जनरेशन गैप -वृद्ध होते बच्चों पर तानाकशी से बचे माता -पिता

अभी हाल में एक फिल्म आई थी “१०२ नॉट आउट ” | जिसमें एक बुजुर्ग पुत्र व् उसके बुजुर्ग पिता के रिश्ते को दर्शाया गया है | फिल्म का विषय अलग था , पर यहाँ मैं बात कर रही हूँ उस घर की जहाँ दो बुजुर्ग रहते हैं | एक बेटा जो वृद्धावस्था की शुरुआत पर खड़ा है व् उसके माता -पिता जो अति वृद्ध हैं | भारतीय संस्कार कहते हैं किब्च्चों को माता -पिता की सेवा करनी चाहिए | माता -पिता की सेवा ना कर पाने वाले बच्चे एक नैतिक दवाब में रहते हैं | पर जब बच्चे खुद वृद्ध वस्था में हों और माता -पिता व् समाज उनसे युवा बच्चों के सामान सेवा की मांग करें जनरेशन गैप -वृद्ध होते बच्चों पर तानाकशी से बचे माता -पिता इस विषय पर लेख लिखने का एक विशेष कारण है | दरअसल अभी कुछ दिन पहले हॉस्पिटल में जाना हुआ | वहाँ एक बुजुर्ग दंपत्ति (८० के आसपास ) भी अपने बेटे के साथ आये हुए थे | उनका रूटीन चेक -अप होना था | डॉक्टर ने यूँही पूछ लिया ,” माताजी इस बार काफी दिन बाद आयीं | ” वो कुछ बोलतीं इससे पहले उनके पति बोलने लगे ,” क्या करें आजकल के लड़कों के पास समय कहाँ है हम बुजुर्गों के लिए , बस अपने काम और बीबी बच्चों से मतलब है , इस उम्र में हालत बिगड़ते देर थोड़ी ही ना लगती है , पर बच्चों का क्या है ? अब हमारी जरूरत कहाँ है ? खैर पति -पत्नी का रेगुलर चेक अप करने के बाद माँ ने बेटे से कहा , ” तुम भी बी पी नपवा लो | बेटे ने कहा नहीं मैं बिलकुल ठीक हूँ | डॉक्टर बोला , ” नपवा लीजिये आप भी तो पचास पार कर चुके हैं | डॉक्टर ने नापना शुरू किया बीपी 160/240को पार कर रहा था | डॉक्टर ने कहा , ” अरे इन्हें तुरंत एडमिट करो , इ.सी जी लो , फिर माता -पिटा से बोले , ” अच्छा है चेक करा लिया वर्ना कुछ भी हो सकता था | अक्सर ४० -से ६० के बीच में जब बीमारियाँ दबे पाँव दस्तक देतीं हैं, तब पारिवारिक दायित्वों के बीच में लोग अरे हम तो ठीक हैं कह कर अपने स्वास्थ्य को अनदेखा करते हैं | अचानक से मामला बिगड़ता है और कई बार जान भी चली जाती है | सबको रूटीन चेक अप कराते रहना चाहिए ताकि बिमारी शुरू में ही पकड़ में आ सके | साथ ही उनके पिता द्वारा शुरू में बोली गयी बात ( जोकि आम घरों में कही जाने वाली बात है)में मुझे बीनू भटनागर दी के लेख समकालीन साहित्य कुछ विसंगतियाँ की याद आ गयी | लेख का अंश यथावत दे रही हूँ … “जिस समय माता पता की उम्र८० के आस पास होगी तो उनकी संतान की आयु भी पचास के लगभग होगी इस समय वह इंसान घर दफ्तर और परिवार की इतनी जिम्मेदारियों में घिरा होगा कि वह माता पिता को पर्याप्त समय नहीं दे पायेगा। अब हमारे साहित्यकार माता पिता के अहसान गिनायेंगे कि तुम्हे उन्होने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया वगैरह….. अब उनका वक़्त है……….।हर बेटे या बेटी को अपने माता पिता की सुख सुविधा चिकित्सा के साधन जुटाने चाहिये ,अपनी समर्थ्य के अनुसार चाहें माता पिता के पास पैसा हो या न हो।बुजुर्गों को भी पहले से ही बढ़ती उम्र के लिये ख़ुद को तैयार करना चाहिये। वह अपने बुढ़ापे में अकेलेपन से कैसे निपटेंगे क्योंकि बच्चों को और जवान होते हुए पोते पोती को उनके पास बैठने की फुर्सत नहीं होगी। यह सच्चाई यदि बुज़ुर्ग स्वीकार लें तो उन्हे किसी से कोई शिकायत नहीं होगी।” इसी विषय पर कहानी मक्कर लिखी थी | जिसमें बुजुर्ग माता -पिता द्वारा बहु की कमजोरी को बीमारी ना मान कर मक्कर ( बिमारी का नाटक) समझा जाता है | अपने जीवन में कितने केस मैंने ऐसे देखे हैं जहाँ वृद्ध माता -पिता ताने मार -मार कर ऐसा माहौल बना देते हैं जहाँ बच्चों का डॉक्टर को खुद को दिखने का मन भी खत्म हो जाता हैं | ऐसे में कई बार बीमारियाँ अपने उग्र रूप में सामने आती हैं | तन मजबूरन वृद्ध लोगों को भी सेवा की मात्रा से समझौता करना पड़ता है | मेरा भी विचार है कि बुजुर्गों को भी समझना चाहिए कि वृद्धावस्था की शुरुआत में पहुंचे हुए बच्चे उनकी वैसी सेवा नहीं कर सकते जैसी युवा बच्चे कर सकते हैं | इसलिए व्यर्थ में ताने मार -मार कर खुद का और परिवार का तनाव नहीं बढ़ाना चाहिये | क्योंकि परिवार में सब स्वस्थ रहे खुश रहे यही तो हम चाहते हैं | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. प्रेम की ओवर डोज अरे ! चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद आपको  कहानी   “जनरेशन गैप -वृद्ध होते बच्चों पर तानाकशी से बचे माता -पिता “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under:generation gap, health issues, criticism

मक्कर

बिमारी के नाटक को आम देसी भाषा में मक्कर कहा जाता है |  अक्सर औरतों को  थकन महसूस करने पर आराम करने पर मक्कर की उपाधि दी जाती है |  लघु कथा -मक्कर  सुमित के घर आते ही माँ ने बोलना शरू कर दिया ,” आज मुझे फिर से रोटियाँ बनानी पड़ी , तुम्हारी देवी जी तो मक्कर बना कर बैठी हैं कि थकान सी महसूस हो रही है | कब तक चलेगा ये सब ? अरे भाई हम ७५ की उम्र में रोटियाँ थापे और वो ४५ की उम्र में मक्कर बनाये बैठी रहे | एक हमारा जमाना था बुखार में भी पड़ें हो तो भी सास को रसोई में ना घुसने देते थे | लेट -बैठ कर जैसे भी किया बना कर खिलाया | वो जमाना ही और था तब अदब था बुजुर्गों के प्रति |  “देखता हूँ अम्माँ” कह कर सुमित अपनर कमरे में चला गया | मीरा बिस्तर पर लेटी आँसूं बहा रही थी | उसके कमरे और बैठक में दूरी ही कितनी थी | मन भर आया |  सोचा सुमित तो समझेगा | जब से ब्याह कर आई है अपना पूरा शरीर लगा दिया सास -ससुर की सेवा करने में | दोनों ननदों के ब्याह में भी ना काम में ना ली -देने में कोई कमी करी | फिर आखिर क्यों उसकी तकलीफ को कोई समझ नहीं पा रहा है | दिनों -दिन उसकी बढती थकान को क्यों सब मक्कर का नाम दे रहे हैं |  उसकी आशा के विपरीत सुमित भी उसे देखकर  बोला , ” देखो मीरा अब बहुत हो गया ये नाटक , आखिर कौन से जन्म का बदला ले रही हो तुम मेरे माँ -बाप से , महीना हो गया तुम्हें बिमारी का बहना करते -करते | दिखाया तो था डॉक्टर को , खून की कमी बताई है बस टॉनिक और दवाई समय पर लो और काम करो |  “तो क्या तुम्हें लगता है मैं खुद ठीक नहीं होना चाहती ?,”मीरा ने प्रश्न किया | ठीक होना , अरे तुम बीमार ही कब थीं , माँ सही कहतीं है मक्कर , काम करते -करते ऊब गयीं और आराम करने कए बहाना चुन लिया , अभी उस टेस्ट की रिपोर्ट भी आ जायेगी जो डॉक्टर ने बस यूँही मेरा खर्चा करने के लिए किया था , फिर किस तरह से सबको अपना मुँह दिखाओगी  ” कहते हुए सुमित कमरे के बाहर चला गया |  रात भर रोती रही मीरा , सुबह उठने की ताकत भी ना बची | घर की बहु देर तक सोती रहे | घर में कोहराम मचना तय था | अम्माँ ने पूरा घर सर पर उठा लिया | दोपहर तक ननदें भी आ गयी | छोटी ननद  खाना बना कर लायी और बोली , ” खा लो भाभी , अपनी अम्माँ की ये दुर्गति मुझसे तो देखी  ना जायेगी , अब जब तक तुम्हारे मक्कर ठीक नहीं हो जाते तब तक मैं यहीं रहूँगी |  मीरा अपना दर्द पीने  के आलावा कुछ ना कर सकी | दो दिन घर में उसी के मक्कर की चर्चा होती रही |  तीसरे दिन जब सुमित घर लौटे तो थोड़े उदास थे | हाथों में उसकी रिपोर्ट थी | अम्माँ ने डॉक्टर की फ़ाइल देखते ही कहा , ” का हुआ , पता चल गया सब नाटक है |” ननदों ने हाँ में हाँ मिलते हुए कहा , ” हाँ , मक्कर पर मुहर लगे तो हम भी अपने घर लौटें |” सुमित धीरे से बोले , ” अम्माँ , किडनी बहुत ख़राब है , एडमिट करना पड़ेगा | वो डॉक्टर पकड नहीं पाया |  घर में सन्नाटा छा गया |  अपने कमरे में लेती  हुई मीरा सब सुन रही थी | ना जाने क्यों उसे अपनी बीमारी की रिपोर्ट बिना डायगनोस कर के थमाई गयी मक्कर की रिपोर्ट से कम तकलीफदायक लग रही थी |  वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … हकीकत मतलब इंटरव्यू मेकअप आपको  लघु कथा  “  मक्कर लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    filed under-short stories, patient, fatigue, dizziness

हकीकत

गाँव की जिंदगी कितनी खुशहाल नज़र आती है , लम्बे चौड़े खेत , बेफिक्र बचपन ,न पढाई की चिंता न किसी प्रतियोगिता की ,  ताज़ा -ताज़ा फल व् सब्जियां….. पर क्या सिर्फ यही हकीकत है |  लघुकथा -हकीकत   बहु का बी .टी .सी . में चयन हो गया था | प्रारंभिक ट्रेनिंग के लिए नरवल जाना था | दीनदयाल जी आज बहुत खुश थे | बरसों बाद गाँव जाने का सपना पूरा हो रहा था | अम्माँ –बाबू के बाद गाँव ऐसा छूटा कि बस यादों में ही सिमिट कर रह गया | खेती-जमीन यूँ तो थी नहीं और जो थी उसके इतने साझीदार थे कि आम की फसल में एक आम चखने को मिल जाए तो भी बड़ी बात लगती थी , फिर भी मन कभी –कभी पुरानी यादों को टटोलने जाना चाहता , तो  पत्नी और बच्चे साफ इनकार कर देते | तर्क होता वहाँ क्या है देखने को ?लिहाजा मन मार कर रह जाते | नरवल उनका अपना गाँव नहीं था , पर गाँव तो था , इस बार सरकारी नौकरी के लालच में बेटा भी साथ जाने को तैयार था | रास्ते भर फूले नहीं समा रहे थे | खेत –खिलिहान देखकर जैसे दामन में भर लेना चाहते हों | गाँवों की निश्छल और खुशनुमा जिन्दगी के बारे में रास्ते भर बेटा –बहु को बताते हुए स्मृतियों का खजाना खाली कर रहे थे | शहर की जिंदगी से ऊबे हुए बेटे –बहु को भी सब सुनना अच्छा लग रहा था | बहु ने चहक कर कहा , “ सही है पापा , जिन्दगी तो गाँव की ही अच्छी है , ताज़ा –ताज़ा तोड़ कर खाने में जो स्वाद है वो शहर की सब्जियों में कहाँ ? बहु की बात पर ख़ुशी से मोहर लगाते हुए दीनदयाल जी ने सड़क के किनारे कद्दू (सीताफल )बेंचते हुए छोटे बच्चे को देखकर गाड़ी रोकी , उनका इरादा अपनी बात सिद्ध करने का था | बच्चे के पास दो कद्दू थे | दीनदयाल जी ने गर्व मिश्रित आवाज़ के साथ कद्दुओं का दाम पूछा ,  “ का भाव दे रहे हो बचुआ ?” बच्चा बोला , “ ई चार का और ऊ पाँच का | दीनदयाल : और दूनो लेबे तो ? बच्चा : तो सात का दीनदयाल : दूनो दियो पाँच का , तो लेबे बच्चा : नाही बाबू , अम्माँ मरिहे दीनदयाल : अम्माँ काहे  को मरिहे , पाँच का दो और छुट्टी करो , हमका दूर जइबे  का है | बच्चा : ना बाबू अम्माँ मरिहे दीनदयाल : अरे अम्माँ खुश हुइए कि बिक गा है , लाओ देओ , कहते हुए दीनदयाल जी ने पाँच का नोट बढ़ा दिया | बच्चे ने सकुचाते हुए कद्दू दीनदयाल जी को सौप दिए | बहु ने खुश होकर कहा , “ पापा , कितना सस्ता है यहाँ पर , आप सही कहते थे | दीनदयाल जी गर्व से भर उठे , आज उन्होंने गाँव की जिन्दगी शहर से अच्छी है को बहु बेटों के आगे सिद्ध कर दिया था | लौटने के रास्ते में भी शहर की सुविधाओं के बावजूद गाँव के  निर्मल जीवन व् सस्ताई की बात होती रही | बेटा –बहु भी हाँ में हाँ मिला रहे थे | सारे काम निपटा कर जब वो सोने चले तो आँखों के आगे उसी बच्चे की तस्वीर घूम गयी | अम्माँ मरिहे शब्द घंटे की तरह दिमाग में गूंजने लगा |  बहु-बेटे पर धाक ज़माने के लिए, सस्ते में  लिए गए कद्दू बहुत महंगे लगने लगे | पूरी रात बेचैनी में कटी | एक बार फिर से अपने बचपन की बदहाली आँखों के आगे तैर गयी | सुबह उठते ही वे गाड़ी स्टार्ट कर नरवल की ओर  उस बच्चे को ढूँढने के लिए निकल पड़े | पत्नी पीछे से  पूछती रही , पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया | कहते भी क्या ? बहु –बच्चों के सामने भले ही उन्होंने गाँव के सस्ते होने को सिद्ध कर  दिया था , पर उस सस्ताई के पीछे छिपे महंगे दर्द की हकीकत को वो जानते थे | वंदना बाजपेयी   यह भी पढ़ें ……. अम्माँ परदे के पीछे अपनी – अपनी आस बदचलन  आपको  लघु कथा  “ हकीकत  “ कैसे लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    filed under-short stories, farmer, Indian farmer, price

किसी विवाह समारोह में

आप भी अवश्य किसी विवाह समारोह में गए होंगे …. रिश्तों के टूटे तारों को समेटा होगा , जी भर जिया होगा और दामन में आत्मीयता को भर कर फिर लौटे होंगे अपनी मशीनी जिन्दगी में …. आइये उसे  फिर से जिए कविता -किसी विवाह समारोह में  किसी विवाह समारोह में अक्सर मैं सोचती हूँ , हम किसके लिए कर रहे हैं विमर्श बराबरी की बातें एक शिकन भी तो नहीं हैं इनके चेहरे पर मेक अप , चूड़ियों और महँगी साड़ियों की बातें करती चहक -चहक कर बतियाती ये औरतें नज़र आती हैं धरती का सबसे संतुष्ट जीव किसी विवाह समारोह में बन्ना -बन्नी ,  और बधाई गाती हुई ये औरतें जो ढोलक की थाप पर नाचते  -झूमते हुए शायद कुछ पल के लिए भूल जाना चाहती हैं अपनी निजी जिन्दगी के दर्द सास ननद और ससुराल की दिक्कतों को तभी तो बड़ी ही ख़ूबसूरती से चुनती है … काहे को ब्याही विदेश के स्थान पर पिया का घर प्यारा लगे किसी विवाह समारोह में एक दूसरे को सजाती संवारती हैं औरतें किसी का जूड़ा बांधतीं , किसी का पल्लू ठीक  करतीं प्लेटों को करीने से लगाती बना देना चाहती हैं दुनिया को सबसे सुंदर फिर धीरे से दूसरी औरत के कान के पास जा कर कर फुस्फुसातीं हैं अगली की साड़ी की कीमत होती है हार के असली या नकली करार देने की कवायद हार और साड़ी की कीमत से बाँटती हैं दूसरी के सुखी या दुखी होने का सर्टिफिकेट और इस नकारात्मकता के साथ कुछ पल पहले अपनी ही रचाई हुई सबसे खुबसूरत दुनिया को कर देती हैं संतुलित किसी विवाह समारोह में हाशिये  पर धकेल दी जाती हैं वो औरतें जो सुंदर नहीं हैं , या जिनके गहने कपड़े नहीं हैं सुंदर समारोह की जान और शान हैं खूबसूरत , धनवान  औरतें जिनके हीरे के कर्णफूलों की चमक से कुछ और बढ़ जाती हैं जिन्दगी की धूप  में पकी हुई औरतों के गालों की झुर्रियां ठीक उसी समय से वो करने लगती हैं हिसाब अगले समारोह के खर्चे का, दोहराती हैं मन में महंगे ब्यूटीपार्लरों के नाम ताकि बढ़ा सकें अपना थोडा सा कद और    यूँ ही ना  कर दी जाए नज़रंदाज़ क्योंकि सिर्फ सुन्दरता ही  यहाँ की डिग्री है तन की या धन की किसी विवाह समारोह के समापन के बाद मेकअप की परतों के उतरते ही उभर आतें हैं उनके दर्द धन , सम्मान और रूप से परे निकल आती हैं  खालिस औरतें जो करोचती नहीं , सहलातीं हैं एक दूसरे का दर्द खुलती हैं मन की गिरहें विदा लेती बेटियाँ और बहनें भुला ना देना की आर्तनाद के साथ कोछ के चावल के संग आंचल के कोने में ,बाँध लेना चाहती हैं मायके का प्यार विदा लेती खानदान की बहुए लेती हैं वादा अपनी एक जुटता का गले मिलती जेठानी -देवरानियाँ करतीं हैं आसरा गाढ़े वक्त में काम आने का किसी विवाह समारोह में नहीं जुड़ता सिर्फ पति -पत्नी का रिश्ता जुड़ते हैं अनेक रिश्ते ताज़ा हो जाते हैं कुछ पुराने चेहरे जो समय की धुंध में कहीं खो गए थे अरे पहिचाना की नाहीं से वाह तुम तो इत्ते बड़े हो गए तक झनझना जाते हैं ना जाने कितने तार बजता है संगीत जो करता है इशारा कि आज के युग में भी जब भौतिकता की अंधी दौड़ में भागते हम जो अलापते हैं ‘मेरी  जिन्दगी मेरी मर्जी ‘का सुर और होते ज़ाते हैं अकेले और कोसते हैं रसहीन होती जिंदगी को तभी कोईविवाह समारोह  हमें फिर से जोड़ता है अपनी जड़ों से देता है आत्मीयता की ऊर्जा ताकि  बिना घर्षण के अगले विवाह समारोह तक चल सके मशीनी जिन्दगी वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……… बदनाम औरतें बोनसाई डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ बैसाखियाँ  आपको “किसी विवाह समारोह में  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट   पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-wedding, indian wedding, marriage, bride, women

छोटी दीदी

छोटी दीदी की कहानी एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसकी आँखों में सपने थे और पैरों में बेड़ियाँ | कितनी बार वो समाज के तानों का शिकार हुई | कितनी बार लड़खड़ाई , गिरी उठी और फिर … |कुछ समय के लिए उनकी कहानी कई दूसरी कहानियों से  टकराई और रेशा- रेशा बिखर गया | वक्त के साथ उन रेशों को चुनने की कोशिश है | कोशिश है उस दर्द को शब्द देने की एक मुक्कमल कहानी की जो हमारी आपकी कहानियों की तरह वक्त के किसी मोड़ पर अधूरी ही  छूट जाती है | स्मृतियों के पन्ने पलती हूँ तो कभी कुछ याद आता है तो कभी कुछ | ये सफ़र इन स्मृतियों के पन्नों का ही है | पता नहीं कब कौन सा पन्ना ओझल हो जाएगा और कौन सा उड़ कर सामने आ जाएगा | जिसे आप सब के साथ हर शनिवार और सोमवार को बाटूंगी | आज ऐसा ही एक पन्ना …       छोटी दीदी    वक्त को कौन जान पाया है ? ये वक्त कब कौन सी पैरहन पहन कर आ जाए जे भी नहीं कहा जा सकता | वो ऐसा ही अच्छा वक्त था जिसने अचानक से सफ़ेद पैरहन पहन ली | एक फोन कॉल ने भविष्य के सपनों को अतीत की अँधेरी सुरंग में धकेल दिया | उसके बाद एक तेज चक्कर आया और मैं अस्पताल में थी | ” देखिये मैं आपको जाने की इजाजत नहीं दे सकती | आठवाँ महीना है और आप का ब्लड प्रेशर इतना बढ़ा हुआ है | फिर आप आप की मर्जी | जिस घर में भविष्य जन्म लेने वाला था वहां का वर्तमान अतीत में जा चुका था | जन्म और मृत्यु की ये अजीब सी मिलन की घडी थी | मैं अस्पताल के बिस्तर पर खूब दवाब और आँसुओं  के दवाब के कम हो जाने की प्रतीक्षा करने को विवश थी | स्मृतियों का रेला हवा के झोंके के मानिंद मन में उथल पुथल मचाने लगा | मैं आँगन में बैठी ढेर सारे बरतन मॉल कर रही थी और कमरे से अम्मा जी के चिल्लाने की आवाज आ रही थी, ” कहाँ से आ गयी है ये हमारे घर | खाना एक रोटी और काम घर भर का | ये सब इस घर में नहीं चलेगा काम करना है तो ठीक से खाओं | छोटी दीदी की बक्सा साफ़ करने का जिम्मा मुझे दिया गया | उसमें सिर्फ किताबें भरीं थीं | कितना पढना चाहतीं थी वो , पर… , कुछ किताबें पलटने के बाद मेरे हाथ में वो  थी, जिसके बारे में छोटी दीदी ने कई बार मुझे बताया था | ये कोई साधारण गीता नहीं थी | छोटी दीदी को आठवीं कक्षा में वाद्द –विवाद प्रतियोगिता में प्रथम आने पर मिली थी | आँखों के वेग को रोकते हुए मैंने पन्ना पलटा | बड़े –बड़े शब्दों  में लिखा था , “हम आपके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं | “ नीचे प्रधानाचार्या के हस्ताक्षर थे | कुछ पन्ने और पलटने के बाद एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ मिला | मैंने खोल कर देखा | ये छोटी दीदी ने ही लिखा था | साफ़ –साफ़ मोती जैसे अक्षर |      मैं खत खोलकर पढने लगी | खत में कुछ स्मृतियाँ दर्ज थी | ये तब की बात है जब छोटी दीदी ७ -८ की साल की थीं | उम्र छोटी थी पर लड़कियों को घर के बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी | घर में माँ का हाथ बटायें या गुड्डी गुडिया से खेले दिन में थोड़ी बहुत आज़ादी थी पर जैसे ही सूरज अस्ताचल की ओर जाता लड़कियों , औरतों की दुनिया घर के भीतर ही सिमिट जाती | बड़ी दीदी को सब स्वीकार था | उनके सर को केवल उर्ध्व दिशा में हिलाने की आदत थी | न कभी कोई तर्क किया ना, ना कहना सीखा, पर छोटी दीदी ऐसी नहीं थीं | उनके पास ढेरों रंग थे , जिससे वो दुनिया को रंगना चाहती थीं , कभी तितली बन कर उड़ना चाहती थीं, तो कभी बादल बन कर सारी धरती पर बरसना चाहती थीं | उनकी राह मेंरोड़ा मुख्य द्वार पर जड़ा वो बड़ा सा लोहे का दरवाजा था , जिसकी सिर्फ सांकल ही नहीं बंद होती, बाहर और अंदर की दुनिया को पूरी तरह से अलग करने के लिए एक बड़ा सा क्षैतिज लकड़ी का लट्ठा लगा दिया जाता | वहीँ पास तख़्त में बाबा सुपारी खा कर उंघते रहते , मजाल है कि कोई निकल जाए |        पर छोटी दीदी कहाँ मानने वालीं थी, वोकुर्सी लगा कर उस क्षैतिज लट्ठे पर चढ़ जातीं और बाहर की दुनिया को नन्हीं आँखों से परखने की कोशिश करतीं कि आखिर क्या है इस बाहर की दुनिया में जो सांझ होते ही लड़कियों के लिए निषिद्ध हो जाता है | छोटी दीदी की लाख चतुराई के बाद भी अक्सर बाबा उन्हें पकड़ लेते और जोर से चिल्लाने लगते , “ ई ससुरी नहीं मानिहै , टाँगे काट दे ईकी तब ना चढ़ पहीये , अपनी बड़ी बहन की सरीकत भी नाही करत है कि अम्माँ का हाथ बटावे , कुल का नास करे है | बाबा देर तक बडबडाते और छोटी दीदी चुपचाप दरवाजे से उतर कर चूल्हे पर रोटियाँ सेंकती अम्मा से चिपक जातीं |      बाबा चूल्हे की ही रोटी खाते थे | गैस की रोटी में छूत लग जाती ,उनका तर्क होता ई गैस के कारण ही आज् कल मानुष बड़े बुजर्गन से जवाब –तलब करने लाग है, हमारे घर में ई ना चलिहैं | छोटी दीदी देर तक अम्मा से चिपक कर सुबकतीं पर अम्मा जरा भी ना हिलतीं , ना पक्ष में ना विपक्ष में ,वो आंच में पूरी तरह पक चुकी थीं , बड़ी दीदी ने तय कर लिया था जब पकना ही है तो चिल्लाना बेकार है , छोटी दीदी आंच में डाले जाने की शुरुआत से ही विद्रोह पर उतारू थीं |        ऐसी ही किसी एक शाम को बाबा से डांट खाने के बाद छोटी दीदी सुबक कर अम्मा से चिपकी नहीं , बल्कि अम्माँ को झकझोर कर कहा, “ अम्मा देखना एक दिन मैंदरवाजे … Read more

कुम्हार और बदलते व्यापार का समीकरण

दीपावली की बात करते ही मेरे जेहन में बचपन की दीवाली आ जाती है | वो माँ के हाथ के बनाये पकवान , वो रिश्तेदारों का आना -जाना , वो प्रसाद की प्लेटों का एक घर से दूसरे घर में जाना और साथ ही घर आँगन बालकनी में टिम-टिम करते सितारों की तरह अपनी जगमगाहट से  अमावस की काली रात से लोहा लेते मिटटी के दिए | मिटटी के दिए याद आते ही एक हूक  सी उठती है क्योंकि वो अब हमारा घर आँगन रोशन नहीं करते | वो जगह बिजली की झालरों ने ले ली है |  कुम्हारों को समझना होगा बदलते व्यापार का समीकरण  मिटटी के दिए का स्थान बिजली की झालरों द्वारा ले लेने के कारण अक्सर कुम्हारों की बदहाली का वास्ता देते हुए इन्हीं को ज्यादा से ज्यादा खरीदने से सम्बंधित लेख आते रहे हैं ताकि कुम्हारों के जीवन में भी कुछ रोशिनी हो सके | मैं स्वयं भी ऐसी ही एक भावनात्मक परिस्थिति से गुजरी जब मैंने “मंगतलाल की दिवाली “कविता लिखी | कविता को साइट पर पोस्ट करने के बाद आदरणीय नागेश्वरी राव जी का फोन आया | उन्होंने कविता के लिए बहुत बधाई दी साथ ही यह भी कहा आप कि कविता संवेदना के उच्च स्तर पर तो जाती है पर क्या इस संवेदना से वो जमाना वापस आ सकता है बेहतर हो कि हम कुम्हारों के लिए नए रोजगार की बात करें | साहित्य का काम नयी दिशा देना भी है | जब मैंने उनकी बात पर गौर किया तो ये बात मुझे भी सही लगी | मिटटी के दिए हमारी परंपरा का हिस्सा हैं इसलिए पूजन में वह हमेशा रहेंगे | मंदिर में व् लक्ष्मी जी के आगे वही जलाये जायेंगे | शगुन के तौर पर बालकनी में व् कमरों में थोड़े दीपक जलेंगे परन्तु बालकनी में या घर के बाहर जो बिजली की सजावट होने लगी है वो आगे भी जारी ही रहेगी , क्योंकि पहले सभी मिटटी के दिए जलाते थे  इसलिए हर घर में उजास उतना ही रहता था | दूसरे तब घरके बाहर इतना प्रदूषण नहीं रहता था , इस कारण बार -बार बाहर जा कर हम दीयों में तेल भरते रहते थे , और दिए जलते रहते थे | अब थोड़ी शाम गहराते ही इतना प्रदूषण हो जाता है कि बार -बार घर के बाहर निकलने का मन नहीं करता | ऐसे में बिजलीकी झालरें सही लगती हैं | तो मुख्य मुद्दा ये हैं कि हमें कुम्हारों को दिए के स्थान पर कुछ ऐसा बनाने के लिए प्रेरित करना चाहिए जो साल भर बिके  | दीवाली में दिए बनाये अवश्य पर उनकी संख्या कम करें ताकि भारी नुक्सान ना उठाना पड़े | हमेशा से रहा है नए और पुराने के मध्य संघर्ष  अगर आप ध्यान देंगे तो ये समस्या केवल कुम्हारों के साथ नहीं है जब भी कोई नयी उन्नत टेक्नोलोजी की चीज आती है तो पुरानी व् नयी में संघर्ष होता ही है | ऐसी ही एक फिल्म थी नया दौर जिसमें टैक्सी और तांगे  के बीच में संघर्ष हुआ था | फिल्म में दिलीप कुमार तांगे वाला बना था और उसकी जीत दिखाई गयी थी | जो उस समय के लोंगों को वाकई बहुत अच्छी लगी थी , परन्तु हम सब जानते हैं कि तांगे बंद हुए और ऑटो , टैक्सी आदि चलीं |  यही हाल मेट्रो  आने पर ऑटो के कम इस्तेमाल से होने लगा | जहाँ मेट्रो जाती है लोग ऑटो के स्थान पर उसे वरीयता देते हैं , क्योंकि किराया कम है व् सुविधा ज्यादा है | फोन आने पर तार बंद हुआ | मोबाइल आने पर पी .सी .ओ बंद हुए | मुझे याद है राँची  में जब हमारे यहाँ लैंडलाइन फोन नहीं था तब हम घर केवल ये बताने के लिए हम ठीक हैं १५ मिनट पैदल चल कर पी सी ओ जाते थे , फिर लम्बी -लम्बी लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार करते थे | जिन लोगों ने पीसी ओ बूथ लगाए उन सब की दुकाने बंद हुई | मेरा पहला नोकिया फोन जो उस समय मुझे अपनी जरूरत से कहीं ज्यादा लगता था कि तुलना में आज के महंगे स्मार्ट फोन में भी मैं कुछ कमियाँ ढूंढ लेती हूँ | सीखने होंगे  व्यापर के नियम  कहने का तात्पर्य ये है कि जब भी कोई व्यक्ति कुछ बेंच रहा है …. तो उसे व्यापर में होने वाले बदलाव पर ध्यान रखना होगा  और उसी के अनुसार निर्णय लेना होगा | ये नियम हर व्यापारी पर लागू होता है चाहें वो सब्जी बेचनें वाला हो , दिए बेंचने वाला हो या अम्बानी जैसा बड़ा व्यापारी हो | व्यापर बदलते समय की नब्ज को पकड़ने का काम है , अन्यथा नुक्सान तय है | जैसा कि कई लोग उस व्यापर में पैसा लगते हैं जो कुछ समय बाद  खत्म होने वाला होता है , ऐसे में लाभ की उम्मीद कैसे कर सकते हैं | समय को समझना हम सब का काम है , क्योंकि वो हमारे लिए इंतज़ार नहीं करेगा | अगर आप नौकरी में भी हैं तो आने वाले समय में कुछ नौकरियां भी खतरे में है …. 1) ड्राइवर — टेस्ला इलेक्ट्रिक से चलने वाली कारें बाज़ार में उतार चुका है | जैसे -जैसे ये टेक्नोलोजी सस्ती होगी प्रचुर मात्र में अपनाई जायेगी | ऑटो , टैक्सी ड्राइवर की नौकरीयाँ तेजी से घटेंगी | 2)बैक जॉब्स – जैसे -जैसे ऑनलाइन बैंकिंग ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल होने लगी है जिस कारण लोगों का बैंक जाना कम हो रहा है | अत : भविष्य में बैंक क्लर्क के जॉब घटेंगे | 3)प्रिंटिंग प्रेस – आज भले ही हम अपनी किताब छपवाने की चाहते रखते हो पर भविष्य में बुक की जगह इ बुक लेंगीं क्योंकि छोटे होते घरों में इतनी किताबें रखने की जगह नहीं होगी | अभी ही मुझ जैसे पुस्तक प्रेमियों को ये सोचना पड़ता है कि जितनी किताबें मैं खरीदती हूँ उन्हें किसी पुस्तकालय को दे दूँ | दूसरी बात ये भी है जब पुस्तकें फोन पर होंगीं तो आप यात्रा में बिना भार बढाए ले जा सकते हैं | तीसरे किताबें कम छपने से पेपर की बचत होगी … हालांकि एक प्लास्टिक पेपर पर … Read more

मंगतलाल की दिवाली

हम सब वायु , ध्वनि , जल और मिटटी के प्रदूष्ण के बारे में पढ़ते हैं … पर एक और प्रदुषण है जो खतरनाक स्तर तक बढ़ा है , इसे भी हमने ही खतरनाक स्तर तक बढाया है पर हम ही इससे अनभिज्ञ हैं … कैसे ? आइये समझें मंगत्लाल की दिवाली से काव्य कथा -मंगतलाल की दिवाली  देखते ही पहचान लिया उसे मैंने आज के अखबार में दिखाने को दिल्ली का प्रदूष्ण जो  बड़ी-बड़ी लाल –लाल आँखों वाले का छपा है ना फोटू वो तो मंगत लाल है अरे , हमारे इलाके ही में सब्जियां बेंचता है मंगत लाल दो पैसे की आस -खींच लायी है उसको परदेश में सब्जी के मुनाफे में खाता रहा है आधा पेट बाकी जोड़ -जोड़ कर भेज देता है अपने देश उसी से भरता है पेट परिवार का , जुड़ते हैं बेटी की शादी के पैसे और निपटती है ,हारी -बिमारी , तीज -त्यौहार और मेहमान कई बरस से गया नहीं है अपने गाँव , पूछने पर खीसें निपोर कर देता है उत्तर का करें ? जितना किराया -भाडा में खर्च करेंगे उतने में बन जायेगी , टूटी छत या हो जायेगी घर की पुताई या जुड़ जाएगा बिटिया के ब्याह के लिए आखिर सयानी हो रही होगी चार बरस हो गए देखे हुए , मंगतलाल बेचैन दिखा  इस दीवाली पर गाँव जाने को तपेदिक हो गया अम्मा को मुश्किल है  बचना हसरत है बस देख आये एक बार इसीलिए उसने दीवाली से कुछ रोज पहले भाजी छोड़ लगा लिया दिये का ठेला सीजन की चीज बिक ही जायेगी , मुनाफे से जुड़ जाएगा किराए का पैसा और जा पायेगा अपने गाँव  मैंने, हाँ मैंने  देखा था मंगत को ठेला लगाये हुए मैं जानती थी कि उसकी हसरत फिर भी अपनी  बालकनी में बिजली की झालर लगाते हुए मेरे पास था , अकाट्य तर्क एक मेरे ले लेने से भी क्या हो जाएगा , बाकि तो लगायेगे झालर शायद यही सोचा पड़ोस के दुआ जी ने , वर्मा जी ने और सब लोगों ने सबने वही किया जो सब करते हैं , सज गयीं बिजली की झालरे घर -घर , द्वार -द्वार  और बिना बिके  खड़ा रह गया दीपों का ठेला       अखबार में अपनी फोटू से बेखबर आज मंगतलाल  फिर बेंच रहा है साग –भाजी आंखे अभी भी है लाल पूछने पर बताता है भारी  नुक्सान हो गया बीबीजी , बिके नहीं दिए, नहीं जुड़ पाया किराए-भाड़े का पैसा   और कल रात अम्मा भी नहीं रहीं , कह कर ठेला ले कर आगे बढ़ गया मंगत लाल शोक मनाने का समय नहीं है उसके पास उसके चलने से चल रहीं हैं कई जिंदगियाँ  यहाँ से बहुत दूर , उसके गाँव में    मैं वहीं सब्जी का थैला पकडे जड़ हूँ ओह मंगत लाल ….तुम्हारी दोषी हूँ मैं , दुआ जी , शर्मा जी और वो सब जिन्होंने सोचा एक हमारे खरीद लेने से क्या होगा और झूठा है ये अखबार भी जो कह रहा है दिल्ली के वायु प्रदूषण  से लाल हैं तुम्हारी आँखें  हां ये आँखे प्रदूषण  से तो लाल हैं पर ये प्रदूषण सिर्फ हवा का तो नहीं ….   वंदना बाजपेयी      बैसाखियाँ   एक गुस्सैल आदमी   सबंध      रंडी एक वीभत्स भयावाह यथार्थ     आपको    “  मंगतलाल की दीवाली “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |   filed under: , poetry, hindi poetry, kavita, diwali, deepawali

वो कन्नौज की यादगार दीपावली

यूँ तो हर बार दिवाली बहुत खास होती है पर उनमें से कुछ होती हैं जो स्मृतियों के आँगन में किसी खूबसूरत रंगोली की तरह ऐसे सज जाती हैं कि हर दीवाली पर मन एक बार जाकर उन्हें निहार ही लेता है | ऐसी ही दीवालियों में एक थी मेरे बचपन में मनाई गयी कन्नौज की दीपावली | वो कन्नौज की यादगार  दीपावली कन्नौज यूँ तो कानपुर के पास बसा एक छोटा शहर है पर इतिहास में दर्ज है कि वो कभी सत्ता का प्रतीक रहा था | राजा हर्षवर्धन के जमाने में कन्नौज की बहुत शान हुआ करती थी | शायद उस समय लडकियां चाहती थी कि हमारी शादी कन्नौज में ही हो , तभी तो, “कन्नौज –कन्नौज मत करो बिटिया कन्नौज है बड़े मोल “जैसे लोक गीत प्रचलित हुए , जो आज भी विवाह में ढोलक की थाप पर खूब गाये जाते हैं | खैर हमारी दोनों बुआयें  इस मामले में भाग्यशाली रहीं कि वो कन्नौज ही बयाही गयीं | तो अब स्मृति एक्सप्रेस को दौडाते हुए  आते हैं कन्नौज की दीवाली पर … बात तब की है जब मैं कक्षा पाँच में पढ़ती थी | दीपावली पर हमारी बड़ी बुआ , जो की लखनऊ में रहती थीं अपने परिवार के साथ कन्नौज अपने पैतृक घर में दीपावली मनाने जाती थी | उस बार वो जाते समय हमारे घर कुछ दिन के लिए ठहरीं, आगे कन्नौज जाने का विचार था |बड़ी बुआ की बेटियाँ मेरी व् मेरी दीदी की हम उम्र थीं | हम लोगों में बहुत बनती थीं | हम लोग साथ –साथ खेलते , खाते –पीते और लड़ते थे |वो दोनों अक्सर कन्नौज की दीवाली की तारीफ़ किया करती थीं | जैसी दीवाली वहां मनती है कहीं नहीं मनती |फिर वो दोनों जिद करने लगीं कि हम भी वहां चल कर वैसी ही दीपावली मनाएं | हमारा बाल मन जाने को उत्सुक हो गया परन्तु हमें माँ को छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा था | इससे पहले हम बिना माँ के कभी रहे ही नहीं थे , पर बुआ ने लाड –दुलार से हमें राजी कर ही लिया | जैसे ही हमारी कार घर से थोडा आगे बढ़ी मैंने रोना शुरू कर दिया , मम्मी छूटी जा रहीं हैं | दीदी ने समझाया , बुआ ने समझाया फिर जा कर मन शांत हुआ | उस दिन मुझे पहली बार लगा कि लडकियाँ  विदाई में रोती क्यों हैं | खैर हँसते -रोते हम कन्नौज पहुचे | बुआ की बेटी ने बड़े शान से बताया ,” यहाँ तो मेरे बाबा का नाम भी किसी रिक्शेवाले के सामने ले दोगी   तो वो सीधे मेरे घर छोड़ कर आएगा , इतने फेमस हैं हम लोग यहाँ “| मन में सुखद  आश्चर्य हुआ ,ये तो पता था की बुआ बहुत अमीर हैं पर उस समय  लगा किसी राजा के राजमहल में जा रहे हैं, जहाँ दरवाजे पर संतरी खड़े होंगें जो पिपहरी बजा रहे होंगे और फूलों से लदे हाथी हमारे ऊपर पुष्प वर्षा करेंगे | बाल मन की सुखद कल्पना के विपरीत , वहां संतरी तो नहीं पर कारखाने के कई कर्मचारी जरूर खड़े  थे | तभी दादी ( बुआ की सासु माँ )लाठी टेकती आयीं |  दादी ने हम लोगों का बहुत स्वागत व दुलार किया  और हम लोग खेल में मगन हो गए |  क्योंकि मेरी बुआ काफी सम्पन्न परिवार की थीं | उनका इत्र  का कारोबार था | वहां का इत्र  देश के कोने -कोने में जाता था | इसलिए वहाँ की दीपावली हमारे घर की दीपावली से भिन्न थी | पकवान बनाने के लिए कई महराजिन लगीं  हुई थी , बुआ बस इंतजाम देख रहीं थीं | जबकि मैंने अपने घर में यही देखा था कि दीवाली हो या होली, माँ अल सुबह उठ कर जो रसोई में घुसतीं तो देर  शाम तक निकलती ही नहीं थीं | माँ की रसोई में भगवान् का भोग लगाए जाने से पहले हम बच्चे भोग लगा ही देते … और बीच -बीच में जा कर भोग लगाते ही रहते | माँ प्यार में डपट लगा तीं पर वो जानतीं थीं कि बच्चे मानेंगे नहीं , इसलिए भगवान् के नाम पर हर पकवान के पहले पांच पीस निकाल कर अलग रख देंती थी ,ताकि बच्चों को भगवान् से पहले खाने के लिए ज्यादा टोंकना  ना पड़े | परन्तु यहाँ पर स्थिति दूसरी थी | दादी , बुआ दादी और महाराजिनों की उपस्थिति  हम में संकोच भर रही थी, लिहाज़ा हम ने तय कर लिया चलो इस बार भगवान् को पहले खाने देते हैं |  त्यौहार के दिन पूरा घर बिजली  जगमग रोशिनी से नहा गया | आज तो लगभग हर घर में इतनी ही झालरे लगती हैं पर तब वो जमाना किफायत का था | आम लोग हलकी सी झालर लगाते थे, ज्यादातर घरों में दिए ही जलते थे | इतनी लाईट देखकर मैंने सोचा ,” क्या यहाँ लाईट नहीं जाती है |” बाद में पता चला की लाईट तो जाती है पर जनरेटर वो सारा बोझ उठा लेता है | दीपावली वाले दिन हम सब को एक बड़ी डलिया  भर के पटाखे जलाने को मिले | बुआ की बेटी ने कहा, ” इतने पटाखे कभी देखे भी हैं ? ” मैंने डलिया में देखा ,वास्तव में हमारे घर में कुल मिला कर इससे कम पटाखे ही आते थे | एक कारण ये भी था कि मैं और दीदी पटाखे छुडाते नहीं थे , बस भाई लोग थोड़े शगुन के छुड़ाते थे , बहुत शौक उन्हें भी नहीं था | पिताजी हमेशा समझाया करते थे कि ये धन का अपव्यय है और हम सब बिना तर्क  दिए मान लेते | खैर , मैंने  उससे कहा , “मैं पटाखे छुड़ाती ही नहीं |” उसने कहा  इस बार छुडाना फिर देखना अभी तक की सारी दीवाली भूल जाओगी | शाम को हम सब पटाखे ले कर घर के बाहर पहुंचे | उस बार पहली बार मैंने पटाखे छुडाये | या यूँ कहे पहली बार पटाखे छुडाना सीखा | थोड़ी देर डरते हुए पटाखे छुड़ाने के बाद मैं इस कला में पारंगत हो गयी | हाथ में सीको बम लेकर आग लगा कर दूर फेंक देती और बम भड़ाम की आवाज़ के … Read more

अदृश्य हमसफ़र -अव्यक्त प्रेम की प्रभावशाली कथा

        “अदृश्य हमसफ़र ” जैसा की नाम से ही प्रतीत होरहा है किये एक ऐसी प्रेम कहानी है जिसमें प्रेम अपने मौन रूप में है | जो हमसफ़र बन के साथ तो चलता है पर दिखाई नहीं देता | ये अव्यक्त प्रेम की एक ऐसी गाथा है जहाँ प्रेम में पूर्ण समर्पण के बाद भी पीड़ा ही पीड़ा है पर अगर ये पीड़ा ही किसी प्रेमी का अभीष्ट हो उसे इस पीड़ा में भी आनंद आता हो … अदृश्य हमसफ़र   यूँ तो प्रेम दुनिया का सबसे  खूबसूरत अहसास है , पर जब यह मौन रूप में होता है तो पीड़ा दायक भी होता है,  खासतौर से तब जब प्रेमी अपने प्रेम का इज़हार तब करें जब उसकी प्रेमिका 54 वर्ष की हो चुकी हो और वो खुद कैंसर से अपने जीवन की आखिरी जंग लड़ रहा हो | वैसे ये कहानी एक प्रेम त्रिकोण है पर इसका मिजाज कुछ अलग हट के है | प्रेम की दुनिया ही अलग होती | प्रेम  में कल्पनाशीलता होती है और इस उपन्यास में भी उसी का सहारा लिया गया है |  कहानी  मुख्य रूप से तीन पात्रों के इर्द -गिर्द घूमती है … अनुराग , ममता और देविका | अनुराग -चाँद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर   जहाँ अनुराग  एक प्रतिभाशाली ब्राह्मण बच्चा है जिसे छुटपन में ही ममता के पिता गाँव से अपने घर ले आते हैं ताकि उसकी पढ़ाई में बाधा न आये | अनुराग स्वाभिमानी है वह इसके बदले में घर के बच्चों को पढ़ा देता है व् घर के काम दौड़ -दौड़ कर कर देता है | धीरे -धीरे अनुराग सबका लाडला हो जाता है | घर की लाडली बिटिया ममता को यूँ अपना सिंघासन डोलता अच्छा नहीं लगता औ वह तरह -तरह की शरारतें कर के अनुराग का नाम लगा देती है ताकि बाबा उसे खुद ही वापस गाँव भेज दें | ये पढ़ते हुए मुझे ” गीत गाता चल “फिल्म के लड़ते -झगड़ते सचिन सारिका याद आ रहे थे , पर उनकी तरह दोनों आपस में प्यार नहीं कर बैठते | यहाँ केवल एकतरफा प्यार है -अनुराग का ममता के प्रति |अनुराग ममता के प्रति पूर्णतया समर्पित है | ये उसके प्रेम की ही पराकाष्ठा  है कि ममता के प्रति इतना प्रेम होते हुए भी वो बाबा से ममता का हाथ नहीं माँगता ताकि ममता के नाम पर कोई कीचड़ न उछाले | ममता के मनोहर जी से विवाह के बाद वो उससे कभी का फैसला करता है , फिर भी  वो अदृश्य हमसफ़र की तरह हर पल ममता के साथ है उसके हर सुख में , हर दुःख में | ममता -दिल -विल प्यार -व्यार मैं क्या जानू रे  ममता अनुराग के प्रेम को समझ ही नहीं पाती वो बस इतना जानती है कि अनुराग उसके पलक झपकाने से पहले ही उसके हर काम को कर देता  है | ममता अनुराग को अनुराग दा कह कर संबोधित करती है , पर रिश्ते की उलझन को वो समझ नहीं पाती कि क्यों उसे हर पल अनुराग का इंतज़ार रहता है , क्यों उसकी आँखें हमेशा अनुराग दा को खोजती है , क्यों उसके बार -बार झगड़ने में भी एक अपनापन है | वो मनोहर जी की समर्पित पत्नी है , दो बच्चों की माँ है , दादी है , अपना व्यवसाय चलाती है पर अनुराग के प्रति  अपने प्रेम को समझ नहीं पाती है | शायद वो कभी भी ना समझ पाती अगर 54 साल की उम्र में देविका उसे ना  बताती | तब अचानक से वो एक चंचल अल्हड किशोरी से गंभीर प्रौढ़ा बन जाती है जो स्थितियों को संभालती है | देविका -तुम्ही मेरे मंदिर …..तुम्ही देवता हो            अनुराग की पत्नी देविका एक ऐसी  पत्नी है जिसको समझना आसान नहीं है | ये जानते हुए भी कि अनुराग ममता के प्रति पूर्णतया समर्पित है उसके मन में जो भी प्रेम है वो सिर्फ और सिर्फ ममता के लिए है देविका उसकी पूजा करती है उसे हर हाल में अपने पति का साथ ही देना है | वो ना तो इस बात के लिए अपने पति से कभी झगडती है कि जब ममता ही आपके मन में थी तो आपने मुझसे विवाह क्यों किया ? या पत्नी को सिर्फ पति का साथ रहना ही नहीं उसका मन भी चाहिए होता है | उसे तो ममता से भी कोई जलन नहीं | शिकायत नहीं है ये तो समझ आता है पर जलन नहीं है ये समझना मुश्किल है | देविका वस्तुत : एक लार्जर दे न  लाइफ ” करेक्टर है , जैसा सच में मिलना मुश्किल है | अदृश्य हमसफ़र की खासियत                        ये अलग हट के प्रेम त्रिकोण इसलिए है , क्योंकि इसमें ममता प्रेम और उसके दर्द से बिल्कुल् भी  प्रभावित नहीं है | हाँ अनुराग दा के लिए उसके पास प्रश्न हैं जो उसके मन में गहरा घाव करे हुए हैं , उसे इंतज़ार है उस समय का जब अनुराग दा उसके प्रश्नों का उत्तर दें | परन्तु प्रेम की आंच में अनुराग और देविका जल रहे हैं | ममता के प्रयासों से अन्तत : ये जलन कुछ कम होती है पर अब अनुराग के पास ज्यादा उम्र नहीं है , इसलिए कहानी सुखांत होते हुए भी मन पर दर्द की एक लकीर खींच जाती है और मन पात्रों में उलझता है कि ‘काश ये उलझन पहले ही सुलझ जाती | ‘ कहानी में जिस तरह से पात्रों को उठाया है वो बहुत  प्रभावशाली है | किसी भी नए लेखक के लिए किसी भी पात्र को भले ही वो काल्पनिक क्यों न हो विकसित करना कि उसका पूरा अक्स पाठक के सामने प्रस्तुत हो आसान नहीं है , विनय जी ने इसमें कोई चूक नहीं की है | कहानी  में जहाँ -जहाँ दृश्यों को जोड़ा गया है वहाँ इतनी तरलता है कि पाठक को वो दृश्य जुड़े हुए नहीं लगते और वो आसानी से तादाम्य बना लेता है | जैसी कि साहित्य का उद्देश्य होता है कि उसके माध्यम से कोई सार्थक सन्देश मिले | इस कहानी में भी कई कुरितियों  पर प्रहार … Read more

करवाचौथ -पति -पत्नी के बीच प्रेम की अभिव्यक्ति का विरोध क्यों ?

करवाचौथ आने वाला है , उसके आने की आहट के साथ ही व्हाट्स एप पर चुटकुलों की भरमार हो गयी है | अधिकतर चुटकुले उसे व्यक्ति , त्यौहार या वस्तु पर बनते हैं जो लोकप्रिय होता है | करवाचौथ आज बहुत लोकप्रिय है इसमें कोई शक नहीं है | यूँ तो भारतीय महिलाएं जितनी भी व्रत रखतीं हैं वो सारे पति और बच्चों के लिए ही होते हैं , जो मन्नत वाले व्रत होते हैं वो भी पति और बच्चों के लिए ही होते हैं | फिर भी खास तौर से सुहाग के लिए रखे जाने वाले व्रतों में तीज व् करवाचौथ का व्रत है | दोनों ही व्रत कठिन माने जाते रहे हैं क्योकि ये निर्जल रखे जाते हैं | दोनों ही व्रतों में पूजा करते समय महिलाएं नए कपडे , जेवर आदि के साथ पूरी तरह श्रृंगार करती हैं … सुहाग के व्रतों में सिंदूर , बिंदी , टीका , मेहँदी , महावर आदि का विशेष महत्व होता है , मान्यता है कि विवाह के बाद स्त्री को करने को मिलता है इसलिए सुहाग के व्रतों में इसका महत्व है | दोनों ही व्रतों में महिलायों की पूरी शाम रसोई में पूजा के लिए बनाये जाने वाले पकवान बनाने में बीतती रही है | जहाँ तक मुझे याद है … करवाचौथ में तो नए कपड़े पहनने का भी विधान नहीं रहा है , हां कपडे साफ़ हों इतना ध्यान रखा जाता था | करवाचौथ का आधुनिक करवाचौथ के रूप में अवतार फिल्मों के कारण हुआ | जब सलमान खान और ऐश्वर्या राय ने बड़े ही रोमांटिक तरीके से ” चाँद छुपा बादल में ” के साथ इसे मनाया तो युवा पीढ़ी की इस पर नज़र गयी | उसने इसमें रोमांस के तत्व ढूंढ लिए और देखते ही देखते करवाचौथ बेहद लोकप्रिय हो गया | पहले की महिलाओं के लिए जहाँ दिन भर प्यास संभालना मुश्किल था आज पति -पत्नी दोनों इसे उत्साह से कर रहे हैं | कारण साफ है ये प्रेम की अभिव्यक्ति का एक सुनहरा अवसर बन गया | लोकप्रिय होते ही बुजुर्गों ( यहाँ उम्र से कोई लेना देना नहीं है ) की त्योरियां चढ़ गयी | पति -पत्नी के बीच प्यार ये कैसे संभव है ? और विरोध शुरू हो गया | करवाचौथी औरतों को निशाने पर लिया जाने लगा , उनका व्रत एक प्रेम का नाटक नज़र आने लगा | तरह तरह के चुटकुले बनने लगे |आज जो महिलाएं ४० वर्ष से ऊपर की हैं और वर्षों से इस व्रत को कर रहीं हैं उनका आहत होना स्वाभाविक है , वो इसके विषय में तर्क देती हैं | इन विरोधों और पक्ष के तर्कों से परे युवा पीढ़ी इसे पूरे जोश -खरोश के साथ मना रही है | दरअसल युवा पीढ़ी हमारे भारतीय सामाज के उस पूर्वाग्रहों से दूर है जहाँ दाम्पत्य व् प्रेम दोनो को अलग -अलग माना जाता रहा है | ये सच है कि माता -पिता ही अपने बच्चों की शादी जोर -शोर से करते हैं फिर उन्हें ही बहु के साथ अपने बेटे के ज्यादा देर रहने पर आपत्ति होने लगती है | बहुत ही जल्दी ‘श्रवण पूत’ को ‘जोरू के गुलाम’ की उपाधि मिल जाती है | मेरी बड़ी बुआ किस्सा सुनाया करती थी कि विवाह के दो -चार महीने बाद उन्होंने फूफाजी के मांगने पर अपने हाथ से पानी दे दिया था तो घर की औरतें बातें -बनाने लगीं , ” देखो , कैसे है अपने पति को अपने हाथ से पानी दे दिया | ” उस समाज में ये स्वीकार नहीं था कि पत्नी अपने पति को सबके सामने अपने हाथ से पानी दे , अलबत्ता आधी रात को पति के कमरे में जाने और उजेला होने से पहले लौटने की स्वतंत्रता उसे थी | ऐसा ही एक किस्सा श्रीमती मिश्रा सुनाती हैं | वो बताती हैं कि जब वो छोटी थीं तो उनकी एक रिश्तेदार ( रिश्ते के दादी -बाबा) पति -पत्नी आये जिनकी उम्र ७० वर्ष से ऊपर थी | पहले जब भी वो आते तो दादी उसके कमरे में व् बाबा बैठक में सोते थे | उस बार उसकी वार्षिक परीक्षा थीं , उसे देर रात तक पढना था तो दादी का बिस्तर भी बैठक में लगा दिया | दादी जैसे ही बैठक में सोने गयीं उलटे पाँव वापस आ कर बोली , ” अरे बिटिया ये का करा , उनके संग थोड़ी न सोइए |” उसने दादी की शंका का समाधान करते हुए कहा , ” दादी कमरा वही है पर बेड अलग हैं , यहाँ लाइट जलेगी , मुझे पढना है |” दादी किसी नयी नवेली दुल्हन की तरह लजाते हुए बोली , ना रे ना बिटिया , तुम्हरे बाबा के साथ ना सोइए , हमका तो लाज आवत है , तुम लाइट जलाय के पढो , हम का का है , मुँह को तनिक पल्ला डारि के सो जैहेये |” श्रीमती मिश्रा आज भी जब ये किस्सा सुनाती हैं तो उनका हँसते बुरा हाल हो जाता है , वह साथ में बताना नहीं भूलती कि दादी बाबा की ९ संताने हैं फिर भी वोप्रेम को सहजता से स्वीकार नहीं करते और ऐसे नाटकीय दिखावे करते हैं | कारण स्पष्ट है उस समय पति -पत्नी का रिश्ता कर्तव्य का रिश्ता माना जाता था , उनके बीच प्रेम भी होता है इसे सहजता से स्वीकार नहीं किया जाता था | औरते घर के काम करें , व्रत उपवास करें … पर प्रेम चाहे वो पति से ही क्यों न हो उसकी अभिव्यक्ति वर्जित थी | यही वो दौर था जब साहब बीबी और गुलाम टाइप की फिल्में बनती थीं … जहाँ घरवाली के होते भी बाहर वाली का आकर्षण बना रहता था | पत्नी और प्रेमिका में स्पष्ट विभाजन था | आज पत्नी और प्रेमिका की विभाजक रेखा ध्वस्त हो गयी है | इसका कारण जीवन शैली में बदलाव भी है | आज तेजी से भागती -दौड़ती जिन्दगी में पति पत्नी के पास एक दूसरे को देने का पर्याप्त वक्त नहीं होता , वही इन्टरनेट ने उनके पास एक दूसरे को धोखा देने का साधन भी बस एक क्लिक दूर कर दिया है | ऐसे में युवा पीढ़ी प्रेम के इज़हार … Read more