथ में ईमानदार भी थी मैं सर्विस पर जाती पीछे से सारा घर वो ही संभालती थी , कि तभी ……नही …दीदी , वो बात नहीं है , मैं. …..सोच रही थी बुड्ढे इतनी …..खिटखिट क्यों करतें हैं. ….अरे चैन से रहो…बेचारी जैन भाभी कितना करेंगी  ।उनकी भी तो उम्र हो गई है बेचारी ….बीमार होने पर भी ध्यान रखतीं हैं  ..55 के करीब पहुँच चुकी हैं ……अभी भी चैन नहीं है उनके जी को , मालूम नही उनकी बहुएं इतना कर भी पायेंगी. ……? रानी को मिसेज जैन से बडी सहानुभूति थी ।            रानी ….जीवन मृत्यु अपने हाथों में नहीं होते , सब ईश्वर के हाथ में है लेकिन इतना जरूर समझ ले ……बुढापा एक बच्चे की तरह है …….वो…वो कैसे दीदी ?? तुरन्त बीच में ही रानी बोल उठी ।        सुन… तेरी बडी खराब आदत है…….ये..जो.. तेरी बीच में बोलने की. ……।   ……जिस तरह बच्चों को हम अंगुली पकड कर चलना सिखाते हैं और …वो गिरने के डर से, कस कर अंगुली पकड …सहारे की उम्मीद कर, आगे पैर बढाता है ….उसी प्रकार … “बुढापा ” भी एक तरह का ..बचपन का ही रूप है. ….।        जिस प्रकार ये शरीर मिट्टी से बना और मिट्टी में मिल जाता है , उसी प्रकार जीवन का चक्र भी यही है ….बचपन और बुढापा  एक समान हो जाता है ……क्योंकि प्रकृति का ये नियम है जहाँ से चलते हो वही वापस आना पडता है. …………। और तू बुढापे को लेकर ऐसा कैसे सोच सकती है  ……।        रानी अब पहले से शांत थी और सोच रही थी , कि दीदी कितना अच्छा समझातीं हैं मुझे तो घर में कोई भी व्यक्ति समझाने वाला नहीं है ।   दीदी , आज के बाद मैं बिल्कुल नहीं सोचुंगी ऐसा ….आपने मेरी आँखे खोल दी , मै भी कहीं भटकी हुई थी शायद. …….मै भी अपने सास-ससुर की देखभाल करूँगी ……..।           हाँ……यदि किसी इंसान को अपना आगामी  जीवन ( बुढापा ) संवारना है तो उसे,, पहले अपने बडों को सम्मान देने की जरूरत है ……..।       यही ,  वो संस्कार हैं रानी …..जिनके तहत ही हम  ….अपने बच्चों में ये बीज बो सकते हैं , जो उनको वापस अपने संस्कारों की तरफ या उनकी जडों की ओर मोड सकते हैं  ……….।    मेरी तो… आज की पीढी से सिर्फ एक ही कामना है———। ” ग़र दे न सको , कुछ खुशियाँ और ले न सको , कुछ गम दुःख  दे कर , दुःख देने का तुम बनों , न भागीदार. …….. तो सम्मान , तुम्हारा है ।। कुसुम पालीवाल 

डिम्पल गौड़ ‘अनन्या ‘ की लघुकथाएं

समझौता “आज फिर वही साड़ी ! कितनी बार कहा है तुम्हें..इस साड़ी को मत पहना करो ! तुम्हें समझ नहीं आता क्या !” “यही तो फर्क है एक स्त्री और पुरुष की सोच में ! तुम अपनी पहली पत्नी की तस्वीर दीवार पर टांग सकते हो , उसकी बाते मुझसे कर सकते हो ! और तो और हर साल उनके नाम का श्राद्ध भी करते हो जिसमें मैं पूर्णतया तुम्हें सहयोग करती हूँ । बिना कुछ कहे क्योंकि मैं तुम्हारे गहन प्रेम की अनुभूति को समझती हूँ और तुम ! मेरे स्वर्गवासी पति की दी गयी साड़ी में मुझे देख भी नहीं सकते !! सच में, पुनर्विवाह एक समझौता ही तो है ! डिनर रेस्टोरेंट लोगों से खचाखच भरा हुआ था | सामने वाली टेबल पर निशांत, विधि के सामने बैठा उसे निहारे जा रहा था…दोनों आँखों में आँखें डाल दुनिया भुलाए बैठे थे | कैंडिल लाईट डिनर बेहतरीन  करिश्मा दिखला रहा था | उन्हें देख साफ़ मालूम पड़ रहा था कि यह नवविवाहित जोड़ा है |  ”क्या लोगी बताओ न ?” निशांत के शब्दों से मिश्री टपक रही थी | “जो आप मंगवाएंगे खा लूँगी |” विधि नज़रे झुकाए बोली | खुबसूरत मुस्कान अधरों पर अपना भरपूर असर छोड़ रही थी | दोनों का प्यार अपने पूरे शबाब पर था | उधर ईश्वर की पत्नी जमुना अपने छोटे छोटे बच्चों में उलझी हुई थी ! कभी छुटकू दाल फ्राई में अंगुलियाँ डालने की कोशिश करता, कभी मुन्नू पूरी एक चपाती हाथ में लेकर खाने की जिद करता !  “आगे से कभी नहीं लाऊंगा तुम लोगों को ! उह्ह ! इज्जत का कचरा कर के रख दिया ! अब मेरा मुँह क्या ताक रही है संभाल अपने लाडलों को ! देख उसने दाल खुद के कपड़ों पर गिरा ली !! ”बहुत ही धीमे स्वर में बोला ईश्वर | “हाथ में पकड़े कोर को जोर से पटककर जमुना वहां से उठ गयी | “क्या बोले ! इन दोनों को तो मैं अपने मायके से साथ लाई हूँ न ! खाओ तुम ही मैं तो चली !”जमना फुसफुसाकर बोली | “अब बैठ भी जा ! नखरे मत मार ! हज़ार रूपये का चूना लगवाएगी क्या !!”ईश्वर की आवाज़ और धीमी हो चली थी | जैसे तैसे दोनों ने खाना खत्म किया |  बिल चुकाने के लिए ईश्वर और निशांत  एक साथ काउंटर पर खड़े हुए | एक की आँखों में प्यार बेशुमार था दूसरे की आँखों में गुस्सा अपने पूरे यौवन पर था !” अश्कों से लिखा एक खत    हाँ… साँसे ले रही हूँ | जिन्दा हूँ अभी | कभी मेरा खूबसूरत चेहरा तुम्हारी रातों की नींदें चुरा लिया करता था क्योंकि अथाह प्रेम करते थे तुम मुझसे | मगर मैं नहीं…इसलिए जब मैंने तुम्हारा प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो तुम कितने आगबबूला हो उठे थे ! नहीं चाहते थे तुम कि मैं किसी और की हो जाऊं… इसलिए तुमने मेरे चेहरे पर उस रात तेज़ाब छिड़क दिया !!! तरस गयी हूँ अपने ही चेहरे को देखने के लिए ! आईना देखे बरस बीत गए | यह आजीवन पीड़ा जो तुम मुझे दे कर गए हो न उसका आंशिक भाग भी तुमने कभी महसूस नहीं किया होगा जानती हूँ मैं ! सच्चे प्यार का दंभ भरने वाले अगर तुम सही में एक सच्चे प्रेमी हो तो क्या अब मुझसे विवाह कर पाओगे ? तुम्हारा जवाब न ही होगा | मालूम है मुझे |  डिम्पल गौड़ ‘अनन्या’   

सीमा सिंह की लघुकथाएं

नशा कभी बाएं कभी दायें डोलती सी तेज गति से आती  अनियंत्रित गाड़ी मोड पर पलट गई. भीड़ जमा हो गई आसपास किसी तरह से गाड़ी में सवार दोनों युवकों को बाहर निकाला गया. उफ़…ये क्या दोनों नशे में धुत थे.. पुलिसवाला होने के नाते मेरा फ़र्ज़ था कि ड्यूटी पर न होते हुए भी मामले को सुलझाऊ. मैंने दोनों मे से एक पिता जो प्रोफेसर भी थे, को बुलवाया.. ये क्या वो शर्मिंदा होने के स्थान पर मुझसे ही उलझ गए “न कोई मरा है ना किसी को चोट आई है तो एक्सीडेंट कहाँ से हो गया..ले दे कर बात खत्म करो बच्चों को घर जाने दो” मै सन्न था. मैंने केस लोकल पुलिस के हवाले कर दिया.  घर वापस आते समय मेरे मन में एक ही विचार था सब जानतें हैं  “नशा खतरनाक है मगर ज्यादा कौन सा ?जो लड़कों ने किया था या फिर वो जो प्रोफ़ेसर साहब के सिर पर सवार था…?” प्रमोशन “रमण मेरा बॉस ही नहीं बहुत अच्छा दोस्त है तुम एक बार मिल कर देखो तो सही काव्या”… “अच्छा दोस्त है तो दोस्त की पत्नी से अकेले में क्यों मिलना चाहता है ?” “मेरा प्रमोशन हो जायेगा तुम्हारे बस एक बार मिल लेने से काव्या”…  “क्या गारंटी है उसको फिर दुबारा नहीं मिलना होगा मुझसे और क्या गारंटी है तुमको आगे और प्रमोशन नहीं चाहिए होगा नरेन, ये प्रमोशन नहीं पतन है पतन, तुमको नज़र क्यों नहीं आ रहा नरेन?”                               संस्कारों की बुनियाद  “माँ बात सुनो मुझे आप से कुछ कहना है. ” मीतू की आवाज़ सुन वंदना एकदम सिहर गई..युवा होती बेटी की माँ के लिए स्वाभाविक भी था.वक्त भी तो कितना खराब है फिर.. घबरा के मीतू के पास जाकर पूछा “क्या हुआ बेटा?” “अरे आप डरों मत ऐसा कुछ नहीं हैं.” बेटी ने जैसे माँ के चेहरे के भाव पढ़ लिए थे. “बताओ न क्या बात है ?” वंदना  ने व्यग्रता से पूछा. “आज मैं स्कूल  देर से पहुंची थी तो गेट बंद होने ही वाला था सीधे क्लास में चली गई अपना बैग रखने. और फिर तुरंत प्रार्थना के लिए वापस अपनी लाइन में भी जाना था तो पीछे वाले रास्ते से जहां बच्चों को जाने की मनाही है स्टाफ रूम बना है ना वहाँ पर. मैंने झाँक कर देखा रास्ता साफ़ था. मै दबे पांव वहाँ से निकली तो निशा मैम हमारी इंग्लिश टीचर निकली उनको देख कर मै छुप गई पता था देख लिया तो बहुत डांट पड़ेगी मगर मैम भी लेट थी तो वो भी जल्दी जल्दी में निकल गई उन्होंने जल्दवाजी मे अपना पर्स उठाया तो उसकी कोई जेब खुली होगी जो उन्होंने नही देखी. माँ, उस जेब में से उड़ उड़ कर पांच सौ  के नोट निकलते रहे पहले तो मुझे समझ न आया क्या करूँ फिर मैंने एक एक कर सारे नोट बीन लिए और अपनी जेब में छुपा लिए.सोचा था घर लाकर आपको दे दूंगी तो शायद आपकी कुछ मदद कर सकूँ. मगर माँ मैंने देखा कि निशा मैम बार बार अपना पर्स खोल कर देख रही थीं और परेशान हो रहीं थी. तो मैंने उनके पास जाकर  पूरी बात बता कर माफ़ी मांग ली और उनके नोट  वापस कर दिए” “शाबाश मेरे बच्चे” कह कर वन्दना ने मीतू  को गले लगा लिया और भगवान को धन्यवाद करते हुए कहा कि आर्थिक विषमता भी मेरे बच्चे के संस्कारों की बुनियाद को  छू नहीं पाई है… अन्धकार  “सम्हाल कर माँ,देख गड्ढा है.” “अब निगाह कम हो गई है मुझे दिखा ही नहीं.” “मैं हूँ ना माँ, मेरा हाथ थाम कर आ जा, बस अगली गली से रौशनी है माँ.” मुख्य सड़क पार कर दोनों ने फिर सकरी गली पकड़ी. “इधर से?”  “हां माँ थोड़ा अँधेरा है मगर रास्ता छोटा है जल्दी पहुँच जायेंगे देर हो गई ना” एक कर्कश स्वर सुनाई दिया “कहाँ चली गईं थीं तुम दोनों धंधे के टाइम ?”  “मंदिर गईं थीं आज मंगलवार है ना” ये माँ का स्वर था “कितनी बार कहा है कि धंधे के टाइम पर इस चमेली  को अपने साथ मत उलझाया कर.” कर्कश स्वर कुछ धीमा हो चला था…  “जा तू तैयार हो जा चमेली” बेटी से कहा गया था. “रास्ते में अँधेरा होता है बिटिया का हाथ पकड़ कर पार कर लेतीं हूँ ना इस लिए लेकर गई थी”  माँ अब भी सफाई दे रही थी. “वो जवान है उसकी नई नज़र है.” “कभी तुम भी तो जवान थीं, तुम्हारी नज़र भी तेज थी. तब तुमने मुझे  हाथ थाम कर इस अंधकार से पार क्यों ना करा दिया माँ” ये अस्फुट शब्द बेटी के थे.        श्रीमती सीमा सिंह स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य ) पेंटिंग एवं लेखन कथा,लघुकथा एवं कविता विधा में लेखन राजस्थान पत्रिका, महानगर मेल सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन लोकजंग सांध्य दैनिक में नियमित प्रकाशन, वेवसाईट तथा ब्लॉग लेखन e-mail- libra.singhseema@gmail.com atoot bandhan

मीना पाण्डेय की लघुकथाएं

लघु कथाएँ लेखन की वह विधा है जिसमें कम शब्दों के माध्यम से पूरी बात कह दी जाए | इसमें जहाँ एक ओर कसाव जरूरी है वहीं उसका अंत चौकाने वाला होता है | मीना पाण्डेय जी इस कला में सिद्धहस्त हैं | आज हम अटूट बंधन ब्लॉग पर मीना पाण्डेय जी की तीन लघु कथाएँ … बेटी का फर्ज ,भुल्लकड़पन व् बुनियाद पढेंगे …….. एक अंश …. ” हाँ तो क्या हुआ ? लड़का है वो ,उसकी बराबरी करने चली है ? तेरे साथ कुछ उंच -नीच न हो जाए ,इसलिए ध्यान रखना पड़ता है ,तू नहीं समझेगी ! ” माँ बोली I माँ की लाड़ प्यार की छत्रछाया में भैया खूब ‘ फलीभूत ‘ हुए ,और एक दिन सबको भौंचक छोड़ ,लव मैरिज कर दूसरे शहर में शिफ्ट हो गए ,अपनी कमतर बहन के कंधों पर सारी जिम्मेदारी डाल कर बेटी का फर्ज  ” तू कहाँ चली बन ठन के ?” माँ ने रोज की तरह सवाल दागा I तभी भैया दनदनाता हुआ आया – ” माँ , मैं देर से घर आऊंगा ,चलता हूँ, बहुत काम है  I “ ” मेरा बेटा ! कितना काम करता है ?” चलते -चलते उसने एक गर्वोक्त मुस्कान डाली मेघा के ऊपर ,मानो उसे  उसकी कमतरी का अहसास कराना चाहता हो I  मेघा कुढ़ कर रह गयी I ” माँ , भैया को तो कुछ बोलती नहीं , मुझे ही बार -बार टोकती हो ,कुछ नया सीखने भी नहीं देती I ” उसने मुंह फुलाते हुए कहा I ” हाँ तो क्या हुआ ? लड़का है वो ,उसकी बराबरी करने चली है ? तेरे साथ कुछ उंच -नीच न हो जाए ,इसलिए ध्यान रखना पड़ता है ,तू नहीं समझेगी ! ” माँ बोली I माँ की लाड़ प्यार की छत्रछाया में भैया खूब ‘ फलीभूत ‘ हुए ,और एक दिन सबको भौंचक छोड़ ,लव मैरिज कर दूसरे शहर में शिफ्ट हो गए ,अपनी कमतर बहन के कंधों पर सारी जिम्मेदारी डाल कर I माँ की कमतर बेटी अब अचानक श्रेष्ठ हो गई थी I अब  वह कहते नहीं अघाती थीं  -” ऐसी बेटी ईश्वर सबको दे I “ शायद यह माँ नहीं बेटी का निभाया फर्ज बोल रहा था I मीना पाण्डेय बिहार भुलक्कड़ ” कहाँ रह गए थे इतनी देर ? ” उसके घर में प्रवेश करते ही पानी का गिलास थमा पत्नी ने सवाल दागा I उसने देखा , उसकी भृकुटी रोज से अधिक तनी थी I उसने चुपचाप उसे थैला पकड़ा दिया I खाली था I ” सामान ……… ? ” कुछ और कहती इससे पहले उसे अनदेखा करते हुए उसने इधर -उधर नजर दौड़ाई I देखा मुन्ना चटाई पर ही सो गया था ,सामने उसका बदरंग और खस्ताहाल बस्ता और उसमे से झांकती बिना जिल्द की किताबे और कापियां !! ” ये यही सो गया ? भीतर आराम से सुला देती I “ ” मेरी बात सुने तब न ! कह रहा था ,पापा नया बस्ता लेकर आएंगे तो रात में ही किताबें उसमे जमा लेगा ,तब ही सोयेगा ,बहुत खुश था कि कल से उसके दोस्त बस्ते को ले नहीं चिढ़ाएंगे ,तो इन्तजार करते करते यही ………I ” कहते कहते पल भर को रुकी वह I उसने देखा मुन्ना नींद में भी मुस्कुरा रहा था , शायद ख़्वाब में नया बस्ता ….. ” आज भी नही लाये ….? “ ” वो …एक पुराना मित्र मिल गया था I घर लेकर चला गया ! वहाँ देर हो गयी I बातचीत में भूल गया कि …….I ” बोलते समय हलक में जैसे कुछ अटक सा रहा था I ” कुछ दिनों से तुम्हे रोज कोई न कोई मिल जा रहा है !! ” वह भुनभुनाती हुई रसोई घर की ओर बढ़ गयी ,शायद खाना परोसने I वह बूत सा सर नीचे किये बैठा रहा I क्या बताता ! गया तो था बाजार , पर मुन्ने की फरमाइश का बस्ता …..!! आजकल बस्तों का दाम भी न …!! दुकानदार ने ज्यों ही दाम बताया ,उसका हाथ अपने जेब में पड़े इकलौते सौ के नोट पर जाकर जम सा गया था I उसने हिसाब लगाया और बुदबुदाया था … ” अभी तो इस महीने में सात दिन बाकी हैं I “ मीना पाण्डेय बिहार बुनियाद दोपहर का सारा काम निपटा ,थोड़ा आराम करने वह कमरे में आ गयी I जाने क्यों कुछ दिनों से उसे इस पुश्तैनी घर की दीवारें अधिक पुरानी व् ढहती सी प्रतीत होने लगी थीं I बच्चे स्कुल से आ कमरे में ही खेल रहे थे ,बिस्तर पर लेट वह अपनी आँखे मूँद सोने का उपक्रम करने लगी किन्तु मन में कुछ कुछ चलना बंद नही हुआ I कुछ सालों में कितना बोझ आ गया था उस पर ,सास पूर्णरूपेण बिस्तर की ही होकर रह गयी थीं उनके साथ साथ सामाजिक आर्थिक जिम्मेदारियाँ भी ,तिस पर इस महंगाई में बच्चों की बेहतर शिक्षा ,परवरिश !! बैल की तरह खटते हैं दोनों पति -पत्नी ,फिर भी अपनी कमाई से एक खुद का घर भी नही ….लगता हैपूरा जीवन यूँ ही निकल जाएगा ,सोचा उसने I घुटन सी होने लगी उसे I तभी उसके कानो में आवाज़ आई – ” भैया, चलो बिजनेस -बिजनेस खेलते है I “” ठीक है छोटू ,मैं बिजनेस मीटिंग में जा रहा हूँ ,तुम माँ- पापा का ख्याल रखना I “” ठीक है भैया ,वैसे ही न ,जैसे माँ पापा दादी का रखते है I “” हां ,वैसे ही !”” भैया ,फिर मैं मीटिंग में जाऊँगा ,और आप ख़याल रखना I “यह सुनकर उसकी आँखे खुल गयी ,मन का सारा गुबार धुंआ हो उड़ने सा लगा I अचानक ही पुरानी दीवारोँ में संस्कारो की चमक के पार ,उसे अपने भविष्य की मजबूत नींव नजर आने लगी थी मीना पाण्डेय बिहार अटूट बंधन यदि आप भी अपनी रचनायें प्रकाशित करवाना चाहते हैं तो हमे editor.atootbandhan@gmail.com पर भेजे …….. कवितायेँ कम से कम ५ भेजे 

“एक दिन पिता के नाम “… लघु कथा(याद पापा की ) :मीना पाठक

मीन पाठक

                          “एक दिन पिता के नाम”  याद पापा की — “पापा आप कहाँ चले गये थे मुझे छोड़ कर” अनन्या अपने पापा की उंगुली थामे मचल कर बोली “मैं तारों के पास गया था, अब वही मेरा घर है बेटा” साथ चलते हुए पापा बोले “तो मुझे भी ले चलो न पापा तारो के पास !” पापा की तरफ़ देख कर बोली अनन्या “नहीं नहीं..तुम्हें यहीं रह कर तारा की तरह चमकना है” पापा ने कहा “पर पापा, मैं आप के बिना नही रह सकती, मुझे ले चलो अपने साथ या आप ही आ जाओ यहाँ |” “दोनों ही संभव नही है बेटा..पर तुम जब भी मुझे याद करोगी अपने पास ही पाओगी, कभी हिम्मत मत हारना, उम्मीद का दामन कभी ना छोड़ना, खूब मन लगा कर पढ़ना, आसमां की बुलंदियों को छूना और ध्रुवतारा बन कर चमकना,  मैं हर पल तुम्हारे पास हूँ पर तुम्हारे साथ नही रह सकता;  भोर होने को है, अब मुझे जाना होगा |” अचानक अनन्या की आँख खुल गई, सपना टूट गया, पापा उससे उंगली छुड़ा कर जा चुके थे; उसकी आँखों में अनायास ही दो बूँद आँसू लुढक पड़े, आज एक मल्टीनेशनल कम्पनी में उसका इंटरव्यू था और रात उसे पापा की बहुत याद आ रही थी  | मीना पाठक (चित्र गूगल से साभार ) अटूट बंधन ..……. हमारा फेस बुक पेज 

टिफिन

                                            टिफिन बात २० वर्ष पहले की है जब मेरी नई-नई नौकरी लगी थी, पेशे से इंजिनियर होने के कारण नौकरी लगी इंडस्ट्रियल एरिया में , जो कि उस समय शहर से १५ किलोमीटर दूर था वहाँ तक पहुँचने के लिए यातायात का कोई साधन नहीं था सो पिताजी ने एक लुना ले दी थी । सुबह ९ बजे काम पर पहुँचना होता इसलिए ८:३० ही घर से रवाना हो जाती । माँ रोज सवेरे गरमा-गरम नाश्ता खिला एवं टिफिन पॅक करके दे देती थी । कुछ दिन बीत गये, माँ कभी-कभी टिफिन पॅक करने में देर कर देती , मुझे बड़ा ही बुरा लगता । मैं थी समय की बड़ी पाबंद । एक दिन एसे ही गुस्से से मैंने टिफिन पॅक होने का इंतजार न किया एवं काम पर बिना टिफिन ही चली  गयी । मैं तो घर से चली गयी किंतु माँ बड़ी दुखी  हो गयी कि बेटी पूरा दिन भूखी रहेगी। इंडस्ट्रियल एरिया होने के कारण आस-पास में कोई रेस्तराँ या ढाबा भी नहीं था ।मध्यम वर्गीय परिवार से होने के कारण उस समय कोई निजी साधन भी नहीं था।सो माँ टिफिन पॅक कर पैदल-पैदल मेरे फेक्ट्री के लिए रवाना हो गयी । कड़ी धूप में चल कर जब वह मेरी फेक्ट्री पहुँची तो अन्य सहकर्मी सहेलियों ने पूछा आंटी जी क्या बात है आज आप यहाँ ? कहने लगी आज यह टिफिन भूल आई थी सो मैं देने चली आई ।  सभी सहेलियों ने मुझे बड़ा भला-बुरा कहा । माँ तो टिफिन दे कर रवाना हो गयी और फिर पैदल चल कर घर पहुँची । शाम को मैं जब घर पहुँची तो देखती हूँ माँ के पैरों में छाले पड़ चुके थे और वह बहुत थकी दिखाई देती थी फिर भी समय पर मेरे लिए चाय और रात का खाना बना तैयार रखा था । उस समय मेरे लिए यह साधारण सी बात थी , लेकिन आज विवाह को पूरे सोलह वर्ष बीत चुके हैं और मैं स्वयं दो बच्चों की माँ हूँ ,गत१६ वर्षों में ससुराल , मेयेका हर तरफ के रिश्ते निभा रही हूँ और अब मुझे समझ आता है कि माँ से बड़ा कोई रिश्ता नहीं वह माँ ही होती है जो बच्चों  के हर दुख को समझ सकती है, उसकी एक वक़्त की भूख वह बर्दाश्त नहीं कर पाती चाहे  बच्चा ५ माह का हो या २० वर्षों का , माँ तड़प उठती है उसकी भूख देख कर, कभी-कभी मुझे भी देरी हो जाती है स्कूल का टिफिन पॅक करने में , लेकिन आज हमारे पास सारी सुख -सुविधाएँ हैं फिर भी मैं चाहती हूँ बच्चे को टिफिन किसी तरह पहुँचाना।आज मैं पहचानती हूँ उस टिफिन की कीमत ! रोचिका शर्मा , चेन्नई (चित्र गूगल से साभार ) अटूट बंधन ……….. कृपया क्लिक करे