मूल्य

रद्दी वाले ने रख दिए मेरे हाथ में 150 रुपये  और पीछा करती रहीं मेरी भरी हुई आँखें  और निष्प्राण सी देह  उस रद्दी वाले का   वो बोरा  ले जाते हुए  जब तक आँखों से ओझल नहीं हो गया  इस बार की रद्दी मामूली नहीं थी पुराने अखबारों की बासी ख़बरों की तरह  इस बार की रद्दी में किलो के भाव में बिक गया था मेरा स्वाभिमान  जिसे विवाह में अपने साथ लायी थी  इस रद्दी में कैद थी मेरी अनगिनत  जागी हुई राते  जो गवाह थी मेरे अथक परिश्रम का  वो सहेलियों के बीच एक एक -एक नंबर से आगे बढ़ने की होड़  वो टैक्सोनामी की किताबे  जिसके पीले पड़े पन्नों में छोटे बड़े कितने चित्रों को बना कर  पढ़ा था वर्गीकरण का इतिहास  वो जेनेटिक्स की किताबें  जो बदलना चाहती थीं आने वाली पीढ़ियों का भविष्य  वो फोसिल्स की किताबे जाते -जाते कह गयीं कि  कि कुछ चीजों के अवशेष भी नहीं बचते  इन्हीं हाँ इन्हीं किताबों में कैद था मेरा इंतज़ार  कि बदल जाएगा कभी ना कभी वो वाक्य  जो प्रथम मिलन पर तुमने कहा था  हमारे घर की औरतें  बाहर जा कर काम नहीं करतीं मर्दों की दुनिया में  मैं नहीं तोड़ सकता तुम्हारे लिए परम्पराएं  हमारे घर की औरतों की  जो रसोई के धुएं में  सुलगती रहतीं हैं धुँआ हो जाने तक  कुंदन से पवित्र घर ऐसे ही तो बनते हैं उसी दिन …. हां उसी दिन से शुरू हो गयी थी  मेरी आग में ताप कर कुंदन बन जाने की प्रक्रिया  इतिहास गवाह है भरी हुई आँखों व्   हल्दी और नमक और आटे  से सने हाथों को अपने आंचल से पोछते हुए  ना जाने कितनी बार दौड़ कर देख आती थी  अपनी किताबों को  सुरक्षित तो हैं ना  हर साल दीवाली की सफाई में झाड -पोछ कर फिर से अलमारी में सजा देती अपने इंतज़ार को  शायद इस इंतज़ार की नमीं ही  मुझे रोकती रही  रसोई के धुएं में धुँआ हो जाने से पहले वो अक्सर सपनों में आती थीं अपने दर्द की शिकायतें  कहने नहीं लायीं थी तुम इन्हें सेल्फ में बंद करने को तुम्हें संवारना था बच्चों का भविष्य फिर क्यों कर रही हो हमारी बेकद्री फिर धीरी -धीरे वो भी मौन हों गयीं क्योंकि उन्होंने सुन लिए थे तुम्हारे ताने चार किताबें पढ़ कर मत समझो अपने को अफलातून आज भी तुम्हारी जगह रसोई में है चूल्हे से देहरी तक वहाँ  ही मनाओं  आज़ादी का जश्न और मैं कैद में मनाती  रही नाप -तौलकर दी गयी आज़ादी का जश्न मेरे साथ तुमने भी तो भोगा है परतंत्रता का दंश अपराधी हूँ मैं तुम्हारी इसीलिये देह की कारा  छोड़ने से पहले कर दी तुम्हारी भी मुक्ति ये १५० रुपये गवाह है कि कुछ तो समझीं कबाड़ी वाले ने मेरे ज्ञान की कीमत पर तुमने …. वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … मैं माँ की गुडिया ,दादी की परी नहीं … बस एक खबर थी कच्ची नींद का ख्वाबकिताबें कतरा कतरा पिघल रहा है आपको ”  मूल्य   “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- poem in Hindi, Hindi poetry, women, cost

#Metoo से डरें नहीं साथ दें

#Metoo के रूप में समय अंगडाई ले रहा है | किसी को ना बताना , चुप रहना , आँसू पी लेना इसी में तुम्हारी और परिवार की इज्ज़त है | इज्ज़त की परिभाषा के पीछे औरतों के कितने आँसूं  कितने दर्द छिपे हैं इसे औरतें ही जानती हैं | आजिज़ आ गयी हैं वो दूसरों के गुनाहों की सजा झेलते -झेलते ,इसी लिए उन्होंने तय कर लिया है कि दूसरों के गुनाहों की सजा वो खुद को नहीं देंगी | कम से कम इसका नाम उजागर करके उन्हें मानसिक सुकून तो मिलेगा |  #Metoo से डरें नहीं साथ दें  #Metoo के बारे में उसे नहीं पता हैं , उसे नहीं पता है कि इस बारे में सोशल मीडिया पर कोई अभियान चलाया जा रहा है , उसे ये भी नहीं पता है कि स्त्रियों के कुछ अधिकार भी होते हैं , फिर भी उसके पास एक दर्द भरा किस्सा है कि आज घरों में सफाई -बर्तन करने आते हुए एक लड़के ने साइकिल से आते हुए तेजी से उसकी छाती को दबा दिया , एक मानसिक और शारीरिक पीड़ा से वो भर उठी | वो जानती है ऐसा पहली बार नहीं हुआ है तब उसने रास्ता बदल लिया था , उसके पास यही समाधान है कि अब फिर वो रास्ता बदल लें | उसे ये भी नहीं पता वो कितनी बार रास्ता बदलेगी?वो जानती है वो काम पर नहीं जायेगी तो चूल्हा कैसे जलेगा , वो जानती है कि माँ को बाताएगी तो वो उसी पर इलज़ाम लगा देंगीं … काम पर फिर भी आना पड़ेगा | उसके पास अपनी सफाई का और इस घटना का कोई सबूत नहीं है … वो आँखों में आँसूं भर कर जब बताती है तो बस उसकी इतनी ही इच्छा होती है कि कोई उसे सुन ले |  लेकिन बहुत सी महिलाएं घर के अंदर, घर के बाहर सालों -साल इससे कहीं ज्यादा दर्द से गुजरीं हैं पर वो उस समय साहस नहीं कर पायीं , मामला नौकरी का था , परिवार का था रिश्तों का था , उस समय समाज की सोच और संकीर्ण थी , चुप रह गयीं , दर्द सह गयीं | आज हिम्मत कर रहीं हैं तो उन्हें सुनिए , भले ही आज सेलेब्रिटीज ही हिम्मत कर रहीं हैं पर सोचिये जिनके पास पैसा , पावर , पोजीशन सब कुछ था , मंच था वो सालों -साल सहती रहीं तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आम महिला कितना कुछ सहती रही होगी | आज ये हिम्मत कर रहीं हैं तो उम्मीद की जा सकती है शायद कल को वो भी बोले … कल को एक आम बहु बोले अपने ससुर के खिलाफ, एक बेटी बोले अपने पिता या भाई के खिलाफ …. समाज में ऐसा बहुत सा कलुष है जिसे हम कहानियों में पढ़ते हैं पर वो कहानियाँ जिन्दा पात्रों की ही होती हैं ना | इस डर से कि कुछ मुट्ठी भर किस्से ऐसे भी होंगे जहाँ झूठे आरोप होंगे हम 98 % लोगों को अपनी पीड़ा के साथ तिल -तिल मरते तो नहीं देखना चाहेंगे ना | कितने क़ानून हैं , जिनका दुरप्रयोग हो रहा है , हम उसके खिलाफ आवाज़ उठा सकते हैं पर हम कानून विहीन निरंकुश समाज तो नहीं चाहते हैं | क्या पता कल को जब नाम जाहिर होने का भय व्याप्त हो जाए तो शोषित अपराध करने से पहले एक बार डरे | इसलिए पूरे विश्वास और हमदर्दी के साथ उन्हें सुनिए ….जो आज अपने दर्द को कहने की हिम्मत कर पा रहे हैं वो भले ही स्त्री हो , पुरुष हों , ट्रांस जेंडर हो या फिर एलियन ही क्यों न हो उन्हें अपने दर्द को कहने की हिम्मत दीजिये | एक पीड़ा मुक्त बेहतर समाज की सम्भावना के लिए हम इतना तो कर ही सकते हैं … हैं ना ? वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … #Metoo -सोशल मीडिया पर दिशा से भटकता अभियान  हमारे व्यक्तिव को गढ़ने के लिए हर मोड़ पर मिलते हैं शिक्षक दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं आपको ” #Metoo से डरें नहीं साथ दें  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-hindi article, women issues, #Metoo

#metoo -सोशल मीडिया पर दिशा से भटकता अभियान

सबसे पहले तो आप सब से एक प्रार्थना जो भी अपना दर्द कह रहा है चाहे वो स्त्री हो , पुरुष हो , ट्रांस जेंडर हो या फिर एलियन ही क्यों ना हो उसे कहना का मौका दें , क्योंकि यौन शोषण एक ऐसा मुद्दा है जिस के ऊपर बोलने से पहले शोषित को बहुत हिम्मत जुटानी होती है | अब जरा इस तरफ देखिये ….. #metoo आज से सालों पहले मेरी सास ननद ने मुझे दहेज़ का ताना दिया था | स्कूल में मेरी सहेलियों ने मुझे धोखा दिया वो कहती थीं कि वो पढना नहीं चाहती ताकि मैं न पढूँ और वो चुपके से पढ़ लें और मुझसे आगे निकल जाए |जिस दिन मुझे उनकी इस शातिराना चाल का पता चला मैं अंदर से टूट गयीं | मेरी अपनी ही बहने , भाभियाँ , सहेलियां मेरा लम्बा/नाटा , मोटा/पतला, पूरब/पश्चिम , उत्तर/ दक्षिण का होने की वजह से मुझे अपने ग्रुप से अलग करती रहीं और मेरा मजाक बनाती रहीं | ऑफिस में साहित्य-जगत में महिलाओं ने अपने तिकड़मों द्वारा मेरे कैरियर को आगे बढ़ने से रोका | ये सारी बातें हम सब को बहुत तकलीफ देती हैं इसका दर्द मन में जीवन भर रहता है ,ताउम्र एक चुभन सी बनी रहती है | पर माफ़ कीजियेगा ये सारी बातें metoo हैश टैग के अंतर्गत नहीं आती ये प्रतिस्पर्द्धा हो सकती है , जलन हो सकती है , छोटी सोच हो सकती है , ये सारे शोषण स्त्रियों द्वारा स्त्रियों पर करे हो सकते हैं पर ये यौन शोषण नहीं है | क्या सफलता /असफलता का दर्द एक रेप विक्टिम के दर्द बराबर है ? क्या उस ट्रामा के बराबर है जिससे भुक्तभोगी हर साँस के साथ मरती है | तो फिर इस के अंतर्गत ये सारी बातें करके हम एक महिला को दूसरी महिला के विरुद्ध खड़ा करके उस हिम्मत को तोड़ रहे हैं जो महिलाएं अपने ऊपर हुए यौन शोषण के खिलाफ बोलने का दिखा रही हैं | दुर्भाग्य से सोशल मीडिया पर ये हो रहा है | इस बात से कभी इनकार नहीं किया जा सकता कि मानसिक शोषण बहुत पीड़ादायक होता है | ये समाज इस तरह से बना है कि हम किसी को रंग , वजन , लम्बाई , कम बोलने वाला/ ज्यादा बोलने वाला , इस प्रदेश का , आदि मापदंडों पर उसे कमतर महसूस करा कर उसका मानसिक शोषण करते हैं इस तरह का शोषण पुरुष व् महिलाएं दोनों झेलते हैं जो निंदनीय है | ये भी सही है कि महिलाएं भी महिलाओं का शोषण करती हैं | कार्य क्षेत्र में आगे बढ़ने की होड़ में कई बार वो इस हद तक गिर जाती हैं कि दूसरे को पूरी तरह कुचल कर आगे बढ़ जाने में भी गुरेज नहीं करती | जो नौकरी नहीं करती , वहाँ सास-बहु इसका सटीक उदाहरण हैं | ये सब हम सब ने भी झेला है पीड़ा भी बहुत हुई है | जिसके बारे में कभी अपनी बहन को , कभी पति को , कभी किसी दूसरी सहेली को खुल कर बताया भी है | उनके सामने रोये भी हैं | लेकिन #metoo आन्दोलन यौन शोषण के खिलाफ है जिस विषय में महिलाएं (या पुरुष भी) अपनी बहन को नहीं बता पाती , माँ को नहीं बता पाती , सहेली को नहीं बता पातीं अन्दर ही अंदर घुटती हैं क्योंकि इसमें हमारा समाज शोषित को ही दोषी करार दे देता है | आज महिलाएं मुखर हुई हैं और वो किस्से सामने ला रहीं हैं जो उन्होंने खुद से भी छुपा कर रखे थे , जो उन्हें कभी सामान्य नहीं होने देते , एक लिजलिजे घाव को छुपाये वो सारी उम्र चुप्पी साधे रहती हैं | खास बात ये हैं स्त्री ने अपनी शक्ति को पहचाना है | #metoo आन्दोलन के रूप में महिलाएं अपने शोषण के वो किस्से ले कर सामने आ रहीं हैं जिसे वो खुद से भी छुपा कर रखतीं थी | एक शोषित अपने ऊपर हुए यौन शोषण के बारे में बोल नहीं सकती थी क्योंकि पूरा समाज महिलाओं के खिलाफ था , बोलने पर उसे सजा मिलनी थी , उसकी पढाई छुड़ा दी जाती , नौकरी छुडा दी जाती , उसकी जल्दी से जल्दी शादी करा दी जाती | उसके कपड़ों , चाल -चलन बातचीत पर दोष लग जाता था | उसके पास दो ही रास्ते थे या तो वो बाहर जा कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लडती रहे या घर में कैद हो जाये | सजा शोषित को ही मिलनी थी | जैसा की पद्मा लक्ष्मी ने कहा कि जब उन्होंने सात साल की उम्र में एक परिचित का अभद्र व्यवहार अपनी माँ को बताया तो उनकी माँ ने उन्हें एक साल के लिए दादी के पास भारत भेज दिया | फिर उन्होंने माँ से कभी इस बारे में कुछ साझा नहीं किया | आज ये चुप्पी टूट रही है महिलाएं ये सब कहने का साहस जुटा रहीं हैं | कई नाम से और कई गुमनाम हो कर पोस्ट डाल रहीं हैं | वहीँ महिलाओं पर ये प्रश्न लग रहे हैं तब क्यों चुप थीं ? आश्चर्य है की इस प्रश्न को पूछने वाली महिलाएं भी हैं और एक रेप विक्टिम को अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के जज की कुर्सी पर 49 /51 से जीता कर बैठने वाली भी | आखिर क्यों हम एक दूसरे की ताकत नहीं बनना चाहते ? कुछ पुरुष जिनका यौन शोषण हुआ है वो भी सामने आ रहे हैं | दुर्भाग्य से पुरुषों ने उनका साथ नहीं दिया , वो उनका मजाक उड़ाने लगे कि पुरुषों का भी कहीं यौन शोषण होता है | प्रसिद्द कॉमेडी शो ब्रुक्लिन९९ के टेरी ने जब एक हाई प्रोफाइल व्यक्ति पर यौन शोषण का आरोप लगाया था तो उसका यही कहना था कि इस दर्द से गुज़र कर मैंने ये जाना कि महिलाएं , हर जगह कितना झेलती हैं और किस कदर अपने दर्द के साथ चुप रह कर जीती हैं | तभी उन्होंने फैसला लिया कि वो अपना किस्सा सबके सामने लायेंगे ताकि महिलाएं भी हिम्मत करें वो कहने की जिसमें वो शोषित हैं , दोषी नहीं हैं | उन्हें मृत्यु की धमकी मिली पर व् लगातार लिखते … Read more

ब्यूटी विथ ब्रेन – एक जेंडर बायस कॉम्प्लीमेंट

ब्यूटी विथ ब्रेन …. स्त्रियों को दिया जाने वाला एक आम कॉम्प्लीमेंट है जिसे बहुत ख़ास माना जाता है | जिला स्तर की राष्ट्रीय,  अंतर्राष्ट्रीय जितनी भी सौदर्य प्रतियोगिताएं होती हैं उसमें चयन का आधार ब्यूटी विथ ब्रेन होता है | फिर भी ये कॉम्प्लीमेंट आज  बहुत जेंडर बायस  समझा जाने लगा है और स्त्रियाँ स्वयं इसे नकार रहीं है , क्योंकि  ये घोषणा करता है कि औरतों में दो चीजें एक साथ नहीं हो सकती , ये एक “रेयर कॉम्बिनेशन”  है … वे या तो खूबसूरत हो सकती हैं या बुद्धिमान हो सकती हैं | जबकि सुन्दरता का बुद्धिमानी और मूर्खता  कोई संबंद्ध नहीं है | ब्यूटी विथ ब्रेन – एक जेंडर बायस कॉम्प्लीमेंट  जब किसी स्त्री को ये कॉम्प्लीमेंट मिलता है तो इसका मतलब ये भी होता है कि आम औरतें तो मूर्ख  होती हैं , आप खास हो क्योंकि आपके पास दिमाग भी है , और क्योंकि इसमें ब्यूटी पहले आती है , जो समाज द्वारा महिलाओं को देखने के नज़रिए को स्पष्ट करती है …. वो बहुत खूबसूरत है और बुद्धिमान भी है | इस बात के दो अर्थ निकलते हैं …. १ ) ख़ूबसूरती वो पहली चीज है जिस पर मेरा ध्यान गया | 2) ये तो बहुत ही आश्चर्यजनक है कि आपके पास सुन्दरता और बुद्धि दोनों है | जबकि वहीँ कोई पुरुष होगा तो कहा  जाएगा , ” वो बहुत बुद्धिमान है जबकि देखने में भी अच्छा है | क्या पुरुष ये बर्दाश्त कर पायेंगे कि उनके गुणों के ऊपर उनकी सुन्दरता को रखा जाए | ” वाह , कितना हैण्डसम है और जीनियस भी | जानिये पुरुषों का नजरिया  हालाँकि Ed Caruthers जो एक प्रसिद्द physicist हैं इस बात का खंडन करते हैं …. वो कहते हैं कि ये महिला पर निर्भर करता है कि वो अपने को किस तरह से पेश किये जाना पसंद करती है |  ये दोनों चीजे जेनेटिक है | वो उदाहरण देते हैं कि अगर एक लड़की जो जो ६ साल की है दूसरी ६ साल की लड़की के बराबर बुद्धिमान व् सुन्दर है परन्तु आने वाले समय में पहली लड़की अपनी सुदरता पर मेहनत करती है और दूसरी अपने दिमाग पर तो दस साल बाद एक लड़की ज्यादा सुंदर होगी व् दूसरी ज्यादा बुद्धिमान | ये अंतर उनके खुद अपना उस तरीके से विकास करने से आया | जो दोनों तरीके से विकास कर लेती है वो तो रेयर ही होंगीं १७६० में विश्व प्रसिद्द दार्शनिक ब्रुक ने लिखा  था , ” सुन्दरता बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वो मन के ऊपर पहला असर डालती है | बुद्धिमानी भी अगर साथ में हो तो बेहतर है | आश्चर्य है कि १७६० में स्त्रियों को देखने का नजरिया आज भी कायम है | अपनी बात को समझाने के लिए IIT से  इंजीनीयर महेश निगम जी कहते हैं  कि  स्त्रियों का खूबसूरत होना भी रेयर ही है | हमारे आस -पास की स्त्रियों में केवल ५ % स्त्रियाँ ही खूबसूरत होती हैं | अगर आप बुद्धिमान स्त्री हैं तो ये भी ५ % होती हैं …. अगर ये दोनों हैं तो आप वास्तव में रेयर हैं | आंकड़ों में बात करने वाले महेश जी, Ed Caruthers और ब्रुक ये क्यों नहीं बताते कि ये आंकड़े पुरुषों के लिए क्यों नहीं हैं | क्या है युवा लड़कियों का नजरिया                               दिल्ली की नताशा कहती है कि उनके माता -पिता उनके लिए लड़का देख रहे थे | उन्होंने नताशा को इजाज़त दी कि वो लड़के से मिले व् बात करे ताकि वैचारिक समानता का पता चल सके | नताशा जब पहली बार लड़के से मिली तो उसने नताशा की तारीफ़ करते हुए कहा ,” आप दूसरी  लड़कियों से अलग हो क्योंकि आप ” ब्यूटी विथ ब्रेन हो “| घर आ कर नताशा बहुत देर तक इस बारे में सोचती रही फिर उसने उस लड़के से शादी न करने का फैसला लिया | पूछे जाने पर नताशा कहती है कि भले ही वो मेरी तारीफ़ कर रहा हो पर उसका और औरतों को देखने का नजरिया ठीक नहीं है वो आम औरतों को मूर्ख समझता है | ये एक पुरुषवादी मानसिकता है जो आम औरतों को पुरुषों से कमतर आंकती है | शादी के बाद क्या गारंटी है कि वो मुझे भी इसी नज़र से नहीं देखेगा | मुझे  ऐसे जीवनसाथी की जरूरत नहीं है जिसे लैंगिक समानता में विश्वास न हो |                         समाज को बदलने की दिशा में युवा पीढ़ी की ये नयी सोच है | जबकि पुरानी सोच पर मोहर लगाते हुए  मीडिया में ऐसे विज्ञापनों की भरमार है जहाँ औरत की सुन्दरता को पहले रखा गया है | एक उदहारण फेयर एंड लवली का है | जो महिला हर इंटरव्यू में रिजेक्ट हो रही थी उसने फिर एंड लवली लगायी | गोरी होकर सामजिक मान्यताओं की दृष्टि में खूबसूरत हो गयी और वो इंटरव्यू में सेलेक्ट हो गयी | सवाल ये है कि क्या सुन्दर होने से उसके ज्ञान में वृद्धि हो गयी ? वहीँ इसके विपरीत दूसरा उदाहरण जो मैंने निजी जिंदगी  में देखा है ,  एक युवा लड़की जो देखने में बहुत सुंदर थी  उसे व् उसकी सहेलियों को इंटरव्यू देने जाना था |  जब वो पढ़ती तो उसकी सहेलियाँ कहतीं , ” अरे तेरा तो सेलेक्शन हो ही जाएगा …. तुझे तो देखते ही ले लेंगे | बार -बार ये सुन कर वो लड़की दवाब में आ गयी , उसे उसे अपनी सुन्दरता में एक लिजलिजेपन का अहसास हुआ | आत्मविश्वास गड़बड़ाया और वो इंटरव्यू में रीएजेक्ट हो गयी | सच्चाई ये भी है कि अक्सर सुंदर औरतों के गुणों के प्रति समाज का दृष्टिकोण अच्छा नहीं होता | उनके खुद के गुण उनकी सुन्दरता के आगे दब जाते हैं |  इससे पहले भी मैं इम्पोस्टर सिंड्रोम के बारे में लिख चुकी हूँ | जिसमें प्रतिभाशाली सुंदर स्त्रियों को यह भय होता है कि उनको सफलता उनकी सुन्दरता की वजह से मिल रही है, वो एक दिन पकड़ी जायेंगी  | जिस कारण वो दुगुनी -तिगुनी मेहनत करती हैं | सुप्रसिद्ध … Read more

संवेदनाओं के इमोजी

       फेसबुक पर भावनाओं को व्यक्त करने के लिए तरह तरह के इमोजी उपलब्द्ध हैं , हंसने के रोने के , खिलखिलाने के शोक जताने के या दिल ही दे देने के , इतनी तकनीकी सुविधा के बावजूद हम एक भावना पर कितनी देर रह पाते हैं | किसी की मृत्यु पर एक रीता हुए इमोजी क्लीक करने के अगले ही पल किसी के चुटकुले पर बुक्का फाड़ कर हँसने वाले इमोजी को चिपकाते समय हम ये भी नहीं सोचते कि क्या  एक भावना से दूसरी भावना पर कूदना इतनी जल्दी संभव है या हम भावना हीन प्रतिक्रिया दे रहे हैं | कुछ लोग सोशल मीडिया पर समय की कमी बताते हुए इसे ठीक बताते हैं | परन्तु दुखद सत्य ये है कि ये बात केवल फेसबुक तक सीमित नहीं है … हमने इसे अपनी वास्तविक दुनिया में उतार लिया है | हम स्वयं संवेदनाओं के इमोजी बनते जा रहे हैं | रिश्तों में दूरी इसी का दुष्परिणाम है | संवेदनाओं के इमोजी  आज मैं बात कर रही हूँ एक सर्वे रिपोर्ट की |ये सर्वे अभी हाल में विदेशों में हुए हैं | सर्वे का विषय था कि “ कौन लोग अपने जीवन में ज्यादा खुश रहते हैं ?”यहाँ ख़ुशी का अर्थ जीवन के ज्यादातर हिस्से में संतुष्ट रहना था | इसमें जिन लोगों पर सर्वे किया गया गया उन्हें बचपन से ले कर वृद्ध होने तक निगरानी में रखा गया | इसमें से कुछ लोग जिंदगी में बहुत सफल हुए, कुछ सामान्य सफल हुए और कुछ असफल | कुछ के पास बहुत पैसे थे और कुछ को थोड़े से रुपयों में महीना काटना था | ज्यादातर लोगों को लगा कि जिनके पास पैसा है , सफलता है वो ज्यादा खुश होंगे पर एक आमधारणा के विपरीत सर्वे के नतीजे चौकाने वाले थे | सर्वे के अनुसार वही लोग ज्यादा खुश या संतुष्ट रहे जिनके रिश्ते अच्छे चल रहे थे | परन्तु आज हम अपने रिश्तों को प्राथमिकताओं में पीछे रखने लगे हैं | रिश्ते त्याग पर नहीं स्वार्थ पर चल रहे हैं | “गिव एंड टेक “…बिलकुल व्यापार  की तरह | ऐसे ही एक व्यापारी से टकराना हुआ जिनके पिताजी १५ दिन पहले गुज़र गए थे | सामान लेने आई एक महिला के सहानुभूति जताने पर बोले , ” अरे क्या बताये , पिताजी तो चले गए ,दुकान ठीक से ना चला पाने के कारण नुक्सान मेरा हो रहा है | जबकि तेरहवीं तक भी मैं बीच -बीच में खोलता था दुकान ताकि लोग मुझे भूल ना जाएँ |” आश्चर्य ये हैं कि जो अपने पिताजी को १३ दिन तक सम्मान से याद नहीं कर सके वो ये सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि दुनिया उन्हें और उनकी दुकान को भूले नहीं | स्नेह वृक्ष को बहुत सींचना पड़ता है तब छाया मिलती है | अभी हाल में  एक ऑफिसर की आत्महत्या की खबर सुर्ख़ियों में है |कारण घरेलु झगड़े हैं | पति -पत्नी के बीच मतभेद होना सामान्य बात है | लेकिन झगड़े के बाद यहाँ तक झगडे के समय भी एक दूसरे की चिंता फ़िक्र दिखती है | जहाँ झगडे में दुश्मनी का भाव हो, ना निकल पाने की घुटन हो , समाज के सामने अपनी व् अपने परिवार की जिल्लत का भय हो वहां निराश व्यक्ति इस ओर बढ़ जाता है | झगडे दो के बीच में होते हैं पर अफ़सोस उस समय उसको सँभालने वाला परिवार का कोई भी सदस्य नहीं होता | मोटिवेशनल गुरु कहते हैं ,” दुःख दर्द , शोक सब फिजूल है … समय की बर्बादी | आगे देखो , वो है सफलता का लॉली पॉप , उठो कपड़े झाड़ों ,दौड़ों ….देखो वो चूस रहा है , उसे हटा कर तुम भी चूसो … और मनुष्य मशीन में बदलने लगता है | लेकिन परिणाम क्या है ? सफलता की दौड़ में लगा हर व्यक्ति अकेला है ,  उसकी सफलता पर खुश होने वाला उसका परिवार भी नहीं होता | संदीप माहेश्वरी ने एक बार कहा था कि जिन्दगी को दो खंबों पर संतुलित करना आवश्यक है | एक सफलता का खम्बा , दूसरा परिवार का खम्बा , एक भी खम्बा कमजोर पड़ गया तो दूसरा महत्वहीन हो जाता है | दोनों को संतुलित कर के चलना आवश्यक है | एप्पल के संस्थापक स्टीव जॉब्स जिन्होंने सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये उन्होंने भी अपने अंतिम समय में कहा ,” मृत्यु के समय आप को ये नहीं याद आता की आप कितने सफल हैं या आपने जीवन में कितने पैसे कमाए बल्कि ते याद आता है आप ने अपने परिवार के साथ अपने , अपनों के साथ कितना समय व्यतीत किया है | सब जान कर भी अनजान बनते हुए हम सब एक दिशा हीन दौड़ में शामिल हो गए हैं | जहाँ रुक कर , ठहर कर किसी के दुःख में सुख में साथ देना समय की बर्बादी लगने लगा है , बस सम्बंधित व्यक्ति के सामने चेहरे पर जरा सा भाव लाये और आगे बढ़ गए …अपनी रेस में |  हम सब इस दौड़ में संवेदनाओं के चलते , फिरते इमोजी बनते जा रहे हैं | इंसान का मशीन में तब्दील होना क्या रंग लाएगा |  कभी ठहर कर सोचियेगा | वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … क्या आप  हमेशा  रोते रहते हैं ? स्ट्रेस मेनेजमेंट और माँ का फार्मूला अपने दिन की प्लानिंग कैसे करें समय पर काम शुरू करने का 5 सेकंड रूल आपको   लेख  “संवेदनाओं के इमोजी  “  कैसा लगा   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: article, positive thinking, emotions, emoji, feelings, life

अनुभूतियों के दंश- लघुकथा संग्रह (इ बुक )

लघुकथा वो विधा है जिसमें थोड़े शब्दों में पूरी कथा कहनी होती है | आज के समय में जब समयाभाव के कारण लम्बी कहानी पढने से आम  पाठक कतराता है वहीँ लघुकथा अपने लघुआकार के कारण आम व् खास सभी पाठकों के बीच लोकप्रिय है | उम्मीद है आने वाले समय में ये और लोकप्रिय होगी | लोगों को लगता है कि लघुकथा लिखना आसान है पर एक अच्छी लघुकथा लिखना इतना आसान भी नहीं है | यहाँ लेखक को बहुत सूक्ष्म  दृष्टि की आवश्यकता होती है | उसमें उसे किसी छोटी सी घटना के अंदर छिपी बात समझना या उसकी सूक्ष्मतम विवेचना करनी होती है | और अपने कथ्य में उसे इस तरह से उभारना होता है कि एक छोटी सी बात जिसे हम आम तौर पर नज़रअंदाज कर देते हैं , कई गुना बड़ी लगने लगे | जिस तरह से नोट्स में हम हाईलाइटर का इस्तेमाल करते हैं ताकि छोटी सी बात को पकड़ सकें वहीँ काम साहित्य में लघुकथा करती है | विसंगतियां इसके मूल में होती हैं | लघुकथा में शब्दों का चयन बहुत जरूरी है | जहाँ कुछ शब्दों की कमी अर्थ स्पष्ट होने में बाधा उत्पन्न करती है वहीँ अधिकता सारे रोमच को खत्म कर देती है | यहाँ जरूरी  है कि लघुकथा का अंत पाठक को चौकाने वाला हो |  अनुभूतियों के दंश- लघुकथा संग्रह (इ बुक ) आज में ऐसे ही लघुकथा संग्रह “अनुभूतियों के दंश “ की बात कर रही हूँ | डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘ का यह संग्रह ई –बुक के रूप में है | कहने की जरूरत नहीं कि आने वाला जमाना ई बुक का होगा | इस दिशा में भारती जी का ये अच्छा कदम है , क्योंकि छोटे होते घरों , पर्यावरण के खतरे , बढ़ते कागज़ के मूल्य व् हर समय उपलब्द्धता के चलते एक बड़ा पाठक वर्ग ऑन लाइन पढने में ज्यादा रूचि ले रहा है | अंतरा शब्द शक्ति .कॉम  पर प्रकाशित इस संग्रह में १८ पृष्ठ हैं व् १२ लघुकथाएं हैं | सभी लघुकथाएं प्रभावशाली हैं | कहीं वो समाज की किसी विसंगति पर कटाक्ष करती हैं ….संतुष्टि , समझ , समाधान , मुखौटा आदि तो कहीं वो संस्कारों की जड़ों से गहरे जुड़े रहने की हिमायत करती हैं …टूटता मौन ,संस्कार , कहीं वो समस्या का समाधान करती हैं ….विजय और जूनून ,पहचान ,वहीँ कुछ भावुक सी कर देने वाली लघुकथाएं भी हैं जैसे … मायका प्रेरणा और पीली पीली फ्रॉक | पीली फ्रॉक को आप अटूट बंधन.कॉम में पढ़ चुके हैं | यूँ  तो सभी लघुकथाएं बहुत अच्छी हैं पर एक महिला होने के नाते लघु कथा  मायका और जूनून ने मेरा विशेष रूप से ध्यान खींचा |जहाँ मायका बहुत ही भावनात्मक तरीके से  बताती है कि जिस प्रकार एक लड़की का मायका उसके माता –पिता का घर होता है उसी प्रकार लड़की के वृद्ध माता –पिता का मायका लड़की का घर हो सकता है | एक समय था जब लड़की के माता –पिता अपनी बेटी से कुछ लेना तो दूर उसके घर का पानी पीना भी नहीं  पीते थे | अपनी ही बेटी को दान में दी गयी वस्तु समझने का ये समाज का कितना कठोर नियम था | ये छोटी सी कहानी उस रूढी पर भी प्रहार करती है जो विवाह होते ही लड़की को पराया घोषित कर देती है | वहीँ ‘विजय’ कहानी एक महिला के अपने भय पर विजय है | एक ओर जहाँ हम लड़कियों को बेह तर शिक्षा दे कर आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दे रहे हैं वहीँ हम बहुओं को अभी भी घरों में कैद कर केवल परिवार तक सीमित रखना चाहते हैं | उसे कहीं भी अकेले जाने की इजाज़त नहीं होती | हर जगह पति व् बच्चे उसके संरक्षक के तौर पर जाते हैं | इससे एक तरफ जहाँ स्त्री घुटन की शिकार होती है वहीँ दूसरी तरफ एक लम्बे समय तक घर तक सीमित रहने के कारण वो भय की शिकार हो जाती है उसे नहीं लगता कि वो अकेले जा कर कुछ काम भी कर सकती है | ज्यादातर महिलाओं ने कभी न कभी ऐसे भय को झेला है| ये कहानी उस भय पर विजय की कहानी है |एक स्त्री को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इस भय पर विजय पानी ही होगी |   भारती जी एक समर्थ लेखिका हैं | आप सभी ने atootbandhann.com पर उनकी कई रचनाएँ पढ़ी हैं | उनकी अनेकों रचनाओं को पाठकों ने बहुत सराहा है | उनके लेख त्योहारों का बदलता स्वरुप को अब तक 4408 पाठक पढ़ चुके हैं, और ये संख्या निरंतर बढ़ रही है | आज साहित्य जगत में भारती जी अपनी एक पहचान बना चुकी हैं व् कई पुरुस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं  | निश्चित रूप से आप को उनका ये लघुकथा संग्रह पसंद आएगा | लिंक दे रही हूँ , जहाँ पर आप इसे पढ़ सकते हैं | अनुभूतियों के दंश अपने लघुकथा संग्रह व् लेखकीय भविष्य के लिए भारती जी को हार्दिक शुभकामनाएं |   वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … हसीनाबाद -कथा गोलमी की , जो सपने देखती नहीं बुनती है  कटघरे : हम सब हैं अपने कटघरों में कैद अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का मुखरित संवेदनाएं -संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती एक स्त्री के स्वर आपको  समीक्षा   “अनुभूतियों के दंश- लघुकथा संग्रह (इ बुक )”कैसी लगी ? अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                   filed under- E-Book, book review, sameeksha, literature

देहरी के अक्षांश पर – गृहणी के मनोविज्ञान की परतें खोलती कवितायें

कविता लिखी नहीं जाती है , वो लिख जाती है , पहले मन पर फिर पन्नों पर ….एक श्रेष्ठ कविता वही है जहाँ हमारी चेतना सामूहिक चेतना को व्यक्त करती है | व्यक्ति अपने दिल की बात लिखता है और समष्टि की बात उभर कर आती है | वैसे भी देहरी के अन्दर हम स्त्रियों की पीड़ा एक दूसरे से अलग कहाँ है ? देहरी के अक्षांश पर – गृहणी के मनोविज्ञान की परतें खोलती कवितायें  घर परिवार की धुरी वह फिर भी अधूरी वह मोनिका शर्मा जी के काव्य संग्रह ” देहरी के अक्षांश पर पढ़ते  हुए न जाने कितने दर्द उभर आये , न जाने कितनी स्मृतियाँ ताज़ा हो गयीं और न जाने कितने सपने जिन्हें कब का दफ़न कर चुकी थी आँखों के आगे तैरने लगे | जब किसी लड़की का विवाह होता है तो अक्सर कहा जाता है ,”एक संस्कारी  लड़की की ससुराल में डोली जाती और अर्थी निकलती है “| डोली के प्रवेश द्वार और अर्थी के निकास द्वार के बीच देहरी उसकी लक्ष्मण रेखा है | जिसके अंदर  दहेज़ के ताने हैं , तरह -तरह की उपमाएं हैं , सपनों को मारे जाने की घुटन है साथ ही एक जिम्मेदारी का अहसास है कि इस देहरी के अन्दर स्वयं के अस्तित्व को नष्ट करके भी उसे सबको उनका आसमान छूने में सहायता करनी है | इस अंतर्द्वंद से हर स्त्री गुज़रती है | कभी वो कभी वो अपने स्वाभिमान और सपनों के लिए संघर्ष करती है तो कभी अपनों के लिए उन्हें स्वयं ही कुचल  देती है | मुट्ठी भर सपनों और अपरिचित अपनों के बीच देहरी के पहले पायदान से आरभ होती है गृहणी के जीवन की अनवरत यात्रा                   अक्सर लोग महिलाओं को कामकाजी औरतें और  घरेलु औरतों में बाँटते है परन्तु मोनिका शर्मा जी जब बात  का खंडन करती हैं तो मैं उनसे सहमत होती हूँ  …. स्त्री घर के बाहर काम करे या न करें गृहणी तो है ही | हमारे समाज में घर के बाहर काम करने वाली स्त्रियों को घरेलु जिम्मेदारियों से छूट नहीं है | स्त्री घर के बाहर कहीं भी जाए घर और उसकी जिम्मेदारियां उसके साथ होती हैं | हर मोर्चे पर जूझ रही स्त्री कितने अपराध बोध की शिकार होती है इसे देखने , समझने की फुर्सत समाज के पास कहाँ है |                            विडम्बना ये है कि एक तरफ हम लड़कियों को शिक्षा दे कर उन्हें आत्मनिर्भर बनने के सपने दिखा रहे हैं वहीँ दूसरी और शादी के बाद उनसे अपेक्षा की जाती है कि वो अपने सपनों को  मन के किसी तहखाने में कैद कर दें | एक चौथाई जिन्दगी जी लेने के बाद अचानक से आई ये बंदिशें उसके जीवन में कितनी उथल -पुथल लाती हैं उसकी परवाह उसे अपने सांचे में ढाल लेने की जुगत में लगा परिवार कहाँ करता है … गृहणी का संबोधन पाते ही मैंने किसी गोपनीय दस्तावेज की तरह संदूक के तले में छुपा दी अपनी डिग्रियां जिन्हें देखकर कभी गर्वित हुआ करते थे स्वयं मैं और मेरे अपने                             फिर भी उस पीड़ा को वो हर पल झेलती है … स्त्री के लिए अधूरे स्वप्नों को हर दिन जीने की मर्मान्तक पीड़ा गर्भपात की यंत्रणा सी है                                         एक सवाल ये भी उठता है कि माता -पिता कन्यादान करके अपनी जिम्मेदारियों से उऋण कैसे हो सकते हैं | अपने घर के पौधे को पराये घर में स्वयं ही स्थापित कर वह उसे भी पराया मान लेते हैं | अब वो अपने कष्ट अपनी तकलीफ किसे बताये , किससे साझा  करे मन की गुत्थियाँ | एक तरह परायी हो अब और दूसरी तरफ पराये घर से आई हो , ये पराया शब्द उसका पीछा ही नहीं छोड़ता | जिस कारण कितनी बाते उसके मन के देहरी को लांघ कर शब्दों का रूप लेने किहिम्मत ही नहीं कर पातीं | मोनिका शर्मा जी की कविता “देह के घाव ” पढ़ते हुए सुधा अरोड़ा जी की कविता ” कम से कम एक दरवाजा तो खुला रहना चाहिए ” याद आ गयी | भरत के पक्ष में खड़े मैथिलीशरण गुप्त जब ” उसके आशय की थाह मिलेगी की किसको , जनकर जननी ही जान न पायी जिसको ” कहकर भारत के प्रति संवेदना जताते हैं | वही संवेदना युगों -युगों से स्त्री के हिस्से में नहीं आती | जैसा भी ससुराल है , अब वही तुम्हारा घर है कह कर बार -बार अपनों द्वारा ही पराई घोषित की गयी स्त्री देहरी के अंदर सब कुछ सहने को विवश हो जाती है | अपनों के बीच अपनी उपस्थिति ने उसे पराये होने के अर्थ समझाए तभी तो देख , सुन ये सारा बवाल उसके क्षुब्ध मन में उठा एक ही सवाल देह के घाव नहीं दिखते जिन अपनों को वो ह्रदय के जख्म कहाँ देख पायेंगे ?                    संग्रह में आगे बढ़ते हुए पन्ने दर पन्ने हर स्त्री अपने ही प्रतिबिम्ब को देखती है | बार -बार वो चौंकती है अरे ये तो मैं हूँ | ये तो मेरे ही मन की बात कही है | माँ पर लिखी हुई कवितायें बहद ह्रदयस्पर्शी है | माँ की स्नेह छाया के नीचे अंकुरित हुई , युवा हुई लड़की माँ बनने के बाद ही माँ को जान पाती है | कितना भी त्याग हो , कितनी भी वेदना हो पर वो माँ  हो जाना चाहती है | तपती दुपहरी , दहलीज पर खड़ी इंतज़ार करती , चिंता में पड़ी झट से बस्ता हाथ में लेकर उसके माथे का पसीना पोछती हूँ अब मैं माँ को समझती हूँ                           देहरी स्त्री की लक्ष्मण रेखा अवश्य है पर उसके अंदर सांस लेती स्त्री पूरे समाज के प्रति सजग है | वो भ्रूण हत्या के प्रतिसंवेदंशील है , स्त्री अस्मिता की रक्षा … Read more

हसीनाबाद -कथा गोलमी की , जो सपने देखती नहीं बुनती है

अभी कुछ दिन पहले  गीताश्री जी का उपन्यास ” हसीनाबाद”  पढ़ा है  | पुस्तक भले ही हाथ में नहीं है पर गोलमी मेरे मन -मष्तिष्क  में नृत्य कर  रही है | सावन की फुहार में भीगते हुए गोलमी  नृत्य कर  रही है | महिलाओं के स्वाभिमान की अलख जगाती गोलमी नृत्य कर रही है , लोकगीतों को फिर से स्थापित करती गोलमी नृत्य कर  रही है | आखिर कुछ तो ख़ास है इस गोलमी में जो एक अनजान बस्ती में जन्म लेने के बाद भी हर पाठक के दिल में नृत्य कर  रही है | ख़ास बात ये  है कि गोलमी ” सपने देखती नहीं बुनती है”| गोलमी की इसी खासियत के कारण गीता श्री जी का ” हसीनाबाद”  खास हो जाता है | हसीनाबाद -कथा गोलमी  की जो सपने देखती नहीं बुनती है  लेखक  के दिल में कौन सी पीर उठती है कि वो चरित्रों का गठन करता है , ये तो लेखक ही जाने पर जब पाठक रचना में डूबता है तो लेखक के मन की कई परते भी खुलती हैं | जैसा की गीताश्री जी इस उपन्यास को राजनैतिक उपन्यास कहतीं है परन्तु एक पाठक के तौर पर मैं उनकी इस बात से सहमत नहीं हो पाती | ये सही है कि उपन्यास की पृष्ठभूमी राजनैतिक है परन्तु  गोलमी के माध्यम से उन्होंने एक ऐसा चरित्र रचा है जिसके रग -रग में कला बसी है | उसका नृत्य केवल नृत्य नहीं है उसकी साँसे हैं , उसका जीवन है …. जिसके आगे कुछ नहीं है , कुछ भी नहीं | हम सबने बचपन में एक कहानी जरूर पढ़ी होगी ,” एक राजकुमारी जिसकी जान तोते में रहती है ” | भले ही वो कहानी तिलिस्म और फंतासी की दुनिया की हो ,पर  कला भी तो एक तिलस्म ही है , जिसमें मूर्त से अमूर्त खजाने का सफ़र है | एक सच्चे कलाकार की जान उसकी कला में ही बसती है | उपन्यास के साथ आगे बढ़ते हुए मैं गोलमी  में हर उस कलाकार को देखने लगती हूँ जो कला के प्रति समर्पित है … हर कला और कलाकार के अपने सुर , लय , ताल पर नृत्य करते हुए भी एक एकात्म स्थापित हो जाता है | एक नृत्य शुरू हो जाता है , जहाँ सब कुछ गौढ़ है बस कुछ है तो साँस लेती हुई कला | “हसीनाबाद “एक ऐसे बस्ती है जो गुमनाम है | यहाँ ठाकुर लोग अपनी रक्षिताओं को लाकर बसाते है ….ये पत्नियाँ नहीं  हैं,न ही वेश्याएं हैं | धीरे-धीरे  एक बस्ती  बस जाती है दुनिया के नक़्शे में गायब ,छुपी जिन्दा बस्ती , जहाँ रक्स की महफिलें सजती है | दिन में उदास वीरान रहने वाली बस्ती रात के अँधेरे में जगमगा उठती है और जगमगा उठती है इन औरतों की किस्मत | इस बस्ती के माध्यम से गीता जी देह व्यापार में  जबरन फंसाई गयी औरतों की घुटन ,  दर्द तकलीफ को उजागर करतीं   हैं | अपने -अपने ठाकुरों की हैसियत के अनुसार ही इन औरतों की हैसियत है परन्तु बच्चों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है ये भले ही अपने ठाकुरों के प्रति एकनिष्ठ हो पर इनकी संतानें इसी बस्ती की धुंध में खो जाने को विवश हैं | उनका भविष्य  तय है …लड़कियों को इसी व्यापर में उतरना है और लड़कों को ठाकुरों का लठैत  बनना है | यूँ तो हसीनाबाद साँसे ले रहा है पर उसमें खलबली तब मचती है जब इस बस्ती पर दुनिया  की निगाह पड़ जाती है नेताओं की दिलचस्पी इसमें जगती है क्योंकि ये एक वोट बैंक है |  ठाकुरों की कारिस्तानी को छुपाने के लिए ठाकुरों के बच्चों के बाप के नाम के स्थान पर ठाकुरों के नौकरों का नाम लिखवाया जाने लगता है | नायिका गोलमी की माँ सुंदरी जो कि ठाकुर सजावल सिंह  की रक्षिता है | ठाकुर से ही उसके दो बच्चे हैं एक बेटी गोलमी और बेटा रमेश | यूँ तो सुन्दरी को ऐश आराम के सारे साधन प्राप्त हैं पर उसके अंदर एक घुटन है …. एक स्त्री जो अपने पति के नाम के लिए तरसती है , एक माँ जो अपनी बेटी के इस देह व्यापार की दुनिया में  जिन्दा दफ़न हो जाने के आगत भविष्य से भयभीत है दोनों का बहुत अच्छा चित्रण गीता श्री जी ने किया है | इसी बीच जब नन्हीं गोलमी  मन में नृत्य का शौक जागता है तो वो सुंदरी के मनोवैज्ञानिक स्तर पर गयीं हैं और उन्होंने यहाँ शब्दों के माध्यम से  एक माँ का मनोविज्ञान को जिया है जो अपनी बेटी को किसी भी हालत में एक रक्षिता नहीं बनाना चाहती है | इसके लिए वो हर ऐश आराम की कुर्बानी देने को तैयार है | यहाँ तक की अपने कलेजे के टुकड़े अपने बेटे को भी छोड़ने को तैयार है | वो मन कड़ा कर लेती है कि उसका बेटा कम से कम लठैत  बन जाएगा | उसकी गोलमी जैसी  दुर्दशा नहीं होगी | मौके की तलाश करती सुंदरी को भजन मंडली के साथ आये सगुन महतो में अपनी मुक्ति का द्वार दिखता है | वो गोलमी को ले कर सगुन महतो के साथ हसीना बाद  छोड़ कर भाग जाती है | सगुन महतो की पहले से ही शादी हो चुकी है उसके बच्चे भी हैं | थोड़े विरोध के बाद मामला सुलझ जाता है | सगुन महतो सुंदरी के साथ अपना घर बसाता है | यहीं अपने दोस्तों रज्जो , खेचरु और अढाई सौ  के साथ गोलमी  बड़ी होती है | बढ़ते कद के साथ बढ़ता है गोलमी  का नृत्य के प्रति दीवानापन | सुन्दरी की लाख कोशिशों के बावजूद गोलमी छुप-छुप  कर नृत्य करती है | जिसमें उसका साथ देती है उसकी बचपन की सखी रज्जो , उसका निश्छल मौन प्रेमी अढाई  सौ और आशिक मिजाज खेचरू | इन सब के साथ गाँव की पृष्ठ भूमि , आपसी प्रेम , संग -साथ के त्यौहार ,छोटी -छोटी कुटिलताओं को गीता श्री जी ने बखूबी प्रस्तुत किया है |क्योंकि गोलमी यहीं बड़ी होती है , इसलिए उसके व् उसके दोस्तों के मनोवैज्ञानिक स्तर पर क्या -क्या परिवर्तन होते हैं इसे भावनाओं के विस्तृत कैनवास पर बहुत खूबसूरती से उकेरा गया है |लोक जीवन की … Read more

फिर से कैसे जोड़े दोस्ती के टूटे धागे

हमारे तमाम रिश्तों में दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है जिसे हम खुद चुनते हैं , इसलिए इसे हमें खुद ही संभालना होता  है | फिर भी कई बार दो पक्के दोस्तों के बीच में किसी कारण से गलतफहमी हो जाती है और दोनों दोस्त दूर हो जाते हैं |  ऐसा ही हुआ निखिल और सुमेर के बीच में | निखिल और सुमेर बचपन के दोस्त थे …. साथ पढ़ते , खाते –पीते , खेलते | कोलेज  के ज़माने तक साथ थे | एक दिन किसी बात पर दोनों में बहस हो गयी | बहस ने गलतफहमी का रूप ले लिया और दोनों में बातचीत बंद हो गयी | भले ही दोनों अन्दर अंदर सोचते रहे की बातचीत शुरू हो पर पहल कौन करे …. अहंकार आड़े आ जाता , दोनों को लगता वो सही हैं या कम से कम वो गलत तो बिलकुल नहीं हैं …और देखते ही देखते चार साल बीत गए | फिर से कैसे जोड़े दोस्ती के टूटे धागे   जब दो लोग एक दूसरे की जिन्दगी में बहुत मायने रखते हैं तो वो भले ही एक दूसरे से दूर हो जाएँ , उनमें बातचीत बंद हो जाए पर वो दिल से दूर नहीं हो पाते | एक दूसरे की कमी उनकी जिन्दगी में वो खालीपन उत्त्पन्न करती है जो किसी दूसरे  रिश्ते से भरा नहीं जा सकता |  एक दिन अचानक से निखिल का मेसेज सुमेर के पास आया की “वो उससे मिलना चाहता है |” सुमेर की आँखों में से आंसू बहने लगे | ये आँसू ख़ुशी और गम दोनों के थे | उसे लग रहा था कि ये पहल उसने क्यों नहीं की | वो दोनों निश्चित स्थान पर मिले …. गले लगे रोये , समय जैसे थम गया , लगा ही नहीं की चार लंबे लंबे  साल बीत चुके हैं | उनके दिल तो अभी भी एक लय पर नृत्य कर रहे थे | हालांकि कुछ समय उन्होंने जरूर लिया , फिर दोस्ती वैसे ही गाढ़ी हो गयी जैसे की वो कभी टूटी ही नहीं थी | जिंदगी के सफ़र में न जाने कितने दोस्त बनते हैं पर कुछ ही ऐसे होते हैं जिनसे हम आत्मा के स्तर तक जुड़े होते हैं पर न जाने क्यों उनके बीच भी गलतफहमी हो जाती है … दूरियाँ बन जाती हैं | फिर जिंदगी आगे बढती तो है पर अधूरी अधूरी सी | अगर आप का भी ऐसा कोई दोस्त है जिससे दूरियाँ बढ़ गयीं हैं तो आज के दिन उससे मिलिए ,  फोन करिए ,या एक छोटा सा मेसेज ही कर दीजिये ….. देखिएगा दोस्ती की फसल फिर से लहलहाने लगेगी और खुशियों की भी |   अगर आप को उस दोस्ती को फिर से शुरू करने में दिक्कत आ रही है तो आप इस लेख की मदद ले सकते हैं। … सबसे पहले इंतज़ार करिए रेत के बैठने का अगर आप का झगडा अभी हाल में हुआ है तो आप जाहिर तौर पर आप दोनों ने एक दूसरे को बहुत बुरा –भला कहा होगा | आप दोनों के मन में मनोवैज्ञानिक घाव होंगे | अगर आप अपने मन से वो बाते निकल भी दें तो जरूरी नहीं कि आप का दोस्त भी उसी मानसिक स्थिति में हो | हो सकता है वो आभी उन घावों का बहुत दर्द महसूस कर रहा हो | मेरे नानाजी कहा करते थे “रोटी ठंडी कर के खाओ “ अर्थात जब थोडा समय बीत जाए तब बात करो | आज की भाषा में आप इसे “ कुलिंग टाइम “ कह सकते हैं | यकीन मानिए अगर बिना खुद को ठंडा किये आप ने बात चीत शुरू कर दी तो ये पक्का है कि उसी बात पर आप दुबारा उतने ही उग्र हो कर झगड़ पड़ेंगे | अपने गुस्से को संभालना सीखिए  जिस समय आपकी अपने प्रिय दोस्त के साथ अनबन होती है , आप के अन्दर बहुत गुस्सा भरा होता है | आप को लगता है आप जोर –जोर से चिल्ला कर उसके बारे में कुछ कहें या कोई ऐसा हो जिसके सामने आप अपने मन का हर दर्द कह कर खाली हो जाए | ये एक नैसर्गिक मांग है | पर यहाँ मैं ये कहना चाहती हूँ , “ आप को जितना मर्जी आये आप अपने दोस्त के बारे में कहिये , जो मन आये कहिये , आने को खाली करिए पर हर किसी के सामने नहीं | मामला आप दोनों के बीच था बीच में ही रहना चाहिए | कई बार गलती ये हो जाती है कि खुद को खाली करने के चक्कर में हम अपने दोस्त के बारे में अंट शंट कुछ भी दूसरों से बोल देते हैं | जबकि हमारा इंटेंशन नहीं होता | अभी भी हमारे दिल में उस दोस्त के प्रति नफरत नहीं होती बस हम अपने आप को खाली करना चाहते हैं , इसलिए अपने मन की भड़ास किसी एक व्यक्ति के सामने निकालिए जिस पर आप विश्वास कर सकते हैं कि वो आप की बात अपने तक ही रखेगा | अब जैसे सुनिधि और नेहा  को ही देख लें | जब नेहा को पता चला की सुनिधि सब को उसके बारे में बता रही है वो सुनिधि से हंमेशा के लिए दूर हो गयी | मैं ऐसी स्थिति में अपने पति या दीदी  से बात करती हूँ | कई बार ये लोग मेरी गलती भी दिखा देते हैं | जो भी हो ऐसा करने से दोस्ती के बंधन को पुनः मजबूत करने की डोर आपके हाथ में रहती है | आलोचना , आंकलन और शिकायत से दूर रहे  जब किसी की दोस्ती टूटती है या यूँ कहें की उसमें पॉज आ जाता है तो जो चीज उन्हें आगे बढ़ने से रोकती है वो है हमारा ईगो यानी अहंकार | अहंकार एक छद्म आवरण है , हमारा अहंकार हमें वैसे रहने पर मजबूर करता है जैसे हम दुनिया को दिखाना चाहते है कि देखो हम ऐसे हैं | पहल करने का अर्थ ये लगता है कि अगला कहीं हमें कमजोर न समझ ले या लोग मुझे ही गलत कहेंगे | इसलिए दोबारा जुड़ने से पहले अपने  “ शुद्ध रूप “ को समझिये | जो आप वास्तव में है इस आवरण के बिना … Read more

क्या फेसबुक पर अतिसक्रियता रचनाशीलता में बाधा है ?

        लाइट , कैमरा ,एक्शन की तर्ज पर लाइक , कमेंट ,एडिक्शन …. और दोनों ही ले जाते हैं एक ऐसी दुनिया में जो असली नहीं है | जहाँ अभिनय चल रहा है | फर्क बस इतना है की एक अभिनय को हम  तीन घंटे सच मान कर जीते हैं … रोते हैं ,हँसते हैं और वापस अपनी दुनिया में आ जाते हैं , लेकिन दूसरा अभिनय हमारे जीवन से इस कदर जुड़ जाता है कि हम उससे खुद को अलग नहीं कर पाते | हमारा निजी जीवन इस अभिनय की भेंट चढ़ने लगता है , बच्चों के लिए समय नहीं रहता है , रिश्तों में दूरियाँ आने लगती हैं और सबसे बड़ी बात हमारी रचना शीलता में कमी आने लगती है …. मैं बात कर रही हूँ फेसबुक की जिसने लेखकों  को एक बहुत अच्छा प्लेटफॉर्म दिया , नए -नए लेखक सामने आये , उन्होंने  खुद को अभिव्यक्त करना और लिखना सीखा … परन्तु इसके बाद वो यहीं उलझ कर रह गए … फेसबुक एडिक्शन ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया |  उनका लेखन एक स्तर  से ऊपर  बढ़ नहीं पाया | क्या फेसबुक पर अतिसक्रियता रचनाशीलता में बाधा है ?                                                जब भी कोई लेखक कोई रचना लिखता है तो उसकी इच्छा होती है कि लोग उसे पढ़ें उस पर चर्चा करें  | फेसबुक एक ऐसा मंच है जहाँ ये संभव है | लोग लाइक व कमेंट के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करते हैं | परन्तु फिर भी एक सीमा से ऊपर लेखक इन गतिविधियों में फंस जाता है | कैसे ? जरा गौर करें …. अगर आप भी फेसबुक पर हैं तो आपने महसूस किया होगा कि लाइक और कमेंट का एक नशा होता है …. अगर किसी एक पोस्ट पर लाइक या  कमेंट बहुत  बड़ी संख्या में मिल जाए तो हर पोस्ट पर उतने की आशा रहती है | ये सामान्य मनोविज्ञान है | अब हर पोस्ट शायद इस लायक नहीं होती कि उस पर ढेरों लाइक या कमेंट मिलें पर स्वाभिमान या अहंकार ये मानने को तैयार नहीं होता | अब हर पोस्ट पर उतनी लाइक पाने की जुगत में वो या तो अपने सभी मित्रों की अच्छी या बुरी पोस्ट पर लाइक लगता है ताकी वो भी बदले में उसकी पोस्ट पर आयें | फेसबुक का एक अलिखित नियम है आप मेरी पोस्ट पर आयेंगे तभी हम आपकी पोस्ट पर आयेंगे | दूसरा वो समय-समय पर अपने मित्रों को हड्काने का काम करेंगे … जो मेरी पोस्ट पर नहीं आएगा मैं उसको अनफ्रेंड या ब्लॉक  कर दूँगा /दूंगी | ये एक तरह से खुली चुनौती है कि आप को अगर फ्रेंड लिस्ट में रहना है तो मेरी पोस्ट पर आना ही पड़ेगा …. जबकि ये लोग अपनी फ्रेंड लिस्ट में हर किसी की पोस्ट पर नहीं जाते | वो काटने छांटने में ही व्यस्त रहते हैं | तीसरा अपना नाम बार -बार लोगों की निगाह में लाने के लिए ये लोग  बार-बार स्टेटस अपडेट करते हैं | यानि एक दिन में कई स्टेटस डालते हैं | स्टेटस न मिला तो तस्वीरे डालते हैं … अपनी न सही तो फूल पत्ती की ही सही | आंकड़े बताते हैं की तस्वीरों पर लाइक ज्यादा मिलती है |  जो लोग लेखन के लिए फेसबुक पर नहीं हैं , उनकी मित्र संख्या भी केवल निजी परिचितों की है , उनके लिए ठीक है, जो फोटो ग्राफर बनना चाहते हैं उनके लिए भी ठीक है ,  पर जो लेखन में गंभीरता से जाना चाहते हैं क्या उनके लिए उचित है ? या महज अहंकार की तुष्टि है | कैसे होती है रचनाशीलता प्रभावित                                      प्रकृति का नियम है जब फल पक जाता है तब वो खाने लायक होता है | सब्जी में कोई मसाला कच्चा रह जाए तो सारी  सब्जी का स्वाद बिगाड़ देता है , चावल कच्चा रह जाए तो खाने योग्य ही नहीं होता … फिर कच्ची रचना का क्या दुष्प्रभाव है ये हम क्यों नहीं सोचते | आज ज्यादातर लेखक जल्दी से जल्दी लाइक कमेन्ट पाने की या प्रतिक्रिया पाने की आशा में कच्ची रचना फेसबुक पर पोस्ट कर देते हैं | ये यूँ तो गलत नहीं लगता पर धीरे -धीरे कच्ची रचना  लिखने की आदत पड़ जाती है | लेखन में धैर्य नहीं रहता | ये बात  आपको तब समझ में आएगी जब आप किसी पत्रिका के लिए भेजे जाने वाले लेखों के इ मेल देखेंगे |  कई संभावनाशील लेखक , जिनमें क्षमता है वो मात्र २० या २२ लाइन का लेख लिख कर भेज देते हैं | जो प्रकाशित पत्रिका में केवल एक -डेढ़ पैराग्राफ  बनता है | अब आप खुद से सोचिये कि क्या किसी प्रकशित पत्रिका में एक  पेज से कम किसी रचना को आप लेख की संज्ञा दे सकते हैं ? उत्तर आप खुद जानते होंगे | एक निजी अनुभव शेयर कर रही हूँ | एक बड़ी  लेखिका जो परिचय की मोहताज़ नहीं है , ने एक बार अटूट बंधन पत्रिका में स्त्री विमर्श का लेख भेजने की पेशकश की | उस अंक में मैं  स्त्री विमर्श के उस लेख के लिए निश्चिन्त थी | परन्तु उन्होंने तय तारीख से ठीक दो दिन पहले दो छोटे छोटे लेख भेजे और साथ में नोट भी कृपया आप इन्हें जोड़ लें | एक अच्छे लेख में एक प्रवाह होता है जो शुरू से अंत तक बना रहता है , लेकिन आज लोग जुड़े हुए पैराग्राफ  को लेख की संज्ञा देने लगे हैं | जो दो फेसबुक स्टेटस की तरह लगते हैं जिनमें तारतम्य बहुत अच्छे से स्थापित नहीं हो पाता | ये लेखिका दिन में कई फेसबुक पोस्ट डालती हैं | अब आप खुद समझ सकते हैं कि जब एक स्थापित लेखिका जल्दबाजी की गलती कर सकती है तो नए लेखकों  का क्या हाल होगा | विज्ञान कहता है जब हम खुश होते हैं , हमें तारीफ़ मिलती है या हमें कुछ रुचिकर लगता है तो हमारे दिमाग … Read more