आप पढेंगे न पापा
पिता होते हैं अन्तरिक्ष की तरह….. जो व्यक्तित्व को विस्तार देते हैं , जहाँ माँ सींचती है प्रेम से और संतान में में भारती है दया क्षमा प्रेम के गुण वहीँ पिता देते हैं जीवन को दृढ़ता …आज भले ही मेरे पिता स्थूल रूप में मेरे पास नहीं हैं पर अपने विचारों के माध्यम से मेरे पास हैं…. आप पढेंगे न पापा नन्हे -नन्हे पाँव जब लडखड़ा कर रखे थे धरती पर तब आप ने ही थाम लिया थासिखाया था चलना दिया था हौसला चट्टानों से टकराने का कूट -कूट कर भरी थी आशावादिता ,आत्मविश्वास सिखाई थी जीवन की हर ऊँच -नीच पर पापा ये क्यों नहीं सिखाया की जब चला जाता है कोई अपना यूही बीच डगर में छोड़ कर कैसे रोकते हैं आंसुओं का सैलाब कैसे बंद करते हैं यादों को किसी बक्से में कैसे जुड़ते हैं टूट कर हो कर आधे -अधूरे जीते हैं महज जीवन चलाने के लिए ……….. तुम चिंता क्यों करती हो , बच्चों को माता –पिता के होते चिंता नहीं करनी चाहिए , हम हैं न देख लेंगे सब , “ पिताजी का एक वाक्य किसी तेज हवा के झोंके की तरह न जाने कैसे मेरी सारी चिंताएं पल भर में उड़ा के ले जाता | धीरे –धीरे आदत सी पड़ गयी , पिताजी हैं न सब देख लेंगें | लेकिन वक्त की आँधी जो पिताजी के वायदे से भी ज्यादा तेज थी सब कुछ तहस -नहस कर गयी | मैंने तो अभी चिंता करना सीखा ही नहीं था | पिताजी हैं न सब देख लेंगे के आवरण तले मैं मैं कितनी महफूज थी , इसका पता तब चला जब ये आवरण हट गया | मेरा ह्रदय भले ही चीख रहा हो , पर मैं ये आसमानी वार झेलने को विवश थी , दिमाग कितना कुछ भी समझता रहे ,पर मन इतना समझदार नहीं होता ये झटका मन नहीं झेल पाया , गहरे अवसाद में खींच ले गया | जीवन से विरक्ति सी हो गयी थी | मुझे इस गहन वेदना से निकलने में तीन –चार वर्ष लगे | आज पितृ दिवस पर एक स्मृति साझा करना चाहती हूँ | यह स्मृति मेरे लेखन से ही सम्बंधित है | बात तब की है जब मैं कक्षा जब कक्षा चार में थी और मैंने पहली कविता लिखी थी , सबसे पहले दौड़ कर पिताजी को ही दिखाई थी क्योंकि उस समय घर में पिताजी ही साहित्यिक रूचि रखते थे |कविता पढ़ कर पिताजी की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था | हर आये गए को दिखाते , देखो इत्ती सी है और इतना बढ़िया लिखा है | फिर मुझसे लाड़ से कहते “ तुम लिखा करो|” पर मैं बाल सुलभ उनकी बात हंसी में उड़ा देती | लिखती पर निजी डायरियों में, और पिताजी उनको खोज –खोज कर पढ़ते | उस पर बात करते , कभी प्रशंसा करते , कभी सलाह देते | जब तक वो जीवित रहे ,वो कहते रहे और मैं, “कभी लिखूंगी” सोच कर टालती रही | घर –परिवार ससुराल की तमाम जिम्मेदारियों व् कुछ अन्य कारणों को निभाने के बीच पिताजी की ये इच्छा टलती ही रही | कल कर देंगे , कहते हुए हम सब यह समझने की भूल कर जाते हैं कि हमारे अपने सदा के लिए हमारे साथ होंगे , हर रात नींद के आगोश में जाते हुए हम कहाँ सोच पाते हैं कि कुछ रातों की सुबह नहीं होती है | आश्चर्य कि लोग चले जाते है पर यक्ष प्रश्न जीवित रहता है सदा , सर्वदा …..और पीछे छोड़ देता है एक अंतहीन सूनापन | ऐसे ही पिताजी के उस लोक जाने के बाद जब रिक्तता का एक आकाश मेंरे ह्रदय में उतर गया तो खुद को सँभालने के लिए कलम खुद ब खुद चल पड़ी | सैंकड़ों कवितायें लिखी पिताजी पर …. आज भी वो कविताएं , मेरे दर्द का लेखा –जोखा मेरी निजी सम्पत्ति है | शायद पिताजी की इच्छा ही थी कि वो सब लिखते –लिखते मैं सार्वजानिक लेखन में बिना किसी पूर्व योजना के आ गयी और पिताजी के आशीर्वाद से शुरुआत से ही आप सभी पाठकों ने मेरे लेखन को स्नेह दिया | एक बात जो मैं आज आप सब से साझा करना चाहती हूँ कि शुरू शरू में जब भी कोई कविता फेसबुक पर डालती तो आंसू थमने का नाम नहीं लेते , एक हुक सी मन में भरती , “ काश पिताजी देख पाते” |परिवार के लोग समझाते वो जहाँ हैं वहां से देख रहे होंगे “| सही या गलत पर धीरे -धीरे मैं ऐसा समझने की कोशिश करने लगी जिससे यह मलहम मेरे घावों की जलन कुछ कम कर सके | फिर भी ये ” काश ” बीच -बीच में फन उठा कर डसता रहता है | यादों का पिटारा खुल चुका है … ख़ुशी और गम दोनों ही स्मृतियाँ दर्द दे रही है .. प्रवाह रोकना मुश्किल है | आज इतना ही , पर अभी बहुत लिखना है …बहुत … आप जहाँ हैं वहां से पढेंगे न पापा …. बताइये … पढेंगे ना | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … पिता को याद करते हुए अपने पापा की गुडिया वो 22 दिन लघु कथा -याद पापा की आपको लेख “ आप पढेंगे न पापा .. “ कैसा लगा | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs