आप पढेंगे न पापा

पिता होते हैं अन्तरिक्ष की तरह….. जो व्यक्तित्व को विस्तार देते हैं , जहाँ माँ सींचती है प्रेम से और संतान में में भारती है दया क्षमा प्रेम के गुण वहीँ पिता देते हैं जीवन को दृढ़ता …आज भले ही मेरे पिता स्थूल रूप में मेरे पास नहीं हैं पर अपने विचारों के माध्यम से मेरे पास हैं…. आप पढेंगे न पापा  नन्हे -नन्हे पाँव जब लडखड़ा कर रखे थे धरती पर  तब आप ने ही थाम लिया थासिखाया था चलना दिया था हौसला चट्टानों से टकराने का कूट -कूट कर भरी थी आशावादिता ,आत्मविश्वास सिखाई थी जीवन की हर ऊँच -नीच पर पापा ये क्यों नहीं सिखाया की जब चला जाता है कोई अपना यूही बीच डगर में छोड़ कर कैसे रोकते हैं आंसुओं का सैलाब कैसे बंद करते हैं यादों को किसी बक्से में कैसे जुड़ते हैं टूट कर हो कर आधे -अधूरे जीते हैं महज जीवन चलाने के लिए ……….. तुम चिंता क्यों करती हो , बच्चों को माता –पिता के होते चिंता नहीं करनी चाहिए , हम हैं न देख लेंगे सब ,  “ पिताजी का एक वाक्य किसी तेज हवा के झोंके की तरह न जाने कैसे मेरी सारी चिंताएं पल भर में उड़ा के ले जाता | धीरे –धीरे आदत सी पड़ गयी , पिताजी हैं न सब देख लेंगें | लेकिन वक्त की आँधी जो पिताजी के वायदे से भी ज्यादा तेज थी सब कुछ तहस -नहस कर गयी  | मैंने तो अभी चिंता करना सीखा ही नहीं था | पिताजी हैं न सब देख लेंगे के आवरण तले मैं मैं कितनी महफूज थी , इसका पता तब चला जब ये आवरण  हट गया | मेरा ह्रदय भले ही चीख रहा हो , पर मैं ये आसमानी वार झेलने को विवश थी , दिमाग कितना कुछ भी समझता रहे ,पर मन इतना समझदार नहीं होता  ये झटका मन नहीं झेल पाया , गहरे अवसाद में खींच ले गया | जीवन  से विरक्ति सी हो गयी थी |  मुझे इस गहन वेदना से निकलने में तीन –चार वर्ष लगे | आज पितृ दिवस पर एक स्मृति साझा करना चाहती हूँ | यह स्मृति मेरे लेखन से ही सम्बंधित है | बात तब की है जब मैं कक्षा जब कक्षा चार में थी और मैंने पहली कविता लिखी थी , सबसे पहले दौड़ कर पिताजी को ही दिखाई थी क्योंकि उस समय  घर में पिताजी ही साहित्यिक रूचि रखते थे |कविता पढ़ कर  पिताजी की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था |  हर आये गए को दिखाते , देखो इत्ती सी है और इतना बढ़िया लिखा है | फिर मुझसे लाड़ से कहते “ तुम लिखा करो|” पर मैं बाल सुलभ उनकी बात हंसी में उड़ा देती | लिखती पर निजी डायरियों में, और पिताजी उनको खोज –खोज कर पढ़ते | उस पर बात करते , कभी प्रशंसा करते , कभी सलाह देते |   जब तक वो जीवित रहे ,वो  कहते रहे और मैं, “कभी लिखूंगी” सोच कर टालती रही |  घर –परिवार ससुराल की  तमाम  जिम्मेदारियों व् कुछ अन्य कारणों को निभाने के बीच पिताजी की ये इच्छा टलती ही रही | कल कर देंगे , कहते हुए हम सब यह समझने की भूल कर जाते हैं कि हमारे अपने सदा के लिए हमारे साथ होंगे , हर रात नींद के आगोश में जाते हुए हम कहाँ  सोच पाते हैं कि कुछ रातों की सुबह नहीं होती है |  आश्चर्य कि लोग  चले जाते है पर यक्ष प्रश्न जीवित रहता है सदा , सर्वदा …..और पीछे छोड़ देता है एक अंतहीन सूनापन | ऐसे ही पिताजी के उस लोक जाने के बाद जब रिक्तता का  एक आकाश मेंरे  ह्रदय में उतर गया तो खुद को सँभालने के लिए कलम  खुद ब खुद चल पड़ी |  सैंकड़ों कवितायें लिखी पिताजी पर …. आज भी वो कविताएं , मेरे दर्द का लेखा –जोखा मेरी निजी सम्पत्ति है | शायद  पिताजी की इच्छा ही थी कि वो सब लिखते –लिखते मैं सार्वजानिक लेखन में बिना किसी पूर्व योजना के आ गयी और पिताजी के आशीर्वाद से शुरुआत से ही आप सभी  पाठकों ने मेरे लेखन को  स्नेह दिया |  एक बात जो मैं आज आप सब से साझा करना चाहती हूँ कि शुरू शरू में जब भी कोई कविता  फेसबुक पर डालती तो आंसू थमने का नाम नहीं लेते , एक हुक सी  मन में भरती , “ काश पिताजी देख पाते” |परिवार के लोग समझाते  वो जहाँ हैं वहां से देख रहे होंगे “| सही या गलत पर धीरे -धीरे मैं ऐसा समझने की कोशिश करने लगी जिससे यह मलहम मेरे घावों की जलन कुछ कम कर सके | फिर भी ये ” काश ” बीच -बीच में फन उठा कर डसता रहता है |  यादों का पिटारा खुल चुका है … ख़ुशी और गम दोनों ही स्मृतियाँ दर्द दे रही है .. प्रवाह रोकना  मुश्किल है | आज इतना ही , पर अभी बहुत लिखना है …बहुत … आप जहाँ हैं वहां से पढेंगे न पापा  …. बताइये … पढेंगे ना | वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … पिता को याद करते हुए अपने पापा की गुडिया वो 22 दिन लघु कथा -याद पापा की आपको  लेख “   आप पढेंगे न पापा  .. “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs

झाड़ू वाले की नकली बीबी और मेरे 500 रुपये

इतिहास गवाह है कि कालिदास हो, अल्वा एडिसन या आइन्स्टाइन सबने  शुरुआत में बहुत मूर्खताएं की हैं, मने मेरी मुर्खताको  बुद्धिमानी की और बढ़ता कदम ही समझना चाहिए |  यूँ तो लोगों के दर्द भरे किस्से सुन कर मूर्ख बनने की मूर्खताएं मैंने कई बार की हैं पर जो किस्सा मैं शेयर करने जा रही हूँ वो गर्म कड़ाही से उतरी जलेबी की तरह बिलकुल ताज़ा और घूमा हुआ है | बात पिछली एक मार्च की है, सुबह का समय था, तभी किसी ने मेरा दरवाज़ा खटखटाया |  झाड़ू वाले की नकली बीबी और 500 रुपये  दरवाज़ा खोलते ही एक औरत रोते हुए दिखी| मुझे देखकर बोली ,”कल रात  मेरा आदमी मर गया, यही आप के मुहल्ले की सड़क पर झाड़ू लगाता था “| ओह, वो सफाई वाला, अभी परसों तो देखा था,अच्छा भला था |  मेरा दिल धक् से रह गया| मन में ख्याल आने लगे  इंसान का क्या भरोसा ,आज है , कल नहीं है |  मुझे द्रवित देख वो बोली,” कफ़न के पैसे भी नहीं है, कुछ मदद कर दीजिये | बचपन से पढ़े पाठ दिमाग में कौंध गए, पैसा क्या है हाथ का मैल है | मैंने,  200 का नोट दिया |पैसे देख कर उसका रुदन गेय हो गया, ,” इत्ते में क्या होगा, लाश घर पर पड़ी है … हाय माईईई , मैंने  उसे दोबारा अपने हाथों की तरफ देखा, अब इतना मैल तो मेरे हाथ में भी नहीं था, इसलिए अलमारी से निकाल 300 और दिए |  वो रोती हुई चली गयी और मैं पूरा दिन शमशान वैराग्य में डूबी बिस्तर पर पड़ी रही, तारीख गवाह है कि उस दिन मैंने fb भी नहीं खोली |  ठीक दो दिन बाद, चार मार्च की सुबह फिर दरवाजा  खटका| खोलने पर सामने सडक पर झाड़ू लगाने वाला खड़ा था| मुझे देख कर दांत दिखाते हुए बोला ,” होली की त्यौहारी | मुझे माजरा समझते देर न लगी , कोई अजनबी औरत इसकी पत्नी बन  मुझे मूर्ख  बना गयी थी |  पछतावा तो बहुत हुआ पर मैं उस झाड़ू वाले से ये तो नहीं कह सकती थी कि ,” अभी तो तुम्हारे कफ़न के पैसे दिए हैं , त्यौहारी  किस मुँह से मांग रहे हो ?  उसे पैसे दे , सोफे पर पसर ,सोंचने लगी … सच  , आदमी का कोई भरोसा नहीं, आज है , कल नहीं है … परसों फिर है   वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें .. इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं जिंदगी का चौराहा आंटी अंकल की पार्टी और महिला दिवस गोलगप्पा संस्कृति आपको  लेख “  झाड़ू वाले की नकली  बीबी और मेरे 500 रुपये  .. “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-kissa, idiot, memoirs, (ये रचना प्रभात खबर में प्रकाशित है ) 

गोलगप्पा संस्कृति

उम्मीद है कि अगर आप महिला है तो शीर्षक पढ़ते ही आप के मुंह में पानी आ गया होगा | हमारे देश में शायद ही कोई लड़की हो जो गोलगप्पे की दीवानी न हों | इसका तेज खट्टा तेज तीखा स्वाद जो एक बार जुबान पर चढ़ गया तो ताउम्र बना रहता है | हाँ जो ज्यादा तीखा नहीं खा सकते उनके लिए मीठे का भी बंदोबस्त रहता है | यूँ गोलगप्पे के अलग -अलग नाम हैं कोई उसे पानी पूरी कहता है कोई पानी के बताशे तो कोई फुचका | जब मामला स्वाद का हो तो नाम से कुछ फर्क नहीं पड़ता | गोलगप्पा संस्कृति कम उम्र लडकियां , प्रौढ़ महिलाएं और नयी -नईं बुजुर्ग कौन होगी जिसकी अनमोल की यादों में गोलगप्पे न जुड़े हों मैं भी अपने बचपन को याद करूँ तो लगता है कि गोलगप्पे के बिना उसका कोई स्वाद ही नहीं होता | उसका जितना खट्टा और तीखापन है वह सब गोलगप्पों की ही देन है | लड़कियों की गोलगप्पे के प्रति दीवानगी देख कर लड़कियों के स्कूल व् कॉलेज के आगे गोलगप्पे के कई ठेले खड़े रहते | उस समय हम लोग गोलगप्पों की खुश्बू से ऐसे ठेले की तरफ भागते जैसे आजकल के विज्ञापनों के मुताबिक़ लडकियां डीयो के खुशबू के पीछे भागती हैं | उस लड़की के ज्ञान के आगे हम सब नतमस्तक रहते जिसे पता होता कि किस के ठेले के गोलगप्पे ज्यादा टेस्टी हैं | हमारी शर्तों में गोलगप्पे खिलाने प्रमुखत: से रहता | कई बार हमारा नन्हा सा पॉकेट मनी गोलगप्पे वाले की भेंट चढ़ जाता | यकीन मानिए उस समय बीच महीने में लडकियां पिता के आगे हाथ फैलाती तो भी सिर्फ गोलगप्पों के लिए | उस पर बोनस के तौर पर कभी माँ या बहन , भाभी के के साथ बाज़ार जाना हो और गोलगप्पे न खाए जाए ऐसा तो ही नहीं सकता | हालांकि मुझे माँ के साथ गोलगप्पे खाना सबसे ज्यादा पसंद था क्योंकि वो एक दो गोलगप्पे खा कर अपने हिस्से के भी मुझे ही दे देतीं | | इस मामले में उदारता दिखाने का मेरा मन नहीं करता | जब गोलगप्पों के लिए व्रत तोडा गोलगप्पों के विषय में सबसे अच्छा किस्सा जो मुझे याद है वो है हरिद्वार यात्रा का | उस समय मेरी उम्र कोई १२ -१३ साल रही होगी | हम लोग बड़ी बुआ के परिवार के साथ हरिद्वार गए थे | अगले दिन हमें चंडी देवी के दर्शन करने जाना था | पिताजी को अचानक किसी जरूरी काम से देहरादून जाना पड़ा | उन की अनुपस्थिति में बड़े फूफाजी जो बहुत धार्मिक थे ने ऐलान कर दिया कि कल सब व्रत करेंगे और दर्शन करने के बाद वापस होटल आ कर व्रत खोलेंगे | उनके अनुसार ऐसा करने से ज्यादा पुन्य मिलेता है | हम सब ६ , ७ बच्चे ये फरमान सुन कर थोडा बेचैन हुए क्योंकि खेलने कूदने की उम्र में यूँ भी भूंख ज्यादा लगती है, पर फूफाजी से बहस करने की हिम्मत किसी में नहीं थी | हम सब चढ़ाई करके ऊपर मंदिर तक पहुंचे | यूँ तो चढ़ाई में बहुत मज़ा आया | भूख के मारे पेट में चूहे कूद रहे थे | वहीँ पर एक गोलगप्पे वाला टोकरी में रख कर गोलगप्पे बेंच रहा था | मन हुआ जल्दी से खा लें , पर फूफाजी की डांट का डर था | फूफाजी ने सब बच्चों को मंदिर में बुला लिया और खुद आँख बंद कर के पूजा करने लगे | हमने धीरे से आँख खोली , आँखों ही आँखों में ईशारा हुआ , देखा फूफाजी तो ईश्वर की आराधना में लींन हैं क्यों न मौके का फायदा उठाया जाए | हम बच्चे एक दूसरे को ईशारा करके धीरे -धीरे उठ कर देवी माँ की शरण से गोलगप्पे वाले की शरण में पहुंचे , और लगे दनादन गोलगप्पे खाने | जी भर के खा भी न पाए थे कि बुआ जी की डांटने की आवाज़ सुनाई दी | ये लो , ” ये सब लगे हैं गोलगप्पे खाने में , क्या कहा गया था तुम लोगों से व्रत रखना है , ज्यादा पुन्य मिलेगा | हम सब बुआ की चिरौरी करने लगे , ” बुआ जी , खा लेने दीजिये , बहुत भूख लगी है | बुआ जी थोडा नम्र पड़ीं | ठीक है , ठीक है , खा लो पर जो फूफाजी आ गए तो , फिर हम तो नहीं बचा पायेंगे | नहीं बुआ जी फूफाजी आंखे बंद किये बैठे हैं वो एक घंटा से पहले नहीं उठेंगे | ये सुन बुआ जी जो थोड़ी तनावग्रस्त लग रहीं थीं , के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी | बड़े लाड़ से बोली , ” चलो हटो हमें ( माँ व् बुआ जी ) खाने दो “| पर बुआ जी पुन्य का क्या होगा , हम सब एक स्वर में चिल्लाये | “ अरे तुम्हारे फूफाजी कर तो रहे हैं न पूजा | आधा तो हमारा वैसे ही हो जाएगा, कह कर बुआ जी भी हम बच्चों को परस्त करते हुए गोलगप्पे खाने लगीं | गोलगप्पा संस्कृति बरक़रार है अब समय बदल गया है | ये मैगी , पिज़ा , पास्ता मोमोज का ज़माना है | पर इन सब को खाने वाले बच्चे गोलगप्पों भी शौक से खाते हैं | हाँ तरीका अलग है अब हल्दीराम के पैकेट बंद गोलगप्पे आते हैं या फिर होटल से कॉल करके , घर में भी बना कर भी | घर में बनाने के लिए यू ट्यूब पर सैंकड़ों वीडियो मौजूद हैं | कभी -कभी सोचती हूँ की नयी -पीढ़ी से पुरानी पीढ़ी की अनेकों बातों में टकराहट भले ही क्यों न हों पर गोलगप्पा संस्कृति अभी भी बरकरार है | वंदना बाजपेयी इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं रानी पद्मावती और बचपन की यादें हे ईश्वर क्या वो तुम थे निर्णय लो दीदी आपको  लेख “  गोलगप्पा संस्कृति .. “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-golgppe, golgppa

Go Grey-बालों से नहीं व्यक्तित्व से होती है आपकी पहचान

परिवर्तन शाश्वत है | समय के साथ बहुत कुछ बदलता है | कुछ परिवर्तन सकारात्मक होते हैं , कुछ नकारात्मक और कुछ में शुरू में पता ही नहीं चलता कि ये परिवर्तन सकारात्मक है या नकारात्मक परन्तु उसके दूरगामी परिणाम होते हैं | ऐसा  ही एक परिवर्तन बालों के रंग के साथ है | पहले एक उम्र के साथ जब बाल सफ़ेद (grey) हो जाते थे तो कोई उसे छुपाने की कोशिश नहीं करता था |  “ये बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं “कुछ दशक पहले ये ऐसा जुमला था  जो सफ़ेद बालों  में चमकते अनुभव के प्रति श्रद्धा  व् सम्मान उत्पन्न करता था | बालों का सफ़ेद होना मात्र उम्र का बढ़ना नहीं अनुभव का बढ़ना था | अनुभव सम्मान का विषय था ,परन्तु आज ” अरे आप की उम्र का पता ही नहीं चलता ” जुमला चलना में है | क्या इंसान की पहचान सिर्फ उसके बालों के रंग से है |  Go Grey-बालों से नहीं  व्यक्तित्व से होती है आपकी पहचान  दिल्ली की अध्यापिका निकिता की कहानी उन्हीं की जुबानी … उस समय मेरी उम्र कोई सत्रह साल रही होगी , जब मैं आईने में अपना पहला सफ़ेद बाल देखा , और मैंने वही किया जो उस उम्र की कोई लड़की करती , मैंने कैची से उसे काट दिया और निश्चित हो कर कॉलेज चली गयी | मुझे नहीं पता था कि ये मेरी परेशानी का अंत नहीं शुरुआत है | मेरे सफ़ेद बाल  घास की खेत की तरह बढ़ने लगे |  हर सुबह सफ़ेद बालों का झुण्ड मुझे बेचैन कर देता | मैं उन्हें तब तक काटती रही जब तक ये संभव था | धीरे -धीरे इतने सारे सफ़ेद बालों को काटना असंभव होने लगा | मैंने अपनी समस्या अपनी माँ को बतायी | मुझसे ज्यादा परेशां मेरी माँ हो गयीं |  भारत में जहाँ आज भी सुन्दरता लड़कियों की शादी का पैमाना है वहां  मेरे बालों की सफेदी मेरी माँ के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गयी | वो मुझे उसे दिन ब्यूटी पार्लर ले गयीं | मुझे आज भी ये याद है कि मुझे देख कर उस पार्लर की महिला ने चिंता व्यक्त की , ” अरे अभी इस उम्र से बूढी दिखने लगोगी तो  ?? मुझे लगा कि बालों का सफ़ेद होना बूढ़े होने का परिचायक है … बूढ़ा  मतलब सुंदर न होना , बेकार होना , जिसकी किसी को जरूरत नहीं है | मैं डर गयी | मैंने अपने बाल काले करवा  लिए | अब मैं समाज द्वारा स्वीकृत थी , पर मेरे मन में डर ने अपने पाँव फैला लिए थे बूढ़े होने के डर ने | अब मेरी जिन्दगी में एक काम सबसे जरूरी हो गया वो था बालों को काला करना | दुनिया इधर की उधर हो जाए पर नियत दिन पर मुझे बाल काले करने ही  हैं |                                    मेरी पढाई पूरी हुई , शादी हुई पर उम्रदराज़  दिखने का डर मेरे दिमाग में अभी भी था | तभी मेरा अपने पति के साथ अमेरिका जाना हुआ उस समय तक मेरी उम्र करीब ३५ साल की थी |वहां मैंने देखा कि नयी उम्र की लडकियाँ अपने बाल  ग्रे  करवा रहीं हैं | कुछ समय बाद भारत के अभिजात्य वर्ग में भी ये फैशन आया | मुझे अहसास होने लगा कि ये जिस काम के लिए पैसे खर्च कर रहीं हैं वो मुझे प्रकृति ने मुफ्त में दिए हैं | और फिर हिम्मत जूता कर मैंने “go grey ” का फैसला लिया |                            हालंकि भारत में ये फैसला इतना आसान नहीं है |  खासकर महिलाओं के लिए | फिर भी धीरे -धीरे लोग मुझे स्वीकार करने लगे , पर उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि मैं खुद को स्वीकार करने लगी |                                                                  जरा पीछे मुड़  के देखें तो एक समय था जब भारतीय महिलाएं अपने सफ़ेद बालों से परेशांन  नहीं होती थी | मुझे याद है कि जब मेरी माँ के बाल सफ़ेद हुए थे तो हम लोगों को चिंता करने की कोई बात नहीं लगी थी क्योंकि समाज में उनका सम्मान और बढ़ गया था , पर क्या आज मेरी बेटी ऐसा कर सकती है ? मुझे वो दौर याद है जब   टी वी पर एक विज्ञापन आता था  , जिसमें एक महिला के कुछ बाल सफ़ेद हो जाते हैं | तभी उसके पास एक बच्चा आता  है जो उसके सफ़ेद बालों  को देख कर उसे आंटी कहता है | महिला का ध्यान अपने बुढ़ापे की तरफ जाता है | वो हेयर डाई खरीद कर लाती है अपने बाल काले करती है | अगले दिन वही बच्चा उसके पास फिर आता है | उसके बालों को गौर से देखता है | फिर उसे दीदी कहता है |                             विज्ञापन  भले ही बालों को काला रंगने के ऊपर हो पर उसने पूरे समाज की मानसिकता को एक रंग में रंग दिया …. जहाँ युवा , ख़ूबसूरती , जोश और हिम्मती होने का पर्याय बन गया बालों का काला होना | गाँव और छोटे शहरों में भी हेयर डाई पहुँच गयी | रंगे  हुए बाल आत्मविश्वास का प्रतीक माने जाने लगे | परन्तु आज धारणाएं बदलना शुरू हो  रही हैं | कई सेलेब्रिटीज भी अपने ग्रे बालों के साथ सामने आये हैं | ” Me too ” मूवमेंट आत्म स्वीकारोक्ति के साथ हमारा ध्यान उन चीजों की और भी जाने लगा जो एक  social myth बन गयीं हैं | लोग उस के खिलाफ आने लगे हैं  और अपने को अपने वास्तविक रूप के साथ स्वीकार लिया जाना पसंद करने लगे हैं |  मैं अपनी बेटी की माँ हूँ , न बड़ी बहन , न दादी                           बालों को रंगने के कई प्रोडक्ट बाज़ार … Read more

क्लास टेंथ का रिजल्ट और बड़ों की भूमिका

                      क्लास टेंथ का रिजल्ट निकलने के अगले ही दिन कितने निराश बच्चों की आत्महत्या की खबरे आती है |कितने दीपक जिन्हें बहुत रोशिनी देनी थी अचानक से बुझ जाते हैं |  फिर भी हर साल समाज बिलकुल वैसा ही व्यवहार करता है | क्या जरूरी नहीं है कि इन रिजल्ट की तुलना करते हुए बड़ों की भूमिका बदलनी चाहिए | क्लास टेंथ का रिजल्ट में  बड़ों की भूमिका        निकल गया भाई , निकल गया हाई स्कूल का रिजल्ट निकल गया | एक वो जमाना था जब सुबह के ६ बजे हों , दोपहर के १२ या रात के दो ये आवाज़ सुनते ही उन बच्चों की दिल की धडकने बढ़ जाती थी जिन्होंने हाईस्कूल की बोर्ड की परीक्षा दी थी | आनन् -फानन में घर के लड़के रिजल्ट लाने के लिए दौडाए जाते | कांपते हाथों से रिजल्ट वाला अखबार खोला जाता | उस समय रिजल्ट में केवल F, S , और T लिखा होता , जिसका मतलब क्रम से फर्स्ट डिविजन , सेकंड डिविजन और थर्ड डिविजन होता | फेल होने वाले बच्चों के रोल नंबर अखबार  में नहीं छपे होते | असली नंबरों का गजट स्कूल में ही दस -पंद्रह दिन बाद आता | तब तक ६० % की फर्स्ट डिविजन और ८० % की फर्स्ट डिविजन के बच्चे एक सामान  खुश दिखते | जब तक गजट आता , तुम्हारे कितने परसेंटेज हैं पूंछने वालों की संख्या में बहुत कमी आ जाती |  ये वो समय था जब बच्चे रिजल्ट निकलने के बाद अवसाद में नहीं घिरते थे | आत्महत्या नहीं करते थे | ऐसी घटनाएं अगर थीं भी तो एक्का -दुक्का | वो बच्चे जिनके प्रतिश्त  कम आयें है  परन्तु आज के समय में रिजल्ट निकलते ही मार्क्स और % बच्चे के पास आ जाते हैं | डिविजन शब्द अप्रासंगिक हो गया है | अब तो दशमलव के बाद तक परसेंटेज बताने का चलन है | जिन बच्चों के कम नबर आये हैं , निराश है | अचानक से इस सामाजिक अवहेलना को झेलने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होते | जो कल तक माँ का लाडला था , बुआ का प्यारा भतीजा था , चाची का नटखट नंद किशोर था , और मुहल्ले का हीरो था वो अचानक  से असफल करार दे दिया जाता है | दुखी बच्चा माता -पिता की ओर देखता है पर वो भी तो उसे सँभालने की स्थिति में नहीं होते हैं वो असफल पेरेंट्स करार दिए जा चुके होते हैं |  वहीं जिन बच्चों के ८० -८२ % आये हैं उन्हें  लोग बधाई तो देते हैं पर ऐसे जैसे की अहसान कर रहे हों | जैसे दूसरी बेटी होने पर बधाई देते हैं | कोई बात नहीं हो गया अब इसे ही ईश्वर की मर्जी समझों | ऐसे में बच्चों का  अपने परिवार के इस अपमान के लिए खुद को दोषी मानना अस्वाभाविक नहीं है | अधिक प्रतिशत लाने वाले बच्चों में भी है निराशा         ये मामला सिर्फ कम प्रतिशत लाने वाले बच्चों का नहीं है |  निखिल को ही देखिये | अपने स्कूल में हमेशा टॉप करने वाले निखिल के दसवीं की बोर्ड परीक्षा में 92% नंबर आये , उसे कुछ  ज्यादा की उम्मीद थी | इसलिए वो थोडा निराश था | माँ उसे समझा रही थी | तभी पड़ोस की सुलेखा जी आयीं | सुलेखा जी निखिल के नंबर सुनते ही बोली , ” चलो पास हो गया  , ठीक ही  नंबर हैं … बधाई,  पर मेरे भाई के पड़ोस में रहने वाले शर्मा जी  के साढू के बेटे के ९७ % मार्क्स आये हैं |  ऐसे मामलों में बच्चों को उन लोगों के उदाहरण मिलते हैं जिन्हें उदाहरण देने वाला भी बिलकुल नहीं जानता , उसका उद्देश्य बड़ी लकीर खींचना होता है | इस तुलना से निखिल का चेहरा उतर गया |माँ मुह्ल्लादारी निभाते हुए सुलेखा जी के पास बैठी रहीं और निखिल अपने कमरे में रोता रहा | मामला सिर्फ सुलेखा जी का ही नहीं है रिजल्ट निकलने के बाद जिस तरह से बच्चों के ऊपर एक अवांछित तुलना का फंदा कस दिया जाता है उसमें एक मासूम का दम किस तरह घुटता है इसे सोचने की फुर्सत किसी को नहीं नहीं | ये दुर्भाग्य है कि इसका | शिकार कम प्रतिशत पाने वाले बच्चे ही नहीं ऊँचे प्रतिशत पाने वाले बच्चे भी हैं | बहुत से लोग समझते हैं की वो बच्चे जिनके कम प्रतिशत हैं वो अवसाद में होंगे परन्तु बच्चा 90 + % के बावजूद अवसाद में है ऐसा बहुत कम लोग मान पाते हैं | बच्चो को ” The Best नहीं अपना “Best version” बनने के लिए करें प्रेरित   हमीं ने हर बच्चे के आगे “बेस्ट ” होने की लकीर खींच दी है | हर बच्चे को खींच -खींच के उस लकीर के पास लाने की कोशिश की जा रही है | प्राइवेट स्कूलों में हर दिन टेस्ट , रिविजन  घर में दो या तीन ट्यूशन से जूझते नवीं  , दसवीं के बच्चे का बचपन खो गया है | हर बच्चा समाज की राडार पर हैं | बस एक लकीर नहीं पार की तो उनके स्वाभिमान पर आक्रमण होना तय है |  इन लकीरों में बांधते समय हम ये नहीं सोचते कि ये   एक ऐसे लकीर हैं जो किसी न किसी दिन ध्वस्त होनी ही है | हाई स्कूल में बच गए तो १२ th में , तब भी बच गए तो कॉम्पटीशन में या फिर जॉब में | हमने पूरी व्यवस्था इस तरीके की बना रखी है कि कितना भी होनहार बच्चा हो  किसी न किसी मोड़ पर अवसाद में  डूबे जरूर , फिर हम ही चिल्लाते हैं कि बच्चों में धैर्य नहीं है , संवेदनहीनता है | क्या ये जरूरी नहीं है कि बच्चों पर एक अँगुली उठाते समय हम उन तीन अँगुलियों की तरफ देखे जो हमारी तरफ उठ रहीं हैं | हमने बच्चों को अघोषित दौड़ के मैदान में उतार दिया है , उन्हें आगे नहीं सबसे आगे बढ़ना है | क्लास टेंथ के रिजल्ट के बाद क्या हो बड़ों की भूमिका  1)जरूरी है कि  बच्चे के आगे ” बेस्ट … Read more

तानाशास्त्र

              ताना मारना एक ऐसी कला है जो किसी स्कूल में नहीं पढाई जाती | इस के ऊपर कोई शास्त्र नहीं है | फिर भी ये पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक का सफ़र बड़ी आसानी से तय कर लेती है | ताना मरने की कला में कोई धर्म  , जाति, देश  का भेद भाव नहीं है , कोई नहीं कहता कि ये हमारे धर्म /देश का ताना है , देखो फलाने  धर्म /देश वाले ने हमारा ताना चुरा लिया |  तानों पर किसी का कॉपीराईट नहीं है , आप देशी -विदेशी , अमीर , गरीब किसी के ताने चुरा सकते हैं | ताना बनाने वाले की सज्जनता तो देखिये वो कभी नहीं कहेगा कि ये ताना मेरा बनाया हुआ है | आज जब हम अपनी चार लाइन की कविता के चोरी हो जाने पर एक दूसरे को भला बुरा कहते हैं,  तो ताना बनाने वालों के लिए मेरा मन श्रद्धा से भर उठता है | तानाशास्त्र  खैर पहला ताना किसने किसको दिया ये अभी शोध का विषय है | परन्तु तानों से मेरा  पहला परिचय दादी ने कराया | जब उन्होंने कहा , ” धीय मार बहु समझाई जाती है “| मतलब आप बहु को न डांट  कर बेटी को डांट दीजिये … बहु तक मेसेज पहुँच जाएगा | जैसे बहु ने बर्तन साफ़ नहीं धोये हैं तो आप बेटी को बुला कर कहिये कि , ” कैसे बर्तन धोती हो , दाग रह गए , अक्ल कहाँ घुटने में है | अब बेटी भले ही कहती रहे , ” माँ , मैंने तो बर्तन धोये ही नही |” हालांकि ये पुराना तरीका है , इसे अब मत आजमाइयेगा , नहीं तो बहु पलट कर कहेगी … डाइरेक्ट मुझसे कहिये ना या ये भी हो सकता है कि बहु कह दे , ठीक है , कल से आप ही धोइयेगा | याद रखियेगा ये पुराना ज़माना नहीं है अब बहु की “नो का मतलब नो होता है “| तानों के प्रकार   समय के साथ तानों का काफी तकनीकी विकास हो चुका है , नित नए अनुसन्धान हो रहे हैं |  अगर इतने अनुसन्धान मार्स मिशन पर होते आज हम मंगल गृह पर पॉपकॉर्न खा रहे होते | फिर भी मोटे तौर पर ताने दो तरह के होते हैं … तुरंता ताना – इस ताने में ताना मारने वाला ऐसे ताना मारता है कि उसे तुरंत समझ में आ जाता है कि उसे ताना मारा गया | सुनने वाले के चेहरे की भाव भंगिमा बदल जाती है | अब ये उसके ऊपर है कि वो इस ताने के बदले में कोई विशेष ताना मार पाता  है या नहीं | अगर वो भी अनुभवी खिलाड़ी हुआ तो “ताने ऊपर ताना ” यानि की ताने की अन्ताक्षरी शुरू हो जाती है | डे आफ्टर टुमारो ताना – ये ताने की विकसित शैली है | आमतौर पर ताना कला में डिग्री होल्डर ही इसका प्रयोग कर पाते हैं | इसमें आप किसी के घर में आराम से चाय -समोसों के साथ ताना खा कर आ जाते हैं , और आप को पता ही नहीं चलता | दो दिन बाद आपके दिमाग की बत्ती जलती है … अरे ये तो ताना था | विशेष प्यारक -मारक ताने                                                  तानों पर अपने अनुभव के आधार पर एक अच्छा ताना वो है जो आपको तुरंत समझ भी आ जाए और आप जवाब में कुछ कह भी न सकें | ऐसी तानों का असर बहुत लम्बे समय तक रहता है |  ऐसे बहुत सारे ताने आपको भी मिले होगे , भूले तो नहीं होंगे | दुखी मत होइए दाद दीजिये कि क्या ताना था बाल काले से सफ़ेद हो गए पर ताना दिमाग में जहाँ बैठा है वहां से रत्ती भर भी नहीं हिला | जिनको इसका अनुभव नहीं है उन्हें उदाहरण के तौर  वो ताना शेयर कर रही हूँ जो ससुराल में मेरा पहला प्यारा , प्यारा  ताना था | हर पहली चीज की तरह वो भी मुझे बहुत अजीज है | हुआ यूं की शादी के बाद एक रिश्तेदार हमारे घर आयीं | उन्होंने पिताजी द्वारा भेंट किये गए सामान को दिखाने की इच्छा जाहिर की | सामान देखते हुए वो बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरते  हुए बोलीं , ” अरे , कैसा सामान दिया है तुम्हारे पिता ने ,  हमारी लाडली बहु के साथ नाइंसाफी की है | उनके तो दो-दो बेटियाँ है , तो छोटी क्यों लाडली होगी , पर हमारी तो एक एक ही बहु है | कम से कम ये तो ध्यान रखते  कि हमारी बहु हमें कितनी लाडली है | अब इस ताने के जवाब में एक पिता की दूसरी बेटी  यानि की प्यारी लाडली बहु कुछ कह ही नहीं सकती क्योंकि वो तो इकलौती है | तो उन्हें ज्यादा धक्का लगना  स्वाभाविक है | “ कोई और बहु होती तो शायद बुरा भी मानती पर मैं तो शुरू से ही ताना शास्त्र की मुरीद रही हूँ | इसलिए मेरे मुँह से बस एक ही शब्द निकला “वाओ ” क्या ताना है | मन किया कि अभी उनके चरण छू लें , पर इससे ताने का अपमान होता | ताने के सम्मान में मैंने अपनी इच्छा मन में ही दबा ली | ऐसे प्यार भरे मारक ताने सुनने वाले अक्सर कहते   पाए जाते  हैं , ” वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता /हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम | वैसे ताना मारने वालों में अक्सर ” तानाशाही ” के गुण आ ही जाते हैं | ये तानाशाह बिना तीर -तलवारके सर कलम करते चलते हैं | तानाशास्त्र – ताना कला को बचाने की कोशिश  तानों की इतनी महिमा जानने के बाद मैंने भी इस कला को सीखने की पूरी कोशिश की | कुछ ताने पति की खिदमत में पेश किये  कुछ आये गए की | हालांकि अभी तक घर के बाहर बहुत सफलता नहीं मिली | अक्सर लोगों ने उससे बड़ा ताना दे कर हमारे ताने पर पानी फेर दिया | पर … Read more

वर्षों बाद …

                           हर घटना जब घटती है तो हम उसे एक एंगल से देखते हैं , अपने एंगल से , लेकिन जब दूसरे का एंगल  समझ में आता है तो हम जिस उम्र परिस्थिति के हिसाब से सोच रहे हैं , दूसरा उससे अलग अपनी उम्र व् परिस्थिति के हिसाब से सोच रहा होता है | तब लगता है , गलत कोई नहीं होता , हर घटना का देखने का सबका एंगल अलग होता है …..अक्सर ये समझ वर्षों बाद आती है लघु कथा -वर्षों बाद                                              मैं  हॉस्पिटल के बिस्तर पर  लेटी थी | ड्रिप चढ़ रही थी |  एक -एक पल मेरा मृत्यु से युद्ध चल रहा था | पता नहीं घर वापस जा भी पाउंगी या नहीं |  पर मृत्यु से भी ज्यादा मुझे कर रहा था अपनी बेटी का दुःख | मेरे बाद क्या होगा उसका | कितनी संवेदनशील है , किसी का दर्द सुन लें तो महीनों मन से निकाल नहीं पाती है | जब उसे ससुराल में पता चलेगा तो … टूट जायेगी , सह नहीं पाएगी , कितना रोएगी , अभी बेटा छोटा है उसे पालना है , इतनी जिम्मेदारियां सब पूरी करनी है , ऐसे कैसे चलेगा |                                            मैं अपने ख्यालों में खोयी हुई थी कि बेटी ने कमरे में प्रवेश किया | उसकी डबडबाई आँखे देख कर मैं टूट गयी , फूल सा चेहरा ऐसे मुरझा गया था जैसे कल से पानी भी न पिया हो | उसकी हालत देख कर मैंने मन को कठोर कर लिया और उससे बोली , ” किसने खब कर दी तुमको , अभी बच्चा छोटा है उसको देखो , तुम्हारा भाई है तो मेरी देखभाल को … बेटियाँ पराई  होती हैं उन पर ससुराल की जिम्मेदारी होती है | और इस तरह रो -रो कर मेरा अंतिम सफ़र कठिन मत करो | उसने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया और बोली , ” कुछ मत बोलो माँ , कुछ मत बोलो … और वो मेरे सीने से लग गयी |                    उसके सीने से लगी मैं अतीत में पहुँच गयी | ऐसे ही माँ  अपने अंतिम समय में गाँव में आँगन में खाट पर लेटी थीं | मैं दौड़ती भागती बच्चों को ले माँ को देखने पहुँची थी | मुझे देख कर माँ , जो दो दिन से एक अन्न का दाना नहीं खा पायी थीं , न जाने खान से ताकत जुटा  कर बोलीं , ” हे , राम , इनको कौन खबर कर दीन , ए तो बच्चन को भी जेठ का माहीना में ले दौड्स चली आयीं , अब पराये घर की हो उहाँ की चिंता करो यहाँ की नहीं | अब  रो रो के हम्हूँ को चैन से न मरने दीन , चार दिन के जिए दो दिन माँ ही चले जाइये |” मैं माँ के पास से हट गयी थी | अगली सुबह माँ  का निधन हो गया |                      वो अंतिम मिलन मुझे कभी भूलता ही नहीं था  | माँ क्या मुझे देखना ही नहीं चाहती थीं | क्या बेटियों की विदा कर के माँ उन्हें पराया मान लेती हैं | मैं जब भी माँ को याद करती उनके अंतिम शब्द एक कसक सी उत्पन्न करते | मैं आंसू पोछ  कर सोचती , जब माँ ही मेरा आना पसंद नहीं कर रहीं थीं तो मैं अब क्यों याद करूँ | आज अचानक वही शब्द मेरे मुंह से अपनी बेटी के लिए निकल गए | तस्वीर आईने की तरह साफ़ हो गयी | ओह माँ , आप नहीं चाहती थी कि मैं आपके लिए ज्यादा रोऊँ , इसलिए आपने अंतिम समय ऐसा कहा था | सारी  उम्र मैं आपको उन शब्दों के लिए दोषी ठहराती रही | ऐसा कहते समय आपने कितनी पीड़ा कितना दर्द झेला होगा उसकी समझ भी मुझे आई तो आज … इतने वर्षों बाद | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …………. दोगलापनसुकून वो पहला खत जोरू का गुलाम  आपको  कहानी    “वर्षों बाद “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-Story, Hindi story, Free read, short stories, Years later

Students “Adult Content ” addiction से कैसे निकलें

                         इस विषय पर लिखने का मन मैंने तब बनाया जब मेरे पास अमित ( परिवर्तित नाम ) की समस्या आयी | क्लास 6 th तक अमित एक पढने में होशियार , क्लास में फर्स्ट आने वाला , मासूम सा बच्चा था | एक दिन क्लास में दोस्तों ने ऐसा कुछ बताया की जिज्ञासा जगी , पर वो बीज वहीँ पड़ा रह गया | एक दिन किसी म्यूजिक वीडियो को देखते समय एक ऐड क्लिक हो गया और उसके सामने वो संसार खुल गया जो उसके लिए बिलकुल नया था | शुरू की जिज्ञासा धीरे -धीरे आदत बनने लगी | रोज उसकी  किशोर अँगुलियाँ उन साइट्स को क्लिक  कर ही देतीं  जो  “adult content ” था | इसमें कोइ  आश्चर्य नहीं कि घर में किसी को इसका पता नहीं चला ,क्योंकि किसी के आने की आहट  सुनते ही वो पहले से खुली स्टडी मैटीरियल की साईट पर क्लिक कर देता | माता -पिता समझते कि बच्चा पढ़ रहा है , पर अमित पढाई में पिछड़ने लगा | फर्स्ट आने वाला बच्चा  बस पास होने लगा | उसके  अन्दर अपराध बोध भी होता था पर वो किसी शराबी की तरह  हर रोज उसी और दौड़ जाता |  अमित नवीं कक्षा में फेल हो गया | तब जा के अमित को होश आया | उसने डरते हुए अपनी समस्या अपने पिता को बताई | पहले तो उसके पिता के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही , माता -पिता एक दूसरे पर बच्चे पर ध्यान न देंने का आरोप लगाते रहे | अंत में उन्होंने क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट  को दिखाया | अमित इस  adiction से बाहर निकला | उसने अपनी पढाई को फिर से संभाला और अच्छे  नंबरों से पास होने लगा | Students “Adult Content ” addiction से  बाहर कैसे निकलें                                         हर बच्चा जो इस अँधेरी गुफा में घुस जाता है , वो अमित की तरह निकल नहीं पाता और अपनी शिक्षा के बेहतरीन वर्ष  ” adult content” की भेंट चढ़ा सारा जीवन पछताता है | किशोर व् नव युवा उम्र के वो ८ , ९ साल हैं जो उसकी जिंदगी के बाकी ५० सालों का भविष्य तय करते हैं | अक्सर बड़े ऐसी समस्याओं के सामने आने पर बच्चों को रास्ता दिखाने के स्थान पर ” हमारे समय में तो ऐसा नहीं होता था ” कह कर इतिहास पढ़ने लगते हैं | जिसका  कोई भी फायदा नहीं | वो समय दूसरा था | ये आज की समस्या है और इसका सामाधान भी आज ही निकालना  होगा | मनोवैज्ञानिक अतुल भटनागर जी के अनुसार जो बच्चे ” adult content addiction” में फंस गए हैं , वो भी थोड़े से प्रयास से  इससे निकल सकते हैं  और पुन: अपना कैरियर व् भविष्य बना सकते हैं | क्यों होता है “Adult content addiction”                                       ये सच है कि आज के ज़माने में बच्चों को इन्टरनेट से दूर नहीं रखा जा सकता | ये ज्ञान का भण्डार है |  उन्हें मनोरंजन , स्कूल के प्रोजेक्ट व् अन्य जानकारी के लिए इसकी बहुत जरूरत है | वहीँ ये भी सच है कि इन पोर्न  साइट्स पर पहली क्लिक जिज्ञासा में या अनजाने में होती है ,  पर धीरे -धीरे आदत में शुमार हो जाती है | बच्चों को  उसे नशे में बदलने से रोकना ही होगा |  इसके लिए जरूरी है कि ये समझा जाए कि ” Adult content addiction क्यों होता है | दरअसल  विकास के साथ -साथ “human mind ” में बहुत सारे परिवर्तन हुए | जिस तरहसे  हम अपने पोस्ट को अपडेट करते हैं वैसे ही इसान का दिमाग पुराने जीवों के दिमाग का अपडेटिड वर्जन है | वैज्ञानिकों के अनुसार  दिमाग की तीन लेयर हैं , जो पुरानी लेयर से अपडेट होकर बनी हैं …. पहली लेयर रेपटिलीयन काम्प्लेक्स  – यानि रेपटीलिया का दिमाग ( सांप आदि रेंगने वाले जीव )  दूसरी लेयर -पैलियोमैमेलियन काम्प्लेक्स – कुछ निचले स्तर के स्तनधारी जीव का दिमाग तीसरी लेयर -नीओमैमेलियन काम्प्लेक्स  ( ऊँचे  लेवल के मैमल का दिमाग , जैसे मनुष्य का वर्तमान दिमाग जो की पिछली दो लेयर का अपडेटेड वर्जन है | रेपटी लियन ब्रेन वो ब्रेन है जो सेक्सुअली ओरिएंटेड होता है | पैलियोमैमेलियाँ ब्रेन वो ब्रेन है जो क्षणिक सुख को देखता है , वो बहुत दूर तक भविष्य के फायदे , नुक्सान को सोंच नहीं पाता |  नीओ मैमेलियन ब्रेन वो ब्रेन है जो भविष्य की योजनायें बनाता है , भविष्य के बड़े सुखों के लिए छोटे सुखों को त्याग सकता है | यह प्रायोरिटी बेसिस पर काम करता है | इसके लिये परिवार , नौकरी , शिक्षा , कैरियर ज्यादा महत्वपूर्ण है |                                 जब भी कोई porn content सामने आता है तो रेपटीलियन  और नीयो मैमेलियन लेयर एक्टिव हो जाती हैं और पैलियो मैमेलियन ब्रेन से सारा कण्ट्रोल अपने  हाथ में ले लेती हैं | जैसे ही इंस्टेंट प्लेजर का एक राउंड खत्म होता है  पुन : कण्ट्रोल पैलियोमेमिलीयन ब्रेन के हाथ में आ जाता है तब स्टूडेंट  को गिल्ट महसूस होती है उसे लगता है उसने बेकार में अपना समय ख़राब किया | इसके कुछ और भी नुक्सान हैं जैसे स्वाभाव में चिडचिड़ापन आता है , दिमाग फ़ोकस नहीं कर पाता , पढने से ध्यान हट जाता है , और छोटी छोटी बातों  भूलने लगता है |             फिर भी स्टूडेंट कंट्रोल नहीं कर पाता , रोज देखता है और ये उसकी आदत बन जाती है | ये एक नशे की तरह है | परतु जैसे दूसरे नशे छुडाये जाते हैं इसे भी छोड़ा जा सकता है बस थोड़ी सी संकल्प शक्ति  बढ़ानी होगी | students “Adult Content ” addiction ऐसे बाहर निकलें  एडल्ट कंटेंट एडिक्शन से निकलने के लिए स्टूडेंट्स कुछ तरीके इस्तेमाल कर सकते हैं | ये सभी तरीके मनो वैज्ञानिकों द्वारा सुझाए गए बहुत कारगर तरीके हैं … Read more

राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म

देशभक्ति की बहुत सी फिल्में बनी और बहुत लोकप्रिय भी हुई | परन्तु “राजी “ एक ऐसे फिल्म है जिसमें देशभक्ति को एक ऐसे कलेवर में प्रस्तुत किया कि अंत तक आते – आते दर्शक ” आखिर युद्ध होते ही क्यों हैं के सवाल के साथ सिनेमा हॉल से भारी मन के साथ बाहर निकलता है | ये ऐसी फिल्म है जिसमें युद्ध की विभीषिका में केवल  अपने देश के पक्ष को ही नहीं बल्कि दूसरे  पक्ष यानि पाकिस्तान की भी मानवीय संवेदनाओं को बखूबी उबारा गया है | युद्ध चाहे किन्ही दो देशों के मध्य हो युद्ध में मारे गए  सैनिक कोई अपराधी नहीं होते , वो अपने -अपने देश के वफादार होते हैं | इस वफ़ा की कीमत वो अपनी जान देकर चुकाते हैं | एक तरह से ये फिल्म भारत / पाकिस्तान  जिंदाबाद के नारे न लगाते हुए युद्ध के विरुद्ध मानवीय संवेदनाओं को जगाती है |  फोटो क्रेडिट –फोटो समाचारनामा .कॉम से साभार                                          फिल्म की डायरेक्टर मेघना गुज़ार बहुत सुलझी हुई डायरेक्टर हैं | इससे पहले उनकी दो फिल्में ‘फिलहाल ‘ और आरुशी मर्डर केस पर आधारित फिल्म ‘तलवार’ आई थी | दोनों फिल्मों में उनके निर्देशन की बहुत सराहना हुई |यह उनकी तीसरी फिल्म है जो साढ़े हुए निर्देशन के कारण उनके कैरियर का मील का पत्थर साबित होगी | यह फिल्म हरिंदर सिक्का के उपन्यास “कॉलिंग सहमत ” पर आधारित है | इसमें असल जिंदगी पर आधारित भारतीय जासूस की कहानी दर्शाने की कोशिश की गयी है | उपन्यास पर आधारित होने के बावजूद जिस तरह स्क्रीन प्ले व् एक के बाद एक घटनाएं लिखी गयीं हैं वो काबिले तारीफ़ है | इतनी घटनाओं को सिलसिलेवार कहानी के रूप में दर्शाने के लिए निश्चित तौर पर मेघना गुलज़ार ने काफी मशक्कत व् होम वर्क किया होगा | राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म                                    फिल्म की कहानी  भारतीय जासूस  ‘सहमत ‘ पर आधारित है | सहमत एक २० साल की कॉलेज स्टूडेंट हैं जो दिल्ली में पढ़ रही हैं | उसके पिता ‘ हिदायत खान ‘ भारतीय जासूस हैं | जिन्होंने अपनी पहुँच पाकिस्तान के ब्रिगेडियर जनरल तक बना ली है | भारत के जासूसी ट्रेनिग के हेड खालिद मीर उनके अच्छे दोस्त हैं |  ये समय १९७१ का है जब  आज के बांग्लादेश  में पूर्वी पाकिस्तान से अलग होने की लड़ाई शुरू हो गयी थी | हिदायत खान को  फेफड़े का ट्यूमर निकलता है पर उनके अन्दर देश भक्ति का इतना जज्बा है कि वो इस नाजुक समय में अपनी बेटी को पाकिस्तान भेज कर सूचनाएं भारत भिजवाना चाहते हैं | वो अपनी बेटी को बुलवा लेते हैं | पहले तो वो राजी नहीं होती | फिर उसे अहसास होता है  कि  देश के आगे कुछ नहीं खुद वो भी नहीं और वो इस काम के लिए राजी हो जाती है | उसकी  ट्रेनिंग होती है | एक मासूम बच्ची जो खून देख कर डरती थी देश के लिए जान देंने व् लेने को तैयार हो जाती है | एक योजना के तहत उसका निकाह पाकिस्तान के ब्रिगेडियर  जेनरल के बेटे इकबाल से कर दिया  जाता है | फिल्म क्योंकि जासूसी की है इसलिए इसमें कई जगह कोड वर्ड्स का खूबसूरत प्रयोग हुआ है | इसके अतरिक्त दर्शकों को जासूसी के  के बारे में काफी जानकारी मिलती है | बहु बन कर आई सहमत अपने मिशन में लग जाती है |  वो कुछ भी कर के सूचनाएं निकालती है और भारत भेजती है | पर यहीं से फिल्म का भावनात्मक पक्ष शुरू होता है | वो जिस घर में बहु बन कर आई है वहां पाकिस्तान आर्मी के तीन लोग हैं | उसके ससुर , जेठ व् पति |    वहां पर भी वही मानवीय संवेदनाएं हैं वही देशभक्ति का जज्बा है और वही भावनाओं से भरे रिश्ते हैं |भावनात्मक पक्ष इतनी मजबूती से प्रस्तुत किया गया है कि पाकिस्तानी हो या हिन्दुस्तानी किसी की भी तकलीफ से दर्शक  के  मुंह से बस आह निकलती है | उस समय वो सिर्फ और सिर्फ एक इंसान होता है | जब इकबाल  बंदूक तान कर कहता है ” देश के लिए कुछ भी “तो स्वाभाविक रूप से मानवीय संवेदनाएं उमड़ती है और दिल चीखने लगता है ” रोक लो , कोई इस युद्ध को रोक  लो ,युद्ध में कोई नहीं जीतता , दोनों हारते है , हम फिल्म में पॉप कॉर्न  खाते हुए भले ही अपने-अपने  देश के लिए नारे लगा लें पर क्या इससे सीमा और देश के लिए मरने वाले सैनिकों के जज्बे को सार्थक सलामी दे पाते हैं | क्या युद्ध किसी समस्या का निदान कर पाता है या बस दोनों तरफ रोते बिलखते परिवारों का जखीरा खड़ा  कर देता है | अभिनय की दृष्टि से आलिया भट्ट  ने बहुत प्रभावित किया है | उन्होंने एक बार फिर सिद्ध किया है की यूँ ही नहीं उन्हें आज की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री कहा जाता है | विक्की कौशल ने भी इकबाल का किरदार बहुत अच्छा निभाया है | अन्य कलाकारों ने भी अपने रोल के साथ न्याय किया है | फिल्म की शूटिंग मात्र ४९ दिनों में पूरी हो गयी थी | इसका बजट तीस करोंण का है |  बनते ही फिल्म बिक गयी थी | इसे कितना मुनाफा होगा ये अभी नहीं कहा जा सकता , पर इस फिल्म को बहुत अच्छी माउथ पब्लिसिटी मिल रही है जिससे भविष्य में इसके और मुनाफा कमाने की सम्भावना है | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……. कटघरे : हम सब हैं अपने कटघरों में कैद बहुत देर तक चुभते रहे कांच के शामियाने करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का आपको  समीक्षा   “लिव इन को आधार  बना सच्चे संबंधों की पड़ताल करता ” अँधेरे का मध्य बिंदु ““ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि … Read more

क्या आप हमेशा हमेशा रोते रहते हैं ?

किसी को दुःख हो तकलीफ हो तो कौन नहीं रोता है | अपना दर्द अपनों से बाँट लेने से बेहतर दवा तो कोई है ही नहीं, पर ये लेख उन लोगों के लिए है जो हमेशा रोते रहते हैं | मतलब ये वो लोग हैं जो  राई को पहाड़ बनाने की कला जानते हैं पर अफ़सोस शुरुआती सहानुभूति के बाद उनकी ये कला उन्ही के विरुद्ध खड़ी नज़र आती है |  ये वो लोग हैं जिनको जरा सी भी तकलीफ होगी तो ये उसको ऐसे बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करेंगे जैसे दुनिया में इससे बड़ी कोई तकलीफ है ही नहीं | कई बार तो आप महसूस करेंगे कि आप के 104 डिग्री बुखार के आगे उनका 99 डिग्री  बाजी मार ले जाएगा | लेकिन अगर आप या आप का कोई प्रिय इस आदत से ग्रस्त है तो अभी भी मौका है … सुधर जाइए |   उनके लिए जो हमेशा  रोते रहते हैं ?  आइये सबसे पहले मिलते है राधा मौसी सी | यूँ तो वो किसी की मौसी नहीं है पर हम सब लाड में उन्हें मौसी कहते हैं |एक बार की बात है राधा मौसी अपनी सहेली के घर मिलने गयीं | सहेली के घर वो जितनी देर बैठी रहीं उन्हें एक कुत्ते के रोने की आवाज़ आती रही | उन्होंने अपनी सहेली से कहा | पर वो ऊँचा सुनती थी इसलिए उसने उन्होंने  कहा कि उसे तो सुनाई नहीं दे रहा है | राधा मौसी बहुत परेशान हो गयीं | उसके दो कारण थे एक तो कुत्तों का रोना अपशकुन माना जाता है | दूसरे वो कुत्तों से बहुत प्यार करती थीं | हालांकि उन्होंने कुत्ते पाले नहीं थे पर गली के कुत्तों को वो रोज दूध रोटी खिलाती |  गली के सब कुत्ते भी उनसे हिल मिल गए थे | मनुष्य और जानवर का रिश्ता कितनी जल्दी सहज बन जाता है  मुहल्ले वालों के लिए इसका उदाहरन राधा मौसी बन गयीं थीं |  खैर राधा मौसी को इस तरह वहां बैठ कर लगातार कुत्ते के रोने की आवाज़ सुनना गवारां  नहीं हो रहा था | राधा मौसी ने सहेली से विदा ली और आवाज़ की दिशा में आगे बढ़ ली | आवाज़ का पीछा करते –करते वो  एक घर में पहुंची | घर की बालकनी में एक महिला चावल बीन रही  थी | वहीँ एक कुत्ता उल्टा लेटा  रो रहा था | राधा मौसी ने उस महिला से कहा , “ क्या ये आप का कुत्ता है ? महिला ने हाँ में सर हिलाया | राधा मौसी ने फिर पुछा ये क्यों रो रहा है ? महिला ने लापरवाही दिखाते हुए कहा , “ कोई ख़ास बात नहीं है , इसकी तो आदत है , ये तो रोता ही रहता है | राधा मौसी को ये बात बहुत अजीब लगी | उन्होंने कुत्ते  को देखा | वो अभी भी रो रहा था | उसके रोने में दर्द था | राधा मौसी से रहा नहीं गया उन्होंने फिर कहा , “ ये ऐसे ही नहीं रो रहा , देखिये तो जरूर कोई बात है | वो महिला बोली , “ जी , दरअसल इसकी पीठ में जमीन पर पड़ी एक छोटी सी कील चुभ रही है | अब तो राधा मौसी का हाल बेहाल हो गया | उन्होंने उस महिला  को सुनाना शुरू कर दिया , “ कैसी मालकिन है आप , आप के कुत्ते के कील चुभ रही है और आप मजे से चावल चुन रहीं हैं , आप देखती नहीं कि आपके कुत्ते को दर्द हो रहा है |  महिला चावल बीनना रोक कर उनकी तरफ देख कर इत्मीनान से बोली , ” अभी इसे इतना दर्द नहीं हो रहा है |  अब चुप रहने की बारी राधा मौसी की थी |  मित्रों , ये कहानी सिर्फ राधा मौसी और उस महिला की नहीं है | ये कहानी हम सब की है | इस कहानी के दो मुख्य भाग हैं …. 1) अरे ये तो रोता ही रहता है | 2) अभी दर्द इतना नहीं हो रहा है |                           हम इनकी एक-एक करके विवेचना करेंगे |  अरे ,ये तो रोता ही रहता है                           बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो हर समय अपना रोना रोते रहते हैं |  सुख और दुःख जीवन के दो हिस्से हैं |  हम सब के जीवन में ये आते रहते हैं | पर कुछ लोग  केवल अपने दुखो का ही रोना रोते रहते हैं | ऐसे लोग सिम्पैथी सीकर होते हैं | उनके पास हमेशा एक कारण होता है कि वो आप से सहानभूति ले | उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि अगले के जीवन में इस समय क्या दुःख चल रहा है |  श्रीमती शर्मा जी को ही लें | कॉलोनी में सब उन्हें महा दुखी कहते हैं |  क्योंकि वो हर छोटी से छोटी घटना से बहुत परेशान हो जाती हैं और हर आने जाने से उसकी शिकायत करने लगती हैं | श्रीमती गुप्ता हॉस्पिटल में एडमिट  थीं | हम सब का उनको देखने जाने वाले थे | श्रीमती शर्मा से भी पूंछा , उनके पैरों में दर्द था , मसल पुल हो गयी थी | उन्होंने कहा,  “आप लोग जाइए मैं थोड़ी देर में आउंगी” |  उन्होंने श्रीमती गुप्ता की बीमारी का कारन भी नहीं पूंछा | हम सब जब वहां थे , तभी वो हॉस्पिटल आयीं और लगीं अपने पैर की तकलीफ का रोना रोने | इतना दर्द , उतना दर्द , ये दवाई वो दवाई आदि -आदि | काफी देर चर्चा करने के बाद उन्होंने पूंछा ,  ” वैसे आपको हुआ क्या है ? श्रीमती गुप्ता ने मुस्कुरा कर  कहा , ” मुझे नहीं पता था आप इतनी तकलीफ में हैं , मुझे तो बस कैंसर हुआ है  |                   इस जवाब को सुन कर आप भले ही हंस लें पर आप को कई ऐसे चेहरे जरूर याद आ गए होंगे जो  हमेशा अपना रोना रोते रहते हैं | ऐसे लोगों से ज्यादा देर बात करने वालों को महसूस होता है कि उनकी … Read more