मूल्य
रद्दी वाले ने रख दिए मेरे हाथ में 150 रुपये और पीछा करती रहीं मेरी भरी हुई आँखें और निष्प्राण सी देह उस रद्दी वाले का वो बोरा ले जाते हुए जब तक आँखों से ओझल नहीं हो गया इस बार की रद्दी मामूली नहीं थी पुराने अखबारों की बासी ख़बरों की तरह इस बार की रद्दी में किलो के भाव में बिक गया था मेरा स्वाभिमान जिसे विवाह में अपने साथ लायी थी इस रद्दी में कैद थी मेरी अनगिनत जागी हुई राते जो गवाह थी मेरे अथक परिश्रम का वो सहेलियों के बीच एक एक -एक नंबर से आगे बढ़ने की होड़ वो टैक्सोनामी की किताबे जिसके पीले पड़े पन्नों में छोटे बड़े कितने चित्रों को बना कर पढ़ा था वर्गीकरण का इतिहास वो जेनेटिक्स की किताबें जो बदलना चाहती थीं आने वाली पीढ़ियों का भविष्य वो फोसिल्स की किताबे जाते -जाते कह गयीं कि कि कुछ चीजों के अवशेष भी नहीं बचते इन्हीं हाँ इन्हीं किताबों में कैद था मेरा इंतज़ार कि बदल जाएगा कभी ना कभी वो वाक्य जो प्रथम मिलन पर तुमने कहा था हमारे घर की औरतें बाहर जा कर काम नहीं करतीं मर्दों की दुनिया में मैं नहीं तोड़ सकता तुम्हारे लिए परम्पराएं हमारे घर की औरतों की जो रसोई के धुएं में सुलगती रहतीं हैं धुँआ हो जाने तक कुंदन से पवित्र घर ऐसे ही तो बनते हैं उसी दिन …. हां उसी दिन से शुरू हो गयी थी मेरी आग में ताप कर कुंदन बन जाने की प्रक्रिया इतिहास गवाह है भरी हुई आँखों व् हल्दी और नमक और आटे से सने हाथों को अपने आंचल से पोछते हुए ना जाने कितनी बार दौड़ कर देख आती थी अपनी किताबों को सुरक्षित तो हैं ना हर साल दीवाली की सफाई में झाड -पोछ कर फिर से अलमारी में सजा देती अपने इंतज़ार को शायद इस इंतज़ार की नमीं ही मुझे रोकती रही रसोई के धुएं में धुँआ हो जाने से पहले वो अक्सर सपनों में आती थीं अपने दर्द की शिकायतें कहने नहीं लायीं थी तुम इन्हें सेल्फ में बंद करने को तुम्हें संवारना था बच्चों का भविष्य फिर क्यों कर रही हो हमारी बेकद्री फिर धीरी -धीरे वो भी मौन हों गयीं क्योंकि उन्होंने सुन लिए थे तुम्हारे ताने चार किताबें पढ़ कर मत समझो अपने को अफलातून आज भी तुम्हारी जगह रसोई में है चूल्हे से देहरी तक वहाँ ही मनाओं आज़ादी का जश्न और मैं कैद में मनाती रही नाप -तौलकर दी गयी आज़ादी का जश्न मेरे साथ तुमने भी तो भोगा है परतंत्रता का दंश अपराधी हूँ मैं तुम्हारी इसीलिये देह की कारा छोड़ने से पहले कर दी तुम्हारी भी मुक्ति ये १५० रुपये गवाह है कि कुछ तो समझीं कबाड़ी वाले ने मेरे ज्ञान की कीमत पर तुमने …. वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … मैं माँ की गुडिया ,दादी की परी नहीं … बस एक खबर थी कच्ची नींद का ख्वाबकिताबें कतरा कतरा पिघल रहा है आपको ” मूल्य “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- poem in Hindi, Hindi poetry, women, cost