सोलमेट – असलियत या भ्रम

                              अभी कुछ दिन पहले एक विवाह समारोह में जाना हुआ |  दूल्हा दुल्हन स्टेज पर बैठे थे , और जैसा की होता है सब उन्ही को देख रहे थे | रंग रूप कद में दोनों एक दूसरे के बराबर थे , न कोई उन्नीस ना कोई बीस | हर कोई तारीफ़ कर रहा था, ” भगवान् ने मिलाया है , कितनी परफेक्ट जोड़ी है |” तभी किसी ने कहा  अरे शिक्षा  और नौकरी में भी दोनों बराबर हैं , इसलिए ये परफेक्ट नहीं सुपर परफेक्ट जोड़ी है यानी की सोलमेट | सबने समर्थन में सर हिलाया | और मैं मन ही मन  सोलमेट की व्याख्या करने लगी | सोलमेट – असलियत या भ्रम सोल मेट , जैसा की शाब्दिक अर्थ से  कयास लगाया जा सकता है … एक ऐसा व्यक्ति जो आपकी आत्मा का साथी हो | रिश्तों की नींव  ही साथ रहने की लालसा पर आधारित हैं | हम कई तरह के रिश्ते बनाते हैं | जब कोई नया रिश्ता बनता है ऐसा लगता है कि हम उसी को खोज रहे थे | साथ रहते -रहते उसमें भी कुछ दूरियाँ आने लगती हैं | मन -मुटाव होते हैं , झगडे होते हैं , रिश्ते टूटते हैं या सिर्फ चलने के लिए खींचे जाते हैं | क्योंकि ये सारे रिश्ते सांसारिक हैं , परन्तु आत्मा जो हमारा शुद्ध रूप है अगर हमें ऐसा कोई साथी मिल जाता है जिसके प्रेम का  अहसास हम आत्मा के स्तर पर महसूस करें , तो वही  होगा हमारा सोल मेट | ” सोलमेट “एक ऐसी हकीकत या कल्पना जो हमें रोमांच से भर देती है | क्या पति -पत्नी होते हैं सोलमेट                                          बहुधा पति पत्नी को सोलमेट कहा जाता है | पर क्या ये सच हैं ? अगर देखा जाए तो मनुष्य तीन स्तरों पर जीवन जीता है … शारीरिक , मानसिक , आत्मिक या आध्यात्मिक | वही संबध श्रेष्ठ संबंध होते हैं जो तीनों स्तरों पर स्थापित हों | पति -पत्नी का रिश्ता शारीरिक साथी के रूप में होता ही है | विवाह इसी कारण किया जाता है | परन्तु यह रिश्ता मानसिक स्तर पर भी जुड़े ये जरूरी नहीं है | कई बार देखा गया है कि पति पत्नी एक बहुत अच्छे साथी होते हुए भी आपस में ज्यादा देर तक बात नहीं कर पाते , कारण उनका मानसिक स्तर नहीं मेल खाता , रुचियाँ अलग हैं , सोच अलग है  , विचार अलग है | जो आपस में टकराव का कारण बनते हैं |  कलह -कुलह के बीच बीतते जीवन में मन ही नहीं मिलता फिर   आध्यात्मिक या आत्मा के स्तर पर तो और भी बड़ी बात है | क्या है सोलमेट की परिभाषा                     अमरीकी लेखक ” रिचर्ड बैच” ने सोलमेट की परिभाषा दी है , उनके अनुसार …. A soulmate is someone who has locks to fit our keys and keys to fit our locks. when we feel safe enough to open the locks , our truest self  steps out and we can be completely and honestly who we are . “सोलमेट कोई ऐसा होता है जिसके पास हमारी सारी  चाभियों में फिट होने वाले ताले होते हैं और हमारे तालों में फिट होने वाली चाभियाँ होती हैं | जब हम तालों को खोलना सुरक्षित समझते हैं तब हमारा असल मैं बाहर आता है | तब हम इमानदारी से पूरी तरह वो हो सकते हैं जो हम हैं |”                       जैसा कि परिभाषा से स्पष्ट है कि हम कितने भी रिश्ते बना लेते हैं परन्तु अपने शुद्ध रूप में किसी के सामने  नहीं रह पाते | इसका कारण ये है कि हर रिश्ते में समन्वय स्थापित करने के लिए कुछ न कुछ परिवर्तन करना पड़ता है | कई बार ये बदलाव इतना ज्यादा होता है कि हमारा असली रूप उसके पीछे कहीं खो सा जाता है | यहीं से शुरू होता है घुटन का एक अंत हीन सिलसिला | महिलाएं तो इसकी अधिकतर शिकार रहती हैं | परन्तु सोलमेट के साथ यह विडम्बना नहीं है | वहां किसी समन्वय की कोई जरूरत नहीं है | हम जैसे हैं वैसे रह सकते हैं | टकराव की कोई गुंजाइश ही नहीं है | कौन हो सकता है हमारा सोलमेट                             जैसा की ऊपर ही स्पष्ट कर दिया है कि सोलमेट कोई भी हो सकता है | जरूरी नहीं कि पति -पत्नी हीं  हों , माता -पिता , भाई- बहन , कोई मित्र , पड़ोसी , आपका गुरु , यहाँ तक की कोई दो साल का बच्चा भी | सोलमेट  वही है जिसे देखते ही लगे अरे आप इसे ही  ढूंढ रहे थे … यही तो है आपकी आत्मा का साथी | सोलमेट के साथ उम्र का बंधन नहीं  होता , क्योंकि आत्मा की कोई उम्र नहीं होती | क्यों मुश्किल होता है सोलमेट को खोजना                                    जैसा की पहले ही बताया है कि सोलमेट यानि आत्मा का साथी | जरा सोचिये जब जीवन साथी  खोजने में इतनी मुश्किल होती है तो आत्मा का साथी खोजने में कितनी मुश्किल होगी | वैसे भी ज्यादातर मनुष्य शरीर के तल पर ही जीते हैं , मानसिक तल पर भी नहीं , इसलिए उन्हें जरूरत ही नहीं होती की आत्मा के साथी को खोजा जाए | ऐसा साथी जिसके साथ आप खुद को पूर्ण महसूस कर पाए | इसीलिए अधिकतर लोग ये अधूरापन महसूस करते हुए ही दुनिया से चले जाते हैं | अब सवाल ये उठता है कि आत्मा के साथी को खोजा कैसे जाए | दरअसल उसे खोजने की जरूरत नहीं पड़ती |जब आप उसके साथ होते हैं तो आप को खुद ब खुद पता चल जाता है कि यही तो है वो जिसे आप खोज रहे थे | … Read more

वन फॉर सॉरो ,टू फॉर जॉय

उससे  मेरा पहला परिचय कब हुआ , पता नहीं | शायद बचपन में तब जब मैंने हर काली चिड़िया को कौआ – कौआ कहते हुए उसके और कौवे के बीच में फर्क जाना होगा |  रंग जरूर उसका कौए की तरह था पर उसकी पीली आँखे व् चोंच उसे अलग ही रूप प्रदान करती | उससे भी बढ़कर थी उसकी आवाज़ जो एक मीठा सा अहसास मन में भर देती | बाद में जाना उसका नाम मैना है | पर उसका विशेष परिचय स्कूल जाने की उम्र में हुआ | यहाँ पर मैं तोता और मैना की कहानी की बात नहीं कर रही हूँ … क्योंकि ये कहानी तो पुरानी हो गयी है | उस दिन हम लोग स्कूल से  छुट्टी के बाद  स्कूल  के बाहर रिक्शे में बैठे थे | जब तक सारी  लडकियाँ  न आ जाए रिक्शेवाला रिक्शा  चलाता नहीं था |  हमारा डिब्बाबंद रिक्शा था |  तभी एक बच्ची जोर से बोली  ,ओह , वन फॉर सॉरो ” |  वन फॉर सॉरो ,टू फॉर जॉय  मैंने कौतुहल में पूंछा , क्या मतलब ? उसने उत्तर में एक गीत सुना दिया ….. वन फॉर सॉरो  टू  फॉर जॉय  थ्री फॉर सिल्वर  फोर फॉर गोल्ड                                 फिर अंगुली का इशारा कर के बोली , ” वो देखो एक मैना , जो एक मैना देखता है उसका दिन बहुत ख़राब बीतता है , दो बहुत शुभ होती हैं | देखना आज का दिन ख़राब जाएगा | उसी दिन जब रिक्शा ढलान से उतर रहा था , पलट गया | सभी  बच्चों के बहुत चोट आई | किसी तरह से दो -दो  बच्चे घर भेजे गए | चोटों का दर्द तो माँ के लाड़ -दुलार से ठीक हो गया पर दिमाग में एक बात बैठ गयी वन फॉर सॉरो , टू  फॉर जॉय , सिल्वर और गोल्ड की परवाह नहीं थी | हालांकि उम्र थोड़ा बढ़ी तो बाद की दो पक्तियां बदली हुई सुनाई दी , शायद आप लोग इससे परिचित हों … थ्री फॉर लैटर  फोर फॉर बॉय                    थोडा बड़ा होने पर  समझ के साथ समझ आ गयी थी कि चिड़ियों के देखने से कुछ अच्छा बुरा नहीं होता पर एक चिड़िया दिखती तो आँखे अनायास ही दो चिड़ियों को तलाशने लगती | कभी मिलतीं , कभी नहीं मिलती उनके मिलने न मिलने से दिन के अच्छे बुरे होने का कोई सम्बन्ध भी नहीं रहा | फिर भी दो चिड़ियों को साथ देखकर एक मुस्कान की लम्बी रेखा चेहरे पर खिंच जाती | वैसे ये अंग्रेजों का बनाया हुआ अंधविश्वास  है , फिर भी ये बात गर्व करने लायक तो नहीं है कि अन्धविश्वास बनाने के मामले में हम अकेले नहीं हैं | खैर तभी एक दिन की बात है मैं चावल के दाने चिड़िया के कटोरे में डाल रही थी कि एक मैना आकर बैठ गयी | पहले तो दिल धक् से बैठ गया … दिमाग में वन फॉर सॉरो , वन फॉर सॉरो का टेप रिकार्डर बजने लगा , फिर ध्यान उसकी आँखों पर गया ,उसकी मासूम सी आँखे इंतज़ार कर रहीं थी कि मैं जाऊं तो वो  दाने खाए | नकारात्मक विचार थोड़े थमे बल्कि  इतने पास से उसको देखकर स्नेह उमड़ आया | दाने डाल के हट गयी उसने पलट कर मुझे देखा , जैसे पूछ रही हो , “अब खा लूँ ?”और अधीर बच्चे की तरह बिना उत्तर की प्रतीक्षा में खाने लगी | उसको चट-चट खाते देखने में जो स्नेह उमड़ा उसमें ” वन फॉर सॉरो ” का फलसफा पूरी तरह बह गया |  आज इतने दिनों बाद ये वाकया इसलिए याद आया क्योंकि आज एक छोटा बच्चा जो अपनी माँ के साथ जा रहा था एक मैना देख कर चिल्लाया , ” माँ वन फॉर सॉरो ” |  इससे पहले की वो भी दो चिड़ियाँ तलाशने लगे मैंने प्यार उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा , ” चिड़िया तो इतनी प्यारी होती है ,कि एक भी दिख जाए तो जॉय ही है … सॉरो बिलकुल नहीं | बच्चा खुश हो कर ताली बजाने लगा | ऐसे ही बचपन की कच्ची मिटटी पर न जाने कितने अन्धविश्वास रोप दिए जाते हैं | जिनके डर तले विकसित होता पौधा अपना उन ऊँचाइयों को नहीं पा पाता जो उसके लिए बनीं थीं |  बाँधों न इस कदर बेड़ियों से इसे  उड़ने दो आज़ाद मन के परिंदे  को जरा … यह भी पढ़ें …  खुद को अतिव्यस्त दिखाना का मनोरोग क्यों लुभाते हैं फेसबुक पर बने रिश्ते                         आंटी अंकल की पार्टी और महिला दिवस                                      गोलगप्पा संस्कृति आपको  लेख “ वन फॉर सॉरो ,टू फॉर जॉय “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- superstitions, bird, one for sorrow two for joy

क्या फेसबुक पर अतिसक्रियता रचनाशीलता में बाधा है ?

        लाइट , कैमरा ,एक्शन की तर्ज पर लाइक , कमेंट ,एडिक्शन …. और दोनों ही ले जाते हैं एक ऐसी दुनिया में जो असली नहीं है | जहाँ अभिनय चल रहा है | फर्क बस इतना है की एक अभिनय को हम  तीन घंटे सच मान कर जीते हैं … रोते हैं ,हँसते हैं और वापस अपनी दुनिया में आ जाते हैं , लेकिन दूसरा अभिनय हमारे जीवन से इस कदर जुड़ जाता है कि हम उससे खुद को अलग नहीं कर पाते | हमारा निजी जीवन इस अभिनय की भेंट चढ़ने लगता है , बच्चों के लिए समय नहीं रहता है , रिश्तों में दूरियाँ आने लगती हैं और सबसे बड़ी बात हमारी रचना शीलता में कमी आने लगती है …. मैं बात कर रही हूँ फेसबुक की जिसने लेखकों  को एक बहुत अच्छा प्लेटफॉर्म दिया , नए -नए लेखक सामने आये , उन्होंने  खुद को अभिव्यक्त करना और लिखना सीखा … परन्तु इसके बाद वो यहीं उलझ कर रह गए … फेसबुक एडिक्शन ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया |  उनका लेखन एक स्तर  से ऊपर  बढ़ नहीं पाया | क्या फेसबुक पर अतिसक्रियता रचनाशीलता में बाधा है ?                                                जब भी कोई लेखक कोई रचना लिखता है तो उसकी इच्छा होती है कि लोग उसे पढ़ें उस पर चर्चा करें  | फेसबुक एक ऐसा मंच है जहाँ ये संभव है | लोग लाइक व कमेंट के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करते हैं | परन्तु फिर भी एक सीमा से ऊपर लेखक इन गतिविधियों में फंस जाता है | कैसे ? जरा गौर करें …. अगर आप भी फेसबुक पर हैं तो आपने महसूस किया होगा कि लाइक और कमेंट का एक नशा होता है …. अगर किसी एक पोस्ट पर लाइक या  कमेंट बहुत  बड़ी संख्या में मिल जाए तो हर पोस्ट पर उतने की आशा रहती है | ये सामान्य मनोविज्ञान है | अब हर पोस्ट शायद इस लायक नहीं होती कि उस पर ढेरों लाइक या कमेंट मिलें पर स्वाभिमान या अहंकार ये मानने को तैयार नहीं होता | अब हर पोस्ट पर उतनी लाइक पाने की जुगत में वो या तो अपने सभी मित्रों की अच्छी या बुरी पोस्ट पर लाइक लगता है ताकी वो भी बदले में उसकी पोस्ट पर आयें | फेसबुक का एक अलिखित नियम है आप मेरी पोस्ट पर आयेंगे तभी हम आपकी पोस्ट पर आयेंगे | दूसरा वो समय-समय पर अपने मित्रों को हड्काने का काम करेंगे … जो मेरी पोस्ट पर नहीं आएगा मैं उसको अनफ्रेंड या ब्लॉक  कर दूँगा /दूंगी | ये एक तरह से खुली चुनौती है कि आप को अगर फ्रेंड लिस्ट में रहना है तो मेरी पोस्ट पर आना ही पड़ेगा …. जबकि ये लोग अपनी फ्रेंड लिस्ट में हर किसी की पोस्ट पर नहीं जाते | वो काटने छांटने में ही व्यस्त रहते हैं | तीसरा अपना नाम बार -बार लोगों की निगाह में लाने के लिए ये लोग  बार-बार स्टेटस अपडेट करते हैं | यानि एक दिन में कई स्टेटस डालते हैं | स्टेटस न मिला तो तस्वीरे डालते हैं … अपनी न सही तो फूल पत्ती की ही सही | आंकड़े बताते हैं की तस्वीरों पर लाइक ज्यादा मिलती है |  जो लोग लेखन के लिए फेसबुक पर नहीं हैं , उनकी मित्र संख्या भी केवल निजी परिचितों की है , उनके लिए ठीक है, जो फोटो ग्राफर बनना चाहते हैं उनके लिए भी ठीक है ,  पर जो लेखन में गंभीरता से जाना चाहते हैं क्या उनके लिए उचित है ? या महज अहंकार की तुष्टि है | कैसे होती है रचनाशीलता प्रभावित                                      प्रकृति का नियम है जब फल पक जाता है तब वो खाने लायक होता है | सब्जी में कोई मसाला कच्चा रह जाए तो सारी  सब्जी का स्वाद बिगाड़ देता है , चावल कच्चा रह जाए तो खाने योग्य ही नहीं होता … फिर कच्ची रचना का क्या दुष्प्रभाव है ये हम क्यों नहीं सोचते | आज ज्यादातर लेखक जल्दी से जल्दी लाइक कमेन्ट पाने की या प्रतिक्रिया पाने की आशा में कच्ची रचना फेसबुक पर पोस्ट कर देते हैं | ये यूँ तो गलत नहीं लगता पर धीरे -धीरे कच्ची रचना  लिखने की आदत पड़ जाती है | लेखन में धैर्य नहीं रहता | ये बात  आपको तब समझ में आएगी जब आप किसी पत्रिका के लिए भेजे जाने वाले लेखों के इ मेल देखेंगे |  कई संभावनाशील लेखक , जिनमें क्षमता है वो मात्र २० या २२ लाइन का लेख लिख कर भेज देते हैं | जो प्रकाशित पत्रिका में केवल एक -डेढ़ पैराग्राफ  बनता है | अब आप खुद से सोचिये कि क्या किसी प्रकशित पत्रिका में एक  पेज से कम किसी रचना को आप लेख की संज्ञा दे सकते हैं ? उत्तर आप खुद जानते होंगे | एक निजी अनुभव शेयर कर रही हूँ | एक बड़ी  लेखिका जो परिचय की मोहताज़ नहीं है , ने एक बार अटूट बंधन पत्रिका में स्त्री विमर्श का लेख भेजने की पेशकश की | उस अंक में मैं  स्त्री विमर्श के उस लेख के लिए निश्चिन्त थी | परन्तु उन्होंने तय तारीख से ठीक दो दिन पहले दो छोटे छोटे लेख भेजे और साथ में नोट भी कृपया आप इन्हें जोड़ लें | एक अच्छे लेख में एक प्रवाह होता है जो शुरू से अंत तक बना रहता है , लेकिन आज लोग जुड़े हुए पैराग्राफ  को लेख की संज्ञा देने लगे हैं | जो दो फेसबुक स्टेटस की तरह लगते हैं जिनमें तारतम्य बहुत अच्छे से स्थापित नहीं हो पाता | ये लेखिका दिन में कई फेसबुक पोस्ट डालती हैं | अब आप खुद समझ सकते हैं कि जब एक स्थापित लेखिका जल्दबाजी की गलती कर सकती है तो नए लेखकों  का क्या हाल होगा | विज्ञान कहता है जब हम खुश होते हैं , हमें तारीफ़ मिलती है या हमें कुछ रुचिकर लगता है तो हमारे दिमाग … Read more

कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म

                                              जिन्दगी एक सफ़र ही तो है | लोग जुड़ते जाते हैं और कारवाँ बनता जाता है | नये कारवाँ होता है उन लोगों का जो हमें सफ़र में मिलते हैं , हमारी जिन्दगी का जरूरी हिस्सा न होते हुए भी  हमारे शुभचिंतक होते हैं | हमारी ख़ुशी और हमारे गम में साथ देने वाले होते हैं | ये थीम है फिल्म कारवाँ की जिसमें एक सफ़र में जुड़े हुए कारवाँ के साथ जीवन के कई सार्थक सन्देश छुपे हैं | जो बेहतरीन अदाकारी के साथ हँसते मुस्कुराते हुए आपके दिल में गहरे उतर जाते हैं | कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म   निर्माता -आर एस वी पी मूवीज  अभिनेता /अभिनेत्री -इरफ़ान खान,  दुलकर सलमान और मिथिला पारकर  निर्देशक-आकर्ष खुराना कभी कभी खो जाना खुद को ढूंढना होता है ….. कारवाँ में तीन लोग जो एक यात्रा  में खुद को ढूंढते हैं वो  हैं इरफ़ान खान,  दुलकर सलमान और मिथिला पारकर | रिश्ते हों , जीवन हो या सफ़र आपने जैसा सोचा होता है वैसा नहीं होता | जीवन इस रोलर कोस्टर की तरह होता है | कब खान क्या होगा , कब कहाँ रास्ते मुद जायेंगे , कोई नहीं जानता | ये फिल्म भी कुछ ऐसा ही बताती है | फिल्म शुरू होती है फिल्म के प्रमुख नायक  दिलकर सलमान से | फिल्म का नायक एक आई .टी कम्पनी में नौकरी करता है | उसका नौकरी में बिलकुल मन नहीं लगता | नौकरी क्या उसका जीवन में ही मन नहीं लगता | वो एक फ्रस्टेटिड इंसान हैं | ऑफिस में बॉस जो उसी की उम्र का है बार -बार उसको डांटता रहता है,  कि उसने अपने पिता की वजह से उसे नौकरी पर रखा है , वर्ना कब का निकाल देता | सब के बीच बार -बार अपमानित होकर  बस जीविका के लिए नौकरी करता है , और घरेलू  जिन्दगी यूँहीं  अकेलेपन के साथ गुज़ार रहा है | उसे लोगों की कम्पनी पसंद नहीं आती , लोगों से ज्यादा देर बात नहीं कर पाता , और पर्सनल बात तो बिलकुल ही नहीं | ये सारा कुछ पढ़ कर आप ये मत समझिएगा कि वो खडूस है , वो दिल का बहुत कोमल इंसान है | उसके इस व्यवहार के पीछे उसका एक दर्द है ….वो दर्द है अपने मन का काम न कर पाने का दर्द | वो फोटोग्राफर बनना चाहता था , परन्तु उसके पिता इसके खिलाफ थे | वो हमेशा यही दलील देते , ” कमाएगा नहीं , तो खायेगा क्या ?” मजबूरन उसे सॉफ्ट वेयर इंजिनीयर बनना पड़ा | यहाँ  उसके नंबर अच्छे आये और उसे के पिता ने अपने दोस्त की आई .टी कम्पनी में उसे लगवा दिया | इस बात से वो अपने पिता से नाराज़ था | सालों से उनकी बात नहीं हुई थी | जिंदगी यूँही खिंच रही होती है कि एक दिन नायक के पास फोन आता है की उसके पिता जो एक टूर पकेज बुक कर के तीर्थ यात्रा पर गए थे उनकी बस एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी है | उनका कॉफिन वो उस ट्रैवेल एजेंसी से कलेक्ट कर लें | वो शोक की अवस्था में फिर से ट्रैवेल ऐजेंसी को फोन लगता है , पर कोई उसकी बात सुनना नहीं चाहता | वो बस अपना नया प्लान बेचने में लगे हैं | कॉफिन कलेक्ट करने तक ” बस मैं और मेरी  रोजी रोटी ” की कई परते उधडती  हैं | जिसमें हास्य का पुट देते हुए सिस्टम और बढ़ते मानवीय स्वार्थ पर कटाक्ष किया है | नायक का अपने पिता से लगाव नहीं है फिर भी वो उनकी अंतिम क्रिया ठीक से करना चाहता है | वो कॉफिन ले कर विद्धुत शव दाह  गृह में ले जाता है | वहां उसे पता चलता है कि वो किसी  स्त्री की मृत देह ले आया है | दरसल कॉफिन बदल गए हैं | उसके पिता का शव कोच्ची पहुँच गया है | नायक उस महिला से बात करता है और दोनों बीच में कहीं मिलकर कॉफिन बदलने पर सहमत होते हैं | नायक अपने दोस्त इरफ़ान खान से मदद मांगता है | इरफ़ान खान अपनी वैन   में कॉफिन ले कर उसके साथ चल पड़ता है और शुरू होता है सफ़र ….. |  वो लोग रास्ते में ही होते हैं कि कोच्ची से उस महिला का फोन आता है कि उसकी बेटी ऊटी के हॉस्टल से फोन नहीं उठा रही है | नानी की मृत्यु से वो ग़मगीन है कृपया  ऊटी में उससे भी मिल लें | नर्म दिल नायक हाँ कर देता है | आगे के सफ़र में वो १८ -१९ साल की बेटी (मिथिला पारकर )भी साथ में है | यहीं से शुरू होता है नायक का अपने को खोजने का सफ़र | अपने पिता से हद दर्जे की नफ़रत करने वाला नायक उस लड़की के लिए पिता की भूमिका में आने लगता है | जैसा की एक फेमस कोट है … ” एक व्यक्ति को जब ये समझ में आने लगता है कि उसके पिता ने उसके साथ क्या -क्या किया है , तब तक उसका बेटा इतना बड़ा हो जाता है कि वो कहने लगता है … आपने मेरे साथ किया ही क्या है “|  उसके जीवन की गुत्थियां सुलझने लगती हैं | या यूँ कहे कि तीनों सफ़र में अपने को खोजते चलते हैं | मिथिला पारकर ने आठ साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया है और इरफ़ान का पिता शराबी था जिसकी वजह से उसने खुद को हमेशा अनाथ समझा | पिता और संतान का रिश्ता एक  कठिन रिश्ता है जिसके कारण खोजने का प्रयास फिल्म करती है | अंत बहुत ही खूबसूरत है , जहाँ फिल्म थोड़ी भावुक हो जाती है , जब उसे अपने पिता को अपने दोस्त को लिखा खत मिलता है | खत का मजनूँन बताना उचित नहीं .. पर इससे आज के यूथ की एक बहुत बड़ी समस्या का हल मिलता है | दरअसल माता -पिता को दोष देने से पहले हर बच्चे को उन परिस्थितियों को समझना चाहिए … Read more

ड्रग एडिक्शन की गिरफ्त में युवा – जरूरी है जागरूकता

जैसे –जैसे शाम  गहराने लगती है , बड़े पार्कों में , जहाँ ज्यादा घने पेड़ व् झाड़ियाँ हों , दो तरह के लोगों की की संख्या बढ़ने लगती है पहला “ प्रेमी युगल जो हॉस्टल , कॉलेज या कोचिंग से कुछ पल साथ बिताने के लिए बहाने बना कर आये होते हैं , और दूसरा उन किशोर बच्चों और युवाओं के   छोटे –छोटे समूह जो ड्रग्स के शिकार हैं | पार्क के किसी सुनसान कोने में किसी चिलचिलाते  कागज़ , इंजेक्शन या सिगरेट  के साथ अपनी जिंदगी धुंआ करने वाले इन बच्चों के बारे में आज  मैं बात कर रही हूँ , जिन्हें आप ने भी शायद सब से डरते छुपते नशा करते देखा होगा , परन्तु कुछ कहा नहीं होगा , क्योंकि उस समय ये कुछ कहने सुनने की मानसिक अवस्था में नहीं होते हैं |  ड्रग एडिक्शन की गिरफ्त में युवा – जरूरी है जागरूकता  अभी  कुछ दिन पहले व्हाट्स एप पर एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें एक माँ अपने बच्चे को ढूंढते हुए कूड़े के ढेर के पास जाती है | वहाँ  उसे अपने बेटे का शव मिलता है | रोती –विलाप करती माँ को उसके हाथों में एक इंजेक्शन मिलता है |   ड्रग्स ने  उसके बच्चे की जान ले ली थी | माँ के ऊपर अंगुली उठाने से पहले रुकिए … ये भी हमारी आप जैसे ही कोई माँ होगी जो अपने बच्चे को दुनिया का सबसे प्यारा बच्चा कहती होगी … पर कब कैसे ये लाडला ड्रग की गिरफ्त में आया इसकी कहानी माँ के प्यार की कमी नहीं एक साजिश थी , जिसका वो शिकार हुआ |  ड्रग्स लेने वाले बच्चों की संख्या दिनों दिन बढती जा रही है | ये बहुत दुखद है | भारत में हर साल १० हज़ार करों रुपये की हेरोईन इस्तेमाल होती है | भारत एशिया का सबसे बड़ा हेरोइन इस्तेमाल करने वाला देश है | ५० लाख से ज्यादा युवा ड्रग्स के एडिक्शन के शिकार हैं ये संख्या हर रोज बढ़ रही है | पंजाब और दिल्ली ने इनकी संख्या पूरे भारत में सबसे ज्यादा है | सबसे ज्यादा नुक्सान पंजाब को हुआ है | इस विषय पर “उड़ता पंजाब” फिल्म भी बनी थी | पाकिस्तान जो की अफीम का सबसे बड़ा उत्पादक है, वहाँ   से आने वाली अफीम को नार्कोटेरिरिज्म का नाम दिया गया है | पाकिस्तान से एक लाख की अफीम दिल्ली आते –आते एक करोंण की हो जाती है , यानी पैसा और युवा वर्ग दोनों की बर्बादी का उद्देश्य पूरा हो जाता है | ये जानते समझते हुए भी ये संख्या रोज बढ़ रही है |  क्यों होते हैं ड्रग एडिक्ट  ये ड्रग्स कुछ रुपयों से ले कर लाखों रुपयों तक की होती है | इसीलिये गरीब से लेकर अमीर तक इसके शिकार हैं | यूँ तो किसी भी एडिक्शन से निकलना मुश्किल है पर  दूसरे नशों में एडिक्ट बनने  में समय लगता है पर ड्रग्स के मामले में एक या दो डोज ही एडिक्ट बनाने के लिए पर्याप्त हैं | ड्रग्स रीहैब सेंटर्स के अनुसार  हम जब भी तकलीफ में होते हैं तो हमारा शरीर कुछ ऐसे केमिकल बनाता  है जो हमें आराम पहुचायें , घर में किसी प्रियजन की मृत्यु होने पर भी इंसान एक सीमा तक रोने चीखने के बाद खुद ही शांत पड़ जाता है , थोड़ी देर बाद फिर दर्द की लहर आती है | दरअसल ये हमारे शरीर की दर्द की प्रतिरोधक क्षमता होती है | जो हमें बचाए रखती है |  ड्रग्स की एक या दो डोज लेने के बाद ही हमारा शरीर वो केमिकल बनाना बंद कर देता है | अब जब भी मष्तिष्क को शांति या आराम चाहिए तो ड्रग्स की शरण में जाना ही पड़ेगा | ये एक ऐसा चक्रव्यूह है जिसमें एक बार फंसने के बाद निकलना मुश्किल है | कैसे बढ़ रहे हैं ड्रग एडिक्ट   ड्रग एडिक्शन की शुरुआत केवल किसी परिचित के ये कहने से होती है , “ एक बार , बस एक बार …. और ये शिकंजा बढ़ता चला जाता है | सवाल ये है की जो खुद ड्रग्स के कुप्रभाव अपने शरीर पर झेल रहा है वो दूसरों को क्यों फँसाता है ? दरअसल उसे फ्री में ड्रग्स का लालच दिया जाता है | जो जितनों को जोड़ लेगा उनको ड्रग्स फ्री हो जायेगी | एक ड्रग एडिक्ट के लिए ड्रग्स साँसे बन जाती है और वो अपना जीवन बचाने  के लिए दूसरों का जीवन लीलने से गुरेज नहीं करता | ड्रग्स बनाने वाली कम्पनियां भी यही तो  चाहती हैं इसीलिए वो सदस्य बढ़ाने  के एवज में फ्री ड्रग का ऑफर रखतीं है | पार्कों के आस –पास आपने भी कुछ ऐसे शातिर आँखें जरूर देखी  होंगी जो शिकार ढूंढ  रहीं है पर हमें क्या ये सोच कर हम आगे बढ़ जाते हैं , पर जो चपेट में आता है वो हमारा न सही किसी दूसरे का मासूम बच्चा ही होता है |  एक बार चपेट में आने का मतलब ज्यादातर मामलों में कभी ना निकल सकना ही होता है क्योंकि जितने रीहैब सेंटर हैं वो जितने ड्रग एडिक्ट हैं की तुलना में ऊँट के मुंह में जीरा ही हैं | कैसे दूर करें  ड्रग एडिक्शन  मेरा इस पोस्ट को लिखने का मकसद किशोर और युवाओं से ये गुजारिश करना है कि कोई कुछ भी कहे एक बार ले लो , अरे अभी  तो माँ के आँचल में बैठा है , बच्चा है … बेबी , बेबी … पर अपनी ना पर अडिग रहे | ये किसी भी हालत में बड़ा बनना नहीं है | बड़ा वो है जो समझदार है , जो हित –अनहित जानता है |  दूसरे समाज  को ड्रग एडिक्ट के बारे में अपना रवैया बदलना होगा | हम सब ड्रग एडिक्ट पर एक लेबिल लगा देते हैं कि ये तो ड्रग एडिक्ट है … समाज उसे स्वीकारता नहीं तो वो फिर से उन्हीं लोगों के पास जाएगा जो ड्रग एडिक्ट हैं , कम से कम उसे वहां अपनापन तो मिलेगा |  अपने बच्चों की छोटी सी छोटी गतिविधि पर ध्यान रखें | आपके व्हाट्स एप , मोबाइल या फेसबुक लाइक से कहीं जायदा जरूरी है कि बच्चों समय दिया जाए |  जरूरी है कि … Read more

Midlife Crises क्या है और इससे कैसे बाहर निकलें

                    एक तरफ बुजुर्ग होते माता -पिता की जिम्मेदारी दूसरी तरह युवा होते बच्चों के कैरियर व्  विवाह की चिंता और इन सब से ऊपर अपने खुद के स्वास्थ्य का गिरते जाना या उर्जा की कमी महसूस होना | midlife जिसे हम प्रौढ़ावस्था भी कहते हैं  वो समय है जब लगातार काम करते -करते व्यक्ति को महसूस होने लगता है कि उसकी जिन्दगी काम के कभी खत्म न होने वाले चक्रव्यूह में फंस गयी है |तबी कई भावनात्मक व् व्यवहारात्मक परिवर्तन होने लगते हैं | जिसे सामूहिक रूप से midlife क्राइसिस के नाम से जाना जाता है | Midlife Crises क्या है और इससे कैसे बाहर निकलें       याद है जब पहला सफ़ेद बाल देखा था … दिल धक से रह गया होगा | क्या बुढ़ापा आने वाला है ? अरे हम तो अपने लिए जिए  ही नहीं अब तक | तभी किसी हमउम्र की अचानक से मृत्यु की खबर आ गयी |कल तक तो स्वस्थ था आज अचानक … क्या हम भी मृत्यु की तरह बढ़ रहे हैं| क्या इतनी जल्दी सब कुछ खत्म होने वाला है |45 से 65 की उम्र में अक्सर लोगों को एक मनोवैज्ञानिक समस्या का सामना करना पड़ता है , जिसे midlife crisis के नाम से जाना जाता है | इसमें मृत्यु भय , अभी तक के जीवन को बेकार समझना , जैसा जी रहे थे उससे बिलकुल उल्ट जीने की इच्छा , बोरियत , अवसाद , तनाव या खुद को अनुपयोगी समझना आदि शामिल हैं | ये मनोवैज्ञानिक समस्या शार्रीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करती है |                              उदहारण के तौर पर  कल रास्ते में  साधना जी मिल गयीं | बहुत थकी लग रहीं थी | धीमे -धीमे चल रही थीं | मैंने हाल चल पूंछा तो बिफर पड़ी , ” क्या फायदा हाल बताने से ,  डायबिटीज है , पैरों में ताकत नहीं लगती ऊपर से अभी घुटने का एक्स रे कराया तो पता चला कि हड्डी नुकीली होना शुरू हो गयी है | डॉक्टर के मुताबिक अभी अपना ध्यान रख लो तो  जल्दी ऑपरेशन करने की नौबत नहीं आएगी  अब आप ही बताइये सासू माँ का हिप रिप्लेसमेंट हुआ है , बेटे के बोर्ड के एग्जाम चल रहे हैं , बाकी रोज के काम तो हैं ही ऐसे में तो लगता है कि जिन्दगी बस एक मशीन बन कर रह गयी है |                    ऐसा नहीं है कि ये समस्या सिर्फ महिलाओं के साथ है पुरुष भी इससे अछूते नहीं हैं | रमेश जी  ऑफिस से लौटे ही थे कि पत्नी ने नए सोफे  के लिए फरमाइश कर दी | बस आगबबुला हो उठे | तुम लोग बस आराम से खर्चा करते रहो और मैं गधो की तरह कमाता रहूँ | अपने लिए न मेरे पास समय है न ही  तुम लोगों के बिल चुकाते -चुकाते पैसे बचते हैं |                 ये दोनों ही mid life crisis के उदाहरण हैं |इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे कारण होते हैं | जैसे महिलाओं का मेनोपॉज व् माता -पिता की मृत्यु या किसे हम उम्र प्रियजन को खोना , अपने सपनों के पूरा न हो पाने का अवसाद ( इस उम्र में व्यक्ति को लगने लगता है कि उसके सपने अब पूरे नहीं हो पायेंगे क्योंकि उम्र निकल गयी है | Midlife Crises के सामान्य लक्षण                                   यूँ तो midlife crisis के अनेकों लक्षण होते हैं जो अलग -अलग व्यक्तियों के लिए अलग होते हैं पर यहाँ हम कुछ सामान्य लक्षणों की चर्चा कर रहे हैं | mood swings _ये लक्षण सामान्य तौर पर सबमें पाया जाता है | लोग जरा सी बात पर आप खो बैठते हैं | इसका बुरा प्रभाव रिश्तों पर भी पड़ता है | अवसाद और तनाव – इसका शिकार लोग दुखी restless या तनाव में रहते हैं | खुद के लुक्स पर ज्यादा ध्यान –  उम्र बढ़ने को नकारने के लिए खुद पर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं | स्रि बोरियत – ऐसा लगता है कि वो जीवन में कहीं फंस गए हैं जहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं है | जीवन का उद्देश्य समझ नहीं आता | मृत्यु के विचार – दिमाग पर अक्सर  मृत्यु के विचार छाए रहते हैं | midlife crisis से निकलने के उपाय                                midlife crisis से निकलने के लिए कुछ सामान्य  उपाय अपनाए जा सकते हैं | संकल्प –                          बीमारी कोई भी हो सुधर का पहला रास्ता वो संकल्प है जिसके द्वारा ह्म ये स्वीकार करते हैं कि मेरी जिंदगी जैसे है वैसे नहीं रहनी चाहिए मुझे इसे बदलना है | अगर आप भी ये संकल्प ले लेते हैं तो समझिये आधा रास्ता तय हो गया | ध्यान                            ध्यान एक बहुत कारगर उपाय है जो आपको अपनी तात्कालिक समस्याओं के कारण उत्त्पन्न तनाव व् अवसाद को दूर करने में सहायक है | दिमाग का स्वाभाव है कि वो एक विचार से दूसरे विचार में घूमता रहता है | कभी नींद न आ रही हो तो आपने भी ध्यान दिया होगा कि इसकी वजह ये नहीं थी कि आप रकिसी एक विचारपर केन्द्रित थे बल्कि आपका दिमाग एक विचार से दूसरे विचार पर कूद रहा था | जिसे आम भाषा में ” monkey mind” कहते हैं | नेयुरोलोजिस्ट के अनुसार ये DMN या DEFAULT MODE NETWORK है | ध्यान  मेडिटेशन हमें किसी एक विचार पर ध्यान  केन्द्रित अ सिखाता है | जिस कारण विचार भटकते नहीं है और गुस्सा , अवसाद व् तनाव जो कि अनियंत्रित विचारों का खेल है काफी हद तक कम हो जाता है |  ख़ुशी की तालाश छोड़ दें                                   सुनने में अजीब … Read more

कन्यादान

इन दिनों शादियों का मौसम चल रहा है और पिछले कई सदियों से शादियों में कुछ बदला है तो बस उनका ताम झाम. बाकि सब कम ज़्यादा वैसा की वैसा. दूल्हा बारात लेकर आएगा, तोरण मारकर विजयी महसूस करेगा और बेटी का बाप उसे अपनी  कन्या दान में दे देगा….. और साथ ही दान में देगा अनगिनत चीज़ें , सामान और नकद. कन्यादान -गलती हमारी है कन्या तो हर शादी में एक सी और एक ही होती है ….. पर शादियां उनमे मिलने वाले बाकी दान दहेज़ के हिसाब से छोटी और बड़ी हो जाती हैं. सिर्फ यह सुनने के लिए की उन्होंने कितनी बढ़िया और बड़ी शादी की लड़की के घर वाले दहेज़, नकद, कपड़ों, गहनो, में कोई कमी नहीं छोड़ते….. इस तरह देने लेने में कोई कमी नहीं रहती,  कुछ छूट नहीं जाता ……. कमी तो छूट जाती है बस लड़की के दिल में …… न जाने कितनी और क्या क्या ….जड़ों से निकल कर दूसरी जगह लगाओ तो कुछ पौधे फिर खिल उठते हैं कुछ कभी नहीं खिल पाते ….. निर्भर करता है उन्हें नयी जगह पर कितना खाद पानी और धूप  मिली… जो नहीं खिल पाते, जिनको अपने हिस्से की खाद पानी धुप नहीं मिलती वो मुरझा जाते हैं, औरतें पौधा नहीं होती, नहीं हो सकती, अगर हो सकती तो दिखा भी सकती अपना मुरझाना, झुलसजाना, सूख जाना, अकेले पड़ जाना…… जड़ों से अलग होकर फिर से हरा होने की चुनौतियां… और उन चुनौतियों में कभी जीतना और कभी हार जाना  पितृसत्तात्मक व्यवस्था का सबसे क्रूर संस्कार ही है कन्यादान……. अपनी बेटियों को जिनका पूरा संसार आप हैं, आप खुद से सिरे से अलग कर दें, यही नहीं उस पर अपने सारे अधिकार त्याग दें, और उस पर न जाने कितने अधिकार औरों को दे दें, उस का खुद पर जो अधिकार है उसे गौण समझें…… इन सबसे कहीं अच्छा तो यह है की आप जितना रुपया पैसा उसकी शादी पर लगाना चाहते हैं वो सब देकर उसे एक दिन हमेशा हमेशा के लिए घर से निकाल दें…. उसे पराधीन बनाकर खुद से अलग करना और फिर कहना की ज़माना क्रूर है……. ज़माना क्रूर नहीं है हम बेटियों के लिए क्रूर तो खुद माता पिता हैं ….. जो बराबरी का व्यवहार करते करते एक दिन अचानक बेटी और बेटे में इतना बड़ा अंतर कर देते हैं और भेज देते है बेटी को  अपने से दूर सदा के लिए…………… जो सदियों की कहानी है, आज की हक़ीक़त भी वही है……. मेरे दोस्त, मेरी बुआएं, मेरी माँ, मेरी चाची, मेरी दादी, मेरी बहने और मैं खुद …… हम सब दान में दिए जा चुके हैं……. हम सब वस्तुएं हैं….नहीं!  मेरी नज़र में दोष बहार वालों का नहीं, ससुराल वालों का नहीं, लड़के के रिश्तेदारों का नहीं, सारा दोष उन माँ बाप का है जो व्यवस्था के आगे कमज़ोर पड़े, उन लड़कियों का है जिन्होंने अपने आप को सामान समझने की मौन सहमति दी, लड़की के उन सब रिश्तेदारों और घर वालों का है जो उसकी शादी में नाच गाना और खुद का मनोरंजन करके चलते बने…… कब तक हम सामने वाले पर उंगली उठाते रहेंगे……. कब करेंगे खुद से वो सारे प्रश्न जो बाकी की तीन उंगलियां हम पर दागे हुए है…… दोष हर उस बुआ का है जो घर आकर भाई को नसीहत देती है की बेटी का ब्याह कर उसे अपने घर का करो ….. समाज वाले  बातें बनाने लगे हैं…. दोष हर उस ताऊ का है जो बेटी को कुछ बनते और करते देख कहता है की ज़्यादा कुछ बन गयी तो फिर शादी ब्याह में बड़ी दिक्कत आएगी , दोष हर उस माँ का है जो कहती है की अब क्या लड़की को घर में ही बिठाना है जीवन भर, दोष उस भाई का है जो अपनी बहन के स्वतंत्र ख्यालों और विचारों को बर्दाश्त नहीं कर पाता |  सबसे अधिक दोष उस लड़की का है जो अपने विचारों का साथ देने की हिम्मत नहीं जुटा पाती……….हाँ दोष हम लड़कियों का है …… हम यह जानते हुए की हमारे साहस के अनुपात में हमारा जीवन बढ़ेगा और संकुचित होगा ….. हम हिम्मत नहीं कर पाते ….. हम बनाने देते हैं खुद को एक खूबसूरत और फायदे भरा सौदा/ पैकेज ….. हमारे ही नाम पे हम होने देते हैं नकद रुपयों का आदान प्रदान, और दोनों पक्षों में से किसी को भी फ़िक्र नहीं होती की उन्होंने हमारे स्वाभिमान को किस तरह चूर चूर कर दिया होता है| हम लडकियां होती हैं दोषी की हम तैयार नहीं होती जीवन भर एक ऐसे साथी का इंतज़ार करने के लिए जो हमें कम से कम एक पैकेज न बनने दें…. हमें हमारी गरिमा और गौरव के साथ मिले. हम ही तो बना देती है एक कमज़ोर आज्ञाकारी पुत्र को अपने जीवन का परमेश्वर.. गलती किसीकी नहीं… हमारी है… भले ही हम ऐसे माहौल में रहती हों जहाँ हमारा आत्मविश्वास तोडना सामाज का पसंदीदा शग़ल रहा हो …… पर उसे टूटने देने की गलती फिर भी हमारी है…… हमारे जीवन के निर्णयों में कोई कितना भी हस्तक्षेप करे पर अंतिम निर्णय खुद न लेने की गलती हमारी है….. प्यार प्रेम और सम्मान के नाम पर मांगी गई सो कुर्बानिया रास्ता रोक के खड़ी हों पर उस राह पे कुर्बान होने की गलती हमारी है…… कोई भी दोषी नहीं हो सकता हमारी स्वाभिमान को तोड़ने का ……  क्योंकि अपने मान, अपनी गरिमा, और स्वाभिमान को अलहदा रख रीति रिवाजों के नाम पर दान में जाने की गलती भी हमारी है….. अपर्णा परवीन कुमार   यह भी पढ़ें … यह भी पढ़ें … विवाहेतर रिश्तों में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ बेटी को बनना होगा जिम्मेदार बहु यूँ चुकाएं मात्र ऋण आपको  लेख “ कन्यादान -गलती हमारी है “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अ टूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-hindu marriage, kanyadan, marriage

राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म

देशभक्ति की बहुत सी फिल्में बनी और बहुत लोकप्रिय भी हुई | परन्तु “राजी “ एक ऐसे फिल्म है जिसमें देशभक्ति को एक ऐसे कलेवर में प्रस्तुत किया कि अंत तक आते – आते दर्शक ” आखिर युद्ध होते ही क्यों हैं के सवाल के साथ सिनेमा हॉल से भारी मन के साथ बाहर निकलता है | ये ऐसी फिल्म है जिसमें युद्ध की विभीषिका में केवल  अपने देश के पक्ष को ही नहीं बल्कि दूसरे  पक्ष यानि पाकिस्तान की भी मानवीय संवेदनाओं को बखूबी उबारा गया है | युद्ध चाहे किन्ही दो देशों के मध्य हो युद्ध में मारे गए  सैनिक कोई अपराधी नहीं होते , वो अपने -अपने देश के वफादार होते हैं | इस वफ़ा की कीमत वो अपनी जान देकर चुकाते हैं | एक तरह से ये फिल्म भारत / पाकिस्तान  जिंदाबाद के नारे न लगाते हुए युद्ध के विरुद्ध मानवीय संवेदनाओं को जगाती है |  फोटो क्रेडिट –फोटो समाचारनामा .कॉम से साभार                                          फिल्म की डायरेक्टर मेघना गुज़ार बहुत सुलझी हुई डायरेक्टर हैं | इससे पहले उनकी दो फिल्में ‘फिलहाल ‘ और आरुशी मर्डर केस पर आधारित फिल्म ‘तलवार’ आई थी | दोनों फिल्मों में उनके निर्देशन की बहुत सराहना हुई |यह उनकी तीसरी फिल्म है जो साढ़े हुए निर्देशन के कारण उनके कैरियर का मील का पत्थर साबित होगी | यह फिल्म हरिंदर सिक्का के उपन्यास “कॉलिंग सहमत ” पर आधारित है | इसमें असल जिंदगी पर आधारित भारतीय जासूस की कहानी दर्शाने की कोशिश की गयी है | उपन्यास पर आधारित होने के बावजूद जिस तरह स्क्रीन प्ले व् एक के बाद एक घटनाएं लिखी गयीं हैं वो काबिले तारीफ़ है | इतनी घटनाओं को सिलसिलेवार कहानी के रूप में दर्शाने के लिए निश्चित तौर पर मेघना गुलज़ार ने काफी मशक्कत व् होम वर्क किया होगा | राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म                                    फिल्म की कहानी  भारतीय जासूस  ‘सहमत ‘ पर आधारित है | सहमत एक २० साल की कॉलेज स्टूडेंट हैं जो दिल्ली में पढ़ रही हैं | उसके पिता ‘ हिदायत खान ‘ भारतीय जासूस हैं | जिन्होंने अपनी पहुँच पाकिस्तान के ब्रिगेडियर जनरल तक बना ली है | भारत के जासूसी ट्रेनिग के हेड खालिद मीर उनके अच्छे दोस्त हैं |  ये समय १९७१ का है जब  आज के बांग्लादेश  में पूर्वी पाकिस्तान से अलग होने की लड़ाई शुरू हो गयी थी | हिदायत खान को  फेफड़े का ट्यूमर निकलता है पर उनके अन्दर देश भक्ति का इतना जज्बा है कि वो इस नाजुक समय में अपनी बेटी को पाकिस्तान भेज कर सूचनाएं भारत भिजवाना चाहते हैं | वो अपनी बेटी को बुलवा लेते हैं | पहले तो वो राजी नहीं होती | फिर उसे अहसास होता है  कि  देश के आगे कुछ नहीं खुद वो भी नहीं और वो इस काम के लिए राजी हो जाती है | उसकी  ट्रेनिंग होती है | एक मासूम बच्ची जो खून देख कर डरती थी देश के लिए जान देंने व् लेने को तैयार हो जाती है | एक योजना के तहत उसका निकाह पाकिस्तान के ब्रिगेडियर  जेनरल के बेटे इकबाल से कर दिया  जाता है | फिल्म क्योंकि जासूसी की है इसलिए इसमें कई जगह कोड वर्ड्स का खूबसूरत प्रयोग हुआ है | इसके अतरिक्त दर्शकों को जासूसी के  के बारे में काफी जानकारी मिलती है | बहु बन कर आई सहमत अपने मिशन में लग जाती है |  वो कुछ भी कर के सूचनाएं निकालती है और भारत भेजती है | पर यहीं से फिल्म का भावनात्मक पक्ष शुरू होता है | वो जिस घर में बहु बन कर आई है वहां पाकिस्तान आर्मी के तीन लोग हैं | उसके ससुर , जेठ व् पति |    वहां पर भी वही मानवीय संवेदनाएं हैं वही देशभक्ति का जज्बा है और वही भावनाओं से भरे रिश्ते हैं |भावनात्मक पक्ष इतनी मजबूती से प्रस्तुत किया गया है कि पाकिस्तानी हो या हिन्दुस्तानी किसी की भी तकलीफ से दर्शक  के  मुंह से बस आह निकलती है | उस समय वो सिर्फ और सिर्फ एक इंसान होता है | जब इकबाल  बंदूक तान कर कहता है ” देश के लिए कुछ भी “तो स्वाभाविक रूप से मानवीय संवेदनाएं उमड़ती है और दिल चीखने लगता है ” रोक लो , कोई इस युद्ध को रोक  लो ,युद्ध में कोई नहीं जीतता , दोनों हारते है , हम फिल्म में पॉप कॉर्न  खाते हुए भले ही अपने-अपने  देश के लिए नारे लगा लें पर क्या इससे सीमा और देश के लिए मरने वाले सैनिकों के जज्बे को सार्थक सलामी दे पाते हैं | क्या युद्ध किसी समस्या का निदान कर पाता है या बस दोनों तरफ रोते बिलखते परिवारों का जखीरा खड़ा  कर देता है | अभिनय की दृष्टि से आलिया भट्ट  ने बहुत प्रभावित किया है | उन्होंने एक बार फिर सिद्ध किया है की यूँ ही नहीं उन्हें आज की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री कहा जाता है | विक्की कौशल ने भी इकबाल का किरदार बहुत अच्छा निभाया है | अन्य कलाकारों ने भी अपने रोल के साथ न्याय किया है | फिल्म की शूटिंग मात्र ४९ दिनों में पूरी हो गयी थी | इसका बजट तीस करोंण का है |  बनते ही फिल्म बिक गयी थी | इसे कितना मुनाफा होगा ये अभी नहीं कहा जा सकता , पर इस फिल्म को बहुत अच्छी माउथ पब्लिसिटी मिल रही है जिससे भविष्य में इसके और मुनाफा कमाने की सम्भावना है | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……. कटघरे : हम सब हैं अपने कटघरों में कैद बहुत देर तक चुभते रहे कांच के शामियाने करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का आपको  समीक्षा   “लिव इन को आधार  बना सच्चे संबंधों की पड़ताल करता ” अँधेरे का मध्य बिंदु ““ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि … Read more

युवाओं में “लिव इन रिलेशन “ की ओर झुकाव …आखिर क्यो ????

आज कल आधुनिकता का दौर तेजी से बढ़ रहा है आधुनिक सभ्यता ने इस कदर पाँव पसार लिए हैं कि लगता नहीं है अब युवा वर्ग पीछे की ओर देखेगा ।युवा वर्ग आखिर शादी की जिम्मेदारियों से बच्चों की जिम्गमेदारियों से  क्यों भाग रहा है ? आखिर ये समस्या आयी कैसे ? क्या इसके पीछे कुछ माता-पिता का व्यवहार तो नहीं ?   आधुनिकता के पीछे भागने वाला कोई भी गरीब व्यक्ति नहीं है इसके पीछे भागने वाला सम्रद्ध सम्पन्न मध्यम वर्ग का प्राणी है जो  समाज में अपनी एक दिखाबटी साख बनाने में विश्वास रखता है ये वो  तबका है जिसको अपने परिवार से ज्यादा अपने स्टेटस को लेकर चिन्ता रहती है समाज में ………आज की इस आधुनिक शैली के कारण ही न जाने कितने परिवार टूट चुके हैं ..और परिवार का इस तरह टूटना कहीं न कहीं बच्चे को भी तोड़ देता है अन्दर से वैवाहिक जीवन की सोच को लेकर ..तब वो बच्चा सोचने लगता है कि अगर विवाह का ये ही हश्र है तो उसको “विवाह नही करना “ वो इस नतीजे पर सोचने को विवश हो जाता है | पैसा बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नहीं  एक तरफ घर में माता-पिता के बीच तनाबग्रस्त जीवन और दूसरी ओर बढती हुयी आधुनिक शैली —सोच सकते हैं हम जिस वक्त बच्चा मेच्योर होने की अवस्था में होता है वो इस मनोदशा से गुज़र रहा हो तो उसकी सोच कहाँ जा कर कैसा रूप लेगी ।लिव इन की ओर झुकाव होना ऐसे में सम्भव हो जाता है उनके लिए । विवाह उनको एक बन्धन लगने लगता है ..रोज की माता पिता की ओर से रोका टोकी , रोज के माता पिता के झगडे़ ,  अपनी नौकरी का तनाब उस पर किराये के मकान पर रहने पर किराया देने का बोझ न जान कितने कारण हो जाते है जो वो लिव इन को स्वीकृति देने लगते हैं उनके  मन में ….लेकिन वो भूल जाते हैं कि लिव इन रिलेशन के निगेटिव पक्ष भी होते हैं .. घटनायें तो दोनो में ही घटतीं हैं …चाहें विवाह हो या लिव इन रिलेशन..….शायद वो इस तरफ ध्यान देता नहीं है या देना नहीं चाहता …..उसको सोचना चाहिए —- १-विवाह पर समाज की मोहर लग जाती है  लिव इन पर खुद लड़के-लड़की का डिसीजन होता है २-विवाह एक हमारी भारतिय शैली है  लिव इन विदेश का चलन  ३- विवाह में एक दूसरे से अलग होने पर रिश्ता कानूनी कार्यवाही की माँग करता है  लिव इन में जब तबियत हो बोरिया बिस्तर बाँध कर अलग होने का अपना डिसीजन ४- विवाह में स्त्री की मदद कानून के द्वारा दिलायी जाती है   लिव इन में ऐसा कुछ नही है (शायद ) निगेटिव पॉइंट दोनों में  ही होते है —- कभी -कभी लिव इन में एक पक्ष इस तरह जुड़ जाता है दूसरे की भावनाओं से , कि अपने दोस्त के छोड़ कर चले जाने पर अपने आपको हानि देने से भी नही चूकता..या आपने पार्टनर को हानि देने से भी…… यही हाल विवाह में भी देखा जाता है —-लेकिन हमारा मानना है कि अगर एक समय बाद उम्मीदें , अपेक्षाएं दोनों ही रिश्तों में जाग जाती हैं तो युवा “लिव इन रिलेशन “को प्राथमिकता देते नज़र क्यों  आते हैं ?  घुटन से संघर्ष की ओर   ये समस्या या इसका समाधान अभी नहीं निकला तो वो दिन दूर नही .. जिसका परिणाम आगे आने वाले समय और पीढी को इसका ख़ामियाज़ा न झेलना पड़ेगा …..।   हमारे  युवा वर्ग को सोचना चाहिये कोई भी रिश्ता बिना आपसी विश्वास और स्पेस के ज्यादा समय टिकना बहुत मुश्किल होता है । आपसी सम्बन्ध वही ज्यादा टिकते यानि लम्बा सफर तय करता हैं जिस जगह पर दोनों के रिश्ते  में विश्वास और स्पेस होता है ।          हमारी भारतिय सभ्यता को विदेशी अपना रहे हैं और भारत का युवा विदेशी सभ्यता के फेरे में पड़ा है ।ये एक गम्भीर सोच का मुद्दा है .. लिव इन रिलेशन कोई हलुआ नहीं ..झगड़े लिव इन में भी होते हैं और शायद शादी शुदा लोगों से ज्यादा …विदेश में आये दिन पार्टनर बदल लेते हैं लोग ——ये हिन्दुस्तान में सम्भव है क्या ??  हमारी युवा पीढी को शादी और लिव इन के डिफरेन्स को समझना होगा …….।।।                   लेखिका —कुसुम पालीवाल , नोयडा यह भी पढ़ें …… बुजुर्गों की अधीरता का जिम्मेदार कौन क्यों लुभाते हैं फेसबुक पर बने रिश्ते बस्तों के बोझ तले दबता बचपन गुड़िया कब तक न हँसोगी से लाफ्टर क्लब तक  आपको  लेख “युवाओं में “लिव इन रिलेशन “ की ओर झुकाव …आखिर क्यो ????“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under-live in relationship, live in

गुड़िया कब तक न हँसोगी से लाफ्टर क्लब तक

                            एक पुराना बहुत प्रसिद्द गीत था , ” गुड़िया कब तक न हँसोगी.. आई रे आई रे हँसी  आई, ये वो जमाना था जब हँसी बात बेबात पर होठों पर थिरक जाया करती थी | हँसी  को रोकना मुश्किल होता था | जब लोगों के पास सुख -दुःख बाँटने का समय होता था | लोग खुल कर हँसते थे , पर उसके लिए उन्हें द्विअर्थी संवादों या कॉमेडी के नाम पर अश्लीलता परोसते टी वी शो कीजरूरत नहीं थी | सहज हास्य जीवन में बिखरा हुआ था | लोकगीतों में था | ननद -भाभी की छेड़ -छाड में था | पर हम विकास के नाम पर जिन चीजों का विनाश करते गए उनमें से एक थी सहज हँसी | बच्चों की मुस्कान से निर्मल व् कोमल | आदमी का कद जितना बड़ा हुआ उसकी हँसी उतनी ही कम होती गयी | जेठ की तपती दोपहर में एक ठेले वाला भले ही कुछ पल हँस लेता हो पर एक ऑफिस बड़ी पोस्ट पर  काम करने वाला हँसना भूल चुका है | एक बार ओशो ने कहा था ,  ” सच्ची हँसी ‘ध्यान’ की तरह है | जिस तरह से ध्यान में कोई विचार नहीं टिकता उसी तरह सहज हँसी में कोई अन्य विचार नहीं टिकता | वो हँसी  जो आत्मा से आ रही हो , जिसमें एक -एक कोशिका हँसती हो , क्या हम वो बचपन की हँसी  सहेज पाए हैं ? कल विश्व हास्य दिवस था | घर के पास वाले पार्क में स्त्री और पुरुष दो अलग -अलग घेरों में बैठे हँसने  की कोशिश कर रहे थे | 1, 2,3… और हाथ उठा के जोर से हाहा हा हा | इसमें एक लय थी जो साथ -साथ उठती , साथ साथ बंद हो जाती … इसे क्या कहा जा सकता है हँसने  का अभिनय या हँसने का व्यायाम |  जो भी हो यह हँसी तो बिलकुल नहीं थी | क्योंकि इसमें कोई हँसते -हँसते गिर नहीं रहा था , कोई पेट पकड कर नहीं कह रहा था , ” अब बस करो , पेट दर्द करने लगा , न ही किसी की आँखों से हँसते -हँसते आँसू टपक रहे थे | जैसे -जैसे सहज हास्य हमारे जीवन से दूर होता जा रहा है , निश्छल हँसी दुर्लभ होती जा रही है , अब हम बनावटी हँसी हँसते है | हँसी  अंदर से किसी धारा  की तरह नहीं फूट रही बस ऊपर ऊपर है तो अभिनय ही तो है कभी किसी का स्वागत करने को , कभी किसी को खुश करने को , कभी अपनत्व दिखाने को किया गया हँसने का अभिनय वास्तविक हँसी  नहीं है | ऐसे ही एक किस्सा याद आ रहा है , एक ऑफिस में बॉस रोज अपने कर्मचारियों को चुटकुले सुनाता था | सभी कर्मचारी पेट पकड़ कर हँसते थे | बॉस को लगा कि वो बहुत अच्छे चुटकुले बनाता है जिस कारण सब इतना हँसते हैं | एक दिन उसके चुटकुलों पर सब तो हँस रहे थे पर एक लड़की नहीं हँस रही थी | बॉस ने पूंछा , ” तुम क्यों नहीं हँस रही हो ?” लड़की ने  उत्तर दिया , ” मैं इस महीने इस्तीफ़ा दे रही हूँ ,|” अब उसके हँसने का कोई मतलब नहीं था | बाकी सब को उसी नौकरी में रहना था इसलिए उन्हें उन चुटकुलों में हँसना था | हँसी को दुर्लभ बनाने में पूरे समाज की भूमिका है | यहाँ न हँसों , वहाँ न हँसों , ऐसे न हँसों , वैसे न हँसों में हंसी सिमटती गयी , कैद होती गयी | फिर भी कभी कभी पारिवारिक समारोहों में उसे  कैद से निकाल कर खुल कर खिलने की इजाज़त होती थी पर आज सोशल मीडिया के ज़माने में  हँसी और दूर हो गयी | हम एक विचार पर टिक नहीं पाते | शोक यो या ख़ुशी बस इमोजी से व्यक्त कर आगे बढ़ जाते हैं | अगर थोडा बहुत हँसते भी हैं तो वही टीवी के फूहड़ हास्य पर जो  हँसी की निर्मल धरा को जीवित करने के स्थान पर उसे प्रदूषित कर  रहा है | हँसी  के टॉनिक की कमी के कारण कई मानसिक , शारीरिक रोग उत्पन्न हुए तो हँसने के लाफ्टर क्लब खुल गए … जहाँ हँसी  व्यायाम में बदल गयी | विश्व हास्य दिवस मनाने के स्थान पर हमें उस हँसी की खोयी हुई प्रजाति को पुनर्जीवित करना होगा | समझना होगा सहज हास्य छोटी -छोटी खुशियों को पकड़ने में होता है | जीवन की रेस में आगे भागते हुए अगर सफलता हँसने की कीमत पर मिलती है तो यह कहना अतिश्योक्ति न होगी की हम बहुत कुछ खो कर थोडा सा पा रहे हैं | तो आइये एक बार खिलखिला कर हँसे , जहाँ हँसना न कोई काम हो न व्यायाम बस वो हो … बिना किसी कारण  के , बिना किसी विवशता के | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … राब रिजल्ट आने पर बच्चों को कैसे रखे पॉजिटिव संवेदनाओं का मीडीयाकरण -नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चों के रिश्तों को कैसे बचाएं आखिर हम इतने अकेले क्यों होते जा रहे हैं ? क्यों लुभाते हैं फेसबुक पर बने रिश्ते बस्तों के बोझ तले दबता बचपन आपको  लेख “गुड़िया कब तक न हँसोगी से लाफ्टर क्लब तक “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under-World Laughter day, laughing, laugh, Laughter club