मैं मेहनत के पैसे लेता हूँ , मदद के नहीं

अमीर लोगों का दिल कई बार बहुत छोटा होता है और गरीबों का बहुत बड़ा | ऐसे नज़ारे देखने को अक्सर मिल ही जाते हैं | परन्तु  कभी  -कभी कोई बहुत छोटी सी बात हमें बहुत देर तक खुश कर देती है और जीवन का एक सूत्र भी दे देती है | मैं मेहनत के पैसे लेता हूँ , मदद के नहीं किस्सा आज का ही है | यूँ तो दिल्ली में बंदर बहुत है | पर किस दिन किस मुहल्ले पर धावा बोलेंगे यह कहा नहीं जा सकता | जब ये आते हैं तो ये झुंड के झुंड आते हैं | ऐसे में सामान लाना मुश्किल होता है | क्योंकि ये हाथ के पैकेट छीन लेते हैं | पैकेट बचाने की जुगत में काट भी लेते हैं |  आज शाम को जब मैं पास की बाज़ार से सामान लेने गयी तब बन्दर नहीं थे | अपनी कालोनी में घुसते ही बहुत से बंदर दिखाई दिए | मेरे दोनों हाथों में बहुत सारे पैकेट थे , उसमें कई सारे खाने -पीने के सामान से भरे हुए थे | मैं घर के बिलकुल पास थी पर मेरे लिए आगे बढ़ना मुश्किल था | उपाय यही था कि मैं वापस लौट जाऊं और आधा एक घंटा इंतज़ार करूँ जब बन्दर इधर -उधर हो जाए तब घर जाऊं |  तभी एक रिक्शेवाला जो मेरी उलझन देख रहा था बोला , ” लाइए आपको छोड़ दूँ | उसने मेरा सामान रिक्शे में रख दिया , मैं बैठ गयी | मुश्किल से पाँच -सात मिनट का रास्ता था पर मेरी बहुत मदद हो गयी थी इसलिए मैं घर पहुँच कर रिक्शेवाले को धन्यवाद देते हुए २० रुपये का नोट देने लगी |  रिक्शेवाले ने नोट लेने से इनकार करते हुए कहा ,  ” ये मत दीजिये , मैं मेहनत के पैसे लेता हूँ , मदद के नहीं “|  रिक्शेवाला तो चला गया पर उसका वाक्य मेरे दिमाग में अभी भी बज रहा है … शायद मैं उस वाक्य को जिंदगी भर ना भूल पाऊं | आदमी छोटा बड़ा नहीं होता … दिल छोटे बड़े होते हैं | कुछ खुशियों को पैसे में नहीं तोला जा सकता | वो सबके लिए सुलभ हैं फिर भी मैं , मेरा मुझसे में हम क्या -क्या खोते जा रहे हैं |आज बरबस ही राजकपूर जी पर फिल्माया गीत गुनगुनाने का जी कर रहा है …. किसी को हो न हो हमें है ऐतबार , जीना इसी का नाम है ….. वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … भाग्य में रुपये चोंगे को निमंत्रण चार साधुओं का प्रवचन किसान और शिवजी का वरदान आपको    “ मैं मेहनत के पैसे लेता हूँ , मदद के नहीं  “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: short stories, short stories in Hindi, motivational stories,Help

गुरु पूर्णिमा : गुरूजी हम बादल तुम चन्द्र

  गुरु पूर्णिमा एक ऐसा त्यौहार है | जब हम अपना स्नेह गुरु के प्रति व्यक्त कर सकते हैं | गुरु और शिष्य का अनोखा संबंध है | गुरु शिष्य को मांजता है , निखारता है और परमात्मा की ओर उन्मुख करता है | कई बार हम गुरु और शिक्षक में भ्रमित होते हैं | वास्तव में शिक्षक वो है जो हमें लौकिक जीवन में अग्रसर होने के लिए शिक्षा देता है और गुरु वो है हमारा आध्यात्मिक मार्ग प्रशस्त करता है | आज का दिन उसी गुरु के प्रति आभार व्यक्त करने का दिन है |  यूँ पूर्णिमा तो साल में बारह होती है | सब सुंदर , सब पवित्र फिर आसाढ़ पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा के रूप में क्यों मनाते हैं ? जबकि आसाढ़ में तोअक्सर बादल होने की वजह से चाँद पूरा दिखता भी नहीं हैं | ये प्रश्न हम सब के मन मेंउठता होगा | पौराणिक मान्यताओं के अनुसार क्योंकि आसाढ़ पूर्णिमा के दिन ही व्यास ऋषि का जन्म हुआ था  इसलिए | आसाढ़ पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा मनाते हैं |   आखिर आसाढ़ पूर्णिमा को ही क्यों मनाई जाती है गुरु पूर्णिमा                                                 यही प्रश्न  एक बार एक शिष्य ने आध्यात्मिक गुरु ओशो से किया | ओशो ने जवाब दिया जो मान्यताओं से इतर है | आज मैं वही जवाब आप सब के सामने रख रही हूँ | ओशो के  अनुसार सारी पूर्णिमाओं में शरद पूर्णिमा सबसे सुन्दर होती है | पर उसके स्थान पर आसाढ़ पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा के रूप में इसलिए मनाया जाता है क्योंकि तब आसमान में बादल होते हैं | ओशो बादलों की तुलना शिष्यों से करते हैं | और गुरु की चंद्रमा से |अब  गुरु चंद्रमा क्यों है | क्योंकि ये प्रकाश  या ज्ञान उसका अपना नहीं है | ये उसने सूर्य से लिया है | और इसे वो वितरित कर रहा है | शिष्य सीधे सूर्य तक नहीं जा सकते |क्योंकि वो उस तेज को सहन नहीं कर सकते | तब उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा | ऐसे में उन्हें गुरु की आवश्यकता होती है | जब शिष्य भी चंद्रमा के सामान चमकने लगता है तब उसे परमात्मा प्राप्त होता है | इसी लिए गुरु का महत्व है | इसीलिए कहा गया है ….      “ गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लगो पाय बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय “     आसाढ़ पूर्णिमा से शरद पूर्णिमा तक की यात्रा              अब  तुलनात्मक दृष्टि से देखे तो  शरद पूर्णिमा में बादल होते ही नहीं | जब शिष्य नहीं तो गुरु कैसा | गुरु का वजूद ही शिष्य से है | आसाढ़ पूर्णिमा में शिष्य है | बादल की तरह , जिसका मन यहाँ – वहाँ  भटकता रहता है |  वो श्याम रंग का है क्योंकि अज्ञान के अन्धकारसे भरा हुआ है | अभी ही गुरु की आवश्यकता है शरद पूर्णिमा या किसी अन्य में नहीं |गुरु इस अज्ञान को दूर कर शिष्य को निर्मल और पवित्र कर देता है |आसाढ़ पूर्णिमा से शरद पूर्णिमा तक की यात्रा ही शिष्य का अध्यन काल है जब वो गुरु से हरी तक पहुँच जाता है |    कैसे हो सच्चे गुरु गुरु की पहचान                                      अब प्रश्न  ये उठता है की सच्चे गुरु की पहचान कैसे हो | दुनियावी गुरु तो बहुत हैं | जो मार्ग दिखाने ने के स्थान पर भटका भी सकते हैं | इसके लिए एक छोटी सी कहानी है | एक बार एक व्यक्ति किसी  आध्यात्मिक गुरु से अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर चाहता था | पर वो चाहता था की गुरु योग्य हो | वह अपने गाँव में पीपल के पेड़ के नीचे बैठे बाबा से मिला | उसने कहा मुझे ऐसा गुरु चाहिए जो मेरे सब प्रश्नों का उत्तर दे सके | क्या ऐसा कोई गुरु है , काया कभी मुझे वो मिलेगा , क्या आप उस तक मुझे पहुंचा सकते हैं ? बाबा बोले ,” बेटा वो गुरु तुम्हें जरूर मिलेगा | पर इसके लिए जरूरी है सच्ची अलख जगना | पर फिलहाल मैं उसकी पहचान तुम्हें बता देता हूँ | बाबा ने उस गुरु  के कद , काठी , आँखों के रंग आदि की पहचान बता दी | वो जहाँ मिलेगा यह भी बता दिया | उसके पास के दृश्य भी बता दिए | वो व्यक्ति बहुत खुश हो गया | उसने तुरंत बाबा के पैर छुए और कहा ,” आपका बहुत उपकार है बाबा , आपने मेरे गुरु का इतना विस्तृत वर्णन दे दिया | मैं उन गुरु महाराज को चुटकियों में ढूंढ लूँगा | अब मुझे जाने की आज्ञा  दें | मैं यूँ गया और यूँ आया | फिर आपको भी उन्प्रश्नों के उत्तर बताऊंगा |                             व्यक्ति चला गया | गाँव , गाँव ढूंढता रहा | ढूंढते – ढूंढते २० वर्ष बीत गए | पर वैसा गुरु न मिला | वो निराश हो गया | लगता है उसके प्रश्नों का उत्तर कभी नहीं मिलेगा | उसने सोंचा चलो अपने गाँव वापस चलूँ , लगता है गुरु का मिलना मेरे भाग्य में नहीं है | उत्तर न मिलने पर उसे बहुत बेचैनी थी | जब वो गाँव पहुंचा तो वही बाबा उसे पीपल के पेड़ के नीचे बैठे दिखाई दिए | उसने सोंचा उन्हें बताता चलूँ की मुझे उनके द्वारा बताया गया गुरु कहीं नहीं मिला | जब ऐसा गुरु था ही नहीं तो उन्होंने मुझे भटकाया ही क्यों | वो बाबा भी अब वृद्ध हो चुके थे | व्यक्ति जब बाबा के सामने पहुंचा तो देख कर दांग रह गया की ये तो वही गुरु हैं जिन्हें वो पिछले २० साल से ढूंढ रहा था | वो तुरंत बाबा के चरणों में गिर गया और बोला ,” बाबा आप तो वही हैं फिर आपने मुझे उस समय क्यों नहीं बताया |                          … Read more

आखिर निर्णय लेने से घबराते क्यों हैं ?

      सुनिए ,  आज मीरा के घर पार्टी में जाना है , मैं कौन सी साड़ी पहनूँ | ओह , मेनू कार्ड में इतनी डिशेज , ” आप ही आर्डर कर दो ना , कौन सी सब्जी  बनाऊं …. आलू टमाटर या गोभी आलू | देखने में ये एक पत्नी की बड़ी प्यार भरी बातें लग सकती हैं …. परन्तु इसके पीछे अक्सर निर्णय  न ले पाने की भावना छिपी होती है | सदियों से औरतों को इसी सांचे में ढला गया है कि उनके हिस्से का निर्णय कोई और लेता है और वो बस उस पर मोहर लगाती हैं | इसको Decidophobia कहते हैं | १९७३ में वाल्टर कॉफ़मेन ने इसके ऊपर एक किताब भी लिखी थी | ये एक मनोवैज्ञानिक रोग है जिसमें व्यक्ति छोटे से छोटे DECISION लेने में अत्यधिक चिंता , तनाव , बेचैनी से गुज़रता है | आखिर  निर्णय लेने से घबराते  क्यों हैं ? / How-to-overcome-decidophobia-in-hindi मेरा नाम शोभा है | मेरी उम्र ७२ वर्ष है | मेरे चार बच्चे हैं | चारों  अपनी गृहस्थी में मस्त हैं | मैं -नाती पोते वाली,  दादी और नानी हूँ | मेरी जिन्दगी का तीन चौथाई हिस्सा रसोई में कटा है | परन्तु अभी हाल ये है कि मैं सब्जी काटती हूँ तो बहु से पूछती हूँ …. ” भिंडी कितनी बड़ी काटू , चावल दो बार धोऊँ  या तीन बार , देखो दाल तुम्हारे मन की घुट गयी है या नहीं |  बहु अपना काम छोड़ कर आती है और बताती है , ” नहीं मम्मी , नहीं ये थोडा छोटा करिए , दाल थोड़ी और घोंट लीजिये आदि -आदि | आप सोच रहे होंगे कि मैं अल्जाइमर्स से ग्रस्त हूँ या मेरी बहु बहुत ख़राब है , जो अपनी ही मर्जी का काम करवाती है | परन्तु ये दोनों ही उत्तर सही नहीं हैं | मेरी एक ही इच्छा रहती है कि मैं घरेलू काम में जो भी बहु को सहयोग दूँ वो उसके मन का हो | आखिरकार अब वो मालकिन है ना …. उसको पसंद न आये तो काम का फायदा ही क्या ? पर ऐसा इस बुढापे में ही नहीं हुआ है | बरसों से मेरी यही आदत रही है … शायद जब से होश संभाला तब से | बहुत पीछे बचपन में जाती हूँ तो जो पिताजी कहते थे वही  मुझे करना था | पिताजी ने कहा साड़ी पहनने लगो , मैंने साड़ी  पहनना शुरू किया | पिताजी ने कहा, ” अब तुम बड़ी हो गयी हो , आगे की पढाई नहीं करनी है” | मैंने उनकी बात मान ली | शादी करनी है … कर ली | माँ ने समझाया जो सास कहेगी वही करना है अब वो घर ही तुम्हारा है | मैंने मान लिया | मैं वही करती रही जो सब कहते रहे | अच्छी लडकियां ऐसी ही तो होती हैं …. लडकियाँ पैदा होती हैं …. अच्छी लडकियां बनायीं जाती हैं |  आप सोच रहे होंगे , आज इतने वर्ष बाद मैं आपसे ये सब क्यों बांटना चाहती हूँ ? दरअसल बात मेरी पोती की है | कल मेरी बारह वर्षीय पोती जो अपने माता -पिता के साथ दूसरे शहर में रहती है  आई थी वो मेरे बेटे के साथ बाज़ार जाने की जिद कर रही थी , मैं भी साथ चली गयी | उसे बालों के क्लिप लेने थे | उसने अपने पापा से पूछा , ” पापा ये वाला लूँ या ये वाला ?” …. ओह बेटा ये लाल रंग का तो कितना बुरा लग रहा है , पीला वाला लो | और उसने झट से पीला वाला ले लिया | बात छोटी सी है , परन्तु मुझे अन्दर तक हिला गयी | ये शुरुआत है मुझ जैसी बनने की …. जिसने अपनी जिन्दगी का कोई निर्णय कभी खुद लिया ही नहीं , क्योंकि मैंने कभी निर्णय लेना सीखा ही नहीं | कभी जरूरत ही नहीं हुई | धीरे-धीरे निर्णय लेने की क्षमता ही खत्म हो गयी | वो कहते हैं न जिस मांस पेशी  को  इस्तेमाल ना करो वो  कमजोर हो जाती है | मेरी निर्णय  लेने की क्षमता खत्म हो गयी थी | मैंने पूरी जिंदगी दूसरों के मुताबिक़ चलाई |  मेरी जिंदगी तो कट गयी पर ये आज भी बच्चों के साथ हो रहा है …. खासकर बच्चियों के साथ , उनके निर्णय माता -पिता लेते हैं और वो निर्णय लेना सीख ही नहीं  पातीं | जीवन में जब भी विपरीत परिस्थिति आती है वो दूसरों का मुंह देखती हैं, कुछ इस तरह से  राय माँगती है कि उनके हिस्से का  निर्णय कोई और ले ले | लड़के बड़े होते ही विद्रोह कर देते हैं इसलिए वो अपना निर्णय लेने लग जाते हैं | निर्णय न  लेने की क्षमता के लक्षण  1) प्रयास रहता है की उन्हें निर्णय न लेना पड़े , इसलिए विमर्श के स्थान से हट जाते हैं | 2) चाहते हैं उनका निर्णय कोई दूसरा ले | 3)निर्णय लेने की अवस्था में मनोवैज्ञानिक दवाब कम करने के लिए कुंडली , टैरो कार्ड या ऐसे ही किसी साधन का प्रयोग करते हैं | 4)छोटे से छोटा निर्णय लेते समय एंग्जायटी के एटैक पड़ते हैं 5) रोजमर्रा की जिंदगी मुश्किल होती है | माता -पिता बच्चों को निर्णय लेना सिखाएं  आज जमाना बदल गया है , बच्चों को बाहर निकलना है , लड़कियों को भी नौकरी करनी है …. इसी लिए तो शिक्षा दे रहे हैं ना आप सब | लेकिन उन्हें  लड़की  होने के कारण या अधिक लाड़ -दुलार के कारण आप निर्णय लेना नहीं सिखा रहे हैं तो आप उनका बहुत अहित कर रहे हैं | जब वो नौकरी करेंगी तो ५० समस्याओं को उनको खुद ही हल करना है | आप हर समय वहां नहीं हो सकते | मेरी माता पिता से मेरी ये गुजारिश है कि अपने बच्चों को बचपन से ही निर्णय लेने की क्षमता विकसित करें | छोटी -छोटी बात पर उनके निर्णय को प्रात्साहित करें , जिससे भविष्य में उन्हें निर्णय लेने में डर  ना लगे | अगर उनका कोई निर्णय गलत  भी निकले तो यह कहने के स्थान पर कि मुझे पता था ऐसा ही होगा ये कहें कि कोई  … Read more

बॉर्डर वाली साड़ी

बेटियाँ पराया धन होती हैं | मायके पर उनका अधिकार शादी के बाद खत्म हो जाता है …. लेने का ही नहीं देने का भी | ये परिभाषा मुझे बॉर्डर वाली साड़ी  ने सिखाई | बॉर्डर वाली साड़ी ये वो दिन थे जब सूरज इतना नही तपता था , पर एक और तपिश थी जिसे बहुधा औरतें अपने मन में दबाये रहतीं थी … बहुत जलती थीं  पर आधी आबादी ने इसे अपना भाग्य मान लिया था | उन दिनों , हां , उन्हीं में से कुछ  दिनों में जब बॉर्डर वाली साड़ी बहुत फैशन में थी और अपने कपड़ों पर कभी ध्यान न देने वाली माँ की इच्छा बॉर्डर वाली साड़ी खरीदने की हुई | वो हर दुकान पर बॉर्डर वाली साड़ी को गौर से देखतीं , प्यार से सहलातीं और आगे बढ़ जातीं | न कोई फरमाइश न रूठना मनाना | बड़ी ही सावधानी से अपने चारों  ओर एक वृत्त खींचती आई हैं औरतें , जिसमें वो अपने जाने कितने अरमान छुपा लेतीं हैं | इस वृत्त में किसी का भी प्रवेश वर्जित है …खुद उनका भी | ये वो समय था , जब  हमारा घर बन रहा  था ,  खर्चे बहुत  थे | उस पर हम पढने वाले भाई –बहन , कभी पढाई का कभी त्योहारों का तो कभी बीमारी अतिरिक्त खर्चा आ ही जाता | इसलिए माँ भी अन्य औरतों की तरह  खुद ही अपनी इच्छा स्थगित कर देतीं  | बुआ, चाची वैगेरह जब भी बॉर्डर वाली  साड़ी पहन कर आती माँ बहुत ध्यान से देखतीं , खुले दिल से प्रशंसा करती पर अपने लिए नहीं कहतीं |  समय बीता और एक दिन वो भी आया जब माँ के लिए बॉर्डर वाली साड़ी आई ,पर  जब तक माँ के लिए बॉर्डर वाली साडी आई तब तक उसका फैशन जा चुका था | ज्यादातर महिलाओं ने अपनी बॉर्डर वाली साड़ी अपनी  कामवालियों को दे दी थी | हर दूसरी कामवाली वही पहने दिखती | माँ ने जब वो साड़ी पहली बार पहनी तो हर कोई टोंकता अरे , ये क्या पहन ली , अब तो ये कोई पहनता नहीं , हमने तो अपनी काम वाली को दे दी | दो चार बार पहन कर माँ ने भी वो साड़ी  किसी को दे दी | माँ ने तब भी कोई शिकायत नहीं की पर मेरे मन में एक टीस गड  गयीं | बाल बुद्धि में ये  सोचने लगी ,जब मैं बड़ी हो कर नौकरी करुँगी और जब फिर से बॉर्डर  वाली साड़ी का फैशन आएगा तो सबसे पहले माँ को ला कर दूँगी | समय अपनी रफ़्तार से गुजरता चला गया | संयोग से मेरी शादी के बाद एक बार फिर बॉर्डर वाली  साड़ी का फैशन आया | बचपन का सपना फिर से परवान चढ़ने लगा | मेरे पास स्वअर्जित धन भी था | बस फिर क्या था अपने सपने को सच्चाई का रंग देने के लिए  उसी दिन बाज़ार जा पहुंची | सैकड़ों साड़ियाँ उलट –पुलट डाली | कोई साड़ी पसंद ही नहीं आ रही थी या फिर दुनिया में कोई ऐसी साड़ी  बनी ही नहीं थी जिसमें मैं अपने सपने स्नेह और अरमान लपेट सकती | दिन भर की मशक्कत और धूप  में पसीना –पसीना होने के बाद आखिरकार एक साड़ी मिली जिसका रंग मेरे सपनों के रंग से मेल खाता था | झटपट पैक करायी | जब तक वो साड़ी मेरे घर में रही मैं रोज उसे पैकेट से निकाल कर निहारती और ये सोच कर खुश होती कि माँ कितनी खुश होंगी | अपनी कल्पनाओं में माँ को उस साड़ी को पहने हुए देखती … मुझे माँ रानी परी से कम न लगतीं | मुझे महसूस हो रहा था कि हर रोज वो साड़ी  मेरे स्नेह के भर से भारी होती जा रही थी | कल्पना के पन्नों से निकल कर वो दिन भी आया जब मैं  मायके गयी और माँ को वो  साड़ी दी | माँ की आँखे ख़ुशी से छलछला गयी , अरे अब तक याद है तुमें कहते हुए वो रुक गयीं , फिर बोलीं , “ ये मैं कैसे ले सकती हूँ , लड़की का कुछ लेना  ठीक नहीं है , परंपरा के खिलाफ है , तुम पहनों , तुम पर अच्छी लगेगी | हम दोनों की आँखों में आंसूं थे |  मुझे लगा समय रुक गया है , बाहर की सारी  आवाजे सुनाई देना बंद हो गयीं ,केवल एक ही आवाज़ आ रही थी अन्दर से … बहुत अंदर से … हाँ माँ  … मैं अब इस घर की बेटी कहाँ रही , मैं तो दान कर दी गयी हूँ , परायी हो गयी हूँ | मेरे और माँ के बीच में परंपरा खड़ी थी | मैं जानती थी आस्था को तर्क  से काटने के सारे उपाय विफल होंगे | मैंने माँ की गोद में मुँह छिपा लिया , ठीक उस बच्चे की तरह जो माँ की मार से बचने के लिए माँ से ही जा चिपकता है |  दो औरतें जो एक दूसरे का दर्द समझती थीं पर असहाय थीं  क्योंकि एक परंपरा के आगे विवश थी और दूसरी विफल |  तभी पिताजी आये | बिना कुछ कहे वो समझ गए | पिता में भी एक माँ का दिल होता है | माँ से बोले , “ क्यों बिटिया का दिल छोटा करती हो , ले लो , परंपरा है , ये  बात सही है तो दो की चीज चार में ले लो , बिटिया का मन भी रह जाएगा और परंपरा भी | मुझे ये बिलकुल वैसा ही लगा जैसे कीचड में ऊपर से नीचे तक सने व्यक्ति को दो बूँद गंगा जल छिड़क कर पवित्र मान लिया जाता है | फिर भी मैंने स्वीकृति में सर हिला दिया क्योंकि उस साड़ी को वापस लाने की हिम्मत मुझमें नहीं थी | मुझे उस साड़ी के बदले में एक कीमती उपहार मिल चुका था | मेरे  वापस जाने वाले दिन माँ ने वो साड़ी पहनी | सच में माँ बिलकुल मेरे सपनों की परी जैसी लग रहीं थी | मेरी आँखे बार –बार भर रहीं थी |  सब कुछ धुंधला दिखने के बावजूद एक चीज मुझे साफ़ –साफ़ दिख रही थी ….माँ की साड़ी से निकला हुआ … Read more

मैं , महेंद्र सिंह धोनी , क्रिकेट और बच्चों का कैरियर

अगर आप जीवन में कुछ करना चाहते हैं , कुछ बनना चाहते हैं तो आपको बहुत पढाई करनी होगी | बचपन में ऐसी  ही सोच –समझ ज्यादातर लोगों की तरह मेरे दिमाग में भी थी | परन्तु क्रिकेट के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के साहस , लगन और कठोर परिश्रम ने मेरी सोच को बदल दिया | मैं , महेंद्र सिंह धोनी , क्रिकेट और बच्चों का कैरियर  अभी हाल में ही फुटबॉल का ‘वर्ल्ड कप “ खत्म हुआ | आज खेलों के प्रति पैशन बढ़ रहा है | न सिर्फ देखने का बल्कि खेलने का भी | क्योंकि अब सब को समझ आ गया है कि खेल हो नृत्य हो , या कोई और कला … हर किसी में कैरियर बन सकता है धन आ सकता है | ऐसे में मुझे वो समय याद आता है जब नानाजी हम लोगों को रटाया करते थे , “खेलोगे कूदोगे तो होगे ख़राब , पढोगे लिखोगे तो बनोगे नबाब “ धीरे –धीरे ये बात दिमाग में बैठती गयी  या नवाब बनने के लालच में कूदने वाली  रस्सी , खो –खो , विष अमृत , पोषम पा सब को छोड़कर किताबो से दोस्ती कर ली |  खेलोगे कूदोगे होगे खराब   खेलोगे कूदोगे होगे खराब की विचारधारा के साथ हम बड़े होने लगे | पति भी (IIT, कानपुर  से ) पढ़ाकू किस्म के जीव मिले | ये अलग बात है कि उनकी रूचि साइंस और टेकनोलोजी विषय में रहती है और हम विज्ञानं से लेकर कर साहित्य , सुगम साहित्य , असाहित्य कुछ भी पढ़ डालते | पढने की आदत का आलम ये है कि आज़ भी अगर घर लौटने  में थोड़ी देर हो जाए तो बच्चे मजाक बनाते है कि मम्मी लगता है मूंगफली वाले ने अख़बार का बना जो ठोंगा दिया था आप उसकी कहानी पढ़ने लगी | उनकी बात गलत भी नहीं है | अगर कुछ लिखा होता है तो हम पढ़ते जरूर हैं | खैर बात उन दिनों की हो रही है जब हम सिर्फ पढाई को ही अच्छा समझते थे | ऐसा नहीं है कि खेल और खिलाड़ियों के बारे में हम जानते नहीं थे | कई मैच भी देखे थे | हमें वर्ल्ड कप का वो  फाइनल की भी याद है जिसमें कपिल देव की कप्तानी में भारत ने पहला वर्ल्ड कप जीता था | हम उस समय छोटे थे , कई पड़ोसी भी हमारे घर आये हुए थे और हर बॉल  में हम लोग हाथ जोड़ रहे थे कि इस में छक्का पड़ जाए | काफी समय तक क्रिकेट में हमारी रूचि भी इसी लिए रही कि इसमें हमारा देश जीतता है | खिलाड़ियों के प्रति श्रद्धा  भाव था पर एक खिलाड़ी बनने में कितनी संघर्ष और कितनी मेहनत है इस बारे में हम सोचते नहीं थे | महेंद्र सिंह धोनी के घर के सामने मेरा फ़्लैट  बात  तब की है, जब  शादी के तुरंत बाद हम पति के साथ रांची “ श्यामली कॉलोनी “ में रहने गए | नयी गृहस्थी  थी ज्यादा काम था नहीं , उस पर सुबह जल्दी उठने की आदत …. पति की नींद न खुल जाए ये सोच  सीधे बालकनी की शरण में ही जाते | सामने महेंद्र सिंह धोनी का फ़्लैट था | उस समय वो नव-युवा थे और हम लोगों की जान –पहचान नहीं हुई थी | मैं देखा करती थी कि सुबह चार-पाँच  बजे उसके दोस्त बुलाने आ जाते और वो बैट  ले कर निकल पड़ते  | कभी –कभी उसकी माँ और बहन भी नीचे छोड़ने आती , पिताजी नहीं आते थे | क्योंकि मैं पढाई को ही ऊपर रखती थी और लगता था अच्छा कैरियर बनाने के लिए पढना बहुत जरूरी है,  इसलिए मेरे दिमाग में बस एक ही बात आती ये लड़का बिलकुल पढ़ता  नहीं है , बस खेलता रहता है जरूर फेल हो जाएगा | तुरंत मेरी  कथा -बुद्धि सक्रिय हो जाती , पिताजी नहीं आते हैं , जरूर वो डाँटते होगे पर माँ और बहन पक्ष ले लेती होंगीं | अक्सर ऐसा ही होता है , माँ के लाड़ से बच्चे बिगड़ जाते हैं | एक दिन यही बात अपने पति से कह दी , “ ये सामने वालों का लड़का बिलकुल पढता –लिखता नहीं है बस खेलता रहता है , जरूर फेल हो जाएगा | पति हंसने लगे और बोले , “ अरे वो रणजी में खेलता है , पूरे रांची को उस पर नाज़ है , इंडियन टीम में आ सकता है | उस समय से धोनी को देखने का दृष्टिकोण थोडा बदलने लगा | थोड़ी बातचीत भी हुई | एक खिलाड़ी को बनने में कितना संघर्ष करना पड़ता है यह बारीकी से देखने और समझने का मौका मिला | अब सुबह चार –साढ़े  चार बजे बैट ले कर निकलता  धोनी मुझे अर्जुन से कम न लगता | उफ़ , हर क्षेत्र में कितनी मेहनत  है | मेरा नजरिया बदलने लगा | मुझे लगने लगा खेल हो सिनेमा हो , कोई अन्य  कला हो , व्यापार हो या पढाई …. सब में सफलता के लिए कुछ बेसिक नियम लगते हैं वो हैं … जूनून, कठोर परिश्रम , असफलता को झटक कर फिर से मैदान में उतरना , और लेज़र शार्प फोकस | बच्चों को न उतारे प्रतिशत की रेस में  आज हम सब जानते हैं कि पढाई के प्रतिशत के अतिरिक्त भी बहुत सारी  संभावनाएं है | फिर भी हम सब ने अपने बच्चों को प्रतिशत की रेस में उतार दिया है बच्चा लायक है नहीं लायक है , दौड़ सकता है नहीं दौड़ सकता है पर रेस में भागने को विवश है | मेरा नज़रिया धोनी की वजह से बदला था हालांकि जब तक धोनी इंडियन टीम में सिलेक्ट हुआ हम राँची  छोड़ चुके थे | फिर और लोगों की सफलता पर भी गौर किया | दरअसल हर बच्चे में एक अलग तरह की प्रतिभा होती है | कई बार माता –पिता यहाँ तक कि बच्चे भी उससे अनभिज्ञ रहते हैं | हर बच्चे का कुछ पैशन हो या ये समय पर समझ आ जाए ये जरूरी भी नहीं है , इसलिए भीड़ कुछ ख़ास प्रतियोगी परीक्षाओं की तरफ ही भागती है | यहाँ पूरा दोष माता -पिता को भी … Read more

आखिरी दिन

कहते हैं “ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या “| जीवन के आखिर दिन ये सपना टूट जाना है | प्रश्न ये भी है कि आखिरी दिन के बारे में सोच कर जीवन का सुंदर स्वप्न क्यों ख़राब किया जाये | कविता -आखिरी दिन  उस दिन भी वैसे ही होगी सुबह अल सुबह वैसे ही अलासाए हुए उठकर गैस पर चढ़ा दूंगीं चाय की पतीली उफनते दूध के साथ उफन जाएगा कुछ दर्द  कुछ निराशा उस दिन भी होगा बच्चों से  हरी सब्जी खाने को लेकर विवाद उस दिन भी झुन्झुलाउंगी सोफे पर रखे तुम्हारे गीले तौलिये पर लिखूंगी सब्जी भाजी का हिसाब बनाउंगी अगले महीने का बजट भविष्य की गुल्लक में संभाल  कर रख दूँगी कुछ सपनों की चिल्लर उस दिन भी बहुत कुछ बाकी होगा कल करने को बहुत कुछ बाकी होगा कल कहने को बहुत कुछ बाकी होगा कल के लिए पर कल नहीं होगा वो दिन जो मेरी जिंदगी का आखिरी दिन होगा मृत्यु आएगी दबे पाँव , चोरों की तरह बिना कोई पूर्व सूचना दिए बिना अंतिम इच्छा पूंछे छीन कर ले जायेगी जिन्दगी कुछ साँसे टूटते ही टूट जाएगा भ्रम मुझे मेरे होना का वो दिन जिस दिन मेरी  जिंदगी का आखिरी दिन होगा आखिरी दिन कहते हैं पहले से ही मुक़र्रर है भले ही हो यह सबसे बड़ा सच पर लाखों -करोणों लोगों की तरह मैं कल्पना भी नहीं करती उसकी करना भी नहीं  चाहती भ्रम ही सही स्वप्न ही सही पर ये जीवन , जीवंतता से भरने का अवसर तो देता है सफ़र को रोमांचक बना देता है उस दिन तक जिस दिन मेरी जिन्दगी का आखिरी दिन होगा आखिरी दिन के बाद भी खत्म नहीं होगी यात्रा बन पथिक चलना होगा आगे और आगे कि अनंत जीवन में जीवन और मृत्यु की पुनरावृत्ति में जीवन और मृत्यु के महामिलन का बस क्षितिज है वो दिन जो  मेरी जिंदगी का आखिरी दिन होगा वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … जाने कितनी सारी बातें मैं कहते -कहते रह जाती हूँ लज्जा फिर से रंग लो जीवन टूटते तारे की मिन्नतें आपको    “ आखिरी दिन    “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita, last day of life, mrityu, life, death

गलतियां जिसके कारण relationship counseling मदद नहीं कर पाती

                                एक समय था जब पति -पत्नी में झगडे होते थे तो परिवार के बड़े बुजुर्ग संभाल लेते थे | परन्तु आज परिस्थितियाँ अलग हैं | आज एकल परिवार है और उस पर भी ” my life my rules ” के चलते बड़े -बूढों की दखलंदाजी पूर्णतया निषिद्ध कर दी गयी है | ऐसे में छोटे झगड़ों के तलाक तक  पहुँचते देर नहीं लगती है | पर तलाक हमेशा समस्या का समाधान नहीं होता | ये हमेशा जरूरी भी नहीं होता |   हर किसी का अपने जीवन साथी में बहुत बड़ा ” emotional investment ” होता है | ये बहुत पीड़ा दायक प्रक्रिया है , खासकर तब जब बच्चे हो चुके हो , जिन्हें माँ या पिता के बीच में से एक को चुनना पड़ता है | इसलिए आजकल दम्पत्ति टूटते रिश्तों को सँभालने के लिए  relationship counselling की मदद लेते हैं | 3 गलतियाँ जिसके कारण relationship counseling आपकी मदद  नहीं कर पाती relationship counselling  नए ज़माने का शब्द है और शायद नए ज़माने के लोगों को ही इसकी ज्यादा जरूरत भी है | लोग इस आशा से  काउंसलर के पास जाते हैं कि उनके रिश्ते में फिर से पहली वाली बात आ जाए , या जो भी गलतफहमी आपस में  हो गयी है वो ठीक हो जाए | अक्सर ऐसा होता भी है | एक अच्छी सलाह के साथ दोनों वापस आते हैं और ख़ुशी -ख़ुशी अपनी जिन्दगी शुरू करते हैं |  relationship  therapist मधुरिमा बजाज कहती हैं कि  एक दूसरे को सुनना , समझना या बात करना एक स्किल है जिससे थेरेपी की जाती है | बहुत से लोग छोटे झगड़ों में ही आ जाते हैं और समस्या आसानी से सुलझ जाती है | पर बहुत से लोग बात तलाक तक पहुँचने पर आते हैं वो बहुत आहत होते हैं उनमें एक दूसरे के प्रति गुस्सा बहुत भरा  होता है | ऐसे में उनको संभालना मुश्किल होता है | परन्तु कई लोग इस मन: स्थिति के साथ आते हैं कि सब प्रयास कर लिए चलो इसे भी  आखिरी दांव की तरह कर के देख लेते हैं | उनको देख कर यह तय करना मुश्किल हो जाता है की क्या वो वास्तव में अपना रिश्ता बचाना चाहते हैं ? जाहिर है ऐसे रिश्तों को बचाना मुश्किल हो जाता है | अगर आप भी किसी relationship  counseling के लिए जाना चाहते हैं | तो अपना समय , पैसा और ताकत बर्बाद होने से बचने के लिए उन तीन गलतियों से दूर रहना होगा  जिन्हें करने वाले लोगों की counselling कोई मदद नहीं कर पाती | 1) वो  एक दूसरे की गलतियां देखने से बाज नहीं आते                                                        ऋतिक और सान्या  जब काउंसलर के पास गए तो वो दोनों वहीँ झगड़ पड़े | ऋतिक सान्या पर  आरोप लगाये जा रहा था और सान्या  ऋतिक पर | दोनों दूसरे का पक्ष सुनने को तैयार ही नहीं थे | यही तो वो घर में करते थे फिर काउन्सलिंग की फीस देने और यहाँ आने से क्या फायदा | दरअसल जब आप काउंसेलर के पास जाने का मन बनाये तो अपना ” rigid attitude ” लेकर न जाएँ | ये सोच कर न जाए कि ये केवल दूसरे की गलती है जिस कारण रिश्ते में समस्या आ रही है | यहाँ जरूरी है की आप खुले दिमाग से जाए , आप सुनाने नहीं सुनने जा रहे हैं | सुना तो आप घर में भी लेते थे | यहाँ ये सोच कर जाइए कि आपको खुले दिल से दूसरे की बात समझनी है | बीना को   नौकरी करने का मन था , उसे लगता था उसकी शिक्षा व्यर्थ हो गयी है | किशोर चाहता था वो घर  में ही रहे | अक्सर वो बीना से कहता कि तुम्हें तो तफरी करने कला शौक है , घर में पैर बंधते नहीं है | और बीना उस पर मिडल क्लास मेंटेलिटी का लेबिल लगा देती | जिससे झगडा बढ़ जाता | जब दोनों खुले दिमाग से कोउन्लर के पास  गए तब किशोर को पता चला कि बीना अपनी सहेलियों के सामने छोटा महसूस करती है जो आज बाहर जा कर काम कर रहीं हैं व् पैसे कमा रहीं हैं , जबकि पढाई में वो उससे बहुत पीछे थीं | बीना को भी पता चला कि किशोर को भय है कि कामवाली ठीक से बेटे का  ध्यान नहीं रखेगी | बचपन में उसका चचेरा भाई बाथ  तब में गिर जाने के कारण दुनिया से चला गया , उस समय उसकी चाची पड़ोसन के घर में बैठ शादी का वीडियो देख रही थीं | दोनों ने एक दूसरे के पक्ष को समझा | जिसे वो घर में बहस के बीच नहीं समझते थे | बीच का रास्ता निकला | बीना ने एक ऐसे स्कूल में नौकरी की जिसमें छोटे बच्चों की डे केयर की सुविधा थी | बीना को सम्मान मिला और किशोर  भय मुक्त हुआ |  ऐसा तभी संभव हुआ जब दोनों ने एक दूसरे को सुना | एक दूसरे के प्रति खुले दिल से व् अपने को कुछ हद तक बदलने के वादे  के साथ गए | लेकिन अगर कोई जोड़ा सिर्फ अपनी बात सिद्ध करने के उद्देश्य से आता है तो उसकी शादी को बचना मुश्किल है | 2) ये केवल दो लोगों के बीच का मामला नहीं है                                                             ऐसे लोगों की counseling भी मुश्किल होती है | जो ये सोचते हैं की ये हमारे बीच का झगडा है और हम सुलझा लेंगे | दरअसल दो लोग नहीं लड़ रहे होते हैं दो बिलीफ सिस्टम लड़ रहे होते हैं | वो बिलिफ सिस्टम जो बचपन में अपने परिवार की परवरिश द्वारा बनते हैं | इसीलिए पहले लोग परिवार पर बहुत ध्यान देते थे | आज के बच्चे खुद चयन करते हैं और सोचते हैं … Read more

क्या आप भी मल्टी टेलेंटेड हैं ?

मल्टी   टेलेंटेड होना बहुत ख़ुशी की बात है पर मल्टी टेलेंटेड लोग सफल नहीं होते |  उनसे कम टेलेंटेड लोग ज्यादा सफल हो जाते हैं | ऐसा क्यों होता है ? अगर आप भी मालती टेलेंटेड हैं और सफलता के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो ये लेख आपके लिए है | क्या आप भी मल्टी टेलेंटेड हैं ?                          मन्नू एक प्रतिभाशाली लड़की है | ईश्वर जब प्रतिभाएं बाँट रहा था तो  उसकी तरफ न जाने क्यों ज्यादा मेहरबान हो गया | मन्नू बहुत अच्छा गाती है , जब सुर लगाती है तो लगता है कि सरस्वती साक्षात् उसके गले में प्रवेश कर गयीं है , सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते |  जब चित्र बनती तो चित्र बोल पड़ते | अभी कुछ दिन पहले गुलाब का फूल बनाया था , ऐसा लग रहा था ताज़ा डाली पर खिला है , बस अभी तोड़ लें | इसके आलावा मन्नू का फेशन सेन्स भी जबरदस्त है | कोई कपडा मिले उसे नया लुक कैसे देना है ये उसके दिमाग में तुरंत आ जाता और फिर शुरू हो जाता कपडे  को उस आकार में डालने की कवायद |   जो भी उसके सिले हुए कपडे देखता वो कह उठता … मन्नू तुम से बेहतर फैशन डिजाइनर तो कोई हो ही नहीं सकता |                                                      अक्सर लोग मन्नू से रश्क करते , उन्हें लगता मन्नू इतनी प्रतिभाशाली है , वो तो अपनी प्रतिभा के बलबूते पर खूब नाम और पैसा कमा लेगी | ऐसे बातें सुन कर मन्नू के पाँव जमीन पर नहीं पड़ते थे | उसे लगता था वो बड़ी होकर अपने हर हुनर  को प्रोफेशन बनाएगी | जैसे ही उसने 12 th किया तो उसने गायकी में आगे बढ़ने की सोची  | शुरू में तो उसे बहुत अच्छा लगा | लेकिन धीरे -धीरे उसे लगने लगा कि ये क्षेत्र उसके लिए नहीं है | घंटों रियाज के कारण वो पेंटिंग या फैशन डिजाइनिंग तो कर ही नहीं पाती | उसका मन उसे  पेंटिंग की और खींचने लगा | कुछ दिन पेंटिंग के बाद भी वो बोर हो गयी उसे लगा इससे तो अच्छा फैशन  डिजाइनिंग  थी | उसने फिर अपना कोर्स बदला और फैशन डिज़ानिंग में आ गयी |  ये सब करते -करते चार साल बीत गए थे | मन्नू  की सहेलियाँ जॉब करने लगीं थीं | कुछ जो उससे कम अच्छा गाती या , पेंटिंग करती थीं उन्होंने भी कहीं न कहीं पैर जमा लिए थे , वहीँ मन्नू एक कोर्स से दूसरे कोर्स की और भटक रही थी | मन्नू अवसाद से घिर गयी | उसे लगा वो जीवन में कुछ  नहीं कर पाएगी | एक  मल्टी टेलेंटेड लड़की जिससे बहुत आशाएं थी … कुछ न कर सकी | ये बात सिर्फ मन्नू की ही नहीं है …. बहुत सारे प्रतिभाशाली लोग अपनी तमाम प्रतिभाओं में से चुन नहीं पाते हैं कि वो किसे अपना कैरियर बनाएं |  वो इधर से उधर भटकते रहते हैं लिहाजा किसी चीज में सफल नहीं होते हैं , और अवसाद का शिकार होते हैं | इससे बचने के लिए मल्टी टेलेंटेड लोगों को शुरू से ही बहुत ध्यान देना होता है| चुनिए वो गुण जिसे आपको कैरियर बनाना है –                                               माना की आप के पास कई तरह की प्रतिभाएं हैं पर आपको उनमें से एक चुनना हो होगा | ये काम बचपन में जितनी जल्दी हो जाए उतना ही अच्छा  ताकि आप उस विधा में महारथ हासिल कर सकें | अब मान लीजिये  कोई लड़की है जो इंजीनियर बनना चाहती है व् उसे खाना बनाने का भी बहुत शौक है तो वो  एक शेफ व् इंजीनियर दोनों नहीं बन सकती | उसे बचपन में ही तय करना होगा कि दोनों प्रतिभाओं में से उसे किसे प्रोफेशन बनाना है और किसे हॉबी | प्रोफेशन वो है जिसे हम रोज ८ से १० घंटे आराम से कर सकते हैं | ऐसा नहीं है कि जिसे हमने प्रोफेशन के लिए चुना है  उसमें हम ऊबते नहीं है …. ऊबते हैं पर बनस्पत कम ऊबते हैं | हॉबी वो है जिसे करने में हमें अच्छा लगता है पर उसे रोज घंटों नहीं कर सकते | जैसे लेखन मेरा प्रोफेशन  है और  बुनाई  मेरी हॉबी या टीचिंग मेरा प्रोफेशन है और लेखन मेरी हॉबी | एक लक्ष्य निर्धारित कर के उसे निखारिये                                  किसी भी क्षेत्र में ज्ञान असीमित है | इसलिए जरूरी है कि अप एक लक्ष्य निर्धारित करके उसे निखारने का प्रयास करें | जैसे  आपने गायन को प्रोफेशन के लिए चुना है तो आप निर्धारित करिए कि आप कम से कम रोज चार घंटे अभ्यास करेंगे | इंजिनीयरिंग को चुना है तो रोज चार घंटे गणित व् विज्ञानं पढ़िए | आप जितनी गहराई में जायेंगे उतना स्पष्ट होते जायेंगे | अर्जुन ने हर रोज तीर चलाने का ही अभ्यास किया था … भाला फेंकने व् गदा चलाने का  अभ्यास उतना ही किया जितना जरूरी था पर तीर चलाने का अभ्यास उसने रात में जग -जग कर किया , क्योंकि उसे धनुर्धर बनना था | आप को भी जो बनना है पहला फोकस उसी पर होना चाहिए | जैसे कि कोई अपना परिचय देता है कि , ” मैं एक डॉक्टर हूँ , पर मैं लिखता भी हूँ , मेरे दो उपन्यास आ चुके हैं | अपने प्रोफेशन की गहराई में एक छोटा क्षेत्र चुनिए                                                जब आपने ये निर्णय कर लिया है कि आपको क्या करना है या कौन सा प्रोफेशन चुनना है तो उसकी गहराई में जाकर  उसका एक हिस्सा चुनिए | याद रखिये लेजर शार्प फोकस हीरे को काट  देता है | इस लेजर शार्प फोकस के … Read more

मैं तुम्हें हारने नहीं दूँगा , माँ

क्या किसी इम्तिहान में  हार , जिन्दगी की हार है , क्या फिर से कोशिश नहीं की जा सकती ,जबकि हमें पता है कि हर सफल व्यक्ति न जाने कितनी बार सफल हुआ है | एग्जाम के रिजल्ट से निराश हुए बच्चों के लिए … प्रेरक कथा -मैं तुम्हें हारने नहीं दूँगा , माँ बेटा फोन उठाओ ना , तीसरी बार जब पूरी  रिंग के बाद भी बेटे वैभव  ने फोन नहीं उठाया तो  मधु की आँखों से गंगा -जमुना बहने लगी , दिल तेजी से धड़कने लगा …. कुछ अनहोनी तो नहीं हो गयी | आज ही IIT का रिजल्ट आया है  और वैभव का सिलेक्शन नहीं हुआ था | रिजल्ट  वैभव ने घर पर ही देखा था पर उसे बताया नहीं , दोस्तों से मिल कर आता हूँ माँ कह कर तीर की तरह निकल गया |  उसने सोचा था अभी रिजल्ट नहीं निकला होगा … थोड़ी देर में आकर देखेगा | वो तो जब बड़ी बेटी घर आई और वैभव के रिजल्ट के बारे में पूंछने लगी तो  उसका ध्यान गया | बड़ी बेटी ने ही लैपटॉप खोल कर रिजल्ट देखा …. वैभव का सिलेक्शन नहीं हुआ था | उसी ने बताया रिजल्ट तो दो घंटे पहले निकल गया था | ओह … उसे माजरा समझते देर ना लगी …. वैभव ने रिजल्ट देख लिया , इसीलिये दुखी हो कर वो घर से बाहर चला गया | मधु का दिल चीख पड़ा … कितनी मेहनत की थी उसने , पिछली बार तो जब IIT में रैंक पीछे की आई थी तो उसने ही ड्राप कर रैंक सुधारने का फैसला लिया था | उसने बेटे की ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी समझ कर हाँ कर दी थी , पति विपुल की मृत्यु के बाद और था ही कौन जिससे वो राय मशविरा करती |विपुल जब उसके ऊपर तीनों बच्चों को छोड़ दूसरी दुनिया चले गए थे  , तब आगे के कमरे में केक बना कर अपना व् बच्चों का गुज़ारा चलाते हुए उसने कभी बच्चों को किसी तरह की कमी महसूस नहीं होने दी | बस यही प्रयास था बच्चे पढ़ लिख कर काबिल बन जाएँ | वैभव सबसे बड़ा था , उसके बाद दो बेटियाँ … वो अकेली कमाने वाली | उसने वैभव पर कभी दवाब भी नहीं डाला था पर  वैभव खुद ही  चाहता था कि वो  बहुत आगे बढे , जीते और अपनी माँ का नाम ऊँचा करे | इसी लिए तो दिन -रात पढाई में लगा रहता … न खाने की सुध न सोने की | जब भी वो  कुछ कहती तो उसके पास एक ही उत्तर होता ,  ” मैं तुम्हें हारने नहीं दूँगा , माँ ”  तो क्या वैभव इस हार को बर्दाश्त न कर के …. नहीं नहीं , ऐसा नहीं हो सकता सोचकर उसने फिर से फोन मिलाना शुरू किया | उसकी आँखों के सामने वो सारी  खबरे घूमने लगीं जो उन बच्चों की थीं जिन्होंने परीक्षाफल से निराश होकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली थी | उनमें से कई अच्छे लेखक बन सकते थे , कई इंटीरियर डेकोरेटर कई अच्छे शेफ …. पर …वो सब एक हार से पूरी तरह हार गए |  उसकी आँखों के आगे उन  रोती -बिलखती माओं के चेहरे घूमने लगे | आज क्या दूसरों की खबर उसकी हकीकत बन जायेगी … नहीं … उसने और तेज़ी से फोन मिलाना शुरू किया | तभी दरवाजे की घंटी बजी | वो बड़ी आशा से दरवाजा खोलने भागी | छोटी बेटी थी | माँ को बदहवास देखकर वो सहम गयी | बड़ी ने छोटी को संभाला | मधु ने निश्चय किया कि वो पुलिस को खबर  कर दे | बहुत हिम्मत करके उसने दरवाजा खोला …. सामने वैभव खड़ा था | उसने रोते हुए वैभव को गले लगा लिया |  दोनों बहने भी वैभव के गले लग गयी |  सब को देख कर हड्बड़ाये हुए वैभव ने पुछा ,  ” क्या हुआ है माँ … सब ठीक तो है , आप लोग इतने परेशान  क्यों हैं |  मधु ने रोते हुए सब बता दिया | ओह !कह कर वैभव बोला , ” माफ़ करना माँ मैंने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया | मैंने सोचा मैंने तो तुम्हें रिजल्ट बताया नहीं है , ये सच है कि  जब मैंने देखा कि मेरा सिलेक्शन नहीं हुआ है तो मुझे धक्का लगा  फिर मैंने देखा  मेरा दोस्त निशान जिसने मेरे साथ  ही ड्राप किया था उसका भी सिलेक्शन नहीं हुआ है | मुझे याद आया उसने दो दिन पहले ही कहा था कि  अगर मेरा सेलेक्शन  नहीं हुआ तो मैं गंगा बैराज से कूद कर जान दे दूँगा | उसी घबराहट में मैं उससे बात करने के लिए घर से निकल गया | वो अपने घर से जा चुका था , बाहर बारिश हो रही  थी | फोन भीग न जाए इसलिए मैंने  फोन उसके घर साइलेंट पर करके रख दिया और   निशान को खोजने निकल पड़ा | मैं  उसके कहे के अनुसार गंगा बैराज पर पहुंचा …. निशान वही था … वो कुछ लिख रहा था | मैंने जल्दी से जा कर उसे गले लगाया , हम दोनों देर तक रोते रहे |  जब चुप हुए तो मैंने उसे समझाया , ” मूर्ख क्या करने चला था , कभी सोचा  अपनी माँ के बारे में , तुझसे ये हार सहन नहीं हो रही और वो तेरा दुःख भी झेलेंगी और  सारी  जिन्दगी ये हार झेलेंगी की वो एक अच्छी माँ नहीं हैं | लोग तो यही कहेंगे ना कि माता -पिता बहुत दवाब डालते थे … जान ले ली अपने ही बच्चे की | तुझे केवल अपनी हार दिखी उनकी हार नहीं दिखी | निशान फिर रोने लगा , ” हां , सच कहा , मैं स्वार्थी हो गया था … उस समय मुझे अपने आलावा कुछ नहीं दिख रहा था | जीवन है तो फिर जीत सकते हैं … लेकिन मेरे माता -पिता जो हारते वो कभी ना जीत पाते | मधु अपने बेटे की मुँह से ऐसे बात सुन कर रोने लगी |  वैभव उसके पास आ कर बोला , ” माँ , तुम्हारे  लिए भी तो आसान  था जब पिताजी छोड़ कर चले … Read more

सिम्मों -(भाग -1)

बचपन में जब मैंने फिल्म “हाथी मेरे साथी “देखी थी तो मुझे इंसान और जानवर का ये प्यार भरा रिश्ता बहुत भाया  था | पर ऐसा रिश्ता सिल्वर स्क्रीन से निकल कर मुझे साक्षात देखने को मिलेगा , इसका मुझे आभास नहीं था |  सिम्मों , यूँ तो एक गाय थी ,एक मूक पशु , पर उसका और अम्माँ जी का एक अटूट बंधन  बन गया था ,वो रिश्ता जीवन पर्यंत चला | सिम्मों -(भाग -1)                                                   फोटो क्रेडिट -विकिमीडिया कॉमन्स  एक समय था जब मुझे हर जानवर जैसे  कुत्ता , बिल्ली , बकरी , यहाँ तक की गाय से भी डर लगता था | पर सिम्मों को घर लाने का सुझाव मैंने ही दिया था | मैंने निरोगधाम में देसी नस्ल की श्यामा गाय के दूध के गुणों के बारे में पढ़ा था , बस गाय  शुद्ध चारा खाती हो , कूड़ा  न खाती हो … मुझे लगा छोटी दीदी की बिमारी के इलाज के लिए शायद घर में ही एक गाय पाल लेनी चाहिए |  अम्माँ  जी को मेरा प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा | पहले भी उन्होंने कई बार  गाय पाली हुई थीं , मोह बढ़ जाता इसलिए पालना छोड़ दिया था | परन्तु मेरे प्रस्ताव  से एक बार फिर से उनकी “ पुनीत प्रीत” जाग उठी | अम्माँ  जी का आदेश था की बछिया लायी जाए ताकि उसे   शुरू से पाले | आस –पास के गाँवों में खबर भिजवाई गयी | बड़ी बुआ सास के गाँव पडरी  से जैसी चाहते थे वैसे बछिया मिल भी गयी | घर में उसके स्वागत की तैयारियाँ  होने लगीं | पक्के आँगन पर जिसपर  संगमरमर के टाइल्स लगे थे , इंटें बिछाई जाने लगी , जिससे उसको खड़े होने में दिक्कत न हो | उसकी देखभाल के लिए गाँव का एक रिश्तेदार भी बुला लिया गया , गोबर ले जाने वाली से बात तय हो गयी | पडरी से जब बुआ सास और चच्चू  उसे ले कर आये |  उसके आते ही अम्माँ जी  ने बड़े प्यार से उसका नामकरण भी कर दिया .. “सिम्मो” | यहाँ से ही शुरू हुई एक नयी प्रेम कथा “ सिम्मों और अम्मा जी ”  की | छोटी सी सिम्मो मुझे भी बड़ी प्यारी लगी थी , पर उससे ज्यादा भेंट मेरी नहीं हो पायी क्योंकि अगले ही दिन हमें रांची के लिए निकलना था | इस बीच फोन पर सिम्मो के हालचाल मिलते रहे | अम्माँ जी की बातों का केंद्र सिम्मों ही रहती | कैसे खाती है , कैसे सानी होती हैं , भूसा , चने का आटा कहाँ से मंगाते हैं आदि –आदि |  जब हमारा वापस घर आना हुआ तब तक सिम्मों बड़ी हो चुकी थी | हम लोग उसे अपरिचित लगे , उसने थोडा सींग दिखाने  की कोशिश करी पर अम्माँ  जी के साथ हिलमिल कर बात करते देख वो आश्वस्त हो गयी | पतिदेव तो उससे तुरंत हिल मिल गए पर मुझे उसके बड़े –बड़े सींगों से थोडा सा डर लगा | अम्मां  जी उसकी पीठ –पर हाथ फेर कर उसे समझाती  रहीं , “ सिम्मो , देखो भाभी आई हैं , इनके हाथ से अच्छे से खा लेना , परेशांन  न करना | पता नहीं क्यों मुझे लगा शायद सिम्मों ने उनकी बात सुनकर ‘ हाँ’ में सर हिलाया है | क्या बेजुबान प्राणी भाषा समझते हैं , सोचते हुए मैं अपने कमरे में आ गयी | असली मुसीबत  दूसरे दिन शुरू हुई , जब अम्माँ जी  ने आदेश दिया कि घी , गुड लगा कर सिम्मों को पहली रोटी अपने हाथ से तुम खिलाओगी , घर की बहु  खिलाती है तो बरकत होती है | ध्यान रहे जमीन पर मत रखना , अपने हाथ से खिलाना |  मैंने हाँ में सर हिला दिया पर मुझे अगली सुबह के लिए घबराहट होने लगी | मायके में माँ तो गाय को अपने हाथ  से खिलाती थीं पर मैंने ये काम अभी तक किया ही नहीं था | जब भी माँ ने कहा तो मैंने  आप खिलाइए मैं आप का हाथ पकड़ लेती हूँ , कह कर खुद से खिलाने की कभी कोशिश नहीं की | पर ये ससुराल थी , परीक्षा की घडी थी , यहाँ तो ये नहीं कह सकती थी कि आप खिलाइए मैं आप की कलाई पकड लेती हूँ  | राम –राम करते हुए मैं सुबह रोटी ले कर सिम्मों के पास पहुंची तो उसके बड़े –बड़े सींग देख कर मैं डर गयी | अम्माँ   जी वहीँ खड़ी थीं, मैंने सिम्मों को रोटी खिलाने के लिए हाथ आगे बढाया सिम्मों ने झट से पूरा मुंह खोल दिया …. मुझे लगा ये मेरा हाथ खा  डालेगी , डर  के मारे रोटी हाथ से छूट कर जमीन पर गिर गयी | अम्माँ  जी ने हल्के गुस्से से मेरी तरफ देखा पर कहा कुछ नहीं , देवर को बुला कर कहा , “ तुम खिला दो , कल से हमारी सिम्मो जमीन पर गिरी रोटी नहीं खाएगी , बिना मुँह की है तो क्या उसकी कोई इज्ज़त नहीं है ‘| मुझे पता था ये डांट मेरे लिए है पर शायद कल मुझे न खिलाना पड़े ये सोच कर मुझे थोड़ी तसल्ली थी |  गाय का गोबर साफ़ करने के लिए जो गाँव के रिश्तेदार रहते थे वो  देवर लगते था , उनसे  गाय की सानी कैसे करते हैं , मैं सीखने लगी | अम्माँ  जी को ये देखकर ख़ुशी हुई | उन्होंने प्यार से मुझे अपने पास बुलाया , “ देखो अपनी सिम्मों की छवि कितनी न्यारी  है , आस – पड़ोस के लोग तारीफ करते हैं इसकी बनक की , आँखे कितनी सुंदर गढ़ी हैं भगवान् ने | गाय को  इस नज़र से मैंने पहले कभी देखा नहीं था पर अम्मां  के कहने पर ध्यान दिया … वाकई बहुत सुंदर आँखे थी सिम्मों की … बोलती हुई सी | अगले दिन मैं सुबह जल्दी उठ कर रोटी बना कर सिम्मों के लिए ले गयी ताकि अम्माँ जी खुश हो जाए , पर फिर वही ढ़ाक के तीन पात , जैसे ही उसने मुँह खोला मैं घबरा … Read more