तीन तल

युवा भविष्य के सपने देखते हैं बुजुर्ग अतीत की यादों में खोये रहते हैं और प्रोढ़ इन दोनों के लिए सोचने को विवश केवल वरतमान और कर्तव्य में ही जीते हैं | जीवन के ये तीन तल चुपके से परिभाषित कर देते हैं कि हमारी  सोच पर उम्र का असर होता है |  लघु कथा – तीन तल  दिल्ली में विश्वेश्वर प्रसाद जी का तीन तल का मकान है । सबसे नीचे के तल में वह अपनी पत्नी लक्ष्मी  देवी के साथ रहते हैं । दूसरे तल में उनका बेटा प्रकाश अपनी  पत्नी ज्योति के साथ रहता है । प्रकाश की उम्र कोई ५७ साल है । प्रकाश की एक अनब्याही बेटी नेहा बंगलौर में फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है । सुधीर …. उनका २५  वर्षीय बेटा … जिसकी नयी नयी शादी हुई है अपनी पत्नी सुधा के तीसरे तल साथ रहता है । रात का समय है …. तीनों जोड़े सोने गए हैं । दृश्य  इस प्रकार है ।  सबसे ऊपर का तल …… ‘सुधा आज तुम इस लाल ड्रेस में बहुत सुन्दर लग रही हो‘ सुधीर  सुधा की तरफ प्रशंसा भरी नज़रों से देख कर कहता है । सुधा ख़ुशी से चहकते हुए सुधीर को देखती है और कहती है ‘ तुम क्या मुझे सदा ऐसे ही प्यार करते रहोगे । सुधीर ‘ अरे  ये भी कोइ कहने  की बात है , हमारा प्प्रेम तो अम्र होगा  … मैं तो तुम्हारे लिए ताजमहल बनवाऊंगा ‘। बीच के  तल में ………..प्रकाश ‘ सुनो ज्योति,  बेटे की शादी में बहुत खर्च हो गया है … ऊपर से नेहा की पढाई का भी खर्च है … मैं अबसे ओवरटाइम किया करूंगा ‘। ज्योति ‘ मैं भी सोंच रही हूँ बॉस से बात करके दो चार टूर मांग लूं … आखिर नेहा की शादी भी तो करनी है ‘।हाँ , कर लो , मैं भी सोच रही हूँ साबुन तेल थोड़े कम दाम वाले ही लूँ , पिताजी  मोतिया भी तो पक गया है , आखिर ओपरेशन कब तक टालेंगे |  सबसे नीचे का तल ….७५  वर्षीय विश्वेश्वर नाथ जी अपनी पत्नी लक्ष्मी  देवी से कहते हैं ‘ सुनो तुम्हें याद है जब हमारी शादी हुई थी तब तुम लाल साड़ी  में कितनी सुंदर लग रही थीं ‘। लक्ष्मी  देवी लजा कर कहती है ‘ हाँ और वही साड़ी मुन्ना ने खेलते हुए ख़राब कर दी थी …. तब तुम कितना गुस्सा हुए थे ‘। क्यों ना होता … मैं जो इतने प्यार से तुम्हारे लिए ले कर आया था … विश्वेश्वर जी ने उतर दिया । अतीत ….वर्तमान ओर भविष्य को याद करते हुए एक ही मकान के तीन तलों में तीन पीढियां सो गयीं । नीलम गुप्ता  यह भी पढ़ें … सुकून जमीर डर प्रायश्चित बस एक बार आपको    “ तीन तल “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: short stories, short stories in Hindi, three stories

जमीर

कहते हैं इंसान जब कोई गलत काम कर रहा होता है तो उसका जमीर उसे रोक देता है | फिर भी गलत काम करने वाले अपने जमीर की सुनते कहाँ हैं | भावप्रवण लघुकथा – जमीर  अपनी बिटिया को पोलियों की दवा पिलाने हेतु मुझे शहर जाकर वापिस आना था।उस समय इस तरह घर घर पोलियों दवा पिलाई नहीं जाती‌ थी।जागरूक लोग ही दवा पिलाते थे।पतिदेव अपने काम पर गये थे।मैं खुद ही अपनी छह माह की बेटी को गोद में लेकर चल दी । जैसे तैसे मैंने लिफ्ट लेकर जल्दी जल्दी बिटिया को अस्पताल में पोलियों दवा पिलाई और घर पहुंचने की जल्दी में तुरन्त बस स्टेंड आ गयी‌।पर कोई बस नहीं थी‌।चूंकि मेरे पति लंच करने आने वाले थे।काफी देर तक बस ना पाकर कुछ सोच मैंने सामने से आते हुए एक जुगाड जो रेहडीनुमा था,उसे हाथ दे दिया।पहले से ही उसमें कुछ लोग बैढे थे।मैंने उन्हें आराम से बैठा देखकर कहा—भाई जी मुझे भी बामनीखेडा तक जाना है बैठ जाऊ क्या? उसने मुस्कुराते हुए कहा:_हां हां,बहन जी मुन्नी को लेकर आराम से बैठ जाओ।मैं बैठ गयी। नियत स्थान पर उतरते समय मैं किराया देने लगी,,,मगर उसने ये कहकर किराया लेने से मना कर दिया कि वो इधर तो जा ही रहे थे,आप बैठ गयी तो क्या बात,,,किराये की बात मत करो ये कहकर मुस्कुराते हुए आंखों से ओझल हो गया। तभी घर की ओर चलते चलते मैं कुछ सोचने लगी,,,अतीत की घटना मेरे सामने आ गयी,,,सहसा मेरा ध्यानपास ही में सरकारी नौकरी  करने वाले मिस्टर खन्ना की ओर चला गया।कुछ दिन पहले ही ड्राइवर खन्ना आफिस के काम से शहर जा रहे थे,,कस्बे के बस स्टैंड पर खड़े होकर अपनी सरकारी गाड़ी में सवारियां भर रहे थे,,,। पूछने पर खिसिया कर बोले_मैडम जी जाना तो मुझे उधर ही है,सवारियां ये सोच बैठा दी किराये के रूप में कुछ खर्चा पानी निकल आयेगा। उसकी इस हरकत से मैं निरूतर हो गरी और*जमीर*की परिभाषा ढूंढने लगी।मेरी नज़र में ड्राइवर की बजाय एक रेहडी वाले का जमीर श्रेष्ठता पा गया था।। रीतू गुलाटी  यह भी पढ़ें … सुकून गुनाहों का हिसाब डर प्रायश्चित बस एक बार आपको    “ जमीर “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: short stories, short stories in Hindi

बस एक बार

बेटा हो या बेटी, संतान के आने से घर -आँगन चहक उठता है | फिर भी बेटे सम्मानित विशिष्ट अतिथि और बेटियाँ बिन बुलाई मेहमान ही रही हैं | कितना कुछ दबाये हुए बढती हैं उम्र की पायदानों पर और अनकही ही रह जाती हैं “बस एक बार ” की कितनी सारी तमन्नाएं | पढ़िए सुनीता त्यागी की लघु कथा … बस एक बार  मंझली बेटी भीषण दर्द से तड़प रही थी। आज डाक्टर ने सर्जरी के लिए बोल दिया था।हस्पताल में उसे यूं दर्द से छटपटाता देख रमेसर के भीतर का वो पिता जो पांचवी बार भी बेटी पैदा होने पर कहीं खो गया था, जिसके बाद कभी उसने मां -बेटियों की सुध नहीं ली थी, आज उस पिता में कुछ छटपटाहट होने लगी थी।  ” रो मत, सब ठीक हो जायेगा “, उसने बेटी के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा।  पिता के स्पर्श को महसूस कर मंझली सुखद आश्चर्य में डूब गयी। पिता ने प्यार से हाथ फिराना तो दूर,कभी प्यार भरी नजरों से देखा भी नहीं था उसे।  “बापू बचालो मुझे!मत कराओ मेराअौपरेशन!! औपरेशन में तो मर जाते हैं! जैसे दादी मर गयीं थी”, मझली औपरेशन के नाम से घबरा कर रोती हुई कहने लगी। “ “ऐसा नहीं कहते बावली, मैं हूं ना!!”। रमेसर के चेहरे पर छलक आयी ममता को देखकर मंझली ने फिर कुछ कहने का साहस किया ” बापू! अगर मैं मर गयी, तो मेरी एक इच्छा अधूरी ही रह जायेगी ” । ” तुझे कुछ नहीं होगा बेटी ! फिर भी बता कौन सी इच्छा है तेरी”। पिता के मुंह से निकले शब्दों से मंझली को मानो पत्थरों से खुशबू आने लगी थी और उसकी आंखों से भी दबा हुआ उपेक्षा का दर्द फूट पड़ा, रुंधे गले से इतना ही कह पायी ” बापूू!! आज मुझे गोदी ले लो, बस एक बार!! सुनीता त्यागी  मेरठ  यह भी पढ़ें … दूसरा फैसला गुनाहों का हिसाब आत्म विश्वास टूटती गृहस्थी की गूँज  आपको आपको    “बस एक बार “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: short stories, father-daughter, girls, daughter, desire

टूटती गृहस्थी की गूँज

दो लोग विवाह के बंधन में बंध एक प्यार भरी गृहस्थी की शुरुआत करते हैं | उनकी बगिया में उगा एक नन्हा फूल उन्हें और करीब ले आता है | फिर ऐसा क्या हो जाता है कि दूरियाँ बढ़ने लगती है | बसी -बसायी गृहस्थी टूटने लगती है … जिसकी गूँज दूर -दूर तक सुनाई पड़ने लगती है | टूटती गृहस्थी की गूँज गुलाब एक मल्टीनेशनल कंम्पनी मे इंजीनियर के पद पर था। अच्छा पैकेज था। सब ओर खुशहाली थी। एकाएक कम्पनी ने छंटनी करनी शुरू कर दी। गुलाब भी इससे अछूता ना रह सका। तजुर्बेकार इंजीनियरो को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। गुलाब की गृहस्थी मे तूफान आ गया था। सब गडबडा गया था। नयी नौकरी मिलनी आसान नही थी वो भी मनपसन्द।। इन्टव्यू देता गुलाब पर कोई ना कोई कमी निकल आती। यूं ही हर दम खाली आते आते वह नकारात्मकता से घिरने लगा था। एक डर सा बैठने लगा था। प्रतिभाशाली होते हुऐ भी उसके भीतर एक डर घर कर गया था। दोस्तो की राय भी निराधार साबित हो रही थी। भगवान का ध्यान करता। पर चैन नही मिल रहा था। हर दम परेशान रहने लगा। खाने मे भी कुछ ना भाता,,, हां गुस्सा बढ चला था।। हरदम चिडचिडा सा रहता। अवसाद मे पडा पडा बुरा ही सोचता। जब से कम्पनी ने रिलीव करदिया तब तो बस घर जाने की सोचता कम्पनी मे काम के वास्ते वो अपने घर से 200 किलोमीटर की दूरी पर किराये के मकान मे रह रहा था। अब कया करे? अब तो उसने अपना बैग उठाया और घर आ गया। जिन माता पिता को वो मिस कर रहा था उनसे मिलकर अपनी व्यथा बताकुछ सुकून पा गया था। इधर पत्नी अपनी नौकरी हेतु अपने मायके जाकर जम गयी थी। छह माह की छोटी बेटी इन दोनो सेअलग थलग पड़ गयी थी। वो दोनो की आंख की तारा थी पर इन हालातो मे वो नानी की गोद मे थी। चूकि पत्नी का मायका बीच शहर मे था। इसीलिये पत्नी को ज्यादा परेशानी नही थी। पर बिना नोकरी गुलाब क्या करता उस शहर मे? उसने पत्नी को भी अपने संग ले जाना चाहा पर ये क्या।,,,, उसने एक दम मना कर दिया। गुलाब; -तुम चलो मेरे साथ पत्नी :- मै कैसे चलूगी,, मेरी नौकरी है यहां। गुलाब :- कौन सी पक्की नौकरी है? ऐसी तो वंहा भी मिल जायेगी। पत्नी :- नही नहीमै बिल्कुल पंसन्द नही करती आपके परिवार को। ना मै वंहा गुजारा कर पाऊगी। गुलाब:- मै यहां अकेला क्या करूंगा? खाली घर खाने को दोडता है मुझे? पत्नी :- मुझे नही पता पर मै नही जाऊगी आपके साथ ये बात पक्की है। छोटी सी फूल सी बेटी जिसे गुलाब खिलाना चाहता था संग रख प्यार देना चाहता था मजबूरी उसे छोड अपने घर लौट आया था। पर तनाव मे रहने लगा। पर पत्नी को कोई सरोकार ना था,,, उसे केवल अपनी इच्छाओ,, व आकांक्षो की फिक्र थी। ससुराल परिवार केलिये जो उसकी जिम्मेवारी थी,,, पति के लिये सहयोग भावना इन सब से दूर दू र तक कुछ लेना देना ना था। जिस पति ने उसका इतना साथ दिया था अब जब उसे पत्नी की जरूरत थी एक अच्छी राय चाहिये थी मनोबल बढाने की। उस समय वो नही थी। वो चाहती थी मेरा पति भी अपने घर ना जाये यही रहे मुझे सहयोग दे। पर पुरूष, की ईगो नारी की ईगो पर भारी थी। अपनी बच्ची के बिना यहां भी मन नही लग रहा था पर वहां भी नही रूक सकता था क्योकि ससुराल वालो का हस्तक्षेप जारी था। माता पिता की शह मे पत्नी ने पति को छोड मायके के प्रति ज्यादा जवाबदेही थी। अपने लिये पत्नी की इस भावना ने गुलाब के दिल मे नफरत भर दी थी। उसे कोई फर्क नहीपढता था गुलाब की नौकरी लगी या नही। पत्नी के इस व्यवहार से गुलाब परेशान रहने लगा। कई बार वो चिल्ला कर कहता_ _मेरा तो औरत जात से ही विश्वास उठ चला है__ऐसी होती है पत्नी। पति मरे या जीये उसे फर्क ही नही पढता। मै अब ऐसी औरत के संग नही रह सकता। जिसे सिर्फ मेरे पैसे से प्यार था मुझसे नही। इधर पत्नी मस्त थी अपने घर। उसने एक मास से एक फोन तक करके नही पूछा कि जॉब का क्या रहा?, इधर गुलाब पल पल टुट रहा था उसे अपनी टूटती गृहस्थी की गूंज साफ सुनाई दे रही थी जिसे वो टूटने नही देना चाहता था। वो चाहता था बस एक बार मेरी अच्छी सी नौकरी लग जाये वह सबकुछ ठीक हो जाये और मै फिर से उंचे मुकाम पर पहुंच जाऊ। इसी कशमकश मे घिरा, गुलाब फिर एक नये इन्टरव्यू की तैयारी मे जुट गया।। रीतू गुलाटी यह भी पढ़ें … आत्मविश्वाससुकून वो पहला खत आकांक्षा आपको  कहानी    ” टूटती गृहस्थी की गूँज “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-Story, Hindi story, Free read, short stories, Divorce

आत्मविश्वास

जीवन में खोना व् पाना तो लगा रहता है | जिसके अन्दर आत्मविश्वास होता है  उसे खोने का डर नहीं होता | और शायद इसी कारण कोई आत्मविश्वास के धनी व्यक्ति को कुछ खो जाएगा का डर दिखा कर शोषित नहीं कर पाता | एक ऐसी ही महिला की कहानी …                                                           आत्मविश्वास  बाईस वर्ष की माया सुन्दर तेज तर्रार तीखे नैन नक्श गोरा रंग। पोस्ट गैजुऐट आत्मविशवास से लबरेज युवती ने सीनियर सैं स्कूल मे सीनियर टीचर हेतु आवेदन किया। उसकी कार्य क्षमता से प्र्भावित होकर मुख्याध्यापक ने उसे मनपसंद विषय पढाने को दे दिये। माया भी खुश थी व बडी लगन से अपने काम को कर रही थी। सब कुछ ठीक चल रहा था। पर…. भीतर ही भीतर मुख्याध्यापक की बुरी नजर माया पर पड़ चुकी थी। वो उसे अकसर छुट्टी के बाद बहाने से रोकने लगा था। कभी किसी मीटिगं के बहाने अथवा कोई ओर काम,,,। शुरू शुरू मे तो माया उनके कहने से रूक गयी थी। पर एकदिन तो हद हो गयी जब एकान्त का फायदा उठाकर मुख्याध्यापक ने माया को अपनी आगोश मे ले लिया और उसका मुँह चूमने लगा। उसकी इस हरकत से माया आगबबूला हो गयी। तभी उसने माया से माफी मांग ली। अब माया चौकंनी हो गयी थी। भीतर ही भीतर वो कुछ फैसला ले चुकी थी। तीसरे दिन फिर मुख्याध्यापक ने जैसे ही माया को अकेला पाया वो फिर सारी हदे पारकर गया। माया ने आव देखा ना ताव खीचकर एक तमाचा सारे स्टाफ के सामने मुख्याध्यापक के मुंह पर दे मारा। पहले से ही पर्स मे रखे त्यागपत्र को मुख्याध्यापक के मुंह पर दे मारा। जोर से चिल्लाकर माया बोली….. मै यहां ज्ञान बांटने आयी थी,,,, अपना शरीर नही… कहकर तेजी से बाहर निकल गयी। रीतू गुलाटी यह भी पढ़ें … शैतान का सौदा सुकून वो पहला खत वर्षों बाद आपको  कहानी    “वर्षों बाद “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-Story, Hindi story, Free read, short stories, Confidence

वर्षों बाद …

                           हर घटना जब घटती है तो हम उसे एक एंगल से देखते हैं , अपने एंगल से , लेकिन जब दूसरे का एंगल  समझ में आता है तो हम जिस उम्र परिस्थिति के हिसाब से सोच रहे हैं , दूसरा उससे अलग अपनी उम्र व् परिस्थिति के हिसाब से सोच रहा होता है | तब लगता है , गलत कोई नहीं होता , हर घटना का देखने का सबका एंगल अलग होता है …..अक्सर ये समझ वर्षों बाद आती है लघु कथा -वर्षों बाद                                              मैं  हॉस्पिटल के बिस्तर पर  लेटी थी | ड्रिप चढ़ रही थी |  एक -एक पल मेरा मृत्यु से युद्ध चल रहा था | पता नहीं घर वापस जा भी पाउंगी या नहीं |  पर मृत्यु से भी ज्यादा मुझे कर रहा था अपनी बेटी का दुःख | मेरे बाद क्या होगा उसका | कितनी संवेदनशील है , किसी का दर्द सुन लें तो महीनों मन से निकाल नहीं पाती है | जब उसे ससुराल में पता चलेगा तो … टूट जायेगी , सह नहीं पाएगी , कितना रोएगी , अभी बेटा छोटा है उसे पालना है , इतनी जिम्मेदारियां सब पूरी करनी है , ऐसे कैसे चलेगा |                                            मैं अपने ख्यालों में खोयी हुई थी कि बेटी ने कमरे में प्रवेश किया | उसकी डबडबाई आँखे देख कर मैं टूट गयी , फूल सा चेहरा ऐसे मुरझा गया था जैसे कल से पानी भी न पिया हो | उसकी हालत देख कर मैंने मन को कठोर कर लिया और उससे बोली , ” किसने खब कर दी तुमको , अभी बच्चा छोटा है उसको देखो , तुम्हारा भाई है तो मेरी देखभाल को … बेटियाँ पराई  होती हैं उन पर ससुराल की जिम्मेदारी होती है | और इस तरह रो -रो कर मेरा अंतिम सफ़र कठिन मत करो | उसने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया और बोली , ” कुछ मत बोलो माँ , कुछ मत बोलो … और वो मेरे सीने से लग गयी |                    उसके सीने से लगी मैं अतीत में पहुँच गयी | ऐसे ही माँ  अपने अंतिम समय में गाँव में आँगन में खाट पर लेटी थीं | मैं दौड़ती भागती बच्चों को ले माँ को देखने पहुँची थी | मुझे देख कर माँ , जो दो दिन से एक अन्न का दाना नहीं खा पायी थीं , न जाने खान से ताकत जुटा  कर बोलीं , ” हे , राम , इनको कौन खबर कर दीन , ए तो बच्चन को भी जेठ का माहीना में ले दौड्स चली आयीं , अब पराये घर की हो उहाँ की चिंता करो यहाँ की नहीं | अब  रो रो के हम्हूँ को चैन से न मरने दीन , चार दिन के जिए दो दिन माँ ही चले जाइये |” मैं माँ के पास से हट गयी थी | अगली सुबह माँ  का निधन हो गया |                      वो अंतिम मिलन मुझे कभी भूलता ही नहीं था  | माँ क्या मुझे देखना ही नहीं चाहती थीं | क्या बेटियों की विदा कर के माँ उन्हें पराया मान लेती हैं | मैं जब भी माँ को याद करती उनके अंतिम शब्द एक कसक सी उत्पन्न करते | मैं आंसू पोछ  कर सोचती , जब माँ ही मेरा आना पसंद नहीं कर रहीं थीं तो मैं अब क्यों याद करूँ | आज अचानक वही शब्द मेरे मुंह से अपनी बेटी के लिए निकल गए | तस्वीर आईने की तरह साफ़ हो गयी | ओह माँ , आप नहीं चाहती थी कि मैं आपके लिए ज्यादा रोऊँ , इसलिए आपने अंतिम समय ऐसा कहा था | सारी  उम्र मैं आपको उन शब्दों के लिए दोषी ठहराती रही | ऐसा कहते समय आपने कितनी पीड़ा कितना दर्द झेला होगा उसकी समझ भी मुझे आई तो आज … इतने वर्षों बाद | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …………. दोगलापनसुकून वो पहला खत जोरू का गुलाम  आपको  कहानी    “वर्षों बाद “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-Story, Hindi story, Free read, short stories, Years later

सुकून

                               बेटी की शादी का माता -पिता को कितना हौसला होता है | बेटी के पैदा होते ही एक जिम्मेदारी सी होती है उनके कन्धों पर , बेटी को उसके घर , जहाँ की वो अमानत है यानि की ससुराल भेजने की | लेकिन ससुराल भेजने के बाद भी सुकून तब मिलता है जब … पढ़िए रीतू गुलाटी की कहानी  सुकून फरवरी माह की हल्की हल्की ठंड थी। ऐसे मे धूप का मजा सबको भाता है एक सुकून सा देता है। सीलन व अंधेरे कमरे मे बैढना जहां बुरा लगता है वही सरदी मे उजाले भरी धूप जैसै आकाश मे सोना सा चमक रहा हो ऐसा महसुस होता है। मीठी मीठी धूप बडी अच्छी लगती है। ऐसी गरमाहट मे बिस्तर पर नीदं सोने पे सुहागे जैसी लगती है। आज रविवार था छुट्टी का दिन! साथ मे कपडो की धुलाई का दिन। कामकाजी महिला के लिये यही एक स्पेशल दिन होता है जब वह फुर्सत मे होकर धूप का आनंद ले पाती है। दोपहर का खाना खाकर मै भी ज्यो लेटी गहरी नींद मे सो गयी। तभी डांइगरूम मे बैठे पतिदेव ने जो फिल्म का आनंद ले रहे थे,, अकेले पन से उकता कर मुझे फोन पर मिस काल दी और नीचे आने को कहा। हडबडा कर मै उठी और सूख चुके कपडो को समेटने लगी। आज का दिन मेरा बडा बदला बदला सा था,,, कारण मेरी बेटी की अच्छे से शादी का हो जाना। उसका कल घर पग फैरा था मै फिर फिर उसे याद कर अतीत मे लौट गयी थी। शादी के 15 दिन हो गये थे। और वो अपने हनीमून से भी लौट आयी थी। और अब ससुराल वालो के संग अपने मायके पहला फैरा डालने आयी थी। अपने पति के संग हंसती खिलखिलाती बडी सुंदर लग रही थी। उसके चेहरे की चमक से पता चल रहा था कि वह बडी खुश थी। बडी चहक रही थी। दूर का सफर करके लौटे थे खाना खाकर सब लेट चुके थे पर बेटी काम मे लगी थी। मेने कहा :_”बेटीतू भी आराम कर ले थोडी देर”। बेटी :- “नही मम्मी ,, मै कुछ सामान समेट लूं। कुछ रह ना जाये”आपने जो इतने गिफ्ट दिये है इन्हे सम्भाल कर गाडी मे रख लूं, कुछ छूट ना जाएं। मंमी:- “बेटी शाम का खाना भी पैक करना है क्या? “बेटी:- हां हां मम्मी जरुर! अब इतनी दूर थके हुऐ घर पहुंचेगे तो खाना कैसे बना पायेगे? यही से पैक करके रख लेती हूं। बडी लगन व फुरती से वो सब सामान समेट रही थी,,, इन सब को देख मुझे हंसी भी आ रही थी और प्यार भी आ रहा था। मुझे याद है शादी से पहले वो कितनी लापरवाह थी,,, सामान फैला रहता दूध पडा रह जाता वो ना पीती । मै चिल्लाती—अपना सामान तो समेट लोपर वो हंस देती और सोफे पर लेट टी वी देखने लग जाती। पर आज सबकुछ बदला हुआ था,,,,, दोपहर के खाने के बाद वो सारे जूठे बरतन बडे करीने से एक मे एक डाल कर समेटते हुऐ किचन मे रख आयी थी। मै हंस पडी सोच रही थी ये वही लडकी है जो खाकर अपने बरतन वही बैठक मे छोड देती थी। आज इतना बदलाव? 15 दिन मे ही बेटी ससुराल के तौर तरीके सीख गयी। पढाई लिखाई मे तो मेधावी थी ही, गृहस्थिन भी पक्की बन गयी थी। उसके जाते ही मेरी चिन्ता मिट गयी थी। मुझे डर लगता था की नये घर मे एडजेस्ट होने मे पता नही कितना समय लगे,,, पर मेरी संस्कारी बेटी ने मेरा मान बढा दिया। सीडियो से नीचे उतरते उतरते मै वर्तमान मे लौट आयी पर मुझे मुस्कुराते देख पतिदेव पूछ ही बैठे :-“अपनी बेटी के बारे मे सोच रही हो? मैनै हंसकर कहा :- “हां चलो बेटी अपने घर खुश है हमे और क्या चाहिये। “तभी पतिदेव हंसकर बोले :- सही कहा। “जहां का पौधा जहां लगना है वही लग जाएं और वही फूले फले” हमे और क्या चाहिये? शायद वो भी अपनी बेटीपर गर्व महसूस कर रहे थे। बेटी अपने घर खुश रहे इससे बडा “सुकून” और कया हो सकता है। रीतू गुलाटी यह भी पढ़ें …. बदलाव अंकल आंटी की पार्टी वो पहला खत सीख आपको  कहानी    “सुकून “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-Story, Hindi story, Free read, short stories, comfort

बदलाव

रज्जो धीर गंभीर मुद्रा में बैठी थी , जबकि उसके  माथे पर चिंता की लकीरे थीं | अभी थोड़ी ही देर पहले आँगन से  घर परिवार जात -बिरादरी वाले  उठ कर गए थे | हर अंगुली रज्जो के ऊपर उठी थी | रज्जो पर इलज़ाम था कि उसकी बेटी ने भाग कर शादी कर ली है | क्या -क्या नहीं कहा सबने रज्जो को | माँ ही संस्कार देती है | बाँध कर ना रख पायी लड़की को | सब कुछ जहर की तरह गटकती रही रज्जो | अतीत का नाग उसे फिर डस रहा था | दुल्हन बन कर जब इस घर में आई थी | तब कहाँ पता था कि शराबी पति का दिल कहानी और लगा हुआ है | उसने बहुत कोशिश  की  कि वह शराब और उस लड़की को छोड़ दे | पर रज्जो के हिस्से में सिर्फ मार ही आई |  तभी तपती मन की धरती पर सावन की फुहार बन कर आई उसकी बेटी पूजा | रज्जो को यकीबन  था कि उसके लिए न सही पर पिता का दिल अपनी बेटी के लिए तो पसीजेगा | पर उसके नसीब में ये सुख कहाँ था | उसका पति दूसरी औरत को घर ले आया | उसने बेटों को जन्म दिया |  एक कहावत है माँ दूसरी तो बाप तीसरा हो जाता है | उसके साथ -साथ  उसकी बेटी पूजा भी दुर्व्यवहार का शिकार होने लगी | पीली फराक                 एक दिन हिम्मत करके वो बेटी को ले मायके चली आई | जो हो मेहनत करके खा लेगी पर अपनी बेटी पर जुल्म नहीं होने देगी | नादान कहाँ जानती थी कि  मायका भी पराया हो गया था | भाई उसे देख त्योरियां चढ़ा कर बोला , ” भले घर की औरते ऐसे अकेले रह कर कमाँ कर नहीं खातीं | यहाँ भी रहोगी तो क्या इज्ज़त रहेगी समाज में | हमारी तो नाक कट जायेगी | मुझे अपनी बेटी का ब्याह भी करना है | जाओ  ससुराल लौट जाओ | आदमी कोई पत्थर नहीं होता है -प्यार से बात करोगी तो उसे छोड़ देगा | निराश हो रज्जो अपने घर लौट आई | साल दर साल दर्द सहती रही पर उफ़ तक नहीं की | उसने आज भी उफ़ नहीं की थी | जानती थी , पूजा कब तक यहाँ दर्द सहती , कौन उसका ब्याह करता , वो उसकी राह पर नहीं चली जहाँ सिर्फ सहना ही लिखा होता है | विद्रोह करके निकल गयी उसके साथ जो शायद कुछ पल सुख के उसके नाम लिख दे | वो जानती थी कि पूजा लौट कर कभी नहीं आएगी | लौट के आई लड़कियों के लिए मायके दरवाजे कहाँ खुले होते हैं ? तभी भाई उसके सामने आया और क्रोध में बोला , ” कुल का नाम डुबो दिया इस लड़की ने , भाग कर शादी की वो भी एक विजातीय के साथ | अब हम क्या मुंह दिखाएँगे समाज को | अरे दिक्कत थी पालने में तो मेरे घर आ जाती | कुछ कह सुन के दो रोटी का जुगाड़ कर ही लेता यूँ नाक तो न कटने देता | रज्जो के चेहरे पर एक दर्द भरी मुस्कुराहट तैर गयी | भाई  का ये बदलाव अब की बार उसके लिए अप्रत्याशित नहीं था | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … घूरो , चाहें जितना घूरना हैं जीवन अनमोल है बेटियों की माँ पंडित जी  आपको  कहानी  “ बदलाव “  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-  Hindi stories, change

पीली फराक

बाबू! इस जन्मदिन पर तो मेरे लिए पीले रंग की फराक लाओगे न? हाँ! हाँ! जरूर लाऊँगा। हरिया के दिमाग में उठते ही रधिया की बातें गूँजने लगी।       बदन बुखार और दर्द से टूटा जा रहा था। हिम्मत उठने की नहीं हो रही थी पर आज पीली फराक तो रधिया को लाकर देनी ही थी। तो जैसे- तैसे उठ कर रधिया की माई को चाय बनाने को कह फारिग होने निकल गया। आकर नहाया और चाय के साथ रात की रखी रोटी खाई। डिब्बे में चार रोटी, अचार, मिर्च और प्याज रखवाया। उसे लेकर, सिर पर गमछा लपेट कर चल पड़ा। घंटाघर के पास बड़े डाकघर के सामने जाकर खड़ा  हो गया जहाँ सारे मजदूर खड़े होते थे। फर्क        तब तक उसे वो बाबू दिख गए जो कई बार उसे अपने घर की सफाई करने के लिए ले गए थे। दौड़ कर बाबू को नमस्ते कर दी, शायद बाबू उसे सफाई के लिए ले जाएँ। बाबू ने उसे देखा तो अपने स्कूटर पर बैठा सफाई के लिए घर ले आए। सफाई करते हुए एक बज गया तो मुँह-हाथ धो, मालकिन से पानी माँग कर खाना खाने बैठा।        पानी देते हुए मालकिन ने पूछा.. हरिया! आज तेरी तबियत ठीक नहीं है क्या?       हाँ मालकिन! दो दिन से तेज बुखार है।        तो काम करने क्यों आया? दवाई खाकर घर पर आराम करता। ऐसे तेरा बुखार उतरेगा भला?         जानत हूँ मालकिन! पर वो क्या बताऊँ? हमार बिटिया का आज जन्मदिन है। उसने पीली फराक लाने को बोला कब से? काम करने न आता तो फराक कैसे लूँगा? बस एहि खातिर चला आया। राग पुराना              ठहर, अभी बुखार उतरने की गोली देती हूँ तुझे… कह कर अंदर से लाकर चाय-बिस्किट दिए और और एक पैरासिटामोल दी।            चलते समय पैसों के साथ अपनी बेटी की छोटी हो गई पीले रंग की फ्राक और कुछ लड्डू दिए।            पैसे,फराक और लड्डू लेकर हरिया इतवार को लगने वाले बाजार की और चल पड़ा पीली फराक ख़रीदने के लिए। सोचता हुआ जा रहा था कि रधिया को फराक के साथ दो चाकलेट  भी देगा तो वो कितनी खुश हो जाएगी। ————————————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई  यह भी पढ़ें … घूरो , चाहें जितना घूरना हैं जीवन अनमोल है अनावृत  चोंगे को निमंत्रण आपको आपको  कहानी  “पीली फराक “  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- short stories, Hindi stories, short stories in Hindi, international Labour day, YELLOW FROCK

फर्क

                                सुधाकर बाबू का किस्सा पूरे  ऑफिस में छाया हुआ था | सुधाकर बाबू की अखबार के एक अन्य कर्मचारी से ठन  गयी थी | सुधाकर बाबू प्रिंटिंग का काम देखते थे और दीवाकर जी अखबार का पहला पेज डिजाइन करता थे  | सुधाकर बाबू की दिवाकर जी से कैंटीन में चाय समोसों के साथ गर्मागर्म बहस हो गयी |  यूँ तो दोनों की अपने -अपने पक्ष में दलील दे रहे थे | इसी बीच  सुधाकर बाबू ने दिवाकर जी पर कुछ  ऐसी फब्तियां कस दी कि दिवाकर जी आगबबबूला हो गए | तुरंत सम्पादक के कक्ष में जा कर लिखित शिकायत कर दी कि जब तक  सुधाकर बाबू उनसे माफ़ी नहीं मांगेंगे तब तक वो अखबार का काम नहीं संभालेंगे, छुट्टी ले कर घर पर रहेंगे | संपादक जी घबराए | दिवाकर जी पूरे दफ्तर में वो अकेले आदमी थे जो अख़बार का  पहला पेज डिजाइन करते थे | पिछले चार सालों  में उन्होंने एक भी छुट्टी नहीं ली थी | कभी छुट्टी लेने को कहते भी तो अखबार के मालिक सत्यकार जी उन्हें मना लाते | सम्पादक जी ने हाथ -पैर जोड़ कर उन्हें हर प्रकार से मनाने की कोशिश की पर इस बार वह नहीं माने | अगर कल का अखबार समय पर नहीं निकल पाया तो लाखों का नुक्सान होगा | कोई और व्यवस्था भी नहीं थी |  उन्होंने सुधाकर जी को बुलाया | पर वो भी  माफ़ी मांगने को राजी न हुए | मजबूरन उन्हें बात मालिक तक पहुंचानी पड़ी | बात सुनते ही अखबार के मालिक ने आनन् -फानन में सुधाकर जी को बुलाया | प्रायश्चित इस बार सुधाकर जी भी गुस्से में थे | उन्होंने मालिक से कह दिया की बहस में कही गयी बात के लिए माफ़ी वो नहीं मांगेंगे | क्योंकि बहस तो दोनों तरफ से हो रही थी | दिवाकर जी को बात ज्यादा बुरी लग गयी तो वो क्या कर सकते हैं | आखिर उनकी भी कोई इज्ज़त है वो यूँही हर किसी के आगे झुक नहीं सकते | सत्यकार जी ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की |उन्होंने कहा कि आपसी विवाद में अगर किसी को बात ज्यादा बुरी लग गयी है तो आप माफ़ी मांग लें | दिवाकर जी यूँ तो कभी -किसी से माफ़ी माँगने को नहीं कहते |  उन्होंने सुधाकर  जी को लाखों के नुक्सान का वास्ता भी दिया |  पर सुधाकर जी टस से मस न हुए | उन्होंने इसे प्रेस्टीज इश्यु बना रखा था | उनके अनुसार वो माफ़ी मांग कर समझौता नहीं कर सकते | दूसरा फैसला अंत में सत्यकार जी ने सुधाकर जी से  पूंछा ,  ” आपकी तन्ख्य्वाह कितनी है ? सुधाकर जी ने जवाब दिया – १५००० रुपये सर सत्यकार जी बोले , मेरे ऑफिस का १५ ०००० करोंण का टर्नओवर हैं | पर मैं विवादों को बड़ा बनाने के स्थान पर जगह -जगह झुक जाता हूँ | शायद यही वजह है कि हमारे बीच  १५००० रुपये से १५००० करोंण का फर्क है | देर शाम को दिवाकर जी अपनी टेबल पर बैठ कर अखबार का फीचर डिजाइन कर रहे थे और सुधाकर जी  टर्मीनेशन लैटर के साथ ऑफिस के बाहर निकल रहे थे | विवाद को न खत्म करने की आदत से उनके व्  सत्यकार जी के बीच सफलता का फर्क कुछ और बड़ा हो गया था | बाबूलाल मित्रों एक कहावत है जो झुकता है वही उंचाई  पर खड़ा रह सकता है | छोटी -छोटी बात को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने वाले जीवन में बहुत ऊंचाई पर नहीं पहुँच पाते | यह भी पढ़ें …….. घूरो , चाहें जितना घूरना हैं गैंग रेप   अनावृत  ब्लू व्हेल का अंतिम टास्क आपको आपको  कहानी  “राग पुराना”  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- short stories, hindi stories, difference, short stories in hindi