जानिये प्यार की 5 भाषाओँ के बारे में

    हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू , फ़ारसी , लैटिन या फ्रेंच …. कितनी भी भाषाएँ आती हो मगर , प्यार की भाषा नहीं आती तो रिश्तों के मामले में तो शून्य ही रह जाते हैं | आप सोच सकते हैं कि ऐसा भला कौन हो सकता है जिसे प्यार की भाषा ना आती हो … तो ठहरिये आपको अपनी नहीं जिसे से आप प्यार करते हैं उसकी भाषा समझने की जरूरत है | कैसे ? आज वैलेंटाइन डे पर खास ये रहस्य आपसे साझा कर रहे हैं ………   वैलेंटाइन डे – जानिये प्यार की 5 भाषाओँ के बारे में    अभी कुछ दिन पहले की बात है मैं अपनी सहेली लतिका के साथ दूसरी सहेली प्रिया के घर गयी| प्रिया थोड़ी उदास थी| बातों का सिलसिला शुरू हुआ, तभी मेरी नज़र उसके हाथों की डायमंड रिंग पर गयी | रिंग बहुत खूबसूरत थी | मैंने तारीफ़ करते हुए कहा,” वाह  लगता है जीजाजी ने दी है, कितना प्यार करते हैं आपसे | मेरी बात सुन कर उसकी आँखों में आँसू आ गए, जैसे उनका वर्षों पूराना दर्द बह कर निकल जाना चाहता हो| गला खखार कर बोलीं,” पता नहीं, ये प्यार है या नहीं, नीलेश, महंगे से महंगे गिफ्ट्स दे देते हैं, मेरी नज़र भी अगर दुकान पर किसी चीज पर पड़ जाए तो उसे मिनटों में खरीद कर दे देते हैं, चाहें वो कपड़े हो, गहने हों या श्रृंगार का कोई सामान, पर जब मैं खुश हो कर उसे पहनती हूँ तो कभी झूठे मुँह भी नहीं कहते कि बहुत सुन्दर लग रही हो| पहले मैं पूँछती थी ,” बताओ न, कैसी लग रही हूँ “ , तो हर बार बस वही उत्तर दे देते,  “वैसी  ही जैसी हमेशा लगती हो … अच्छी”| मेरा दिल एकदम टूट कर रह जाता | मैंने कितनी ऐसी औरते देखी हैं जो बिलकुल सुन्दर नहीं हैं, पर उनके पति उन्हें सर पर बिठा कर रखते हैं … परी, हूर , चाँद का टुकड़ा न जाने क्या–क्या कहते हैं, एक तरफ मैं हूँ जिसे दुनिया सुन्दर कहती है उसका पति कभी कुछ नहीं कहता , ये महंगे गिफ्ट्स क्या हैं? … बस अपनी हैसियत का प्रदर्शन हैं | बिना भाव से दिया गया हीरा भी पत्थर से अधिक कुछ नहीं है मेरे लिए | उनका दुःख जान कर मुझे बहुत दुःख हुआ पर मैंने माहौल को हल्का करने के लिए इधर –उधर की बातें करना शुरू किया | हमने हँसते –खिलखिलाते हुए उनके घर से विदा ली |                   रास्ते में लतिका कहने लगी,  “कितनी बेवकूफ है प्रिया, उसे अपने पति का प्यार दिखता ही नहीं | अगर प्यार न करते तो क्या इतने महंगे गिफ्ट्स ला कर देते, एक मेरे पति हैं, मेरी दुनिया भर की तारीफें करते रहेंगे, गीत , ग़ज़ल भी मेरे ऊपर लिख देंगे, मगर मजाल है गिफ्ट के नाम पर एक पैसा भी खर्च करें | बहुत महंगा गिफ्ट तो मैंने चाहा ही नहीं , पर एक गुलाब का फूल तो दे ही सकते हैं |”              घर आ कर मैं प्रिया और लतिका के बारे में सोंचने लगी | दरअसल ये समस्या प्रिया और लतिका की नहीं हम सब की है | हम सब अक्सर इस बात से परेशान रहते हैं कि जिसे हम इतना प्यार करते हैं, वो हमें उतना प्यार नहीं करता, या फिर हम तो अपने प्यार का इजहार बार–बार करते हैं पर वो हमारी  भावनाओं को समझता ही नहीं या उनकी कद्र ही नहीं करता| ये रिश्ता सिर्फ पति –पत्नी या प्रेमी –प्रेमिका का न हो कर कोई भी हो सकता है, जैसे माता–पिता का रिश्ता, भाई बहन का रिश्ता, दो बहनों को का रिश्ता, दो मित्रों का रिश्ता | इन तमाम रिश्तों में प्यार होते हुए भी एक दूरी होने की वजह सिर्फ इतनी होती है कि हम एक दूसरे के प्यार की भाषा नहीं समझ पाते | क्या होती है प्यार की भाषा –                     मान लीजिये आप अपनी किसी सहेली से मिलती हैं, वो आपको अपने तमिलनाडू टूर के बारे में बता रही है कि वो कहाँ–कहाँ गयी, उसने क्या–क्या किया, क्या–क्या खाया वगैरह–वगैरह, पर वो ये सारी  बातें तमिल में बता रही है, और आपको तमिल आती नहीं | अब आप उसे खुश देख कर खुश होने का अभिनय तो करेंगी  पर क्या आप वास्तव में खुश हो पाएंगीं ? नहीं, क्योंकि आपको एक शब्द भी समझ में नहीं आया| अब बताने वाला भले ही फ्रस्टेट हो पर गलती उसी की है, सारी कहानी बताने से पहले उसे पूँछ तो लेना चाहिए था कि आपको तमिल आती है या नहीं ? ठीक उसी तरह प्यार एक खूबसूरत भावना है पर हर किसी को उसे कहने या समझने की भाषा अलग–अलग होती है | अगर लोगों को उसी भाषा में प्यार मिलता है जिस भाषा को वो समझते हैं तो उन्हें प्यार महसूस होता है, अन्यथा उन्हें महसूस ही नहीं होता कि उन्हें अगला प्यार कर रहा है| अलग होती है सबकी प्यार की भाषा                          मनोवैज्ञानिक गैरी चैपमैन के अनुसार प्यार की पाँच भाषाएँ होती हैं और हर कोई अपनी भाषा में व्यक्त  किये गए प्यार को ही शिद्दत से महसूस कर पाता है | अगर आप किसी से उसकी प्यार की भाषा में बात नहीं करेंगे तो आप चाहे जितनी भी कोशिश कर लें वो खुद को प्यार किया हुआ नहीं समझ पाएगा | आपने कई ऐसे लोगों को देखा होगा जिनके बीच में प्यार है, दूसरों को समझ में आता है कि उनमें प्यार है, पर उनमें से एक हमेशा शिकायत करता रहेगा कि अगला उसे प्यार नहीं करता | कारण स्पष्ट है कि अगला उसे उस भाषा में प्यार नहीं करता जिस भाषा में उसे प्यार चाहिए| मनोवैज्ञानिक गैरी चैपमैन ने इसके लिए लव टैंक की अवधारणा प्रस्तुत की थी | जब आप किसी से उस की प्यार की भाषा में बात करते हैं तो उसका लव टैंक भर जाता है और वो खुद को प्यार किया हुआ महसूस करता है , लेकिन अगर आप  उस के प्यार की भाषा में बात नहीं करते … Read more

सच -सच कहना यार मिस करते हो कि नहीं : एक चिंतन

                         शायद आपको याद हो अभी कुछ दिन पहले मैंने गीता जयंती पर एक पोस्ट डाली थी , जिस में मैंने उस पर कुछ और लिखने की इच्छा व्यक्त की थी | इधर कुछ दिन उसी के अध्यन में बीते | ” जीवन क्या है , क्यों है या सहज जीवन के प्रश्नों का मंथन मन में हो रहा था | इसके विषय में कुछ लेख atootbandhann.com में लिखूँगी , ताकी जिनके मन में ऐसे सवाल उठते हैं, या इस विषय में रूचि हो,  वो उन्हें आसानी से पढ़ सकें | वास्तव में यह लेख नहीं एक परिचर्चा होगी जहाँ आपके विचारों का खुले दिल से स्वागत होगा | सच -सच कहना यार मिस करते हो कि नहीं : एक चिंतन                                   पर आज कुछ लिखने का कारण शैलेश लोढ़ा जी ( तारक मेहता , वाह -वाह क्या बात है , फ्रेम ) की कविता है , जो मैने  यू ट्यूब पर सुनी | कविता का शीर्षक है , ” सच -सच कहना यार मिस करते हो कि नहीं |” दरअसल ये कविता एक आम मध्यम वर्गीय परिवार से सफलता की ऊँचाइयों पर पहुंचे व्यक्ति की है | ये कविता उनके दिल के करीब है | इस कविता के माध्यम  से वो अपने बचपन के अभावों वाले दिनों को याद करते हैं और आज के धन वैभव युक्त जीवन से उसे बेहतर पाते हैं | बहुत ही मार्मिक बेहतरीन कविता है |  हम सब जो  उम्र के एक  दौर को पार कर चुके हैं कुछ -कुछ ऐसा ही सोचते हैं | मैंने भी इस विषय पर तब कई कवितायें लिखी हैं जब मैं अपने गृह नगर में सभी रिश्ते -नातों को छोड़ कर महानगर के अकेलेपन से रूबरू हुई थी | क्योंकि इधर मैं स्वयं की खोज में लगी हूँ इस लिए कविता व् भावनाओं की बात ना करके तर्क की बात कर रही हूँ |  शायद हम किसी निष्कर्ष पर पहुँचे  | आज हम गुज़रा जमाना याद करते हैं पर जरा सोचिये  हम खतों की खुश्बू को खोजते हैं , भावुक होते हैं लेकिन जैसे ही बेटा दूसरे शहर पहुँचता  है तुरंत फोन ना आये , तो घबरा जाते हैं | क्या खत के सुख के साथ ये दुःख नहीं जुड़ा था , कि बेटे या किसी प्रियजन के पहुँचने का समाचार भी हफ़्तों बाद मिलता था | जो दूर हैं उन अपनों से कितनी बातें अनकही रह जाती थीं | क्या ये सच नहीं है कि साइकिल पर चलने वाला स्कूटर और कार के सपने देखता है | इसके लिए वो कड़ी मेहनत करता है | सफल होता है , तो स्कूटर खरीदता है , नहीं सफल होता है तो जीवन भर निराशा , कुंठा रहती है |  वहीँ कुछ लोग इतने सफल होते हैं कि वो मर्सिडीज तक पहुँच जाते हैं | फिर वो याद करते हैं कि सुख तो साइकिल में ही था | लेकिन अगर सुख होता तो आगे की यात्रा करते ही क्यों ? क्यों स्कूटर, घर, बड़ा घर , कार , बड़ी कार के सपने पालते , क्यों उस सब को प्राप्त करने के लिए मेहनत करते | जाहिर है सुख तब भी नहीं था कुछ बेचैनी थी जिसने आगे बढ़ने को प्रेरित किया | किसने कहा था मारुती ८०० लेने के बाद मर्सीडीज तक जाओ | जाहिर है हमीं ने कहा था , हमीं ने चाहा था , फिर दुःख कैसा ? क्योंकि जब उसे पा लिया तो पता चला यहाँ भी सुख नहीं है | कुछ -कुछ ऐसा ही हाल नौकरी की तलाश में दूसरे शहर देश गए लोगों का होता है | पर अपने शहर में, देश में वो नौकरी होती तो क्या वो जाते |अगर वहां बिना नौकरी के रह रहे होते तो क्या वहां पर वो प्यार या सम्मान मिल रहा होता जो आज थोड़े दिन जाने पर मिल रहा है | क्या वहां रहने वाले लोग ये नहीं कहते , “अच्छा है आप तो यहाँ से निकल गए |” पिताजी कहा करते थे , ईश्वरीय व्यवस्था ऐसी है कि दोनों हाथों में लड्डू किसी के नहीं होते | जो हमारे पास होता है उसके लिए धन्यवाद कहने के स्थान पर जो हमारे पास नहीं होता है हम उस के लिए दुखी है | तभी तो नानक कहते हैं , ” नानक दुखिया सब संसारा |”लेकिन हम में से अधिकतर लोग नौस्टालजिया में जीते हैं ….जो है उससे विरक्ति जो नहीं है उससे आसक्ति | मुझे अक्सर संगीता पाण्डेय जी की कविता याद आती है , ” पास थे तब खास नहीं थे |”मृगतृष्णा इसी का नाम है …. हर किसी को दूर सुख दिख रहा है , हर कोई भाग रहा है | ख़ुशी शायद यात्रा में है , जब हम आगे बढ़ने के लिए यात्रा करते हैं ख़ुशी तब होती है … कुछ पाने की कोशिश में की जाने वाली यात्रा का उत्साह  होता है | पर शर्त है ये यात्रा निराशा कुंठा के साथ नहीं प्रेम के साथ होनी चाहिए | यह तभी संभव है  जब ये समझ हो कि ख़ुशी आज जहाँ हैं वहीँ  जो अभी मिला हुआ है उसी में निराश होने  के स्थान पर खुश रहने में हैं | ख़ुशी ये समझने में है कि जब हम -आप अपने बच्चों के साथ ठेले पर  गोलगप्पे खाते हुए पास से गुज़रती मर्सीडीज को देख कर आहे भर रहे होते हैं, ठीक उसी समय वो मर्सीडीज वाला बच्चों के साथ समय बिताते , जिन्दगी के इत्मीनान और लुत्फ़ का आनंद उठाते हुए हम को -आपको देख कर आह भर रहा होता है | तो क्यों ना हम तुलना करने के स्थान पर आज  अभी जो हमें मिला है उस पल का आनंद लेना सीखे … क्योंकि किसी के लिए वो सपना है , भले ही जीवन की दौड़ में वो उससे पीछे हो या आगे , क्योंकि पीछे की यात्रा संभव नहीं | जब ये समझ आ जायेगी तो संतोष आएगा और कुछ भी मिस करने की जरूरत नहीं पड़ेगी | आपको लेख “सच -सच कहना यार … Read more

बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू

इज्जत के ऐसा शब्द जो सिर्फ औरतों के हिस्से में आया है …..घर के मर्दों का सबसे बड़ा दायित्व भी अपने घर की औरतों की इज्जत बचाना ही है | महिलाएं और इज्जत के ताने -बाने से बुनी सामाजिक सोच से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वो बालात्कार पीड़िता  के साथ खड़ा हो पायेगा | क्या अब समय आ गया है कि हम इस पर पुनर्विचार करें | पढ़िए शिवानी जी का एक विचारणीय आलेख … बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू  आगरा की दोनों घटनाओं ने फिर झिंझोड़ कर रख दिया है! दोनों ही घटनाओं में परिचित लड़कों के संलिप्त होने की आंशका निकल रही है। सांजलि के चचेरे भाई की आत्महत्या ने घटना पर नये सिरे से, पर पुराने अनुभवों के आधार पर सोचने पर मजबूर किया है। सिहर उठते हैं नज़दीकी रिश्ते जब दाग़दार होते हैं!  इसमें केवल इंटरनेट या आज के माहौल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। ये तो हर युग में चलता आया है। पहले और अब में अंतर केवल इतना ही आया है कि पहले चुपचाप सहन करते हुए अपने स्तर पर निपटना होता था पर अब खुले तौर पर विरोध करने की हिम्मत जुटी है। पर अगर उस हिम्मत को सामूहिक बलात्कार या जलाकर, एसिड फेंककर तोड़ दिया जाता रहेगा तो सारी तरक्की, सारा विकास बेमानी है। जब तक घरों में पल रहे और छिपे हुए ऐसे मानसिक रोगियों को सामने लाकर दंडित नहीं किया जाएगा तब तक बच्चियों की हर ‘ना’ को यही परिणाम भुगतने होंगे। हमें बलात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू समझना होगा। बहुत बुरा चक्रव्यूह है! लड़कियां डरती हैं बदनामी से इसलिए चुप रहती हैं। वो चुप रहती हैं इसलिए उन पर ज़ुल्म होते हैं। ज़ुल्म करने वालों को बदनामी से डर नहीं लगता है क्योंकि …. इस क्योंकि के आगे ही आपको हमको मिलकर काम करना है! समाज में लड़कियों की ज़िंदगी,उनकी इज़्ज़त से जुड़ी हुई है और इज़्ज़त शरीर से जुड़ी हुई है! तो पुरुष की इज़्ज़त शरीर से क्यों नहीं जुड़ी हुई? चूंकि स्त्री को सिर्फ मादा शरीर माना गया है, इंसान माना ही नहीं गया है। या तो शरीर या फिर देवी, पूजनीय मानकर इंसान होना उससे वंचित रखा गया है। और उस शरीर को भी खुद पर मालिकाना हक नहीं। वो भी किसी न किसी पुरुष के पास है। पिता के साथ है तो वहां पिता किसी वस्तु की तरह दूसरे पुरुष को दान कर देगा। दान में प्राप्त वस्तु पर वह पति बनकर मालिकाना हक रखता है। कब?कब इंसान बनकर जीती है स्त्री? ये मालिकाना हक़ की भावना ही है जो कि बलात्कार की शिकार लड़की को समाज में जीने नहीं देती है। इस्तेमाल की हुई चीज़ को कोई पुरुष स्वीकार नहीं करेगा तो माता पिता के लिए कन्या ऐसा बोझ हो जाएगी जिसे किसी को दान देकर वो मुक्त नहीं हो सकते! इसलिए अपने शरीर को सुरक्षित रखने के लिए स्त्री पर दबाव होता है। और सबसे निकृष्ट बात ये कि शरीर को दूसरों की सेवा करने में गला सकती है, छिजा सकती है पर अपने आनंद के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकती। यहां मैं प्रेम की बात कर रही हूं। आप देखिए कि प्रेम प्रसंगों में भी अगर कोई स्त्री शारीरिक संबंध स्थापित करती है तो समाज उसे स्वीकारता नहीं! उसके पीछे भी मानसिकता यही है कि अपने शरीर का इस्तेमाल अपने सुख, अपनी खुशी के लिए नहीं कर सकती है क्योंकि शरीर पर हक़ किसी और का, किसी पुरुष का है। किसी भी नर-मादा संबंध में केवल एक की ही इज़्ज़त खराब कैसे हो जाती है? चाहे प्रेम संबंध हों या बलात्कार, शरीर दोनों का इस्तेमाल हुआ है तो दोष दोनों को लगना चाहिए। पर नहीं! कलंक स्त्री के माथे पर ही लगता है! कारण वही है… जिसके बारे में सोचना हमने वर्जित किया हुआ है। जिस दिन बलात्कार की शिकार लड़की बिना झिझके घर से बाहर निकल सकेगी, लोगों के लिए दया की या घृणा की पात्र नहीं रहेगी, त्यजात्य नहीं रहेगी बल्कि वो इंसान जिसने बलात्कार किया है , समाज द्वारा दंडित किया जाएगा, बहिष्कृत किया जाएगा और घरों से बाहर फेंक दिया जाएगा, उस दिन कहिएगा कि हां लड़कियों-महिलाओं को भी शरीर से अलग इन्सान समझा जा रहा है। जब तक समाज में लड़कियों को एक मादा शरीर के रूप में ही मान्यता मिली हुई है तब तक उनका शोषण  (अलग से ‘शारीरिक शोषण’ कहना आवश्यक नहीं है) होता रहेगा। जितनी भी महिलाओं को मेरी बात से सहमति नहीं है वे अपने मन में झांकें, टटोलें कि अपने बचपन से अपनी बेटी के जवान होने तक, उन्होंने कितनी बार चाहे-अनचाहे स्पर्शों के लिए खुद को परेशान न किया होगा! आक्रोश के साथ साथ अपराध बोध न रहा होगा! काश कि स्त्री का जीवन ,उसका चरित्र केवल और केवल उसका शारीरिक मसला नहीं होता! और साथ ही पुरुष का जीवन, उसका चरित्र भी शारीरिक मसला होता तो समाज में न बलात्कार होता न उसका ख़ौफ़ होता! जैसे राह चलते दुर्घटना हो जाती है वैसे ही शारीरिक संबंध का मामला भी होता। यकीन मानिए इससे कोई अराजकता नहीं फैलती और ना ही दुनिया इसी में लिप्त रहती!  कौन चाहता है दुर्घटनाग्रस्त होना? तो ऐसे ही कोई नहीं चाहेगा अनावश्यक रूप से शारीरिक संबंध बनाना। पर बन जाए तो दुर्घटना में घायल की तरह ही इलाज कराते और ठीक हो जाते। काल्पनिक बात लगती है। हमारे समाज में लड़के-लड़कियों के लिए शारीरिक पवित्रता के मापदंड युगों-युगों से अलग अलग बने हुए हैं कि उनको समान करने के लिए और कई युग लग जाएंगे। मालिकाना हक़ की भावना पुरुष में इतनी गहरे पैठी हुई है कि उसको उखाड़ कर अलग करने के लिए खुरचना होगा। उस खुरचने में वो घायल भी होगा । अब भला कोई खुद को घायल कैसे कर सकता है! इसलिए उसके आसपास की महिलाएं ही ये कर सकती हैं। बुजुर्ग महिलाओं को शुरुआत करनी चाहिए। अपने नाती पोतों को बदलाव के लिए तैयार करें। हमारी पीढ़ी की महिलाओं को अपने बच्चों को इस बदलाव के लिए तैयार करना चाहिए। असंभव कुछ भी नहीं है! शरीर के मामले लड़के-लड़कियों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण होने चाहिए। इंसान के रूप में दोनों को समान … Read more

crazy rich Asians -कुछ गहरी बातें कहती रोमांटिक कॉमेडी

crazy rich Asians  ये नाम है एक इंग्लिश बेस्ट सेलर नॉवेल का का जिसे केविन क्वान ने  २०१३ में लिखा था | नावेल बहुत लोकप्रिय हुआ और २०१८ में इस नॉवेळ पर हॉलीवुड फिल्म भी बनी है | फिल्म ऑस्कर के लिए भी नोमिनेट हुई है | केविन ही फिल्म के निर्माता भी हैं |  कहा  जा रहा है ये पहली हॉलीवुड फिल्म हैं जिसकी पूरी कास्ट एशियन है | केविन  के अनुसार जब भी अमीरों की बात होती है तो हम अमेरिका के बारे में सोचते हैं , परन्तु  ऐशिया और चाइना के लोग भी बहुत अमीर हैं | जिनका निवास ऐशिया में अमीरों के लिए प्रसिद्द शंघाई , टोकियो  या हांगकांग नहीं , सिंगापुर  है | जिसके बारे में ज्यादा बात नहीं होती | केविन खुद एक अमीर घराने से हैं और उपन्यास का अधिकतर हिस्सा  सत्य पर आधारित है | Crazy rich Asians -पुस्तक समीक्षा  यूँ तो उपन्यास  एक romcom यानी कि रोमांटिक कॉमेडी है | जिसमें रिचेल चू और निक यंग की प्रेम कहानी है | जहाँ निक सिंगापुर के बेहद अमीर घराने का एकलौता वारिस है जो फिलहाल अमेरिका में पढाता  है | वहीँ रिचेल अमेरिकी निवासी है  जो आज़ाद ख्याल ,   स्वतंत्र  और सामान्य घर की व्अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर है | उसके घर में वो और उसकी माँ हैं | पिता की उसके जन्म लेने से पहले मृत्यु हो गयी थी | उसकी माँ ने उसकी परवरिश एक स्वतंत्र महिला के रूप में की है | निक व् रिचेल  की दोस्ती प्रेम में बदलती है | लेकिन अभी तक रिचेल को पता नहीं होता है कि निक इतना अमीर है | ये बात तब खुलती है जब निक उसे अपने एक रिश्तेदार की शादी में सिंगापुर ले जाता है | रिचेल का एक बिलकुल भिन्न दुनिया से सामना होता है | पैसे की दुनिया , मेटिरियलिस्टिक दुनिया | जहाँ पार्टी कल्चर है युवाओं में शराब , कोकेन , और अनैतिकता है , महिलाओं के लुक्स और शारीरिक बनावट से लेकर प्लास्टिक सर्जरी तक की सालाह देते लोग हैं | वहीँ दूसरी ओर घर में चायनीज माएं और बहनें है जो घर को बांधे रखने के लिए अपना जीवन लगा रहीं हैं |  अपने घर के बच्चों से बेखबर उन्हें अमेरिकी सभ्यता से डर है , क्योंकि वहाँ  की महिलाएं अपने कैरियर अपने वजूद को प्राथमिकता देती हैं | उनके अनुसार वो इन घरों में नहीं चल सकतीं | ऐसा ही भय निक की माँ को  रिचेल के लिए भी है | उन्हें लगता है ये लड़की इतना त्याग नहीं नहीं कर पाएगी | उसको पढ़ते हुए मुझे अपने देश  की माएं याद आ जाती हैं जो इस बात से आँखें मूदें रहती हैं कि एक अमेरिका उनकी नाक की नीचे उनके घर में  बस चुका है , वो बस विदेशी लोगों का भय अपने मन में पाले रहती हैं | क्योंकि ये एक कॉमेडी है इसलिए कोई गंभीर बात नहीं है जिस पर विशेष चर्चा हो  | पर कुछ बातें धीरे से सोचने  पर विवश कर देती हैं | जैसे की रिचेल जो उस घर में निक की माँ जैसी  ही बन कर सासू माँ द्वारा स्वीकारे जाने की कोशिश करती है पर सफल नहीं होती , तो उसकी सहेली कहती है , तुम उनकी तरह मत बनो तुम अपनी तरह बनो , तुम्हारी अपनी जो ख़ास बातें हैं उन पर फोकस करो | उनकी तरह बनने की कोशिश में तुम उस घर में आखिरी रहोगी पर अपनी तरह बन कर पहली | तुम्हारी स्वीकार्यता तुम्हारे अपने गुणों की वजह से होनी चाहिए न की ओढ़े हुए गुणों की वजह से | चेतन भगत ने भी एक बार कुछ -कुछ ऐसा ही कहा था , सास पसंद नहीं करती तो …. ये पोस्ट वायरल हुई थी | ये एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि ससुराल द्वारा स्वीकृत होने के लिए लडकियाँ  अपनी बहुत सी कलाएं गुण छोड़ देती है | उन्हें कार्बन कॉपी बनना होता है | माँ भी यही शिक्षा देकर भेजती है , बिटिया लोनी मिटटी रहना | पर क्या एक लड़की वास्तव में लोनी मिटटी रह सकती है या वो एक आवरण ओढती है , उस आवरण के नीचे उसकी कई मूल इच्छाएं , सपने , और जिसे आजकल कहा जाता है … पैशन , दफ़न रहता है |  अभी कुछ दिन पहले की ही बात है एक महिला से बात हो रही थी , उसका कागज़ पर बनाया स्केच मुझे बहुत अच्छा लगा | तारीफ़ करते ही कहने लगी , मेरी पेंटिंग्स की सब सराहना करते थे , कुछ शादी के बाद बनायीं भी थीं पर ससुर जी को दीवाल में कील गाड़ना पसंद नहीं था , इसलिए दूसरों को दे दी |  मैं सोचती रही कि दीवाल पर तो कील नहीं गड़ी पर कितनी बड़ी कील उसके दिल में गड़ी है ये किसी को अंदाजा ही नहीं था | हालानी ये बात सिर्फ बहुओं के लिए ही नहीं है हम सब को अपने गुणों की कद्र करनी चाहिए | हम किसी भी महफ़िल का हिस्सा हों हमारी पहचान हंमारे अपने गुण होते हैं न कि ओढ़े हुए गुण | कौवा और मोर वाली कहानी तो आपको याद ही होगी | दूसरी बात जिसने प्रभावित किया वो है  निक की  चचेरी  बहन एसट्रिड  |अरब ख़रब पति एसट्रिड  एक सामान्य आर्मी ऑफिसर से प्रेमविवाह करती है | वो चाहती है कि उसके पति को इस बात का अहसास भी ना हो की वो उससे कमतर है | इसलिए ना जाने कितनी कंपनियों के सी ई ओ के पद ठुकरा देती है | अपना सारा समय चैरिटी में ही बिताती है |  कभी महँगी चीजों की खरीदारी भी करती है तो भी उन्हें छुपा देती है कि उसका पति उन्हें देख कर आहत ना हो | उसका प्रयास यही रहता है कि उसका पति  उससे ऊपर ही रहे | हमारे देश में भी तो पत्नियां अपने पति का ईगो बचाए रखने के लिए कितना कुछ कुर्बान कर देती हैं | परन्तु जब ऐस्ट्रिड अपने पति के अनैतिक रिश्तों की खबर लगती है तो वो टूट जाती है |  यहाँ एशियन  पुरुषों  की मानसिकता दिखाई गयी है , वो इसका दोष भी … Read more

जाड़े की धूप महिलाएं और विटामिन डी

जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए कौन है जिसे मौसम फिल्म का ये खूबसूरत गीत ना पसंद हो ? और फिर जाड़े के दिनों में धूप में पड़े रहना भला किसको अच्छा नहीं लगता , उस पर सखियों और मूँगफली का साथ हो तो कहने ही क्या ? एक समय था जब महिलाएं ११ बजे काम से निवृत्त हो कर धूप सेंकने के लिए घर के बाहर चारपाई पर आ धमकती थीं |किसी के हाथ में उन और सलाइयाँ होती , कोई मेथी बथुआ और पालक साफ़ कर रही होती ,कोई खरबूजे के बीज छील रही होती तो कोई बच्चे के मालिश कर रही होती , और साथ में चल रहा होता हंसी ठहाकों का दौर | बीच –बीच में दूसरी खटियाओं पर कम्बल ओढ़े पड़ी बुजुर्ग औरतें कम्बल में से सर निकाल कर उनकी बात –चीत में अपनी विशेष टिप्पणी शामिल करती रहती | बच्चे भी वहीँ पास में खेल रहे होते, और धूप  की गर्माहट के साथ –साथ रिश्तों की गर्माहट से भी मन भर जाता | आज लोग इस तरह धूप  में नहीं बैठते , रिश्तों में भी वो गर्माहट कहाँ बची है ?  जाड़े की धूप  महिलाएं और विटामिन डी  लेकिन ये बात सिर्फ  धूप और रिश्तों  की गर्माहट की नहीं है , धूप की गर्माहट के साथ धूप में बैठने से विटामिन  डी भी मिलता है | ये तो सबको पता है कि विटामिन डी की कमी से हड्डियाँ कमजोर पड़ जाती हैं , कार्डियो वैस्कुलर बीमारियाँ हों सकती हैं व् बच्चों को अस्थमा भी हो सकता है | परन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि विटामिन डी की कमी से अवसाद भी हो सकता हैं | तो अगर आप का मन खिन्न -खिन्न रहता है , कुछ करने का जी नहीं करता , लगता है देर तक पड़े रहे तो विटामिन डी की मात्रा को भी चेक कराये | हो सकता है अवसाद की दवाईयाँ खाने की जगह आप का विटामिन डी खाने से ही काम चल जाए | चेक करने पर पता चल जाएगा कि विटामिन डी की कितनी कमी है |डॉक्टरी  आंकड़ों के मुताबिक़…  ३० से ६० ng/ml विटामिन डी की सामान्य मात्रा है | २१ से २९ ng/ml अपर्याप्त है ( यानी कम तो है पर बहुत घबराने की जरूरत नहीं है ) ० से २० ng/ml कम है ६० ng/ml से ऊपर ज्यादा है | ( जरूरत से ज्यादा विटामिन डी हड्डियों से सम्बंधित समस्याएं उत्पन्न करता है ) कहने का तात्पर्य ये है कि ज्यादा कमी होने पर दवाइयों का प्रयोग किया जा सकता है |ये गोली व् शैशे दोनों के रूप में आती हैं , ज्यादातर विटामिन डी ३  सप्लीमेंट दिए जाते हैं | अगर आपको दावा लेने की जरूरत हो तो डॉक्टर से पूछ लें | वैसे यह वासा युक्त भोजन  के साथ लेने से अधिक मात्रा में अवशोषित होता है | थोड़ी कमी होने पर अपने खाने में विटामिन डी युक्त खाद्य पदार्थों की मात्रा , जैसे  ,दूध , दही , मछली, गाय का दूध , सोयाबीन का दूध , कॉड  लिवर आयल , मशरूम , अनाज , ओटमील आदि से   बढाई जा सकती है फिर  अपने आँगन में आने वाली धूप तो है ही  | धूप में बैठने के लिए ११ से१ तक  का समय सबसे मुफीद है , कपड़ें  हलके हों तो बेहतर हैं | एक बार और आंकड़ों की शरण में जाकर आपको बता दें कि एक स्वस्थ व्यक्ति को ६०० IU विटामिन की एक दिन में आवश्यकता होती है | एक बात ख़ास तौर पर युवा महिलाओं से …. क्योंकि आज कल कई बार युवा महिलाएं ये मान कर कि, “ धूप में बैठने से रंग साँवला हो जाएगा” ,धूप में बैठने से परहेज करती हैं | जाड़े की  धूप का रंग पर इतना असर नहीं होता , और अगर कुछ होता भी है तो उसके लाभ के आगे नगण्य है | वैसे , धूप की तरफ पीठ करके भी बैठा जा सकता है | यूँ विटामिन डी का चेहरे से कोई खास लगाव नहीं है , हाथों-पैरों में भी धूप लेने से विटामिन डी मिल ही जाता है | एक एक और खास बात J आप सब से बाँटना चाहती हूँ  जो अभी कुछ दिन पहले एक लड़की ने कही | हुआ यूँ कि सब धूप में बैठे मूंगफलियों का आनंद ले रहे थे | १० मिनट बाद वो महिला अन्दर जाने लगी | मैंने विटामिन डी की महत्ता बताते हुए उसे रोकना चाहा तो उसने कहा कि मेरा तो रंग ज्यादा साँवला है मेरा तो दस मिनट में उतना विटामिन डी बन गया जितना गोरे लोगों का दो घंटे में बनेगा | आश्चर्य की बात है कि ये भ्रम अधिकतर लोगों को होता है | लोगों को लगता है कि जिनका रंग सांवला है उन्हें बस थोड़ी ही देर धूप में बैठना चाहिए जबकि सच्चाई ये है कि अगर आपकी त्वचा सांवली है तो गोरी त्वचा वालों के मुकाबले सही मात्रा में विटामिन डी बनाने के लिए आपको दस गुना ज्यादा धूप की जरूरत होगी | ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपके स्किन पिगमेंट्स प्राकर्तिक सनस्क्रीन की तरह काम करते हैं , और सांवले लोगों में ये पिगमेंट्स अधिक मात्रा में होते हैं इसलिए सांवले लोगों को अधिक देर धूप में रहना होता है |    कुछ अध्यन बताते हैं कि सांवली त्वचा वाले अधिक उम्र के वयस्कों में विटामिन डी की कमी होने की अधिक संभावना  हो सकती है। मोटे तौर पर जहाँ गोरे  लोगों का काम १० –पंद्रह मिनट में चल जाता है वहीँ काले लोगों को एक घंटा धूप में बैठना चाहिए | बूढ़े लोगों को और भी देर तक  धूप में बैठना चाहिए क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ –साथ त्वचा द्वारा सूर्य की किरणों से विटामिन डी बनने की क्षमता कम हो जाती है | अच्छा है इसी उम्र से धूप में बैठ कर विटामिन डी की मात्रा को दुरुस्त रखें | अब बात आंकड़ों की है तो बता दें कि ये आँकड़े सर्दियों की धूप  के हैं , गर्मियों में थोड़ा कम से ही  काम चल जाएगा |  फिर … Read more

जनरेशन गैप -वृद्ध होते बच्चों पर तानाकशी से बचे माता -पिता

अभी हाल में एक फिल्म आई थी “१०२ नॉट आउट ” | जिसमें एक बुजुर्ग पुत्र व् उसके बुजुर्ग पिता के रिश्ते को दर्शाया गया है | फिल्म का विषय अलग था , पर यहाँ मैं बात कर रही हूँ उस घर की जहाँ दो बुजुर्ग रहते हैं | एक बेटा जो वृद्धावस्था की शुरुआत पर खड़ा है व् उसके माता -पिता जो अति वृद्ध हैं | भारतीय संस्कार कहते हैं किब्च्चों को माता -पिता की सेवा करनी चाहिए | माता -पिता की सेवा ना कर पाने वाले बच्चे एक नैतिक दवाब में रहते हैं | पर जब बच्चे खुद वृद्ध वस्था में हों और माता -पिता व् समाज उनसे युवा बच्चों के सामान सेवा की मांग करें जनरेशन गैप -वृद्ध होते बच्चों पर तानाकशी से बचे माता -पिता इस विषय पर लेख लिखने का एक विशेष कारण है | दरअसल अभी कुछ दिन पहले हॉस्पिटल में जाना हुआ | वहाँ एक बुजुर्ग दंपत्ति (८० के आसपास ) भी अपने बेटे के साथ आये हुए थे | उनका रूटीन चेक -अप होना था | डॉक्टर ने यूँही पूछ लिया ,” माताजी इस बार काफी दिन बाद आयीं | ” वो कुछ बोलतीं इससे पहले उनके पति बोलने लगे ,” क्या करें आजकल के लड़कों के पास समय कहाँ है हम बुजुर्गों के लिए , बस अपने काम और बीबी बच्चों से मतलब है , इस उम्र में हालत बिगड़ते देर थोड़ी ही ना लगती है , पर बच्चों का क्या है ? अब हमारी जरूरत कहाँ है ? खैर पति -पत्नी का रेगुलर चेक अप करने के बाद माँ ने बेटे से कहा , ” तुम भी बी पी नपवा लो | बेटे ने कहा नहीं मैं बिलकुल ठीक हूँ | डॉक्टर बोला , ” नपवा लीजिये आप भी तो पचास पार कर चुके हैं | डॉक्टर ने नापना शुरू किया बीपी 160/240को पार कर रहा था | डॉक्टर ने कहा , ” अरे इन्हें तुरंत एडमिट करो , इ.सी जी लो , फिर माता -पिटा से बोले , ” अच्छा है चेक करा लिया वर्ना कुछ भी हो सकता था | अक्सर ४० -से ६० के बीच में जब बीमारियाँ दबे पाँव दस्तक देतीं हैं, तब पारिवारिक दायित्वों के बीच में लोग अरे हम तो ठीक हैं कह कर अपने स्वास्थ्य को अनदेखा करते हैं | अचानक से मामला बिगड़ता है और कई बार जान भी चली जाती है | सबको रूटीन चेक अप कराते रहना चाहिए ताकि बिमारी शुरू में ही पकड़ में आ सके | साथ ही उनके पिता द्वारा शुरू में बोली गयी बात ( जोकि आम घरों में कही जाने वाली बात है)में मुझे बीनू भटनागर दी के लेख समकालीन साहित्य कुछ विसंगतियाँ की याद आ गयी | लेख का अंश यथावत दे रही हूँ … “जिस समय माता पता की उम्र८० के आस पास होगी तो उनकी संतान की आयु भी पचास के लगभग होगी इस समय वह इंसान घर दफ्तर और परिवार की इतनी जिम्मेदारियों में घिरा होगा कि वह माता पिता को पर्याप्त समय नहीं दे पायेगा। अब हमारे साहित्यकार माता पिता के अहसान गिनायेंगे कि तुम्हे उन्होने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया वगैरह….. अब उनका वक़्त है……….।हर बेटे या बेटी को अपने माता पिता की सुख सुविधा चिकित्सा के साधन जुटाने चाहिये ,अपनी समर्थ्य के अनुसार चाहें माता पिता के पास पैसा हो या न हो।बुजुर्गों को भी पहले से ही बढ़ती उम्र के लिये ख़ुद को तैयार करना चाहिये। वह अपने बुढ़ापे में अकेलेपन से कैसे निपटेंगे क्योंकि बच्चों को और जवान होते हुए पोते पोती को उनके पास बैठने की फुर्सत नहीं होगी। यह सच्चाई यदि बुज़ुर्ग स्वीकार लें तो उन्हे किसी से कोई शिकायत नहीं होगी।” इसी विषय पर कहानी मक्कर लिखी थी | जिसमें बुजुर्ग माता -पिता द्वारा बहु की कमजोरी को बीमारी ना मान कर मक्कर ( बिमारी का नाटक) समझा जाता है | अपने जीवन में कितने केस मैंने ऐसे देखे हैं जहाँ वृद्ध माता -पिता ताने मार -मार कर ऐसा माहौल बना देते हैं जहाँ बच्चों का डॉक्टर को खुद को दिखने का मन भी खत्म हो जाता हैं | ऐसे में कई बार बीमारियाँ अपने उग्र रूप में सामने आती हैं | तन मजबूरन वृद्ध लोगों को भी सेवा की मात्रा से समझौता करना पड़ता है | मेरा भी विचार है कि बुजुर्गों को भी समझना चाहिए कि वृद्धावस्था की शुरुआत में पहुंचे हुए बच्चे उनकी वैसी सेवा नहीं कर सकते जैसी युवा बच्चे कर सकते हैं | इसलिए व्यर्थ में ताने मार -मार कर खुद का और परिवार का तनाव नहीं बढ़ाना चाहिये | क्योंकि परिवार में सब स्वस्थ रहे खुश रहे यही तो हम चाहते हैं | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. प्रेम की ओवर डोज अरे ! चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद आपको  कहानी   “जनरेशन गैप -वृद्ध होते बच्चों पर तानाकशी से बचे माता -पिता “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under:generation gap, health issues, criticism

किसानों को गुमराह करने का षड़यंत्र क्यों?

राजधानी की सड़कें एक बार फिर देशभर से आए किसानों के नारों से गूंजती रहीं। लेकिन प्रश्न यह है कि विभिन्न राजनीतिक दलों, कृषक समूहों और समाजसेवी संगठनों की पहल पर दिल्ली आए किसानों को एकत्र करने का मकसद अपनी राजनीति चमकाना है या ईमानदारी से किसानों के दर्द को दूर करना? यह ठीक नहीं कि राजनीतिक-सामाजिक संगठन अपने हितों की पूर्ति के लिए किसानों का इस्तेमाल करें।   किसानों को गुमराह करने का षड़यंत्र क्यों? किसान देश का असली निर्माता है, वह केवल खेती ही नहीं करता, बल्कि अपने तप से एक उन्नत राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति को भी रचता है, तभी ‘जय जवान जय किसान’ का उद्घोष दिया गया है। राष्ट्र की इस बुनियाद के दर्द पर राजनीति करना दुर्भाग्यपूर्ण है। कर्ज माफी और फसलों के उचित दाम के अलावा उनकी एक प्रमुख मांग किसानों के मसले पर संसद का विशेष सत्र बुलाना भी है। इसके लिए उन्होंने देश की सबसे बड़ी पंचायत तक पैदल मार्च भी किया। कथित किसान हितैषी नेताओं ने जिस तरह कर्ज माफी पर नए सिरे से जोर दिया उससे यही रेखांकित हुआ कि उनके पास किसानों की समस्याओं के समाधान का कोई ठोस उपाय नहीं, बल्कि वे किसानों को ठगने एवं गुमराह करने का षड़यंत्र कर रहे हैं।  बार-बार देखने में आ रहा है कि किसानों को गुमराह कर या उनके नाम पर अपनी राजनीति चमकाने की कुचेष्टाएं हो रही है। हाल के समय में यह तीसरी-चैथी बार है जब किसानों को दिल्ली लाया गया। इसके पहले उन्हें इसी तरह मुंबई भी ले जाया चुका है। समझना कठिन है कि परेशानी एवं त्रासद स्थितियों को झेल रहे किसानों को बार-बार दिल्ली या मुंबई में जमा करने से उनकी समस्याओं का समाधान कैसे हो जाएगा? जो राजनीतिक दल यह मांग लेकर सामने आए हैं कि किसानों की समस्याओं पर विचार करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए, उन्हें बताना चाहिए कि बीते साढ़े चार सालों में संसद सत्र के दौरान उन्होंने यह मांग क्यों नहीं सामने रखी? सवाल यह भी है कि किसानों की समस्याओं के बहाने अडाणी-अंबानी, नोटबंदी-जीएसटी, दुर्योधन-दुशासन, राफेल सौदे, राम मंदिर- बाबरी मस्जिद आदि का जिक्र करने का क्या मतलब यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि आगामी आम चुनाव के चलते विपक्षी नेता किसान-हित के बहाने अपने पक्ष में माहौल बनाने में लगे हुए हैं। मजबूरी का नाम गांधी नहीं, किसान है। यानि मजबूरी आदर्श या आदर्श की मजबूरी। दोनों ही स्थितियां विडम्बनापूर्ण हैं। पर कुछ लोग किसी कोने में आदर्श की स्थापना होते देखकर अपने बनाए समानान्तर आदर्शों की वकालत करते हैं। यानी स्वस्थ परम्परा का मात्र अभिनय। प्रवंचना का ओछा प्रदर्शन। सत्ताविहीन असंतुष्टों की तरह आदर्शविहीन असंतुष्टों की भी एक लम्बी पंक्ति है जो दिखाई नहीं देती पर खतरे उतने ही उत्पन्न कर रही है। किसानों के हितैषी बनने वाले, उनकी समस्याओं पर घडियाली आंसू बनाने वाले, असल में उनके दुख-दर्द एवं परेशानी के नाम पर अपने राजनीतिक हितों की रोटियां सेक रहे हैं। सब चाहते हैं कि हम आलोचना करें पर काम नहीं करें। हम गलतियां निकालें पर दायित्व स्वीकार नहीं करें। ऐसा वर्ग आज बहुमत में है और यही वर्ग किसान हितवाहक होने का स्वांग रच रहा है।  आज जरूरत ऐसा माहौल बनाने की है कि किसानों को अव्वल तो कर्ज लेने की जरूरत ही न पड़े, और अगर लें, तो पूंजीगत कर्ज लें। ऐसा कर्ज, जो उनकी अर्जन क्षमता बढ़ाए,  किसानों को उन्नत खेती की ओर अग्रसर करें, आधुनिक तकनीक एवं संसाधन उपलब्ध कराएं। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। किसान प्राकृतिक आपदा एवं अभावों के भी शिकार होते हैं। बाढ़ या सूखे से उनकी फसलें तबाह हो जाती हैं। इसका मुआवजा देने की घोषणाएं सरकारें करती रही हैं। मजेदार कहानी यह है कि सरकारी खजाने से किसानों के नाम पर धन निकलता है मगर वह बीमा कम्पनियों के खातों के हवाले हो जाता है। क्या इससे बड़ा अपमान हम धरती के अन्नदाता का और कुछ कर सकते हैं कि उसकी खराब हुई फसल का मुआवजा उसे दो रुपये से लेकर बीस रुपये तक के चेकों में दें। बीमा कम्पनियों ने महाराष्ट्र में ऐसा ही किया।  एक और विडम्बनापूर्ण स्थिति देखने में आती रही है कि किसान बार-बार कर्ज के जाल में फंसता रहा है। कुछ किसान तो सिर्फ कर्ज-माफी की सोचते हैं। उन्हें इसका लाभ मिलता भी है, क्योंकि चुनाव के समय राजनीतिक दल वोट बैंक को प्रभावित करने के लिये उदार भाव से कर्ज माफ करने की घोषणाएं करते हैं। पहले कर्ज-माफी केंद्र सरकार ही किया करती थी, लेकिन अब राज्य सरकारें भी इस ओर बढ़ चली हैं। इस कारण समय पर कर्ज चुकाने वाले ईमानदार किसान ठगे रह जाते हैं। राज्य का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह उन लोगों को प्रोत्साहित करे, जो वैधानिक तरीकों से ईमानदारीपूर्वक काम करते हों। मगर अब तो जिन किसानों ने जान-बूझकर कर्ज नहीं चुकाया, वही फायदे में रहते हैं। यह परंपरा भी वास्तविक किसानों के लिये बर्बादी का कारण बन रही है।  कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि में किसान की कर्ज माफी की योजनाएं नाकाम होने के बावजूद इस तरह की योजनाओं को किसानों की समस्याओं के समाधान का सशक्त माध्यम माना जा रहा है। पता नहीं क्यों इस बुनियादी बात को समझने से इन्कार किया जा रहा है कि किसान जब तक कर्ज लेने की स्थिति में बना रहेगा तब तक उसकी बदहाली दूर होने वाली नहीं? समय की मांग यही है कि विपक्ष दल किसानों को राजनीतिक मोहरा बनाना बंद कर कृषि संकट के समाधान के कुछ कारगार उपायों के साथ सामने आए। ऐसे उपायों की तलाश में मोदी सरकार को भी जुटना चाहिए, क्योंकि उसके तमाम प्रयासों के बाद भी किसान समस्या ग्रस्त हैं और फिलहाल उसकी आय बढ़ने एवं समस्याएं कम होने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है।   राजनीतिक दल दुर्गा बनना चाहते हैं, पर दुर्गा सामने नहीं देखना चाहते। वे चाहते हैं भगतसिंह पैदा हों, पर पड़ोस में। कारण भगतसिंह को जवानी में शहीद होना पड़ता है। वोट बैंक पर आधिपत्य का अर्थ है निरन्तर उन्नतिशील बने रहना एवं स्वस्थ शासन करना। जनता के दिलों पर शासन उस श्वेत वस्त्र के समान है, जिस पर एक भी धब्बा छिप नहीं सकता। जबकि भारतीय राजनीतिक उस मुकाम पर … Read more

समकालीन साहित्य :कुछ विसंगतियाँ

क्या आज जो साहित्य लिखा जा रहा है वो सत्य के पक्ष में है या कुछ पूर्व धारणाओं को निरुपित करने के असंभव प्रयास में लगा हुआ है | क्या यही कारण तो नहीं कि पाठक साहित्य से दूर हो रहा है | जानिये सुप्रसिद्ध लेखिका बीनू भटनागर जी प्रभावशाली विचार समकालीन साहित्य :कुछ विसंगतियाँ समकालीन साहित्यकारों के कुछ प्रिय विषय हैं,,जिन्हे बार बार लिखकर उन्हे सार्वभौमिक सत्य की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है।सार्वभौमिक सत्य वह होते हैं जो हर काल में, हर स्थान पर खरे उतर सकते हों एक ही बात को बार बार कहा जाय तो वह सार्वभौमक सत्य लग सकती है, हो नहीं सकती ।कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर जिन पर लिख लिख कर वो न थके हों पर कुछ पाठक पढ़ पढ़ कर ऊब चुके हैं, जैसे पूर्व में सब कुछ अच्छा है पश्चिम सब बुरा, पूर्व के गुणगा गा गा करकर साहित्यकारों ने  अपनी बात को सार्वभौमिक सत्य बना देने का पूरा प्रयास किया है।हर सभ्यता का मूल्यांकन हम नहीं कर सकते हैं। सभ्यताओं में मिश्रण भी होना स्वाभाविक है, कोई पूछे कि क्या  देवदासी प्रथा, वेश्या वृत्ति ,दहेज़ प्रथा महिलाओं पर  अत्याचार उनका शोषण पश्चिम की देन है!पश्चिम से हमने विज्ञान और तकनीक ली है, वहाँ से थोड़ा स्वच्छ रहने का भी ज्ञान ले लेते। सड़क पर थूकना, दीवार से सटकर पुरुषों का……., पालतू कुत्तों के लियें सार्वजनिक स्थानों को शौचालय बना देना तो कम से कम पश्चिम की देन नहीं है।जब तक हम अपने मुंह   मियाँ मिट्ठू बनना और कमियों को स्वीकारना नहीं  सीखेंगे ,अतीत में जीते रहेंगे तब तक सामाजिक स्तर पर कोई सुधार नहीं कर सकेंगे।हमारे साहित्यकारों को पश्चिमी पहनावे पर ऐतराज़ है, ये सारी बुराइयों की जड़ है। पश्चिमी पहनावा अब वैश्विक पहनावा बन चुका है, क्योंकि वह अवसर के अनुकूल होता है।पुरुषों ने तो न जाने कब से पैंट शर्ट सूट पहनना शुरू कर दिया क्योंकि वह सुविधाजनक है पर औरतों ने जब बदलाव किया तो संसकृति आड़े आ गई।हमेशा साड़ी मे सजी मांथे पर बड़ी सी बिंदी लगाये महिला बहुत सुदृढ़ चरित्र की होगी और यदि पश्चिमी पहनावा पहनती है तो वह दंबग किस्म की हो सकती है……कमसे कम वह एक आम गृहणी नहीं होगी।आप किसी व्यक्ति के पहनावे मात्र से उसके पूरे व्यक्तित्व का आकलन कर सकते है। एक बहू को समाज पश्चिमी वेशभूषा में स्वीकार कर ले पर साहित्यकार ऐसी बहू को कभी  अच्छी या सामान्य बहू नहीं दिखायेंगे। अच्छा बुरा होना नज़रिये की बात हो सकती है इसलिये मैने सामान्य कहा। भारत में जितना बुज़ुर्गों का सम्मान होता है कहीं नहीं होता पर हमारे साहित्यकार बुजुर्गों को लेकर इतने संवेंदनशील कि पूरी जवान पीढ़ी को अपराधबोध से ग्रस्त कराना चाहते हैं। किसी जवान का विदेश जाना अपराध ही की तरह पेश किया जाता रहा है। यदि जवान कहीं मौज मस्ती करें तो भी अपराध बोध से ग्रस्त रहें क्योंकि साहित्यकार के अनुसार उस चरित्र को माता पिता की सेवा करनी चाहिये थी, या उन्हे तीर्थ पर ले जाना चाहियेथा।  अपने लिये कुछ करना भारत में स्वार्थी होने के बराबर ही माना जाता है। बहू तो कभी अच्छी हो ही नहीं सकती  ये सब इस तरह से पेश करते हैं जैसे ये सार्वजनिक सत्य हों।जबकि एक हजार परिवारों में कंहीं कोई एक होगा जिसने अपने बुजुर्गों को संरक्षण ना दिया हो ,पर समाचार जिस तरह नकारात्मक ही होते हैं, साहित्यकार की कहानी भी वहीं से नकारात्मक कथानक चुनती है।ख़ुश युवा पीढ़ी साहित्यकारों को पसन्द नहीं, वो इसलिये ख़ुश हैं कि क्योंकि वो कर्तव्यों को भूल चुके हैं, परम्परा को भुला चुके हैं पर ये सार्वभौमिक सत्य नहीं है।  जिस समय माता पता की उम्र८० के आस पास होगी तो उनकी संतान की आयु भी पचास के लगभग होगी इस समय वह इंसान घर दफ्तर और परिवार की इतनी जिम्मेदारियों में घिरा होगा कि वह माता पिता को पर्याप्त समय नहीं दे पायेगा। अब हमारे साहित्यकार माता पिता के अहसान गिनायेंगे कि तुम्हे उन्होने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया वगैरह….. अब उनका वक़्त है……….।हर बेटे या बेटी को अपने माता पिता की सुख सुविधा चिकित्सा के साधन जुटाने चाहिये ,अपनी समर्थ्य के अनुसार चाहें माता पिता के पास पैसा हो या न हो।बुजुर्गों को भी पहले से ही बढ़ती उम्र के लिये ख़ुद को तैयार करना चाहिये।  वह अपने बुढ़ापे में अकेलेपन से कैसे निपटेंगे क्योंकि बच्चों को और जवान होते हुए पोते पोती को उनके पास बैठने की फुर्सत नहीं होगी। यह सच्चाई यदि बुज़ुर्ग स्वीकार लें तो उन्हे किसी से कोई शिकायत नहीं होगी। मैने जीवन में इसके विपरीत घटनायें भी देखी हैं, ऐसे पिता देखे हैं जो अपने सपने बच्चों पर थोपते है, जैसे पिता गायक नहीं बन सके तो वो अपनी पूरी शक्ति बेटे को गायक बनाने में लगा देंगे, यदि बेटे के अभिरुचि है तब तो ठीक है अन्यथा पिता का सपना पूरा करने के लिये न वो गायक बन पायेगा न कुछ और।बस जो वो चाहते वह बच्चे को बनाकर छोड़ेगें, बच्चे की रुचि उसमे है या नहीं, ये जानना ज़रूरी नहीं है, बच्चे के दिमाग़ मे बचपन से कूट कूट कर भर दिया जायेगा कि तुझे ये बनना है, तो बनना है। अच्छा होने और आदर्शों की दुहाई देने में फर्क होता है। संबध सफेद या काले नहीं होते हैं ग्रे ही होते एक तरफ़ बेचारगी दूसरी तरफ आदर्श का ढ़ोग लिखना चाहे जितना अच्छा लगे पर पाठक की कोरी संवेदना जगाता है जिसका कोई  सकारात्मक असर नहीं होता।ऐसी बहुएं भी जो व्यस्त होने के बावजूद सास ससुर की देखभाल करती हैं पर अगर सास ससुर की उम्मीदें आसमान छूने लगें तो  बहू के क़दम पीछे हटेंगे , स्वाभाविक है।रिश्तों में कोई सार्वभौमिक सत्य नहीं होता । माता कुमाता हो सकती है।परिवार के मान की रक्षा के नाम पर अपने बच्चों को मारने वाले माता पिता की बातें तो आये दिन अख़बारों में आती हैं।हमारी कहानियां और उपन्यास केवल संबधों को एक तरफ़ा सार्वभौमिक सत्य की तरह स्थापित करने में लगे हैं।लीक से हटकर कुछ पढ़ने को मिलता ही नहीं है।शराबी पिता जिसने परिवार को दुख ही दुख दिये, फिरभी वृद्धावस्था में उनका समुचित ध्यान रखा गया, ऐसे कथानक जीवन में दिखते हैं साहित्य में नहीं।  प्रेम भी एक ऐसा ही विषय है जिसे कवि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं पर जो प्रेम साहित्य मे या सिनेमा में दिखाया जाता है वह आम आदमी की ज़िन्दगी … Read more

दादी कानपुर वाली -दादी और फोटो शूट

                        दादी कानपुर वाली …. प्रस्तुत है पहली कड़ी … दादी कानपुर वाली -दादी और फोटो शूट  हम दादी बोल रहे हैं कानपुर से … अरे वही रिया की दादी … पहचानी की नाही , वही दिल्ली वाली रिया की दादी …. अब तो पहिचान ही गयी हुइयो | तो बतावे लायक बात ई है कि अभी हम कानपुर गए राहे शादी में शामिल होंये  का | शादी हमरे परिवार की राहे , उही का हालचाल बतावे की धुकधुकी मन मा लगी राहे तो सोचा कि कही डाले , अब बूढ़े आदमी का का भरोसा , का पता कब भगवान् का बुलावा आ जाई और हमारी बात हमरे जी मा ही रह जाई | वो कहत हैं ना कि ओही कि खातिर बार -बार जन्म लें  को पड़त हैं | अब हम तो चाहित  है छुटकारा ई बार -बार के जन्म मरण से , तो सोची की बता ही दें |    तो बात दरअसल ई है  बबुआ कि  ये जो आजकल शादी ब्याह में फोटो खींचत हैं ना उ हमको तनिको नाहीं सुहात हैं | ऊ स्टेज पर ही दूल्हा -दुल्हन को ऐसे सटा के बिठा देत हैं कि लाजें से आँखे झुक जात हैं | ऊपर बार -बार कहत हैं अब हाथ पकड़ के फोटो खिचाव , अब गले में बाहें डाल के खिचाव , अब कंधे पे सर रख के खिचाव , और दूनो जैनों,  माने कि  दूल्हा दुल्हन खी -खी करत खिचात राहत हैं | हम बड़े बुजर्गन का तनिको संकोच नाही  रह गया है | पहिले का जमाना का भला था | बुजर्गन की आशीर्वाद देत भये फोटो खिचत थी | अब काहे का आशीर्वाद , बुजर्गन को तो स्टेज पर चढ़ीबे का मौका ही नाहीं मिलता है , आशीर्वाद का दें | हमहूँ मुन्ना की शादी किये राहे  तब तो सबका एक -एक करी के बड़ी इज्ज़त देई -देई के स्टेजवा पर बुलात थे , स्टेज पर बुलाई जान वाली महरारु अइसन लजात थीं की मानो उनही का बियाह हो रहा हुई | अरे मुन्ना की शादी में पप्पू की अम्माँ को दुई बार बुलाये रहे , वो लजात हि राही और हम उके बाद भूले गयी, का है काम काज में काम भी बहुत होत हैं , फिर तो अइसन नाराज़ भइ की चार साल तक बातहू ना कीन्ह रहीं , पप्पू की शादी मा भी मुँह लुकाय -लुकाय डोलत  रहीं | पर आज का बाल बच्चा समझदार हैं | जानत है स्टेज पर तो फोटो शूट चलिहे , तो आपन -आपन मोबाइल से दुई चार लोगन के साथ आपन फोटू खीच के खुदही रख लेत है | सही है इत्ता -महंगा कपड़ा पहिनो , तरह -तरह की डिजाइन बनाय के साज श्रृंगार करो और फोटू  एकहू ना आय तो का फायदा | हमहूँ को मुन्ना की बहु दुई हज़ार की धोती खरीद के दीन रही , सब ऊँच -नीच भी समझाय  दीन रही , मोबाइल से फोटो भी खींच दींन  रही | फिर भी तुम लोग तो जानत हइयो कि परंपरा भी कोई चीज होत है , तो आशीर्वाद की परंपरा राखिबे की खातिर   हमहूँ स्टेज पर चढ़ने की कोशिश कीं राहे , अब तुम सब जानत हुइयो कि ई उमर मा घुटन्वा कितना पिरात हैं , काहे  की कोई न कोई बुजुर्ग तो रहिबे करी तुम्हार लोगन का घर मा | तो  जब हम घुटना पकड़ के चढ़ीबे की कोशीश करत राहीं तो ऊ फोटो ग्राफर हम का ऐसन घूरन  कि लागन लाग कि अबैहे कच्चा ही चबा  जाहिए | तो हम तो भईया तुरंत ही जाई के आपन सीट पर दुबक गए | अब ईहे दशा रह गयी है बुजर्गन की , रोटी खाओ और राम भजो , बोलो कछु नाहीं  |         चलो ऊ भी छोड़ दे तो एक बात तो कहे बिना हमसे ना रहा जाई , ई जो  तुम लोग का काहत हो , अरे उही शादी के पहले की  फोटो खीचन को ….उ प्री वेल्डिंग फोटो शूट , उको सभी बरात -जनात के सामने अइसन बड़ा सा टी वी में दिखात हो कि जी मा धुकधुकी होन लागत है कि सबै कुछ तो खींच डाल तो अब ई वरमाला -अर्माला की जरूरत का रह गयी |  अरे ऊ फोटो खिचन वाले को तो  फोटो खींचन वाले का तो पैसा मिलत है , उ का बस चले तो शादी के बाद के सारे कार्यक्रम भी स्टेजवा पर मनवा दे | राम -राम , एक हमरा जमाना था , शादी के दुई साल बीत गए मुन्ना की अम्माँ भी बन गए पर मजाल है कि मुन्ना के बाबूजी का चेहरा भी ठीक से देखा हो | अरे सभ्यता संस्कार भी कौन्हो चीज होत है की नाहीं | हमने तो अपने जी की कह ली , अब समझना तो तुम्हीं लोगन का है | अब ज्यादा बात करन का टेम  नहीं है अपने पास , ऊ का है ना अभी दूसरी शादी मा भी जाना है , ई भी घरही की है | अब जाने से पहिले घुटनों की मालिश भी तो करी के पड़ी |  वो का है कि आजकल ऊ डी जे पर बुजुर्गन को भी तो नचा देत हैं | पिछली बार सब बहुअन ने मिल के नचवा दीन ,ऊ झिन , झिन , झिन , झिन पे ,  तो ई बार थोड़ी तैयारी से जईये | का है की जमाना बदल रहा है ना तो बुजुर्गंन  को भी बदलना पड़त है | है की नाही चलो , खूब खुश रहो , मौज करो | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……. खुद को अतिव्यस्त दिखाना का मनोरोग क्यों लुभाते हैं फेसबुक पर बने रिश्ते                         आंटी अंकल की पार्टी और महिला दिवस                                      गोलगप्पा संस्कृति आपको  लेख “ दादी कानपुर वाली -दादी और फोटो शूट  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि … Read more

कुम्हार और बदलते व्यापार का समीकरण

दीपावली की बात करते ही मेरे जेहन में बचपन की दीवाली आ जाती है | वो माँ के हाथ के बनाये पकवान , वो रिश्तेदारों का आना -जाना , वो प्रसाद की प्लेटों का एक घर से दूसरे घर में जाना और साथ ही घर आँगन बालकनी में टिम-टिम करते सितारों की तरह अपनी जगमगाहट से  अमावस की काली रात से लोहा लेते मिटटी के दिए | मिटटी के दिए याद आते ही एक हूक  सी उठती है क्योंकि वो अब हमारा घर आँगन रोशन नहीं करते | वो जगह बिजली की झालरों ने ले ली है |  कुम्हारों को समझना होगा बदलते व्यापार का समीकरण  मिटटी के दिए का स्थान बिजली की झालरों द्वारा ले लेने के कारण अक्सर कुम्हारों की बदहाली का वास्ता देते हुए इन्हीं को ज्यादा से ज्यादा खरीदने से सम्बंधित लेख आते रहे हैं ताकि कुम्हारों के जीवन में भी कुछ रोशिनी हो सके | मैं स्वयं भी ऐसी ही एक भावनात्मक परिस्थिति से गुजरी जब मैंने “मंगतलाल की दिवाली “कविता लिखी | कविता को साइट पर पोस्ट करने के बाद आदरणीय नागेश्वरी राव जी का फोन आया | उन्होंने कविता के लिए बहुत बधाई दी साथ ही यह भी कहा आप कि कविता संवेदना के उच्च स्तर पर तो जाती है पर क्या इस संवेदना से वो जमाना वापस आ सकता है बेहतर हो कि हम कुम्हारों के लिए नए रोजगार की बात करें | साहित्य का काम नयी दिशा देना भी है | जब मैंने उनकी बात पर गौर किया तो ये बात मुझे भी सही लगी | मिटटी के दिए हमारी परंपरा का हिस्सा हैं इसलिए पूजन में वह हमेशा रहेंगे | मंदिर में व् लक्ष्मी जी के आगे वही जलाये जायेंगे | शगुन के तौर पर बालकनी में व् कमरों में थोड़े दीपक जलेंगे परन्तु बालकनी में या घर के बाहर जो बिजली की सजावट होने लगी है वो आगे भी जारी ही रहेगी , क्योंकि पहले सभी मिटटी के दिए जलाते थे  इसलिए हर घर में उजास उतना ही रहता था | दूसरे तब घरके बाहर इतना प्रदूषण नहीं रहता था , इस कारण बार -बार बाहर जा कर हम दीयों में तेल भरते रहते थे , और दिए जलते रहते थे | अब थोड़ी शाम गहराते ही इतना प्रदूषण हो जाता है कि बार -बार घर के बाहर निकलने का मन नहीं करता | ऐसे में बिजलीकी झालरें सही लगती हैं | तो मुख्य मुद्दा ये हैं कि हमें कुम्हारों को दिए के स्थान पर कुछ ऐसा बनाने के लिए प्रेरित करना चाहिए जो साल भर बिके  | दीवाली में दिए बनाये अवश्य पर उनकी संख्या कम करें ताकि भारी नुक्सान ना उठाना पड़े | हमेशा से रहा है नए और पुराने के मध्य संघर्ष  अगर आप ध्यान देंगे तो ये समस्या केवल कुम्हारों के साथ नहीं है जब भी कोई नयी उन्नत टेक्नोलोजी की चीज आती है तो पुरानी व् नयी में संघर्ष होता ही है | ऐसी ही एक फिल्म थी नया दौर जिसमें टैक्सी और तांगे  के बीच में संघर्ष हुआ था | फिल्म में दिलीप कुमार तांगे वाला बना था और उसकी जीत दिखाई गयी थी | जो उस समय के लोंगों को वाकई बहुत अच्छी लगी थी , परन्तु हम सब जानते हैं कि तांगे बंद हुए और ऑटो , टैक्सी आदि चलीं |  यही हाल मेट्रो  आने पर ऑटो के कम इस्तेमाल से होने लगा | जहाँ मेट्रो जाती है लोग ऑटो के स्थान पर उसे वरीयता देते हैं , क्योंकि किराया कम है व् सुविधा ज्यादा है | फोन आने पर तार बंद हुआ | मोबाइल आने पर पी .सी .ओ बंद हुए | मुझे याद है राँची  में जब हमारे यहाँ लैंडलाइन फोन नहीं था तब हम घर केवल ये बताने के लिए हम ठीक हैं १५ मिनट पैदल चल कर पी सी ओ जाते थे , फिर लम्बी -लम्बी लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार करते थे | जिन लोगों ने पीसी ओ बूथ लगाए उन सब की दुकाने बंद हुई | मेरा पहला नोकिया फोन जो उस समय मुझे अपनी जरूरत से कहीं ज्यादा लगता था कि तुलना में आज के महंगे स्मार्ट फोन में भी मैं कुछ कमियाँ ढूंढ लेती हूँ | सीखने होंगे  व्यापर के नियम  कहने का तात्पर्य ये है कि जब भी कोई व्यक्ति कुछ बेंच रहा है …. तो उसे व्यापर में होने वाले बदलाव पर ध्यान रखना होगा  और उसी के अनुसार निर्णय लेना होगा | ये नियम हर व्यापारी पर लागू होता है चाहें वो सब्जी बेचनें वाला हो , दिए बेंचने वाला हो या अम्बानी जैसा बड़ा व्यापारी हो | व्यापर बदलते समय की नब्ज को पकड़ने का काम है , अन्यथा नुक्सान तय है | जैसा कि कई लोग उस व्यापर में पैसा लगते हैं जो कुछ समय बाद  खत्म होने वाला होता है , ऐसे में लाभ की उम्मीद कैसे कर सकते हैं | समय को समझना हम सब का काम है , क्योंकि वो हमारे लिए इंतज़ार नहीं करेगा | अगर आप नौकरी में भी हैं तो आने वाले समय में कुछ नौकरियां भी खतरे में है …. 1) ड्राइवर — टेस्ला इलेक्ट्रिक से चलने वाली कारें बाज़ार में उतार चुका है | जैसे -जैसे ये टेक्नोलोजी सस्ती होगी प्रचुर मात्र में अपनाई जायेगी | ऑटो , टैक्सी ड्राइवर की नौकरीयाँ तेजी से घटेंगी | 2)बैक जॉब्स – जैसे -जैसे ऑनलाइन बैंकिंग ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल होने लगी है जिस कारण लोगों का बैंक जाना कम हो रहा है | अत : भविष्य में बैंक क्लर्क के जॉब घटेंगे | 3)प्रिंटिंग प्रेस – आज भले ही हम अपनी किताब छपवाने की चाहते रखते हो पर भविष्य में बुक की जगह इ बुक लेंगीं क्योंकि छोटे होते घरों में इतनी किताबें रखने की जगह नहीं होगी | अभी ही मुझ जैसे पुस्तक प्रेमियों को ये सोचना पड़ता है कि जितनी किताबें मैं खरीदती हूँ उन्हें किसी पुस्तकालय को दे दूँ | दूसरी बात ये भी है जब पुस्तकें फोन पर होंगीं तो आप यात्रा में बिना भार बढाए ले जा सकते हैं | तीसरे किताबें कम छपने से पेपर की बचत होगी … हालांकि एक प्लास्टिक पेपर पर … Read more