बुद्ध पूर्णिमा – भगवान् बुद्ध ने दिया समता का सन्देश

आज से 2500 वर्ष पूर्व निपट भौतिकता बढ़ जाने के कारण मानव के मन में हिंसा का वेग काफी बढ़ गया था। इस कारण से मानव का जीवन दुःखी होता चला जा रहा था, तब परमात्मा ने मनुष्यों पर दया करके और उन्हें अहिंसक विचार का व्यक्ति बनाकर उनके दुखों को दूर करने के लिए भगवान बुद्ध को धरती पर भेजा। बुद्ध पूर्णिमा – भगवान् बुद्ध ने प्रदान किया  समता का सन्देश  बुद्ध जयन्ती/बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण समारोह भी मनाया जाता है। इस पूर्णिमा के दिन ही 483 ई.पू. में 80 वर्ष की आयु में, देवरिया जिले के कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में करोड़ों लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है। यह त्यौहार भारत, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया तथा पाकिस्तान में मनाया जाता है। (2) बुद्ध के मन में बचपन से ही द्वन्द्व शुरू हो गया था:-  गौतम बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु राज्य के लुंबिनी (जो इस समय नेपाल में है) में हुआ था। उनके पिता राजा शुद्धोदन व माता का नाम महामाया था। आपके बचपन का नाम सिद्धार्थ गौतम था। सिद्धार्थ का हृदय बचपन से करूणा, अहिंसा एवं दया से लबालब था। बचपन से ही उनके अंदर अनेक मानवीय एवं सामाजिक प्रश्नों का द्वन्द्व शुरू हो गया था। जैसे – एक आदमी दूसरे का शोषण करें तो क्या इसे ठीक कहा जाएगा?, एक आदमी का दूसरे आदमी को मारना कैसे एक क्षत्रिय का धर्म हो सकता है? पूजा के समय सुनाई जाने वाली गणेश जी की चार कहानियाँ वह एक घायल पक्षी के प्राणों की रक्षा के लिए मामले को राज न्यायालय तक ले गये। न्यायालय ने सिद्धार्थ के इस तर्क को माना कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। सिद्धार्थ एक बीमार, एक वृद्ध तथा एक शव यात्रा को देखकर अत्यन्त व्याकुल हो गये। सिद्धार्थ युद्ध के सर्वथा विरूद्ध थे। सिद्धार्थ का मत था कि युद्ध कभी किसी समस्या का हल नहीं होता, परस्पर एक दूसरे का नाश करने में बुद्धिमानी नहीं है। (3) ‘बुद्ध’ ने बचपन में ही प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया था:- बुद्ध ने बचपन में ही ईश्वरीय सत्ता को पहचान लिया और मानवता की मुक्ति तथा ईश्वरीय प्रकाश ;क्पअपदम म्दसपहीजमदउमदजद्ध का मार्ग ढूंढ़ने के लिए उन्होंने राजसी भोगविलास त्याग दिया और अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट झेले। अंगुलिमाल जैसे दुष्टों ने अनेक तरह से उन्हें यातनायें पहुँचाई किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें दिव्य मार्ग की ओर चलने से रोक नहीं पायी। परमात्मा ने पवित्र पुस्तक त्रिपिटक की शिक्षाओं के द्वारा बुद्ध के माध्यम से समता का सन्देश सारी मानव जाति को दिया। त्रिपटक प्रेरणा देती है कि समता ईश्वरीय आज्ञा है, छोटी-बड़ी जाति-पाति पर आधारित वर्ण व्यवस्था मनुष्य के बीच में भेदभाव पैदा करती है। इसलिए वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है।  अतः हमें भी बुद्ध की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए। (4) वैर से वैर कभी कभी नहीं मिटता अवैर (मैत्री) से ही वैर मिटता है:- जो मनुष्य बुद्ध की, धर्म की और संघ की शरण में आता है, वह सम्यक् ज्ञान से चार आर्य सत्यों को जानकर निर्वाण की परम स्थिति को पाने में सफल होता है। ये चार आर्य सत्य हैं – पहला दुःख, दूसरा दुःख का हेतु, तीसरा दुःख से मुक्ति और चैथा दुःख से मुक्ति की ओर ले जाने वाला अष्टांगिक मार्ग। इसी मार्ग की शरण लेने से मनुष्य का कल्याण होता है तथा वह सभी दुःखों से छुटकारा पा जाता है। निर्वाण के मायने है तृष्णाओं तथा वासनाओं का शान्त हो जाना। साथ ही दुखों से सर्वथा छुटकारे का नाम है- निर्वाण। बुद्ध का मानना था कि अति किसी बात की अच्छी नहीं होती है। मध्यम मार्ग ही ठीक होता है। बुद्ध ने कहा है – वैर से वैर कभी नहीं मिटता। अवैर (मैत्री) से ही वैर मिटता है – यही सनातन नियम है। (5) पवित्र त्रिपिटक बौद्ध धर्म की पवित्र पुस्तक है:-  भगवान बुद्ध ने सीधी-सरल लोकभाषा ‘पाली’ में धर्म का प्रचार किया। बुद्ध के सरल, सच्चे तथा सीधे उपदेश जनमानस के हृदय को गहराई तक स्पर्श करते थे। भगवान बुद्ध के उपदेशों को उनके शिष्यों ने कठस्थ करके लिख लिया। वे उन उपदेशों को पेटियों में रखते थे। इसी से इनका नाम पिटक पड़ा। पिटक तीन प्रकार के होते हैं – पहला विनय पिटक, दूसरा सुत्त पिटक और तीसरा अभिधम्म पिटक। इन्हें पवित्र त्रिपिटक कहा जाता है। हिन्दू धर्म में चार वेदों का जो पवित्र स्थान है वही स्थान बौद्ध धर्म में पिटकों का है। सूर्योपासना का महापर्व छठ  बौद्ध धर्म को समझने के लिए धम्मपद का ज्ञान मनुष्य को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने के लिए प्रज्जवलित दीपक के समान है। संसार में पवित्र गीता, कुरान, बाइबिल, गुरू ग्रन्थ साहब का जो श्रद्धापूर्ण स्थान है, बौद्ध धर्म में वही स्थान धम्मपद का है। त्रिपटक का संदेश एक लाइन में यह है कि वर्ण (जाति) व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है वरन् समता ईश्वरीय आज्ञा है। जाति के नाम से छोटे-बड़े का भेदभाव करना पाप है।  (6) सभी धर्मों के हृदय से मानव मात्र की एकता का सन्देश प्रवाहित हो रहा है:-    मानव के विकास तथा उन्नति में धर्म का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। वास्तव में धर्म मानव जीवन की आधारशिला है। भिन्न-भिन्न धर्मों के पूजा-उपासना की अलग-अलग पद्धतियों, पूजा स्थलों तथा ऊपरी आचार-विचार में हमें अन्तर दिखाई पड़ता है, पर हम उनकी गहराई में जाकर देखे तो हमें ज्ञान होगा कि सभी धर्मों के हृदय से मानव मात्र की एकता का सन्देश प्रवाहित हो रहा है। भगवान बुद्ध का आदर्श जीवन एवं सन्देश युगों-युगों … Read more

बुजुर्गों की की अधीरता का जिम्मेवार कौन?

ये सच है कि समाज बदल रहा है, इस बदलते समाज का दंड यूँ तो हर वे को भोगना पड़ रहा है पर हमारे बुजुर्ग जिन्हें जीवन की संध्यावेला में ज्यादा प्यार व् अपनेपन की जरूरत होती है तब उनका सहारा बनने के स्थान पर वो हाथ उनसे हाथ छुड़ाने की कोशिश करते हैं, जिन्हें कभी उन्होंने चलना सिखाया था | शारीरिक अस्वस्थता झेलते बुजुर्गों के लिए ये  मानसिक पीड़ा असहनीय होती है | प्रस्तुत है बुजुर्गों की इसी दशा का चिंतन  करता हुआ हुआ  रीतू गुलाटी की का यथार्थ परक आलेख – आज के बदलते परिवेश मे बूढ़े लोगों की अधीरता का जिम्मेवार कौन?  आज के आपाधापी युग मे जब सभी लोग भाग रहे है। ऐसे मे जीवन की सांध्यवेला को भोगते बूढे लोगो को कौन सम्भाले? अपनी आथिर्क स्थिति को बढिया करने के चक्कर मे जो दोनो पति-पत्नी कामकाजी हो तो उस घर के बूढो को कोन सम्भाले?  बहू चाहती है मै थकी हुई आऊ तो बुढिया मेरी सेवा करे! बुढिया इन्तजार करे कि बहू मेरे सेवा करे,, ऐसै मे भी परिवार मे क्लेश लाजिमी होगा। मुशकिल वहाँ ज्यादा होगी जहाँ  एक ही वारिस हो। बहू सास-ससुर की सारी जमा पूंजी तो चाहती है पर सेवा करना नही चाहती। ऐसै मे बूढे लोगो की तो आफत आ जाती है। कई बार दर्द से तडफते बूढो की आवाजे बडो-बडो को विचलित कर देती है। ऐसे मे बेटे की चुप्पी उन्हे और दुखी कर देती है। कई बार बहू बेटा नौकरी के सिलसिले मे घर से दूर निकल कर निश्चिंत हो जाते है पीछे बूढे मरे या जिये वो बेफिक्र हो जाते है। मेरी आंखो के सामने मैनै कई बूढे लोगो को तडफते देखा है इसका जिम्मेदार कौन?  माता-पिता दें बेटियों को बुजुर्गों के सम्मान का संस्कार  आज हर माता पिता चाहता है मेरी बेटी अपने ससुराल मे सुखी हो,, खुश रहे पर वो माता-पिता बेटियो को ये संस्कार भी तो दे कि वो अपने बुजुर्गो का सम्मान भी करे तभी घर मे सुखशान्ति होगी। कई बार बेटा माता पिता को संग रखना चाहता है तो बहू नही चाहती। क्योकि आजादी मे खलल पडेगा। कई बार दुखी होकर माता पिता इस लिये भी अकेला रहना चाहते ताकि बच्चो का प्यार बना रहे। उनके कारण क्लेश ना हो! मैनै ऐसै भी घर देखे है जंहा बहू इस लिये मायके जम जाती कि सासु माँ उन्हे अलग रसोई नही करने देती। बुढापा एक दिन सभी को आना है,, बहू ये नही समझती। बुजुर्गों की हालत दिया तले अंधेरा जैसी   कई बार बेटा बहू की नजर बूढे लोगो की पैशन तक पर देखी गयी। सरकार बूढो को बुढापा पैशन देती है पर उसका भी वो उपभोग नही कर पाते। समाज मे हमारे बूढे इतने असुरक्षित कयो है? उनके पास ढेरो तजुर्बे है पर लेने वाला कयो नही? स्थानीय जगहो पर बूढो को सम्मान की नजर से देखा जाता है पर अपने ही घर मे वो सम्मान क्यो नही मिलता,,,  बुजुर्गों की हालत दिया तले अंधेरा जैसी क्यो है? क्या कुसूर है उनका कि वो शारीरिक तौर पर कमजोर हो गये।  उनकी स्मरण शकित कमजोर हो गयी तो वे बेकार हो गये। कई बार वृद्धाआश्रम मे भी वो उन दम्पतियो को नही रखते जिनके बच्चे अच्छे मुकाम पर हो। उन बूढो की हालत और खराब हो जाती हो जो बिस्तर खराब करते है ऐसै मे नौकर भी उन्हे संभाल नही पाते। वो सबकुछ होते हुऐ भी साक्षात नर्क झेलते है। सारे घर की विरासत समभालने वाली बहू तब कहां होती है? जब बहू बच्चे जनती है तो सास से पूरी सेवा की उम्मीद करती हैऔर चाहती कि सास ही किचन मे रहे;पर जब सास बीमार हो जाते तो वह पूछती तक नही। ऐसे मे वो बूढे क्या करे?  बुजुर्गों पर लघुकथाओं की ई मैगजीन – चौथा पड़ाव ये सवाल समाज के सामने मुंह खोले खडा है। क्या आज हर माता-पिता का ये फर्ज नही कि वो अपनी बेटियो को ये संस्कार दे कि वो बूढे सास ससुर का मान सम्मान करे क्योकि जो हम बोतै है वही काटते है। हमारे समाज मे एक मुठ्ठी भर ऐसे संस्कारी बच्चे बचे है जो बूढे माता पिता को वो मान सम्मान देते है जिसके वो अधिकारी है। हमे समय रहते जागना होगा व उन बूढे लोगो को वही मान सम्मान देना होगा जिसके वो अधिकारी है। रीतू गुलाटी  यह भी पढ़ें … चलो चलें जड़ों की ओर बड़ा होता आँगन बुजुर्गों को व्यस्त रखना है समाधान बुजुर्ग बोझ या धरोहर आपको आपको  व्यंग लेख “आज के बदलते परिवेश मे बूढ़े लोगों की अधीरता का जिम्मेवार कौन?“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-Senior citizen, problems of senior citizen’s, old age

खुद को अतिव्यस्त दिखाने का मनोरोग

      और क्या चल रहा है आजकल .? क्या बताये मरने की भी फुरसत नहीं, और आपका, यही हाल मेरा है , समय का तो पता ही नहीं चलता , कब दिन हुआ , कब रात हुई … बस काम ही काम में निकल जाता है | दो मिनट सकूँ के नहीं हैं |                               दो लोगों के बीच होने वाला ये सामान्य सा वार्तालाप है , समय भगा चला जा रहा है , हर किसी के पास समय का रोना है ,परन्तु सोंचने की बात ये है कि ये समय आखिर चला कहाँ जाता है | क्या हम सब इतने व्यस्त हैं या खुद को इतना व्यस्त दिखाना चाहते हैं | खुद को अतिव्यस्त दिखाने का मनोरोग                                        मेरी एक रिश्तेदार हैं , जिनके यहाँ मैं जब भी जाती हूँ , कभी बर्तन धोते हुए , कभी खाना बनाते हुए या कभी कुछ अन्य काम करते हुए  मिलती हैं ,और मुझे देख कर ऐसा भाव चेहरे पर लाती हैं कि वो बहुत ज्यादा व्यस्त है उन्हें एक मिनट की भी बात करने की फुरसत नहीं है | उनके घर जा कर हमेशा बिन बुलाये मेहमान सा प्रतीत होता है | कभी फोन करो तो भी उनका यही क्रम चलता है | परिवार में सिर्फ तीन बड़े लोग हैं , फिर भी उनको एक मिनट की फुर्सत नहीं है | कभी -कभी मुझे आश्चर्य होता था कि वही काम करने के बाद हम सब लोग कितना समय खाली बिता देते हैं या अन्य जरूरी कामों में लगाते हैं पर उनके पास समय की हमेशा कमी क्यों रहती हैं |  मुझे लगा शायद मेरे जाने का समय गलत हो , परन्तु और लोगों ने भी उनके बारे में यही बात कही तो मुझे अहसास हुआ कि वो अपने को अतिव्यस्त दिखाना चाहती हैं | मनोवैज्ञानिक अतुल नागर के अनुसार हम खुद को अतिव्यस्त दिखा कर अपनी सेल्फ वर्थ सिद्ध करना चाहते हैं |                           अभी कुछ समय पहले अमेरिका में एक ऑफिस में सर्वे किया गया | लोग जितना काम करते हैं उसकी उपयोगिता  को पैमाने पर नापा गया | देखा गया सिर्फ २ % लोग अतिव्यस्त हैं बाकी २० % के करीब प्रयाप्त व्यस्त की श्रेणी में आते हैं , बाकी 78 % लोग ऐसे कामों में खुद को व्यस्त किये थे जिसकी कोई उपयोगिता नहीं है या वो ऑफिस के काम की गुणवत्ता बढ़ने में कोई योगदान नहीं देता है | ये सब लोग अपने को अतिव्यस्त दिखने का प्रयास कर रहे थे |                                                                      क्या आप ने कभी गौर किया है कि आज कामकाजी महिलाओं के साथ -साथ घरेलू महिलाओं के पास भी समय की अचानक से कमी हो गयी है |  छोटा हो या बड़ा  हर कोई समय नहीं है का रोना रोता रहता है | ये अचानक सारा समय चला कहाँ गया | पहले महिलाएं खाली समय में आचार , पापड , बड़ियाँ आदि बनती , स्वेटर बुनती , कंगूरे  काढती थीं , लोगों से मिलती थी , रिश्ते बनती थीं | | आज महिलाएं ये सब काम बहुत कम करती हैं , फिर भी उनके पास समय का आभाव रहता है | वो बात -बात पर समय का रोना रोती हैं | आज जब की घरेलू कामों को करने में मदद कर्ण वाली इतनी मशीने बन गयी है तो भी आज की महिलाएं पहले की महिलाओं की तुलना में ज्यादा व्यस्त कैसे हो गयी हैं | रीना जी का उदाहरण देखिये वो खुद को अतिव्यस्त कहती हैं …वो सुबह ६ बजे उठती हैं ,वो कहतीं है वो बहुत व्यस्त हैं | कॉलोनी के किसी काम , उत्सव , गेट टुगेदर के लिए उनके पास समय नहीं होता | जबकि  घर में सफाई वाली बाई व् कुक लगी है | उनका  टाइम टेबल इस प्रकार है | सुबह एक घंटे का मोर्निंग वाक एक घंटे मेडिटेशन दो घंटे घर के काम एक घंटे नहाना धोना पूजा करना दो घंटे फेसबुक दो घंटे लंच के बाद सोना शाम को एक घंटे वाक एक घंटे जिम दो  घंटे स्पिरिचुअल क्लास में जाना दो घंटे टी.वी शो देखना खाना – पीना सोशल साइट्स पर जाना और सो जाना                                      जाहिर है कि उन्होंने अपने को व्यस्त कर रखा है , लेकिन दुखद है कि वो कॉलोनी की अन्य औरतों को ताना मारने से बाज नहीं आती कि उनके पास समय की कमी है , वो बेहद  बिजी हैं | आखिर वो ऐसा क्यों सिद्ध करना चाहती हैं ? एक व्यक्ति के अपने भाई से रिश्ते महज इसलिए ख़राब हो गए क्योंकि उसे लगा कि वो जब भी अपने भाई को फोन करता है वो हमेशा बहुत व्यस्त हूँ कह देता है , कई बार तो यह भी कह देता है कि अपनी भाभी से बात कर लो , मैं उससे पूँछ लूँगा | धीरे धीरे उस व्यक्ति को लगने लगा कि भाई अति व्यस्त दिखा कर उसकी उपेक्षा कर रहा है , उसे कहीं न कहीं ये महसूस करा रहा है की वो तो खाली बैठा है | ये बात उसे अपमान जनक लगी और उसने फोन करना बंद कर दिया | पिछले १५ सालों से उनमें बातचीत नहीं है |  क्या हमारे सारे रिश्ते अति व्यस्त होने की वजह से नहीं खुद को अतिव्यस्त दिखाने की वजह से खराब हो रहे हैं | एक तरफ तो हम अकेलेपन की बात करते हैं , इसे बड़ी समस्या बताते  हैं , दूसरी तरफ हम खुद को अतिव्यस्त दिखा कर उन् से खुद दूरी बनाते हैं | क्या ये विरोधाभास आज की ज्यादातर समस्याओं की वजह नहीं है |  खुद को अतिव्यस्त दिखा कर … Read more

सीता के पक्ष में हमें खड़ा करने वाले भी राम ही है

                                राम , हमारे आराध्य श्री राम , मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम | राम का चरित इतना ऊंचा , इतना विशाल है की वो इतिहास के पन्नों से निकल कर मानव के मन में बस गया |  जनश्रुति और महाकाव्यों के माध्यम से राम अपने उत्तम चरित्र के कारण युगों युगों तक मर्यादित आचरण की शिक्षा देते आये हैं |                                                     राम – दो अक्षर का प्यारा सा नाम जो पतित पावनी गंगा की तरह मनुष्य के मन के सब पापों को हरता है | अगर प्रभु राम को ईश्वर रूप में न भी देखे तो भी उन चरित्र इतना ऊंचा है की की उन्हें महा मानव की संज्ञा दी जा सकती है |  बाल राम , ताड़का  का वध करने वाले राम , शिव जी धनुष तोड़ने वाले राम , पिता की आज्ञा  मान कर वन  जाने वाले राम , केवट के राम ,सिया के विरह में वन – वन आंसूं बहाते राम  अहिल्या का उद्धार करने वाले राम , शवरी के जूठे बेरों को प्रेम से स्वीकार करने वाले राम , रावण का वध करने वाले राम | राम के इन सारे रूपों में एक रूप ऐसा है जो की राम   के  लोक लुभावन रूप  पर प्रश्नचिन्ह लगाता है | वो है सीता को धोबी के कहने पर गर्भावस्था  में निष्काषित कर वन में भेज देना  देना | राम के लिए भी आसन नहीं होगा सीता को वन में भेजने का निर्णय                                                                             राम के लिए भी ये निर्णय आसान नहीं रहा होगा | कितनी जद्दो- जहद बाद उन्होंने ये निर्णय  लिया होगा | कितने आँसू बहाए होंगे | प्रजा पालक राम , राजा राम , मर्यादा पुरुषोत्तम राम … सबके के राम , अपने निजी जीवन में कितने अकेले कितने एकाकी रहे होंगे | कितनी बार सीता के विरह पर छुप छुप  कर आँसू बहाए होंगे , हर – सुख में हर दुःख में सीता को याद किया होगा , इसका आकलन करना मुश्किल है | आज हम सहज ही राम के इस निर्णय  के खिलाफ सीता के पक्ष में खड़े हो जाते हैं | बहस करते , वाद – विवाद करते हम भूल जाते हैं की राम के लिए भी ये कितना कष्टप्रद रहा होगा | हमें सीता के पक्ष में खड़े करने वाले भी राम ही है                                                  कोई भी घटना देश और काल के अनुसार ही देखी  जाती है | अगर तात्कालिक परिस्तिथियों पर गौर करें तो जब धोबी द्वारा सीता के चरित्र पर आरोप लगाने के बाद अयोध्या में सीता के विरुद्ध स्वर उठने लगे थे | तो राम क्या कर सकते थे | 1 … वो प्रजा से कह देते की वो अग्नि परीक्षा ले चुके हैं उन्हें सीता की पवित्रता पर विश्वास है | अत : सीता कहीं नहीं जायेंगी | यहीं उनके साथ रहेंगी |                                                अगर ऐसा होता तो लोग दवाब में ये फैसला स्वीकार कर लेते पर सीता के विरुद्ध चोरी – छिपे ही सही आरोप लगाते रहते  | जब भगवान् राम ने सिखाया कार्पोरेट जगत का महत्वपूर्ण पाठ २ …. राम सीता को निष्काषित कर ये कहते की वो भी राज गद्दी छोड़ सीता के साथ जा रहे हैं | इससे भी वो सीता को वो सम्मान व् दर्जा नहीं दिला पाते जिसकी वो अधिकारी थीं | इसके अतरिक्त युगों – युगों तक एक ऐसे राजा के रूप में याद किये जाते जो निजी हितों को प्रजा से ऊपर रखता है | राजा का कर्तव्य बहुत बड़ा होता है | उसे निजी सुख प्रजा के सुख के कारण त्यागने पड़ते हैं | ३ … राम ने निजी सुख त्यागने  का निर्णय लिया | उन्होंने सीता को निष्काषित कर कर स्वयं भी एक पत्नी के अपने वचन पर कायम रहने के कारण अकेलेपन का दर्द झेला | राम के शब्द शायद सीता की पवित्रता को सिद्ध न कर पाते परन्तु उनके अकेलेपन के दर्द ने हर पल प्रजा को यह अहसास कराया की वो सिया के साथ हैं | क्योंकि उन्हें उन पर विश्वास है |राम ये जानते थे की आज के ये दुःख – दर्द भविष्य में सीता  की गरिमा मर्यादा व् उत्तम चरित्र को स्थापित करने में सहयक होंगे |                                     राम होना आसान  नहीं है | राम होने का अर्थ उन आरोपों के साथ अकेले जीना है जो मन खुद पर लगाता है ,जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है |                                            जय सिया राम वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … दशहरा असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक आज का रावन सिया के राम प्रभु के सेवक कभी छुट्टी नहीं लेते आपको  लेख “सीता के पक्ष में हमें खड़ा  करने वाले भी राम ही है“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under-Ram, prabhu Ram , Ram Navami , Sita-Ram

विश्व जल संरक्षण दिवस पर विशेष लेख- जल संरक्षण के लिए बेहतर जल प्रबन्धन की अति आवश्यकता है

एक प्यासे इंसान के लिए पानी की एक बूँद सोने की एक बोरी से ज्यादा मूल्यवान है  जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती , जल है तो हम हैं | यह जान कर भी अनजान बने हम जल का दुर्प्रयोग करके ओने अस्तित्व को ही खतरे में दाल रहे हैं | दुरप्रयोग दुरप्रयोग करके अपने अस्तित्व को स्वयं ही मिटाने में लगे हुए हैं | क्या हम इस बात से अनभिग्य हैं कि दुनिया भर में भूजल का स्तर खतरनाक रूप से गिरता जा रहा है, जो विभिन्न विद्वानों के इसी कथन को बल प्रदान करता है कि जल ही तृतीय विश्वयुद्ध का कारण बनेना। ऐसे में यदि तीसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका से मानवता को बचाना है तो सर्वप्रथम आज से अभी से जल संवर्धन हेतु ठोस कदम उठाने होंगे। जल संरक्षण के लिए बेहतर जल प्रबन्धन की अति आवश्यकता है पानी बचाने के लिए जागरुकता और लोगों को इसके लिए उत्तरदायी बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 1992 के अपने अधिवेशन में 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रुप में प्रतिवर्ष मनाने का निश्चय किया। जिसके अन्तर्गत् सर्वप्रथम 1993 को पहली बार 22 मार्च के दिन पूरे विश्व में जल दिवस के मौके पर जल के संरक्षण और रखरखाव पर जागरुकता फैलाने का कार्य किया गया। इस दिवस को विश्व भर में जल संरक्षण विषयक सरकारी, गैर-सरकारी, शैक्षिक संस्थानों आदि में सारगर्भित चर्चायें तथा समारोहों के माध्यम से लोगों का पानी बचाने के लिये जागरूक किया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक पिछले 50 वर्षों में पानी के लिए 37 भीषण हत्याकांड हुए हैं। पानी को जिस तरह से बर्बाद किया जा रहा है उसे देखते हुए हर देश चिंतित है। हर देश में पानी के लिए टैक्स, बिल, बर्बादी करने पर सजा आदि का प्रावधान है लेकिन फिर भी लोग पानी की सही कीमत को नहीं समझ पाते। (1) जल है तो मानव जाति का कल सुरक्षित है:- आज गंदे और दूषित पानी की वजह से दुनिया भर में प्रतिवर्ष लाखों लोगों की मृत्यु पीलिया, डायरिया, हैजा आदि जानलेवा बीमारियों के कारण हो रहीं हैं। इसके साथ ही पानी के बिना अच्छे भोजन की कल्पना भी व्यर्थ है। पानी का इस्तेमाल खाना बनाने के लिए सबसे अहम होता है। खेतों में फसल से लेकर घर में आंटा गूथने तक में पानी चाहिए। शहरों की बढ़ती आबादी और पानी की बढ़ती मांग से कई दिक्कतें खड़ी हो गई हैं। जिन लोगों के पास पानी की समस्या से निपटने के लिए कारगर उपाय नहीं है उनके लिए मुसीबतें हर समय मुंह खोले खड़ी हैं। कभी बीमारियों का संकट तो कभी जल का अकाल, एक शहरी को आने वाले समय में ऐसी तमाम समस्याओं से रुबरु होना पड़ सकता है। जिस तरह पानी को बर्बाद करना बेहद आसान है उसी तरह पानी को बचाना भी बेहद आसान है। अगर हम अपने दैनिक जीवन की निम्न छोटी-छोटी बातों को अपनी दिनचर्या तो शामिल कर ले तो हम काफी हद तक पानी की बर्बादी को रोक सकते हैं- 1) नल से हो रहे पानी के रिसाव को रोकें। कपड़े धोते समय, शेव बनाते हुए या ब्रश करते समय नल खुला ना छोडं़े। 2) वर्षा जल का संरक्षण करें। 3) नहाते समय बाल्टी का प्रयोग करें ना कि शावर का। 4) ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को इसका मूल्य समझाएं। 5) सब्जी धोने के लिए जिस पानी का प्रयोग होता है उसे बचाकर गमलों में डाला जा सकता है। 6) कार या गाड़ी धोते समय बाल्टी में पानी लेकर कपड़े की मदद से हम कम पानी में अपनी गाड़ी को साफ कर सकते है। (2) विश्व के दो अरब से अधिक लोग स्वच्छ जल की कमी से जूझ रहे हैं:- पृथ्वी में जीवित रहने के लिए जल महत्वपूर्ण पेय पदार्थ है जो निरन्तर घटता जा रहा है। वल्र्ड बैंक तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व के दो अरब से अधिक लोग स्वच्छ जल की कमी से जूझ रहे हैं तथा एक अरब लोगों के लिए अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त जल नहीं मिल पा रहा है। प्रतिदिन नदियों तथा झीलों का पानी प्रदूषित हो रहा है जो कि मनुष्य के उपयोग के लिए खतरनाक है। जल का एक प्रमुख óोत्र भूमि के अंदर से मिलने वाला पानी है जिसका स्तर निरन्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। विश्व की तेजी से बढ़ती जनसंख्या को दृष्टि में रखकर देखा जाये तो आने वाले कुछ वर्षों में मनुष्य के लिए स्वच्छ जल का मिलना दुर्लभ हो जायेगा। (3) संयुक्त राष्ट्र संघ को शक्ति प्रदान करके उसे ‘विश्व संसद’ का स्वरूप प्रदान करें:-   विश्व भर में जल की कमी, ग्लोबल वर्मिंग, जैवविविधता के क्षरण तथा जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले खतरों से निपटने के लिए विश्व के सभी देशों को एक मंच पर आना होगा। एक मंच पर आकर सभी देशों को सर्वसम्मति से तत्काल संयुक्त राष्ट्र संघ को शक्ति प्रदान करके उसे ‘विश्व संसद’ का स्वरूप प्रदान करने के लिए सर्वसम्मति से निर्णय लिया जाना चाहिए। इस विश्व संसद द्वारा विश्व के दो अरब से अधिक बच्चों के साथ ही आगे जन्म लेने वाली पीढि़यों के सुरक्षित भविष्य के लिए जो भी नियम व कानून बनाये जाये, उसे ‘विश्व सरकार’ द्वारा प्रभावी ढंग से लागू किया जाये और यदि इन कानूनों का किसी देश द्वारा उल्लघंन किया जाये तो उस देश को ‘विश्व न्यायालय’ द्वारा दण्डित करने का प्राविधान पूरी शक्ति के साथ लागू किया जाये। इस प्रकार विश्व के दो अरब से अधिक बच्चों के साथ ही आगे जन्म लेने वाली पीढि़यों तथा सम्पूर्ण मानव जाति को जल की कमी, ग्लोबल वार्मिंग, जैवविविधता के क्षरण, शस्त्रों की होड़, युद्धों की विभीषिका तथा जलवायु परिवर्तन जैसे महाविनाश से बचाने के लिए अति शीघ्र विश्व संसद का गठन नितान्त आवश्यक है। (4) जल संरक्षण की दिशा में हमारे विद्यालय का योगदान:- सी.एम.एस. के छात्र समय-समय पर अपनी सामाजिक दायित्वों को समझते हुए पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त बनाने, जल संरक्षण करने, वृक्षारोपण करने आदि जैसे अनेक महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों को जागरूक करते आ रहे हैं। इसी कड़ी में विद्यालय के बच्चों द्वारा भूगर्भीय जल संसाधन को बचाने हेतु ‘वाटर मार्च’, गोमती नदी को … Read more

खुश रहना चाहते हैं तो एक दूसरे की मदद करें

    एक बार पचास लोगों का ग्रुप किसी सेमीनार में हिस्सा ले रहा था। सेमीनार शुरू हुए अभी कुछ ही मिनट बीते थे कि स्पीकर ने अचानक ही सबको रोकते हुए सभी प्रतिभागियों को गुब्बारे देते हुए बोला , ”आप सभी को गुब्बारे पर इस मार्कर से अपना नाम लिखना है।” सभी ने ऐसा ही किया। अब गुब्बारों को एक दूसरे कमरे में रख दिया गया। स्पीकर ने अब सभी को एक साथ कमरे में जाकर पांच मिनट के अंदर अपना नाम वाला गुब्बारा ढूंढने के लिए कहा। सारे प्रतिभागी तेजी से रूम में घुसे और पागलों की तरह अपना नाम वाला गुब्बारा ढूंढने लगे। पर इस अफरा-तफरी में किसी को भी अपने नाम वाला गुब्बारा नहीं मिल पा रहा था। पांच मिनट बाद सभी को बाहर बुला लिया गया। स्पीकर बोला, ”अरे! क्या हुआ, आप सभी खाली हाथ क्यों हैं? क्या किसी को अपने नाम वाला गुब्बारा नहीं मिला?” नहीं! हमने बहुत ढूंढा पर हमेशा किसी और के नाम का ही गुब्बारा हाथ आया।” एक प्रतिभागी कुछ मायूस होते हुए बोला। “कोई बात नहीं, आप लोग एक बार फिर कमरे में जाइये, पर इस बार जिसे जो भी गुब्बारा मिले उसे अपने हाथ में ले और उस व्यक्ति का नाम पुकारे जिसका नाम उस पर लिखा हुआ है।“ स्पीकर ने निर्देश दिया।                 एक बार फिर सभी प्रतिभागी कमरे में गए, पर इस बार सब शांत थे और कमरे में किसी तरह की अफरा-तफरी नहीं मची हुई थी। सभी ने एक दूसरे को उनके नाम के गुब्बारे दिए और तीन मिनट में ही बाहर निकले आये। स्पीकर ने गम्भीर होते हुए कहा, ”बिलकुल यही चीज हमारे जीवन में भी हो रही है। हर कोई अपने लिए ही जी रहा है, उसे इससे कोई मतलब नहीं कि वह किस तरह औरों की मदद कर सकता है , वह तो बस पागलों की तरह अपनी ही खुशियां ढूंढ रहा है, पर बहुत ढूंढने के बाद भी उसे कुछ नहीं मिलता, दोस्तों हमारी खुशी दूसरों की खुशी में छिपी हुई है।  जब तुम औरों को उनकी खुशियां देना सीख जाओगे तो अपने आप ही तुम्हंे तुम्हारी खुशियां मिल जाएँगी और यही मानव-जीवन का उद्देश्य है।” हमारा विश्वास है कि मानव जाति की एकता में सभी की खुशहाली, शान्ति, एकता तथा समृद्धि निहित है। अन्तर्राष्ट्रीय खुशी दिवस-परस्पर सहयोग की भावना ही है सच्ची ख़ुशी  want to be happy-help other’s-in Hindi                 संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2012 में प्रतिवर्ष 20 मार्च को अन्तर्राष्ट्रीय खुशी दिवस मनाने की घोषणा की। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य विश्व के सभी व्यक्तियों तथा बच्चों के जीवन में खुशहाली, एकता, शान्ति तथा समृद्धि लाना है। हमारा मानना है कि मानव जाति की एकता में ही सारे जगत की प्रसन्नता निहित है। इसके लिए सारी धरती पर यह विचार फैलाने का समय अब आ गया है कि मानव जाति एक है, धर्म एक है तथा ईश्वर एक है। हमारा मानना है कि धार्मिक विद्वेष, शक्ति प्रदर्शन के लिए शस्त्रों की होड़ तथा साम्राज्य विस्तार की नीति से आपसी बैर-भाव पैदा होते हैं जबकि मानव जाति की एकता में सारे जगत की खुशहाली निहित है। हम विगत 60 वर्षों से बच्चों की शिक्षा के माध्यम से एक न्यायप्रिय विश्व व्यवस्था के लिए प्रयासरत हैं। हमारा लक्ष्य शिक्षा के माध्यम से एक युद्धरहित संसार विकसित करके विश्व के दो अरब से अधिक बच्चों तथा आगे आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित करना है।  (1)  चिन्ता चिता के समान होती है:-                 मनुष्य का जीवन सदैव से अनेक चिन्ताओं से ग्रसित रहा है। चिता तो मृत व्यक्ति को जलाती है, लेकिन चिंता की अग्नि जीवित व्यक्ति को ही जलाकर खाक कर देती है। इसलिए कहा जाता है कि चिन्ता चिता के समान होती है। चिन्तायें कई प्रकार की होती हैं जो कि जीवन का सुख-चैन समाप्त करने में लगी रहती हैं। जैसे- बच्चे, स्वास्थ्य, शिक्षा, कैरियर, भविष्य, पद, व्यवसाय, मुकदमा, शादी-ब्याह, मान-सम्मान, कर्जा, बुढा़पा आदि से जुड़ी चिंतायें। चिंताओं से ग्रसित व्यक्ति के लक्षण तनाव, कुंठा, क्रोध, अवसाद, रक्तचाप, हृदय रोग आदि के रूप में दिखाई देते हंै। चिंताओं से बुरी तरह ग्रसित व्यक्ति की अंतिम मंजिल आत्महत्या, हत्या या अकाल मृत्यु के रूप में प्रायः दिखाई देता है। ये दुःखदायी स्थितियाँ हमारी शारीरिक, भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक विकास में एक बड़ी बाधा बनती हैं। #ये ख़ुशी आखिर छिपी है कहाँ (2) एक शुद्ध, दयालु हृदय धारण करना:-                 आत्मा के पिता परमात्मा की सदैव यह चिन्ता रहती है कि मेरे को दुःख हो जाये किन्तु मेरी संतानों को कोई दःुख न हो। परमात्मा अपनी संतानों के दुःखों को दूर करने के लिए स्वयं धरती पर राम, कृष्ण, बुद्ध, ईशु, मोहम्मद, महावीर, नानक, झूले लाल,  बहाउल्लाह आदि अवतारों के माध्यम से अवतरित होता हैं। ये अवतार संसार से जाने के पूर्व गीता, रामायण, वेद, कुरान, बाइबिल, गुरू ग्रन्थ साहिब, त्रिपटक, किताबे अकदस, किताबे अजावेस्ता आदि जैसी पवित्र पुस्तकें हमें देकर जाते हैं। इन पुस्तकों का ज्ञान हमें अपनी सभी प्रकार की चिन्ताओं को प्रभु को सौंपकर चिंतामुक्त होने का विश्वास जगाता है। सभी चिन्ताओं को प्रभु को सौंपने के बाद हमारी केवल एक चिंता होनी चाहिए कि मैं सौगंध खाता हूँ, हे मेरे परमात्मा! कि तूने मुझे इसलिए उत्पन्न किया है कि मैं तुझे जाँनू और तेरी पूजा करूँ। तुझे जानने का अर्थ है कि तेरी शिक्षाओं को जाँनू और तेरी पूजा करने का अर्थ है कि तेरी शिक्षाओं पर चलँू। एक शुद्ध, दयालु एवं ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित हृदय धारण करके पवित्र ग्रन्थों की गहराई में जाना परमात्मा रूपी चिकित्सक से अचूक इलाज का यह सबसे सरल तरीका है। (3) मनुष्य को केवल एक ही चिन्ता करनी चाहिए:-                 मैंने एक बार अपनी चिन्ताओं की लिस्ट बनाने का विचार किया तथा इन चिन्ताओं की लिस्ट बनाने पर जब मैंने उनकी गिनती की तो वे 215 तक पहुँच गयी थी। इसके थोड़ी देर के बाद ही मंैने महसूस किया कि इसमें अभी कुछ चिन्तायें लिखनी छूट गयी हैं। तब घबराहट में मेरे अंदर विचार आया कि जब चिन्तायें इतनी ज्यादा हैं तो उनकी लिस्ट बनाने से क्या फायदा? इसलिए प्रिय मित्रों, मनुष्य की केवल एक ही चिन्ता होनी चाहिए कि वह अपने प्रत्येक कार्य के द्वारा परमात्मा की इच्छा का पालन कर रहा है या नहीं? इसके बाद मनुष्य को अपनी सारी चिन्ताओं को परमात्मा को सौंप देना चाहिए। हमारा … Read more

बच्चों के एग्जाम और मम्मी का टेंशन

बच्चों के एग्जाम शुरू हो गए हैं |एग्जाम के दिन यानी सपने ,  पढ़ाई , मेहनत और टेंशन के दिन | मुझे अभी भी याद आता है वो दिन जब मेरे  बेटे का मैथ्स का एग्जाम था |  उसे रात दो बजे तक पढ़ाने के बाद सुबह से उसे स्कूल भेजने की तैयारी में लग गयी थी | मन में उलझन सी थी बार –बार उसके वो सवाल याद आ रहे थे जिन्हें समझने में उसे थोड़ी ज्यादा देर लगी थी | चलते फिरते उसे उनके फार्मूले  याद करवा रही थी |आल दा बेस्ट कह कर बेटे को भेज तो दिया पर मन में खिच –खिच सी होती रही | क्या वो सारे सवाल हल कर पायेगा ? क्या वो अच्छे नंबर ला पायेगा ? न जाने कितने सवाल बार –बार दिमाग को घेर रहे थे | इंजायटी बढती जा रही थी |खैर पेपर हो गया | पर जब –जब बच्चों के एग्जाम होते हैं मेरी ही तरह सब माएं टेंशन से घिर जाती हैं |                     ऐसा ही टेंशन का एक किस्सा शर्मा अंकल सुनाते हैं, “  पिछले दिनों मैं सविता के घर गया। शाम को घूमने और मूड़ फ्रेश करने का समय होता है। इस समय सविता और उनके बच्चों को कमरे में देखकर मुझे बेहद आश्चर्य हुआ। आज भी उस दिन का दृश्य मुझे याद है-बच्चे कमरे में पुस्तक लिये पढ़ने का अभिनय कर रहे थे और सविता बाहर बरामदे में बैठी थी, जैसे चौकीदारी कर रही हो। मुझे यह सब देखकर बड़ा विचित्र लगा था। उस दिन बातें औपचारिक ही हो पायी। मुझे ज्यादा जोर से बोलने पर मना करती हुई कहने लगी ‘जरा धीरे बोलिये, बच्चे पढ़ रहे हैं  अगले महीने से उन लोगों की परीक्षा शुरू होने वाली है।’                        मीता जी का किस्सा  भी इससे अलग नहीं है | मीता   जी कहती हैं –’कि शाम पांच से आठ और सुबह चार से छः का समय पढ़ाने के लिए इसलिये मैंने निर्धारित किया है, क्योंकि रात आठ बजे के बाद बच्चे ऊंघने लगते है  और जल्दी खाना दिया  तो सो जाते हैं । वैसे, सुबह चार बजे पढ़ने से जल्दी याद होता है, फिर छः बजे के बाद मैं घर के दूसरे कार्यो में व्यस्त हो जाती हूं। आखिर क्यों 100 % के टेंशन में पिस रहे हैं बच्चे                           मैं हूँ , सविता हो या मीता  यह समस्या आज हर घर में स्पष्ट देखने को मिलती है।, पढाई और एग्जाम  का प्रेशर  बच्चों पर तो होता ही हैं बच्चों के साथ-साथ मम्मी की भी दिनचर्या बदल जाती है। कहीं आना-जाना नहीं, पिक्चर देखना बंद,टी वी बंद ,  बच्चों के ऊपर सारा दिन निगरानी में ही निकल जाता है, कोई मिलने आये तो औपचारिक बातें करना, ज्यादा जोर से बातें करने से मना करना आदि।कुल मिला कर पूरा तनाव का वातावरण तैयार हो जाता है |  गौर किया जाए तो कहीं न कहीं पापा-मम्मी उनके परीक्षा फल को अपना प्रेस्टिज ईशु बना लेते हैं। फलां के बच्चे हमेशा मेरिट में आते हैं  उनके पापा-मम्मी उनका कितना ध्यान रखते हैं , आदि बातें सोचकर लोग ऐसा करते हैं।  कैसे दूर करें बच्चों के एग्जाम और मम्मी का टेंशन                               परीक्षा के दिनों में अधिकतर माताएं  बच्चों को लेकर इस कदर परेशान होती  हैं, जैसे बच्चे उनके लिये समस्या हो। बच्चे तो पहले से ही एग्जाम टेंशन झेल रहे होते हैं | इस भयग्रस्त वातावरण का बच्चों के स्वास्थ्य , मानसिक स्थिति और पढ़ाई पर बुरा प्रभाव पड़ता है, परीक्षा के दौरान बच्चों और पेरेंट्स पर बेहतर रिजल्ट को लेकर मानसिक दबाव जबरदस्त होता है। ऐसे समय में कई बार बच्चों को कुछ मनोवैज्ञानिक समस्याए हो जाती है। वे ‘एंजाइटी’ के शिकार तक हो जाते है और अवसाद में चले जाते है, जो कि काफी गंभीर है। परीक्षा के इस तनाव से कैसे निपटा जाए, आइए जानते है… बच्चे को लगे वो सब भूल जाएगा   सबसे पहली बात है कि बच्चों कि उम्र के हिसाब से उनके कोर्स डिजाईन होते है। जो बच्चे रोजाना पूरे  साल पढाई करते है, उन्हें इस तरह की  समस्या नहीं आती है। इसके अलावा पढाई के दौरान समय-समय पर माँक टेस्ट  और फीडबेक लेते रहे, उससे भी तनाव कम होता है। रोजाना एक्सरसाइज और ध्यान करने से भी बेस लाइन एंजाइटी (जिसमें नर्वसनेस बहुत जल्दी आ जाती है।) बहुत कम हो जाती है। इसके अलावा बच्चो को रोजाना अच्छी नींद लेना भी जरुरी है। पढाई के दौरान बच्चे अपने को क्रॉस चेक बिलकुल न करे, क्योंकि इस कारण से भी उनके अंदर एंजाइटी बढ़ सकती है। पढ़ते वक्त रटने के बजाय पॉइंट्स और कांसेप्ट क्लियर करें और हर चेप्टर के मुख्य पॉइंट्स को नोट जरुर करते रहे।               परीक्षा के दौरान माँ  को यह चाहिए कि वो बच्चों के खान-पान पर विशेष ध्यान दे। दिमाग को उत्तेजित करने वाले पदार्थ जैसे चाय, कॉफ़ी को बच्चों को ज्यादा न दे। फ़ास्ट फूड्स कि जगह हेल्थी डाइट दें। उनकी नींद का ख्याल रखे। सोशल फंक्शन जैसे शादी वगैरह  में भी उन्हें न  ले जाएं और जितना हो सके पढाई का माहौल  घर में बनाएं। त्यौहार और परीक्षा के बीच बच्चे कैसे बनाएं संतुलन   फाइनल एग्जाम त्यौहार के सीजन में होते हैं , एक तरह से ये  मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने की भी परीक्षा होती है । ऐसे में बच्चो को  चाहिए कि वो त्यौहार के चक्कर में अपने करियर  और पढाई से समझौता  ना करें। पढाई उनका प्राथमिक लक्ष्य है,जिसे लेकर वे हमेशा गंभीर रहे। त्यौहार उनका ध्यान पढाई से हटा सकते है। इसलिए उनपर ध्यान देने के बयाय वो पढाई पर ज्यादा ध्यान दें।             माँ  को चाहिए त्यौहार के सीजन में भी जितना हो सके,घर माहौल  पढाई वाला बनाये रखे, ताकि बच्चों का मन ना भटके। बच्चो का कमरा ऐसी जगह होना चाहिए जहा महमानों कि आवाजाही ना हो, ताकि बच्चे शांति से पढाई के सके। बच्चों के मन से परीक्षा का डर कैसे दूर करें   जब बच्चा स्ट्रेस में खाना -पीना , सोना कम कर दे               स्ट्रेस को दूर करने के लिए सबसे अच्छा तरीका है कि बच्चे पर्याप्त नींद ले। पढाई के बीच  में दो से तीन  घंटे … Read more

बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति

       आज समाचारपत्रों, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं से ही नहीं, बल्कि अड़ोस-पड़ोस, गली, गाँव, मोहल्ला आदि के वातावरण को अनुभव करने से यह पता चलता है कि बच्चों  में हिंसक प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। बच्चों में क्यों बढ़ रही है हिंसक प्रवृत्ति ?           इसके कारणों पर अगर हम विचार करें तो हम पायेंगे बदली हुई तकनीक, उससे प्रभावित अर्थव्यवस्था और अंततः सामाजिक व्यवस्था में हो रहे बदलाव इस प्रवृत्ति के मूल कारण हैं। बदली हुई जीवन शैली, एकल परिवार, बच्चों का अकेलापन, माता-पिता की व्यस्तता, स्कूल की पढ़ाई का बोझ आदि भी सभी के मिले-जुले प्रभाव ने इस समस्या को जन्म दिया है।              तीन दशक पहले इस प्रकार की हिंसा की घटनाएँ विदेशों में सुनने को मिलती थी, पर आज उसी प्रकार की घटनाएँ हमें अपने देश और समाज में देखने- सुनने को मिल रही हैं जो निश्चित ही चिंता का विषय बनता जा रहा है। एकल होते परिवार            इस समस्या के कारणों पर विचार करें तो बदलता सामाजिक परिवेश और लुप्त होते जीवन मूल्य इसके लिए उत्तरदायी हैं। परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है। परिवार का परिवेश बदल गया है। बहुत से परिवार बुज़ुर्गों से अलग रहते हैं। अनेक तो ऐसे भी देखे गए हैं जो एक छत के नीचे रहते हुए भी अपने माता-पिता से अधिक मतलब नहीं रखते हैं। जो समय बच्चों का दादा-दादी के साथ बीतता था वह टेलीविजन और विडियो गेम्स खेलने में बीतता है। बच्चों की दिनचर्या ऐसी बन जाती है कि वे  उसमें थोड़ा सा भी खलल सहन नहीं करते। प्रवृत्ति धीरे-धीरे हिंसक होती जाती है। अधिकांश मध्यवर्गीय शहरी परिवारों में माता-पिता के पास बच्चों के लिए पर्याप्त समय नहीं है। ध्वस्त हुई सामाजिक व्यवस्था             लोकल सोसाइटी, गली और मोहल्लों का बदलता परिवेश बच्चों के व्यक्तित्व को विकृत कर रहा है। आज से कुछ दशक पहले मोहल्ले के सभी बच्चे मोहल्ले के सभी बड़े-बूढ़ों का मन-सम्मान रखते थे। बड़ी उम्र का व्यक्ति चाहे गरीब और अनपढ़ ही क्यों न हो वह बच्चों को कुछ भी अच्छी बात समझाने के लिए स्वतंत्र था, पर आज अहंकार का स्तर इतना ऊँचा हो गया है कि हर व्यक्ति यह सोचने लगा है कि अपने बच्चों को हम स्वयं समझा लेंगे, हमारे बच्चों को कुछ मत कहो। गली-मोहल्ले की ध्वस्त हुई सामाजिक व्यवस्था ने भी बच्चन को उच्शृंखल, अनुशासनहीन, क्रोधी, अहंकारी और हिंसक बना दिया है। कई जगह माता-पिता भी अपने बच्चों की गलत बातों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करते हुए दिखाई देते हैं। इस बदले हुए परिवेश ने भी बच्चों को हिंसक बनाया है। विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों की  भूमिका            बच्चों में हिंसा की प्रवृत्ति पनपाने में विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों भी अहम भूमिका निभाई है। आज शिक्षा का उद्देश्य अधिक से अधिक अंक प्राप्त करना है। इसके लिए स्कूल में पढ़ाई, उसके बाद ट्यूशन, बचा-खुचा समय होमवर्क आदि में बीत जाता है। अगर हम आमतौर पर विद्यालयों का सर्वे करे तो पायेंगे कि विद्यालय एक नीरस स्थान है। विषय, परीक्षा और अधिक अंक…..स्कूल के उद्देश्य यही रह गए हैं। बच्चों में अन्य गुणों के विकास के लिए खेल,सांस्कृतिक गतिविधियाँ नगण्य हैं और अगर हैं भी तो मात्र दिखावे के लिए। अगर हम ध्यान दें तो पायेंगे बहुत से बच्चे कक्षा पाँच से लेकर कक्षा आठ तक अपनी इच्छाएँ और रूचियाँ को पहचानने लगते हैं। उनमें कोई न कोई प्रतिभा होती है।  प्रतिभा कैसी भी हो सकती है मगर शिक्षा व्यवस्था में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि बच्चे की प्रतिभा को पहचान कर उसके विकास के लिए विद्यालय कुछ करें।  हमारे देश में यह भाग्य भरोसे है कि इत्तफाक से कोई अध्यापक अच्छा मिल गया या माता-पिता समझदार निकल गए,बच्चे की प्रतिभा को पहचान गए और उसे उसी में आगे बढ़ने का अवसर दिया। अन्यथा मुझे तो ऐसा लगता है ९९.९९ प्रतिशत बच्चन को एक बनी-बनाई शिक्षा व्यवस्था के साँचे में धकेल दिया जाता है। बच्चे को अच्छा लगे अथवा नहीं,उसकी रुचि है या नहीं…इन बातों पर विचार करने का समय शायद किसी के पास नहीं है। पढ़िए –बस्तों के बोझ तले दबता बचपन  परिणाम सामने है जैसे ही बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम सामने आते हैं आत्महत्याओंके समाचार मिलते हैं। लड़ाई-झगड़ा, मारपीट, गली-गलौज, घरों में माता-पिता से बहस, अध्यापकों का अपमान…ये बातें आम हो गई हैं और इनके लिए बहुत हद तक हमारे विद्यालय ही ज़िम्मेदार हैं।इन्हीं में से कुछ बालक महाविद्यालयों में पहुँचते हैं। घमंड, अहंकार, क्रोध आदि का पारा और ऊपर चढ़ जाता है जिसका भरपूर उपयोग राजनैतिक नेता करते हैं, छात्रसंघ के चुनावों के समय मारपीट, तोड़फोड़ तो एक सामान्य बात है। अर्थव्यवस्था की ख़ामियाँ भी दोषी              बच्चों में हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति के सामाजिक, शैक्षणिक और पारिवारिक पहलू…..ये सब तो बच्चों और युवाओं में हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे ही रहे हैं, अर्थव्यवस्था की ख़ामियाँ भी आग में घी डालने का काम करती हैं। ग़रीबी, कुपोषण, जुआ, शराब, नशा…..ये महानगरों के चारों तरफ़ बसिहुई झुग्गी-झोंपड़ियों में भरपूर मात्रा में पाया जाता है और हिंसक प्रवृत्ति ही नहीं, हिंसक अपराधियों को जन्म देता है। वहाँ के सरकारी स्कूल और आंगनबाड़ियों की हालत और भी ख़राब है। समस्या का समाधान हमारे हाथ में      1) इस समस्या का समाधान हमारे ही हाथों में निहित है। आवश्यकता है उस पर ध्यान देकर करने की। यह ठीक है शहरों में संयुक्त परिवार नहीं हैं, पर समय-समय पर दादा-दादी, नाना-नानी,चाचा-ताऊ, बुआ, मामा आदि के रिश्तों में बच्चों का आना-जाना, उठना-बैठना तो हो ही सकता है। इसका बालकोंके मन पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और उनका एकाकीपन दूर होगा, सामाजिक ताने-बाने की अहमियत को समझने लगेंगे।  2 )गली-मोहल्ले में हमें आपस में मिलना-जुलना और बच्चों के सामूहिक रूप से कुछ कार्यक्रम करवाना तथा नैतिक बातों पर उनसे चर्चा एवं विचार-विमर्श करना, सुधार लाने के लिए एक उपयोगी कार्य हो सकता है।  पढ़िए -किशोर बच्चे बढती जिम्मेदारियां 3)शिक्षा में मूल्याँकन का आधार यह होना चाहिए किसने अपनी किस प्रतिभा का विकास अधिक किया। विद्यालयों में अध्यापकों के द्वारा बच्चों का पढ़ाए जाने का समय कुल स्कूल के समय का … Read more

त्यौहारों का बदलता स्वरूप

      हमारा देश उत्सवों का देश है। इसी कारण पूरे वर्ष भर किसी न किसी उत्सव- त्योहार को मनाने का अनुपम प्रवाह चलता रहता है। हर माह, हर ऋतु किसी न किसी त्योहार के आने का संदेसा लेकर आती है और आए भी क्यों न, हमारे ये त्योहार हमें जीवंत बनाते हैं, ऊर्जा का संचार करते हैं, उदास मनों में आशा जागृत करते हैं, अकेलेपन के बोझ को थोड़ी देर के लिए ही सही, कम करके साथ के सलोने अहसास से परिपूर्ण करते हैं। यह उत्सवधर्मिता ही तो है जो हमारे देश को अन्य की तुलना में एक अलग पहचान, अस्मिता प्रदान करती है। व्रत -अनुष्ठान भी  त्यौहार  समान                   हमारे यहाँ तो व्रत भी किसी त्योहार से काम नहीं होते। उनके लिए सुबह से तैयारी करना, घर की साफ़-सफ़ाई, व्रत के अनुसार व्यंजनों को बनाने की तैयारी, फिर सबका साथ मिल कर पूजा करना, प्रसाद ग्रहण कर भोजन करना… क्या किसी त्योहार से काम है? संकट चौथ, पूर्णमासी, महाशिवरात्रि, अप्रैल और अक्टूबर में आने वाले नवरात्र, कृष्णजनमाष्टमी, अहोई अष्टमी, करवाचौथ, होली एक दिन पूर्व का व्रत, बड़मावस आदि कई व्रत हैं… जो करने पर त्योहार से कम नहीं लगते।           होली, रक्षाबंधन, दिवाली, भैयादूज… इनकी रौनक़ तो देखते ही बनती थी। इनको मनाने के पुराने स्वरूप पर विचार करें तो त्योहारों की तैयारी कई दिनों पहले से ही हो जाती थी। गुझिया , मठरी, नमकपारे, मीठे पारे आदि बनाने के लिए सब मिल कर एक- एक दिन एक घर में जाकर बनवाते थे। रक्षाबंधन में सिवईं (हाथ से बनाए हुओं को जवें कहते हैं) भी इसी तरह सब मिल कर बनवाते थे। सुविधाओं की कमी थी, पर आपसी खुलापन, मेल-मिलाप अधिक था तो सब काम इसी तरह किए जाते। एक का मेहमान सबका होता, बेटियाँ सबकी होती, मायके आती तो सब मिलने आते, सब कुछ  कुछ न कुछ उसे अवश्य देते। यह उस समय की आवश्यकता भी थी। आज वो आत्मीयता भरा समय याद तो बहुत आता है, उस आत्मीयता की कमी भी अनुभव होती है  बदलने लगा है त्योहारों का स्वरुप              पर अब समय बदल गया है। परिस्थितियाँ बदल गई हैं, आर्थिक स्थिति भी सबकी अच्छी ही नहीं, काफ़ी अच्छी है, सुविधाएँ भी सभी के पास हैं… तो रहन-सहन भी बदला है, तौर-तरीक़े भी बदले हैं, महत्वाकांक्षाओं के चलते सब काम कर रहे हैं, दिन-रात भाग रहें हैं, समय की कमी है। तकनीकी विकास ने भी हमें आती व्यस्त बनाया है। तो जब सब कुछ बदल रहा है तो त्योहारों को मनाने का पुराना स्वरूप भी बदलेगा ही। इसे हमें स्वीकार भी करना चाहिए।               टी वी और फ़िल्मों ने हमारे त्योहारों को बहुत ग्लैमरस रूप दे दिया है। कुछ-कुछ उसी तरह नई पीढ़ी उन्हें मनाने की कोशिश भी करती  दिखाई देती है। इसका एक सकारात्मक पक्ष जो मुझे दिखता है वो ये कि काम से काम इस भागती-दौड़ती व्यस्त ज़िंदगी में वे अपने त्योहारों से परिचित तो हो रहें हैं। हम पुराने स्वरूप को याद तो अवश्य करें, कुछ पुराना साथ लेकर चलें और कुछ नया स्वरूप अपनाएँ…ये आज की बहुत बड़ी आवश्यकता भी है क्योंकि आज की पीढ़ी को अपने मूल्यों, संस्कारों, रीति-रिवाजों से परिचित भी तो करवाना है जो उनके साथ मिलकर चलने से ही  ही संभव होगा।             पहले जन्मदिन पर हलवा बना कर, भगवान को भोग लगाने के बाद खिलाने-बाँटने का रिवाज था, अब उसकी जगह केक ने ले ली।तो क्या हुआ… सुबह हलवा बना कर पहले की तरह अपनी उस परंपरा को भी जी लें और बच्चों की ख़ुशी भी जी लें उनके साथ। रिलेटेड –उपहार जो मन को छू जाएँ             पहले दीवाली पर मिठाई बाँटने का चलन था, तब घर की स्त्रियाँ घर में ही रहती थीं, उनके पास बनाने -करने का अधिक समय होता था। आज महिलाएँ बाहर काम करती हैं, समय काम होता है, फिर आज ड्राई फ़्रूट्स और मिठाई के डिब्बों का चलन हो गया है तो क्या किया जाए? हमारे अपने मोहल्ले में ही मैंने देखा कि दीवाली की पूजा करते ही लोग प्लेट्स लेकर निकल पड़ते, जिसके घर जाते वो उसी समय प्लेट  की बस मिठाई बदल कर उसी खील- बताशे के साथ वापस दे देता। लोगों को ये बुरा लगता, मुझे भी लगता। पर मैं तो थाली रख लेती और अगले दिन देने जाती। तब लोगों ने ये देने का चलन ही समाप्त कर दिया। अब किसी के घर में कोई मृत्यु हो जाती है तो उसके घर में त्योहार न होने की स्थिति में मिठाई देने जाते हैं बस।             इसी तरह अब होली, दिवाली, करवाचौथ, तीज संस्थाओं के माध्यम से, किटी पार्टी में मिल कर लोग मनाने लगे हैं।इस बदलते स्वरूप में भी त्योहार आकर्षित तो करते ही हैं। अपनी परंपराओं, जड़ों से जुड़ाव को भी नई पीढ़ी को बताने के लिए उन्हें भी अपने साथ जोड़े और उनके साथ जुड़ें भी। नए और पुराने का सामंजस्य ही तो सुंदरता को बढ़ाता है।  परिवर्तन को खुले दिल से स्वीकार करें                परिवर्तन शाश्वत है। प्रकृति के उसी नियमके अनुसार सभी त्योहारों में भी परिवर्तन आया है। इस बदले हुए रूप में भी त्योहार आकर्षित तो करते ही हैं,आनंद और उल्लास भी मन को प्रसन्नता देते हैं। फ़िट रहने की प्रतिबद्धता में गुलगुले, मठरी, पूरी,हलवा आदि शगुन के रूप में ही बनते और कम ही खाए जाते हैं। शारीरिक श्रम कम होने के चलते यह प्रतिबद्धता भी आवश्यक लगती है।             पहले फ़ोटो का इतना चलन नहीं था। फ़ोटोग्राफ़रों के यहाँ विचार बना कर जाते और एक- दो फ़ोटो खिंचवा कर आ जाते थे और यह भी बहुत महँगा सौदा लगता था। आज मोबाइल के कैमरों ने फ़ोटो खिंचना इतना सरल बना दिया है कि हम जीवन के मूल्यवान क्षणों को आसानी से सहेज कर रख सकते हैं। फ़ेसबुक पर लिख कर जब साथ में हम फ़ोटो भी पोस्ट करते हैं, व्हाट्सअप पर अपने मित्रों से शेयर करते हैं तो भी … Read more

मेरा शहर साफ़ हो इसमें सबका हाथ हो

मेरी एक रिश्तेदार की बीच शहर में ही बड़ी सी कोठी है. दिवाली के कोई दो दिनों के बाद मैं उनके घर मिलने गयी हुई थी. मैंने देखा कि एक सफाई कर्मी उनके घर काम कर रहा था. पहले तो उसने सारे शौचालयों की सफाई किया फिर उनके घर की नालियों की. जब वह बाथरूम में जाने को होता तो आवाज देता , “बीबी जी पर्दें खिसका लें ……” गृहस्वामिनी जल्दी से परदे खिसकाती, शौचालय जाने के मार्ग में पड़े सामानों को खिसकाती तब वह अंदर जा उनके टॉयलेट की सफाई करता. यानी उसे पूरे घर में किसी चीज को छूने का कोई अधिकार नहीं था. आखिर में वह नालियों की सफाई में जुट गया. गृहस्वामिनी उसे लगातार डांटें जा रही थी क्यूंकि वह दो दिनों से नहीं आया था. “पटाखों और फुलझड़ियों के जले-अधजले टुकड़ों से सारी नालियां भर गयीं हैं, कितना कचरा सभी जगह भरें पड़ें हैं, तुम्हे आना चाहिए था. कामचोर कहीं के…..”, वह उसे बोले जा रहीं थीं. “बीबी जी दिवाली जो थी, रमा बाई तो आ रही थी ना?”, सर खुजाते उसने पूछा. “अब रमा बाई टॉयलेट या नालियों की सफाई थोड़े न करेगी. वह तो भंगी ही न करेंगे”, मेरी रिश्तेदार ने कहा. आखिर में जब वह जाने लगा तो पॉलिथीन में बाँध कुछ बासी खाने की वस्तु उसके हाथ पर ऊपर से यूं टपकाया कि कहीं छू न जाये. जिसे खोल वह वहीँ नाली के पास बैठ कर खाने लगा. इस बीच रमा बाई उन सारे जगहों पर पोंछा लगा रही थी जहाँ से हो कर वह घर में गुजरा था.      कुछ देर वहां बैठ मैं वापस चली आई पर ‘भंगी’ शब्द बहुत देर तक जेहन पर हथोड़े बरसाता रहा. दो दिनों से उनकी नालिया बजबजा रहीं थी, टॉयलेट बास दे रहें थें पर ना तो उन्होंने खुद से साफ़ किया ना उनके यहाँ दूसरे काम करने वाली बाई ने. अन्य जातियां ऐसा क्यूँ सोच रखती हैं कि ये काम दलित या भंगी का ही है. गंदगी भले खुद का हो.    महात्मा गांधी ने इन्हें “हरिजन” नाम दिया. बाबा साहब आंबेडकर ने इनके उत्थान हेतु कितना  किया. पर क्या वास्तविकता में सोच बदली है इनके प्रति ? संविधान में इनकी भलाई के लिए कई बिंदु मौजूद हैं. पर जनमानस में इनकी छवि आज भी अछूत की ही हैं. दूसरों का मैला साफ़ करने वालों की नियति आज भी गन्दी बस्तियों में ही रहने की है.     कई कहानियाँ और तथ्य मौजूद हैं जो भंगी शब्द की उद्दभव गाथा का बखान करती हैं. हजारों वर्षों से मनु-सहिंता आधारित सामाजिक व्यवस्था का चलन रहा है. भारत वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर आधारित एक विशाल और प्राचीन देश है, जहाँ ब्राहमण, क्षत्रिय, विषय और शूद्र, इन चार वर्णों के अन्तर्गत साढ़े छ हज़ार जातियां हैं , जो आपस में सपाट नहीं बल्कि सीढ़ीनुमा है. यहां ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ एवं भंगी को सबसे अधम एवं नीच समझा जाता है पढ़ें -गीली मिटटी के कुम्भकार .          एक मान्यता के अनुसार इनका उद्दभव मुग़ल काल में होने का संकेत  भी मिलता है.  हिंदुओं की उन्‍नत सिंधू घाटी सभ्‍यता में रहने वाले कमरे से सटा शौचालय मिलता है, जबकि मुगल बादशाह के किसी भी महल में चले जाओ, आपको शौचालय नहीं मिलेगा.  अरब के रेगिस्‍तान से आए दिल्‍ली के सुल्‍तान और मुगल को शौचालय निर्माण तक का ज्ञान नहीं था। दिल्‍ली सल्‍तनत से लेकर मुगल बादशाह तक के समय तक सभी पात्र में शौच करते थे, जिन्‍हें उन लोगों से फिंकवाया जाता था, जिन्‍होंने मरना तो स्‍वीकार कर लिया था, लेकिन इस्‍लाम को अपनाना नहीं।  जिन लोगो ने मैला ढोने की प्रथा को स्‍वीकार करने के उपरांत अपने जनेऊ को तोड़ दिया, अर्थात उपनयन संस्‍कार को भंग कर दिया, वो भंगी कहलाए। और ‘मेहतर‘- इनके उपकारों के कारण तत्‍कालिन हिंदू समाज ने इनके मैला ढोने की नीच प्रथा को भी ‘महत्‍तर‘ अर्थात महान और बड़ा करार दिया था, जो अपभ्रंश रूप में ‘मेहतर‘  हो गया। वैसे इन बातों को एक कथा कहानी के तौर पर लेनी चाहिए.   सच्ची और अच्छी बात ये है कि वर्ण व्यवस्था अब चरमरा रहीं हैं. परन्तु ढहने में अभी और वक़्त लगेगा. कानून और संविधान के जरिये बदलाव का बड़ा दौर जो अंग्रेजी औपनेवेशिक काल में आरम्भ हुआ था आज तक जारी है. असल बदलाव तो तभी माना जायेगा जब सम-भाव की भावना लोगो की मानसिकता में भी आये.    मैं एक बहुमंजिला अपार्टमेंट के एक फ्लैट में रहती हूँ. अपना टॉयलेट हम खुद ही साफ़ कर लेतें हैं. बिल्डिंग में कुछ बुजुर्ग या लाचार लोग हैं जो अपनी टॉयलेट की सफाई के लिए अन्य लोगो की मदद लेतें हैं. हमारे बिल्डिंग की साफ़ सफाई का जिम्मा सफाई-कर्मियों के एक दल का है. जो घरों से कचरा बटोरतें हैं, नालियों और कॉमन स्पेस की साफ़ सफाई भी करतें हैं. सच पूछा जाये तो मुझे ये नहीं पता है कि ये किस जाति या वर्ण से हैं. सब साफ़ स्मार्ट कपडें और मोबाइल युक्त हैं. कईयों को मैंने बाइक से भी आते देखा है. बचपन में अमेरिका में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के मुख से मैंने कुछ ऐसा ही वर्णन सुना था जो हो सकता है शाम को कैफेटेरिया में आपकी बगल के टेबल पर ही कॉफ़ी पी रहा हो, जिसने  सुबह आपके दफ्त्तर के टॉयलेट को साफ़ किया होगा. उस वक़्त देश में हमारे यहाँ एक विशेष नीली रंग की ड्रेस पहने जमादार आतें थें जिनका वेतन बेहद कम होता था और हाथ में झाड़ू और चेहरे पर बेचारगी ही उनकी पहचान होती थी और हम आश्चर्य से अमेरिकी भंगियों के विषय में सुनतें थें कि वो कितने स्मार्ट हैं.      अभी पिछले दिनों एक सरकारी कंपनी में सफाई-कर्मियों के पद के लिए सामान्य वर्ग के व्यक्तियों से आवेदन माँगा गया था. सच्चाई ये है कि जिनकी पीढियां ये कर्म करतीं आयीं हैं उनके बच्चें इन कामों को करने से इनकार कर रहें हैं. नतीजा सफाई कर्मियों की भारी मांग हो गयी है. अब जब इस काम में अच्छा पैसा मिलने लगा है तो हर वर्ण के लोग इसे करने लगें हैं. प्रतिशत अभी भी बेहद कम है पर रफ्त्तार अच्छी है. शहरों में माल्स, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन, विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनी के दफ्त्तर यूं ही नहीं चमचमातें  दिखतें हैं.  मेरे बिल्डिंग में ही एक दिन एक सफाई कर्मी, … Read more