प्रो लाइफ या प्रो चॉइस …स्त्री के हक़ में नहीं हैं कठोर कानून

माँ बनना दुनिया के सबसे खूबसूरत अनुभवों में से एक है | किसी कली  को अपने अंदर फूल के रूप में विकसित होते हुए महसूस करने का अहसास बहुत सुखद है | कौन स्त्री है जो माँ नहीं बनना चाहती | फिर भी कई बार उसे ग्राभ्पात करवाना पड़ता है | गर्भपात का दर्द बच्चे को जन्म देने के दर्द से कई गुना ज्यादा पीड़ा दायक है …फिर भी स्त्री इससे गुजरने के पक्ष में निर्णय लेती है… तो यकीनन कोई बड़ा मसला ही होगा | ( यहाँ केवल लिंग परिक्षण के बाद हुए गर्भपातों को सन्दर्भ में ना लें , वो गैर कानूनी हैं )परन्तु अब ये बात फिरसे उठने लगी है कि गर्भपात को पूरी तरह से गैर कानूनी करार दे दिया जाए | खास बात ये है कि ये मान किसे विकासशील देश नहीं विकसित देश अमेरिका से उठ रही है | प्रो लाइफ या  प्रो चॉइस …स्त्री के हक़ में नहीं हैं कठोर कानून  प्रो लाइफ और प्रो चॉइस  के पक्ष और विपक्ष का वैचारिक विरोध कोई नयी बात नहीं है | हम सब जीवन के पक्ष में है | फिर भी अगर इन परिस्थितियों पर गौर करा जाए जहाँ स्त्री गर्भपात के अधिकार की मांग करती है … बालात्कार से उत्पन्न बच्चे धोखा देकर भागे प्रेमी से उत्पन्न बच्चे ऐसा भ्रूण जिसे कोई ऐसा रोग हो जो उसे जीवन भर असहाय बना दे | ऐसा भ्रूण जिसका गर्भ में पलना माँ के जीवन को खतरा हो | या स्त्री मानसिक रूप से इसके लिए तैयार ना हो | चाहे इसका कारण उसका कैरियर हो या बच्चा पालने की अनिच्छा | प्रो चॉइस महिलाओं को ये अधिकार देता है कि ये शरीर उनका है और उसमें बच्चे को पालने या जन्म देने का अधिकार  उनका है | जबकी प्रो लाइफ का कहना है कि किसी भी जीव चाहें वो भ्रूण अवस्था में ही क्यों ना हो उसका जीवन खत्म करने का अधिकार किसी को नहीं है | यूँ तो प्रो लाइफ के तर्क बहुत सही लगते हैं ,क्योंकि वो जीवन के पक्ष में है , लेकिन प्रो चॉइस के अधिकार पाने के लिए महिलाओं को बहुत संघर्ष करना पड़ा , क्योंकि गर्भपात हमेशा से कानूनी रूप से गलत माना जाता रहा है |  अभी हाल में अमेरिका के ओकलाहोमा में प्रो लाइफ के पक्ष में निर्णय देते हुए गर्भपात को पूरी तरह से गैर कानूनी बना दिया जिसमें गर्भपात करने वाले डॉक्टर को भी 99 वर्ष के लिए जेल जाना पड़ेगा | जाहिर है कोई डॉक्टर ये खतरा नहीं उठाएगा | ऐसा करने वाला ये राज्य अमेरिका का पांचवां राज्य है | तो क्या महिलाएं गर्भपात नहीं करवाएगी ? जहाँ विवाहित दंपत्ति  प्रेम पूर्ण साथ -साथ रहते हैं वहां वो वैसे भी भी बच्चे को लाने या नहीं लाने का निर्णय साथ –साथ करते हैं और अगर बिना मर्जी के बच्चा आ ही गया तो उसे सहर्ष पाल ही लेते हैं |( फिल्म –बधाई हो जो असली जिंदगी की ही कहानी है  ) परन्तु ऊपर लिखे सभी कारणों में अगर स्त्री  गर्भपात नहीं करवा पाएगीं तो वो क्या करेगी … उन बच्चों ओ जन्म देकर कूड़े में फेंकेंगी , या अनाथालयों मे भेजेंगी ,क्योंकि रेप चाइल्ड या धोखेबाज प्रेमी से उत्पन्न बच्चों को पालने, उस बच्चे को देखकर उस सदमे के साथ हमेशा जीने के लिए विवश करता है , जबकि बच्चे का पिता पूर्ण रूप से उस बच्चे और अपने कर्तव्यों के प्रति आज़ाद रहता है | प्रो चॉइस स्त्री को ये अधिकार देता है कि केवल वो ही दंडित ना हो | या फिर खराब भ्रूण के कारण अल्प मृत्यु का शिकार होंगी | जैसे की भारतीय मूल की सविता की २०१२ में आयरलैंड में मृत्यु हो गयी थी | जिसके गर्भ में पलने वाला भ्रूण खराब था और उससे माँ की जान को खतरा था | परन्तु कोई डॉक्टर गर्भपात  के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि उस समय वहाँ का कानून यही था कि  किसी भी तरह का गर्भपात गैर कानूनी है | उनके पति द्वारा अदालत में गुहार लगाने के बावजूद सविता को नहीं बचाया जा सका और वो मृत्यु का शिकार हुई |उसके बाद वहां हुए विरोध प्रदर्शनों के मद्देनज़र वहां की सरकार को कानून में बदलाव करना पड़ा कि स्त्री की अगर जान को खतरा हो तो उस भ्रूण का गर्भपात  करवाया जा सकता है | कानून बनने के बाद भी बहुत सी स्त्रियाँ गर्भपात करवाएंगी पर वो अप्रशिक्षित व् अकुशल दाइयों और झोला छाप डॉक्टरों द्वारा होगा …जिसमें स्त्री के जीवन को खतरा है |                             जीवन का अंत करना भले ही सही ना हो परन्तु ख़ास परिस्थितियों में किसी स्त्री , किसी भावी माँ के शारीरिक , मानसिक स्थिति को देखते हुए ये जरूरी हो जाता है कि महिलाओं के पास ये अधिकार रहे कि वो बच्चे को जन्म दे या नहीं | आप क्या कहते हैं ? वंदना बाजपेयी  फेसबुक और महिला लेखन दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती करवाचौथ के बहाने एक विमर्श आपको आपको  लेख “  प्रो लाइफ या  प्रो चॉइस …स्त्री के हक़ में नहीं हैं कठोर कानून “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |     filed under-pro-life, pro-choice, abortion, laws for abortion,women issues

माँ के सपनों की पिटारी

सूती धोती उस पर तेल -हल्दी के दाग , माथे पर पसीना और मन में सबकी चिंता -फ़िक्र | माँ तो व्रत भी कभी अपने लिए नहीं करती | हम ऐसी ही माँ की कल्पना करते हैं , उसका गुणगान करते हैं …पर क्या वो इंसान नहीं होती या माँ का किरदार निभाते -निभाते वो कुछ और रह ही नहीं जाती , ना रह जाते हैं माँ के सपने  माँ के सपनों की पिटारी  कल मदर्स डे था और सब अपने माँ के प्यार व् त्याग को याद कर रहे थे | करना भी चाहिए ….आखिर माँ होती ही ऐसी हैं | मैंने भी माँ को ऐसे ही देखा | घर के हज़ारों कामों में डूबी, कभी रसोई , कभी कपड़े कभी बर्तनों से जूझती, कभी हम लोगों के बुखार बिमारी में रात –रात भर सर पर पट्टी रखती, आने जाने वालों की तीमारदारी करती | मैंने माँ को कहीं अकेले जाते देखा ही नहीं , पिताजी के साथ जाना सामान खरीदना , और घर आ कर फिर काम में लग जाना |अपने लिए उनकी कोई फरमाइश नहीं , हमने माँ को ऐसी ही देखा था …बिलकुल संतुलित, ना जरा सा भी दायें, ना जरा सा भी बायें |  उम्र का एक हिस्सा निकल गया | हम बड़े होने लगे थे | ऐसे ही किसी समय में माँ मेरे व् दीदी के साथ बाज़ार जाने लगीं | मुझे सब्जी –तरकारी के लिए खुद मोल –भाव करती माँ बहुत अच्छी लगतीं | कभी –कभी कुछ छोटा-मोटा सामान घर –गृहस्थी से सम्बंधित खुद के लिए भी खरीद लेती , और बड़ी ख़ुशी से दिखातीं | उस समय उनकी आँखों की चमक देखते ही बनती थी | मुझे अभी भी याद है कि हम कानपुर में शास्त्री नगर बाज़ार में सब्जियां लेने गए थे , वहाँ  एक ठेले पर कुछ मिटटी के खिलौने मिल रहे थे | माँ उन्हें देखने लगीं | मैं थोड़ा पीछे हट गयी | बड़े मोल –तोल से उन्होंने दो छोटे –छोटे मिटटी के हाथी खरीदे और मुझे देख कर चहक कर पूछा ,” क्यों अच्छे हैं ना ?” मेरी आँखें नम हो गयीं |  घर आने के बाद पिताजी व् बड़े भैया बहुत हँसे कि , “ तुम तो बच्चा बन गयीं , ये क्या खरीद लायी, फ़ालतू के पैसे खर्च कर दिए | माँ का मुँह उतर गया | मैंने माँ का हाथ पकड़ कर सब से कहा, “ माँ ने पहली बार कुछ खरीदा है , ऐसा जो उन्हें अच्छा लगा , इस बात की परवाह किये बिना कि कोई क्या कहेगा,ये बहुत ख़ुशी का समय है कि वो एक माँ की तरह नहीं थोड़ा सा इंसान की तरह जी हैं |”  लेकिन जब मैं खुद माँ बनी , तो बच्चों के प्रेम और स्नेह में भूल ही गयी कि माँ के अतिरिक्त मैं कुछ और हूँ | हालांकि मैं पूरी तरह से अपनी माँ की तरह नहीं थी , पर अपने लिए कुछ करना बहुत अजीब लगता था | एक अपराध बोध सा महसूस होता |  तब मेरे बच्चों ने मुझे अपने लिए जीना सिखाया | अपराधबोध कुछ कम हुआ | कभी -कभी लगता है मैं आज जो कुछ भी कर पा रही हूँ , ये वही छोटे-छोटे मिटटी के हाथी है ,जो माँ के सपनों से निकलकर मेरे हाथ आ गए हैं |   ये सच है कि बच्चे जब बहुत छोटे होते हैं तब उन्हें २४ घंटे माँ की जरूरत होती है , लेकिन एक बार माँ बनने के बाद स्त्री उसी में कैद हो जाती है , किशोर होते बच्चों की डांट खाती है, युवा बच्चे उसको झिडकते, बहुत कुछ छिपाने लगते हैं ,और विवाह के बाद अक्सर माँ खलनायिका भी नज़र आने लगती है | तमाम बातें सुनती है , मन को दिलासा देती है ,  पर वो माँ की भूमिका से निकल कर एक स्त्री , इक इंसान बन ही नहीं पाती | क्या ये सोचने की जरूरत नहीं कि माँ के लिए दुनिया इतनी छोटी किसने कर दी है ?   माँ के त्याग और स्नेह का कोई मुकाबला नहीं हो सकता, लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाए तो उनका भी फर्ज है कि खूबसूरत शब्दों , कार्ड्स , गिफ्ट की जगह उन्हें , उनके लिए जीवन जीना भी सिखाये | घर की हथेली पर बूँद भर ही सही पर उसके भी कुछ सपने हैं , या किसी ख़ास तरह से जीने की इच्छा ,बस थोडा सा दरवाजा खोल देना है , खुद ही वाष्पीकृत हो कर अपना रास्ता खोज लेंगे |  मेरी नानी ने एक पिटारी दी थी मेरी माँ को, उसमें बहुत ही मामूली चीजें थी , कुछ कपड़ों की कतरने , कुछ मालाएं , कुछ सीप , जिसे खोल कर अक्सर माँ रो लिया करती | सदियों से औरतें अपनी बेटियों को ऐसी ही पिटारी सौंपती आयीं है, जो उन्होंने खोली ही नहीं होती है …उनके सपनों की पिटारी | कोशिश बस इतनी होनी चाहिए कि कोई भी माँ ये पिटारी बच्चों को ना सौंप कर अपने जीवन काल में ही खोल सके | मदर्स डे का इससे खूबसूरत तोहफा और क्या हो सकता है | क्या आप अपनी माँ को ये तोहफा नहीं देना चाहेंगे |  यह भी पढ़ें … महिला सशक्तिकरण –नव सन्दर्भ , नव चुनौतियाँ विवाहेतर रिश्तों में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों ? पुलवामा हमला -शर्मनाक है सोशल मीडिया का गैर जिम्मेदाराना व्यव्हार बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद आपको लेख    “माँ के सपनों की पिटारी  “  कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords-mother’s day, mother, mother-child, daughter

‘फ्लोरेंस नाइटिंगेल’ की याद में मनाया जाता है ‘अंतर्राष्ट्रीय नर्स दिवस’

‘अंतर्राष्ट्रीय नर्स दिवस’ स्वास्थ्य सेवाओं में नर्सों के योगदान को सम्मानित करने तथा उनसे संबंधित विभिन्न मुद्दों पर चर्चा के लिए मनाया जाता है। यह दिवस आधुनिक नर्सिंग की शुरूआत करने वाली तथा मानव जाति के लिए दया एवं सेवा की महान नारी फ्लोरेंस नाइटिंगेल के जन्म दिवस के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। एक समृद्ध और उच्चवर्गीय ब्रिटिश परिवार में 12 मई 1820 को जन्मी फ्लोरेंस नाइटिंगेल अपनी सेवा भावना के लिए याद की जाती हैं। ‘फ्लोरेंस नाइटिंगेल’ की याद में   मनाया जाता है  ‘अंतर्राष्ट्रीय नर्स दिवस’ इंटरनेशनल काउंसिल आॅफ नर्सेस 130 से अधिक देशों के नर्स संघों का एक महासंघ है। इसकी स्थापना 1899 में हुई थी और यह स्वास्थ्य देखभाल प्रोफेशनल के लिए पहला अंतर्राष्ट्रीय संगठन है। इसका मुख्यालय जिनेवा, स्विट्जरलैंड में है। संगठन का लक्ष्य दुनिया भर के नर्सों के संगठनों को एक साथ लाना है, नर्सों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और दुनिया भर में नर्सिंग के पवित्र प्रोफेशन को आगे बढ़ाने और वैश्विक और घरेलू स्वास्थ्य नीति को प्रभावित करना है। “ये बात सच है कि एक मरीज का इलाज डाक्टर करता है, मगर उस मरीज की देखभाल नर्स करती है। वो मरीज के सिर्फ बाहरी जख्मों पर ही नहीं बल्कि उसके अंदरूनी जख्मों पर भी मरहम लगाती है। ऐसी मदद की जरूरत मरीज को तब और ज्यादा महसूस होती है जब उसे बताया जाता है कि उसे कोई जानलेवा बीमारी है या वह सन 1840 में इंग्लैंड में भयंकर अकाल पड़ा और अकाल पीड़ितांे की दयनीय स्थिति देखकर फ्लोरेंस नाइटिंगेल द्रवित हो गयी। अपने एक पारिवारिक मित्र से उन्होंने नर्स बनने की इच्छा प्रकट की। उनका यह निर्णय सुनकर उनके परिजनों और मित्रांे में खलबली मच गयी। इतने प्रबल विरोध के बावजूद फ्लोरेंस नाईटेंगल ने अपना इरादा नही बदला। विभिन्न देशों में अस्पतालों की स्थिति के बारे में उन्होंने जानकारी जुटाई और शयनकक्ष में मोमबत्ती जलाकर उसका अध्ययन किया। उनके दृढ़ संकल्प को देखकर उनके माता-पिता को झुकना पड़ा और उन्हें नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए जाने की अनुमति देनी पड़ी। उन्होंने अभावग्रस्त लोगों की सेवा तथा चिकित्सा सुविधाओं को सुधारने तथा बनाने के कार्यक्रम आरंभ किये। नाइटिंगेल एक विलक्षण और बहुमुखी लेखिका थी। अपने जीवनकाल में उनके द्वारा प्रकाशित किए गये ज्यादातर लेखांे में चिकित्सा ज्ञान का समावेश होता था। फ्लोरेंस का सबसे महत्वपूर्ण योगदान 1854 में क्रीमिया के युद्ध में रहा। अक्टूबर 1854 में उन्होंने 38 स्त्रियों का एक दल घायलों की सेवा के लिए तुर्की भेजा। जब चिकित्सक चले जाते तब वह रात के गहन अंधेरे में मोमबत्ती जलाकर घायलों की सेवा के लिए उपस्थित हो जाती। फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने मरीजों और रोगियों की सेवा पूरे मनोयाग से की। क्रीमिया युद्ध के दौरान लालटेन लेकर घायल सैनिकों की प्राणप्रण से सेवा करने के कारण ही उन्हें ‘लेडी बिथ द लैम्प’  (दीपक वाली महिला) कहा गया। नर्सिंग में उनके अद्वितीय कार्य के लिए उन्हें 1869 में उन्हें ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने ‘रायल रेड क्रास’ से सम्मानित किया। जन समुदाय के अनुसार “वह तो साक्षात देवदूत है दुर्गन्ध और चीख पुकार से भरे इस अस्थायी अस्पतालों में वह एक दालान से दूसरे दालान में जाती है और हर एक मरीज की भावमुद्रा उनके प्रति आभार और स्नेह के कारण द्रवित हो जाती है। रात में जब सभी चिकित्सक और कर्मचारी अपने-अपने कमरों में सो रहे होते हैं तब वह अपने हाथांे में लैंप लेकर हर बिस्तर तक जाती है और मरीजांे की जरूरतों का ध्यान रखती है।” इसी बीच उन्होंने नोट्स आन नर्सिग पुस्तक लिखी। उन्होंने 1860 में सेंट टामस अस्पताल और नर्सों के लिए नाइटिंगेल प्रशिक्षण स्कूल की स्थापना की थी। जीवन का बाकी समय उन्होंने नर्सिग के कार्य को बढ़ाने व इसे आधुनिक रूप देने में बिताया। युद्ध में घायलों की सेवा सुश्रूषा के दौरान मिले गंभीर संक्रमण ने उन्हें जकड़ लिया था। उनका 90 वर्ष की आयु में 13 अगस्त, 1910 को निधन हो गया। नाइटिंगेल के द्वारा किये गए सामाजिक सुधारांे में उन्होंने ब्रिटिश सोसाइटी के सभी भागांे में हेल्थकेयर को काफी हद तक विकसित किया। भारत में बेहतर भूख राहत की वकालत की और जहाँ महिलाआंे पर अत्याचार होते हंै वहाँ महिलाआंे के हक में लड़ी और देश में महिला कर्मचारियों की संख्या को बढ़ाने में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अंतर्राष्ट्रीय नर्स दिवस के अवसर पर भारत के महामहिम राष्ट्रपति स्वास्थ्य क्षेत्र में उत्कृष्ट सेवाओं के लिए देश भर से चयनित नर्सों को ‘राष्ट्रीय फ्लोरेंस नाइटिंगेल पुरस्कार’ से सम्मानित करते हैं। नर्सों की उल्लेखनीय सेवा को मान्यता देने के लिये केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने वर्ष 1973 में यह पुरस्कार शुरू किया था। इस पुरस्कार के तहत प्रत्येक विजेता को पचास हजार रूपये नकद राशि, प्रशस्ति पत्र और एक पदक प्रदान किया जाता है। हमारा सुझाव:- नई महामारियों, संक्रमण और प्राकृतिक आपदाओं जैसे बढ़ते खतरों से उत्पन्न चुनौती से निबटने के लिए देश की स्वास्थ्य सेवाओं को और बेहतर बनाने के वास्ते नर्सिंग शिक्षा और प्रशिक्षण में नवाचार तथा उन्नत प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल पर और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। – प्रदीप कुमार सिंह, लेखक यह भी पढ़ें … महिला सशक्तिकरण : नव संदर्भ एवं चुनौतियां बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू  #Metoo से डरें नहीं साथ दें  मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं आपको “ ‘फ्लोरेंस नाइटिंगेल’ की याद में   मनाया जाता है  ‘अंतर्राष्ट्रीय नर्स दिवस’“कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-Hindi article, International nurses day, Florence Nightingale, nurse, lady with a lamp

चुनाव -2019-नए वोटर

आपने वोट डाला की नहीं ? चुनाव शुरू हो गए हैं …इस महायज्ञ में एक दूसरे को उत्साहित करने वाले वाक्य अक्सर सुनाई देते रहेंगे, | सही भी है वोट डालना हमारा हक भी है और कर्तव्य भी | ज्यादातर लोग कर्तव्य समझ कर वोट डालते तो हैं पर किसी पार्टी के प्रति उनमें ख़ास लगाव या उत्साह नहीं रहता | एक उम्र आते -आते हमें नेताओं और उनके वादों पर विश्वास नहीं रह जाता , लेकिन जो पहली बार वोट डालने जाते हैं उनमें खासा उत्साह रहता है |और क्यों न हो दुनिया में हर पहली चीज ख़ास ही होती है , पहली बारिश , पहला साल , पहला स्कूल , पहला प्यार और …. पहली बार वोट डालना भी | नए -नए वोटर  जब आप ये पढ़ रहे होंगे तो जरूर आप को भी वो दिन याद आ गया होगा जब आपने पहली बार वोट डाला होगा और हाथों में नीली स्याही के निशान को दिन में कई बार गर्व से देखा होगा, कितना खास होता है ये अहसास …देश का एक नागरिक होने का अहसास , अपने हक़ का अहसास , कर्तव्य  का अहसास और साथ ही साथ इस बात का गर्व भी कि आप भी अपने सपनों के भारत के निर्माता बनने में योगदान कर सकते हैं | पहली बार वोट डालना उम्र का वो दौर होता है जब यूँ भी जिन्दगी में बहुत परिवर्तन हो रहे होते हैं | अभी कुछ साल पहले तक ही तो  फ्रॉक और बेतरतीब बालों में घूमती  लडकियाँ आइना देखना शुरू करती हैं और लड़के अपनी मूंछो की रेखा पर इतराना ….उस पर ये नयी जिम्मेदारी …बड़ा होना  कितना सुखद लगता है | उनका उत्साह  देखकर मुझे उस समय की याद आ जाती है जब हमारे बड़े भैया को पहली बार वोट डालने जाना था | महीनों पहले से वो हद से ज्यादा उत्साहित थे | क्योंकि हम लोगों की उम्र में अंतर ज्यादा था , ऊपर से उनका बात -बात में चिढाने का स्वाभाव ,अक्सर हम लोगों को चिढ़ाया करते , ” हम इस देश के नागरिक हैं , हम सरकार बदल सकते हैं … और तुम लोग … तुम लोग तो अभी छोटे हो , जो सरकार होगी वो झेलनी ही पड़ेगी | यूँ तो भाई -बहन में नोक -झोंक होती ही रहती है पर इस मामले में तो ये सीधा एक तरफ़ा थी | कभी -कभी तो वो इतना चिढाते कि हम बहनों में बहुत हीन भावना आ जाती , लगता बड़े भैया ही सब कुछ है , क्योंकि वो बड़े हैं , इसलिए घर में भी उन्हीं की चलती है और अब तो देश में भी उन्हीं की चलेगी ….हम लोग तो कुछ हैं ही नहीं | कई बार रोते हुए माँ के पास पहुँचते , और माँ , अपना झगडा खुद ही सुलझाओ कह कर डांट कर भगा देतीं | और हम दोनों बहनें अपनी इज्जत का टोकरा उठा कर मुँह लटकाए हुए वापस भैया द्वारा चिढाये जाने को विवश हो जाते | वोट डालने के दो दिन पहले से तो उनका उत्साह उनके सर चढ़ कर बोलने लगा | नियत दिन सुबह जल्दी उठे , थोडा रुतबा जताने के लिए हम लोगों को भी तकिया खींच -खींच कर उठा दिया | हम अलसाई आँखों से देश के इस महान नागरिक को वोट देने जाते हुए देख रहे थे | भैया नहा – धोकर तैयार हुए , उन्होंने बालों में अच्छा खासा तेल लगाया , आखिरकार देश के संभ्रांत नागरिक की जुल्फे उडनी नहीं चाहिए , हमेशा सेंट से परहेज  करने वाले भैया ने थोडा सा से सेंट  भी लगाया , हम अधिकारविहीन लोग मुँह में रात के खाने की गंध भरे उनके इस रूप  से अभिभूत हो रहे थे |  सुबह से ही वो कई बार घडी देख कर बेचैन हो रहे थे |  एक एक पल बरसों का लग रहा था , शायद इतना इंतज़ार तो किसी प्रेमी ने अपनी प्रेमिका से मिलने का भी न किया हो | वो तो अल सुबह ही निकल जाते पर पिताजी        बार -बार रोक  रहे थे , अरे वोटिंग शुरू तो होने दो तब जाना | घर में  तो पिताजी की ही सरकार थी इसलिए उन्हें मानने की मजबूरी थी  |  फिर भी वो माँ -पिताजी के साथ ना जाकर सबसे पहले ही डालने गए | उस समय सभी पार्टी के कार्यकर्ता अपनी -अपनी टेबल लगा कर पर्ची काट कर देते थे , जिसमें टी एल सी नंबर होता था ताकि लोगों को वोट देने में आसानी हो |  अंदाजा ये लगाया जाता था कि जो जिस पार्टी से पर्ची कटवाएगा वो उसी को वोट देगा …. इसी आधार पर एग्जिट पोल का सर्वे रिपोर्ट आती थी | वो कोंग्रेस का समय था … ज्यादातर लोग उसे को वोट देते थे | भैया को भी वोट तो कोंग्रेस को ही देना था पर अपना दिमाग लगते हुए उन्होंने बीजेपी की टेबल से पर्ची कटवाई | ताकि किसी को पता ना चले कि वो वोट किसको दे रहे हैं | आपका का मत गुप्त रहना चाहिए ना ? उस समय छोटी सी लाइन थी , जल्दी नंबर  आ गया | पर ये क्या ? उनका वोट तो कोई पहले ही डाल गया था | उन्होंने बार -बार चेक करवाया पर वोट तो डल ही चुका था | भैया की मायूसी  देख कर वहां मुहल्ले के एक बुजुर्ग ने सलाह दी , तुम दुखी  ना हो, चलो तुम किसी और के नाम का वोट डाल दो  , मैं बात कर लूँगा | फिर थोडा रुक कर बोले ,” पर्ची तो तुमने बीजेपी से ही कटवाई है पर वोट तुम कोंग्रेस को ही देना … पूरा मुहल्ला दे रहा है |” भैया ने तुरंत मना  कर दिया ,” नहीं , फिर जैसे मैं दुखी हो रहा हूँ कोई और भी दुखी होगा … और क्या पता वो किसी और पार्टी को वोट देना चाहता हो | कोई बात नहीं मैं अगली बार मताधिकार का प्रयोग कर लूँगा पर देश के द्वारा दिए गए इस अधिकार का  दुरप्रयोग  नहीं करूँगा |” वो बुजुर्ग उनकी बात कर हंस कर बोले , ” नए -नए वोटर हो ना … Read more

दहेज़ नहीं बेटी को दीजिये सम्पत्ति में हक

                    हमारी तरफ एक कहावत है , “ विदा करके माता उऋण हुई, सासुरे की मुसीबत क्या जाने” अक्सर माता –पिता को ये लगता है कि हमने लड़के को सम्पत्ति दी और लड़की को दहेज़ न्याय बराबर , पर क्या ये सही न्याय है ?  दूसरी कहावत है भगवान् बिटिया ना दे, दे तो भागशाली दे |” यहाँ भाग्यशाली का अर्थ है , भरी पूरी ससुराल और प्यार करने वाला पति | निश्चित तौर पर ये सुखद है , हम हर बच्ची के लिए यही कामना करते आये हैं करते रहेंगे , पर क्या सिर्फ कामना करने से सब को ऐसा घर मिल जाता है ?   विवाह क्या बेटी के प्रति माता पिता की जिम्मेदारी का अंत हो जाता है | क्या ससुराल में कुटटी -पिटती बेटियों को हर बार ,अब वो घर ही तुम्हारा है की घुट्टी उनके संघर्ष को कम कर देती है ? क्या विवाह के बाद बेटी के लिए मायके से मदद के सब दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाने चाहिए ?  दहेज़ नहीं  बेटी को दीजिये  सम्पत्ति में हक  आंकड़े कहते हैं  घरेलु महिलाओं द्वारा की गयी आत्महत्या , किसानों द्वारा की गयी आत्महत्या के मामलों से चार गुना ज्यादा हैं | फिर भी ये कभी चर्चा का विषय नहीं बनती न ही नियम-कानून  बनाने वाले कभी इस पर खास तवज्जो देते हैं | उनमें से ज्यादातर 15 -39 साल की महिलाएं हैं , जिनमें विवाहित महिलाओं की संख्या 71% है | ये सवाल हम सब को पूछना होगा कि ऐसी स्थिति क्यों बनती है कि महिलाएं मायका होते हुए भी इतनी असहाय क्यों हो जाती हैं कि विपरीत परिस्थितियों में मृत्यु को गले लगाना ( या घुट –घुट कर जीना ) बेहतर समझती हैं ? बेटियों को दें शिक्षा    मेरे ख्याल से बेटियों को कई स्तरों पर मजबूत करना होगा | पहला उनको शिक्षित करें , ताकि वो अपने पैरों पर खड़ी हो सकें | इस लेख को पढने वाले तुरंत कह सकते हैं अरे अब तो हर लड़की को पढ़ाया जाता है | लेकिन ऐसा कहने वाले दिल्ली , मुंबई , कानपुर , कलकत्ता आदि बड़े शहरों के लोग होंगे | MHRD की रिपोर्ट के मुताबिक़ हमारे देश में केवल ३३ % लडकियां ही 12th का मुँह देख पाती हैं | दिल्ली जैसे शहर में किसी पब्लिक स्कूल में देखे तो ग्यारहवीं में लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना नें एक तिहाई ही रह जाती है | गाँवों की सच्चाई तो ये हैं कि 100 में से एक लड़की ही बारहवीं का मुँह देख पाती है | इसकी वजह है कि माता -पिता सोचते हैं कि लड़कियों को पहले पढ़ने में खर्च करो फिर दहेज़ में खर्च करो इससे अच्छा है जल्दी शादी कर के ससुराल भेज दो , आखिर करनी तो शादी ही है , कौन सी नौकरी करानी है ? अगर नौकरी करेगी भी तो कौन सा पैसा हमें मिलेगा ? ये दोनों ही सोच बहुत खतरनाक हैं क्योंकि अगर बेटी की ससुराल व् पति इस लायक नहीं हुआ कि उनसे निभाया जा सके तो वो उसे छोड़कर अकेले रहने का फैसला भी नहीं ले पाएंगी | एक अशिक्षित लड़की अपना और बच्चों का खर्च नहीं उठा पाएगी, मजबूरन या तो उस घुटन भरे माहौल में सिसक -सिसक कर रहेगी या इस दुनिया के पार चले जाने का निर्णय लेगी |  बेटी में विकसित करें आत्मसम्मान की भावना   घर में भाई –बहनों में भेद न हो , क्योंकि ये छोटे –बड़े भेद एक बच्ची के मन में शुरू से ही ये भावना भरने लगते हैं कि वो कमतर है | कितने घर है जहाँ आज भी बेटे को प्राइवेट व् बेटी को सरकारी स्कूल में दाखिला करवाया जाता है , बेटे को दूध बादाम दिया जाता है , बेटियों को नहीं | कई जगह मैंने ये हास्यास्पद तर्क सुना कि इससे बेटियाँ जल्दी बड़ी हो जाती हैं , क्या बेटे जल्दी बड़े नहीं हो जाते ? कई बार आम मध्यम वर्गीय घरों में बेटे की इच्छाएं पूरी करने के लिए बेटियों की आवश्यकताएं मार दी जाती हैं | धीरे -धीरे बच्ची के मन में ये भाव आने लगता है कि वो कुछ कम है |  जिसके अंदर कमतर का भाव आ गया उसको दबाना आसान है ,मायके में शुरू हुआ ये सिलसिला ससुराल में गंभीर शोषण का रूप ले लेता है तो भी लड़की सहती रहती है क्योंकि उसे लगता है वो तो सहने के लिए ही जन्मी है |  पूरे समाज को तो हम नहीं  बदल सकते पर कम से कम अपने घर में तो ऐसा कर सकते हैं | बेटी को दें सम्पत्ति में हिस्सा   जहाँ तक सम्पत्ति की बात है तो मेरे विचार से को सम्पत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए , उसके लिए ये भी जरूरी है कि दहेज़ ना दिया जाए | ऐसा मैं उन शिक्षित लड़कियों को भी ध्यान में रख कर कह रही हूँ जो कल को अपने व् बच्चों के जीविकोपार्जन कर सकती हैं | कारण ये है कि जब कोई लड़की लम्बे समय तक शोषण का शिकार  रही होती है , तो पति का घर छोड़ देने के बाद भी उस भय  से निकलने में उसे समय लगता है , हिम्मत इतनी टूटी हुई होती है कि उसे लगता है वो नहीं कर पाएगी … इसी डर के कारण वो अत्याचार सहती रहती है |  जहाँ तक दहेज़ की बात है तो अक्सर माता –पिता को ये लगता है कि हमने लड़के को सम्पत्ति दी और लड़की को दहेज़ न्याय बराबर , पर क्या ये सही न्याय है ? जब कोई लड़की अधिकांशत : घरों में जो दहेज़ लड़की को दिया जाता है उसमें उसे कुछ मिलता नहीं है | माता –पिता जो दहेज़ देते हैं उसमें 60: 40 का अनुपात होता है यानि तय रकम में से 60% रकम ( सामान , साड़ी , कपड़ा , जेवर केरूप में ) लड़की के ससुराल जायेगी और 40 % विवाह समारोह में खर्च होगी | सवाल ये है कि जो पैसे विवाह समारोह में खर्च हुए उनमें लड़की को क्या मिला ? यही पैसे जब माता –पिता अपने लड़के की शादी के रिसेप्शन … Read more

गुझिया -अपनेपन की मिठास व् परंपरा का संगम

फोटो क्रेडिट –www.shutterstock.com रंगों के त्यौहार होली से रंगों के बाद जो चीज सबसे ज्यादा जुडी है , वो है गुझिया | बच्चों को जितना इंतज़ार रंगों से खेलने का रहता है उतना ही गुझिया का भी | एक समय था जब होली की तैयारी कई दिनों पहले से शुरू हो जाती थी | आलू के चिप्स , साबूदाने व् आलू , चावल के पापड़ , बरी आदि  महीने भर पहले से बनाना और धूप  में सुखाना शुरू हो जाता था | हर घर की छत , आँगन , बरामदे में में पन्नी पर पापड़ चिप्स सूखते और उनकी निगरानी करते बच्चे नज़र आते | तभी से बच्चों में कहाँ किसको कैसे रंग डालना है कि योजनायें बनने लगतीं | गुझिया -अपनेपन की मिठास व् परंपरा का संगम  संयुक्त परिवार थे , महिलाए आपस में बतियाते हुए ये सब काम कर लेती थीं , तब इन्हें करते हुए बोरियत का अहसास नहीं होता था | हाँ ! गुझिया जरूर होलाष्टक लगने केर बाद ही बनती थी | पहली बार गुझिया बनने को समय गांठने का नाम दिया जाता | कई महिलाएं इकट्ठी हो जाती फाग गाते हुए कोई लोई काटती , कोई बेलती , कोई भरती  और कोई सेंकती, पूरे दिन का भारी काम एक उत्सव की तरह निपट जाता | तब गुझियाँ भी बहुत ज्यादा  संख्या में बनती थीं ….घर के खाने के लिए , मेह्मानों के लिए और बांटने के लिए | फ़ालतू बची मैदा से शक्कर पारे नामक पारे और चन्द्र कला आदि बन जाती | इस सामूहिक गुझिया निर्माण में केवल घर की औरतें ही नहीं पड़ोस की भी औरतें शामिल होतीं , वादा ये होता कि आज हम आपके घर सहयोग को आयें हैं और कल आप आइयेगा , और देखते ही देखते मुहल्ले भर में हजारों गुझियाँ तैयार हो जातीं | बच्चों की मौज रहती , त्यौहार पर कोई रोकने वाला नहीं , खायी गयी गुझियाओं की कोई गिनती नहीं , बड़े लोग भी आज की तरह कैलोरी गिन कर गुझिया नहीं खाते थे | रंग खेलने आये होली के रेले के लिए हर घर से गुझियों के थाल के थाल निकलते … ना खाने में कंजूसी ना खिलाने में | हालांकि बड़े शहरों में अब वो पहले सा अपनापन नहीं रहा | संयुक्त परिवार एकल परिवारों में बदल गए | अब सबको अपनी –अपनी रसोई में अकेले –अकेले गुझिया बनानी पड़ती है | एक उत्सव  की उमंग एक काम में बदलने लगी | गुझिया की संख्या भी कम  होने लगी, अब ना तो उतने बड़े परिवार हैं ना ही कोई उस तरह से बिना गिने गुझिया खाने वाले लोग ही हैं , अब तो बहुत कहने पर ही लोग गुझिया की प्लेट की तरफ हाथ बढ़ाते हैं , वो भी ये कहने पर ले लीजिये , ले लीजिये खोया घर पर ही बनाया है,सवाल सेहत का है, जितनी मिलावट रिश्तों में हुई है उतनी ही खोये में भी हो गयी हैं  …  फिर भी शुक्र  है कि गुझिया अभी भी पूरी शान से अपने को बचाए हुए हैं | इसका कारण इसका परंपरा से जुड़ा  होना है |  यूँ तो मिठाई की दुकानों पर अब होली के आस -पास से ही गुझिया बिकनी शुरू हो जाती है … जिनको गिफ्ट में देनी है या घर में ज्यादा खाने वाले हैं वहां लोग खरीदते भी हैं , फिर भी शगुन के नाम पर ही सही गुझिया अभी भी घरों में बनायीं जा रही है … ये अभी भी परंपरा  और अपनेपन मिठास को सहेजे हुए हैं | लेकिन जिस तेजी से नयी पीढ़ी में देशी त्योहारों को विदेशी तरीके से मनाने का प्रचलन बढ़ रहा है …उसने घरों में रिश्तों की मिठास सहेजती गुझिया  पर भी संकट खड़ा कर दिया है | अंकल चिप्स , कुरकुरे आदि आदि … घर के बने आलू के पापड और चिप्स को पहले ही चट कर चुके हैं, अब ये सब घर –घर में ना बनते दिखाई देते हैं ना सूखते फिर भी गनीमत है कि अभी कैडबरी की चॉकलेटी गुझिया इस पोस्ट के लिखे जाने तक प्रचलन में नहीं आई है ) , वर्ना दीपावली , रक्षाबंधन और द्युज पर मिठाई की जगह कैडबरी का गिफ्ट पैक देना  ही आजकल प्रचलन में है |  परिवर्तन समय की मांग है … पर परिवर्तन जड़ों में नहीं तनों व् शाखों में होना चाहिए …ताकि वो अपनेपन की मिठास कायम रहे | आइये सहेजे इस मिठास को … होली की हार्दिक शुभकामनायें  वंदना बाजपेयी  होली और समाजवादी कवि सम्मलेन होली के रंग कविताओं के संग फिर से रंग लो जीवन फागुन है होली की ठिठोली आपको “गुझिया -अपनेपन की मिठास व् परंपरा का संगम  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords- happy holi , holi, holi festival, color, festival of colors, gujhiya

ग्वालियर : एक यात्रा अपनेपन की तलाश में

जिस शहर में क़रीब 50 साल पहले नव वधु के रूप में आई थी  उसी शहर में हम कुछ दिन पहले,परिवार ही नहीं कुटुम्ब के साथ पर्यटक की तरह गये थे। मैं ग्वालियर का जिक्र कर रही हूँ। मेरे पति उनके भाई बहन इसी शहर में पले बढ़े हैं। मेरी बेटी का जन्म स्थान भी ग्वालियर ही है। 1992 तक यहाँ हमारा मकान था, जो बेच दिया था अब उस जगहकपड़ों का होल सेल स्टोर बन चुका है,पर वो गलियाँ सड़कें बदलने के बाद भी बहुत सी यादें ताज़ा कर गई। पुराने पड़ौसी और यहाँ तक कि घर मे काम करने वाली सहायिकाओं की अगली पीढ़ी भी मिली।छोटे शहरों की ये संस्कृति हम दिल्ली वालों के लिये अनमोल है। ग्वालियर यात्रा संस्मरण जब यहाँ घर था तब कभी पर्यटन के लिये नहीं निकले या ये कहें कि उस समय पर्यटन का रिवाज ही नहीं था। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने शहर की जगहों के नाम इतने सुने होते हैं कि लगता है यहाँ पर्यटन के लायक कुछ है ही नहीं!तीसरी बात कि पिछले तीस दशकों में यातायात और पर्यटन की सुविधाओं काबहुत विकास हुआ है जो पहले नहीं था। हमारे वृहद परिवार से तीन परिवारों ने पर्यटन पर, तथा पुरानी यादें ताज़ा करने के लिये ग्वालियर जाने का कार्यक्रम बनाया, चौथा परिवार रायपुर से वहाँ पहुँचा हुआ था। एक परिवार की तीन पीढ़ियाँ और बाकी परिवारों की दो पीढ़ियों का कुटुंब(15 व्यक्ति) अपने शहर पहुँचकर काफ़ी नॉस्टैलजिक महसूस कर रहे थे। हम दिल्ली से ट्रेन से गये थे, शताब्दी से साढ़े तीन घंटे का सफ़र मालूम ही नहीं पड़ा। आजकल होटल, टैक्सी सब इंटरनैट पर ही बुक हो जाते हैं तो यात्रा करना सुविधाजनक हो गया है परन्तु हर जगह भीड़ बढ़ने से कुछ असुविधाये भी होती हैं। होटल में कुछ देर विश्राम करने के बाद हम जयविलास  महल देखने गये। जयविलास महल शहर के बीच ही स्थित है।ये उन्नीसवीं सदी में सिंधिया परिवार द्वारा बनवाया गया था और आज तक इस महल का एक हिस्सा उनके वंशजों का निजी निवास स्थान है। महल के बाकी हिस्से को संग्रहालय बना कर जनता के लिये खोल दिया गया है।मुख्य सड़क से महल के द्वार तक पहुँचने के मार्ग के दोनों ओर सुन्दर रूप से तराशा हुआ बग़ीचा है जिसमें खिली बोगनवेलिया की पुष्पित लतायें मन मोह लेती हैं।महल के बीच के उद्यान भी सुंदर हैं। संग्राहलय की भूतल और पहली मंजिल पर सिंधिया राज घराने के वैभव के दर्शन होते हैं। भाँति भाँति की पालकियाँ और रथ राजघराने के यातायात के साधन मौजूद थे।साथ ही कई बग्घियों के बीच एक छोटी सी तिपहिया कार भी थी। महल में राजघराने के पूर्वजों के चित्रों को उनके पूरे परिचय के साथ दिखाया गया है। राजघराने में अनेकों सोफ़ासैट और डाइनिंग टेबल देखकर  मुझे उत्सुकता हो रही थी कि एक समय में वहाँ कितने लोग रहते होंगे !नीचे बैठकर खाने का प्रबंध भी था। किसी विशेष अवसर पर दावत के लिये बड़े बड़े डाइनिंग हॉल भी देखे जहाँ एक ही मेज़ पर मेरे अनुमान से सौ ड़ेढ़ सौ लोग बैठकर भोजन कर सकते हैं।यहाँ की सबसे बडी विशेषता मेज़ पर बिछी रेल की पटरियाँ है।इन रेल की पटरियों पर एक छोटी सी रेलगाड़ी खाद्य सामग्री लेकर चक्कर काटती थी। ये रेलगाड़ी एक काँच के बक्से में वहाँ रखी है। एक वीडियो वहाँ चलता रहता है जिसमें ये ट्रेन चलती हुई दिखाई गई है। एक दरबार हाल में विश्व प्रसिद्ध शैंडेलियर का जोड़ा है, जिनका वज़न साढ़ तीन तीन टन है और एक एक में ढ़ाई सौ चिराग जलाये जा सकते हैं।संभवतः यह विश्व का सबसे बड़ा शैंडेलियर है। इस दरबार हाल की दीवारों पर लाल और सुनहरी सुंदर कारीगरी की गई है। दरवाज़ो पर भारी भारी लाल सुनहरी पर्दे शोभायमान हैं।जय विलास महल सुंदर व साफ़ सुथरा संग्रहालय है, यह योरोप की विभिन्न वास्तुकला शलियों में निर्मित महल है। यहाँ पर्यटकों के लिये लॉकर के अलावा कोई  विशेष सुविधा नहीं है।तीन मंजिल के संग्रहालय में व्हीलचेयर किराये पर उपलब्ध हैं परंतु न कहीं रैम्प बनाये गये हैं न लिफ्ट है जिससे बुज़ुर्गों और दिव्यांगों को असुविधा होती है। जन–सुविधाओं का अभाव है। पर्यटकों के लिये प्राँगण में एक कैफ़िटेरिया की कमी भी महसूस हुई। यदि हर चीज़ को बहुत ध्यान से देखा जाये तो यहाँ पूरा दिन बिताया जा सकता है। हमारे साथ बुज़ुर्ग और बच्चे भी थे तो क़रीब तीन घंटे का समय लगा और कुछ हिस्सा देखने से रह भी गया।यहाँ घूमकर सब थक चुके थे, सफ़र की भी थकान थी और भूख भी लगी थी। दोपहर का भोजन करने के बाद हम महाराज बाड़ा या जिसे सिर्फ़ बाड़ा कहा जाता है,  वहाँ गये। यह स्थान शहर के बीच में है, जहाँ पहले भी  जब यहाँ घर था हम कई बार जाते रहे थे। यह ख़रीदारी का मुख्य केंद्र लगता था। घर के पीछे की गलियों से होते हुए यहाँ पैदल पहुँच जाते थे। अब यह बहुत बदला हुआ लगा। पहले दुकानों के अलावा कहीं ध्यान नहीं जाता था। अब बाड़े पर पक्की दुकाने नहीं है पर पटरी बाज़ार जम के लगा हुआ  है।अब चारों तरफ़ की इमारतें और बीच का उद्यान ध्यान खींचते है। उद्यान के बीच में सिंधिया वंश के किसी राजा की मूर्ति भी है।  बाड़े पर रीगल टॉकीज़ में कभी बहुत फिल्में देखी थी पर फिल्मी पोस्टरों के पीछे छिपी इमारत की सुंदर वास्तुकला कभी दिखी ही नहीं थी। विक्टोरिया मार्केट कुछ समय पहले जल गया था जिस पर काम चल रहा हैं। पोस्ट ऑफ़िस की इमारत और टाउनहॉल ब्रिटिश समय की योरोपीय शैली की सुंदर इमारतें हैं। बाजार अब इन इमारतों के पीछे की गलियों और सड़केों में सिमट गये हैं।बाड़े से पटरी बाज़ार को भी हटा दिया जाना चाहिये क्योंकि ट्रैफ़िक बहुत है।पास में ही सिंधिया परिवार की कुलदेवी का मंदिर है। हमें बताया गया कि महल से दशहरे पर तथा परिवार में किसी विवाह के बाद यहाँ सिंधिया परिवार अपने पूरे राजसी ठाठ बाट मे जलूस लेकर कुलदेवी के मंदिर तक आता था और पूरे रास्ते में प्रजा इस जलूस को देखती थी। इस मंदिर का रखरखाव तो अब बहुत ख़राब हो गया है।पार्किग भी यहीं पर है। इस जगह को गोरखी कहते हैं यहाँ के स्कूल मे मेरे पति और देवर की प्राथमिक पाठशाला थी। बहनों का स्कूल भी पास में था। यहाँ जिस स्थान पर पार्किंग है वहाँ ये लोग क्रिकेट खेला करते … Read more

सर्फ एक्सेल होली का विज्ञापन – एक पड़ताल

फोटो क्रेडिट -thelallantop.com सर्फ एक्सेल वर्षों से जो विज्ञापन बना रही है उसका मुख्य बिंदु रहता है “दाग अच्छे है | ” ये विज्ञापन खासे लोकप्रिय भी होते हैं | लेकिन इसी कंपनी के हाल ही में जारी किये गए  होली के विज्ञापन का बहुत विरोध हो रहा है | कहीं इसे परंपरा पर प्रहार माना जा रहा है तो कहीं लव जिहाद से जोड़ कर देखा जा रहा है |प्रस्तुत है इसी विषय पर एक पड़ताल  सर्फ एक्सेल होली का विज्ञापन – एक पड़ताल   मोटे तौर पर देखा जाए तो कम्पनियां व्यावसायिक  उद्देश्य के लिए विज्ञापन बनाती है , ना उन्हें धर्मिक सौहार्द से कोई लेना देना होता है न इसके बनने –बिगड़ने के राजनैतिक फायदे से,इस नाते इसे संदेह का लाभ दे भी दिया जाए , तो  भी ये विज्ञापन अति रचनात्मकता का मारा हुआ होने के कारण कठघरे में खड़ा हुआ है | इसे देखकर  लोगों को सद्भावना की जगह ये संदेश  समझ में आ रहा है कि एक हिन्दू त्यौहार दूसरे धर्मावलम्बियों की राह में मुश्किल खड़ी कर रहा है | अगर लोग ऐसा संदेश समझ रहे हैं तो उन्हें पूरी तरह गलत भी नहीं कहा जा सकता |  होली से मिलते-जुलते बहुत से त्यौहार हैं जहाँ लोग रंग के स्थान पर पानी , टमाटर , तरबूज के छिलके में पैर डालकर आनंद लेते हैं ,कई देखों में होली की ही तर्ज पर नए त्यौहार चलन में आये हैं,  जाहिर है वहाँ भी आम जीवन बाधित होता है , फिर भी परंपरा  के नाम पर मनाये जा रहे हैं | हमारे देश में बहुत से धर्मों और पर्वों को मानने वाले लोग हैं और सब आपस में सामंजस्य बना कर चलते हैं , एक दूसरे के लिए थोड़ी दिक्कतें सह कर भी ख़ुशी और दुःख , रीति –रिवाज , त्योहारों में शरीक होते हैं | कौन है जो कह सकता है कि उसके मुहल्ले में होली गुझियों और ईद की सिवइयों का आस –पड़ोस में आदान –प्रदान नहीं होता |ऐसे सभी मौकों पर हम एक होना बखूबी जानते हैं | जहां  तक इस विज्ञापन की बात है जिसमें दिखाया गया है कि एक बच्ची अपने सभी दोस्तों के रंग तब तक अपने ऊपर झेलती है जब तक उन के सारे रंग खत्म ना हो जाएँ ताकि वो साफ़ कपड़ों में अपने दोस्त को मस्जिद तक छोड़ सके और उसके बाद उसके साथ रंग खेले |साथी तौर पर भले ही कुछ गलत ना दिखे पर लेकिन जरा ध्यान देने पर समझ आएगा कि इसमें बहुत सारी सारी  खामियाँ हैं जिस कारण इसका विरोध हो रहा है | विरोध का लव जिहाद का एंगल तो मुझे उचित नहीं लगा क्योंकि बच्चे बहुत छोटे व मासूम  उम्र के हैं, इसे इस तरीके से नहीं देखा जा सकता | पर जैसा की मैंने पहले कहा अति रचनात्मकता का मारा,  तो हम सब जानते हैं कि आम तौर पर इतने छोटे बच्चे धर्म के आधार पर त्यौहार मनाने में भेद –भाव नहीं करते , ना ही उन्हें धर्म के प्रति नियम की इतनी समझ होती है | क्या आप और हम दस बार खेलते हुए बच्चों को नहीं बुलाते कि आओ और आ कर प्रशाद ले जाओ, तब भी वो बस एक मिनट मम्मी की गुहार लगाते रहते हैं | हमारी साझी संस्कृति की यही तो खासियत है कि जब मुहल्ले के बच्चे होली , दिवाली और ईद साथ –साथ मनाते हैं तो भेद महसूस ही नहीं होता कि कौन हिन्दू , मुस्लिम या इसाई है | जबकि  ये विज्ञापन बच्चों की ये कुदरती मासूमियत का प्रभाव दिखाने के स्थान पर बच्चों के अंदर हम अलग, तुम अलग की बड़ों वाली सोच प्रदर्शित कर रहा है, इस कारण सद्भावना दिखाने में विफल है (जैसा की विज्ञापन के समर्थक कह रहे हैं) वैसे भी हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने बावजूद भी होली कोई धार्मिक  त्यौहार नहीं है, इसलिए धर्म का एंगल लाना उचित प्रतीत नहीं होता |हम बच्चों को एक दूसरे के धर्म की इज्ज़त सिखाते हैं और ये भी सिखाते हैं कि जिस समय दूसरे धर्म का कोई त्यौहार मन रहा हो , लोग उल्लास में हो तो उनसे जुडो … अलग होने के अहसास के साथ नहीं |  मसला होली का हो ,ईद का,  क्रिसमस का या किसी अन्य धर्म के त्यौहार का … हम अलग , तुम अलग की छवियाँ प्रस्तुत करते विज्ञापन  आम लोगों में लोकप्रिय नहीं हो सकते …  ये अलग बात हो सकती है कि हमेशा लोकप्रिय विज्ञपन देने वाली कम्पनी विरोध करवा कर अपना प्रचार करना चाहती हो | जो लोग विज्ञापन के मनोविज्ञान की पकड़ रखते हैं वो ये बात जानते होंगे | विज्ञापन में बहुत सारी तकनीकी खामी हैं | ऐसा मैं इस लिए कह रही हूँ क्योंकि कम्पनी को होली के त्यौहार की समझ ही नहीं है …जरा गौर करिए – 1) होली पर रंग कभी खत्म होने जैसे बात नहीं होती हैं , क्योंकि रंग सस्ते होते हैं और अगर खत्म हो भी जाएँ तो बच्चे पानी से , मिटटी से , कीचड़ से होली खेलते हैं | 2) जो बच्ची अपनी साइकिल से बच्चे को ले जा रही है वो इतना रंगी हुई है उसके बावजूद  छोटा बच्चा उसके कंधे पकड़ता है और उस पर रंग नहीं  लगते | 3) बिना सीट की साइकिल पर खड़े हुए लगभग अपने उम्र के बच्चे को ले जाते समय  पानी और रंगों से तर सड़क पर बच्ची की साइकिल नहीं फिसलती या रंग के छींटे  बच्चों के कपड़ों पर नहीं लगते |  4) सबसे अहम् बात जिससे पता चलता है कि कम्पनी को होली के त्यौहार की ज्यादा जानकारी ही नहीं है …. क्योंकि होली के कपड़े दाग छुड़ाने के लिए धोये ही नहीं जाते | होली के दिन पहनने के लिए खास तौर पर पुराने कपडे रखे जाते हैं | अगर कोई गरीब व्यक्ति उन्हें धो कर दुबारा मजबूरीवश पहनता भी है तो बी उसकी हैसियत इतनी नहीं होती कि वो सर्फ एक्सेल से धो सके | 5) होली किसी को पसंद हो या न हो इस पर बात हो सकती है , लम्बे लेख लिखे जा सकते हैं पर होली के साथ जुड़ा नारा ” बुरा न मानों होली है ” … Read more

महिला सशक्तिकरण : नव संदर्भ एवं चुनौतियां

आठ मार्च यानि महिला दिवस , एक दिन महिलाओं के नाम ….क्यों? शायद इसलिए कि बरसों से उन्हें हाशिये पर धकेला गया, घर के अंदर खाने -पीने के, पहनने-ओढने और  शिक्षा के मामले में उनके साथ भेदभाव होता रहा | ब्याह दी गयी लड़कियों की समस्याओं से उन्हें अकेले जूझना होता था, और ससुराल में वो पाराया खून ही बनी रहती | शायद इसलिए महिला दिवस की जरूरत पड़ी | आज महिलाएं जाग चुकी हैं …पर अभी ये शुरुआत है अभी बहुत लम्बा सफ़र तय करना है | इसके लिए जरूरत है एक महिला दूसरी महिला की शक्ति बने | आज महिला दिवस पर प्रस्तुत है शिवानी जयपुर जी का एक विचारणीय लेख ……..  महिला सशक्तिकरण : नव संदर्भ एवं चुनौतियां सशक्तिकरण, इस शब्द में ये अर्थ निहित है कि महिलाएं अशक्त हैं और उन्हें अब शक्तिशाली बनाना है । ऐसे में एक सवाल हमारे सामने पैदा होता है कि महिलाएं अशक्त क्यों है? क्या हम शारीरिक रूप से अशक्त होने की बात कर रहे हैं? या हम बौद्धिक स्तर की बात कर रहे हैं? या फिर हम जीवन के हर क्षेत्र में उनके अशक्त होने की बात कर रहे हैं फिर चाहे वो शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन और सामाजिक स्थिति का मुद्दा ही क्यो न हो! मेरा जहां तक मत है ,मुझे लगता है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था महिलाओं के अधिकतर क्षेत्रों कमतर या पिछड़ी होने के लिए जिम्मेदार है। उनका पालन पोषण एक दोयम दर्जे के इंसान के रूप में किया जाता है। जिसके सिर पर जिम्मेदारियों का बोझ है। घर चलाने की जिम्मेदारी, घर की व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी, बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी, घर में रहने वाले बड़े बुजुर्गों की देखभाल की जिम्मेदारी, और कहीं कहीं तो आर्थिक तंगी होने की स्थिति में पति का हाथ उस क्षेत्र में भी बंटाने की अनकही जिम्मेदारी उनके कंधों पर होती है। हालांकि आज इस स्थिति में थोड़ा सा परिवर्तन आया है। बेटियों के पालन पोषण पर भी ध्यान दिया जा रहा है और जो हमारी वयस्क  महिलाएं हैं उनके अंदर एक बड़ा परिवर्तन आया है। ये जो बदलाव का समय था पिछले 20-25 सालों में वह हमारी उम्र की जो मांएं हैं, जिनके बच्चे इस समय 18-20 या 25 साल के लगभग हैं मैंने जो खास परिवर्तन देखा है उनके पालन पोषण में देखा है और महसूस किया है। और मजे की बात यह है कि इन्हीं सालों में महिला सशक्तिकरण और महिला दिवस मनाने का चलन बहुत ज्यादा बढ़ गया है। तो एक सीधा सा सवाल हमारे मन में आता है कि ये जो बदलाव आया है, जागरूकता आई है वो इन सशक्तिकरण अभियान और महिला दिवस मनाने से आई है या कि जागरूकता आने के कारण सशक्तिकरण का विचार आया? ये एक जटिल सवाल है। दरअसल दोनों ही बातें एक दूसरे से इस कदर जुड़ी हुई हैं कि हम इसे अलग कर के नहीं देख सकते। ये एक परस्पर निर्भर चक्र है। जागरूकता है तो प्रयास हैं और प्रयास हैं तो जागरूकता है। पर फिर भी परिणाम संतोषजनक नहीं हैं। पढ़ें – बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू  जब तक महिला सशक्तिकरण को व्यक्तिगत रूप से देखा जाएगा तब तक वांछित परिणाम आ भी नहीं सकते। जिन परिवारों में महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर है, वो आर्थिक रूप से, सामाजिक रूप से और वैचारिक रूप से आत्मनिर्भर हैं उनका परम कर्त्तव्य हो कि अपने पूरे जीवन में वे कम से कम पांच अन्य महिलाओं के लिए भी इस दिशा में कुछ काम करें। कहीं कहीं सशक्तिकरण का आशय स्वतंत्रता समझा गया है और स्वतंत्रता का आशय पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश या उनके द्वारा किए जाने वाले काम करने से लिया गया जो कि सर्वथा गलत है और भटकाव ही सिद्ध हुआ। महिला सशक्ति तब है जब वो अपनी योग्यता और क्षमता और इच्छा के अनुसार पढ़ सके, धनोपार्जन कर सके। परिवार में सभी, सभी यानि कि पुरुष सदस्य भी उसके साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों को वहन करें। महिला सशक्त तब है जब उसके साथ परिवार का प्रेम और सुरक्षा भी हो। किसी भी प्रकार के सशक्तिकरण के लिए पुरुष विरोधी होना आवश्यक नहीं है। पर इसके लिए पुरुषों की मानसिकता में बदलाव लाना बेहद आवश्यक है। घर की बड़ी बूढ़ी महिलाएं ही इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। यानि घूम फिर कर गेंद महिलाओं के पाले में ही आ गिरती है।  महिलाओं के सशक्तिकरण की राह में हमारे अंधविश्वास, रूढ़ियां, सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता ही सबसे बड़ी बाधा है और इन सबका पीढ़ी दर पीढ़ी पालन और हस्तांतरण भी महिलाओं द्वारा किया जाता है। अगर महिलाएं इनमें कुछ बदलाव करके इसे अगली पीढ़ी को सौंपती हैं तो धीरे धीरे बदलाव आता जाता है। इसमें सबसे बड़ी बाधा है ILK यानि ‘लोग क्या कहेंगे’? पर सच बात तो आज यही है कि लोग तो इंतज़ार कर रहे होते हैं कि कोई कुछ नया बेहतर करे, परंपरा तोड़े तो सबके लिए रास्ता खुले! बस इसी हिम्मत और पहल की आवश्यकता है।  पढ़ें –#Metoo से डरें नहीं साथ दें  मैं यहां एक उदाहरण देना चाहूंगी । एक महिला हैं। उम्र है कोई साठ साल। जे एल एफ में जाती थीं। वहीं से पढ़ने लिखने का शौक हुआ। अपने शहर के एक बड़े व्यापारिक घराने से हैं। अभी हाल ही में उन्होंने कविता लिखना शुरू किया है। परिवार ने हंसी उड़ाई। फिर भी वो लिखती रहीं। फिर उन्होंने अपनी पुस्तक छपवानी चाही। पति को बहुत मुश्किल से मनाया। उन्होंने कहा जितना खर्च हो देंगे पर किसी को पता न चले कि तुमने कोई किताब लिखी है। किताब छपकर आ चुकी है पर उसका विधिवत विमोचन नहीं हो पाया है! क्योंकि परिवार नहीं चाहता। मुझे उनकी बेटियों और बहुओं से पूछना है कि एक स्त्री होकर अगर आप दूसरी स्त्री के लिए, जो कि आपकी मां है, इतना भी नहीं कर सकते तो आप भी कहां सशक्त हैं? आप अपनी कुंठाओं से,डर से जब तक बाहर नहीं आते आप कमज़ोर ही हैं। आज भी किसी सफल महिला को देखकर लोगों को ये कहते सुना जा सकता है कि पति ने बहुत साथ दिया इसलिए यहां तक पहुंची है। पर स्थिति ये भी हो सकती है कि अगर पति ने सचमुच … Read more

पुलवामा हमला – शर्मनाक है सोशल मीडिया का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार

पुलवामा हमले से हर भारतीय आहत हुआ है लेकिन पुलवामा  हमले , एयर स्ट्राइक और पाकिस्तान के कब्जे में लिए गए हमारे वीर विंग कमांडर अभिनंदन का वापस देश लौटना …ये सब ऐसी घटनाएं  थी , जिन्होंने हर भारतीय  की बेचैनी को बढ़ा दिया था | ऐसे समय में जब पूरे देश कोएक जुट होकर एक स्वर में बोलना चाहिए था , तब सोशल मीडिया पर दो पक्ष उभर आये जो देश के साथ नहीं अपनी -अपनी पार्टी के हितों के साथ खड़े थे | भाषा शालीनता की सीमा पार कर अभद्रता और जूतम -पैजार पर उतर आई | किसी भी देश के प्रबुद्ध नागरिकों से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती , ऐसे समय में सोशल मीडिया के इस  गैरजिम्मेदाराना व्यवहार को  नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता | प्रस्तुत  है इसी मुद्दे पर वरिष्ठ लेखिका बीनू भटनागर जी का लेख … पुलवामा हमला – शर्मनाक है सोशल मीडिया का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार  फरवरी का महीना बड़े उतार चढ़ाव वाला रहा। दुख, त्रासदी,आक्रोश दोषारोपण के साथ देश में देश भक्ति और संवेदनशीलता की पर अजीब सी बहस चल रही थी। जो एकता दिखनी चाहिये थी वह नहीं दिखी। जब हम अपने परिवार के भीतर किसी बात को लेकर लड़ रहे होते है, परिवार के मुखिया से भी बहस कर लेते हैं पर बाहर से आकर कोई बुला भरा कहे तो पूरा परिवार आपसी मतभेद भुला कर एक हो जाता है। भारत में ऐसा नहीं हुआ यहाँ मोदी भक्त भक्ति करते रहे और विरोधी विरोध करते रहे यहाँ तक कि उन्होंने सारे मुसीबत की जड़ ही प्रधानमंत्री को बता दिया। इस घटनाक्रम को ही राजनीतिक साज़िश करार कर दिया गया ,इससे देश की छवि को ही नुकसान पहुँचा। आखिर जनता ने ही बीजेपी को और मोदी जी को सत्ता सौंपी थी। यदि आप उनसे असंतुष्ट हैं तो हमारा संविधान आपको अपनी बात कहने की इजाजत देताहै, लेकिन जब बाहरी शक्तियाँ देश के लिये ख़तरा हों तो सबको देश की सरकार के साथ होना चाहिये था।  14 फरवरी कोजब पुलवामा में सी. आर.पीएफ़ की बस पर हमले में जवान शहीद हुए तो टीवी पर वही कॉग्रेस बीजेपी की तनातनी चल रही थी। कुछ समय बाद ये तनातनी ख़त्म हो गई विपक्ष संयत हो गया मगर सोशल मीडिया अति सक्रिय हो उठा।जब पुलवामाकी ख़बर आई तो मोदी जी कहीं शूटिंग कर रहे थे, कोई वीडियो बन रहा था इसबात को बहुत उछाला गया और कहा गया कि मोदी संवेदनहीन व्यक्ति हैं। उनकी तरफ़ से ख़बर आई थी कि प्रधान मंत्री को सूचना देने में देर हो गई इस पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ। इस घटना का समाचार देर से मिला या नहीं इस बात पर बहस करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि हर स्थिति से निपटने के सबके तरीक़े अलग होते हैं। कोई दुख में डूब कर अवसाद ग्रस्त हो जाता है कोई शांत रहकर सब काम यथावत करता है वहThe show must go on में विश्वास रखता है। यही मोदी जी कर रहे थे। अपनी पद और गरिमा के अनुकूल निर्णय ले रहे थे और पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमों में बिना परिवर्तन किये चुनावी रैलियाँ कर रहे थे। व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि ये चुनावी रैलियाँ उन्हेरद्ध कर देनी चाहिये थीं , इसलिये नहीं कि ऐसा करना ग़लत था बल्कि इसलिये क्योंकि जनता उन्हें संवेदन हीन समझ रही थी, उनकी छवि को नुकसान हो रहा था। चुनाव में भी इन रैलियों की वजह से कोई फ़ायदा नहीं मिलने वाला था, कुछ नुकसान ही हुआ होगा। वहाँ जब 40 जवान शहीद हुए तो चुनावी भाषण का असर उलटा ही होना था। पढ़िए –बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू सोशल मीडिया पर एक बहस सी हो रही थी कि पुलवामा की आतंकवादी घटना के बाद कौन कितना दुखी है! किसका दुख सच्चा है किसकी दुख दिखावा है! ऐसा लिखते समय कहीं कहीं लोगों का राजनीतिक झुकाव और किसी कौम या व्यक्ति के प्रति दुराग्रह भी नज़र आ रहा था। भाषा की अभद्रता सहनशीलता की सीमा लाँघ रही थी,हर एक अपने को देश प्रेमी साबित करने में लगा था। हर एक की दुख सहने की सीमा और उसे अभिव्यक्ति करने के तरीक़े अलग हो सकते है, दुख को कैसे सहें उसके तरीके अलग हो सकते हैं। आपका तरीका आपके लिये सही है पर दूसरा वह तरीका नहीं अपना रहा तो इसका ये अर्थ नहीं है कि वो दुखी नहीं है या उसका दुख नक़ली है। कोई कवि कह रहा था कि उससे कविता नहीं सूझ रही, पता नहीं लोग दुख में कैसे काव्य रच रहे  हैं।सही है कभी कभी कविता नहीं लिखी जाती…. शब्द ही रूठ जाते हैं पर हो सकता है दूसरे किसी कवि की भावनाओं को शब्द मिल गये हों और अभिव्यक्त करके वो हल्का महसूस कर रहा हो।किसी मित्र ने लिखा कि ऐसी आतंकवादी घटना की निंदा और विरोध में जो अपनी वाल पर कुछ भी नहीं लिख रहा वह देश विरोधी है। चुप्पी देशविरोधी कैसे हो गई। कोई हँस रहा है, जन्मदिन दिन मना रहा है, शादी में शिरकत कर रहा है, रैस्टोरैंट में खाना खा रहा है या सिनेमा देख रहा है तो उसका दुख नकली है! ऐसे विचार प्रकट किये जा रहे है! मतलब आप चाहते क्या थे कि सारा देश अवसाद ग्रस्त हो जाये या आक्रोश में देश की संपत्ति को नुकसान पहुँचाये या यातायात रोके, बंध करवाये! नारे लगाये और सड़कों पर आ जाये।दुख था तो कुछ पीड़ित परिवारों की मदद कर देते, अपनी डी. पी. काली करते या  मोमबत्ती जलाते पर अपने दुख की तुलना दूसरे के दुख से तो न करते ।यदि कोई किसी देशद्रोही गतिविधि में संलग्न नहीं था तो उसे किसी को ये बताने की ज़रूरत नहीं थी कि वह कितना दुखी हैं और उनका दुख असली है या दिखावा! कुछ लोग फ़िज़ूल की अटकलें लगाने से बाज़ नहीं आ रहे थे। ये माना कि सुरक्षा में कहीं न कहीं चूक हुई थी पर ये कहना कि ऐसा जानबूझ कर राजनीतिक लाभ के लिये करवाया गया है सरासर ग़लत था। विपक्ष के पक्षधर बिना किसी प्रमाण के इस प्रकार की बातें फैला रहे थे। कोई सवाल करें तो कहा कि संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। अटकलें … Read more