वो कन्नौज की यादगार दीपावली

यूँ तो हर बार दिवाली बहुत खास होती है पर उनमें से कुछ होती हैं जो स्मृतियों के आँगन में किसी खूबसूरत रंगोली की तरह ऐसे सज जाती हैं कि हर दीवाली पर मन एक बार जाकर उन्हें निहार ही लेता है | ऐसी ही दीवालियों में एक थी मेरे बचपन में मनाई गयी कन्नौज की दीपावली | वो कन्नौज की यादगार  दीपावली कन्नौज यूँ तो कानपुर के पास बसा एक छोटा शहर है पर इतिहास में दर्ज है कि वो कभी सत्ता का प्रतीक रहा था | राजा हर्षवर्धन के जमाने में कन्नौज की बहुत शान हुआ करती थी | शायद उस समय लडकियां चाहती थी कि हमारी शादी कन्नौज में ही हो , तभी तो, “कन्नौज –कन्नौज मत करो बिटिया कन्नौज है बड़े मोल “जैसे लोक गीत प्रचलित हुए , जो आज भी विवाह में ढोलक की थाप पर खूब गाये जाते हैं | खैर हमारी दोनों बुआयें  इस मामले में भाग्यशाली रहीं कि वो कन्नौज ही बयाही गयीं | तो अब स्मृति एक्सप्रेस को दौडाते हुए  आते हैं कन्नौज की दीवाली पर … बात तब की है जब मैं कक्षा पाँच में पढ़ती थी | दीपावली पर हमारी बड़ी बुआ , जो की लखनऊ में रहती थीं अपने परिवार के साथ कन्नौज अपने पैतृक घर में दीपावली मनाने जाती थी | उस बार वो जाते समय हमारे घर कुछ दिन के लिए ठहरीं, आगे कन्नौज जाने का विचार था |बड़ी बुआ की बेटियाँ मेरी व् मेरी दीदी की हम उम्र थीं | हम लोगों में बहुत बनती थीं | हम लोग साथ –साथ खेलते , खाते –पीते और लड़ते थे |वो दोनों अक्सर कन्नौज की दीवाली की तारीफ़ किया करती थीं | जैसी दीवाली वहां मनती है कहीं नहीं मनती |फिर वो दोनों जिद करने लगीं कि हम भी वहां चल कर वैसी ही दीपावली मनाएं | हमारा बाल मन जाने को उत्सुक हो गया परन्तु हमें माँ को छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा था | इससे पहले हम बिना माँ के कभी रहे ही नहीं थे , पर बुआ ने लाड –दुलार से हमें राजी कर ही लिया | जैसे ही हमारी कार घर से थोडा आगे बढ़ी मैंने रोना शुरू कर दिया , मम्मी छूटी जा रहीं हैं | दीदी ने समझाया , बुआ ने समझाया फिर जा कर मन शांत हुआ | उस दिन मुझे पहली बार लगा कि लडकियाँ  विदाई में रोती क्यों हैं | खैर हँसते -रोते हम कन्नौज पहुचे | बुआ की बेटी ने बड़े शान से बताया ,” यहाँ तो मेरे बाबा का नाम भी किसी रिक्शेवाले के सामने ले दोगी   तो वो सीधे मेरे घर छोड़ कर आएगा , इतने फेमस हैं हम लोग यहाँ “| मन में सुखद  आश्चर्य हुआ ,ये तो पता था की बुआ बहुत अमीर हैं पर उस समय  लगा किसी राजा के राजमहल में जा रहे हैं, जहाँ दरवाजे पर संतरी खड़े होंगें जो पिपहरी बजा रहे होंगे और फूलों से लदे हाथी हमारे ऊपर पुष्प वर्षा करेंगे | बाल मन की सुखद कल्पना के विपरीत , वहां संतरी तो नहीं पर कारखाने के कई कर्मचारी जरूर खड़े  थे | तभी दादी ( बुआ की सासु माँ )लाठी टेकती आयीं |  दादी ने हम लोगों का बहुत स्वागत व दुलार किया  और हम लोग खेल में मगन हो गए |  क्योंकि मेरी बुआ काफी सम्पन्न परिवार की थीं | उनका इत्र  का कारोबार था | वहां का इत्र  देश के कोने -कोने में जाता था | इसलिए वहाँ की दीपावली हमारे घर की दीपावली से भिन्न थी | पकवान बनाने के लिए कई महराजिन लगीं  हुई थी , बुआ बस इंतजाम देख रहीं थीं | जबकि मैंने अपने घर में यही देखा था कि दीवाली हो या होली, माँ अल सुबह उठ कर जो रसोई में घुसतीं तो देर  शाम तक निकलती ही नहीं थीं | माँ की रसोई में भगवान् का भोग लगाए जाने से पहले हम बच्चे भोग लगा ही देते … और बीच -बीच में जा कर भोग लगाते ही रहते | माँ प्यार में डपट लगा तीं पर वो जानतीं थीं कि बच्चे मानेंगे नहीं , इसलिए भगवान् के नाम पर हर पकवान के पहले पांच पीस निकाल कर अलग रख देंती थी ,ताकि बच्चों को भगवान् से पहले खाने के लिए ज्यादा टोंकना  ना पड़े | परन्तु यहाँ पर स्थिति दूसरी थी | दादी , बुआ दादी और महाराजिनों की उपस्थिति  हम में संकोच भर रही थी, लिहाज़ा हम ने तय कर लिया चलो इस बार भगवान् को पहले खाने देते हैं |  त्यौहार के दिन पूरा घर बिजली  जगमग रोशिनी से नहा गया | आज तो लगभग हर घर में इतनी ही झालरे लगती हैं पर तब वो जमाना किफायत का था | आम लोग हलकी सी झालर लगाते थे, ज्यादातर घरों में दिए ही जलते थे | इतनी लाईट देखकर मैंने सोचा ,” क्या यहाँ लाईट नहीं जाती है |” बाद में पता चला की लाईट तो जाती है पर जनरेटर वो सारा बोझ उठा लेता है | दीपावली वाले दिन हम सब को एक बड़ी डलिया  भर के पटाखे जलाने को मिले | बुआ की बेटी ने कहा, ” इतने पटाखे कभी देखे भी हैं ? ” मैंने डलिया में देखा ,वास्तव में हमारे घर में कुल मिला कर इससे कम पटाखे ही आते थे | एक कारण ये भी था कि मैं और दीदी पटाखे छुडाते नहीं थे , बस भाई लोग थोड़े शगुन के छुड़ाते थे , बहुत शौक उन्हें भी नहीं था | पिताजी हमेशा समझाया करते थे कि ये धन का अपव्यय है और हम सब बिना तर्क  दिए मान लेते | खैर , मैंने  उससे कहा , “मैं पटाखे छुड़ाती ही नहीं |” उसने कहा  इस बार छुडाना फिर देखना अभी तक की सारी दीवाली भूल जाओगी | शाम को हम सब पटाखे ले कर घर के बाहर पहुंचे | उस बार पहली बार मैंने पटाखे छुडाये | या यूँ कहे पहली बार पटाखे छुडाना सीखा | थोड़ी देर डरते हुए पटाखे छुड़ाने के बाद मैं इस कला में पारंगत हो गयी | हाथ में सीको बम लेकर आग लगा कर दूर फेंक देती और बम भड़ाम की आवाज़ के … Read more

फिल्म बधाई हो के बहाने लेट प्रेगनेंसी पर एक चर्चा

“पूत भये और पूत बियाहे ” किसी भी व्यक्ति की जिन्दगी के दो सबसे सुखद पल माने जाते हैं | तभी तो बच्चों के ब्याह की तमाम तामझाम के बाद नव दम्पत्ति से मिलने वाला का पहला सवाल होता है ,”भाई खुशखबरी कब सुना रहे हो ?” और इसका  उत्तर हां में पा कर  ” बधाई हो ” कहने वालों का ताँता लग जाता है  , हम प्रेगनेंसी का स्वागत करते हैं परन्तु जब यह प्रेगनेंसी अधेड़ावस्था में बिन बुलाये मेहमान की तरह आ जाए तो क्या तब भी हमारा  उनको “बधाई हो ” कहने का सुर वही रहता है ? फिल्म बधाई हो के बहाने लेट प्रेगनेंसी पर एक चर्चा  अभी हाल में आयुष्मान की एक फिल्म रिलीज हुई है “बधाई हो”… फिल्म में एक माध्यम वर्गीय परिवार में तब भूचाल आ जाता है जब एक अधेड़ दम्पत्ति ( नीना गुप्ता व् गजराज राव )  को पता चलता है कि उनके तीसरा बच्चा होने वाला है | उन्हें ये बात अपने युवा पुत्रों व् माँ पड़ोसियों को बताने में किस शर्मिंदगी से गुज़रना पड़ता है … इसका सटीक चित्रण है | बच्चों को भी अपने स्कूल , ऑफिस में व्यंग बानों को झेलना पड़ता है |  बड़े बेटे आयुष्मान खुराना की लव लाइफ भी डांवाडोल  होती है | बच्चे और सासू माँ एक तरह से दम्पत्ति का बायकॉट कर देते हैं | अंतत: पूरा परिवार एक जुट  होता है और सब खुले दिल से बच्चे का स्वागत करते हैं | लेट प्रेगनेंसी -ये दोहरी मानसिकता किस लिए  यूँ तो यह एक हास्य फिल्म है पर इसमें लेट प्रेगनेंसी जैसे गंभीर मुद्दे को उठाया गया है | गंभीर इस लिए कि हमारे देश में अभी भी महिलाओं को मीनोपॉज़ के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है | उनको जानकारी नहीं है कि मनोपॉज़ का एक लम्बा साइकिल होता है जिसमें पर्याप्त इंतजाम ना करने से कभी भी प्रेगनेंसी ठहर सकती है |                            प्रेगनेंसी ठहरना तो एक बात है पर लेट प्रेगनेंसी को लोग अभी भी मजाक के तौर पर लेते हैं |क्योंकि हमारे देश में अभी भी आने वाले बच्चे का तो स्वागत किया जाता है पर वो बच्चा पति –पत्नी के जिस प्रेम के कारण दुनिया में आता है इस बात  पर लोग अपनी अनभिज्ञता दिखाते हैं या यूँ कहिये कि वो इस विषय पर बात करना ही नहीं चाहते और अभी भी बच्चे तो भगवान् की देंन  हैं जैसा सामाजिक मुखौटा ओढ़े रहते हैं | लेट प्रेगनेंसी में अजीब सी हास्यास्पद स्थिति इस लिए आती है क्योंकि लोग ये दिखाते हैं कि ४० की उम्र के बाद पति –पत्नी एक दूसरे के साथ किसी प्रकार का कोई शारीरिक रिश्ता नहीं रखते , बल्कि वो एक दूसरे के साथ रहते हुएभी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं | जबकि हकीकत में ऐसा नहीं है ये बात हर कपल जानता है | परन्तु दूसरे की प्रेगनेंसी की बात सामने आने पर ” छुपा रुस्तम ” का खिताब देने से नहीं चूकता | यह दोहरी मानसिकता जहाँ हास्य पैदा करती हैं वहीँ इस सत्य को भी उजागर करतीहै कि ऐसे स्थिति में किसी परिवार के लोगों को किस मानसिक उलझन से गुजरना पड़ता है | इस दोहरी मानसिकता का एक अच्छा कटाक्ष फिल्म में नायिका की माँ व् नायिका के बीच का संवाद है | नायिका की माँ प्रेगनेंसी के बारे में पूछती हैं कि ऐसे कैसे? और नायिका मासूमियत के साथ उत्तर देती है , “ आई थिंक जैसे होता है वैसे” क्या है लेट प्रेगनेंसी के खतरे  फिल्म देखते समय मुझे भी ऐसे कई चेहरे याद आये जिनके दो बच्चे थे और ४० -५० की उम्र में बिना प्लानिंग के तीसरा बच्चा आ गया | जहाँ पहले के दो बच्चों में दो या तीन साल का अंतर था वहीँ तीसरे बच्चे में १७ -१८ साल का अंतर | कितने ताने सुनने पड़ते थे उन्हें …टी वी नहीं देखते हो क्या , कोई नियंतरण ही नहीं है , अरे बच्चों को अपने बीच में सुलाया करो | मजाक के बीच कभी इस समस्या को समझने की कोशिश ही नहीं की , कि महिलाओं को मीनोपॉज़ के बारे में ठीक से जानकारी नहीं होती , या इसमें  कितने हेल्थ कंप्लीकेशन हो सकते हैं या माता –पिता को बच्चे के लालन –पालन के बारे में कितनी चिंता  होगी | मीनोपॉज़ का साइकिल ४ या ५ साल चलता है जिसमें मासिक धर्म अनियमित हो जाता है कई बार एक -दो पीरियड्स मिस करने केव बाद महिला समझ लेती है कि उसे मीनोपॉज़ हो गया है परन्तु हुआ नहीं होता है | इस समय में प्रेगनेंसी ठहरने का खतरा होता है | डॉक्टरों के मुताबिक एक साल तक जब पीरियड ना आयें तब मीनोपॉज़ माना जाए उससे पहले को प्रीमीनोपॉज़ में में रखा जाता है | दूसरी तरफ लेट प्रेगनेंसी में महिला के शरीर में कैल्सियम कम होने के कारण शिशु  का ठीक से विकास मुश्किल होता है वहीँ मानसिक बाधित शिशु होने क सम्भावना अधिक होती है | लेट प्रेगनेंसी में महिला को हार्ट अटैक की सम्भावना भी ज्यादा होती है | वैसे आज के ज़माने में लेट प्रेगनेंसी  में डॉक्टर की निगरानी में कोम्प्लिकेशन से बचा जा सकता है | बस जरूरत है सही देखभाल की |  उम्मीद है ये सब कारण जानने  के बाद आप किसी की लेट प्रेगनेंसी पर “बधाई हो ” कहने के बाद मजाक उड़ाने केस्थान पर आप उस दम्पत्ति के साथ पूरी संवेदनाओं के साथ खड़े होंगे | वैसे भी किसी बच्चे को दुनिया में लाने का निर्णय एक महिला का और उसके परिवार का मिउल कर लिया हुआ निरनय होता है …. ऐसे में उन दोनों के इस निर्णय का स्वागत करना चाहिए , और कहना चाहिए …”बधाई हो “ नीलम गुप्ता  यह भी पढ़ें … ब्यूटी विथ ब्रेन – एक जेंडर बायस कॉम्प्लीमेंट  सोलमेट -असलियत या भ्रम सबरीमाला -मंदिर  –जड़ों को पर प्रहार करने से पहले जरा सोचें  क्या फेसबुक पर अतिसक्रियता रचनाशीलता में बाधा है सोल हीलिंग -कैसे बातचीत से पहचाने आत्मा में छुपे घाव को                                              आपको आपको  लेख “ फिल्म बधाई हो के बहाने लेट … Read more

सबरीमाला -मंदिर –जड़ों को पर प्रहार करने से पहले जरा सोचें

Add caption केरल के सबरीमाला क प्रसिद्द तीर्थ स्थान है |सबरीमाला का नाम महान भक्त शबरी के नाम पर है जिसने प्रेम व् भक्ति के  वशीभूत हो कर प्रभु राम को झूठे बेर खिलाये थे | यहीं पर अयप्पा स्वामी का विश्व प्रसिद्द मंदिर है | इस मंदिर में  ब्रह्मचारी व्रत का पालन करने वाले हरि और हर के पुत्र अयप्पा स्वामी  की पूजा होती है | लाखों भक्त यहाँ पूजा -अर्चना के लिए आते हैं | आइये जाने सबरीमाला मंदिर के बारे में                                   सबरी माला का मंदिर चारों तरफ से पहाड़ियों से पश्चिमी घाट की पर्वत श्रृंखला सहाद्री  घिरा हुआ है | घने जंगलों , ऊँची -ऊँची पहाड़ियों और जंगली जानवरों के बीच से होते हुए यहाँ जाना होता है | इस लिए यहाँ साल भर कोई नहीं जाता | यहाँ जाने का खास मौसम होता है | मंदिर ९१४ किलोमीटर की ऊंचाई पर है | जो लोग यहाँ आते हैं उन्हें ४१ दिन तक कठिन साधना व्रह्तम से गुज़ारना होता है | जिसमें उन्हें पूरी तरह से सात्विक व् शुद्ध रहना होता है | तामसिक भोजन , काम , क्रोध , मोह का त्याग कर ब्रह्मचारी व्रत का पालन करना होता है |  इस मंदिर के द्वार मलयालम पंचांग के पहले पांच दिनों यानी विशु माह (अप्रैल ) में खोले जाते हैं | १५ नवम्बर मंडलम और १४ जनवरी का मकर विल्क्कू ये इसके प्रमुख त्यौहार हैं |बताया जाता है कि मकर संक्रांति की रात घने अँधेरे में रह -रह कर एक रोशिनी दिखयी देती है जिसे मकर विल्क्कू कहते हैं , इसके साथ कुछ आवाज़ भी आती है | इस के दर्शन करना बहुत शुभ माना  जाता है | मान्यता है कि ये देवज्योति भगवान् जलाते हैं | जैसा की हम सब जानते हैं कि दक्षिण में शैव व् वैष्णव भक्तों के बीच अक्सर युद्ध होते रहते थे | अयप्पा ही वो भगवान् हैं जीने कारण दोनों समुदायों में एकता स्थापित हुई | इसलिए यहाँ हर जाति धर्म के लोग जा सकते हैं |  १८ पावन सीढियां                     मंदिर में दर्शन करने के लिए १८ पावन सीडियों कोपार करना पड़ता है | पहली पांच सीढियाँ पांच इंदियों को वश में करने का प्रतीक हैं | बाद को आठ मानवीय भावनाओं की प्रतीक हैं | फिर  थीं सीडियां मानवीय गुण और अंतिम दो ज्ञान और अज्ञान की प्रतीक हैं | श्रद्धालु सर पर पोटली रख कर जाते हैं जिसमें नैवैद्ध ( भगवान् को लगाया जाने वाला भोग ) होता है | जिहें पुजारी भवान को सपर्श करा कर वापस कर देता है |  कौन हैं भगवान् अयप्पा  भगवान् अयप्पा हरि यानी विष्णु और हर यानी शिव के पुत्र हैं | मान्यता के अनुसार जब भगवान् विष्णु ने भस्मासुर राक्षस से शिव भगवान् को बचने के लिए मोहिनी रूप रखा था तब भस्मासुर के भस्म हो जाने के बाद शिव और विष्णु की शक्तियों के मिलन  से अयप्पा  का जन्म हुआ | उनके जन्म के पीछे एक दैवीय उद्देश्य था | दरअसल उस समय उस इलाके में एक राक्षसी मलिकपुरात्मा का आतंक था | उसे वरदान प्राप्त था कि वो केवल हरि  और हर के पुत्र से ही मारी जायेगी | भगवान् अयप्पा ने उससे युद्ध किया और उसे परास्त किया | परास्त होने के बाद वो राक्षसी एक साधारण युवती में बदल गयी | वो साधारण युवती भगवान् अयप्पा पर मोहित हो उन्हें प्रेम करने लगी | उसने अयप्पा से विवाह करने की इच्छा जाहिर की | अयप्पा ने उन्हें बताया कि उन्होंने बरह्मचारी होने का संकल्प लिया है और उनका जन्म भक्तों की कामनाएं पूर्ण करने के लिए हुआ है, परन्तु युवती नहीं मानी, उसने संकल्प लिया कि जब तक अयप्पा उसे नहीं अपनाएंगे वो कुवारी रहेगी  | अंत में उसके प्रेम व् त्याग को देखकर अयप्पा ने उससे वादा किया कि वो  पहले तो अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण करेंगे , जब नए भक्त आना बंद हो जायेंगे तब वो उसे अपनाएंगे | कहा जाता है कि तबसे वो वहीँ प्रतीक्षा कर रही है | मुख्य मंदिर के मार्ग में एक उसका भी कक्ष पड़ता है जहाँ प्रतीक्षारत मलिकपुरात्मा रहती हैं | स्त्रियों का प्रवेश निषेध उसके प्रेम को सम्मान देने के लिए किया गया है , क्योंकि अयप्पा ने कसम खायी थी कि वो तब तक किसी अन्य महिला से नहीं मिलेंगे | अयप्पा की अन्य कथा  एक अन्य कथा के अनुसार अयप्पा एक राजकुमार थे उन्होंने एक अरब वावर से अपने राज्य की रक्षा की थी | बाद में सब कुछ त्याग कर संन्यास ले लिया , उनके सन्यास में महिलाओं से ना मिलना भी शामिल था | बाद  में वावर उनका भक्त हो गया, और उसने संकल्प लिया की वो हर हाल में उस आश्रम की शुचिता बना कर रखेगा और वहां आने वाले भक्तों की रक्षा करेगा | इसी कारण  महिलाओं को अभी भी मंदिर में जाने की इजाजत नहीं है | सबरीमाला और महिलाओं के प्रवेश का मुद्दा  सबरीमाला मंदिर मंदिर आजकल चर्चा में है | मंदिर में १० से ५० वर्ष की आयु की महिलाओं के प्रवेश प्रतिबंधित है | सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी महिलाओं के प्रवेश न करने देने के कारण इसकी चर्चा और बढ़ गयी | महिलाओं में खासा रोष है, क्योंकि उन्होंने इसे महिलाओं के ऋतु चक्र से जोड़ कर देखा , प्रचार भी ऐसा ही हुआ  | महिलाओं का रोष स्वाभाविक भी है क्योंकि जिस रक्त और कोख का सहारा भगवान् भी जन्म लेने के लिए करते हैं ये सरासर उसका अपमान है | बात सही है | मंदिर में प्रवेश की मांग करने वाली ज्यादातर  महिलाएं इस मंदिर और उसकी मान्यताओं से परिचित नहीं हैं |    सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा की हिन्दू धर्म में मंदिर में महिलाओं का प्रवेश निषेध नहीं है | महिलाएं सामाजिक मान्यता के चलते मासिक के दिनों में मंदिर में प्रवेश नहीं करती हैं, अब जब की महिलाओं द्वारा खुद को साफ सुथरा रखने के तरीके मौजूद हैं तो वे स्वेक्षा से ये निर्णय लें सकती हैं कि वो मंदिर में जाए … Read more

हैलोवीन -हँसता खिलखिलाता भूतिया त्यौहार

                                     भूतिया  त्यौहार वो भी हँसता खिलखिलाता , जरूर आप भी  हैरत में पड़ गए होंगे | जब मैंने  भी हैलोवीन के बारे में पहली बार जाना तो मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा | दरअसल पश्चिमी देशों में इसाई समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला ये त्यौहार ही ऐसा है जहाँ लोग भूत बन कर  एक दूसरे को डराते  हैं और बदले में उन्हें मिलते हैं गिफ्ट | अब हमारे देश में होली में भी तो यही होता है , पहले रंग फेंकते हैं फिर गले मिल कर सारे गिले शिकवे भूल जाते हैं | तो आइये आज जानते हैं हैलोवीन के बारे में … हैलोवीन -हँसता खिलखिलाता भूतिया  त्यौहार                          हैलोवीन के कई नाम है जैसे …आल हेलोस इवनिंग , आल हेलोस ईव और आल सेंटर्स ईव |हैलोवीन को सेल्टिक कैलेंडर का आखिरी दिन भी होता है इसलिए सेल्टिक लोग इसे नए वर्ष के रूपमें भी मनाते हैं | पहले इसे सेल्ट्स लोग ही मनाते थे पर जैसे -जैसे ये लोग इंग्लैंड , स्कॉटलैंड अमेरिका में रहने लगे ये वहां भी ये त्यौहार मनाने लगे , जिससे वहां के निवासी भी इससे परिचित हुए | इस त्यौहार के रोमांच व् विनोदप्रियता को देखते हुए जल्दी ही और लोगों ने इसे अपना लिया | आज ये यूरोप और अमेरिका का प्रमुख त्यौहार बन गया है | आप ने भी अभी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूप द्वारा हैलोवीन की शुभकामनाएं देने वाले सन्देश जरूर पढ़े होंगे | कब मनाते हैं हैलोवीन                          हैलोवीन का त्यौहार अक्टूबर महीने के आखिरी दिन मनाया जाता है | इस साल भी ये त्यौहार ३१ अक्टूबर को मनाया जायेगा | क्यों मनाया जाता है हैलोवीन                                  मुख्य रूप से हैलोवीन किसानों का त्यौहार है |  ये फसल पकने का समय है | इस समय किसानों को डर रहता है कि भूत -प्रेत आकर कहीं उनकी फसल को नष्ट ना कर दें , इसलिए वो स्वयं भूत -प्रेत बन कर उन्हें डराते का प्रयास करते हैं | इस पूरी तैयारी में बड़ा ही रोमांचक माहौल बन जाता है | हैलोवीन का इतिहास                         अगर इतिहास को खंगालें तो लगभग २००० साल पहले सेल्टिक त्यौहार आल सेंट्स डे एक नवम्बर को मनाया जाता है | इतिहास के अनुसार  गेलिक परम्परायों को मानने वाले  लोग जो सैम्हें का त्यौहार मनाते थे वो भी कुछ ऐसा ही होता था | वो लोग इसे ठण्ड की शुरुआत का पहला दिन मानते थे | उनके अनुसार ये ऐसा दिन था जिस दिन प्रेत आत्माएं धरती पर आती हैं और धरती वासियों के लिए बहुत मुश्किल खड़ी  करती हैं | इन्बुरी आत्माओं को डरा कर भगाने के लिए लोग राक्षसों जैसे कपडे पहनते हैं , जगह -जगह अलाव जलाते हैं व् एक दूसरे पर हड्डी आदि फेंक देते हैं |                       इसी धर्म के आने के बाद ईसाईयों द्वारा आल सेंट्स डे से एक रात पहले आल हैलोवीम ईव मनाई जाती थी | कालांतर में ये दोनों त्यौहार एक हो गए और हैलोवीन का त्यौहार अपने आधुनिक रूप में अस्तित्व में आया | कैसे मानते हैं हैलोवीन पारंपरिक रूप से हैलोवीन मनाने के  लिए इन चार तरीकों का समावेश होता है | ट्रिक और ट्रीटिंग जैक ओ लेंटर्न बना कर विविध वेश भूषा व् खेल पारंपरिक व्यंजन ट्रिक और ट्रीटिंग               ये हैलोवीन का सबसे पुराना व मुख्य भाग है |इसमें लोग डरावने कपड़े पहनते हैं और घर -घर जा कर कैंडी बांटते हैं | इसमें बच्चे कद्दू के आकर के बैग लेकर घर -घर जाते हैं और दरवाजा खटखटा कर कहते हैं ट्रिक और ट्रीट | घर के लोग उन्हें तरह -तरह से डराते हैं और अंत में उन्हें उपहार देते हैं | जैक ओ लेंटर्न बना कर        पुरानी परम्पराओं के अनुसार इस दिन लोग जैक ओ लेंटर्न बना कर उसे ले कर चलते हैं | इसमें एक खोखले कद्दू में आँख , नाक ,मुँह बनाते हैं फिर उसके अन्दर एक मोमबती रखते हैं | इस समय वो अपना चेहरा डरावना बना लेते हैं | बाद में इस कद्दू को दफना दिया जाता है | विविध वेश भूषा व् खेल          जैसा की पहले बता चुके हैं कि इस त्यौहार की वेशभूषा डरावनी होती है | लोग भूत , पिसाच , चुड़ैल आदि की तरह कपडे पहनते हैं और तैयार होते हैं | इस दिन कई तरह के खेल खेले जाते हैं जिसमें एप्पल बोबिंग प्रमुख है | इसमें एक बड़े से तब में पानी भर कर एप्पल को तैराते हैं और लोगों को उन्हें मुँह से उठाना होता है |इसी तरह से एक खेल भविष्यवाणी करने का होता है | इसमें लोग सेब के छिलके को किसी साथी के कंधे से टॉस कर के जमीन पर फेंकते हैं , चिल्का जिस आकर में गिरता है वही उसके भविष्य के साथी का नाम का पहला अक्षर होता है, ऐसा माना जाता है | इसी तरह से कुवारी लडकियां एक खेल खेलती हैं जिसमें मान्यता है की अँधेरे कमरे में आईने के सामने टकटकी लगाकर देर तक बैठने से होने वाले जीवनसाथी की आकृति दिखाई दे जाती है |  पारंपरिक व्यंजन      अलग -अलग देश में हैलोवीन के अलग -अलग पारंपरिक व्ययंजन होते हैं | मुख्य रूप से कद्दू के आकर के केक , पुडिंग , पॉपकॉर्न , कद्दू के भुने बीज , आत्माओं की आकृतियों वाले केक होते हैं | देशों के हिसाब से पारंपरिक भोजन निम्न हैं … आयर लैंड —बर्म ब्रेक , कैरमल कॉर्न ग्रेट ब्रिटेन ….बौन्फायर टॉफी उत्तरी अमेरिका…. कैंडी कद्दू , कैंडी एप्पल स्कॉटलैंड …..मंकी नट्स                            विशेषतौर पर आजकल हैलोवीन एक फन दिवस  के तौर पर मनाया जाता … Read more

करवाचौथ -पति -पत्नी के बीच प्रेम की अभिव्यक्ति का विरोध क्यों ?

करवाचौथ आने वाला है , उसके आने की आहट के साथ ही व्हाट्स एप पर चुटकुलों की भरमार हो गयी है | अधिकतर चुटकुले उसे व्यक्ति , त्यौहार या वस्तु पर बनते हैं जो लोकप्रिय होता है | करवाचौथ आज बहुत लोकप्रिय है इसमें कोई शक नहीं है | यूँ तो भारतीय महिलाएं जितनी भी व्रत रखतीं हैं वो सारे पति और बच्चों के लिए ही होते हैं , जो मन्नत वाले व्रत होते हैं वो भी पति और बच्चों के लिए ही होते हैं | फिर भी खास तौर से सुहाग के लिए रखे जाने वाले व्रतों में तीज व् करवाचौथ का व्रत है | दोनों ही व्रत कठिन माने जाते रहे हैं क्योकि ये निर्जल रखे जाते हैं | दोनों ही व्रतों में पूजा करते समय महिलाएं नए कपडे , जेवर आदि के साथ पूरी तरह श्रृंगार करती हैं … सुहाग के व्रतों में सिंदूर , बिंदी , टीका , मेहँदी , महावर आदि का विशेष महत्व होता है , मान्यता है कि विवाह के बाद स्त्री को करने को मिलता है इसलिए सुहाग के व्रतों में इसका महत्व है | दोनों ही व्रतों में महिलायों की पूरी शाम रसोई में पूजा के लिए बनाये जाने वाले पकवान बनाने में बीतती रही है | जहाँ तक मुझे याद है … करवाचौथ में तो नए कपड़े पहनने का भी विधान नहीं रहा है , हां कपडे साफ़ हों इतना ध्यान रखा जाता था | करवाचौथ का आधुनिक करवाचौथ के रूप में अवतार फिल्मों के कारण हुआ | जब सलमान खान और ऐश्वर्या राय ने बड़े ही रोमांटिक तरीके से ” चाँद छुपा बादल में ” के साथ इसे मनाया तो युवा पीढ़ी की इस पर नज़र गयी | उसने इसमें रोमांस के तत्व ढूंढ लिए और देखते ही देखते करवाचौथ बेहद लोकप्रिय हो गया | पहले की महिलाओं के लिए जहाँ दिन भर प्यास संभालना मुश्किल था आज पति -पत्नी दोनों इसे उत्साह से कर रहे हैं | कारण साफ है ये प्रेम की अभिव्यक्ति का एक सुनहरा अवसर बन गया | लोकप्रिय होते ही बुजुर्गों ( यहाँ उम्र से कोई लेना देना नहीं है ) की त्योरियां चढ़ गयी | पति -पत्नी के बीच प्यार ये कैसे संभव है ? और विरोध शुरू हो गया | करवाचौथी औरतों को निशाने पर लिया जाने लगा , उनका व्रत एक प्रेम का नाटक नज़र आने लगा | तरह तरह के चुटकुले बनने लगे |आज जो महिलाएं ४० वर्ष से ऊपर की हैं और वर्षों से इस व्रत को कर रहीं हैं उनका आहत होना स्वाभाविक है , वो इसके विषय में तर्क देती हैं | इन विरोधों और पक्ष के तर्कों से परे युवा पीढ़ी इसे पूरे जोश -खरोश के साथ मना रही है | दरअसल युवा पीढ़ी हमारे भारतीय सामाज के उस पूर्वाग्रहों से दूर है जहाँ दाम्पत्य व् प्रेम दोनो को अलग -अलग माना जाता रहा है | ये सच है कि माता -पिता ही अपने बच्चों की शादी जोर -शोर से करते हैं फिर उन्हें ही बहु के साथ अपने बेटे के ज्यादा देर रहने पर आपत्ति होने लगती है | बहुत ही जल्दी ‘श्रवण पूत’ को ‘जोरू के गुलाम’ की उपाधि मिल जाती है | मेरी बड़ी बुआ किस्सा सुनाया करती थी कि विवाह के दो -चार महीने बाद उन्होंने फूफाजी के मांगने पर अपने हाथ से पानी दे दिया था तो घर की औरतें बातें -बनाने लगीं , ” देखो , कैसे है अपने पति को अपने हाथ से पानी दे दिया | ” उस समाज में ये स्वीकार नहीं था कि पत्नी अपने पति को सबके सामने अपने हाथ से पानी दे , अलबत्ता आधी रात को पति के कमरे में जाने और उजेला होने से पहले लौटने की स्वतंत्रता उसे थी | ऐसा ही एक किस्सा श्रीमती मिश्रा सुनाती हैं | वो बताती हैं कि जब वो छोटी थीं तो उनकी एक रिश्तेदार ( रिश्ते के दादी -बाबा) पति -पत्नी आये जिनकी उम्र ७० वर्ष से ऊपर थी | पहले जब भी वो आते तो दादी उसके कमरे में व् बाबा बैठक में सोते थे | उस बार उसकी वार्षिक परीक्षा थीं , उसे देर रात तक पढना था तो दादी का बिस्तर भी बैठक में लगा दिया | दादी जैसे ही बैठक में सोने गयीं उलटे पाँव वापस आ कर बोली , ” अरे बिटिया ये का करा , उनके संग थोड़ी न सोइए |” उसने दादी की शंका का समाधान करते हुए कहा , ” दादी कमरा वही है पर बेड अलग हैं , यहाँ लाइट जलेगी , मुझे पढना है |” दादी किसी नयी नवेली दुल्हन की तरह लजाते हुए बोली , ना रे ना बिटिया , तुम्हरे बाबा के साथ ना सोइए , हमका तो लाज आवत है , तुम लाइट जलाय के पढो , हम का का है , मुँह को तनिक पल्ला डारि के सो जैहेये |” श्रीमती मिश्रा आज भी जब ये किस्सा सुनाती हैं तो उनका हँसते बुरा हाल हो जाता है , वह साथ में बताना नहीं भूलती कि दादी बाबा की ९ संताने हैं फिर भी वोप्रेम को सहजता से स्वीकार नहीं करते और ऐसे नाटकीय दिखावे करते हैं | कारण स्पष्ट है उस समय पति -पत्नी का रिश्ता कर्तव्य का रिश्ता माना जाता था , उनके बीच प्रेम भी होता है इसे सहजता से स्वीकार नहीं किया जाता था | औरते घर के काम करें , व्रत उपवास करें … पर प्रेम चाहे वो पति से ही क्यों न हो उसकी अभिव्यक्ति वर्जित थी | यही वो दौर था जब साहब बीबी और गुलाम टाइप की फिल्में बनती थीं … जहाँ घरवाली के होते भी बाहर वाली का आकर्षण बना रहता था | पत्नी और प्रेमिका में स्पष्ट विभाजन था | आज पत्नी और प्रेमिका की विभाजक रेखा ध्वस्त हो गयी है | इसका कारण जीवन शैली में बदलाव भी है | आज तेजी से भागती -दौड़ती जिन्दगी में पति पत्नी के पास एक दूसरे को देने का पर्याप्त वक्त नहीं होता , वही इन्टरनेट ने उनके पास एक दूसरे को धोखा देने का साधन भी बस एक क्लिक दूर कर दिया है | ऐसे में युवा पीढ़ी प्रेम के इज़हार … Read more

#Metoo से डरें नहीं साथ दें

#Metoo के रूप में समय अंगडाई ले रहा है | किसी को ना बताना , चुप रहना , आँसू पी लेना इसी में तुम्हारी और परिवार की इज्ज़त है | इज्ज़त की परिभाषा के पीछे औरतों के कितने आँसूं  कितने दर्द छिपे हैं इसे औरतें ही जानती हैं | आजिज़ आ गयी हैं वो दूसरों के गुनाहों की सजा झेलते -झेलते ,इसी लिए उन्होंने तय कर लिया है कि दूसरों के गुनाहों की सजा वो खुद को नहीं देंगी | कम से कम इसका नाम उजागर करके उन्हें मानसिक सुकून तो मिलेगा |  #Metoo से डरें नहीं साथ दें  #Metoo के बारे में उसे नहीं पता हैं , उसे नहीं पता है कि इस बारे में सोशल मीडिया पर कोई अभियान चलाया जा रहा है , उसे ये भी नहीं पता है कि स्त्रियों के कुछ अधिकार भी होते हैं , फिर भी उसके पास एक दर्द भरा किस्सा है कि आज घरों में सफाई -बर्तन करने आते हुए एक लड़के ने साइकिल से आते हुए तेजी से उसकी छाती को दबा दिया , एक मानसिक और शारीरिक पीड़ा से वो भर उठी | वो जानती है ऐसा पहली बार नहीं हुआ है तब उसने रास्ता बदल लिया था , उसके पास यही समाधान है कि अब फिर वो रास्ता बदल लें | उसे ये भी नहीं पता वो कितनी बार रास्ता बदलेगी?वो जानती है वो काम पर नहीं जायेगी तो चूल्हा कैसे जलेगा , वो जानती है कि माँ को बाताएगी तो वो उसी पर इलज़ाम लगा देंगीं … काम पर फिर भी आना पड़ेगा | उसके पास अपनी सफाई का और इस घटना का कोई सबूत नहीं है … वो आँखों में आँसूं भर कर जब बताती है तो बस उसकी इतनी ही इच्छा होती है कि कोई उसे सुन ले |  लेकिन बहुत सी महिलाएं घर के अंदर, घर के बाहर सालों -साल इससे कहीं ज्यादा दर्द से गुजरीं हैं पर वो उस समय साहस नहीं कर पायीं , मामला नौकरी का था , परिवार का था रिश्तों का था , उस समय समाज की सोच और संकीर्ण थी , चुप रह गयीं , दर्द सह गयीं | आज हिम्मत कर रहीं हैं तो उन्हें सुनिए , भले ही आज सेलेब्रिटीज ही हिम्मत कर रहीं हैं पर सोचिये जिनके पास पैसा , पावर , पोजीशन सब कुछ था , मंच था वो सालों -साल सहती रहीं तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आम महिला कितना कुछ सहती रही होगी | आज ये हिम्मत कर रहीं हैं तो उम्मीद की जा सकती है शायद कल को वो भी बोले … कल को एक आम बहु बोले अपने ससुर के खिलाफ, एक बेटी बोले अपने पिता या भाई के खिलाफ …. समाज में ऐसा बहुत सा कलुष है जिसे हम कहानियों में पढ़ते हैं पर वो कहानियाँ जिन्दा पात्रों की ही होती हैं ना | इस डर से कि कुछ मुट्ठी भर किस्से ऐसे भी होंगे जहाँ झूठे आरोप होंगे हम 98 % लोगों को अपनी पीड़ा के साथ तिल -तिल मरते तो नहीं देखना चाहेंगे ना | कितने क़ानून हैं , जिनका दुरप्रयोग हो रहा है , हम उसके खिलाफ आवाज़ उठा सकते हैं पर हम कानून विहीन निरंकुश समाज तो नहीं चाहते हैं | क्या पता कल को जब नाम जाहिर होने का भय व्याप्त हो जाए तो शोषित अपराध करने से पहले एक बार डरे | इसलिए पूरे विश्वास और हमदर्दी के साथ उन्हें सुनिए ….जो आज अपने दर्द को कहने की हिम्मत कर पा रहे हैं वो भले ही स्त्री हो , पुरुष हों , ट्रांस जेंडर हो या फिर एलियन ही क्यों न हो उन्हें अपने दर्द को कहने की हिम्मत दीजिये | एक पीड़ा मुक्त बेहतर समाज की सम्भावना के लिए हम इतना तो कर ही सकते हैं … हैं ना ? वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … #Metoo -सोशल मीडिया पर दिशा से भटकता अभियान  हमारे व्यक्तिव को गढ़ने के लिए हर मोड़ पर मिलते हैं शिक्षक दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं आपको ” #Metoo से डरें नहीं साथ दें  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-hindi article, women issues, #Metoo

#metoo -सोशल मीडिया पर दिशा से भटकता अभियान

सबसे पहले तो आप सब से एक प्रार्थना जो भी अपना दर्द कह रहा है चाहे वो स्त्री हो , पुरुष हो , ट्रांस जेंडर हो या फिर एलियन ही क्यों ना हो उसे कहना का मौका दें , क्योंकि यौन शोषण एक ऐसा मुद्दा है जिस के ऊपर बोलने से पहले शोषित को बहुत हिम्मत जुटानी होती है | अब जरा इस तरफ देखिये ….. #metoo आज से सालों पहले मेरी सास ननद ने मुझे दहेज़ का ताना दिया था | स्कूल में मेरी सहेलियों ने मुझे धोखा दिया वो कहती थीं कि वो पढना नहीं चाहती ताकि मैं न पढूँ और वो चुपके से पढ़ लें और मुझसे आगे निकल जाए |जिस दिन मुझे उनकी इस शातिराना चाल का पता चला मैं अंदर से टूट गयीं | मेरी अपनी ही बहने , भाभियाँ , सहेलियां मेरा लम्बा/नाटा , मोटा/पतला, पूरब/पश्चिम , उत्तर/ दक्षिण का होने की वजह से मुझे अपने ग्रुप से अलग करती रहीं और मेरा मजाक बनाती रहीं | ऑफिस में साहित्य-जगत में महिलाओं ने अपने तिकड़मों द्वारा मेरे कैरियर को आगे बढ़ने से रोका | ये सारी बातें हम सब को बहुत तकलीफ देती हैं इसका दर्द मन में जीवन भर रहता है ,ताउम्र एक चुभन सी बनी रहती है | पर माफ़ कीजियेगा ये सारी बातें metoo हैश टैग के अंतर्गत नहीं आती ये प्रतिस्पर्द्धा हो सकती है , जलन हो सकती है , छोटी सोच हो सकती है , ये सारे शोषण स्त्रियों द्वारा स्त्रियों पर करे हो सकते हैं पर ये यौन शोषण नहीं है | क्या सफलता /असफलता का दर्द एक रेप विक्टिम के दर्द बराबर है ? क्या उस ट्रामा के बराबर है जिससे भुक्तभोगी हर साँस के साथ मरती है | तो फिर इस के अंतर्गत ये सारी बातें करके हम एक महिला को दूसरी महिला के विरुद्ध खड़ा करके उस हिम्मत को तोड़ रहे हैं जो महिलाएं अपने ऊपर हुए यौन शोषण के खिलाफ बोलने का दिखा रही हैं | दुर्भाग्य से सोशल मीडिया पर ये हो रहा है | इस बात से कभी इनकार नहीं किया जा सकता कि मानसिक शोषण बहुत पीड़ादायक होता है | ये समाज इस तरह से बना है कि हम किसी को रंग , वजन , लम्बाई , कम बोलने वाला/ ज्यादा बोलने वाला , इस प्रदेश का , आदि मापदंडों पर उसे कमतर महसूस करा कर उसका मानसिक शोषण करते हैं इस तरह का शोषण पुरुष व् महिलाएं दोनों झेलते हैं जो निंदनीय है | ये भी सही है कि महिलाएं भी महिलाओं का शोषण करती हैं | कार्य क्षेत्र में आगे बढ़ने की होड़ में कई बार वो इस हद तक गिर जाती हैं कि दूसरे को पूरी तरह कुचल कर आगे बढ़ जाने में भी गुरेज नहीं करती | जो नौकरी नहीं करती , वहाँ सास-बहु इसका सटीक उदाहरण हैं | ये सब हम सब ने भी झेला है पीड़ा भी बहुत हुई है | जिसके बारे में कभी अपनी बहन को , कभी पति को , कभी किसी दूसरी सहेली को खुल कर बताया भी है | उनके सामने रोये भी हैं | लेकिन #metoo आन्दोलन यौन शोषण के खिलाफ है जिस विषय में महिलाएं (या पुरुष भी) अपनी बहन को नहीं बता पाती , माँ को नहीं बता पाती , सहेली को नहीं बता पातीं अन्दर ही अंदर घुटती हैं क्योंकि इसमें हमारा समाज शोषित को ही दोषी करार दे देता है | आज महिलाएं मुखर हुई हैं और वो किस्से सामने ला रहीं हैं जो उन्होंने खुद से भी छुपा कर रखे थे , जो उन्हें कभी सामान्य नहीं होने देते , एक लिजलिजे घाव को छुपाये वो सारी उम्र चुप्पी साधे रहती हैं | खास बात ये हैं स्त्री ने अपनी शक्ति को पहचाना है | #metoo आन्दोलन के रूप में महिलाएं अपने शोषण के वो किस्से ले कर सामने आ रहीं हैं जिसे वो खुद से भी छुपा कर रखतीं थी | एक शोषित अपने ऊपर हुए यौन शोषण के बारे में बोल नहीं सकती थी क्योंकि पूरा समाज महिलाओं के खिलाफ था , बोलने पर उसे सजा मिलनी थी , उसकी पढाई छुड़ा दी जाती , नौकरी छुडा दी जाती , उसकी जल्दी से जल्दी शादी करा दी जाती | उसके कपड़ों , चाल -चलन बातचीत पर दोष लग जाता था | उसके पास दो ही रास्ते थे या तो वो बाहर जा कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लडती रहे या घर में कैद हो जाये | सजा शोषित को ही मिलनी थी | जैसा की पद्मा लक्ष्मी ने कहा कि जब उन्होंने सात साल की उम्र में एक परिचित का अभद्र व्यवहार अपनी माँ को बताया तो उनकी माँ ने उन्हें एक साल के लिए दादी के पास भारत भेज दिया | फिर उन्होंने माँ से कभी इस बारे में कुछ साझा नहीं किया | आज ये चुप्पी टूट रही है महिलाएं ये सब कहने का साहस जुटा रहीं हैं | कई नाम से और कई गुमनाम हो कर पोस्ट डाल रहीं हैं | वहीँ महिलाओं पर ये प्रश्न लग रहे हैं तब क्यों चुप थीं ? आश्चर्य है की इस प्रश्न को पूछने वाली महिलाएं भी हैं और एक रेप विक्टिम को अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के जज की कुर्सी पर 49 /51 से जीता कर बैठने वाली भी | आखिर क्यों हम एक दूसरे की ताकत नहीं बनना चाहते ? कुछ पुरुष जिनका यौन शोषण हुआ है वो भी सामने आ रहे हैं | दुर्भाग्य से पुरुषों ने उनका साथ नहीं दिया , वो उनका मजाक उड़ाने लगे कि पुरुषों का भी कहीं यौन शोषण होता है | प्रसिद्द कॉमेडी शो ब्रुक्लिन९९ के टेरी ने जब एक हाई प्रोफाइल व्यक्ति पर यौन शोषण का आरोप लगाया था तो उसका यही कहना था कि इस दर्द से गुज़र कर मैंने ये जाना कि महिलाएं , हर जगह कितना झेलती हैं और किस कदर अपने दर्द के साथ चुप रह कर जीती हैं | तभी उन्होंने फैसला लिया कि वो अपना किस्सा सबके सामने लायेंगे ताकि महिलाएं भी हिम्मत करें वो कहने की जिसमें वो शोषित हैं , दोषी नहीं हैं | उन्हें मृत्यु की धमकी मिली पर व् लगातार लिखते … Read more

ब्यूटी विथ ब्रेन – एक जेंडर बायस कॉम्प्लीमेंट

ब्यूटी विथ ब्रेन …. स्त्रियों को दिया जाने वाला एक आम कॉम्प्लीमेंट है जिसे बहुत ख़ास माना जाता है | जिला स्तर की राष्ट्रीय,  अंतर्राष्ट्रीय जितनी भी सौदर्य प्रतियोगिताएं होती हैं उसमें चयन का आधार ब्यूटी विथ ब्रेन होता है | फिर भी ये कॉम्प्लीमेंट आज  बहुत जेंडर बायस  समझा जाने लगा है और स्त्रियाँ स्वयं इसे नकार रहीं है , क्योंकि  ये घोषणा करता है कि औरतों में दो चीजें एक साथ नहीं हो सकती , ये एक “रेयर कॉम्बिनेशन”  है … वे या तो खूबसूरत हो सकती हैं या बुद्धिमान हो सकती हैं | जबकि सुन्दरता का बुद्धिमानी और मूर्खता  कोई संबंद्ध नहीं है | ब्यूटी विथ ब्रेन – एक जेंडर बायस कॉम्प्लीमेंट  जब किसी स्त्री को ये कॉम्प्लीमेंट मिलता है तो इसका मतलब ये भी होता है कि आम औरतें तो मूर्ख  होती हैं , आप खास हो क्योंकि आपके पास दिमाग भी है , और क्योंकि इसमें ब्यूटी पहले आती है , जो समाज द्वारा महिलाओं को देखने के नज़रिए को स्पष्ट करती है …. वो बहुत खूबसूरत है और बुद्धिमान भी है | इस बात के दो अर्थ निकलते हैं …. १ ) ख़ूबसूरती वो पहली चीज है जिस पर मेरा ध्यान गया | 2) ये तो बहुत ही आश्चर्यजनक है कि आपके पास सुन्दरता और बुद्धि दोनों है | जबकि वहीँ कोई पुरुष होगा तो कहा  जाएगा , ” वो बहुत बुद्धिमान है जबकि देखने में भी अच्छा है | क्या पुरुष ये बर्दाश्त कर पायेंगे कि उनके गुणों के ऊपर उनकी सुन्दरता को रखा जाए | ” वाह , कितना हैण्डसम है और जीनियस भी | जानिये पुरुषों का नजरिया  हालाँकि Ed Caruthers जो एक प्रसिद्द physicist हैं इस बात का खंडन करते हैं …. वो कहते हैं कि ये महिला पर निर्भर करता है कि वो अपने को किस तरह से पेश किये जाना पसंद करती है |  ये दोनों चीजे जेनेटिक है | वो उदाहरण देते हैं कि अगर एक लड़की जो जो ६ साल की है दूसरी ६ साल की लड़की के बराबर बुद्धिमान व् सुन्दर है परन्तु आने वाले समय में पहली लड़की अपनी सुदरता पर मेहनत करती है और दूसरी अपने दिमाग पर तो दस साल बाद एक लड़की ज्यादा सुंदर होगी व् दूसरी ज्यादा बुद्धिमान | ये अंतर उनके खुद अपना उस तरीके से विकास करने से आया | जो दोनों तरीके से विकास कर लेती है वो तो रेयर ही होंगीं १७६० में विश्व प्रसिद्द दार्शनिक ब्रुक ने लिखा  था , ” सुन्दरता बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वो मन के ऊपर पहला असर डालती है | बुद्धिमानी भी अगर साथ में हो तो बेहतर है | आश्चर्य है कि १७६० में स्त्रियों को देखने का नजरिया आज भी कायम है | अपनी बात को समझाने के लिए IIT से  इंजीनीयर महेश निगम जी कहते हैं  कि  स्त्रियों का खूबसूरत होना भी रेयर ही है | हमारे आस -पास की स्त्रियों में केवल ५ % स्त्रियाँ ही खूबसूरत होती हैं | अगर आप बुद्धिमान स्त्री हैं तो ये भी ५ % होती हैं …. अगर ये दोनों हैं तो आप वास्तव में रेयर हैं | आंकड़ों में बात करने वाले महेश जी, Ed Caruthers और ब्रुक ये क्यों नहीं बताते कि ये आंकड़े पुरुषों के लिए क्यों नहीं हैं | क्या है युवा लड़कियों का नजरिया                               दिल्ली की नताशा कहती है कि उनके माता -पिता उनके लिए लड़का देख रहे थे | उन्होंने नताशा को इजाज़त दी कि वो लड़के से मिले व् बात करे ताकि वैचारिक समानता का पता चल सके | नताशा जब पहली बार लड़के से मिली तो उसने नताशा की तारीफ़ करते हुए कहा ,” आप दूसरी  लड़कियों से अलग हो क्योंकि आप ” ब्यूटी विथ ब्रेन हो “| घर आ कर नताशा बहुत देर तक इस बारे में सोचती रही फिर उसने उस लड़के से शादी न करने का फैसला लिया | पूछे जाने पर नताशा कहती है कि भले ही वो मेरी तारीफ़ कर रहा हो पर उसका और औरतों को देखने का नजरिया ठीक नहीं है वो आम औरतों को मूर्ख समझता है | ये एक पुरुषवादी मानसिकता है जो आम औरतों को पुरुषों से कमतर आंकती है | शादी के बाद क्या गारंटी है कि वो मुझे भी इसी नज़र से नहीं देखेगा | मुझे  ऐसे जीवनसाथी की जरूरत नहीं है जिसे लैंगिक समानता में विश्वास न हो |                         समाज को बदलने की दिशा में युवा पीढ़ी की ये नयी सोच है | जबकि पुरानी सोच पर मोहर लगाते हुए  मीडिया में ऐसे विज्ञापनों की भरमार है जहाँ औरत की सुन्दरता को पहले रखा गया है | एक उदहारण फेयर एंड लवली का है | जो महिला हर इंटरव्यू में रिजेक्ट हो रही थी उसने फिर एंड लवली लगायी | गोरी होकर सामजिक मान्यताओं की दृष्टि में खूबसूरत हो गयी और वो इंटरव्यू में सेलेक्ट हो गयी | सवाल ये है कि क्या सुन्दर होने से उसके ज्ञान में वृद्धि हो गयी ? वहीँ इसके विपरीत दूसरा उदाहरण जो मैंने निजी जिंदगी  में देखा है ,  एक युवा लड़की जो देखने में बहुत सुंदर थी  उसे व् उसकी सहेलियों को इंटरव्यू देने जाना था |  जब वो पढ़ती तो उसकी सहेलियाँ कहतीं , ” अरे तेरा तो सेलेक्शन हो ही जाएगा …. तुझे तो देखते ही ले लेंगे | बार -बार ये सुन कर वो लड़की दवाब में आ गयी , उसे उसे अपनी सुन्दरता में एक लिजलिजेपन का अहसास हुआ | आत्मविश्वास गड़बड़ाया और वो इंटरव्यू में रीएजेक्ट हो गयी | सच्चाई ये भी है कि अक्सर सुंदर औरतों के गुणों के प्रति समाज का दृष्टिकोण अच्छा नहीं होता | उनके खुद के गुण उनकी सुन्दरता के आगे दब जाते हैं |  इससे पहले भी मैं इम्पोस्टर सिंड्रोम के बारे में लिख चुकी हूँ | जिसमें प्रतिभाशाली सुंदर स्त्रियों को यह भय होता है कि उनको सफलता उनकी सुन्दरता की वजह से मिल रही है, वो एक दिन पकड़ी जायेंगी  | जिस कारण वो दुगुनी -तिगुनी मेहनत करती हैं | सुप्रसिद्ध … Read more

हिंदी की कीमत पर अंग्रेजी नहीं

                         हिंदी दिवस आने वाला है | अपनी अन्य  पूजाओं की तरह एक बार फिर हम हमारी प्यारी हिंदी को फूल मालाएं चढ़ा कर पूजेंगे और उसके बाद विसर्जित कर देंगे | आखिर क्यों हम साल भर इसके विकास का प्रयास नहीं करते | एक पड़ताल …. हिंदी की कीमत पर अंग्रेजी नहीं  हिन्दी पखवारा चल रहा है । कुछ भाषण , कवि सम्मेलन , लेखकों और कवियों का सम्मान।अच्छी बात है । लेकिन हमें इससे कुछ अधिक करने की आवश्कता है । पौधों के बढ़ने और उन्हे स्वस्थ रखने के लिए पौधों की जड़ में पानी डालना पड़ता है , फल- फूलों में नहीं। वे तो जड़ों की मजबूती से स्वत: ही स्वस्थ होने लगते हैं।हमें जानना होगा कि हमारी भाषा की जड़ों में किस खाद – पानी की आवश्यकता है ? निश्चघय ही यह जड़ हमारे बच्चे हैं , जिन्हे सही अर्थ , सही उच्चारण सिखाना हमारी जिम्मेदारी है । केरल की एक अध्यापिका बच्चों को श्रुतिलेख बोल रही थीं ।उन्होंने ‘ बाघ ‘ शब्द बोला । बच्चे ने बाघ लिख दिया । काॅपी जाँचने पर उन्होने उस शब्द के नम्बर काट लिए । कारण पूछने पर उन्होने बताया कि ‘ बाग ‘ शब्द है ।जब कि उन्होंने बाघ ही बोला था । बच्चा रोकर रह गया । वह हिन्दी भाषी था। हमने उसे समझाया कि तुम्हारे लिखने में कोई गलती नहीं है । उनके उच्चारण का तरीका फर्क है । जैसे- जेसे बच्चे को मलयाली भाषा समझ में आने लगी , वह यह बात समझ गया । एक मराठी अध्यापिका ने बच्चे को संतान का अर्थ औलाद और बच्चा बताया । मैंने बच्चे से कहा कि औलाद तो सही है किन्तु संतान का अर्थ ‘ बच्चा ‘ गलत है । उसकी जगह संतति कहना सही होगा । आजकल की अंग्रेजी बोलने वाली माँएं बच्चों को सही शब्द सिखाना ही नहीं चाहतीं । उनको लगता है कि जो टीचर ने बताया है , अगर  बच्चे वह नहीं लिखेगें तो उनके नम्बर कट जाएगें ।  यह कैसी मानसिकता है ? कैसी स्पर्धा है ?  केवल ‘एक’ नम्बर के लिए  हम बच्चों को सही गलत का फर्क नहीं मालूम होने देना चाहते । एक मानसिकता यह भी है कि कुछ ही दिनों की तो बात है । आगे चलकर इसे इगंलिश ही बोलनी है । अंग्रेजी भाषा में ही कार्य करना है तो क्या फर्क पड़ता है ? किसी भाषा को सीखना गलत नहीं है किन्तु अपनी भाषा को भूल जाने की कीमत पर नहीं । यह कार्य तो हमे मिलजुल कर ही करना पड़ेगा , तभी कुछ बात बनेगी अन्यथा केवल झूठे आँकड़ों पर ही संतोष करना पड़ेगा । सच्चाई कभी सामने नहीं आ पाएगी और वास्तव मे हिन्दी को राष्ट्रभाषा तथा अंन्तर्राष्ट्रीय स्तर की भाषा बनाने की हकीकत स्वप्न बनकर रह जाएगी । उषा अवस्थी  हिंदी दिवस पर विशेष -क्या हम तैयार हैं हिंदी दिवस -भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं हिंदी जब अंग्रेज हुई गाँव के बरगद की हिंदी छोड़ आये हैं आपको लेख  ” हिंदी की कीमत पर अंग्रेजी नहीं  “कैसा लगा  अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-Hindi, Hindi Divas, Hindi and English

प्रथम गुरु

अक्सर ऐसा कहा जाता है कि बालक की प्रथम गुरु उसकी माता होती है परंतु मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। माता भी एक इंसान है और उसके अपने सुख-दुख हैं । कुछ चीजों से वह विचलित हो सकती है , कभी वह उद्वेलित भी हो सकती है । लेकिन उसको गुरु रूप में हम स्थापित करते हैं तो उससे अपेक्षा करते हैं कि वह इन भावनाओं पर काबू रखें और कभी भी कठोर प्रतिक्रिया ना दें । वह हमेशा सद्गुणों से भरपूर रहे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें ।घर में माहौल अच्छा रखे ताकि बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ें। मगर यह सारी चीजें हम स्त्री से ही क्यों अपेक्षित रखते रखते हैं जबकि बच्चों की परवरिश में घर के दूसरे लोगों का भी पूरा प्रभाव पड़ता है।  प्रथम गुरु                                     अगर किसी का पति शराबी है या गुस्से वाला है, घर में माहौल अच्छा नहीं रखता है तो उसका प्रभाव क्या बच्चों पर नहीं पड़ेगा?एक स्त्री प्रभावों से, नहीं बल्कि कुप्रभाव कहना चाहिए,घर के माहौल के प्रभाव से अपने बच्चे को कैसे अछूता रख सकती है? ये जो हम मां को गुरु के रूप में ,शिक्षक के रूप में ,प्रथम शिक्षक के रूप में स्थापित करते हैं वह मेरी नजर में स्त्री पर अत्याचार है ! यह अमानवीय व्यवहार है ! जो उसकी भावनाएं है उन्हें वह क्यों सबके सामने व्यक्त नहीं कर सकती?  अगर कोई बच्चा अच्छा संस्कारी है तो उसमें परिवार का नाम बताइऐंगे कि अरे वाह !कितने अच्छे परिवार का बच्चा है! देखो उसके संस्कार कितने अच्छे हैं! और इसके विपरित अगर कोई बच्चे में कोई बुरी आदतें हैं ,कुछ गलत संस्कार है तो मां का नाम लेते हैं कि इसकी मां ने कुछ नहीं सिखाया ! अरे सिखाने की सारी जिम्मेदारी अकेले मां की है क्या?  परिवार के बाकी सदस्य भी ज़िम्मेदार होते हैं।और सबसे महत्वपूर्ण है पिता! पिता की भूमिका को बच्चे पालने के लिए क्यों नजरअंदाज किया जाता है जबकि घर के वातावरण के लिए पिता बराबर से जिम्मेदार होता है !अगर पिता शराबी है या गुस्से वाला है, घर में वातावरण अच्छा नहीं रहता है !बच्चों में भय का वातावरण रहता है !तो आप एक मां से अपेक्षा करते हैं कि वह उस वातावरण से बच्चों को दूर रखे! पर सोचिए क्या वो इंसान नहीं है ? वो भी पति के भय से भयभीत है। तो ऐसे में आप उससे सहज रहने के अमानवीय व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं! कि वह सारे दुख दर्द चुपचाप सहते हुए बच्चों के सामने हंसती मुस्कुराती रहे और एक अच्छा माहौल बच्चों को दे! मैं इस चीज को अत्याचार जैसा महसूस करती हूं ! ये ठीक है कि वह अधिकतर अपनी माता के पास में रहता है इसलिए सबसे ज्यादा कोशिश मां को करनी चाहिए। पर आप सोचिए कि जो मां के जीवन में सब कुछ ठीक है तो उसके लिए सब कुछ आसान है। लेकिन यदि उसके जीवन में केवल कष्ट और पीड़ाएं ही हैं तो कैसे उससे अपेक्षा करते हैं कि सहजता से रहे!  यह सारी चीजें उसके ऊपर दबाव डालती हैं कि वह बच्चे के सामने सामने आए तो सदा हंसते मुस्कुराते हुए आए ! और एक आदर्श स्त्री की भूमिका में आए! क्यों भाई ?आप उसे इंसान नहीं समझते हैं ? पति चाहे जो करे, सास ससुर कितना अपमान करें ,दुख दर्द सहते सारे दिन रात वो काम में खटती रहे !लेकिन जहां बात आती है कि बच्चों के सामने वह आए तो उसे एक आदर्श मां के रूप में सामने आना चाहिए !बहुत ही गलत बात है !इतना दबाव क्यों डालना चाहिए? अगर यह दबाव नहीं हो कि मां प्रथम गुरु है ,बच्चा जो कुछ सीखता है वह मां सीखता है! तो घर के अन्य सदस्यों की जिम्मेदारी भी तय होगी और वह भी अपने आप को बच्चे के पालन पालन पोषण के लिए जिम्मेदार मानेंगे! और घर में माहौल सही रखने के लिए अपने व्यवहार और आचार विचार पर नियंत्रण रखने को बाध्य होंगे।सबकी सहभागिता सुनिश्चित हो तो निश्चित रुप से घर में माहौल अच्छा रखने के लिए सब प्रयास करेंगे और मां अनावश्यक दबाव से मुक्त होकर अन्य सदस्यों की तरह ही सहजता से अपना जीवन जी सकेगी। सहजता से अपना जीवन बिताने के लिए स्त्री स्वतंत्र क्यों नहीं है? अगर उसे कष्ट है, दुख है, भयभीत है वो तो इसे बच्चों से क्यों छुपाए? इसलिए कि उनके कोमल मन पर दुष्प्रभाव पड़ेगा! बच्चों की प्रथम शिक्षक होने के दबाव में ही वो बच्चों के सामने हंसती मुस्कुराती है! छुप छुप कर रोती है। जबकि सच तो ये है कि बच्चे घर में सभी से कुछ न कुछ सीखते हैं जिनके भी संपर्क में वह दिन भर आते हैं उन सब से वह कुछ न कुछ सीखते हैं। बच्चे स्पंज की तरह होते हैं अपने आसपास के वातावरण से,माहौल से हर पल कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। आपको पता भी नहीं चलता जब तक कि उस स्पंज को निचोड़ा ना जाए ! यानि कि जब बच्चे के मन से ज़बान से बात बाहर आएंगी तभी आपको पता चलेगा कि उसने क्या सीखा है !तो वह सारा दिन केवल मां के पास ही तो नहीं रहता है !अगर संयुक्त परिवार है या बड़ा परिवार है तो हर इंसान से, हर उस इंसान से सीखता है जिसके पास वो पल भर भी रह जाता है !मां के ऊपर यह दबाव है कि वह पहली गुरु है , उससे उसे को बाहर निकालना हमारी जिम्मेदारी है ! उसके ऊपर जो एक आदर्श होने का चोला हमने उसको जबरदस्ती पहनाया हुआ है वह बहुत ही अमानवीय व्यवहार है! वो मां होने के साथ साथ एक इंसान भी है ! उसे दुख है तो दुखी होने दीजिए! भयभीत है तो कहने दीजिए !उसे इन चीजों को छुपाने के लिए मजबूर मत करिए! शिक्षक होने का दबाव है उसकी वजह से वह अपने बच्चों से बहुत कुछ छुपाती है !जबकि उन्हीं बच्चों को सब कुछ पता होना चाहिए! एक मात्र जिम्मेदारी स्त्री को सौंपकर पूरा परिवार जिम्मेदारी से मुक्त कैसे हो सकता है?  दरअसल … Read more